यह गली बिकाऊ नहीं/8

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आठ
 

माधवी की विनती मानकर मुत्तुकुमरत् ने उसके बारे में गोपाल से कुछ नहीं पूछा। पहले तो उसने मन में ठान लिया था कि गोपाल को आड़े हाथों ले और कह दे कि माधवी के हाथों खाना परोसवाना और जूठे बरतन उठवाना मुझे क़तई. पसन्द नहीं। पर माधवी की मिन्नतों ने उसे ऐसा करने से रोक दिया। [ ५६ ]"मेरा तो उनसे बहुत दिनों का परिचय है। आप तो अभी नये-नये आये हैं, आप उनके लाख लंगोटिया पार ही क्यों न हों। मेरे साथ उनके बरताव का आप खंडन करने जायेंगे तो न जाने क्या फल निकलेगा ! सो वह ख्याल छोड़ दीजिए !"

मुतुकुमरन् माधवी की इन बातों का आशय समझते हुए इस निर्णय पर पहुँचा कि माधवी के खाना परोसने और जूठे बरतत उाने की बात की तह में जाने से माधवी के जीवन में खलल पड़ा। अत: अपने इन विचारों से उसने अपना हाथ खींच लिया।

इसके अलावा अब वह धीरे-धीरे गोपाल को समझ पा रहा था । मद्रास आने पर पहले दिन की मुलाकत में उसने गोपाल को उदारमना पाया था। पर वह निर्णय अब गलत निकल रहा था। बाहर से देखने पर गोपाल दरियादिल लगता था। पर अन्दर से तो दिल का खोटा, कपटी और घमंडी दीख पड़ रहा था।

मद्रास जैसे बड़े शहरों में रहनेवाले लोगों को बाहर से आनेवाला औसत दर्जे का आदमी प्रथम दर्शन में उदारचेता पाता है। पर देखते-देखते उसकी धारणा मिथ्या हो जाती है। उनके सौहार्द, करुणा और प्रेम के मूल में जो कारण छिपे हैं जब उनका पता लगता है तो अपने अनुमान और निर्णय पर उसे पछताना पड़ता है। गोपाल के बारे में अब मृत्तकुमरन् की यही दशा हो गयी।

यद्यपि शहर के अभिजात समाज की सड़कें सुन्दर और सजी हुई दिखायी दे रही थीं, फिर भी उन सड़कों में, और उन सड़कों पर स्थित घरों में कुशल अवसरवादी, हिंस्र पशु जैसे क्रूर व्यक्ति, असहाय और इन्साफ़ चाहने वाले नेक चलन लोग भी विवेक-हीन दृष्टि और विषम बल लेकर आपस में निरंतर लड़ते- भिड़ते-से उसे नजर आये।

चिन्तातिरिसेझै में अंगप्पन की चित्रशाला से दृश्यवन्ध वगैरह चुनकर लौटने के बाद से, गोपाल से हिलने-मिलने और बातचीत से दूर रहने का एक सुअवसर स्वयं मुत्तुकुमल् के हाथ लगा।

दूसरे ही दिन, किसी फ़िल्म के बाह्य दृश्यांकन के सिलसिले में गोपाल को वायुयान से अपनी मंडली के साथ, कश्मीर के लिए रवाना होना पड़ा । जाते वह मुत्तुकुमरन और माधवी से कह गया कि मुझे लौटने में दोहाते लगेंगे । उसके पहले नाटक पूरा हो जाय और रिहर्सल के लिए तैयार रखा जाए तो अच्छा हो।

अतः मुत्तुकुमरन् समुद्र-तट या कहीं बाहर जाना छोड़कर नाटक का आलेख पूरा करने में पूरी तरह से जुट गया । माधवी भी उसकी पांडुलिपि की टंकित प्रति निकालने में अधिक ध्यान देने लगी । उन दिनों में मुत्तुकुमरन् काफ़ी रात गये जाग- जागकर भी नाटक लिखता रहा । वह रात को जो कुछ लिखता, उसे भी माधवी दिन में हो टाइप करती। अंतः उसका काम दुहरा हो गया । इस तरह दस-बारह दिन न जाने कैसे बीत गये ! [ ५७ ]
कश्मीर जाने के बारहवें दिन गोपाल के पास से मुत्तुकुमरन् के नाम पत्र आया, जिसमें उसने पूछा था कि नाटक की प्रगति कहाँ तक हुई है ? उस दिन मुत्तुकुमरन् नाटक के अंतिम चरण में था । इस दृश्य में एक सामूहिक गान का आयोजन था । दूसरे दिन सवेरे, जहाँ तक मुत्तुकुमरन् का सम्बन्ध है, नाटक पूरा तैयार हो गया था। सिर्फ माधवी का टाइप करना भर बाकी रह गया था । वह भी इतना ही कि सबेरे बैठती तो दोपहर को पूरा हो जाता।

