याक़ूती तख़्ती/ परिच्छेद ४

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याक़ूती तख़्ती  (1906) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
[ ३६ ]

पांचवां परिच्छेद

प्रातःकाल पहरेवाले की आवाज़ से मेरी तंद्रा दूर हुई और उससे मैंने सुना कि मुझे दरबार में हाज़िर करने को सरदार ने हुक्म दिया है। अतएव मैं शीघ्रता से उठा और गुफा के बाहर आकर आवश्यक कामों से छुट्टी पा, सिपाहियों के घेरे में दरबार की ओर चला। उस समय दिन कुछ आधिक चढ़ आया था, पर आकाश में कुहरा इतना छाया हुआ था कि सूर्य भगवान का दर्शन दुर्लभ था।

अस्तु, मैं अंतर्यामी बिधाता को प्रणाम कर दरवार की ओर चला और मन ही मन परमेश्वर से यही प्रार्थना करने लगा कि जिसमें वह छीनदयालु मेरे हृदय में ऐसा बल दे कि जिसके कारण मैं इन असम्य अफ़रीदियों के आगे अपने सिक्ख नाम का गौरव रख सकूँ।

दरबार गृह कैसा था, इसकी सूचना मैं पहिले दे आया हूं। सो उसी बारहदी में मैं पहुंचाया गया और वहां जाकर मैंने देखा कि दरबार गृह के मध्य में एक ऊंचे सिंहासन पर अफरीदी सर्दार मेहरखा बैठा है और उसके अगल बगल अदब के साथ झुके हुए अस्सी दरबारी अमीर ज़मीन में, फर्श पर बैठे हुए हैं।

सदार मेहरखां का बयस, मेरे अनुमान से पचास के लगभग होगा। उसकी देह लंबी और जोरावर, चेहरा रोबीला और शरीर का रंग गोरा था। उसके सिंहासन के पीछे बीस सिपाही नंगी तल्वार लिए खड़े थे और दरबार गृह के सामने, मैदान में पचास सवार खड़े थे।

निदान, मैं जब सरदार के सामने जाकर खड़ा हुआ तो मेरे पीछे बारह अफ़रीदी सिपाही, हाथों में भरी हुई बंदूकें लेकर खड़े हुए कि जिसमें सरदार के जरासा इशारा पातेही वे मेरी खोपड़ी उड़ादें। अस्तु, परन्तु मैं बिलकुल निडर हो, तन कर वीरपुरुष की भांति सरदार के सामने खड़ा हुआ। उस समय दरबार में इतना सन्नाटा छाया हुआ था कि यदि वहां पर एक सुई भी गिरती तो उसका भी शब्द स्पष्ट सुनाई देता।

मेरे खड़े होने के कई मिनट बाद, उससन्नाटे को तोड़कर सरदार मेहर खांने मेरी ओर धूर कर गंभीर शब्दों में कहा,-"अय नौजवान! [ ३७ ]तेरा नाम क्या है? क्योंकि तेरी पोशाक देखकर मुझे ऐसा जान पड़ता है कि शायद तू सिक्खरेजीमेन्ट का सिपाही होगा!"

यह सुनकर और खबतन कर मैंने वीरताव्यंजक शब्दों में कहा,-"सर्दार मेहरखां। मैं अन्यायपूर्वक तेरे हाथों बंदी हुआ हूं, अतएव मैं उस दंड की प्रतीक्षा करता हूं, जो कि तू मुझे दिया चाहता है। बस, इसके अतिरिक्त इस समय नाम, धाम, पेशा, मज़हब, या जातपांत के पछने की या उनके कहने की मैं कोई आवश्यकता नहीं समझता।"

कदाचित मेहरखां ने अपने प्रष्ण का ऐसा मुहंतोड़ उत्तर कभी न पाया होगा! और कदाचित उसने मुझसे ऐसे उत्तर पाने की कभी कल्पना भी न की होगी। सो मेरे कड़े जवाब को सुनकर वह मारे क्रोध के भभक उठा और कड़क कर बोला,-"बेवकूफ़, काफिर! तेरे इस बेहूदगी के जवाब से तेरा ही नुकसान होगा, इसलिये शाहदिरबार में कैदी को जिस नर्मी के साथ जवाब सवाल करना चाहिए, इसे तुझे ज़रूर जान लेना चाहिए।'

