याक़ूती तख़्ती

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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(आप पढ़िए और अपने मित्रों को भी दिखलाइए)
उपन्यास मासिकपुस्तक।

हिन्दी भाषा के प्रेमियों को विदित हो कि "उपन्यास" नामक एक "मासिकपुस्तक" पहली जनवरी, १९०१ ईस्वी से बराबर आज तक निकलती चली जाती है। इसका आकार 'डिमाई आठपेजी पांचफार्म, अर्थात ४० पृष्ठ है, और इसमें हर महीने नवीन उपन्यास के ४० पृष्ठ रहा करते हैं। एक उपन्यास के पूरे होने पर दूसरा नवीन उपन्यास प्रारंभ कर दिया जाता है और कभी कभी दो दो उपन्यास एक साथही छपा करते हैं। इसका दाम भी बहुत नहीं है, सर्वसाधारण से केवल दो रुपए साल लिये जाते हैं और डांकमहसूल किसीसे कुछ नहीं लिया जाता। हां, राजे महाराजे, अमीर, सेठ, साहूकार आदि धनिक अपनी शक्ति के अनुसार जो कुछ इसकी सहायतार्थ द्रव्य भेजते हैं, वह धन्यवाद सहित स्वीकार किया जाता है और उनका नाम सहायकों में छाप दिया जाता है।

जिन उपन्यास-प्रेमियों को इस "मासिकपुस्तक" का ग्राहक होना हो, वे शीघ्रही दो रुपए भेजकर ग्राहक बन जायं, और जो सज्जन 'नमूना' देखना चाहें, उन्हें चाहिए कि नमूने के लिये 'चारआने' का टिकट भेजें। हां, इतना ध्यान रहेगा कि जो लोग चारआने भेजकर नमना मंगावेंगे, वे यदि पीछे से ग्राहक होजायंगे दो उनसे चार आने मुजरे देकर केवल पौनेदो रुपएही लिये जायंगे। वी.पी. का खर्च, एक आना, ग्राहकों को ही देना पड़ेगा। हां, डांकमहसूल किसीसे कुछ भी नहीं लिया जायगा।

यह "गुलबहार" उपन्यास, तथा लीलावती, राजकुमारी, स्वर्गीय-कुसुम, चपला, तारा, रज़ीयाबेगम, मल्लिकादेवी, हृदयहारिणी, लवङ्गलता, तरुणतपस्विनी, आदि परमोत्तम और प्रशंसित उपन्यास इसी सुप्रसिद्ध "उपन्यास" नामक मासिकपुस्तक में ही छपकर हिन्दीरसिकों के गले के हार होरहे हैं। अतएव जो हिन्दी जानते हैं, जिन्हें अपनी मातृभाषा हिन्दी से कुछभी अनुराग है और जो हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा हिन्दी का कुछभी उपकार करना अपना धर्म समझते हैं, उन सज्जनों को चाहिए के इस "उपन्यास" मासिक पुस्तक के ग्राहक बनकर हमारे उत्साह को बढ़ावें और अपनी मातृभाषा हिन्दी के उद्धार करने में कटिबद्ध होवें। आप जो इस "गुलबहार" उपन्यास वाला "उपन्यास"—मासिकपुस्तक का नंबर देख रहे हैं, बस, इसीको उक्त "उपन्यास" मासिक पुस्तक का नमूना समझिए और झटपट आपभी ग्राहक बनिए और अपने मित्रों को भी ग्राहक बनाइए।

श्रीकिशोरीलालगोस्वामी,

संपादक "उपन्यास" मासिकपुस्तक, काशी।

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श्रीः

 

याक़ूती तख़्ती
वा
यमज-सहोदरा
उपन्यास

पहिला परिच्छेद

तरुण अवस्था के साथही साथ, परम स्वाधीनता और विपुल धन को पाकर मैं चाटुकारों की दुष्टता के कारण कुमार्ग में जाही चुका था कि परमात्मा के परम अनुग्रह से बहुतही बच गया। तो क्यों कर बचा, इस जीवनी में उसी कहानी का उल्लेख करता हूं,—

मेरा नाम जगदीशचन्द्र मित्र है। मेरे पिता मुर्शिदाबाद के बड़ेभारी ज़िमीदार थे, पर अब न तो मेरी माताही हैं और न पिता। मैं अपने पिता का एकमात्र सन्तान हूं और अब पचास हज़ार रुपए की सालाना आमदनी का भोक्ता और हर्त्ता, कर्त्ता, बिधाता हूं।