टाइप करने के लिए जब माधवी आयी, तब मुत्तुकुमरन् बाल बनवाने के लिए सैलून जाने के उपक्रम में था। मद्रास आने के एक महीने पहले से ही उसके बाल बढ़े हुए थे। इसलिए उस दिन उस काम से निवृत्त होने को उसने ठान लिया था। जाते हुए वह माधवी से कह गया कि मेरे वापस आने तक तुम्हारे लिए टाइप करने का काम पड़ा है । तुम्हारे टाइप करने के पहले ही शायद मैं आ जाऊँगा।

गोपाल के ड्राइवर ने मुत्तुकुमरन् को पांडि बाजार के एक आधुनिक वातानु- कूलित सैलून के सामने उतारा । अन्दर जाने पर, मुत्तुकुमरन् को थोड़ी देर के लिए बाहरी बैठक में इन्तजार करना पड़ा। वहाँ तमिळ के दैनिक, साप्ताहिक, मासिक और फ़िल्मी दुनिया की पत्र-पत्रिकाओं के अंबार लगे थे। एक छोटा-मोटा वाचनालय ही था।

ऊपर, दीवार के चारों ओर. युवतियों के मनमोहक 'बाथरूम पोज' वाले कैलेंडर लगे थे । न नहाते हुए भी बहुत ही थोड़े लिबास में कुछ लड़कियों की तस्वीरें ऐसी बनी थीं कि देखकर नहानेवालियाँ भी लजा जायें । कैलेंडर बनाने- वालों का शायद यह विचार रहा हो कि सारी दुनिया की लड़कियों को या तो नहाने के सिवा कोई काम नहीं या नहाना मात्र ही सार्वभौम स्त्री-संस्कृति है।

उन चित्रों को देखते-देखते : मुत्तुकुमरन् ऊब गया था । मेज़ पर पड़ी रंगीन चित्रों वाली एक साप्ताहिक पत्रिका उठाकर उलटने-पुलटने लगा। बाहर के कवर- चित्र से लेकर धारावाही उपन्यास और लंधुकथाओं के चित्रों में भी स्त्रियाँ नहा ही रही थीं। अच्छा हुआ कि उसका धैर्य जवाब दे दे-इसके पहले अंदर से बुलावा आ गया। अंदर जाकरं कुरसी पर बैठा तो देखा कि अगल बगल और आमने-सामने उसके चेहरे के प्रतिबिंब दसेक आईनों में दिखायी देने लगे। अपने ही प्रतिबिंबों पर गर्व करने का जी हो रहा था । दो आईनों के बीच, गोपाल की एक तस्वीर सुन्दर 'फम' में सजी टंगी हुई थी। नाई का उस्तरा जब सिर पर चल रहा था, तब उसकी आँखों में मीठी नींद भरने लगी। अधमुंदी-अधखुली आँखों से गोपाल का चित्र देखते हुए उसके मन में गोपाल के बारे में एक-एक कर विचार : भी उभरते चले गये।

'गोपाल जी से मेरा बहुत दिनों का परिचय' है । नाम के वास्ते मुझे 'इन्टरव्यू [ ५८ ]
के लिए बुलाया और नये आये हुए लोगों की तरह सवाल भी किया ! सब कुछ ढोंग था, नाटक था.!' माधवी ने तो उसके सामने गोपाल का सारा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख दिया था । पर गोपाल ने तो यूं तक नहीं की और छुपा भी रहा था, मानो 'इन्टरव्यू के समय ही माधवी को देखा है। माधवी को टाइप करने के लिए भेजते. हुए भी उसने बात घुमा-फिराकर कही थी कि माधवी ने 'इंटरव्यू में बताया था कि वह टाइप करना भी जानती है। इसलिए उसीको नाटक टाइप करने को बुलवा भेजूंगा।

गोपाल ने कभी इस बात का भान होने नहीं दिया कि वह पहले से ही माधवी को जानता है।

मुत्तुकुमरन को विश्वास हो गया कि गोपाल उससे यह सब छुपाता रहा। उसे सैलून से लौटते हुए सुनह के ग्यारह बज चुके थे । माधवी टाइपिंग का काम पूरा कर, शुरू से टाइप किये हुए काग़ज़ों को हाथ में लेकर अशुद्धियाँ सुधारने में लगी हुई थी।

मुत्तुकुमरन् सीधे स्नानागार गया और नहा-धोकर कपड़े बदलकर लौटा। माधवी उसपर दृष्टि फेरकर बोली, "एकाएक आप बड़े दुबले लगने लगे हैं। शायद बाल छोटे करवा लिये हैं !"

