यह गली बिकाऊ नहीं/5

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पाँच
 

चलते-चलते मुत्तुकुमरन् के मन में यह इच्छा लहर मार रही थी कि माधवी. से वहुत कुछ बोले। 'आउट हाउस' की सीढ़ियाँ चढ़कर कमरे में आते ही माधवी ठिठकी। उसकी मुलायम देह अगले ही क्षण मुत्तुकुमरन् के आलिंगन में थी।

"छोड़िये मुझे ! मैं तो आपसे विदा लेने आयी थी!"

"विदा इस तरह भी ली जा सकती है न ?"

उसने उसकी पकड़ से धीमे से अपने को छुड़ा लिया। लेकिन वह फौरन चल देने की जल्दी में नहीं थी । थोड़ी देर बाद वह जाने को उठ खड़ी हुई-

"तुम्हारा जाने का मन नहीं और मेरा छोड़ने का नहीं । इधर बैठो न !"

"नहीं-नहीं, साहब से कह आयी हूँ कि एक मिनट में आ जाऊँगी। शायद शक करें। मुझे जल्दी घर जाना भी है !"

मुत्तुकुमरन् ने अब चूड़ियों वाले उसके गुलाबी हाथ थाम लिये, जो मथे हुए मक्खन-से मुलायम और शीतल थे।

"तुम्हें छोड़ने का मन नहीं होता, माधवी !"

"मेरा भी नहीं होता। लेकिन..." मुत्तुकुमरन् के कानों में उसकी फुसफुसाहट ऐसी पड़ी, जिसके आगे दैवी संगीत भी मात था।

माधवी अनिच्छापूर्वक विदा लेकर चल पड़ी। सर्द रात और मुत्तुकुमरन् [ ३५ ]
अकेले गये। माधवी जहाँ खड़ी थी, वहाँ से बेले की खुशबू आ रही थी। उसने उसे जब अपने आलिंगन में लिया था, तब एक-दो फूल ज़मीन पर आ गिरे थे । उसने उन्हें उठा कर सूंघा तो माधवी की याद फिर से महक उठी । खुली खिड़की से ठंडी हवा का झोंका आया तो उसने किवाड़ बंदकर परदा भी खींच लिया। कुछ देर वाद, टेलिफोन की घंटी बजी। उसने लपककर रिसीवर उठाया ।

"मैं, माधवी ! अभी घर आयी !"

"यह कहने के लिए भी फ़ोन...?"

"क्यों ? मेरा बार-बार बोलना पसन्द नहीं ?"

"मैंने ऐसा कहाँ कहा ? मुझसे लड़ने पर क्यों तुली हो ?"

"मैंने इसलिए फ़ोन किया था कि आप फ़िक्र करते होंगे कि मैं घर पहुँची कि नहीं ! और आप इसे लड़ना कहते हैं !

"मान लो कि मैं ही तुमसे लड़ना चाहता हूँ। पर इस तरह फ़ोन पर नहीं:." "फिर कैसे?"

"आमने-सामने और तुम्हारे गाल पर एक चपत लगाकर कहना है कि मेरी बात मानकर चलो !" . "खुशी से लगाइये ! मैं भी आपसे चपत खाने के लिए उत्सुक हूँ 1"

इस प्रकार उनकी बातें बड़ी देर तक जारी रहीं। किसी को बात बंद करने का मन ही नहीं हुआ। मुत्तुकुमरन् को लगा कि करने को अभी भी ढेर-सी बातें हैं और माधवी को लगा कि अब भी बातें अधूरी रह गयी हैं। फिर भी कितनी देर बातें करें? इसलिए दोनों ने फ़ोन रख दिया ।

हर्षोल्लास से पूर्ण उस शुभ घड़ी में मुत्तकुमरन ने नाटक का श्रीगणेश किया। पाड़िय राजा पर दिल लुटाने वाली एक नर्तकी की कहानी का । मन में खाका-सा खींचकर उसने लिखना शुरू किया । प्रथम दृश्य ही बढ़िया और रोचक बने वह इस कोशिश में लगा रहा । उसमें पांडिय राजा अपने अमात्य, राजकवि और परिवार के साथ नृत्य देखते हैं । नर्तकी के मुख से गवाने के लिए एक गाना भी लिखना था। कथानायिका के रूप में नर्तकी की कल्पना करते हुए उसके अंतः चक्षु के सामने माधवी ही हँसती हुई आ खड़ी होती थी। कथानायक की कल्पना तो उसने की ही नहीं। लाख कोशिश करने और मिटाने के बावजूद कथानायक के रूप में वह स्वयं अपने को ही देख पाता था।

