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यह गली बिकाऊ नहीं/11

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ ७६ से – ८३ तक

 

ग्यारह


मंच पर मुत्तुकुमरन् का इस तरह पेश आना, गोपाल को कतई पसंद नहीं आया। उसे दिल-ही-दिल में यह डर काटने लगा कि पिनांग के अब्दुल्ला के दिल को चोट पहुँची तो मलेशिया की यात्रा और नाटक के आयोजन में बाधा पड़ेगी। नाटक के अंतिम दृश्य में अभिनय करते हुए भी वह इन विचारों और चिताओं से मुक्त नहीं हो पाया।

नाटक के अंतिम दृश्य को देखकर दर्शक कुछ ऐसे गद्गद हो गये कि परदा गिरने के बहुत देर बाद भी तालियों की गड़गड़ाहट नहीं रुकी। मंत्री महोदय विदा होते हुए गोपाल और मुत्तुकुमरन की प्रशंसा कर गये। अब्दुल्ला भी दाद देता हुए विदा हुए। गोपाल ने दूसरे दिन रात को अपने घर में भोज के लिए उन्हें आमंत्रित किया।

मंच पर पहनायी गयी गुलाब की माला के बिखरने की तरह भीड़ भी वहाँ से धीरे-धीरे छंट गयी।

कार्यक्रम के समाप्त होने पर कितने ही लोग गोपाल की प्रशंसा करने और हाथ मिलाकर विदा होने को आये। खिलते चेहरे से गोपाल जन सबसे विदा लेकर चल पड़ा! कार में घर चलते हुए उसने माधवी और मुत्तुकुमरन् से अपती मनोव्यथा सुनायी--

"दूसरों का दिल दुखाने के लिए बोलना कभी अच्छा नहीं। अब्दुल्ला को हमने यहाँ एक बड़े काम की आशा में बुलवाया था। मुझे डर है कि उनके दिल को चोट पहुँचे तो हमारा काम बिगड़ जायेगा।" उसकी बातों का किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल ने स्वयं अपनी बात जारी रखी, "मंच पर मर्यादा निभाना या संयम वरतना कोई बुरा काम नहीं है !"

मुत्तुकुमरन् अपना संयम खो बैठा और चुटकी लेते हुए बोला, "जो कमजोर होते हैं उनकी रगो में खून नहीं बहता, भय दौड़ता है।"

गोपाल के गालों पर मानो थप्पड़ पड़ी। माधवी ने यह सोचकर चुप्पी साधी कि दोनों में किसी भी एक का पक्ष लेने पर दूसरे का कोप-भाजन बनना पड़ेगा। कार के बंगले में पहुँचने तक गोपाल के क्रोध का पारा भी कुछ ऐसा चढ़ा हुआ था कि उसका मौन टूटा ही नहीं। मुत्तकुमरन ने उसकी जरा भी परवाह नहीं की।

रात को खाते समय भी कोई किसी से अधिक नहीं बोला । खा चुकने के बाद माधवी घर को चल पड़ी । मुत्तुकुमरन् ने भी आउट हाउस में जाकर बत्ती बुझायो और बिस्तर पर लेट गया। दस मिनट के अंदर टेलिफोन की घंटी बजी । नायर छोकरे ने बताया, "बाबूजी पूछ रहे हैं कि ज़रा यहाँ आ सकेंगे?"

"उनसे कहो कि नींद आ रही है। सवेरे मिलेंगे !" कहकर मुत्तुकुमरन ने टेलिफोन रखा। थोड़ी देर में टेलिफ़ोन की घंटी फिर से बज उठी । उठाया तो माधवी बोली, "न जाने दूसरों को मूली-गाजर समझते हुए मजाक उड़ाने में आपको कौन-सा मजा आता है ? नाहक दूसरों का दिल दुखाने से क्या फायदा?".

"तुम मुझे अकल सिखा रही हो?"

"नहीं-नहीं ! ऐसी बात नहीं। आप अगर वैसा समझें तो मुझे बड़ा अफसोस होगा !"