"गौर नहीं किया ! बाल बनवाते समय मुझे बड़ी नींद आ गयी ! मैं सो गया !"

"नाटक तो बहुत अच्छा बन पड़ा है ! अभी तक शीर्षक नहीं दिया है । क्या शीर्षक देंगे?"

"सोचता हूँ कि 'प्रेम-एक नर्तकी का' रखू ! तुम्हारा क्या ख़याल है?"

"मेरे ख़याल से भी अच्छा है !".

"न जाने, गोपाल क्या कहेगा?

"वे परसों आ जायेंगे। देखें, वे क्या बताते हैं ?"

"हो सकता है कि वह दूसरा----कोई फड़कता-सा नाम रखना चाहे !"

"तब तक के लिए इस पांडुलिपि और टंकित लिपि में 'प्रेम-एक नर्तकी का' ही लिख रखूगी !

मुत्तुकुमरन् ने हामी भरी । भोजन के बाद दोनों बैठकर बातें कर रहे थे कि मुत्तुकुमरन ने पूछा, "आज तो नाटक लिखना पूरा हो गया है । इस खुशी में हम दोनों कोई सिनेमा देखने क्यों न चलें?"

'मैटिनी शो' के लिए चलें तो मैं साथ आऊँगी-"माधवी ने हामी भरी। मुत्तुकुमरन् मान गया और तुरन्त चल पड़ा।

दोनों एक नयीं तमिळ फिल्म देखने गये । वह एक सामाजिक फ़िल्म थी।

'टाइटिल' में उसे एक बांग्ला कहानी पर आधारित बताया गया था जिसके लिए [ ५९ ]
क्षमा-याचना भी की गयी थी। पट-कथा, संवाद, गीत और निर्देशन का पूरा भार एक ही व्यक्ति ने अपने पर लिया था। गोपाल की तरह ही प्रसिद्ध एक-दूसरे अभिनेता ने उसकी भूमिका की थी। पुराने जमाने के 'वल्लि-विवाह' नाटक में वेलन् (कुमार कार्तिकेय) व्याध और वृद्ध के भेष में जैसे एक ही व्यक्ति आया करता था, वैसे ही इस सामाजिक चित्र में भी पंजाबी, पठान और मारवाड़ी के भेष में उक्त अभिनेता ने तिहरी भूमिका निभायी थी।

फ़िल्म देखते-देखते मुत्तुकुमरन् ने माधवी से एक सवाल किया, "सभी चित्रों में न जाने क्यों एक ही आदमी अपने को सभी विधाओं में पारंगत दर्शाना चाहता है, जबकि हर विधा में अपने को अधूरा ही साबित करता है बेचारा !"

"तमिळ सिने-जगत का यह अभिशाप है, जो मिटाये नहीं मिटता । यहाँ अचानक कोई 'डाइरेक्टर' अपने चित्र के लिए कहानी लिखने लगेगा । उनका उद्देश्य यह दिखाने का होता है कि उन्हें कहानी लिखना भी आता है। तारीफ़ करनेवाले यह मानकर तारीफ करते हैं कि तारीफ़ करना उनका कर्तव्य है। देखनेवाले इसलिए देखते हैं कि देखना उनका कर्तव्य है। समालोचना करनेवाले इसलिए समालोचना करते हैं कि समालोचना करना या तारीफ़ का पुल बाँधना उनका कर्तव्य है।"

"रुक क्यों गयी? बोलो ! डाइरेक्टर को कहानी लिखते देखकर अभिनेता के मन में यह धुन सवार क्यों नहीं होगी कि हम भी कोई कहानी लिखें ? तो वह कोई कहानी लिख मारेगा ! फिर तारीफ करनेवालों और समालोचना करनेवालों के कर्तव्य जोर मारेंगे तो झख मारकर सब-के-सब मैदान में उतरेंगे।"

"बाद को इनकी. देखादेखी स्टूडियो का 'लाइट ब्वॉय' भी एक दिन लव- • स्टोरी लिखेगा । लोकतन्त्र में तो जिसको जो जी में आये, करने की स्वतन्त्रता है.! उसकी कहानी पर फ़िल्म भी बनेगी। हो सकता है, वह डाइरेक्टर और अभिनेता की लिखी हुई कहानियों से बढ़कर कहीं ज्यादा 'रियल' और 'प्रैक्टिकल भी हो!"

