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यह गली बिकाऊ नहीं/6

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ ४१ से – ४८ तक

 

छह
 

एक बड़े बँगले के बगीचे में दाहिने छोर पर, जो 'आउट हाउस' था, माधवी मुत्तुकुमरन् को उसमें ले गयी। घर की बैठक, दालान, रसोई. घर-सब-के-सब बड़े सुरुचिपूर्ण ढंग से सजे थे। बैठक के एक कोने में टेलिफोन रखा हुआ था । घर में माधवी की मां और नौकरानी के सिवा और कोई नहीं था। माधवी ने माँ का मुत्तुकुमरन् से परिचय कराया। माधवी की माँ अधेड़ उम्र की थीं । उनके कानों में मलयाली बालियाँ डोल रही थीं। वह ज़रीदार किनारे वाली धोती-बालरामपुरम नेरियल मुंडु-पहने हुई थीं। बहुत मना करने पर भी कॉफी पिलाये बगैर उन्होंने उन्हें नहीं छोड़ा । मुत्तुकुमरन्' ने तो यहाँ तक कहा था कि हम तो रात का खाना यहीं खाना चाहते हैं ! आप तो कॉफी पिलाकर छुटकारा पाना चाहती हैं ।

चक्कै (कटल), वरुवल् (चिप्स) के साथ कॉफ़ी पिलाकर 'बीच भेजते हुए उसने ताकीद भी की थी कि साढ़े आठ बजे तक भोजन करने आ जाना।

माधवी ने जाते हुए कहा, "एलियंड्स बीच पर भीड़ कम होगी। वहीं जायेंगे।"

पर मुत्तुकुमरन् ने ठीक उसका उल्टा विचार प्रकट किया- "भीड़ से डरने और भीड़ को देखकर भागने के लिए हम दोनों में कोई गोपाल
जैसे मशहूर तो नहीं।"

"मेरे कहने का मतलब वह नहीं । मैंने तो बैठकर बातें करने के लिए सहूलियत देखी!"

"जहाँ जाओ, सहूलियत आप ही आप मिल जायेगी। इस सर्दी में कौन समुद्र- तट तक आयेगा?" मुत्तकुमरन ने कहा ।

कार को सड़क पर खड़ी कर दोनों समुद्र की रेत पर पैदल चले । दिसंबर की सर्दी और शाम के झुटपुटे में 'एलियड्स बीच' पर भीड़ ही नहीं थी। एक कोने में एक विदेशी परिवार वैठकर बातें कर रहा था। उनके बच्चे रंग-रंग की गेंदें उछाल-खेल रहे थे।

मुत्तुकुमरन् और माधवी एक साफ़ जगह चुनकर जा बैठे । समुद्र और आकाश सारे वातावरण को रमणीक बना रहे थे।

एकाएक मुत्तुकुमरन् ने माधवी से एक प्रश्न किया, "मावेलिकरै से मद्रास आने और कला के इस क्षेत्र में सम्मिलित होने की क्या आवश्यकता पड़ी और वह भी क्यों और कैसे?

इस तरह अचानक उसके सवाल करने की क्या वजह हो सकती है ----यह जानने की इच्छा से या स्वाभाविक संकोच से माधवी ने उसकी ओर देखा।

"यों ही जिज्ञासा हुई ! न चाहो तो मत बताना।"

"भैया भरी जवानी में मर गया तो हम माँ-बेटी मद्रास चली आयीं । फ़िल्मों के लिए 'एक्स्ट्रा' की भरती करनेवाले एक दलाल ने हमें स्टूडियो तक पहुँचा दिया। वहीं गोपाल साहब से मेरा परिचय हुआ "परिचय हुआ!"

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया । उसके मन की परेशानी चेहरे पर फूटी । मुत्तु को अपने प्रश्न पर जोर देने की हिम्मत नहीं पड़ी। थोड़ी देर दोनों मौन रहे । फिर माधवी मौन तोड़कर बोली, "इस लाइन में मुझे जो कुछ तरक्की और सुविधा मिली हैं, उसके मूल में उन्हीं का हाथ है।"

"गाँव में तुम्हारा और कोई नहीं है क्या?"