"हो तो हो ! उससे क्या ?"

"मेरा दिल दुखाने में ही आपको चैन मिलता हो तो खुशी से दुखाइए।"

"बात बढ़ाओ मत । मुझे नींद आ रही है !"

"मैं बोलती रहूँ तो शायद आपको नींद आ जायेगी !"

"हाँ, तुम्हारी बोली मेरे लिए लोरी है ! सबेरे इधर आओ न !"

"अच्छा, आऊँगी!"

मुत्तुकुमरन् ने फोन रख दिया। पहले दिन के स्टेज-रिहर्सल में बड़ी देर हो जाने और अधिक जागरण की वजह से मुत्तुकुमरन् को सचमुच बड़ी नींद आ रही थी। लेटते ही वह ऐसी गहरी नींद सो गया कि सपने भी उसकी नींद में दखल देते हुए डर गये। सवेरे उठते ही उसे गोपाल का ही मुंह देखना पड़ा। गोपाल हँसता हुआ बड़ी आत्मीयता से बात कर रहा था, मानो पिछली रात कुछ हुआ ही न था। बह बता रहा था-

"आज सवेरे उठने के पहले चार-पाँच सभाओं के सचिवों और अधिकारियों ने फोन किया था । एक ही दिन में हमारे नाटक की बड़ी माँग हो गयी है !"

"अच्छा !" मुत्तुकुमरन के मुख से इस एक शब्द को छोड़कर कुछ नहीं निकला।
गोपाल के इस असमंजस को मुत्तुकुमरन् अच्छी तरह देख पा रहा था । गोपाल एक ओर उसपर गुस्सा उतारने की तैयारी कर रहा था और इस कोशिश में हारकर दूसरी ओर उसी की शरण में आ रहा था।

"अगले दो हफ्तों में हमें मलेशिया जाना होगा। अपनी नाटक-मंडली के साथ जाकर एक महीना वहाँ नाटक खेलना है तो बहुत-सारा प्रबंध करना पड़ेगा । काम अभी से शुरू करें, तभी पूरा हो सकता है !" गोपाल ने ही बात आगे बढ़ायी।

"हाँ, बुलाने पर जाना ही है !" अव भी मुत्तुकुमरन् के मुख से नपा-तुला उत्तर ही मिला।

सुनकर गोपाल के मन में न जाने क्या हुआ ! बोला, "मैं डर रहा था कि तुम्हारी बातों का अब्दुल्ला बुरा मान गये तो क्या हो ? भला हुआ कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। पर अब ऐसा लगता है कि मेरी बातों से तुम्हारे दिल को चोट पहुँची हैं।

"•••••"

कुछ बुरा तो नहीं कहा !"

"मैंने तो कल ही कह दिया न कि कमजोर लोगों की रगों में खून नहीं, भय दौड़ता है ।"

"कोई बात नहीं ! तुम मुझे कायर कहो, डरपोक कह लो, मैं मान लेता हूँ।"

"मैंने तुम्हें या और किसी को बुरा नहीं कहा ! दुनिया की रीति की बात ही दुहरायी, बस !"

"छोड़ो, उन बातों को ! तुम्हें भी मलेशिया चलना चाहिए ! माधवी, तुम और मैं-तीनों हवाई जहाज से चलेंगे। बाकी लोग समुद्री जहाज़ से चले जायेंगे। सीन-सेट वगैरह को भी जहाज से भेज देना पड़ेगा।"

"मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा? तुम लोग तो अभिनेता हो। तुम लोगों के न जाने से नाटक ही नहीं चलेगा। मेरे जाने से किसे क्या लाभ होगा?" मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"ऐसा न कहो ! तुम्हें भी ज़रूर जाना चाहिए। कल ही पासपोर्ट के लिए. अर्जी दे देने का प्रबंध कर दूंगा। आज रात अब्दुल्ला को अपने यहाँ दावत पर बुलाया है। बात पक्की हो गयी तो यह समझो, सारा काम बन गया !"