अचानक आधी रात के बाद, पता नहीं कितने बजे होंगे-गोपाल ने उसे फ़ोन पर याद किया।

"अरे यार! यहाँ आओ त ! सोमपात्र तैयार है । जरा मस्ती छानेगे।"

"न, भाई ! अभी मैं लिख रहा हूँ। आधे में छोड़ आऊँ तो फिर म्ड नहीं बनेगा!" [ ३६ ]"तो वहीं भेज दूं ?"

"न"न, मुझे छोड़ो..."

"जैसी तुम्हारी मर्जी"-~कहकर गोपाल ने फोन रख दिया। मुत्तुकुमरन् के मन में तो माधवी समायी हुई थी और वह कहीं गहरा नशा चढ़ा- कर लिखवा रही थी। उसकी सांसों में अब भी उसकी देह की सुगंध भरी थी। कनक छड़ी-सी उसकी काया में जी सुकुमारता थी, उसे उसके हाथ अब भी अनुभव कर रहे थे । उससे बढ़कर किसी बनावटी नशे की जरूरत उसे उस समय नहीं पड़ रही थी। उसके हृदय में ही नहीं; शिराओं में भी माधवी ही मदिरा बनकर दौड़ रही थी। वह बड़े यत्न से उसका साज-सिंगार कर, पांडिय राजा के दरबार में नृत्य का आयोजन कराकर स्वयं आनंद में डूबा हुआ था। नृत्य के समय, : पांडिय राज के प्रति नृत्यांगना को जो गाना गाना था, उसका मुखड़ा भी काफ़ी बढ़िया बन आया था।

"मेरे हृदय मंच पर कत नाचते तुम!

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय ! नाचती मैं ।"

इस टेक पर मधु मधुर राग चुनकर उसने बहुत सुन्दर गीत रचा था । नृत्य के बोल तो लासानी बने थे। जब वह लेटने को उठा, लब रात के तीन बज रहे थे। आउट हाउस के पास, बगीचे से पारिजात पुष्पों की भीनी-भीनी महक ठंडी हवा में घुली आ रही थी। उस खुशबू को खूब गहरे खींचकर, उसने अंतर में बैठी माधवी की स्मृति को खूब नहलाया और सो गया।

दूसरे दिन सवेरे उसे पता न था कि पौ कब फटी ! उसे बिस्तर छोड़ते हुए नौ बज गये थे। आउट हाउस के बरामदे पर माधवी और गोपाल की-सी आवाज सुनाई दी। शायद माधवी आ गयी है-सोचता हुआ वह गुसलखाने पन्द्रह-बीस मिनट बाद जब वह बाहर आया तो देखा कि छोकरा नायर नाश्ता- कॉफी लिये खड़ा है।

नाश्ते के बाद थर्मस की कॉफ़ी गिलास में उड़ेलकर वह पी ही रहा था कि माधवी यह पूछती हुई आयी, "क्या मुझे कॉफ़ी नहीं मिलेगी ?"

-उसकी प्यार-भरी और आत्मीयतापूर्ण बातें सुनकर मुत्तुकुमरन ने फ्लास्क को उलट कर देखा । उसमें कॉफ़ी नहीं थी। उसके हाथ के गिलास में, उसके पीने के बाद, एक-दो बूंट ही बाकी थी !

"लो, पीओ।" शरारती हँसी हँसते हुए उसके आगे बढ़ाया ।

"मैंने भी तो यही चाहा था!" कहकर उसने उसके हाथ से कॉफ़ी लेकर पी ली।

माधवी की यह सहजता मुत्तकुमरन को बहुत पसंद आयी। साथ ही, उसे इस बात का गर्व भी हो रहा था कि उसने माधवी का मन जीत लिया है। [ ३७ ]
सवा दस बजे नायर लड़का एक खाकी पोशाक वाले के साथ अन्दर आया, जो नया टाइपराइटर लेकर आया था। उसके जाने के बाद माधवी ने मशीन में नया फीता लगाते हुए कहा, "स्क्रिप्ट दीजिये तो मैं टाइप करना शुरू कर दूँ !"

