युद्ध और अहिंसा/३/२ धर्म की समस्या

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                         धर्म की समस्या

युद्ध में काम करने के लिए, हम कुछ लोगों ने सभा करके जो अपने नाम सरकार को भेजे, इसकी खबर दक्षिण अफ्रीका पहुँचते ही वहाँ से दो तार मेरे नाम आये। उनमें से एक पोलक का था। उन्होंने पूछा था- 'आपका यह कार्य अहिंसा-सिद्धांत के खिलाफ तो नहीं है ?’

मैं ऐसी तार की आशंका कर ही रहा था; क्योंकि ‘हिन्द-स्वराज्य' में, मैंने इस विषय की चर्चा की थी श्रौर दक्षिण अफ्रीका में तो उसकी चर्चा निरन्तर हुआ ही करती थी। हम सब इस बात को मानते थे कि युद्ध अनीति-मय है। ऐसी हालत में और जबकी मैं अपने पर हमला करनेवाले पर भी मुकदमा चलाने के लिए तैयार नहीं हुआ था, तो फिर जहाँ दो राज्यों में युद्ध चल रहा हो और जिसके भले या बुरे होने का मुझे पता न हो उसमें मैं सहायता कैसे कर सकता हूँ, यह प्रश्न था। हालाँकि मित्र-लोग यह जानते थे कि मैंने बोआर-संग्राम में योग दिया था तो भी उन्होंने यह मान लिया कि उसके बाद मेरे विचारों में परि[ १८४ ] धर्म की समस्या १७५


वर्तन हो गया होगा ।

और बात दरअसल यह थी कि जिस विचार-सररिग के ‍अनुसार में बोअर-युद्ध में सम्मिलित हुआ था उसी का अनुसरगा इस समय भी किया गया था। मैं ठीक-ठीक देख रहा था कि युद्ध में शरीक होना अहिंसा के सिद्धान्त के अनकूल नहीं है; परन्तु बात यह है कि कर्तव्य का भान मनुष्य की हमेशा दिन की तरह स्पष्ट नहीं दिखाई देता। सत्य के पुजारी को बहुत बार इस तरह गोते खाने पड़ते हैं।

अहिंसा एक व्यापक वस्तु है। हम लोग ऐसे पामर प्रारगी हैं, जो हिंसा की होली में फँसे हुए हैं। ‘जीवो जीवस्य जीवनम', यह बात असत्य नहीं क्षरग भी बाह्य हिंसा किये बिना नहीं जी सकता। खाते-पीते, बैठते-उठते, तमाम क्रियाओं में इच्छा से या अनिच्छा से कुछ-न-कुछ हिंसा वह करता ही रहता है। यदि इस हिंसा से छूट जाने का वह महान् प्रयास करता हो, उसकी भावना में केवल अनुकम्पा हो, वह सूक्ष्म जन्तु का भी नाश न चाहता हो, अौर उसे बचाने का यथाशक्ति प्रयास करता हो, तो समम्कना चाहिए कि वह अहिंसा का पुजारी है। उसकी प्रवृत्ति में निरन्तर संयम की वृद्धि होती रहेगी, उसकी करुरगा निरन्तर बढ़ती रहेगी, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि कोई भी देहधारी बाह्य हिंसा से सर्वथा मुक्त नहीं हो सकता।

फिर अहिंसा के पेट में ही अद्वैत भावना का भी समावेश है। और यदि प्रारिगमात्र में भेद-भाव हो तो एक के काम का [ १८५ ] १७६ युद्ध अौर अहिंसा


