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यह गली बिकाऊ नहीं/9

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नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ ६२ से – ६९ तक

 

नौ
 


"आज तुम्हारे पास पैसा है, हैसियत खड़ी हो गयी है। इसलिए मैं यह नहीं मानूंगा कि तुम नाटक के मामले में भी पारंगत हो गये हो । नाटक के बारे में मैं जो जानता हूँ, वह तुम नहीं जानते। मेरी बात मानकर चलो। मेरी बात से आगे मत बढ़ो। एकाएक तुम्हें बुद्धिमानी की सीढ़ी पर चढ़ने की कोई जरूरत नहीं। समझे?" वह कुछ इस तरह गोपाल को आड़े हाथों लेना चाहता था । पर माधवी के सामने उसका सिर नीचा नहीं करना चाहता था।

वहाँ से चलते हुए गोपाल ने नाटक की एक प्रति हाथ में ली तो मुत्तुकुमरन् ने ऊँचे स्वर में फटकारते हुए कहा, "उसे कहाँ लिये जा रहे हो? यहीं रख दो।" गोपाल उसकी बातों का उल्लंघन नहीं कर सका।

इस दशा में माधवी को वहाँ रहना उचित नहीं जेंचा तो घर चल दी। उसके जाने के थोड़ी देर बाद गोपाल भी अपने बँगले में चला गया। जाते हुए उसने मुत्तुकुमरन् से विदा नहीं ली । मुत्तुकुमरम् को लगा कि गोपाल नाहक रूठ रहा है। पर रूठे को मनाने से उसके अहंकार ने उसे मना कर दिया। रात को सात बजे नायर छोकरा खाना लाया और मुत्तुकुमरन् के हाथ एक बन्द लिफ़ाफ़ा देते हुए कहा, "मालिक ने भेजा है !"

मुसुकुमरन् जिज्ञासा से उसे खोलकर पढ़ने लगा। लड़के ने मेज पर खाना रखकर गिलास में पानी भरा और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वापस बंगले को चल पड़ा।
"प्रिय मुत्तुकुमरन्,

माधत्री के सामने तुम्हारा मेरे साथ बेपरवाही बरतना, खिल्ली उड़ाना या फिर डाँट-फटकार आदि जैसी बातें नहीं सोहतीं । मेरे हुक्म पर चलनेवाले नौकरों के सामने तुम्हारे इस तरह पेश आने को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। तुम्हारे मुंह के सामने ऐसा कहने को संकोच हो रहा था। इसीलिए लिखकर भेजना पड़ रहा है । तुम समझो तो ठीक ! नाटक तुम्हारा लिखा हुआ है तो उसका मंचन करने- वाला और भूमिका निभानेवाला मैं हूँ। आशा है, यह याद रखोगे ।

तुम्हारा'
 
-गोपाल
 

मुत्तुकुमरन ने उस पत्र को मरोड़कर कोने में फेंक दिया। धीरे-धीरे गोपाल के असली रूप का उसे पता चलने लगा। उसके सामने बुजदिल बनकर और दुभ दवाकर चलनेवाला गोपाल उसके पीठ-पीछे क्या-क्या सोचता है ? यह पत्न उसी का खुलासा करता-सा लगा। गोपाल पर इतना गुस्सा चढ़ आया कि उसे खाने की इच्छा ही नहीं हो रही थी। फिर भी, किसी तरह खाने की रस्म पूरी कर बिस्तर पर जा लेटा । अब उसे मालूम हो गया कि माधवी का उससे मिलना-जुलना और नेह बढ़ाना गोपाल को.एक आँख भी नहीं भाता ।

रात को बड़ो देर तक उसे नींद नहीं आयी तो अपने बारे में, माधवी के बारे में, गोपाल के बारे में और मंचित होने वाले अपने नये नाटक के बारे में सोचता हुआ बिस्तर में करवटें लेता रहा।

