याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद १

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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दूसरा परिच्छेद

"अय बहादुर, अय नौजवान, अय जवांमर्द! मेरा वालिद एक अफरीदी सर्दार है। जब अंगरेजी फ़ौज के सजकदम यहां पर नहीं आए थे, तब मैं अपने वालिद के साथ यहीं रहती थी। लेकिन दुश्मनों की फ़ौज के आजाने से सब औरतें तो एक हिफ़ाज़त की जगह में पहुंचा दी गई हैं, पर मैं अपने वालिद को छोड़ कर कहीं नहीं गई, इसलिये जब मेरा जी घबराता है, तब इस पहाड़ पर चहलकदमी के लिये अपने पड़ाव से निकल आती हूँ। आज भी मैं इस ओर आकर घूम रही थी कि इन हरामज़ादों ने मुझे आघेरा था। अगर खुदा के फ़ज़ल से तुम इस वक्त यहां न आ मौजूद होते तो,-अफ़सोस! मेरी बिल्कुल आबरू बर्बाद हो जाती।"

यों कहते कहते उस सुन्दरी ने कई बार मुझे ऊपर से नीचे तक निहारा और कई बार ठंढी उसासे लीं। फिर मैने पूछा,--"यह तुम्हारे साथ कौन है?"

उस सुंदरी ने कहा, "यह मेरे वालिद का गुलाम है और नाम इसका अबदुल्करीम है, उन कंबख्तों ने यहां आतेही पहिले तो अबदल को पेड़ से बांध दिया, फिर मेरी आबरू लेनी चाही, इतने हीमें तुम आगए।”

मैंने कहा,-" यदि तुम्हारे मुखिया लोग व्यर्थ अंगरेजों के विरुद्ध उत्पात न करते तो आज तुम पर यह आपदा कभी न आती।"

यह सुनतेही उस सुन्दरी की आंखों में खून उतर आया और उसने बेतरह मुझे घूर कर कहा,-" छिः! तुम यह क्या कह रहे हो! इसमें तो सरासर अंगरेजों की ज्यादती है कि वे नाहक हमलोगों के साथ छेड़छाड़ करते हैं, लेकिन तुम तो अंगरेज़ों के गुलाम हो, इसलिये तुम आज़ादी की कीमत नहीं समझ सकते। देखो, उस दिन मेरे वालिद ने सिर्फ अस्सी सिपाहियोंके साथ तुम लोगों को जो शिकस्त दी थी, मैं समझती हूं कि उसे तुम उम्रभर न भूलोगे। मुझे तुम लोगों की सिपहगरी पर अफ़सोस होता है कि कई हज़ार सिपाहियों के रहत भी तुमलोगों

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को वह हार खानी पड़ी और हमलोगों का तुमलोग कुछ भीन कर सके; लेकिन, अय बहादुर। हमारे थोड़े से सिपाही आख़िर करही क्या सकते थे! चुनांचे जब कई शिकस्त के बाद तुमने उन पर फ़तहयाबी पाई तो मेरे वालिद अपने वफ़ादार बहादों के साथ इस मुकाम को छोड़ कर दूसरे अड्डे पर चले गए हैं।"

उस सुन्दरी की इस विचित्र बात को सुनकर मेरे अचरज का कोई ठिकाना न रहा, इसलिये मैंने पूछा,--"ऐं! उस दिन जो हमारी ओर के तीनों सिपाही मारे गए, यह क्या तुम्हारे केवल अरसी सिपाहियों काही काम था?"

उस सुंदरी ने कहा,-" हां, सिर्फ अस्सी सिपाही थे। लेकिन इससे तुम इतना ताज्जुब क्यों करते हो! याद रखो कि हमारे अफ़रीदी जवान तुमसे कम बहादुर व लड़ाक नहीं हैं और उनकी बंदूकों की गोलियां कभी निशाना चूकती ही नहीं। लेकिन अगर कोई अफ़सोस का मुकाम है तो सिर्फ यही है कि वे तुमलोगों के मुकाबले गिनती में कम हैं। तो भी अफ़रीदी अपनी हुकूमत और आज़ादी की हिफाज़त के लिये अपनी जान की कुछ भी पर्वा नहीं करते। बस, उनका अगर कुसूर है तो यही है कि गिनती में कम होने के सबब वे तुम्हारे सामने होकर नहीं लड़ सकते।"

मैंने कहा,-"तो फिर वे अंगरेजों की आधीनता क्यों नहीं स्वीकार करते?"

