याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद १२

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
[ ७० ]

बारहवां परिच्छेद

कुसीदा! आश्चर्य!!! इस नवयुवक वीर के बेश में कुसीदा!!! और क्यों न हो, जबकि वह सब भांति से अपनी बहिन हमीदा के अनुरूप ही थी।

निदान, कुसीदा को पहचान कर हमीदा उसके गले से लपट गई और बोली,-"प्यारी बहन, कुसीदा! तू यहां क्योंकर आई?"

कुसीदा,-"बहिन! तुम्हारे हुक्म बमूजिव में इस बात की चौकसी करती थी कि जिसमें तम्हारे गायब होने का हाल किसीको भी न मालूम हो, लेकिन न जाने क्यों कर तुम्हारे गायब होने का हाल अबदुल को मालूम होगया। तब उसने तुमपर किसी किस्म का शक करके उन जल्लादो से निहालसिंह के बारे का सच्चा हाल दाफ्त कर लिया और वालिद से सारा हाल बयान कर के कुछ थोड़ी सी फ़ौज के साथ तुम दोनों की गिरफ्तारी के लिये वह इधर रबान हुआ। यह हाल जान कर मैंने पहिले तो उन दोनो जल्लादों को मार डाला, जिन्होंने तुम्हारे पोशीदा राज़ को अबदुल पर खोल दिया था; फिर मैं एक नौजवान की सूरत बन कर अबदुल की फ़ौज में आमिली और बराबर उसके साथ रही। यहां आकर उसे यह मालूम हुआ कि,'चमन की घाटी में एक पहरेदार गोली से मारा हुआ पड़ा है।' यह जानकर उसने इसे तुम्हाराही काम समझा और इस ओर को उसने कूच किया। अभी थोड़ी देर हुई कि वह यहां पहुंचा और अपनी फौज को एक जगह पर, जो कि यहांसे थोड़ी दूर पर है, ठहरा कर तुम्हें खोजता हुआ इधर आया। मैं भी उसकी नज़रों से बचती हुई उसके पीछे लगी और यहां पर आकर उसके पासही एक झाड़ी में छिप रही। बस, जब भाला लेकर वह इन पर (निहालसिंह की ओर इशारा करके) झपटा तो मैने पीछे से दौड़ कर इस पाजी का काम तमाम कर दिया।"

अपनी योग्य बहिन की ज़बानी यह हाल सुनकर हमीदा उससे लपट गई और बड़े प्यार से उसके मुखड़े पर हाथ फेरती हुई बोली,"प्यारी, बहिन! तूने बड़ा काम किया, वरन आज मेरे प्यारे निहालसिंह के दुश्मनों की जान जाही चुकी थी।" [ ७१ ]कुसीदा,-"लेकिन, बहिन! अब तुम लोग यहां पर एक लहज़ः भी न ठहरो, क्योंकि अबदुल के लौटने में जब ज्यादा देर होगी तो अजब नहीं कि उसके ढूंढने के लिये कोई फ़ौजी सिपाही इधर आजाय।"

मैंने पूछा,-" इस फ़ौज में कितने सिपाही हैं?"

कुसीदा,-"पांचसौ।"

तब हमीदा ने मुझसे कहा,-"बस, प्यारे, लाओ, हाथ मिलाओ और मुझे रुखसत करो, क्योंकि अब यहां पर ठहरना सरासर जान देना है।"

कुसीदा,-(हमीदा से) "लेकिन, बहिन! तुम लौट कर अब जाओगी कहाँ? तुम्हारे कत्ल का तो वालिद ने आम तौर से इश्तहार देदिया है। पल जो वालिद अपनी लड़की के कत्ल का इश्तहार देता है, उसका मुंह देखना कौन लड़की चाहेगी।"

हमीदा,-"आखिर, में तो मरना चाहती ही हूं।"

हमीदा,-"लाहौलबलासवत! क्या हिमाकत की बातें, बहिन! तुम करने लगी? तुम क्या कुत्ते की मौत मरना चाहती हो!"

हमीदा,-"तो क्या करूं?"