अब वह यह देखना चाहता था कि कल नियत समय पर गोपाल नाटक के रिहर्सल के लिए आता है कि नहीं ? अगर उसके कहे हुए वक्त पर गोपाल नहीं आये तो? उसके दिल में प्रतिहिंसा की यह भावना उठी कि बिना कहे-सुने अपने नाटक की प्रतियों के साथ उस घर से निकल जाना चाहिए।

लेकिन दूसरे दिन सवेरे ऐसा कुछ नहीं हुआ। उसने रिहर्सल के लिए जो समय बताया था, उसके आधे घण्टे पहले ही गोपाल आउट हाउस में हाजिर हो गया नियत समय पर आ गयी थी।

गोपाल बात को तूल दिये बगैर मान गया था-इस बात से मुत्तुकुमरन् को आश्चर्य हो रहा था। पर उसने उसे प्रकट होने नहीं दिया और स्वाभाविक ढंग से काम शुरू कर दिया।

नाटक कंपनियों में जैसा कि प्रचलन है, सारी औपचारिकताएं पूरी की गयीं। पूजा के बाद, नाटक का रिहर्सल शुरू करने के पहले कथा और कथा-पात्रों के विषय में एक खाका खींचा गया। फिर पात्रों की सूची देकर गोपाल से कहा कि उनके सामने अभिनेताओं के नाम भर दे । यथा
नर्तकी- माधवी

पांडिय-गोपाल

कवि-शगोपन्

कवि मित्र-जयराम

इस तरह सूची में अठारह पान थे। उनके सामने अठारहों अभिनेताओं के नाम लिखकर गोपाल ने सूची मुत्तुकुमरन् के सामने बढ़ायी।

"इन अठारहों में तीन ही पानों को हमारी टाइप की हुई प्रतियाँ मिलेगी। बाकी लोगों को याद करने के लिए संवाद लिख लेने होंगे !" मुत्तुकुमरन ने कहा !

"हाँ हाँ ! वही ठीक रहेगा ! मैं इसका इन्तजाम कर दूंगा ! सब लिख लेंगे !" गोपाल ने कहा।

गोपाल और माधवी के लिए रिहर्सल का वक्त सुबह और बाकी लोगों के लिए जाम का समय तय हुआ।..

रिहर्सल करते-करते गोपाल ने नाटक के संवाद के विषय में एक संशोधन सुझाने का उपक्रम किया । वह यह था कि कथानायिका नर्तकी का नाम कमलवल्ली रखा गया है। संबोधन में हर बार 'कमलवल्ली, कमलवल्ली' कहकर कथानायक को पुकारना पड़ता है । "मेरे ख़याल में 'कमला' कहकर पुकारे तो अच्छा रहेगा। छोटा नाम सुन्दर रहेगा और बुलाने में भी सहूलियत रहेगी।"

"नहीं, कमलबल्ली ही बुलाना चाहिए !"

"क्यों ? कमला बुलाने में क्या हर्ज है ?"

"यह ऐतिहासिक नाम है। कमलचल्ली को 'कमला' कहकर पुकारने से सामाजिक नाटक का आभास हो जायेगा !"

"तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आती !"

"तुम्हारी समझ में आयेंगी भी कैसे?"

मुत्तुकुमरन की इस टिप्पणी से गोपाल का मुंह लाल हो गया । मुत्तुकुमरन ने यह महसूस किया कि उसके प्रतिवाद को गोपाल का घमंड हजम नहीं कर पा रहा है। फिर भी रिहर्सल जारी थी।

मुत्तुकुमरन् ने गोपाल को खातिर न तो अपना विचार बदला और न समझौते का प्रयत्न किया । संवाद और अभिनय के मामले में अपनी ही बातों पर जोर देता रहा।