उस सुंदरी ने इसका जवाब बड़ी कड़ाई के साथ दिया, उसने कहा,-" क्या कहूं, अगर अफ़रीदी हिन्दुस्तानियों की तरह कभी गुलामी किए होते ता बेशक वे अपनी आज़ादी अंगरज़ों के हाथ बेच देते, लेकिन इनसे ऐसा होना गैरमुमकिन है। जब तक एक अफरीदी भी जीता रहेगा, वह हर्गिज़ किसीकी गुलामी या मातहती कबूल न करेगा। अय, नेकबख्त, बहादुर! बड़े अफसोस का मुकाम है कि तुम्हारे पाजी गोर्खे सिपाहियों ने मुझपर चोरी से छापा मारा, अगर वे सामने से आकर मुझपर जुल्म करने की नीयत करते तो यही छुरी (दिखला कर) पारी पारी से उन सब कंबख्तों के कलेजे के पार तक की खबर लेआती और लोगों को यह दिखला देती कि अफरीदी औरतों के नाजुक हाथ भी वक्त पड़ने पर इस कड़ाई के साथ दुश्मनों के कलेजे का खून पी सकते हैं।" [ ११ ]ओफ़! उस भयंकर छुरे को देखकर मेरा वीरहृदय भी कांप उठा! किन्तु उस छुरे से उस सुंदरी के नेत्रों की तीक्ष्णता कहीं बढ़ी चड़ी थी। अहा! उस संध्या के डमड़ते हुए अंधेरे में, उस सूनसान पार्वतीय बन में, उस पठानकुमारी के सुंदर मुख से जो बारंबार क्रोध, क्षोभ, मनस्ताप, और वीरत्वव्यजक भाव प्रगट होते थे, उनसे उस सुंदरी की सुंदरता की शोभा और भी बढ़रही थी; और यही प्रतीत होता था कि मानो आकाश से कोई अप्सरा उतर आई हो या वन देवी बन में से निकलकर पर्वत की उपत्यका में नृत्य कर रही हो!

अस्तु, थोड़ी देर चुप रहकर मैंने पुनः कहा,-"सुन्दरी! अंगरेज़ी गवर्नमेन्ट की यह इच्छा कदापि नहीं है कि किसी निस्सहाय स्त्री का अपमान किया जाय! हमलोगों की यदि शत्रुता है, तो केवल अफरीदी पुरुषों के साथ है, न कि उनकी स्त्रियों के साथ, इसलिये अब तुम अपनी इच्छा के अनुसार जहां चाहो, जा सकती हो। और यदि मुझसे तुम्हारा कोई काम बन पड़े तो बिना संकोच कहो; मैं, जहांतक मुझसे होसकगा, तुम्हारा काम कर दूंगा।"

यह सुनकर उस सुंदरी ने बड़ी नम्रता से कहा,-"आह! आपकी इस मिहरबानी को में ताज़ीस्त न भलूंगी। आज आपने जैसी भलाई मेरे साथ की है। वह क्या कभी भूल सकती है! इसलिये अब मैं अपने वालिद के पास जाऊंगी। मेरी मां नहीं हैं, सिर्फ मेरे वालिद ही हैं और एक मेरी बहन है। हम दोनों बहन साथही पैदा हुई थीं, और लोग कहते हैं कि हम दोनो को जनतेही मेरी मां विहिश्त को चली गई थीं। तब से मेरे वालिद ने फिर दूसरी शादी न की और हम दोनो बहिनों की पर्वरिश इस तरह की कि जिसमें हम दोनों को कभी मां के लिये तरसना न पड़े।"

उस सुंदरी के निष्कपट भाव को देख कर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ और मैंने कहा,-'सुन्दरी! मैं एक बात जानना चाहता हूं, क्या तुम कृपा करके उसे बतलाओगी?".