"बाप का साया पहले ही उठ चुका था और जब भाई भी चल बसा तो हम मां-बेटी ही सब कुछ थे !" कहते-कहते उसका कंठ-स्वर सँध गया ।

मुसुकुमरन् को उसकी स्थिति समझते देर नहीं लगी। भरी जवानी में कमाऊ भाई के निधन हो जाने से पेट की चिंता में माँ-बेटी मद्रास आयी हैं । सौंदर्य, शारीरिक गठन, कठ-स्वर आदि से मलयाली होने पर भी साफ़-सुथरी तमिळ बोलने की योग्यता के चलते इसे तमिळ कला-जगत् में स्थान मिला है । इस सुन्दरी माधवी को मद्रास आने और कला-जगत् में प्रवेश पाने तक न जाने क्या-क्या दुख भोगने पड़े होंगे ! यह पूछने का विचार मन में आते हुए भी उसने कुछ पूछा नहीं। हो सकता
है, इससे उसके दिल को ठेस पहुंचे और इस प्रकार के असमंजस में डाल दे कि सदा- बहार-सा खिला उसका चेहरा ही न मुरझा जाए । इसलिए बातचीत की दिशा मोड़ने के उद्देश्य से उसने अपने प्रस्तावित नाटक की बात उठायीं । इसे माधवी ने बड़े उत्साह से सुना और अंत में हँसते हुए कहा, "इस नाटक में आप ही कथानायक होकर मेरे साथ अभिनय करें तो बड़ा अच्छा हो !"

वह हँसकर बोला, “नाटक तो इसीलिए तैयार किया जा रहा कि गोपाल कथानायक की भूमिका अदा करे । जड़ को ही हिला दें तो फिर काम कैसे चलेगा?"

“सो तो ठीक है ! पर मेरा जी चाहता है कि आप मेरे साथ अभिनय करें। इसमें गलत क्या है ?"

"नहीं, मैं तुम्हारी बात की गहराई में जाकर, और जोर देकर कहना चाहता हूँ कि तुम मेरे साथ अभिनय मात्र करना चाहती हो, जबकि मैं तो तुम्हारे साथ जीना चाहता हूँ"-कहते-कहते' मुत्तुकुमरन् भावावेश में बह गया और उसने उसकी फूल-जैसी कलाई को अपने हाथ में ले लिया। माधवी की देह में ऐसी फुरहरी-सी दौड़ी । वह मानो उसी क्षण, उसी जगह, उसकी इच्छा पर अपना तन- मन वारने को तैयार हो गयी हो। उसकी भोली-सी चुप्पी और मोहक हँसी में मुत्तुकुमरन् अपना दिल खो गया।

बहुत रात गये तक वे समुद्र-तट पर बैठे रहे।

"खाना ठंडा हो जायेगा, अब चलें!" माधवी ने याद दिलाया तो मुत्तुकुमरन् ने शरारत भरी हँसी के साथ कहा-"यहाँ तो नवरस भोजन परसा है जबकि वहाँ तो षड्रस भोजन ही मिलेगा !"

"संवाद-लेखन के मुकाबले आपकी बातचीत ही अधिक अच्छी है।" "वह कला है ; यह जीवन है। कला से बढ़कर जीवन अधिक सुन्दर और स्वाभाविक होता है !"

