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यह गली बिकाऊ नहीं/12

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ ८३ से – ८८ तक

 

बारह
 


मुत्तुकुमरन् ने महसूस किया कि नारी की सुकुमारता अपने प्रेम प्रदर्शन में विलक्षणता और चातुरी लाने से चमक उठती है। 'मेरे साथ भाप नहीं जायेंगे तो और कौन जाएगा..?' इस वाक्य ने उसपर जादू-सा कर दिया ! उसमें कैसी आत्मीयता टपकती थी? 'उसके साथ चलने और उसका साथ देने को उसे छोड़- कर दूसरा कोई व्यक्ति योग्य नहीं है' यह आशा उसमें कहाँ से बँधी ? यह भरोसा कहाँ से पैदा हुआ ? जहाँ यह सोचकर वह आत्म-विभोर हुआ वहाँ यह विचार करते हुए उसे यह हैरानी भी हुई कि मैं कौन हूँ कि उसपर, बेतरह अपना गुस्सा उतारूँ? उसका-मेरा परिचय कितने दिनों का है ? उसके अधिकारों पर अधिकार जमाने का, उसे अपने इशारों पर नाचने का, या ढीला छोड़कर तमाशा देखने का अधिकार मुझे कहाँ से मिला और कैसे मिला? .. यह सोचते-सोचते वह इस नतीजे पर पहुँचा कि अनन्य प्रेम की कोई डोर दोनों को गठबंधन में बाँध रही है, बल्कि बाँध चुकी है।

शाम को अब्दुल्ला को बुलाने जाने के पहले माधवी ने मुत्तुकुमरन को स्टूडियो हो आने के लिए बुलाया।

"मुझे तो मलेशिया नहीं जाना । फिर फोटो खिंचवाने की क्या जरूरत है ?" मुत्तुकुमरन ने कहा।

"आप नहीं चलेंगे तो मैं भी नहीं जाती!" माधवी ने कहा। "तुम तो नाटक की कथा-नायिका हो । तुम न जाओगी तो नाटक  नहीं चलेगा! इसलिए. तुम्हें जाना ही पड़ेगा!" मुत्तुकुमरल् ने हँसते हुए उसकी बातों का विरोध किया।

'कथानायक ही जब नहीं जा रहा तो कथानायिका के जाने से क्या फायदा?"

"गोपाल तो जा रहा है न?"

"मैं अब गोपाल की बात नहीं करती ! अपने कथानायक की बात करती हूँ।"

"वह कौन है ?"

"समझकर भी नासमझ बननेवालों को कैसे समझाया जाये ?"

माधवी की इस आल्मीयता पर वह फिर न्योछावर हो गया। थोड़ी देर बाद माधवी ने स्टूडियो जाने के लिए बुलाया तो उसने कोई आपत्ति नहीं की। स्टूडियो जाकर पासपोर्ट' के लिए फोटो खींचने के बाद दोनों ने एक साथ मिलकर एक फोटो खिंचवाया। शाम को अब्दुल्ला को लाने के लिए 'ओशियानिक' जाते हुए माधवी अकेली नहीं चली। उसकी मानसिकता से परिचित होने के लिए मुत्तुकुमरन् को भी साथ लेकर कार में रवाना हुई।

इधर इनकी कार फाटक के बाहर हो रही थी और उधर गोपाल की कार बँगले में घुस रही थी। गोपाल को यह समझते देर नहीं लगी कि माधवी अभी अब्दुल्ला को लाने के लिए जा रही है। उसके आदेश के अनुसार अकेली न जाकर मुत्तुकुमरन को भी साथ लिये जा रही है । इससे उसे दुहा. क्रोध चढ़ आया और वह मुंह चिढ़ाकर बोला, "मैंने तो तभी जाने को कहा था, पर तुम अभी जा रही हो !"

"हाँ, इन्हें फ़ोटो-स्टूडियो ले गयी थी। देर हो गयी। अब जाकर निकल पायी।"

"सो तो ठीक है। लेकिन इन्हें क्यों कष्ट दे रही हो? अब्दुल्ला को लाने के लिए सिर्फ तुम्हारा जाना काफी नहीं ?" गोपाल ने मुत्तुकुमरन् को काट देने का विचार किया।
माधवी को धर्म-संकट से बचाने के विचार से मुत्तुकुमरन् स्वयं आगे बढ़कर बोला, "बात यह है कि मैं भी ओशियनिक देखना चाहता था। इसलिए मैं स्वयं इसके साथ चल पड़ा।"

गोपाल की समझ में नहीं आया कि इस हालत में मुत्तुकुमरन् को गाड़ी से कैसे उतारे। वह झींककर बोला, "अच्छा, तो दोनों ही हो आओ। लेकिन गाड़ी में लौटते उनसे बातों में न उलझना। उनके ज़रिये ही हमारा काम होना है । उनका दिल दुखाने का कोई बहाना नहीं ढूंढ़ लेना।"