मेरी अवस्था इस समय सत्ताईस वर्ष की है। जब मेरी माता, तथा मेरे पिता जीवित थे और मेरी अवस्था केवल उन्नीस वर्ष की थी, तथा मैं बी॰ए॰ पास कर चुका था, हुगली के एक मध्यवित्त ज़िमीदार की कन्या से मेरा बिवाह हुआ था; किन्तु वह बिवाह जैसा हुआ, वैसा न हुआ,—दोनों बराबर था। क्योंकि मैंने बासरगृह के बाद फिर अपनी पत्नी की सूरत न देखी! इसका कारण यही था कि बिवाह के [  ] घरस दिन बाद ही वह स्त्री मर गई थी।

उसके बाद ही प्रथम मेरी माता का, और फिर पिता का देहान्त हो गया और इन्हीं कारणों से मेरा पुनर्विवाह अभीतक न हो सका।

मैं ब्राह्म-मतावलम्बी हूं, और मेरे पिता भी इसी मत पर विश्यास करते थे। सो ब्राह्मभ्राता और ब्राह्मभगिनीजनों ने अपने कुचक्र में फंसाकर मुझे बिगाड़ने पर कमर बांधी और मैं भी कुछ बिगड़ चला तथा अपने कुछ धन को भी मैंने बर्बाद किया; किन्तु जगदीश्वर ने मुझे उस कुचक्र तथा कुचक्रिया से बहुतही बचाया।

बात यह है कि उन दिनों, जिन दिनों का हाल मैं यहां पर लिखरहा हूं, अपनी ज़िमीदारी के एक मुकद्दमे के कारण कलकत्ते में रहता था। कई ब्राह्मभ्राताओं ने मिल कर मुझे सब्ज़बाग दिखलाना प्रारंभ किया और विलासिनी नाम की एक रूप और यौवन सम्पन्त ब्राह्मभगिनी से मुझे परिचित किया। फिर तो मैं यौवन, धन, सम्पत्ति और प्रभुत्व के मद से मदान्ध होकर बिलासिनी की विलासिता में ऐसा डूबा कि मुझे दीन दुनियां की कुछ भी खबर न रही और उसी अवस्था में डूबे रहने के कारण अदम पैरबी में मेरा अस्सी हज़ार का वह मुकद्दमा भी चौपट होगया; पर उस समय मुझे उसका कुछ भी खद न हुआ।

केवल इस मुकद्दमे में ही मेरे सवालाख रुपए खर्च नहीं होगए थे, बरन ब्राह्मभगिनी विलासिनी, तथा ब्राह्मभ्राताओं की परिचर्या में भी मेरे एक लाख रुपए केवल उन्नीस महीने ही में नष्ट होगए थे! कदाचित मैं बिलकुल कंगाल होगया होता और मेरी सारी सम्पत्तिको ब्राह्मभगिनी तथा ब्राह्मभ्रातागण आत्मसात् कर गए होते; किन्तु जगदीश्वर की अनन्त दया के कारण एक ऐसी घटना घटी कि मैं उससे बिल्कुल चैतन्य होगया और मेरा सारा मद उतर गया!

वह बात यही थी कि एक दिन मैंने विलासिनी को मल्लिकघराने के एक नवयुवक के साथ असत रसालाप करते देखा और फिर छिपकर उन दोनो के व्यभिचार को भी प्रत्यक्ष देखा। बस, वह एक ऐसी भयंकर घटना थी कि उसने मेरे सारे नशे को बात की बात में मिट्टी कर दिया और मैं चैतन्य होकर उसी दिन कलकत्ते का मुहं काला करके अपने घर, मुर्शिदाबाद चला गया।

घर आकर मैंने अपनी ज़िमीदारी के काम काज को देखना प्रारंभ किया और कागंज़ के देखने से यह बातभी मैंने जानी कि उन्नीस महीने [  ]कलकत्ते रह कर मैने एक लाख रुपए कुमार्ग में नष्ट किए और सवा लाख का मुकद्दमा चौपट किया!