तभी स्टूडियो की ओर रवाना होते हुए गोपाल आया और खुश होकर बोला, "टाइपराइटर तैयार ! तुम्हारी कथा-नायिका तैयार ! अपना नाटक जल्दी तैयार कर दो, मेरे यार !"

"पलला दृश्य ही बहुत अच्छा बन पड़ा है । नाटक की सफलता की निशानी है यह।"

"शाबाश ! जल्दी लिखो । अब मैं स्टूडियो जा रहा हूँ । जाते हुए मैं यह बताने आया था कि शाम को मिलेंगे !" कहकर गोपाल माधवी की ओर मुड़ा और बोला, . "वन प्लस टू, या श्री कॉपी निकालो। बाद में ज़रूरत पड़ी तो और निकाल लेंगे ! इनके नाटक का जल्दी तैयार होना, तुम्हारे प्रोत्साहन पर निर्भर है।"

माधवी ने मुस्कुराते हुए ऐसा सिर हिलाया, मानो अपनी ओर से कोई कसर नहीं उठा रखेगी।

मुत्तुकुमरन् ने जितना कुछ लिखा था, उसे टाइप करने के लिए माधवी के हाथ दे दिया। माधबी पांडुलिपि को उलटते हुए उसकी लिखाई की तारीफ़ करने लगी, "आपके अक्षर तो मोती की तरह सुन्दर हैं।"

"सुन्दर क्यों नहीं होंगे ? बचपन में कितने यत्न से लिखना सीखा है, मालूम है ?" -मुत्तु कुमरन् आत्माभिनान से बोला । "आपका यह आत्माभिमान भी मुझे बहुत पसंद है !"—माधवी ने एक और टाँका लगाया।

"दुनिया में केवल कष्ट भोगने के लिए पैदा होनेवाले आखिरी कवि तक के लिए अपना कहने को कुछ है तो वह उसका आत्माभिमान ही है !"

"कई लोगों में आत्माभिमान होता है। पर वह विरलों को ही शोभा देता हैं।"

"कुलभूषण, विद्याभूषण की तरह यशोभूषण भी होता है !"

"यशोभूषण ! बड़ा प्यारा शब्द है। यश जिसका भूषण है-यही इसका मतलब है न?"

दूसरा अर्थ यह भी हो सकता है कि यश जिसका भूषण बनकर स्वयं यशस्वी होता है ।" मुत्तुकुमरन् ने अपना पांडित्य दर्शाया ।

माधवी ने एक बार उसकी पांडुलिपि को बड़े गौर से पढ़ा और मुत्तुकुमरन की प्रशंसा करती हुई बोली, "बहुत बढ़िया बना है । नर्तकी के मुख से गवाने के लिए जो गाना लिखा गया है वह तो और बढ़िया है।"

"वह गाना अपने मधुर कंठ से एक बार गाओ तो कान भरकर सुनूं [ ३८ ]
"अब मैं गाने लगूं तो आपका आधा घंटा व्यर्थ जाएगा। आपके काम में बाधा पड़ेगी!"

"तुम्हारा गाना सुनने से बढ़कर बड़ा काम और क्या हो सकता है भला?"

माधवी कंठ साफ़ कर गाने लगी:--

"मेरे हृदय मंच पर कत नाच्ने तुम !

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय 'नाचती मैं।"

मुत्तुकुमरन् के कानों में मानो मधु प्रवाहित होने लगा। उक्त गीत ने वहाँ ऐसा वातावरण खड़ा कर दिया कि मुत्तुकमरन् माधवी को कथा-नायिका और अपने को कथा-नायक-सा अनुभव करने लगा। उसके शब्द माधवी के कंठ में घुलकर अमृत बहाने लगे तो वह मंत्र-मुग्ध-सा हो गया ! माधवी ने गीत पूरा किया तो लगा कि अमृत-वर्षा थम गयी।

गीत बन्द होने पर ही मुत्तुकुमरन ने दौड़कर गुलदस्ते की तरह माधवी को अपनी बाँहों में भर लिया। उसने भी उसे रोका नहीं। उसके आलिंगन में वह असीम सुख का अनुभव कर रही थी।

दोनों ने दोपहर का खाना आउट हाउस में ही मंगाकर खाया। मेज पर पत्ता बिनकर माधवी ने भोजन परोसा।

"तुम्हारे इस तरह परोसने को किसीने देख लिया तो क्या समझेगा?" "ऐसा किसलिए पूछ रहे हैं ?"