"हाँ-हाँ ! किसी तरह काम बन जाये तो ठीक !"

"इस तरह उखड़ी बातें करोगे तो कैसे काम चलेगा ? सबमें तुम भी हो !"

'मुत्तुकुमरन ने देखा कि सहसा गोपाल में सबको अपने साथ कर लेने की भावना बढ़ी है। किसी काम की आशा में इस प्रकार की कृत्रिमता बरतने, दावत देने आदि बातों से मुत्तुकुमरन् को चिढ़ थी।

ऐसी बातों में मुत्तुकुमरन को मनोभावना क्या होगी? गोपाल भी अच्छी तरह यूछा।
से जानता था। फिर थोड़ी देर इधर-उधर की बातें कर गोपाल चला गया ।

उसके जाने के थोड़ी देर बाद माधवी आ पहुँची। उसने भी आते ही पिनांग के अब्दुल्ला ही की बात उठायी। दावत की बात कही और यह भी कहा कि वे बड़े भारी रईस हैं। 'करोड़पति है।

"दस-पन्द्रह साल पहले दो गायक या दो नाटकवाले आपस में मिलते थे तो अपनी-अपनी कला की बातें किया करते थे, पर अब बात यह होती है कि किसे दावत देने से किसका काम कैसे बनेगा?---इसी पर विचार-विमर्श हो रहा है । कला की दुनिया सड़ गयी है-इराका सबूत इससे बढ़कर और क्या चाहिए ?"

"क्या आप यह समझते हैं कि उस सड़ी हुई चीज़ को आप अकेले में सुधार सकते हैं ?"

"कतई नहीं । दुनिया को सुधारने के लिए मैंने अवतार नहीं लिया। लेकिन दो पुश्तों को एक साथ देखकर विचार कर रहा हूँ । राजाधिराजों को अपने द्वार पर आकर्षित करने वाले वे पुराने गंभीर कलाकारों और मंत्रियों और 'नाम बड़े पर दर्शन छोटे' वाले व्यक्तियों के दरवाजोंपर मारे-मारे फिरने वाले आज के बौने कलाकारों में मुक़ाबला कहाँ ? तुलना कर देखता हूँ तो दिल को ठेस पहुंचती है, माधवी !"

"यह सब कहते-कहते मुत्तुकुमरन् भाव-विभोर हो गया तो माधवी की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे ? थोड़ी देर के मौन के बाद बात पलटती हुई बोली, "नाटक लोगों को बहुत भा गया है । सभी बड़ी प्रशंसा कर रहे हैं ! सभा वालों में 'डेट' के लिए होड़-सी लग गयी है। सब आपकी क़लम का कमाल है !"

"तुम्हारा अभिनय भी कहाँ कुछ कम था? मुझे चापलूसी की बातें ज़्यादा पसंद नहीं। तुमने प्रसंग छेड़ दिया तो मुझे भी बराबर होकर तुम्हारे कदम पर चलना पड़ रहा !"

"अच्छी बात को अच्छा कहना क्या कोई गलत काम है ?"

"आजकल तो लोग बुरी-से बुरी चीज़ को ही अच्छी-से-अच्छी चीज्र साबित करने की कोशिश क्या, उसे साबित ही कर देते हैं ! इसलिए सचमुच की अच्छी चीज़ों के विषय में मुँह पर लगाम लगानी पड़ रही है !"