बातें करते हुए दोनों वापस लौटे।

माधवी के घर में रात का भोजन मलयाली ढंग से तैयार हुमा था ! नारियल के तेल की महक आ रही थीं। कमरे में फैली चंदन-बत्ती की सुरभि, माधवी की वेणी में लगे बेले. की खुशबू और फिर रसोई की सुगंध ने मिलकर विवाह-गृह का- सा वातावरण पैदा कर दिया था।

डाइनिंग टेबुल सादे किन्तु सुरुचिपूर्ण ढंग से सजी थी। माधवी की माँ ने यह कहकर दोनों को खाने की मेज़ पर बैठा दिया कि खाना वही परोसेंगी।

इधर माधवी की मां परोस रही थीं और उधर मुत्तुकुमरन् आसपास गे चित्रों पर नजर दौड़ा रहा था । एक चित्र ठीक वहाँ लगा था जहाँ आँख उठाते उसपर दृष्टि पड़े बिना नहीं रह सकती । उस चित्र में अभिनेता गोपाल और माधवी हँसते
हुए खड़े थे 1 यह किसी चल-चिन का 'स्टिल' था। उसपर मुत्तुकुमरन् की नजर को बार-बार जाने देखकर माधवी असमंजस में पड़ गयी । वह नाहक किसी सन्देह में नहीं पड़ जाए-इस विचार से माधवी ने कहा, "मणप्पेण (वधू) नामक एक सामाजिक फ़िल्म में मैंने नायिका की सहेली की भूमिका की थी। यह उसी का एक दृश्य है, जिसमें गोपाल जी मुझसे मिलकर बात करते हैं।"

"अच्छा ! उस दिन इन्टरव्यू के दौरान मैंने यह समझा था कि तुममें और गोपाल में कोई परिचय नहीं है। सबकी तरह तुम भी नयी-नयी आयी हो ! तुम तो बताती रही कि तुम्हारे मद्रास आने पर, उनकी मदद से ही तुम तरक्की कर सकी।"

"नाटक-मंडली की अभिनेत्रियों की गोष्ठी में यद्यपि उन्होंने पहले ही मुझे चुनने का निर्णय कर लिया था, फिर भी नियमानुसार मुझे भी ‘इण्टरव्यू' में सम्मिलित होने को कहा था। इसलिए मैं भी उस इन्टरव्यू में अपरिचित-सी बन- कर शामिल हुई थी!"

"लेकिन. सहसा मेरे पास आकर, बहुत दिनों की परिचित की तरह बड़े स्वाभाविक ढंग से बातें करती रही !"

उसने उत्तर बातों से नहीं, मुस्कुराहट से दिया।

भोजन बड़ा ही स्वादिष्ट और सुगंधित बना था। पुलिचेरि, एरिचेरि, बक्कै प्रथमन् (कटहल से बनी खीर), अवियल् आदि विशिष्ट मलयाली व्यंजन परोसे गये। बीच-बीच में माधवी कुछ कहती तो उत्तर देने के लिए मुत्तुकुमरन् सिर उठाता। सिर उठाते ही वह चिन उसकी आँखों से जा टकराता। माधवी ने इसे

ताड़ लिया।

उस एक चित्र के सिवा, बाकी सारे चित्र देवी-देवताओं के थे। गुरुवायूरप्पन, पळनि मुरुगन, वेंकटाचलपति आदि के चिन्न थे। उनमें यही एक चित्र उसकी आँखों में खटकता था। माधवी ने उसके दो-तीन मिनट पहले ही भोजन समाप्त कर लिया । इसलिए उसकी अनुमति से हाथ धोने उठ गयी।

उसके बाद हाथ धोकर आनेवाले मुत्तुकुमरन को उस अथिति-कक्ष में एक आश्चर्य देखने को मिला । वह चित्र, जिसमें गोपाल और माधवी हँसते हुए खड़े थे, वहाँ नजर नहीं आया । भुत्तुकुमरन ने अनुमान से जान लिया कि माधवी ने चित्र को वहाँ से हटा दिया है। वह बिना कुछ बोले, मन-ही-मन खुश थी और मुस्कुराती खड़ी थी। मुत्तुकुमरन ने पूछा, "उस चिन को वहाँ से क्यों दिया?"

"लगा कि आपको पसन्द नहीं है। इसलिए।"

"मेरी हर पसन्द और नापसन्द का ख्याल रखना कहाँ तक संभव है ?"