पहले दिन के रिहर्सल में गोपाल के साथ मुत्तुकुमरन् की कोई ज्यादा मुठभेड़ नहीं हुई। बर्ता माधवी तो गोपाल के आगे इस तरह डरती थी जैसे बांघ के आगे हिरनी । उसे साथ रखकर मुत्तुकुमरन् भी गोपाल से कड़ाई से पेश आने या हद से बाहर होने को हिचकता था। पिछली रात को गोपाल ने जो पत्र भेजा था, वह सिर उठाकर उसे सतर्क करता रहा। पर गोपाल अंडबंड सवाल कर बैठता तो उसे
ऐसा गुस्सा आता कि एक की चार खरी-खोटी सुना दे। लेकिन किसी तरह अपने को सम्हाल लेता।

उस दिन गोपाल दो बजे के पहले ही यह कहकर चला गया कि उसे कोई 'कॉलशीट' है। केवल माधवी रह गयी। उसने मुत्तुकुमरन् को टोकते हुए कहा, "आप फ़िजूल के बखेड़ों में क्यों पड़ते हैं ? आपने नाटक लिख दिया। वे जैसे चाहें, खेलें। इसमें आपका क्या आता-जाता है ?"

"मैं नाटककार हूँ ! इसे क्या आसानी से भूला जा सकता है?"

"मैं भूलने को नहीं कह रही ! पूछती हूँ कि व्यर्थ का हठ क्यों ठानते हैं ?"

"नहीं ! हठ से ही आजकल भले-बुरे की रक्षा की जा सकती है !"

"आजकल भले-बुरे की रक्षा कौन करना चाहता है ? सब पैसा ही बनाना चाहते हैं।"

"हाँ, पैसे की बात गोपाल पर लागू हो सकती है ! अच्छा, छोड़ो ! शाम को दूसरों के लिए रिहर्सल की बात कह गया न? वे दूसरे कौन हैं ? कब आयेंगे ? कैसे आयेंगे? इसका तो कोई पता-ठिकाना नहीं चलता !"

"सबका इन्तज़ाम किया होगा। 'दैन' जाकर उन्हें बटोर लायेगी। नाटकों में 'साइड रोल' की भूमिका करने के लिए यहाँ कितने ही घराने पड़े हैं, जो बड़ा कष्टकर जीवन बिता रहे हैं । ऐसे पात्रों का यहाँ कोई अकाल नहीं है।"

"हो सकता है कि अकाल न पर अकालग्रस्त लोगों से कला-भावना की रक्षा हो सकती है कहीं ?"

"कला की साधना के लिए कोई शहर नहीं आता । पेट पालने के लिए ही सब शहर आते हैं और आये भी हैं।"

"तभी शहरों में कला की हालत खस्ता है !"

इसका माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन जैसा कि उसने बताया था, थोड़ी देर में दस-पन्द्रह स्त्री-पुरुषों से खचाखच भरी एक 'वैन' आयी; जिसमें से सभी हाट-बाजार का-सा शोरगुल मचाते हुए उतरे। मुत्तुकुमरन और माधवी को सामने देखते ही उनकी बोलती बन्द हो गयी । उन्हें आउट हाउस के बरामदे में ले जाकर यह फैसला करने में आधे घण्टे से भी अधिक का समय लग गया कि किसे किस पात्र की भूमिका दी जाए।

एक युवक जो दूत की भूमिका करने के लिए चुना गया था; मुत्तुकुमरन ने यह संवाद देकर पढ़ने को कहा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घुमायें तो सारे दुश्मन जमीन चूमेंगे।' तो उसने पढ़ा, "हमारे महाराज तलवार लेकर घूम आयें तो सारे '. दुश्मन जमीन झूमेंगे।"

"अरे भाई ! 'घूम आना' नहीं, 'घुमाना', 'झूमना' नहीं 'चूमना' ।"- मुत्तुकुमरन् ने 'घुमाने' और 'चूमने पर जितना ज़ोर दिया, उतना ही उसने 'धूम हो आने और 'झूमने पर जोर दिया, मानो कुत्ते की दुम हो ।

"अरे भाई ! लड़ाई का मैदान है यहाँ घूमने के लिए कोई बाग-बगीचा नहीं!" मुत्तुकुमरन् के हास-परिहास को उसने क्या समझा ? खाक समझा !