- "लगानी पड़े तो पड़े । पर मैं तो आपकी तारीफ़ सुनकर अवाती नहीं । मेरा जी चाहता है कि चौबीसों घंटे मेरे सामने कोई आपकी तारीफ़ करता रहे !" माधवी उसके पास ऐसी खड़ी थी, मानो पूर्ण यौवना मदालसा ही साकार खड़ी हो । उसकी आँखों की चमक और होंठों की नमी में मुत्तुकुमरन् मानो नहा ही गया। उसकी देह पर लगी पाउडर की महक, उसके केशों पर लगे तेल की भीनी खुशबू और उसके बालों में गुंथे बेले की सुगंध; नासारंध्र से प्रवेश कर उसकी नस-नस में फैल गयीं । सुमधुर संगीत की तरह उसकी सुंदरता ने उसे बाँध लिया । फिर क्या
था? मुत्तुकुमरन् ने उसे अपने आलिंगन में बाँध लिया। माधवी भी माधवी लता की तरह उससे लिपट गयी । उसके कानों में अपने फूल-से होंठ से जाकर वह गद्गद् कंठ से बोली, "ऐसे ही रह जाने को जी चाहता है !"

"ऐसे ही रह जाने का जी करने से ही आदिम नर-नारी के बीच संसार का सृजन हुआ ।"

उसकी बांहें माला बनकर पीठ को लपेटती हुई मुत्तुकुमरन् के मजबूत कंधों पर आ रुकी और कसने लगी।

इसी समय थोड़ी दूर पर बंगले से आउट हाउस को आनेवाली वीथी पर किसी के जूतों की चरमर सुनायी दी।

"हाय, हाय ! लगता है कि गोपाल जी आ रहे हैं। छोडिए, छोड़िए !"

माधवी घबराकर अपने को छुड़ाने लगी। मुत्तुकुमरन् को यह नहीं भाया । उसकी आँखें लाल हो गयीं। माधवी को घूरकर देखते हुए उसपर अपना गुस्सा उतारा।

"कल रात को नाटक से लौटते हुए मैंने गोपाल से जो कुछ कहा था-

उसीको तुम्हारे सामने भी दुहराता हूँ कि कमजोर की रंगों में खून नहीं, भय का भूत दोड़ता है।"

गोपाल यह सुनते हुए अंदर आया और बोला, "कल रात से ही कविता की भाषा में कोस रहे हो, गुरु !"

माधवी ने झट से सँभलकर, होंठों पर स्वाभाविक हँसी लाकर गोपाल का स्वागत किया।

"माधवी ! तुम्हारी तस्वीरों को दो प्रतियाँ चाहिए; 'पासपोर्ट' के 'आवेदन' के लिए। सोच रहा हूँ, कल ही सारे आवेदन भेज दूं ! मुत्तुकुमरन् साहब को भी फोटो स्टूडियो में जाकर फोटो खिंचवाना चाहिए। दोपहर तक तुम्हीं ले जाकर 'फोटो का इंतजाम कर दो। दिन बहुत कम हैं !" गोपाल ने कहा ।

"कहाँ ? पांडि बाजार के सनलाइट स्टूडियो में ही ले जाऊँ न?"

"हाँ-हाँ ! वही ले जाओ । वहीं जल्दी तैयार कर देगा !"

माधवी और गोपाल के बीच की इन बातों में मुतुकुमरन् शामिल नहीं हुआ। थोड़ी देर बाद गोपाल वहाँ से चलने लगा तो द्वार तक जाकर मुड़ा और आँखें 'मारकर बोला, "माधवी ! एक मिनट ।" उसे इस तरह आँखें मारते देखकर मुत्तुकुमरन का दिल कचोटने लगा।

माधवी की दशा साँप-छछूंदर की-सी हो गयी। जाये या न जाये । इस असमंजस में पड़कर गोपाल और मुत्तुकुमरन् को बारी-बारी से देखने लगी। गोपाल ने ज़ोर से उसका नाम लिया और ड्योढ़ी फलौंग गया । माधवी को जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं दीखा। मुत्तुकुमरन् की आँखों में उत्तर आयी
नफ़रत का सामना करने का वह साहस नहीं कर सकी ! गोपाल उसे वहीं नहीं छोड़कर बँगले तक ले गया।

गोपाल के आँखें मटकाकर बुलाने और उसके । उसके साथ बंगले तक जाने की बात पर मुत्तुकुमरन् के दिल में कैसे-कैसे विचार आयेंगे? इस विचार ने माधवी को धर दबोचा। गोपाल की बातों पर उसका ध्यान नहीं जमा !