पीछे की सीट पर बैठे किसी परम रसिक महोदय को मुत्तुकुमरन् और माधवी के वार्तालाप से फिल्म देखने में बाधा महसूस हुई तो ने गुस्से में बड़बड़ाने-से लगे। दोनों ने बोलना बन्द कर दिया ।

सामने पर्दे पर नायिका का स्वप्न-दृश्य चल रहा था । चमाचम चमकते सुनहरे वृक्षों पर चांदी के फल लगे थे । नायिका हर पेड़ पर चढ़ती और झूलती। लेकिन किसी पेड़ की शाखा तक नहीं टूटती । भारी-भरकम देह वाली नायिका एक बड़ा लम्बा गाना भी गाती रही। वह इतना लम्बा था कि सभी पेड़ों पर चढ़ने और झूलने के बाद ही कहीं जाकर समाप्त हुआ। 'डंगरी डुंगाले, डुंगरी डंगाले' वाली जो पंक्ति बार-बार आयी, न जाने, वह किस जुबान की थी ! मुत्तुकुमरन् ने समझ न पाने के कारण माधवी से पूछा तो वह मुत्तुकुमरन के कानों [ ६० ]
में फुसफुसायो—“लगता है, यह फ़िल्म की जुबान है, प्रेमियों की भाषा है !"

"आप इस तरह बोलते रहेंगे तो हम फ़िल्म कैसे देख सकते हैं ? बोलना ही है तो बाहर जाकर बोलिए !"--पीछे की सीट से कैंची-सी जुबान चली तो दोनों ने अपनी जुवान खींच ली।

फ़िल्म के समाप्त होने तक उनसे वहां रहा नहीं गया। बीच में ही उठकर चल पड़े। वहाँ से चलकर वे माउंट रोड स्थित एक पश्चिमी ढंग के वातानुकूलित होटल में नाश्ता करने के लिए घुसे । सीट पर बैठकर नाश्ते के लिए ऑर्डर देने के बाद मुत्तकुमरन ने माधवी से पूछा, "जब तुम भी मेरी तरह इन अधकचरी फ़िल्मों से नफ़रत करती हो तो ऐसी स्थिति में, इस क्षेत्र में कैसे रह पा रही हो ?"

"दूसरा चारा भी बया है ? पढ़ी-लिखी होने के कारण इसका बुरा-भला-- सब-कुछ समझ में आ जाता है। पर किसी दूसरे के सामने हम इसकी बुराई मुँह से नहीं निकालते । इस क्षेत्र में, चापलूसी और सच्ची स्तुति के बीच कोई विशेष अन्तर नहीं है। सब चापलूस हैं, सच्ची स्तुति कुछ नहीं है। इसलिए फ़िक्र की कोई बात नहीं । अपने से जो बन पड़े, उसे ईमानदारी से करना चाहिए और बाकी दूसरों पर छोड़ देना चाहिए । यह भलमनसाहत इस क्षेत्र में ढूंढे नहीं मिलती। यहां यही मनोभावना काम करती है कि हर कोई हर काम कर सकता है । इस भावना को उतनी आसानी से कोई उखाड़ नहीं सकता!"

"इन सबमें गोपाल कैसा है?"

"आप पूछ रहे हैं इसलिए सतही बातें नहीं करना चाहिए !"

"सच्ची बात ही बताओ!".

"इस फील्ड' में जब आये थे, तब दिल लगाकर बड़ी ईमानदारी के साथ

काम किया था। अब तो दूसरों की तरह हो गये। सच्चाई विदा हो गयी !"

"कला के क्षेत्र में आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"माने?"

"सच्ची-श्रद्धा होनी चाहिए !"

"बहुत से लोग शरीर को कोई कष्ट हो-ऐसा कोई काम नहीं करते । आप तो एक सीढ़ी ऊपर चढ़कर कहते हैं कि आत्म-वेदना होनी चाहिए !"

"हाँ, हृदय की बात, अन्दर की बात कहता हूँ। बिना आत्म-वेदना के मुझसे कविता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती, बिना आत्म-वेदना के मुझसे कहानी की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जाती । बिना आत्म-वेदना के तो मैं संवाद की एक पंक्ति भी नहीं लिख पाता !"