मुत्तुकमरन् को सिर पीटने के सिवा कोई चारा नजर नहीं आया। उनमें अधिकांश साफ़ संवाद बोलने, भाव-प्रदर्शन करने और भूमिका समझने में अयोग्य ही सिद्ध हुए। मुत्तुकुमरन को अब यह समझते देर न लगी कि मद्रास में मजदूरों की तरह ही नाटकों के उन पानों की भूमिका करने के लिए आदमी मिल रहे हैं।

माधवी ने सबको कागज़-पेन्सिल देकर अपना-अपना संवाद लिख लेने को कहा । उनमें से कुछेक तो बिना गलती के लिखना तक नहीं जानते थे ।

"हमारी वायस् कंपनी में गरीबी की भूख सताती थी। लेकिन कला के विषय में न गरीवी थी और न ज्ञान-शून्यता । यहाँ की हालत को देखते हुए लगता है, वह जमाना कहीं अच्छा था।" माधवी को अन्दर ले जाकर मुत्तुकुमरन ने अपनी मनो- व्यथा सुनायी।

"क्या करें? यहाँ की हालत ऐसी ही है । कष्ट भोगने वाले ही इस तरह काम की तलाश में आते हैं । कला की साधना के मुकाबिले इस क्षेत्र को आने वाले जीविका का साधन मानकर, ही अधिक हैं " माधवी ने कहा।

रिहर्सल के समय, मुत्तुकुमरन् ने उन अभिनेताओं में एक और तरह के संक्रामक रोग को फैले हुए पाया ! फ़िल्मी क्षेत्र के किसी नामवर अभिनेता की आवाज़, बोलने के तौर-तरीके, भाव-प्रदर्शन आदि की नकल करना ही उनका ध्येय और सामर्थ्य- दर्शन था। कला और कला के भविष्य की चिंता तो उनमें थी ही नहीं।

... मुत्तु कुमरन ने उन्हें अभ्यास कराने में दो-तीन घण्टे लगाया । हर एक अभि- नेता में उसने इस विचार को सिर उठाये हुए पाया कि मंच पर एक मिनट भी सिर धुसाने का मौका मिले तो उस मौके पर कथा-नायक से भी अपने को प्रमुख मान ले और प्रभाव पैदा कर चला जाय । कला की किसी भी विधा में आत्म-वेदना नहीं के बराबर थी और केवल स्वयं को प्रदर्शित करने की इच्छा तीव्रतम थी। हर उप- अभिनेता यही सपना देखता था कि हम भी फ़लाने मशहूर अभिनेता की भाँति पैसा कमायें, नाम-यश पायें; कार-बँगले खरीदें और सुख भोगें । मेहनत से काम करने और सामर्थ्य बढ़ाने का उत्साह किसी में नहीं दीखा । मुत्तुकुमरन् जानता था कि कला के क्षेत्र के लिए यह हानिकारक है । पर वह कर ही क्या सकता था ?

दूसरे दिन भी रिहर्सल के लिए आने को कहकर उसने उन्हें विदा किया तो शाम के छः बज गये थे । पहले जो 'वैन उन्हें भरकर लायी थी, अब उन्हें भरकर बँगले से बाहर ले गयी। जाती हुई 'वैत' को देखते हुए मुत्तुकुमरन्' ने माधवी से कहा, "लगता है कि हरेक अभिनेता ने अपने दस-पन्द्रह आदमियों को काम दिलाने के लिए ऐसी ही कोई नाटक-मंडली खोल रखी है !"
"बात सही है ! लेकिन जो लोग कला की साधना के उद्देश्य से यह कार्य शुरू करते हैं, वे भी धीरे-धीरे इसी चक्कर में पड़ जाते हैं । कला का ध्यान छू मंतर हो जाता है !"