"संभव-असंभव की बात छोड़िए। मैं तो आपको नापसन्द आनेवाली चीज़ों से भरसक दूर रखना. वाहती हूँ ।"वह फलों और पान-सुपारी से भरी तश्तरियाँ उसके आगे रखती हुई बोली । उसे लगा कि माधवी के अकूत प्रेम को संजोने के
लिए उसका दिल बड़ा छोटा है । उसने देखा कि माधवी घड़ी-घड़ी उससे अकारण ही शर्मिन्दा हो रही है। वह चलने लगा तो माधवी उसे मावळम तक पहुँचाने को तैयार हो गयी । पर उसने मना करते हुए कहा, "तुम आओगी तो फिर गोपाल की 'लौटना होगा । ड्राइबर को नाहत दुबारा परेशान होना पड़ेगा !"

"आपको पहुँचाकर वापस आने से दिल को तसल्ली होगी !"

"रात के वक्त तुम बेकार तकलीफ़ उठाओगी। सवेरे तो हम मिलने ही वाले हैं।"

"अच्छा तो फिर आपकी मरजी, मैं नहीं आती!"

मुत्तुकूमरन् ने माधवी की माँ से विदा ली। वह तो स्नेहमयी दृष्टि से देख रही थीं।

माधवी ने द्वार तक आकर विदा किया। रात के साढ़े नौ बज रहे थे । कार के रवाना होने के पहले, दरवाजे की ओट में माधवी मुत्तकुमरम् के कानों में फुसफुसायी-

"हमारे समुद्र-तट की सैर की बात वहाँ किसीसे मत कहियेगा।"

जानते हुए भी अनजान बनकर, मुत्तुकुमरन् ने पूछा, "वहाँ-माने कहाँ ?"

उसके जवाब देने के पहले कार चल पड़ी।

मुत्तुकुमरन् को माधवी का उस तरह कहना पसन्द नहीं आया । गोपाल को मालूम हो भी गया तो क्या हो जायेगा? माधवी गोपाल से इतना क्यों डरती है ? इस सवाल का जवाब उसी के मन ने दिया, 'बिना किसी कारण के, माधवी इतनी सावधानी नहीं बरतती। हाँ, गोपाल उसके जीवन का मार्ग-दर्शक रहा है। उसके प्रति आदर भाव और भय को गलत नहीं कहा जा सकता।'

तर्क-वितर्क के बावजूद, उसके मन को इसका समाधान नहीं मिला कि चलते समय, कानों में आकर इतनी घबराहट के साथ उन शब्दों को कहने की क्या जरूरत थी?

जब वह बँगले पर पहुंचा, तब गोपाल घर में नहीं था । मालूम हुआ कि वह अल्जीरिया से आयी हुई किसी कला-मंडली का नृत्य देखने अण्णामलै मन्ड्रम गया हुआ है। मुत्तुकुमरन् को इतनी जल्दी नींद भी नहीं आयी। उसने सोचा कि कम-से-कम एक घंटा लिखकर सोने जाये।

लिखना शुरू करने से पहले, उसने जो कुछ लिख रखा था, एक बार पड़ा। माधवी उसकी पांडुलिपि की टंकन-लिपि तैयार कर छोड़ गयी थी। इसलिए उसे पढ़ने में बड़ी सहूलियत हुई। उसको शुरू से आदत थी कि पहले के लिखे हुए अंशों को बार-बार पढ़े और तब आगे के अंश लिखे।

वह लिखते हुए यह सोचता हुआ लिख रहा था कि अण्णामल मन्ड्रम से लौटने पर गोपाल उसे फोन पर बुला भी सकता है। लेकिन लिखकर सोने जाने तक पता नहीं चला कि गोपाल लौटा कि नहीं।

मवेरे उठकर मुत्तुकुमरन् कॉफ़ी पी रहा था कि गोपाल वहाँ आया। "कहो, उस्ताद ! सुना कि कल शाम को बहुत धूम-फिर कर आये ! एलियड्स बीच, फिर दावत ! एकाएक एकदम व्यस्त...।"

गोपाल के बोलने के तरीके और हँसने के ढंग में तनिक व्यंग्य नजर आया तो मुत्तुकुमरन् एक-दो क्षण के लिए बिना कोई उत्तर दिये चुप रहा!