उस सुंदरी ने कहा, मैं बेशक बतला दूंगी, अगर यह बात मुल्क और आज़ादी से ताल्लुक न रखती हो।"

मैने कहा,-"नहीं; मैं केवल तुम्हारा नाम जानना चाहता हूं!"

उस सुंदरी ने कहा,-"आह! यह तो एक महज़ मामूली बात है: मुझे लोग हमीदा कहते हैं।" [ १२ ]यों कह कर उसने मुझसे फिर आंखें मिलाई और तुरंत (आंखें) नीची करली! अहा! उस मिलाप में विद्युच्छटा की ऐसी अपूर्व माधुरी थी कि जिसका रसास्वाद मैं जिह्वा से नहीं कह सकता! अस्तु, मैंने उस नेत्र-चापल्य पर उस समय विशेष ध्यान नहीं दिया और हमीदा से बिदा होना चाहा; इतने ही में उसके अनुचर अबदुल् ने कहा,

"हुजूर! आपकी फ़ौज के सिपाही हर चहार तरफ़ घूमरहे हैं, इससे मुमकिन है कि रास्ते में फिर मेरी किसीसे मुठभेड़ होजाय और बीबी हमीदा पर कुछ आंच पहुंचे, वैसी हालत में मैं अकेला अपने मालिक की दख्तर की हिफ़ाज़त क्योंकर कर सकूँगा?"

मैं क्या कापुरुष था कि पास शस्त्र के रहते भी अबदुल् की ऐसी बात सुन कर चुप रह जाता! सो मैंने कहा.-"मेरे साथ रहने पर किसीकी भी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि स्त्री की ओर आंख उठाकर देख सके! इसलिये चलो, मैं हमीदा को निरापद स्थान तक पहुंचा दूँ।"

इस पर हमीदा ने कहा,-"मैं यह नहीं चाहती कि आप मेरे बास्ते ज़ियादह तर तकलीफ़ उठावें। फिर आप आज़ाद भी तो नहीं हैं! ऐसी हालत में आप अपने अफ़सर को अपनी गैरहाज़िरी का क्या सबब बतलाएंगे? क्या आप उनसे यह कहेंगे कि,-'मैं अपने दुश्मन अफरीदी सदार की लड़की के साथ गया था!' ऐसा करने से क्या आप अपने अफ़सर के सामने सज़ावार नहीं हो सकते! इसलिये ऐसा मैं नहीं चाहती कि आप पर मेरे सबब से कुछ आंच पहुंचे! चुनांचे अब आप अपने पड़ाव को लौट जाइए और यकीन करिए कि मेरे तन में जान रहते, कोई पाजी मेरी बेइज्जती नहीं कर सकता! बनिस्बत आपके, मैं अपनी जान ज़ियादह बेशकीमत नहीं समझती, इसलिये अब मस्लहत यही है कि आप लौट जायं।"

अहा! उस समय उस नारीरत्न पठानकुमारी की बात मैंने जिस भाव में समझी थी, उसे प्रगट करने की शक्ति मुझमें नहीं है; अस्तु अपने कर्त्तव्य को निश्चय करके मैने कहा,-"मेरे लिये तुम तनिक भी न घबराओ, क्यों कि मैने अपने साथियों को पड़ाव की ओर भेज दिया है, ऐसी अवस्था में यदि मैं आज न पहुंच कर कल अपनी छावनी पर जाऊं, तो कुछ भी जवाबदेही मेरे लिये न होगी। इसलिये, सुन्दरी चलो, तुम्हे निरापद स्थान में पहुंचा कर कल मैं अपने पड़ाव की और लौट जाऊंगा; क्योंकि ऐसा मुझसे कभी न होगा कि मैं तुम्हें [ १३ ]इस आपत्ति के चकाबू में अकेली छोड़दूं।”