"उप-अभिनेताओं को मासिक वेतन दिया जाता है या दैनिक मजदुरी ? यहाँ कौन-सा रिवाज चलता है ?"

"अगर अपने आदमी कोई काम न भी करें तो वे मासिक वेतन दे देते हैं। दूसरे हों तो सिर्फ़ नाटक में भाग लेने के दिन के ही पैसे देते हैं। दस रुपये से लेकर पचास रुपये तक । आदमी, हैसियत और घनिष्ठता के अनुसार इनमें फर्क पड़ता है !"

"नाटक ज्यादातर कैसे चलते हैं ? अकसर कौन देखने आते हैं ? पैसा वसूल कैसे होता है ?"

"मद्रास में ऐसी सभाओं को छोड़कर दूसरा चारा नहीं है । हर समुदाय की कोई-न-कोई सभा होती है। मद्रास के बाहर भी, बम्बई, कलकत्ता, दिल्ली जैसे शहरों में जहाँ हमारे लोग हैं, वहाँ ये मण्डलियाँ जाती हैं। इनके अलावा नगर- पालिका की प्रदर्शनियों, मन्दिरों के मेलों और राजनीतिक दलों के अधिवेशनों में भी तरह-तरह के नाटक होते हैं । दूसरे शहरों में नाटक मंडली और सारी सज्जा- सामग्री को ले जाना होता है। यह तो ऐसा कठिन काम है कि जान ही निकल जाती है !"

"इतनी सारी सभाओं, प्रदर्शनियों और रंगमंचों के बढ़ने पर भी लगता है कि इस कला को समर्पित कलाकारों में उस जमाने की तरह श्रद्धा या आत्मवेदना नहीं है । पेट की भूख तो है। किन्तु कला की भूख नहीं है। अगर है तो उसको पेट की भूख खा जाती है !"

"आप बिलकुल ठीक कह रहे हैं।' माधवी ने लम्बी साँस खींची । थोड़ी देर बाद बात जारी रखते हुए उसने कहा, "कलकत्ता में ऐसे थियेटर हैं, जहाँ रोज़ नाटक चलते हैं । वहाँ के लोगों में नाटक के प्रति श्रद्धा है और कला के प्रति आत्म- वेदना भी । मैं एक बार गोपालजी के साथ कलकत्ता गयी थी, तब हमने 'भूख' नामक एक बांग्ला नाटक देखा था । बड़ा अच्छा था । संवाद बहुत कम थे लेकिन हाव-भाव और भंगिमाएँ ही ज्यादा थीं। नाटक इतना नपा-तुला था कि क्या कहें ?"

“गोपाल के साथ तुम कलकत्ता क्यों गयी थी?" यह सवाल मुत्तुकुमरन् के होंठों तक आ गया था। पर उसने न जाने क्या सोचकर उसे निगल लिया ! : थोड़ी देर तक दोनों में कोई बात-चीत नहीं हुई और मौन छाया रहा। गोपाल के साथ अपने कलकत्ता हो आने की बात कहने की क्या जरूरत थी?-- माधवी अपनी भूल को महसूस कर, कुछ क्षणों के लिए सिर झुकाये चुप बैठी रही। मानो कोई कलाकार अनजाने ही बाजे में बेसुरा तार छेड़कर शमिन्दा हो । श्रोता तो यहाँ और भी असमंजस में पड़ गया था। इस दमघोंटू बातावरण से छूटने के विचार से माधवी ने बात बदलकर पूछा, "कल हम दोनों का रिहर्सल तो सवेरे ही है न ? दिन तो बहुत कम बचे हैं !"

"किसके लिए दिन बहुत कम हैं ?

"नाटक के मंचन के लिए ! मंत्री ने तो तारीख़ दे दी है न?"