निदान, मैने होश में आकर व्यारिष्टर अमरनाथ घोष को उस मुकद्दमे की पैरवी के लिये बिलायत भेजा और अपने सदाशय मुनीम सत्यचरण मित्र के ऊपर ज़िमीदारी के सारे बोझ को डाल कर अपना जी बहलाने के लिये मैं देशभ्रमण को निकला। क्योंकि दुश्चारिणी विलासिनी ने मेरे हृदय-क्षेत्र में वह आग लगाई थी कि जिसकी ज्वाला से मैं ऐसा भुना जाता था कि घर पर एक मास से अधिक किसी भांति न ठहर सका।

निदान, सन् १८९८ साल के जेठ महीने के प्रारंभ में मैं बीच के कई नगरों में घूमता हुआ नैनीताल जा पहुंचा। उस समय बंगदेश भयानक प्लेग के भयंकर अत्याचार से नष्टप्राय हो रहा था, पर नैनीताल में दुष्ट प्लेग का कहीं नाम भी न था और सरदी के कारण जेठ की गरमी का भी कहीं पता न था।

नैनीताल आकर पहिले तो मेरा जी उचाट सा होगया, क्योंकि वहां पर मेरा ऐसा कोई परिचित न था, जिससे घड़ी भर जी बहलाया जाता! किन्तु कुछ दिनों के बाद मैने अपने मन के अनुसार एक मित्र पाया, जिसके पाने से मुझे कैसा आशातीत लाभ हुआ, आगे चल कर मैं उसी बात का उल्लेख करूंगा।

मैने जिस मित्र को पाया, वे सिक्ख-संप्रदार में दीक्षित थे, पटियाला राज्य में उनकी विस्तृत ज़मीदारी थी और नाम उनका राय निहालसिंह था।

निहालसिंह की अवस्था मेरे बराबर कीही थी और वे उस समय, जबकि मैं नैनीताल पहुंचा था, नैनीताल में आकर ठहरे हुए थे। वे "सीमान्त संप्राम" के लिये महाराज पटियाले के साथ सेनापति बन कर गए थे, और मेरे जाने के कुछ ही दिन पहिले वे नैनीताल में आ कर ठहरे हुए थे।

किन्तु उस असिजीवी सिक्खवीर के साथ मुझ जैसे मसिजीवी भीरु बंगाली की, जो कि दोनो परस्पर भिन्न प्रकृति के थे, क्योंकर मित्रता हुई, इसके लिखने में मैं नितान्त असमर्थ हूं।

मैं जब तक वहां था, प्रतिदिन ही निहालसिंह के साथ तीसरे पहर, पहाड़ पर घूमने के लिये निकलता। उस समय हमदोंनो की विभिन्न [  ]आकृति और विभिन्न प्रकृति देखकर देखनेवाले भीतर ही भीतर मुस्कुराते थे। क्योंकि निहालसिंह अपनी स्वदेशी पोशाक में रहते थे और मैं काले रंग को दूर न कर सकने पर भी साहबी पोशाक में रहता था। बस, यही देखनेवालों के मुस्कुराने का कारण था। पहाड़ पर घूमने के समय हम दोनों के हाथ में एक बड़ीसी बांस की लाठी रहती थी और उपन्यास के नायक की भांति हमदोनों बेफ़िक्री के साथ पहाड़ की सैर किया करते थे।

एक दिन तीसरे पहर के समय हमलोग घूमते फिरते पहाड़ की एक ऐसी जगह पर जा पहुचे, जहां पर इसके पहिले कभी नहीं गए थे। वह स्थान बहुत ही सुहावना था। एक पर्वत की कंदरा में से बड़े वेग से जलप्रवाह आकर नदीरूप में बह रहाथा। वहां दोनो किनारों की वृक्षश्रेणी इतनी घनी थी कि जिसमें सूर्यरश्मि किसी तरह भी नहीं घुस सकती थी। यही कारण था कि वहांपर एक पहर दिन रहते भी संध्याकाल की तामसी छाया फैल रही थी। वह स्थान और वहांका प्राकृतिक दृश्य इतना सुहावना था कि हमलोग एक स्वच्छ शिलाखंड पर पैर लटका कर बैठ गए और इधर उधर की बातें करने लगे।

उस समय 'प्राकृतिक प्रसङ्ग' के साथ ही साथ 'प्रेमप्रसङ्ग' की बात चल पड़ी और हमदोनों में देरतक 'प्रेम' पर तर्क वितर्क होता रहा। अन्त में मैने कुछ ताने के साथ निहालसिंह से कहा,