"तुम्हीं से पूछ रहा हूँ! माधवी से घंटों बातें कर सकते हो, पर मेरे साथ बोलने का मन नहीं करता क्या ? जवाब क्यों नहीं देते ?"

इस दूसरे सवाल में मुत्तुकुमरन को भौर भी तीखा व्यंग्य नजर आया। उसके सवाल में यह ध्वनि सुन पड़ी कि बिना कहे और बिना पूछे तुम लोगों को बाहर धूमने जाने की हिम्मत कहाँ से आयी ?

आगे चुप्पी साधना उचित नहीं, इस नतीजे पर पहुंचकर मुत्तुकुमरन् ने किसने कहा तुम्हें ? यों ही जरा बाहर घूम आने का जी किया तो हो आये, कहा, बस!"

बात यहीं पूरी नहीं हुई, वह जारी रही।

"सो तो ठीक है ! तुम्हारे या माधवी के न कहने से मुझे पता नहीं चलता-- यही सोचा था न तुमने?"

"पता चल भी गया तो फिर अब क्या करोगे ? सिर उड़ा दोगे?"

"ऐसा करूं तो मेरे सिर पर बत आयेगी !"

यद्यपि दोनों ऊपर से खेल-तमाशे की बात कर रहे थे, पर दोनों के दिल में कोई चीज़ रड़क रही थी, काँटे की तरह, जिसे दिल की दिल ही में रखकर दोनों नाज-नखरे से काम ले रहे थे।

मुत्तुकुमरन के विचार से गोपाल ने अपणामले मन्ड्रम से रात को लौटने पर या सबेरे उठने पर ड्राइवर से पूछकर यह सब जान लिया होगा। फिर भी गोपाल के मुंह से उसने यह जानने का प्रयत्न नहीं किया कि उसने यह कैसे जाना?

गोपाल ने बात बदलते हुए पूछा, "नाटक किस स्थिति में है और कितने पन्ने लिखे जा चुके हैं !"

बिना कोई उत्तर दिये, मुत्तुकुमरन् ने मेज की ओर इशारा किया, जिस पर उसकी पांडुलिपि और माधवी की टंकिल लिपि रखी हुई थी। गोपाल उठाकर इधर-उधर से पढ़ने लगा। पढ़ते हुए बीच-बीच में वह अपनी राय भी देने लगा।

"लगता है. नाटक के मंचन में काफ़ी खर्च करना पड़ेगा। दरबार आदि के अनेक दृश्य बनाने होंगे। अभी से शुरू करें, तभी ये सब वक्त पर पूरे होंगे। 'कास्टयूम्स्' का खर्च, अलग से होगा।"

मुत्तुकुमरन ने उसकी राय काटने या मानने की कोशिश नहीं की। बस, चुपचाप सुनता रहा।

थोड़ी देर बातें करके गोपाल चला गया। बातों के बीच गोपाल ने नाटक की तारीफ़ करते हुए कहा था कि शुरू सचमुच ही बढ़िया और सुन्दर बना है। मुत्तु- कुमरन् को उसकी तारीफ़ गहरी नहीं, सतही लगी।