किन्तु उस अफरीदी सरदार के इस कहने से मैं बिचलित न हुआ और मैने भी उसी प्रकार कड़क कर कहा,-" मेहरखां! असभ्य अफ़रीदी पठान को मैं अपना राजा नहीं समझता, और साथही इसके, राजाओं के आगे कैसे शिष्टाचार की आवश्यकता होती है, इसे मैं भली भांति जानता हूं।"

मैंने समझा कि मेरे इस उत्तर से सरदार और भी तमतमा उठा, पर उसने अपने उमड़ते हुए क्रोध को भीतरही भीतर रोक कर कर्कश स्बर से कहा,-" काफ़िर! क्रिस्तानों के कदमों की धूल से जिनका माथा भर रहा है, उन्हें इतनी शेखी के साथ तनकर ऐसा जवाब सवाल न करना चाहिए। तू अभी निरा छोकड़ा है, इसलिये लड़कों की तरह जवाब सवाल कर रहा है, लेकिन, ऐसा करना तुझे फबता नहीं। क्या तू इस तवारीखी बात को बिल्कुल भूल गया कि इन्हीं 'असभ्य' पठानों के हाथ से तेरी ज़ात(सिक्खों) को कितनी मर्तवः बेइज्जत होना पड़ा है और कितनी दफ़ा उन्हें पंजाब को छोड़ कर इधर उधर जंगल पहाड़ों में भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी है! आज तू उसी (असभ्य) पठान ज़ात के सरदार के सामने कैदी की हैसियत से खड़ा किया गया है, पस, तुझे लाज़िम है कि तू अब सम्हल कर मेरे सवालों का जवाब देगा।" [ ३८ ]मैंने उसकी इन बातों का कुछ भी जवाब न दिया, तब वह फिर कहने लगा,-"क्या तू यह जानता है कि तू किस कसूर में गिरफ्तार हो कर यहां लाया गया है?"

“मैने निडर हो कर कड़ाई के साथ कहा,-"हां, यह मैं भली भांति जानता हूं कि मैंने गोर्खे सिपाहियों के हाथ से जो अफरीदी सरदार की लड़की की आबरू बचाई है और उन्हीं गोरों की पैनी छुरी से एक एहसानफ़रामोश, पाजी अफरीदी युवक की जान बचाई, है, बस, इसी अपराध में में बंदी करके यहां लाया गया हूं। निस्सन्देह, मेरा अपराध बड़ा भारी है। यदि ऐसी भलाई में असभ्य अफरीदी जाति के साथ न करता तो वह मेरे साथ ऐसे प्रत्युपकार की व्यवस्था किसलिये करता! सच है, नीचों के साथ भलाई करने का नतीजा ऐसा ही निकलता है।"

मेरी बातें सुनकर मेहरखांकुछ देरतक चुप रहा फिर वह कहने लगा,"सुन काफ़िर! आज मुझे यह जानकर बड़ी खुशी हुई कि अगरीदियों के बनिस्वत हिन्दुस्तानी लोग ज़बांदराजी में बड़े बहादुर होते हैं। लेकिन हमलोग बातों के बदले मैदान में,-लड़ाई के मैदान में बहादुरी दिखलाना मनासिब समझते हैं। खैर, तू अपने ख़ुदा का शुक्रिया अदा कर कि ऐसे बेहूदः जवाब सवाल करने पर भी अभी तक मेरे धड़ पर सर कायम है!

"सुन, काफ़िर, जवान! तुम लोगों ने नाहक हमारे मुल्क में आकर लड़ाई का डंका बजाया, नाहक हमारे सैकड़ों बहादुरों की जानेली और नाहक इस बेहूदा सर्कशी करने पर तुम उतारू हुए, क्या तुम अफ़रीदियों को बिल्कुलही नाचीज़ व पस्तहिम्मत समझते हो कि जिसके सबबवे तुम्हारी इस शरारत का बदला न चुका सकेंगे! मगर खैर तुझ जैसे एक नाचीज़ कीड़े के मारने से मुझे क्या हासिल होगा। इसलिये दुश्मन आनकर भी मैं तेरी आन का ख्वाहां नहीं हूं, लेकिन सिपहगरी के घमंड से लड़ने आकर जो तूने मेरी दुख्तर की याकूती तख्ती चुराई, तेरा यह कसूर कभी मुआंफ़ नहीं किया जा सकता। पस, तू इस कसूर के एवज़ में मुनासिब सज़ा भोगने के लिये तैयार हो।"