"सुना है, पिनांग के अब्दुल्ला तबीयत के बड़े शौकीन आदमी हैं । उनका तुम्हें खयाल रखना होगा। होटल 'ओशियानिक' से उन्हें बुला लाने का भी काम तुम्हीं को सौंपनेवाला हूँ !"

"........."

"यह क्या ? मैं कहता जा रहा हूँ और तुम अनसुनी करती जा रही हो?"

"नहीं तो ! मैं आपकी बात सुन ही रही हूँ। होटल ओशियानिक से अब्दुल्ला को बुला लाना है और..."

"और क्या ? उनकी खुशी का ख्याल भी रखना । तुम्हें सुरगे की तरह पढ़ाने की ज़रूरत नहीं है। तुम खुद समझदार हो।"

"........."

"दावत में किन-किनको बुलाया है---उनकी लिस्ट सेक्रेटरी के पास है । उसे लेकर देखो और अपनी जुबानी सबको 'रिमाइंड' कर दो तो बड़ा अच्छा रहेगा !"

दुबारा आँखें मटकाकर गोपाल ने उसकी पीठ पर थपकी दी। माघबी ने आज तक किसी मर्द के इस तरह थपकी देने पर शील-संकोच का अनुभव नहीं किया था। पर आज वह लज्जा से गड़-सी गयी । गोपाल के कर-स्पर्श से उसे उबकाई होने लगी। मुत्तुकुमरन् ने उसे इस हद तक बदल दिया था।

गोपाल ने पाया कि पीठ पर थपकी देते हुए या आँखें मटकाकर बातें करते हुए उसमें जो उत्साह भरता था और सिहरन-सी दौड़ती थी, उसका कोई नामो- निशान तक नहीं। उसने पूछा भी, "आज उखड़ी-उखड़ी-सी क्यों हो?"

"नहीं, मैं तो हमेशा की तरह वैसी ही हूँ।" माधवी हँसने का उपक्रम करने लगी।

"अच्छा, मैं स्टूडियो जा रहा हूँ ! मेरी बातों का ख्याल रखना !" कहकर गोपाल चला गया।

माधवी के मन में एक छोटा-मोटा युद्ध ही छिड़ गया । पिनांग के अब्दुल्ला को गोपाल ने रात की दावत के लिए ही बुलाया था। उन्हें लिवा लाने के लिए शाम को सात बजे के करीब जाना काफ़ी था। लेकिन गोपाल के बात करने के ढंग से यह ध्वनि निकल रही थी कि पहले ही जाकर उनसे हँसी-खुशीभरी चुहल करती रहो और उसे लिवा लाओ।

माधवी के मन में, इस लमहों में वे सारी पुरानी स्मृतियाँ उभर आयीं, जब
कभी भी गोपाल ने आँखें मटकाकर, 'एक मिनट इधर आओ' कहकर बुलाया है और इसी प्रकार का काम सौंपा है। वहाँ जाकर उसने क्या-क्या नहीं किया ! ओह !

उन्हें दुबारा सोचते हुए उसे संकोच हो रहा था और वह शरम से गड़ी जा रही थी । मुत्तुकुमरन् जैसा, कला-गर्व में फूला रहनेवाला गंभीर नायक उसके जीवन में नहीं आया होता तो उसे आज भी ऐसा शील-संकोच नहीं हुआ होता । दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जिनके संपर्क में आने पर उसके पहले के जीवन के बेहूदा तरीकों को याद करते हुए संकोच महसूस होता है। याद आये तो चुल्लू भर पानी में मरने को जी करता है । माधवी और मुत्तुकुमरन् का संपर्क ऐसा ही था।

गोपाल की बातों में जो ध्वनि थी, उसके अनुसार तो माधवी को उसी समय होटल जाकर अब्दुल्ला से मिलना होता। शाम को सात बजे तक उसके साथ रहकर लिवा लाना होता । लेकिन माधवी ने उस दिन ऐसा नहीं किया। वह सीधे मुत्तुकुमरन के सामने जा खड़ी हुई । लेकिन उसकी आँखें उसपर अंगार उगलने लगीं । आवाज़ में बिजली कड़क उठी--

"क्या हो आयी ? उसने आँखें मारकर बुलाया था न !"