इस पर मैंने कहा,-"बस, प्यारी! तुम मेरा कहा मानो और मेरे साथ चलो।"

कुसीदा,-"बस, इससे बिहतर और कोई बात नहीं होसकती।"

हमीदा,-(आश्चर्य से) "यह तुम क्या कहती हो?"

कुसीदा,-"मैं बहुत ठीक कहती हूं! अब तुम अपने आशिक का साथ दो और नाहक अपनी नौजवानी को मिट्टी में न मिलाओ।"

मैंने कहा,-"इसी बात पर इनके साथ मेरी देर से हुज्जत होरही है, पर यह किसी तरह मेरी बात मानती ही नहीं।"

कुसीदा,-"नहीं, बहिन! अब तुम कुछ आगापीछा, न सोचो और अपने चाहनेवाले के साथ जाओ। क्योंकि यहां अब किसी तरह भी तुम्हारी जान की खैर नहीं है।"

हमीदा,-"लेकिन, प्यारी कुसीदा मैं तो ---"

कुसीदा,-"बस अब ज्याद; बकबक न करो और जल्द यहांसे भागो, वरन खैर नहीं होगी। और हमीदा! अगर तुहें अपने आशिक का साथ नहीं देना था तो नाहक तुमने इस गैरआईनी इश्क के मकतब [ ७२ ]में कदम क्यों रक्खा?"

मैं कुसीदा के ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और मनहीमन उसे कोटि कोटि धन्यवाद देने लगा, क्योंकि उसने हमीदा से मेरे खातिरखाह सिफ़ारिश की थी।

निदान, बहुत कुछ कहने सुनने पर अन्त में हमीदा मेरे साथ चलने पर राज़ी हुई और कुसीदा से बोली:--"लेकिन प्यारी, बहिन! मेरे जाने पर तुम्हारे ऊपर तो कोई आंच न आवेगी?"

कुसीदा.- क्या सच्ची बात कहूं?"

हमीदा, -- हां, हां, सचही कहो।"

कुसीदा,-" महल में मेरे न रहने के सबब वालिद ने मेरे कत्ल का भी इश्तहार देदिया है। इसी सबब से में मरदानी लिवाल में भेस बदल कर अबदुल के गरोह में मिली थी!"

हमीदा,-"तो तुम कहां जाओगी।'

कुसीदा,-"मैं कब्र में जाऊंगी, क्योंकि मेरा मरना जीना, बराबर है और इसका सबब यह है कि अभीतक में हज़रत-ई-इश्क के चकाबू में नहीं फंसी हूं।”

हमीदा,-"लेकिन, प्यारी, बहिन! ऐसा हर्गिज़ नहीं होसकता कि मैं अपनी जान तो बचाऊं और तुम्हें जल्लादों की तल्वार के साये तले छोड़ जाऊं। इससे तो यही बिहतर होगाकि तुमभी मेरे साथ चलो और जिस तरह मेरे साथ पैदा हुई हो, उसी तरह हर हाल में मेरा साथ दो।"

यह सुनकर मैंने कहा,-" कुसीदा बीबी! यह बात आपकी बहिन ने बहुत अच्छी कही है। इसलिये यह बहुत ही अच्छा होता, यदि आपभी अपनी बहिन के साथ मेरे घर चलती। वहां जाने पर आपको भी कोई न कोई सच्चा आशिक मिलही जायगा और तब आप भी अपनी नौजवानी को बिल्कुल बेकार और जवाल न समझेगी।"

निदान, दोनो बहिने चलने के लिये तैयार हुई और हमीदा आगे, मैं बीच में और कुसीदा पीछे पीछे चली। परमेश्वर की दया से फिर मुझे कोई कष्ट वा दुःख न झेलना पड़ा और न किसी अफरीदी सिपाही का सामना हुआ। दोपहर ढलते ढलते मैं अफरीदी सीमा से बाहर हुआ और अपने कैम्प में पहुंच गया।