"नाटक के मंचन से बढ़कर मंत्री के 'डेट' पर ही यहाँ सबका ध्यान केन्द्रित रहता है !"

"कसूर हो तो माफ़ कीजिए ! मैंने उस अर्थ में नहीं कहा।"

"चाहे किसी माने में भी कहो ! लगता है कि आजकल कोई कला कला के लिए नहीं बल्कि मन्त्री महोदय की अध्यक्षता और अखबारों में खबर छपने के लिए ही है।"

"एक और बात' 'बड़ी विनम्रता से कहना चाहती हूँ। आप बुरा न मानें तो कहूं।

"बात न बताकर इस तरह कहती रहोगी तो मैं कैसे जवाब दूं?"

"आपको गुस्सा नहीं करना चाहिए, सब्र से सुनना चाहिए । मुझे संकोच हो रहा है कि मैं अपनी वह बात कैसे शुरू करूँ ? अच्छा हुआ कि आज पहले दिन के रिहर्सल में वैसे कुछ नहीं हुआ !"

"कुछ नहीं हुआ का मतलब ?"

"कुछ नहीं ! रिहर्सल के समय गोपाल साहब मेरा तन स्पर्श करें या मुझे छेड़ें तो मैं न तो उसका विरोध कर सकती हूँ और न ही मुंह फेर सकती हूँ। आपको इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। मैं एक अबला हूं । आपको यह नहीं समझना चाहिए कि अपने स्पर्श करनेवालों को मैं भी छूना चाहती हूँ।”

यह कहते हुए माधवी की आवाज़ ऐसी रुंध गयी, मानो रो पड़ेगी । उसके सजल नेत्र गिड़गिड़ाते-से लगे। उसने उसे घूरकर देखा। उसकी विनती में सतर्कता और स्वरक्षा की भावना नज़र आयी। उसकी इस सतर्कता ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि वह उसपर अपना दिल न्योछावर कर चुकी है और उसके प्यार के बंधन में बंध चुकी है। उसकी बातों में बच्चों की निरीहता और स्त्रियोचित भोलापन देखकर वह खुश हुआ। उसे गौरव-सा महसूस हुआ । उसके जी में आया कि उसे आड़े हाथों ले, उसपर गुस्सा उतारे या कि उसे दिलासा देकर दिल से लगा ले।

उसकी ओर आँखें उठाकर उसने दुबारा देखा तो उसकी गिड़गिड़ाती आँखें डबडबा

आयी थीं।
माधवी का चेहरा निहारते हुए मुत्तुकुमरन ने कहा, "न जाने क्यों, तुम लोग गोपाल से यों ही डरते हो, मानो वह कोई चक्रवर्ती राजा हो !"

"शायद आप यह भूल गये कि समाज की ऊंची     चोटियों पर धनी-मानी, नामी-गिरामी व्यक्ति ही राजे-महाराजों की तरह अव भी बैठे हैं !"

"कहीं किसी चक्रवर्ती-महाराज की धौंस से डर मरने की मेरी आदत नहीं रही है। मैं खुद अपने को किसी चक्रवर्ती राजा से कम नहीं मानता।"

"शायद इसीलिए मुझे आजकल आप से भी डरना पड़ रहा है।"

“गोपाल से डरने और मुझसे डरने में कोई फ़र्क महसूस करती हो तो मुझे गर्व होगा!" कहकर मुत्तुकुमरन ने उसकी ओर देखा तो उसकी आँखों और अधरों पर मुस्कराहट खेल रही थी।

"आप बड़े 'वो' हैं !"

"लेकिन लगता है कि मुझसे बड़े 'वोओं' से ही तुम डरोगी!"

"प्रेम के बंधन में बंधते हुए डरने और हुकूमत के बंधन में डरने में बड़ा फ़र्क ' होता है !"

उसकी बातों की तह में सच्चे प्यार और लगन की गूंज सुनते हुए मुत्तुकुमरन मन-ही-मन बहुत खुश हुआ।