मेरे समझाने से अन्त में हमीदा सम्मत हुई। उस समय रात दो घंटे के लगभग बीत गई थी और गहरे अंधेरे के कारण कुछ भी नहीं सूझता था। ऐसे समय में दुर्गम पार्वतीय पथ में चलना कुछ हंसी ठठ्ठा नहीं है। अस्तु अबदुल जंगली लकड़ी के टुकड़े को मशाल की तरह बाल कर आगे आगे चला, बीच में हमीदा हुई और पीछे मैं। उस समय मैं बड़ी सावधानी से चल रहा था; क्योंकि अंधेरी रात, पर्वतप्रदेश, आगे मार्गदिखलाने वाला अफरीदी शत्रु और अपने ऊपर वैरियों के आक्रमण होने का भया- ये सब कारण ऐसे थे कि जिनसे बहुत सतर्कता के साथ मै चलता था; किन्तु इतने पर भी उस पठानकुमारी के साथ रहने से मुझे जो कुछ आनन्द मिल रहा था, उससे मार्गका-बीहड़ पहाड़ी रास्ते का, श्रम मुझे कुछ भी नहीं होता था।”

निहालसिंह की बातें सुनकर मैंने अट्टहास्य करके कहा, -"बस, मित्र! इसीका नाम प्रेम है!"

यह सुनऔर मेरे मुहं की ओर देख, हंसकर निहालसिंह ने कहा,"मित्र! इसे "प्रेम" कहो, या "परोपकार" कहो; अथवा जो चाहे सो कहो, पर यह तुम निश्चय जानो कि उस समय मेरे मन में दूसरा, या कलुषित भाव नहीं था। तुम चाहे सच मानो, या न मानो; इसका तुम्हें अधिकार है, किन्तु मैं इस समय एक सच्ची घटना तुम्हारे आगे कह रहाहूं, जिसका कि प्रमाण मेरे पास है। इसलिये तुम सच ही जानो कि ऐसी अवस्था में, जैसी दशा में कि मैंने हमीदा की रक्षा करके उसका साथ दिया था, इस "प्रेम" या "परोपकार' का सच्चा रसास्वाद वही जान सकता है, जिसे ऐसा अवसर कभी प्राप्त हुआ हो!"

मैंनेकहा,-'निहालसिंह! तुम क्या मेरी बातों से कुछ रुष्ट होगए! आह! ऐसा न समझो, मैंने जो कुछ तुमसे कहा है, वह शुद्ध भाव से ही कहा है। तुम निश्चय जाना कि तुम्हारी बातों पर मुझे पूरा विश्वास है। अस्तु अब तुम इस कहानी का क्रम पुनः प्रारम्भ करो।"

निहालसिंह कहने लगे,-"उस अंधेरी रात में कितनी दूर मैं गया था, यह नहीं कह सकता, किन्तु यह ठीक है कि हमलोग चुपचाप उस ऊबड़ खाबड़ पहाड़ी की चढ़ाई और उतराई को पार करते, एक पहाड़ी नदी के किनारे किनारे चले जाते थे। उस समय भयानक शीत और बर्फ से मेरे हाथ पैर ठिठुरेजाते थे और दम फूल रहा था; परन्तु [ १४ ]हमीदा या अबदुल का इस कष्ट की ओर कुछ ध्यानही न था मानो उनके लिये कुछ था ही नहीं। तुम सच जानो उस अफरीदी युवती की कष्टसहिष्णता के आगे सिक्ख होकर भी मैने हार मानी!"

मैने हंसकर कहा,-"निहालसिंह। यह तो बड़े आनंद की बात तुमने सुनाई! क्योंकि स्त्री पर, विशेष कर युवती स्त्री पर विजय पाने की इच्छा करना तो कापुरुषों का काम है। क्योंकि वीर पुरुष तो सदा स्त्रियों से हार मानने मेंही अपना बड़ा धर्ग समझते हैं।"

