युद्ध और अहिंसा/१/१२ हिटलरशाही से कैसे पेश आयें?
हिटलर अंत में कैसा ही साबित हो, हिटलरशाही का जो अर्थ बन गया है वह हम जानते हैं। इसका अर्थ है बल का नग्न और क्रूर प्रयोग, जिसे ठीक विज्ञान में घटा दिया गया है और वैज्ञानिक शोध के साथ जिसे काम में लाया जा रहा है। इसका असर लगभग अदम्य होता है।
सत्याग्रह के शुरूआत के दिनों में, जबकि उसे निष्क्रिय प्रतिरोध ही कहा जाता था, जोहान्सबर्ग के 'स्टार' पत्र को शस्रास्र से खूब सजित सरकार के खिलाफ मुट्ठी भर ऐसे भारतीयों को उठते हुए देखकर, जो नि:शस्र ही नहीं बल्कि चाहते तो भी संगठित हिंसा के अनुपयुक्त थे, बड़ा आश्चर्य हुआ। उनपर रहम खाकर उसने एक व्यंग-चित्र छापा, जिसमें सरकार को अदम्य बलसूचक स्टीमरोलर का रूप दिया गया था और निष्क्रिय प्रतिरोध को ऐसे हाथी की शकलं दी गयी थी जो अपनी जगह पर आराम के साथ अडिग बैठा हुआ था। उसे अविचलित बल बतलाया गया था। अदम्य और अचल बल के बीच जो द्वन्द्व था उसकी बारीकी में व्यंग चित्रकार अच्छी तरह पहुँच गया। उस वक्त एक जिच पड़ी हुई थी। नतीजा जो हुआ वह हम जानते ही हैं। जिसे अदम्य चित्रित किया गया था उसका सत्याग्रह के अचल बल ने, जिसे हम बदले की भावना के बगैर कष्ट सहना कह सकते हैं, सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया।
उस वक्त जो बात सच साबित हुई वह अब भी उतनी ही सच हो सकती है। हिटलरशाही को हिटलरशाही तरीकों से कभी हराया नहीं जा सकेगा। उससे तो दस गुनी तेज या ऊँचे दर्जे की हिटलरशाही का ही पोषण होगा! हमारे सामने जो कुछ हो रहा है वह तो हिंसा और हिटलरशाही की भी निष्फलता का ही प्रदर्शन है।
हिटलरशाही की असफलता से मेरा क्या मतलब है, यह मैं बतला दूँ। इसने छोटे राष्ट्रों को उनकी स्वतंत्रता से वंचित कर दिया है। इसने फ्रांस को शांति-प्रार्थना करने के लिए बाध्य किया है। जब यह लेख छपेगा, उस वक्त तक शायद ब्रिटेन को भी अपने सम्बन्ध में कुछ निश्चय कर लेना पड़े। मेरी दलील के लिए तो फ्रांस का पतन ही काफ़ी है। मेरे खयाल में, जो अनिवार्य था उसके आगे सिर झुकाकर और मूर्खतापूर्ण आपसी कत्लेआम में भागी बनने से इन्कार करके फ्रांसीसी राजनीतिज्ञों ने असाधारण साहस का परिचय दिया है। अपना सब कुछ खोकर फ्रांस के विजयी बनने का कोई अर्थ नहीं है। स्वतन्त्रता का जिन्हैं उपभोग करना है उन सभी का उसे प्राप्त करने में खात्मा हो जाये तो सवतन्त्रता-प्राप्ति का वह प्रयत्न उपहास्य हो जाता है। उस हालत में वह महत्त्वाकांक्षा का निन्दनीय संतोष बन जाता है। फ्रांसीसी सैनिकों की वीरता विश्वविख्यात है। लेकिन शांति का प्रस्ताव रखने में फ्रांसीसी राजनीतिज्ञों ने उससे भी बड़ी जो बहादुरी बतलाई है उसे भी दुनिया को जान लेना चाहिए। मेरे खयाल में फ्रांसीसी राजनीतिज्ञों ने यह मार्ग सच्चे सैनिकों को शोभा देनेलायक पूरे समानपूर्ण तरीके से ग्रहण किया है। इसलिए मुझे आशा करनी चाहिए कि हेर हिटलर इसके लिए कोई अपमानपूर्ण शर्ते न लगाकर यह दिखलायेगे कि हालाँकि वह लड़ निर्दयता के साथ सकते हैं मगर कम-से-कम शान्ति के लिए वह दयाहीनता से काम नहीं ले सकते।