यह सुनकर मैने बिल्कुल लापरवाही के साथ कहा,-"सुन मेहरखां! बिना अपराध भी मैं, उस दंड के भोगने के लिये तैयार हूं, जिसे तुम जैसे नालायक मुझ जैसे निरपराधियों को दिया करते हैं। क्योंकि तुझ [ ३९ ]से मैं अपने छुटकारे की आशा नहीं करता, क्योंकि यह मैं भली भांति जानता हूं कि तुझ जैसे दुरात्माओं के पास छल की कमी नहीं रहती, परन्तु यह अपवाद, कि मैंने किसीकी कोई वस्तु चुराई है, मैं नहीं सह सकता। चोरी करनी सिक्ख जाति का धर्म नहीं है; इसलिये तू बतला कि तेरी लड़की की तख्ती चुराने का झूठा अपवाद मुझे कौन लगाता है?"

यह सुनकर सरदार ने जोर से पुकारा-'अबदुल्!' जिसे सुनते ही वही बदज़ात, पाजी अबदुल् दरबार में आया और ज़मीन चूमता हुआ सरदार के सामने जाखड़ा हुआ। तब सरदार मेहरखां ने कुछ कड़ाई के साथ उसले कहा,-"इस कैदी ने हमीदा की याकूतीतख्ती चुराई है, इस बारे में तू क्या जानता है, बयान कर।"

यह सुनकर कांपते हुए गले ले अबदुल कहने लगा,-"मैंने इस कैदी के पास वह तख्ती देखी है, इसलिए मैं समझता हूं कि इसने किसी ढब से उस तख्ती को चुरा ली है। क्योंकि इस बात का तो कभी यकीन किया ही नहीं जासकता कि एक काफिर और अपने मुल्क के दुश्मन को दुख्तर-ई-लर अपनी तख्ती मुहब्बत की निशानी के तौर पर दे डालेगी।"

"मैने ज़रूर अपनी बेशकीमत याकूतीतख्ती इस बहादुर जवान को दी है। जिस बहादुर नौजवान ने मेरी आबरू और जान बचाई, जिसने मुझे उस खखार आफ़त ले बचाकर मेरी हिताजत के लिये सारी रात मेरे साथ रह कर निहायत तकलीफ उठाई, और जिसने मेरे लिये अपने तंई इस बला में फंसाया, अजनवी, रमज़हब और गैरकोम होने पर भी मैंने खुशी से अपनी निशानी इस बहादुर जवान को देडाली। लिहाज़ा, इस आम दरवार में अफरीदी सरदार की लड़की इस बात को खुशी से कबूल करती है कि इसने इस भलाई करनेवाले बहादुर जवान को उसकी नेकियों के एवज़ में निशानी के तौर पर अपनी तख्ती का देडालना गैरमुनासिब नहीं समझा। पल, जो लोग इस नेक जवान को तख्ती के चुराने का इल्ज़ाम लगाते हैं, वे सिर्फ झूठही नहीं बोलते, बलिक इन्सानियत के खिलाफ सर उठाते हैं।"

इस आवाज़ के सुनते ही सार दरबार की नज़र उधर ही खिंच गई, जिधर से यह आवाज़ आई थी, और सभी ने आश्चर्य से देखा कि उपर्युक्त बात के कहनेवाली स्वयं हमीदा ही थी। यह देखतेही अफरीदी [ ४० ]वीरों की तल्वारे झनझनाहट के साथ म्यान से निकल पड़ी, मेरे हृदय का भी रुधिर उष्ण होकर बड़ी तेजी के साथ नाड़ियों में दौड़ने लगा और रक्षकों ने मर्यादा से सिर झुकाकर हमीदा के लिये रास्ता छोड़ दिया। मैं पास ही खड़ाथा, सो मैंने बड़े आदर की दृष्टि से उस निर्भीकहृदया महिमाल्विता पठानकुमारी का स्वागत किया और उसके संकोचहीन भाव तथा अकुंठित गति को मैं देखने लगा।