निहालसिंह इस बक्रोक्ति का कुछ उत्तर न देकर कहने लगे," निदान, आधीरात तक चलने के बाद हमीदा एक पहाड़ी गुफा के पास पहुंच कर ठहर गई और बोली- बहादुर जवान! आपने मेरे लिये जो कुछ तकलीफ़ गवारा की, इसके लिये में आपका शुक्रिया अदा करती हूँ। बस, अब आपके ज़ियादह तकलीफ़ करने की कोई जरूरत नहीं है, इसलिये बाकी रात आप इसी (उंगली से दिखलाकर) खोह में बितावे और सुबह होने पर अपने पड़ाव की ओर चले जावें। यहांसे मेरा किला बहुत नज़दीक है, चुनांचे अब में बेखटके वहां तक पहुंच जाऊंगी।"

इसके बाद उसने अबदुल् को आज्ञा दीकि,-'खोह के अन्दर सूख पत्तों का बिस्तरा बिछादे' यह सुन और एक जलती लकड़ी हमीदा के हाथ में देकर अबदुल उस खोह के भीतर चला गया और उसके प्रवेश द्वारपर हमीदा मेरे सामने खड़ी रही। थोड़ी देर चुप रहकर हमीदा ने हाथ की जलती लकड़ी ऊंचीकर और अपने कमर तक लटकते हुए काले काले धुंघुराले बाली को मुहंपर से हटाकर मेरी आंखों से आंखें मिलाई और बड़ी कोमलता से कहा,-"अजनबी बहादुर! आजके पेश्तर मैंने आप ऐसे बहादुर को कभी ख्याब में भी नहीं देखा था कि जो अपने ऊपर इतनी तकलीफ उठाकर भी अपने दुश्मन की दुखतर पर इतना रहम करे। गो, अभी मेरी उम्र अठारह बरस से जियादह नहीं हुई, है। लेकिन इन्सान की कदर में बखूबी जानती हूं। आह। आपन जान कर भी अपने दुश्मन की लड़की पर इतनी मिहरवानी की जितनी कि हिन्दुस्तानियों से पानी गैरमुमकिन है। लेकिन मुझे अफ़सोस है कि आप ऐसी खस्लत के होकर भी हम लोगों की आजादी पर नाहक तल्वार उठाए हुए हैं। बडे अफ़सोस की बात है कि जंगल पहाड़ों में रहन घाले हमलोगों की आजादी पर नाहक आप लोगों को रश्क होता है, [ १५ ]और उसे मटियामेट करने के लिये आपलोग जीजान से तुले हुए हैं। लेकिन मैं आपको यकीन दिलाती हूं कि जबतक एक भी अफरीदी जीता रहेगा, अपनी आज़ादी हर्गिज़ क़ाफिरों के हाथ न बचेगा। अगर मौका हो तो आप अपने अफसरों पर यह बात जरूर जाहिर कर दीजिएगा। मैं खयाल करती हूं कि अब शायद आपस मेरी मुलाकात न हो। और यह भी में समझती हूं कि कल सुबह को जब आप यहांल अपने पड़ाव की ओर जायंगे तो मुमकिन है कि अफरीदियों से आपकी मुठभेड़ हो जाय और आप पर कयामत बर्षा हो इसलिये मैं आपको अपनी एक ऐसी निशानी देती हूं कि जिसके सबब से आप मुझे हमेशः याद भी रक्खेंगे और अफ़रीदियों स अपने तईहिफ़ाज़त भी कर सकेंग।"

यह कहकर हमीदा ने अपने गले से उतार कर एक “याकृती तख़्ती" जो कि सोने को जंजीर में लटकती थी और जिस पर फ़ारसी की एक शेर खुदी हुई थी, मेरे गले में डाल दी और मुस्कुराकर कहा,-"आप एक नेक और ज़वांमद शख्स हैं, इसलिये मैं उम्मीद करती हूं कि अपने दुश्मन की भोलीभाली लड़की के इस तोहफ़े के लेने से इनकार न करेंगे, जो कि आपकी सच्ची सिपहगरी का तोहफा कहा जा सकता है।"

मैंने कहा,-"बीबी हमीदा! एक औरत की दीहुई निशानी की अपेक्षा में बिपद में अपनी तल्वारही को विशेष और उपयुक्त समझता हूँ; और ऐसी दशा में, जब कि मैं असभ्य और नीच अफरीदियों की सीमा में घूम रहा हूं।"

यह सुनतेही हमीदा मारे क्रोध के भभक उठी और अपनी आंखों की आग की चिनगारियों से हलाहल उगलती हुई बोली,-- अफ़सोस! तुम बड़ नाकदरे निकले!”