अब हम फिर अपनी दलील पर आयें। विजय प्राप्त कर लेने पर हिटलर क्या करेंगे? क्या इतनी सारी सत्ता को वह पचा सकते हैं? व्यक्तिगत रूप में तो वह भी उसी तरह खाली हाथ इस दुनिया से जायेंगे जैसे कि सिकन्दर गये थे जो उनके बहुत प्राचीन पूर्ववर्ती नहीं हैं। जर्मनों के लिए वह एक शक्तिशाली साम्राज्य की मालिकी का आनन्द नहीं बल्कि टूटते हुए साम्राज्य को सँभालने का भारी बोझ छोड़ जायेंगे, क्योंकि सब जीते हुए राष्ट्रों को वे सदा-सर्वदा पराधीन नहीं बनाये रख सकते, और इस बात में भी मुझे सन्देह है कि भावी पीढ़ी के जर्मन उन कामों में शुद्ध गर्वानुभव करेंगे जिनके लिए कि वे हिटलरशाही को जिम्मेदार ठहरायेगे। हिटलर की इज्जत वे प्रतिभाशाली, वीर, अनुपम संगठन-कर्ता आदि के रूप में जरूर करेंगे। लेकिन मुझे आशा करनी चाहिए कि भविष्य के जर्मन अपने महापुरुषों के बारे में भी विवेक से काम लेने की कला सीख जायेंगे। कुछ भी हो, मेरे खयाल में यह तो मानना ही होगा कि हिटलरने जो मानव-रक्त बहाया है उससे संसार की नैतिकता में अणुमात्र भी वृद्धि नहीं हुई है।
इसके प्रतिकूल, आज के यूरोप की हालत की जरा कल्पना तो कीजिए। चेक, पोल, नार्वेवासी, फ्रांसीसी और अँग्रेज सब ने अगर हिटलर से यह कहा होता तो कितना अच्छा होता कि “विनाश के लिए आपको अपनी वैज्ञानिक तैयारी करने की जरूरत नही है। आपकी हिंसा का हम अहिंसा से मुकाबिला करेंगे। इसलिए टैंकों, जंगी जहाजों और हवाई जहाजों के बगैर ही आप हमारी अहिंसात्मक सेना को नष्ट कर सकेंगे।
इसपर यह कहा जा सकता है कि इसमें फ्रर्क सिर्फ यही रहेगा कि हिटलर ने खूनी लड़ाई के बाद जो कुछ पाया है वह उसे लड़ाई के बगैर ही मिल जाता। बिलकुल ठीक। लेकिन यूरोप का इतिहास तब बिलकुल जुदे रूप में लिखा जाता। अब जिस तरह अकथनीय बर्बरताओं के बाद कब्जा किया गया है तब शायद (लेकिन सिर्फ शायद ही) अहिंसात्मक प्रतिरोध में ऐसा किया जाता। लेकिन अहिंसात्मक प्रतिरोध में सिर्फ वही मारे जाते जिन्होंने जरूरत पड़ने पर अपने मारे जाने की तैयारी कर ली होती और वे किसी को मारे व किसीके प्रति कोई दुर्भाव रखे बिना मरते। मैं यह कहने का साहस करता हूँ कि उस हालत में यूरोप ने अपनी नैतिकता को काफी बढ़ा लिया होता और अन्त में, मेरा खयाल है, नैतिकता का ही शुमार होता है। और सब व्यर्थ है।
यह सब मैंने यूरोप के राष्ट्रों के लिए लिखा है। लेकिन हमारे ऊपर भी यह लागू होता है। अगर मेरी दलील समझ में आ जाये, तो क्या हमारे लिए यह समय ऐसा नही है कि हम बलवानों की अहिंसा में अपने निश्चित विश्वास की घोषणा करके यह कहें कि हम हथियारों की ताकत से नहीं बल्कि अहिंसा की ताकत से अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा करना चाहते हैं?
‘हरिजन-सेवक' : २२ जून, १९४०