गतरात्रि को जिस भेस में हमीदा मुझसे कारागार में मिली थी, इस समय भी वह उसी भेस में थी। किन्तु इस समय उसके नेत्रो में नारीजनोचित कोमलता तथा स्त्रीजनोचित करुण भाव न था, बरन उनके बदले में स्पष्ट प्रणा अटल प्रतिज्ञा, उद्धत दर्प और अम्लान तेजस्विता मेघान्तरित मध्यान्हमार्तण्ड की भांति उसके नेत्र और मुख से टपकी पड़ती थीं। अहा! उस समय न जाने किसी घोर अनिष्ट की आशंका से सारा दरवार विलोड़ित हो उठा था।

हमीदा धीरे धीरे अपने पिता के पास पहुंची और उसके पैर के पास दो जानू बैठ कर असंकुचित भावसे कहने लगी,-'प्यारेवालिद! मैंने अपनी खुशी से इस अजनबी और परदेसी बहादुर को अपनी तख्ती नज़र दी है। इस बात से मैं इन्कार नहीं कर सकती। अगर आज यह बहादुर मेरी तख्ती के चुराने के कलर में गिरफ्तार न किया गया होता तो मैं इस भरे दरवार में कभी न आती और उस तख्ती के ज़िक्र करने की भी कोई ज़रूरत न समझती, इसलिये अगर मेरी इस हर्कत से मेरी या आपकी शान में कुछ फर्क आया हो तो उसके लिये आप मुझे मुआफ़ करेंगे। इसी बहादुर सिपाही ने मेरी आबरू और जान को दश्मनों के हाथ से बचाया है। इसलिये दुनियां में एसी कौन चीज़ है, जो मैं बगैर तअम्मुल किए इसे नहीं देखकती! आह! ऐसी नेकी करने बाला यह बहादुर जवान चोर है, यह बात जो नालायक अफरीदी अपनी नापाक ज़बान से निकाल सकता है, उसे फौरन अफरीदी सिवाने के बाहर कर देना चाहिए। मैं जानती हूं कि ऐसी झूठी, गंदी और बे बुनियाद बात का फैलाने वाला नालायक कौन है! वह बदजात अबदुल है और इसी कमीने ने ऐसी वाहियात बात फैलाकर इस बेकसूर बहादुर को नाहक फंसाया है। आप अपने प्यारे गुलाम अबदुल से पछिए कि गोखों के भयानक छरे से इस कंबख्त की जान किसने बचाई! अफ़सोस, कमीना अबदुल सिर्फ झूठा ही नहीं है, बल्कि वह [ ४१ ]दगाबाज़ और एहसान-फ़रामोश भी है।

"प्यारे वालिद! इसी बहादुर नौजवान ने मेरी आबरू और जान के साथही साथ इस कमीने अबदुल की भी जान उन कंबख्त गोखों के हाथ से बचाई, जिसके एवज़ में इसने अपनी खुदगरज़ी और कमीने पन के बाइस इस बेगुनाह बहादुर को चोरी की इल्लत में गिरफ्तार करके सज़ा दिलवाने के लिये आपके रूबरू पेश किया है। मैं चाहती हूं कि अबदुल की शरारतों पर इन्साफ़ किया जाय और यह बहादुर जवान इज्ज़त के साथ अफ़रीदी सिवाने के बाहर पहुंचा दिया जाय। अगर अफ़रीदियों के खिलाफ़ तल्वार उठाने का जुर्म इस बहादुर शख्स पर लगाया जाय तो उसका निबटारा जंग के मैदान में किया जा सकता है। इसलिये मैं चाहती हूं कि----"

हमीदा और भी न जाने क्या क्या कहती, पर अफरीदी सरदार मेहरखां मारे क्रोध के बीचही में 'हुंकार' कर उठा और अपने तख्त पर खड़ा हो, बड़े कर्कश स्वर से कहने लगा,__