वह माधवी को आगाह कर धड़ाधड़ अन्दर चला गया। माधवी को उसकी चाल से ही उसके क्रोध का पता चल गया। पर मुत्तुकुमरन के सामने उसने इसे प्रकट नहीं किया।

मुत्तुकुमरन् गुस्से की हँसी हँसते हुए बोला, "इसका जी तो मेरा हाथ खींचकर कार से उतारने को हो रहा था, पर वह हो नहीं पाया।"

संयोग से उस समय माधवी कार चला रही थी। तीसरे व्यक्ति के न होने से वे दोनों खुलकर बातें कर पा रहे थे।

पिनांग के अब्दुल्ला के कमरे में जब वे गये, तब उनके साथ चार-पांच मुलाकाती और थे। अब्दुल्ला ने दोनों का स्वागत कर कमरे में ही विठा लिया।

"गोपाल साहब ने रात. की 'डिनर' के लिए ही तो बुलाया है। साढ़े आठ बजे के करीब आना काफ़ी नहीं होगा क्या ? अभी साढ़े छः ही बज रहे हैं !" अब्दुल्ला ने घड़ी देखकर कहा।

"गोपालजी के विचार से आप अभी आ जाते तो थोड़ी देर बातचीत भी हो जाती। बाद में डिनर तो है ही। बातों में समय कटते कितनी देर लगती है ? पल भर में आठ बज' जायेंगे !" माधवी ने उत्तर दिया।

"सचमुच आपका कल का अभिनय बहुत अच्छा था । मलेशिया में आपका बड़ा नाम होगा।" अब्दुल्ला ने माधवी के मुख के सामने माधवी की ऐसी तारीफ़ की कि वह शरमा गयी।

आये हुए मुलाकाती एक-एककर विदा हुए।

मुत्तुकुमरन् को पास बिठाकर अब्दुल्ला को इस तरह तारीफ़ करते देखकर माधवी सिकुड़-सी गयी और बोली, "सारा-का-सारा श्रेय तो इनका है। इन्होंने नाटक इतना अच्छा लिखा है कि हम आसानी से अभिनय कर नाम पा गये।"

"पर यह भी हो सकता है न कि अभिनेताओं की किरदारी से लिखनेवाले का नाम भी रोशन हो जाये !"-अब्दुल्ला ने फिर वही चक्की पीसी ।

मुत्तुकुमरन्' इस विवाद में पड़ना नहीं चाहता था। क्योंकि उसके विचार से कला का महत्त्व न जाननेवाले व्यापारी ऐसे दूंठ थे, जिनपर हज़ार कोशिश करने पर भी कील न चढ़ती। वह अपने विचारों को 'भैंस के आगे बीन होते नहीं देना चाहता था। अब्दुल्ला की कदर करते हुए वह उससे कला की बात करे तो वह कला के प्रति द्रोह हो जाएगा और कला की हत्या का पाप सिर पड़ेगा-यह सोचकर वह पैर-पर-पैर चढ़ाये चुपचाप बैठा रहा ।

उसकी इम मनोदशा को माधवी ने पढ़ लिया। अब्दुल्ला की बातों की लीक बदलने के विचार से बोली, "पिछले महीने 'गंगा नाटक-मंडली' मलेशिया गयी थी न ? सुना है कि आप ही की 'कांट्रेक्ट' पर वहाँ गयी थी। वह वहाँ नाम-यश भी प्राप्त कर पायी?"

"अब्दुल्ला की कांट्रेक्ट हो तो नाम आप-ही-आप हो जाता है । हमारी कंपनी पचीस सालों से नाट्य-मंडली या नाटक कंपनियों को तमिळनाडु से ले जाती है और वहाँ प्रोग्राम चलाती है। मलेशिया में अब्दुल्ला कंपनी का एक भी प्रोग्राम अब तक नाकामयाब नहीं हुआ। इसे बड़ी-बड़ी बात न मानिए तो अब्दुल्ला कंपनी की यह खुसूसियत है !"

"कंपनी के बारे में हमने बहुत कुछ सुन रखा है ।"

"हम पेशे से डायमंड मर्चेट हैं, जौहरी हैं । कला के प्रोग्राम तो शौक के लिए करते हैं।"

मुत्तुकुमरन् उन बातों से ऊब गया तो उसने माधवी को इशारा किया। "चलिए ! गोपाल साहब आपका इंतजार करते होंगे ! जल्दी चलें तो अच्छा हो।"

माधवी के कहने पर अब्दुल्ला कपड़े बदलने अंदर चले गये।

कमरे में ड्रेसिंग टेबुल में आईने के पास विभिन्न सेंटों की छोटी-बड़ी शीशियाँ करीने से सजी थीं। अब्दुल्ला कपड़े बदलकर एक आईने के सामने जाकर खड़े हुए और एक शीशी खोलकर शरीर पर 'सेंट लगाने लगे। इन्न की खुशबू सारे कमरे में बिजली की तरह फैल गयी। एक दूसरी शीशी में लगे 'स्त्रे' से गले और कुरते के कॉलर में 'सेंट छिड़क ली। कपड़े बदलने और तैयार होने में उनमें जेम्स बांड की-सी फुर्ती थी। उनकी एक-एक बात और अदा में शौक चर्रा रहा था।