"क्यों, भई निहालसिंह! 'प्रेम' के विषय में जैसी तुम्हारी बिमल और परिष्कृत मति है, उससे तो मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है कि तुम इस (प्रेम) मार्ग में किसी अच्छे प्रेमिक (प्रेमिका?) से दीक्षा ले चुके होगे किन्तु इस विषय में तो तुमने अबतक मुझे कोई बात ही न बतलाई! अभी तक तुमने मुझे यह भी न बतलाया कि तुम विवाहित हो या अविवाहित, और तुमने इस प्रेममार्ग का सचमुच अनुसरण किया है, या योंही सुनी सुनाई बात पर विश्वास करके 'प्रेम' पर गंभीर व्याख्यान देना सीखा है।"

मेरी बात सुनकर निहालसिंह ने एक 'कहकहा' लगाया और मेरी ओर देरतक घूरकर कहा,-

"तो, तुमभी तो अभीतक क्वारे हो! फिर तुम इस 'प्रेमप्रपंच' पर ऐसा अच्छा तर्क वितर्क ऐसे करते हो! क्या विवाह के बिना कोई 'प्रेम' का वास्तविक तत्व पाही नहीं सकता!" [  ] मैने कहा,-" यह तुम्हारा प्रष्ण निर्मल है! क्योंकि यद्यपि मैं अबतक एक प्रकार से अविवाहित या परिणीता भार्या से रहित हूं, तथापि 'विलासिनी' के संसर्ग से जो कुछ प्रेम का तत्व मैंने जाना, उसका हाल तो मैं तुमसे कही चुका हूं!"

यह सुन निहालसिंह ने सिंह को तरह गरज कर कहा,-"छिः! विलासिनी से जो कुछ तुमने सीखा, वह प्रेम नहीं, बरन गरल है! तुम निश्चय जानो कि यदि वेश्याओं, कुलटाओं, और पुंश्चलियों ही के पास प्रेम-वास्तविक प्रेम हो तो फिर स्नेहमयी परिणीता भार्या की आवश्यकता ही न रहजाय।"

मैने कहा,-" यह तुम्हारा कहना बिल्कुल सही है, परन्तु क्या वेश्या, या कुलटा बिलकुलही प्रेमशन्य होती है?

निहालसिंह ने कहा,-"यदि उनमें तुम्हारे कहने से कुछ प्रेम का अंश मैं मान भी लूं, तौभी वह 'प्रेम, विशुद्ध और स्वर्गीय प्रेम कदापि नहीं कहा जा सकता।"

मैंने कहा,-" यदि तुम्हारा मतमाना जाय तो साहित्यशास्त्र की परकीया और सामान्या नायिका के प्रेम पर हरताल ही लगाना पड़े!"

निहालसिंह ने कहा,-" तुम अपनी बुद्धि पर लगी हुई हरताल को तो पहिले धो डालो! तुम यदि स्वयं कुछ भी साहित्य जानते हो तो स्वयं इसका निर्णय कर लो कि स्वीया, परकिया और सामान्या नायिकाओं में विशुद्ध और आदर्श प्रेम की आधार कौन नायिका होती हैं!"

मैने कहा:-" मेरे जान, परकीया!"

निहालसिंहा-"कदाचित तुम ऐसा ही समझो, या कदाचित ऐसा ही हो भी; परन्तु मेरे जान तो जसा प्रेम सती साध्वी, स्वीया नायिका कर सकती हैं, वैसा दूसरी से कदाचित नहीं प्राप्त हो सकता।"

मैंने कहा,-"अच्छा, इस विषय में तुमसे फिर किसी समय बिवाद करूंगा और यदि हो सका तो तुमसे एक बार नायिकाभेद भी अवश्य पढूंगा, परन्तु इस समय तुम यह तो बतलाओ कि तुमने अब तक कोई “स्वीया" नायिका के प्रेम का रसास्वाद पाया है, या नहीं!"

यह सुन, निहालसिंह अपने हाथ पर हाथ मार कर खूब ज़ोर से हंस पड़े और कहने लगे,-

"तुम्हारे इस बिलक्षण प्रष्ण के उत्तर में मुझे आज अपनी जीवनी [  ]की एक गुप्त कहानी कहनी पड़ी। मैंने व्यर्थ समझ कर अबतक जिस रहस्य को तुम पर प्रगट नहीं किया था, उसे आज बलपूर्वक तुमने मेरे पेट से निकलवा लिया। अस्तु, तुम ध्यान देकर मेरी कहानी सुनो, जिससे कदाचित तुम्हें प्रेम का कोई निगूढ तत्व मिल जाय।"