मैंने कहा,-" बीवी हमीदा! मैं तुम्हारे मन में कष्ट नहीं दिया चाहता, क्योंकि स्त्री के हृदय में कष्ट पहुंचाना बीरता का लक्षण नहीं है लेकिन मैंने किसी प्रत्युपकार की आकांक्षा से तुम्हारा उपकार नहीं किया है और न मैं किसी इनाम की लालच इतनी दर तुम्हारे साथ आया हूं।"

मेरी बात सुन कर हमीदा ने एक ठंढी सांस ली और कहा ,अय अजनबी बहादुर! तुम चाहे अफरीदी क़ौम को बिल्कुल "जाहिल, जंगली, उजड्ड और बेदर्द समझो' लेकिन यह कोम एहसान [ १६ ]फरामोश हर्गिज़ नहीं है। तुम यकीन करो कि अफरीदी कौम अपने साथ भलाई करनेवाले के लिये उस भलाई के बदले में अपनी जान तक दे डालने में कभी मुंह नहीं मोड़ती। मैं एक नाचीज़ औरत हैं, लेकिन जिस ख़दा ने इस मिट्टी के पतले इनसान में जान और मां के थन में दूध दिया है, उसी पाक परवरदिगार ने औरतों के दिल में भी मुहब्बत आर एहसानदानी दी है, इसलिये अगर तुम्हारे दिल में मेरा कुछ भी खयाल हो तो मुझे तुम अपना दोस्त समझो और इस तोहफे को अपने दस्त की निशानी समझ कर कबूल करो। चाहे तुम मेरी कौम को कितना ही जाहिल व हेच समझो लेकिन इसमें कभी उन नहीं कर सकते कि जिस खुदाने तुम्हें बनाया है, अफरीदी भी उसीक पाक हाथ से बनाए गए हैं।

हमीदा के तर्क से में मुग्ध होगया और देरतक उसकी ओर देखता रहा। फिर बोला,–“सुन्दरी, हमीदा! मनुष्यों की जान लेने का जिन्हें अभ्यास पड़ गया है उनकी कठोर जिह्वा से यदि कोई कड़ी बात निकल जाय तो क्या आश्चर्य है! तात्पर्य यह कि अफरीदियों के स्वभाव से में जानकार नहीं हूं, किन्तु इतना में अवश्य कहूंगा कि तुम्हारी ऐसी सहृदय नारीरत्न मैंने आजतक नहीं देखी। तुम पर मेरी कुछ भी अवज्ञा नहीं है, इसलिये यदि मेरे मुख से कोई कड़ी बात निकल गई हो तो उसे तुम क्षमा करना।”

मेरी बातों से हमीदा का क्रोध वा क्षोभ कुछ शान्त हुआ और उसने सिर झुकाकर बड़ी नन्नता से कहा,-"तो तुम अपने मुँह से कहो कि तुमने एक अफरीदी औरत के तोहफे को दिल से कबूल किया! मैं कोई मामूली औरत नहीं हूं, बल्कि एक नामी गिरामी अफ़रीदी सर्दार की लड़की हूं। मेरे वालिद, यानी अफ़रीदियों के सर्दार मेहरखां को कौन नहीं जानता! इसलिये मैं समझती हूं कि तुम्हारे जैसे बहादुर शख्ल को मैने अपनी मुहब्बत का तोहफा देकर कुछ बजा नहीं किया! क्या में उम्मीद करूं कि बहादुर होकर तुम उस औरत के तोहफे के लेने से अब इन्कार न करोगे, जो कि बहादुरी और सिपहगरी को तहेदिल से कदर करती हो। भला, बतलाओ तो सही, कि आज तक दुनियां में ऐसा कौन नामी बहादुर हुआ है, जिसने किसी कदरदान औरत के तोहके को तुच्छ और नाका- बिल समझ कर कबल न किया हो!"

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