"हाँ, सम्भव है। क्योंकि कला के प्रति आप की ऐसी श्रद्धा है, जिसके लिए आप में तड़प है. और आप आत्म-वेदना का अनुभव करते हैं। लेकिन यहाँ कइयों को यह भी मालूम नहीं है कि आत्म-वेदना किस चिड़िया का नाम है ? पूछेगे कि. [ ६१ ]
कितने का एक किलो आता है ?"

"बड़े अफ़सोस की बात है ! देखकर आश्चर्य होता है कि इतने नक़ली लोग मिलकर लाखों में रुपये कैसे पैदा करते हैं ?"

नाश्ता आ गया। बिना कुछ बोले दोनों ने नाश्ता पूरा किया। कॉफ़ी के आने में थोड़ी देर लगी। उस होटल में 'ऑर्डर' लेनेवाला कछुए की गति से आता और नाश्ता लानेवाला कछुए को पछाड़ देता था। इसलिए नाश्ता पूरा कर उठने में उन्हें एक घण्टे से अधिक का समय लग गया । लौटते हुए मुत्तुकुमरन् माधवी को उसके घर पहुँचा कर लौटा। . दूसरे दिन सवेरे, बिना किसी पूर्व-सूचना के, एक दिन पहले ही गोपाल लौट आया । आते ही नाटक के बारे में पूछकर अपनी उतावली दिखाई। कश्मीर से लौटने के दिन गोपाल कहीं बाहर नहीं गया। नाटक की एक प्रति ले जाकर अपने कमरे में बैठकर पड़ता रहा। शाम को छः बजे मुत्तुकुमरन को देखने आउट हाउस में आया । वहाँ माधवी और मुत्तुकुमरन् बैठे बातें कर रहे थे। गोपाल को अचानक वहाँ देखकर माधवी भय-भक्ति के साथ उठ खड़ी हुई । मुत्तुकुमरन् को माधवी का यह भय नहीं भाया।

"नाटक पढ़ लिया!"

"•••••••••"

"शीर्षक बदलना चाहिए । कोई दिलकश नाम ढूँढ़ना चाहिए । हास्य का कोई 'स्कोप' नहीं है। उसके लिए भी कुछ करना चाहिए।"

"•••••••"

"अरे, उस्ताद ! मैं कहता चला जा रहा हूँ। तुम तो जवाब ही नहीं देते !" "इसमें जवाब देने को क्या है ? तुम्ही सब कुछ जानते हो !" "तुम्हारा जवाब चुभता-सा लगता है !"

"••••••••"

"दिलकश शीर्षक देने में और बीच-बीच में हास्य को घुसेड़ने में हमारा जिल-जिल बड़ा फ़नकार है ! सोच रहा हूँ कि उसके हाथ स्क्रिप्ट' देकर दुरुस्त करवाऊँ!"

"छि:-छि: ! वह किस लिए? मेरे ख़याल में जिल-जिल से बढ़कर ऐसे कामों के लिए तुम्हारे पांडि बाजार के वातानुकूलित सैलून बाले हमाम ही ज्यादा काबिल हैं !"

"तुम खिल्ली उड़ा रहे हो!"

"गोपाल "तुमने क्या समझ रखा है ? यह नाटक है या कोई तमस्सुक ?"

सिंह की दहाड़ की तरह मुत्तुकुमरन का स्वर सुनकर गोपाल स्तंभित रह गया।

उसके मुख से शब्द नहीं फूटे। फटे तो कैसे फूटे ? काफी देर तक बिना कुछ कहे[ ६२ ]सुने क्रोध-भरा मौन धारण किये हुए वह खड़ा रहा । नुत्तुकुमरन के मुंह से जैसे ज्वालामुखी फूट पड़ी थी ! उसके सामने गोपाल का क्या वश था? मुत्तुकुमरन् के चेहरे पर क्रोध का तूफ़ान बरसा देखकर माधवी भी सहम गयी।

"जिल-जिल से बढ़कर पांडि बाजार के तुम्हारे सैलून वाला..." भुत्तुकुमरन् का जवाब गोपाल पर बाबुक की तरह पड़ा तो वह सकपका गया था। उसके संभलने के पहले मुत्तुकुमरन् सँभल गया और ऐसे स्वाभाविक ढंग से बोला, मानो कुछ भी नहीं हुआ हो!

"कल से नाटक का रिहर्सल यहीं इसी आउट हाउस में होगा ! तुम भी आ जाना!"--मानो आदेश जारी किया।

गोपाल चुप था, वह कुछ भी बोल नहीं पाया।