निहालसिंह कहने लगे,-" यह बात मैं तुमसे कह आया हूं कि महाराज पटियाले के साथ मैं वालंटियर होकह अफ़रीदियों के साथ लड़ने के लिये गया था। इस लड़ाई में जाने के लिये मुझे कुछ वैसा विशेष आग्रह न था, किन्तु घर पर खाली बैठे रहने की अपेक्षा लड़ाई के मैदान को मैने मनोविनोद का हेतु समझ कर यात्रा की थी। इसमें एक और भी कारण था। वह यह कि मेरे पुरुषाओं ने जिस बृटिश गवर्नमेन्ट की सेवा करके बड़ी नामबरी के साथ खिलत, जागीर और तमगे पाए थे, उस गवर्नमेन्ट की सेवा करनी भी मैंने अपना धर्म समझा। सो पशुओं का शिकार तो मैंने बहुत खेला था, अब मनुष्यों के शिकार के लिये महाराज पटियाले के साथ बृटिश गवर्नमेन्ट की सहायता के लिये मैं चला।

"उस समय जैसे उत्साह और उद्यम के साथ अटल हृदय से मैंने समरभूमि का पूजन कर के निज कार्य का सम्पादन किया था, वह अब सपना सा जान पड़ता है।"

मैंने कहा,-"निहालसिंह तुम धन्य हो और तुम्ही बीर-प्रसविली माता के उपयुक्त सन्तान हौ। गुरु गोविन्दसिंह के वीर हुंकार की रक्षा करनेवाली वीर सिक्ख जाति में तुम्हारा जन्म लेना सार्थक है। हाय, हम बंगाली की जात, सिवाय बकबक के और कुछ जानते ही नहीं; इसीसे हम "भीरु" उपाधि से विभूषित किए गए हैं।"

मेरी इन बातों का निहालसिंह ने कुछ जवाब न दिया और अपने वक्तव्य को पुनः इस प्रकार प्रारंभ किया,___

अच्छा, सुनो, दिसंबर महीने के अन्त होते होते, अंगरेज़ी सेना ने टिठ्ठीदल की भांति 'बाज़ार बेली' को जाकर छा लिया। एक तो कलेजे के टुकड़े डड़ाने वाला 'हाड़ तोड़' जाड़ा, उसपर असभ्य अफ़रीदियों का भयानक अत्याचार! वे दुष्ट जब मौका देखते, तभी आकर छापा मारते, और जबतक हमलोग तैयार होते, वेलूट खसोट करके पहाड़ में अदृश्य हो जाते थे। उन कंबख्तों के आक्रमण कान कोई समय था और न वे बगिचित राति से सामने डंट कर लड़तेही थे। बस, उनका [  ]यही काम था कि जब और जिधर से वे सुभीता पाते, एकाएक पंजे झाड़ पड़ते थे, और जहां तक बनता, माट कार और लूट खसोट करके भाग जाते थे। वे बराबर ऊंचे पहाड़ा की चोटियों पर से सावनभादों की झड़ी की भांति गोली बरसाते और बड़ा उपद्रव मचाते थे। उनकी यह दशा देखकर सेनापति की आज्ञा से हम लोगों ने अपने डेरे डखाड़े और बड़ी तेजी के साथ उस कलेजातोड़ जाड़े की कुछभी पर्वा न करके हुंकारध्वनि करते हुए अफरीदियों के गांव की ओर बढ़े। उस समय उस भयानक, दुर्गभ, अपरिचित बीहड़ और बरफ़ से ढंके हुए पहाड़ी रास्ते में हमलोगों को जैसे २दुःख भोगने पड़े थे, वह जीही जानता है। आह; वह कैसा भयानक समय था कि ऊपर-पहाड़ की चोटियों पर से तो गोली के मेह बरसते थे और नीचे-बहुत ही नीचे, बीहड़ रास्ते को साफ़ करते हुए हमलोग मरते पचते आगे बढ़ते जाते थे!!!