"इसलिए कि हम दोनों को इतनी जल्दी एक होते हुए देखकर, देखनेवाले ताज्जुब और डाह नहीं करेंगे?"

"करें तो करें ! पर मेरे खयाल में ऐसा लगता है कि इस तरह मिलने और एक होने के लिए दुनिया के हर किसी कोने में हर जमाने में-कोई--कोई औरत-मर्द अवश्य उपस्थित रहते हैं।"

"सो तो ठीक है। पर मुझे देखते ही तुम्हारे मन में इतना प्यार क्यों हो आया?"

"यह प्रश्न बड़ा क्रूर और अहंकारपूर्ण हैं। किसी तरह यहाँ आकर, राजा की तरह पैर पर पैर धरे बैठे रहे और मुझे मोह लिया ! अब अनजान बनकर पूछते हैं कि क्यों? वाह रे वाह!"

"अच्छा, तो तुम मुझपर यह आरोप लगाती हो कि मैंने तुम्हें मोह लिया !"

"सिर्फ मुझे नहीं ! पहले गंभीर चाल से अन्दर आकर, फिर पैर पर पैर बढ़ा- कर राजा की भाँति बैठे और कमरे में उपस्थित सभी लोगों को आपने मोह लिया ! लेकिन मुझे छोड़कर आपके पास आने की किसी दुसरी को हिम्मत नहीं पड़ी। और बातें करते हुए मैं ही क्यों, सभी डर रही थीं। सिर्फ मैं ही हिम्मत करके आपके पास [ ३९ ]
आयी और मोह-पाश में बंध गयी !"

"अरे, यह बात है ! इसका मुझे पहले ही पता होता तो तुम्हें अच्छी तरह टोह लेता। इतनी हिम्मत है तुम्हारी?"

"हाँ, क्यों नहीं ! आप जैसे हिम्मतवरों को पाने के लिए थोड़ी-बहुत हिम्मत से काम लेना ही पड़ता है !"

"अच्छा, छोड़ो उन बातों को । लड़का तो एक ही पत्तल लाया है । अब तुम कैसे खाओगी ? एक और पत्ता लाने को कहूँ या इसी टिफ़िन कैरियर में ही जा लोगी?"

"मेरे खयाल में आपने एक ही पत्ता लाने को कहा होगा!"

"नहीं-नहीं ! नाहक मुझपर दोष न थोपो।"

"क्या किया जाए ? इसी पत्ते पर खा लूंगी। सुबह कॉफ़ी पिलाते हुए भी आपने यही किया था। दूसरों को गुलाम बनाकर ही तो आपका अहम् तुष्ट होता "ऐसी बात न कहो माधवी ! मैंने तुम्हें अपने हृदय में सौन्दर्य की रानी बना- कर बैठाया है। तुम अपने को गुलाम बताती हो । तुम्हीं कहो, दासी कहीं रानी बन सकती है ?"

"आपने मुझे रानी का पद दिया है। इसीसे प्रमाणित होता है कि दासी भी रानी बन सकती है।"

बातें करते हुए माधवी ने बड़े प्रेम से उसे खिलाया और उसके खाने के बाद, उसी पत्ते पर स्वयं भी खाया। माधवी की प्रेमभरी श्रद्धा के सामने मुत्तुकुमरन् का अहंकार ढहता-सा लगा। माधवी महान् हो गयी और मुत्तुकुमरन् का जी छोटा।

खाना पूरा होने पर, छोकरा नायर बरतन ले गया। माधवी टाइप करने बैठी।

"इन उँगलियों से तुम वीणा के तारों पर कोई रसीला राग छेड़ती रहती तो मैं सुनता ही रहता । तुम्हारी ये कोमल उँगलियाँ जो विशेष कर वीणा-वादन के लिए बनी-सी मालूम होती हैं, टाइप के अक्षरों पर दौड़ते देखकर, इस मशीन के सौभाग्य को सराहने का मन होता है, माधवी !"

"पता नहीं, आप क्या चाहते हैं ? मेरी तारीफ़ करते हैं या खिल्ली उड़ाना चाहते हैं ? आप यही कहना चाहते हैं न कि मेरा वीणा-वादन टंकन जैसा होगा ! टाइप करने की तरह वीणा बजाऊँ तो वीणा के तार टूट जाएँगे । वीणावादन की तरह टाइप करूं तो अक्षर काग़ज पर पड़ेंगे ही नहीं !"