उस समय उसके दिल को कोई दूसरा विषय कुरेद रहा था। अपने घर आकर ठहरे हुए मेहमान के विषय में, अपने यहाँ पगार पानेवाले कार ड्राइवर से यह पूछने वाला मालिक, कि वे कहाँ जाते हैं, क्या करते हैं, किससे मिलते हैं और क्या बात करते हैं, कितना संस्कारी होगा?' ऐसी पूछ-ताछ का शिकार बननेवाले मेहमान के प्रति ड्राइवर क्या आदर भाव दिखायेगा ? उसके दिल में ऐसे ही विचार दौड़ रहे थे। हो सकता है कि गोपाल ने रात को या सवेरे माधवी ही को फोन कर पूछ लिया होगा।" यह विचार तो आया । लेकिन फिर लौट गया कि यह सम्भव नहीं है। क्योंकि माधवी ने स्वयं इस विषय में मुत्तुकुमरन् को आगाह कर भेजा था। इस सूरत में गोपाल के सवालों का उत्तर उसने टाल-मटोल करते ही दिया होगा।

गोपाल एकाएक मुत्तुकुमरन के लिए कोई अनबूझ पहेली हो गया था।

मुझे अपने खर्चों के लिए कोई कष्ट न हो----इस उद्देश्य से हजार रुपये भेजने- वाला दोस्त एक छोटी-सी बात के लिए इतने रूखे व्यवहार पर क्यों उतर आया है ? मुझे बाहर धूमने जाने का, या माधवी को मुझे अपने घर खाते को बुलाने का अधिकार नहीं है क्या ? इसके लिए यह क्यों इतना उद्विग्न हो उठा है ? इतनी तूल क्यों देता है ? शायद इसे यह वहम हो गया है कि माधवी ने मुझसे ऐसी कुछ बातें कही होंगी, जिन्हें अपने विषय में बह रहस्य समझता हो। क्या उस सन्देह का आमने-सामने निराकरण न कर पाने की वजह से ही वह इस तरह धुमा-फिराकर पूछ रहा है ? ---इस तरह मुत्तुकुमरन् के दिल में विचारों पर विचार उठ रहे थे।

सुबह का नाश्ता आने के पहले नहा-धो लेने के विचार से बह स्नानागार में घुसा । ब्रश करते, नहाते, शरीर पर साबुन लगाते, गोपाल के सवालों ने उसका साथ नहीं छोड़ा।

'शवर' बंदकर, शरीर पोंछकर, बाथरूम से ड्रेसिंग रूम में आया तो कमरे के बाहर उसे टंकनध्वनि और चूड़ियों की झनकार सुनायी दी। उसने समझ लिया कि माधवी आ गयी है । उसके आने की राह देखे विना और उसके लिए ठहरे बिना, आते ही माधवी ने टाइप करना शुरू कर दिया तो उसे लगा कि दाल में कुछ काला ज़रूर है।

कपड़े बदलकर वह बाहर आया तो उसने देखा कि माधवी गुमसुम बैठी हैं । उसके बाहर आने पर उसने टाइप करना बंद नहीं किया, न ही कुछ बोली। चुप- चाप टाइप किये जा रही थी। मुत्तुकुमरन् समझ गया कि गोपाल ने माधवी से भी बातें की हैं । अन्यथा माधवी में यह कृत्रिम गंभीरता नहीं आती। पास जाकर उसके टाइप किये हुए काग़ज़ उसने उठाये । तब भी बिना बोले माधवी टाइप करने में लगी रही।

"माधवी ! नाराज हो क्या? कुछ बोलती क्यों नहीं ! क्या आज मौन व्रत है ?" माधवी का मौन-भंग करने के लिए उसने बात छेड़ी।

टाइप करना बंदकर वह उसकी ओर मुड़ी और जैसे अचानक फट पड़ी, "मैंने आपको कितना आगाह किया था, लेकिन आपने सारी बातें गोपालजी से कह दी। यह मुझे क़तई पसन्द नहीं है !"

माधवी के संदेह और क्रोध का कारण अब मुत्तुकुमरन् की समझ में आ गया। पर उसका एक काम पसन्द नहीं आया। उसने कितनी जल्दी उसके बारे में अपनी धारणा बदल ली और सारी बातें उगल दीं। गुस्से में उसकी भौंहें तन गयीं और आँखें लाल हो गयीं!

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