असर दूसरे पर होता है अौर इस कारग भी मनुष्य हिंसा से सोलहों ओना अछूता नहीं रह सकता। जो मनुष्य समाज में रहता है, वह अनिच्छा से ही क्यों न हो, मनुष्य-समाज की हिंसा का हिस्सेदार बनता है। ऐसी दशा में जब दो राष्ट्रों में युद्ध हो तो अहिंसा के अनुयायी व्यक्ति का यह धर्म है कि वह उस युद्ध को रुकवावे। परंतु जो इस धर्म का पालन न कर सके, जिसे विरोध करने का सामर्थ्य न हो, जिसे विरोध करने का अधिकार न प्राप्त हुआ हो, वह युद्ध-कार्य में शामिल हो सकता है अौर ऐसा करते हुए भी उसमें से अपने को, अपने देश को अौर संसार को निकालने की हार्दिक कोशिश करता है।

मैं चाहता था कि अंग्रेजी राज्य के द्वारा अपनी, अर्थात अपने राष्ट्र की, स्थिति का सुधार करूँ। पर मैं तो इंग्लैंड में बैठा हुआ इंग्लैंड की नौ-सेना से सुरक्षित था। उस बल का उपयोग इस तरह करके मैं उसकी हिंसकता में सीधे-सीधे भागी हो रहा था। इसलिए यदि मुम्के इस राज्य के साथ किसी तरह संबंध रखना हो, इस साम्राज्य के म्करगडे के नीचे रहना हो, तो या तो मुम्के युद्ध का खुल्लमखुल्ला विरोध करके जब तक उस राज्य की युद्ध-नीति नहीं बदल जाय तब तक सत्याग्रह-शास्त्र के अनुसार उसका बहिष्कार करना चाहिए, अथवा भंग करने योम्य कानूनों का सविनय भंग करके जेल का रास्ता लेना चाहिए, या उसके युद्धकार्य में शरीक होकर उसका मुकाबला करने का सामर्थ्य अौर अधिकार प्राप्त करना चाहिए। विरोध की शक्ति मेरे अन्दर [ १८६ ] धर्म की समस्या १७ थी नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि युद्ध में शरीक होने का एक ही रास्ता मेरे लिए खुला था ।

    जो मनुष्य बन्दूक धारण करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनों में अहिंसा की दृष्टि से कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता । जो आदमी डाकुऒं की टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करने का काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है जितना कि खुद वह डाकू । इस दृष्टि से जो मनुष्य युद्ध में घायलों की सेवा करता है, वह युद्ध के दोषों से मुक्त् नहीं रह सकता । 
    पोलक् का तार आने के पहले ही मेरे मन में ये सब विचार उठ चुके थे । उनका तार आते ही मैंने कुछ मित्रों से इसकी चर्चा की । मैंने अपना धर्म समझ कर युद्ध में योग दिया था और आज भी मैं विचार करता हूँ तो इस विचार-सरणि में मुझे दोष नहीं दिखाई पड़ता । ब्रिटिश-साम्राज्य के संम्बन्ध में उस समय जो विचार मेरे थे उनके आनुसार ही मैं युद्ध में शरीक हुआ था और इसलिए मुझे उसका कुछ भी पश्चात्ताप नहीं है ।
     मैं जानता हूँ कि अपने इन विचारों का औचित्य मैं अपने समस्त मित्रों के सामने उस समय भी सिद्ध नहीं कर सका था । यह प्रश्न सूत्म है । इसमें मत-भेद के लिए गुंजाइश है। इसीलिए अहिंसा-धर्म को माननेवालों और सूत्म-रीति से उसका [ १८७ ]१७                      युद्ध और अहिंसा

पालन करनेवालों के सामने जितनी हो सकती है खोलकर मैंने अपनी राय पेश की है । सत्य का आग्रही व्यक्ति रूढ़ि का अनुसरण करके ही हमेशा कायें नहीं करता, न वह अपने विचारों पर हठपूर्वक आरूढ़ रहता है। वह हमेशा उसमें दोष होने की संभावना मानता है और उस दोष का ज्ञान हो जाने पर हर तरह की जोखिम उठाकर भी उसको मंजूर करता है और उसका प्रायश्चित्त भी करता है ।

आत्मकथा : खंड ४; अध्याय ३ ९