"उस समय सिवाय मरने के और कछ चारा न था: क्योंकि बैरी ऊपर थे और हमलोग नीचे उनकी गोली हमलोगों का काम तमाम किए देती थी, और हमलोगों के गोली गोले उन तक पहुंचतेही न थे। ऐसी अवस्था में जब तीन बार अंगरेज़ी सेना ने पूरी हार खाई, तब सेनापति सर बिलियम लाकहार्ट साहब मारे क्रोध के पागल होगए, किन्तु बैरियों की गोलीवर्षा के आगे उनकी एक न चली और बहुतेरे सिपाही खेत रहे।

“अन्त में हमलोगों की 'सिक्ख रेजिमेन्ट' और ' गोर्खा सेना' उस गोलीवर्षा में न्टत्य करती हुई साक्षात् मृत्यु को तुच्छ करके बड़ी तेजी के साथ पहाड़ पर चढ़ने लगी। उस दिन, उस मृत्युमय पहाड़ पर चढ़ने के समय, कितने नामी बहादुरों ने अपने प्राण खोए होंगे, इसकी गिनती नहीं है, क्योंकि तुम लोगों ने अखवारों जो में कुछ पढ़ा होगा, उसे बहुतही थोड़ा कहना चाहिए। अस्तु, जगदीश्वर की दया से उस दिन हमलोगों ने अपने सेनापति के सन्मान की रक्षा की और साक्षात् मृत्यु के भी मुहं में थपेड़े लगाकर बैरियों के 'चिन' नामक एक बहुत बड़े गांव पर अपना अधिकार कर लिया। अफरीदियों के उस बड़े इलाके में, पर्वत के ऊपर, वृटिशपताका फहराने लगी और हमलोगों ने भी विजयोल्लास से उन्मत्त होकर अपनी कमर ढीली की। क्योंकि फिर कई दिनों तक अफ़रीदियों का गोल नहीं दिखलाई पड़ा था और अब इमलोग ऐसी ऊंची जगह में थे कि जहां पर उनके एकाएक आकर [  ]छापा मारने का भी उतना डर न था।

'इतने ही विजय से हमलोग निश्चन्त नहीं हुए। क्योंकि हमलोगो का संकल्प था कि अफरीदीमात्र का मूलोच्छेद कर डाला जाय। परन्तु अफ़रीदियों की प्रधान बस्ती 'लुण्डोकोतल' तक पहुंचने के लिये सुगम मार्ग के जानने की बड़ी आवश्यकता थी, इसलिये सौ सौ सैनिकों का एक एक गोल चारोओर सुगम मार्ग के अनुसंधान के लिये रवाने कर दिया गया था। उन्हीं गोलों में से एक गोल के साथ मैं भी एक ओर को गया था। हमलोगों को सेनापति ने तीन दिन के भीतर लौट आने की आज्ञा दी थी, किन्तु दैवसंयोग से हम दो चार आदमी अपने गोल से बिछुर गए और अनजाने पहाड़ी देश में इधर उधर भटकते रहे। उस समय हमलोग ऐसी भूलभुलैयां में पड़ गए थे कि न तो अपने गोलही को पाते थे और न अपनी छावनी के मार्ग ही को।

"निदान, योंही भटकते हुए हम लोग चौथे दिन, तीसरे पहर के समय एक पहाड़ी पगदंडी से चले जाते थे कि पासही के एक घने जंगल में से कुछ कोलाहल सुन पड़ा। यह सुनतेही हम लोग ठहर गए और अपने अपने हर्वे हथियारों को सम्हाल कर यह जानने की कोशिश करने लगे कि यह कैसा कोलाहल है! इतने ही में हमलोगों ने एक स्त्री की करुणमय रोदनध्वनि सुनी और झट उधर की ओर पैर बढ़ाया। बात की बात में हमलोग वहां पहुंच गए और जाकर क्या देखते हैं कि तीन चार गोखो सिपाही एक परमसुन्दरी युवती को पकड़ कर 'खैचातानी' कर रहे हैं और पासही पेड़ से एक कफ़रीदी युवक जकड़ कर बांध दिया गया है।

"यह देखते ही असल मतलब को मैंने समझ लिया और घुड़क कर उन पाजी गोखी को वहांस चले जाने के लिये कहा। संयोग अच्छा था कि बिना 'खूनारेज़ी' किए हो वे गोर्खे वहांसे भाग गए और मैने अपनी तल्वार से उस अफ़रीदी युवक के बंधन को काट कर उस युवती से कहा,-"सुन्दरी! अब तुम न डरो, क्यों कि वे बदमाश भाग गए।"

"क्रोध, क्षोभ, अभिमान और आत्मगौरव के कारण उस सुन्दरी युवती की नुकीली और कानतक फैली हुई बड़ी बड़ी आंखों से उस समय आग बरस रही थी और उसका सारा शरीर थरथर कांप रहा था। सो, एक पत्थर के टुकड़े पर बैठ और अपने चित्त को कुछ शान्त करके उस युवती ने कहा

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।