उन्होंने होटल के बैरे को बुलाकर चाय मँगवायी। मना करने पर भी नहीं माना। चाय तैयार कर वे तीनों प्यालों में डालने लगे तो माधवी मदद को आगे बड़ी। यह देखकर अब्दुल्ला बहुत खुश हुए।

मुत्तुकुमरत् सब से बैठा था । चाय पीते ही तीनों चल पड़े। जाते-जाते माधवी ने उस स्प्रे वाली शीशी के बारे में पूछा । "लीजिए, इस्तेमाल कीजिए!" कहते हुए अब्दुल्ला ने वह शीशी उठाकर माधवी को दे दी।

नहीं, मैंने यों ही पूछा था !" कहकर माधवी ने लेने से इनकार किया तो, नो, नो ! कीप इट': 'डोंट रिफ्यूज " कहकर उसके हाथ में थमाकर ही अब्दुल्ला ने दम लिया।
मुत्तुकुमरन् को माधवी पर क्रोध आया। यदि माधवी अपनी जुबान पर काबू रखती और अब्दुल्ला से सेंट की बात नहीं पूछती तो क्या वे भिखमंगों को भीख देने की तरह उसके हाथों में 'सेंट' की शीशी उठाकर थमाते ? भड़कते क्रोध में भी उसका विचार औरतों की इस आम कमजोरी पर गया कि सारी दुनिया में विरला ही ऐसी कोई औरत होगी, जो सुगंधित वस्तुओं, पुष्पों और साड़ियों के मामले में उद्विग्न और चंचल न हो उठती हो ! पर अपनी इच्छित वस्तुओं को माँगने की एक मर्यादा होती है। जैसे एक कुलीन स्त्री का सुगंध, पुष्प, साड़ी आदि के विषय में अन्य पुरुषों से पूछना वेहूदा है, वैसे ही माधवी का अब्दुल्ला से इस बारे में पूछना भी उसे अशिष्ट लगा।

यह सब सिने जगत में जाने का नतीजा है। यह सोचकर उसने उसे दिल-ही- दिल में माफ़ भी कर दिया।

कार में मांबलम जाते हुए अब्दुल्ला मलेशिया की यात्रा के विषय में एक-पर- एक सवाल करते जा रहे थे।

"तुम्हारी मंडली के साथ कुल कितने लोग आयेंगे? कौन-कौन ह्वाई जहाज से आयेंगे ? कौन-कौन समुद्री जहाज से आयेंगे ?"

माधवी जो कुछ जानती थी, बताये जा रही थी। कार की अगली सीट पर मुत्तुकुमरन् माधवी के साथ बैठा था और अब्दुल्ला. पिछली सीट पर अकेले बैठे थे।

बँगले के द्वार पर पोटिको में गोपाल ने अब्दुल्ला का स्वागत किया और स्वागत करते हुए हाथी की सूंड जैसी भारी गुलाब के फूलों की माला अब्दुल्ला को पहनायी । फिर दावत में आये हुए अभिनेता-अभिनेत्रियों, प्रोड्यूसरों और सिनेमा- जगत् के दूसरे व्यक्तियों से अब्दुल्ला का परिचय कराया। दावत के पहले सब बैठकर हँसी-खुशी बातें करते रहे। . गोपाल के दावत का इन्तजाम और उसका ठाठ-बाट देखकर अब्दुल्ला दंग रह गये और एक तरह से मोहित भी हो गये। न जाने क्यों, गोपाल उस दिन मुत्तुकुमरन और माधवी से कुछ खिचा-सा रहा ।

दावत के समय अब्दुल्ला अभिनेत्रियों और एक्स्ट्राओं के झुंड के मध्य बैठाये

गये। लगा कि कोई अमीर शेख अपने हरम में बैठा हो ।   अभिनेत्रियों की खिल- खिलाती हँसी के बीच अब्दुल्ला के ठहाके पटाखे की तरह छूट रहे थे। दावत के बाद यह प्रश्न उठा कि लौटते हुए अब्दुल्ला को ओशियानिक पर पहुँचाने कौन जाये ? माधवी हिचकते हुए गोपाल के सामने जाकर खड़ी हुई कि शायद उसी को पहुँचाना पड़ेगा।

"न, तुम्हें नहीं जाना है । जाकर अपना काम देखो ! तुम्हें तमीज़ नहीं ! सारी दुनिया को साथ लेकर चलोगी !" गोपाल ने जरा कड़े शब्दों में कहा "तो माधवी को यह तमाचा-सा लगा। 'आ बला, गले से लग' कहकर जानेवाली के सामने से आयी बला गले से टल गयी तो वह मन-ही-मन खुश हो रही थी। उसने देखा कि किसी उप-अभिनेत्री के साथ अब्दुल्ला को गोपाल ओशियानिक भेज रहा है। उसने चैन की सांस ली। अब्दुल्ला हाथ जोड़कर सबसे विदा हुए ।