मैंने अपने घाव को दिखला कर सारा हाल अपने अफ़सर और महाराजा साहब से कहा, जिसे सुनकर वे दोनो बड़े प्रसन्न हुए और [ ७३ ]महाराजा साहब पटियाले ने अपनी थोडीसी फ़ौज के साथ उन दोनो हमीदा और कुसीदा को पटियाले भेज दिया और मैं उसी 'सीमान्त संग्राम में रह गया।

फिर जब उस लबड़धौधों से मैंने छुट्टी पाई, अर्थात असभ्य अफ़रीदियों से हैरान होकर जब अंबरेज़ी फौज लौटी तो मैंने सदा के लिये अंगरेज़ी नौकरी छोड़दी और पटियाले से उनदोनो बहिनो को साथ लेकर यहां जी बहलाने के लिये आया।

निहालसिंह की इतनी कहानी सुनकर मेरे मुहं में पानी भर आया और मैंने पूछा-"तो क्या वे दोनो अब तुम्हारे साथ हैं?"

निहालसिंह,-"हां, दोनों साथ हैं, पर जबतक कुसीदा को भी कोई एक आशिक न मिल जायगा, हमीदा मेरे साथ शादीन करेगी।"

मैंने कहा,-"तो क्या मैं कुसीहा के प्रेम का प्रसाद पासकता हूं?"

इतना सुन कर निहालसिंह उठ खड़े हुए और बोले,-"अच्छा, चलो, अब डेरे पर चलें; क्यों कि अंधेरा हो गया है। आज मैं कुसीदा और हमीदा से तुम्हारे विषय में बातें करूंगा और कल उन दोनो से तुम्हारी भेंट करा दूंगा; फिर यदि तुम कुसीदा के पाने का प्रयत्न कर सको तो ठीक है, नहीं तो इस विषय में इससे अधिक और मैं कुछ नहीं कर सकता।"

निदान, फिर तो हम दोनो मित्र लौट कर डेरे पर आए। फिर निहालसिंह तो दूसरे दिन मिलने की प्रतिज्ञा कर के अपने डेरे पर चले गए और मैं पलंग पर पड़ कर कुसीदा का सपना देखने लगा।

क्या स्वप्न सत्य नहीं है! अवश्य है; क्यों कि भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र के पौत्र अनिरुद्धजी ने वाणपुत्री उषा को स्वप्न ही में प्रथम प्रथम देखा था। सो उषा ने अनिरुद्ध को, और अनिरुद्ध ने उषाको जो स्वप्न में देखा था; वह स्वप्न ऐसा था कि जिसके पहिले जाप्रत अवस्था में उन दोनो में से एक ने भी अपने प्रणयी या प्रणपिन्नी का कुछ भी वृत्तान्त नहीं सुना था; केवल स्वप्न में ही एक दूसरे ने एक दूसरे को देखा था।

किन्तु मैंने तो अपने मित्र निहालसिंह से कुसादा का पूरा वृत्तान्त सुना था, इसिलिये ऐसी अवस्था में यदि मैंने उसे स्वप्न में भली भांति देखा तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात हुई?

साहित्यकारों ने अनुराग के उत्पन्न होने के अनेक कारणों में से चार

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[ ७४ ]कारणों को सबसे प्रधान माना है, यथा-श्रवणजन्मा, स्वप्नजन्मा, चित्रजन्मा और साक्षातजन्मा। इनमें श्रवणजम्मा अनुराग दमयन्ती को हुआ था, स्वप्नजन्मा अनुराग उषा को हुआ था, चित्रजन्मा अनुराग प्रभावती को हुआ था और साक्षातजन्मा अनुराग तपती को हुआ था। सो इन चारों में से जहां अनुराग के उत्पन्न करने में एक कारण भी विशेष बलवान हुआ था, तो ऐसी अवस्था में मेरे चित्त में कुसीदा को लक्ष्य करके महा महा अनुराग क्यों न उत्पन्न होता, जब कि मैंने श्रवणद्वारा भी कुसीदा के वृत्तान्त को सुना और उसके रूप का चिन्तन करते करते स्वप्न में भी उसे देखा? इसलिये पाठकों को समझना चाहिए कि मैंने स्वप्न में कुसीदा को भली भांति देखा था।

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