"न जाने, मैंने क्या पाप किया कि आप भी मुझ पर नाराज होते हैं।"

"उसका इस तरह आँखें मटकाने का तरीका मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है।"

"तो मैं क्या करूँ?"

"क्या करूँ, पूछती हो ? पालतू कुतिया बनकर उसके पीछे-पीछे भागती रहो, इससे बढ़कर और करने को क्या रखा है ?"

"गालियाँ दीजिए, खूब गालियाँ दीजिए ! मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मैं सब कुछ सुनने को तैयार हूँ, सहने को तैयार हूँ-कुतिया-चुडैल "मान-मर्यादा ही न हो तो सब कुछ सुना जा सकता है, संहा जा सकता है। कुछ असर नहीं पड़ता।"

"आपके संपर्क में आने पर मैं बहुत कुछ बदल चुकी हूँ। जब आप ही दोष थोपेंगे तो मैं क्या करूँगी भला ! डूब मरूं कहीं ?"

"पहले मेरी बातों का जवाब दो ! उस धूर्त ने तुम्हें बुलाया क्यों ?"

"बात कुछ नहीं ! अब्दुल्ला को दावत के लिए बुला लाना है !"

"जाना किसे है ?"

"और किसे ? मुझी को !"

"तुम क्यों जाओगी? वही जाये ! या फिर वह अपने सेक्रेटरी-वेक्रेटरी को भेजकर बुला ले !"

"जब मुझे बुलाकर कहा है तब ! मैं ना कैसे कह दूँ ?"

"हाँ, नहीं कह सकती ! इसीलिए मैं कल से रट लगा रहा हूँ कि कमजोर की रगों में खून नहीं, भय ही दौड़ता है•••"

"कला के हर क्षेत्र में आज व्यापार की बाज़ारी मिलावट आ गयी है । अब इसे सुधारा नहीं जा सकता । जैसे लोग अकालग्रस्त बेची न जानेवाली चीजें भी बेचकर पेट भरते हैं, वैसे ही आज के कलाकार किसी भी हालत में न खोई जानेवाली चीजें गँवाकर अपने वौने अस्तित्व को बचाने के लिए पैसे के पीछे मारे- 'मारे फिर रहे हैं। मैं मद्रास में ऐसे ही कलाकारों को देख रहा हूँ, जिनमें अपनी कला को लेकर गर्व अनुभव करने की तनिक भी मनोदृढ़ता बाक़ी नहीं रह गयी है। यह इस युग की महामारी ही है।"

"आपकी इन बातों को सुनने के लिए काश, मैं दस साल पहले आपसे मिली होती !" कहते-कहते माधवी का स्वर भर गया। मुत्तुकुमरन् उसके पश्चात्ताप से प्रभावित हुआ। उसके संताप से उसका दिल पिघल गया । बात करने को कोई 'सिरा नहीं मिला तो वह कुछ देर तक टकटकी लगाये उसे देखता रह गया।

माधवी ने उसका मौन तोड़कर पूछा, "कहिए, अब मैं क्या करूँ ?"

"मुझसे क्यों पूछती हो?"

"आपको छोड़कर और किससे पूछू ? उन्होंने जैसा कहा, मैं अब्दुल्ला से मिलने अभी नहीं जाऊँगी । अगर गयी भी तो शाम को जाऊँगी । और मैं अकेली नहीं, आप को भी साथ लेकर जाऊँगी."

"मुझे ? मुझे क्यों ?"

"मेरे साथ आप नहीं जायेंगे तो और कौन जाएगा .?" -यह वाक्य सुनकर मुत्तुकुमरन् का तन-मन पुलकित हो उठा।