बेबकूफ़ लड़की! तूने क्या अपने दिल में यही समझ रखा है कि अफरीदी सरदार मेहरखां एक पागल लड़की के कहने मुताबिक काम करेगा! बस, मैंने सब बातें समझ लीं, अब तू चुप रह; क्योंकि अब मैं तेरी कोई बात सुनना नहीं चाहता। हमारे मुल्क के दुश्मन और अंगरेजों के एक गुलाम काफ़िर को तूने अपनी बेशकीमत तख्ती अपनी मुहब्बत की निशानी में दी: इस भरे दरबार में आकर इस बात के ज़ाहिर करने में, अफसोस है कि शर्म तेरी दामनगीर न हुई और हया से हाथ धो कर तूने अपने साथही मेरी भी शान में फर्क डाला और तू अपने इस काफ़िर आशिक के बचाव के लिये मुझसे सिफारिश करती है? आह! मैंने इस बात का ख्वाब भी नहीं देखा था कि अफरीदी कौम की-ज्यादातर खास मेरी लड़की की शर्मनाक कार्रवाई होगी! सुन बेवकूफ़ हमीदा! तू हर्गिज़ ऐसा न समझ कि मैं तेरे इस काफ़िर आशिक को छोड़ दूंगा और यह बदलात यहांसे लौट कर मेरे मुल्क में अंगरेज़ी झंडा गाड़ने का मौका पाएगा। बस जो काफिर, अफरीदी सरदार की नासमझ लड़की के दिल को लुभाना जाता है, उसे कैसी सज़ा देनी चाहिए, इस पर मैं बखूबी गौर कर चुका हूँ। लेकिन खैर, अगर यह तेरा आशिक कैदी एक एकरार करे तो इसकी जान बख्शी जासकती है। और यह बात यह है कि अगर यह काफिर

[ ४२ ]अपने बेअसूल मज़हब को छोड़ कर पाक दीन इस्लाम को कबूल करे। बस, अगर यह कैदी मुसलमान हो जाय, तो इसकी जान न ली जायगी, लेकिन जबतक यह जीता रहेगा, इसे बराबर अफरीदी जलखाने में कैद रहना पड़ेगा।"

इतना कहकर मेहरखां ने मेरी ओर देखा और कर्कशस्वर से कहा,-"अय, काफिर नौजवान! मैं तुझे तीन दिन की मोहलत देता हूं; इन तीन दिनों में तू बखूबी इस बात पर गौर करले कि तू अपनी जान देना चाहता है, या मुसलमान होकर अफ़रीदी जेलखाने में रहना।"

इतना कहकर उसने अपने सिपाहियों की ओर देखकर, जो कि मुझे उस खोह से निकाल कर इस दरबार में लाए थे, कहा,"सिपाहियों इस काफिर कैदी को लेजाकर बदस्तूर उसी जेलखाने में बंद करदो।"

इतना कह और अपने तख्त से उतरकर मेहरखा दरबार-गृह से बाहर चला गया। उस समय एकाएक मेरी दृष्टि अबदुल की ओर जा पड़ी तो मैंने क्या देखा कि वह नर राक्षस मेरी ओर देख देख कर पैशाचिक हास्य कर रहा है। हा! नारकीय पिशाच के उस वीभत्समय हास्य को देखकर मैंने घृणा, अवज्ञा और तिरस्कारपूर्वक उसकी ओरसे अपनी आंखें हटा लीं और साथही मैंने हमीदा की ओर आंखें फेरी, जो अब तक अपने पिशाच पिता के सिंहासन के पास सिर झुकाए हुए खड़ी थी और स्त्रीजनोचित अभिमान से जिसका चेहरा तुषारदग्ध कमल की भांति हो रहा था। जिस दिन मैने गोर्खे सिपाहियों के हाथ से हमीदा की रक्षा की थी, उन दिन प्रदोष काल के हलके उजाले में सैने उस अपमानपीड़िता वीर्यवती अफरीदी कुमारी के नेत्रों में जैसी दिव्य ज्योति देखी थी, आज स्नेहमय पिता के पदप्रान्त में, प्रकाश्य दरबार में, स्वजातीय अमात्यमंडली और योद्धाओं के आगे इस प्रकार अपमानित और उपेक्षित होने पर उसके नेत्रों की वह ज्योति न जाने कहां जाकर विलीन हो गई थी और उन नेत्रों में अभिमान ले उमंगे हुए आंसुओं की बाढ़ दिखलाई देने लगी थी। हाय, तब मैंने समझा कि पर्वतबासिनी पठानी हमीदा निरी पाषाणी नहीं, बरन रक्तमांसशरीरा नारी ही है और विधाता ने इस पार्वतीय कुसुम में भी अपनी निज सम्पत्ति अर्थात् कोमलता और सुगन्धि दी है।

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