"तुम्हें तो दोनों काम अच्छे आते हैं !" मुत्तुकुमरन् ने कहा। मुत्तुकुमरन् के मन में यह इच्छा हुई कि शाम को माधवी को साथ लेकर [ ४० ]
समुद्र-तट या बाजार की तरफ़ निकला जाये तो अच्छा हो । उसे लगा कि उसके प्रेम में घुलकर नाटक तैयार किया जाए तो यह और बढ़िया बनेगा। पहला दृश्य पूरा कर, दूसरे दृश्य का भी कुछ अंश वह लिख चुका था। उसने सोचा कि मैं रात को बाक़ी लिख दूं तो सबेरे आकर टाइप करने में उसे सुविधा होगी।

तीन बजे के करीब लड़का दोनों के लिए नाश्ता लेकर भाया।

"कहीं जरा बाहर घूमने जाने की इच्छा होती है । क्या तुम भी साथ चलोगी, माधवी?"

"एक शर्त माने तो..."

"कौन-सी शर्त है ? बताओ तो पहले !"

"समुद्र-तट पर जाकर थोड़ी देर सैर करते रहेंगे। लेकिन लौटते हुए रात का खाना आपको मेरे घर में खाना होगा ! यदि बोलें तो अभी माँ को फ़ोन कर दूं?"

"तुम्हारा घर कहाँ है ?"

"लाइड्स रोड पर ! अपना नहीं, किराये का घर है । एक बंगले का आउट हाउस 1 मैं अपनी मां के साथ वहीं रहती हूँ !"

"गोपाल को नहीं बुलाओगी ?"

"वे नहीं आयेंगे !"

"क्यों?"

"मेरा घर बहुत छोटा है ! किसी दूसरे के बंगले का आउट हाउस। इसके अलावा मैं उनकी नाटक-मंडली में मासिक वेतन पानेवाली आर्टिस्ट हूँ। फिर उनकी हैसियत की समस्या भी तो है। उन्हें मालूम हो गया तो शायद आपको भी मना कर दें।"

"उसके लिए किसी दूसरे आदमी पर रोब जमाये तो अच्छा । मैं किसी की बात पर सिर झुकानेवाला आदमी नहीं । इस बोग रोड के नुक्कड़ पर चाय की एक छोटी-सी दुकान है न? वहाँ भी बुलाओ तो भी खुशी से आने को मैं तैयार हैं।"

माधवी का चेहरा कृतज्ञता से खिल उठा।

मैं खाने पर ज़रूर आऊँगा ! मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है । अपनी माँ को फ़ोन कर दो!"

"जरा ठहरिये ! पहले छोकरे तायर से कहकर बाहर जाने के लिए कार तो निकलवा लूं"

"कोई जरूरत नहीं माधवी ! गोपाल को कार में नहीं, टैक्सी या बस में चला जाय।

"ऐसा करेंगे तो वे नाराज हो जाएँगे। हम कार ले जायेंगे तो वे बुरा नहीं मानेंगे। उन्होंने जाते हुए मुझसे कहा था कि कहीं जाना हो तो ड्राइवर से कहकर [ ४१ ]छोटी कार ले जाओ!"

"उसकी कार अगर तुम्हारे द्वार पर खड़ी हो तो हो सकता है कि उसका 'स्टेटस' गिर जाय !"

"कुछ नहीं होगा !" कहकर माधवी ने नायर को फोन पर बुलाया और मलयालम में कुछ बोली।

थोड़ी देर में आउट हाउस के द्वार पर एक छोटी 'फ़ियट' कार आ खड़ी हुई। चलते हुए माधवी से मुत्तुकुमरन ने पूछा, "केरल में तुम्हारा कौन-सा गाँव है।"

"मावेलीकर!"

कार पर जाते हुए माधवी ने पहले अपने घर जाने को कहा, ताकि माँ को समुद्र-तट पर जाने की सूचना दे दी जाय।

जन्म से मलयाली होने पर भी माधवी की तमिळ में कोई फ़र्क नज़र नहीं आया। टाइप भी वह अच्छा कर लेती थी। तमिळ को मलयालम या तेलुगु की तरह बोलनेवाली कुछेक अभिनेत्रियों को मुत्तुकुम रन् स्वयं जानता था। माधवी तो हर बात में अपवाद थी । यह कैसे ? मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था ।