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युद्ध और अहिंसा/३/८ विरोधाभास

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युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ २१९ से – २२७ तक

 

८:

विरोधाभास एक भाई कटाक्षपूर्ण ढंग पर निग्नलिखित कई महत्त्व के प्रश्न पूछते हैं : ‘‘जब जुलु लोगों ने उनकी स्वतन्त्रता की अपहरण करनेवाले अंग्रेज़ों का सामना किया, तब उस कथित विद्रोह की दबाने में आपने ब्रिटिश सत्ता की मदद की । विदेशी सत्ता के जुए को उतार फेंकने के लिए किये जानेवाले प्रयत्नों को क्या विद्रोह का नाम दिया जाना चाहिए ? फूांस की जॉन आँव आर्क, अमेरिका के जार्ज वाशिंगटन, आजकल के डी वेलेरा-क्या इन सभी को विद्रोही कहना चाहिए ? आप कहेंगे कि जुलु लोगों ने हिंसा मार्ग को अपनाया ! मैं कहता हूँ कि इस साधन को अनुपयुक्त कहा जाये तो भी बया उनका ध्येय हीन कोटि का था ? अतः मेरी यह समस्या हल कर दीजिए । “दूसरे, गत महायुद्ध में भी जब जर्मनी और आस्ट्रिया के शूरवीर अपने विरोध में खड़ी हुई सारी दुनिया से लड़ रहे थे, उस समय भी आपने जर्मनी और आस्ट्रिया की प्रजा के विरुद्ध अंग्रेज़ों विरोधाभास २११ के पक्ष में लड़ने के लिए रंगरूट भर्ती करने का आयोजन किया था । जर्मनी और आस्ट्रिया की प्रजा ने तो भारतीयों का कुछ भी नहीं बिगाड़ा था । जब दो राष्ट्रों में युद्ध प्रारम्भ हो, तब उनमे से किसी एक का पक्ष लेने का निर्णय करने के पहले मनुष्य को दोनों पक्षों की बात सुन लेनी चाहिए । गत महायुद्ध के समय तो हमारे सामने एक ही पक्ष का राग आलापा जाता था, ओर खुद उस राग को आलापनेवाली प्रजा भी उसकी प्रामाणिकता अथवा सचाई के विषय में कुछ असंदिग्ध न थी । सत्याग्रह और अहिंसा के शाश्वत हिमायती होकर भी आपने उन लोगों को, जो युद्ध के धार्मिक अथवा अधार्मिक होने के बारे में अँधेरे में थे, क्यों साम्राज्य तृष्णा के कीचड़ में हाथ-पॉव पीटनेवाली प्रजा की भूख शान्त करने के लिए लड़ने का प्रलोभन दिया ? आप कहेंगे कि उस समय आपको ब्रिटिश नौकरशाही में अद्धा थी । जिस विदेशी प्रजा का एक-एक कृत्य उसके दिये हुए वचनों के सरासर विपरीत सिद्ध हुआ है, क्या उसमें अद्धा रखना किसी भी मनुष्य के लिए सम्भव हो सकता है ? फिर आप जैसे बुद्धिमान प्रतिभाशाली पुरुष के लिए ऐसा कैसे सम्भव हो सकता है? इस दूसरी गुत्थी का भी मुझे आपके पास से उत्तर चाहिए । “एक तीसरी बात और मुझे कहनी है । आप अहिंसावादी हैं । और आज की स्थिति में तो भले ही हमारे लिए कट्टर अहिंसावादी रहना उचित हो सकता है, किन्तु, जिस समय भारतवर्ष स्वतन्त्र होगा और यदि उस समय किसी विदेशी राष्ट्र ने हम २१२ युद्ध और अहिसा

पर आक्रमण किया, तो क्या उस समय भी हम हथियारों को छूना पाप मानेगे ? इसी प्रकार जब रेल, तार और जहाज इस देश के माल को विदेश भेजने के साधन न रहेंगे, तब भी क्या श्राप उनका बहिष्कार करने का ही प्रचार करेंगे ?"
   मेरे व्यवहार में परस्पर विरोधी बातें रहती हैं, ऐसी अनेक आलोचनाऍं मैंने सुनी और पढी हैं, किन्तु उन के साथ मेरे अकेले का सम्बन्ध होता है, इसलिए मैं अधिकतर उनके जवाब देने के पचड़े में नहीं पड़ता । परन्तु उपरोक्त भाई ने जो प्रश्न पूछे हैं, वे यद्यपि मेरे लिए नये नहीं हैं, तथापि सामान्य कोटि के होने के कारण उनकी यहाँ चर्चा करना उपयुक्त प्रतीत होता है ।
   जुलु विद्रोह के समय ही मैंने अपनी सेवाएँ ब्रिटिश सरकार को अर्पित नहीं की, बल्कि उसके पूर्व बोआर युद्ध के समय भी की थीं। और पिछले युद्ध के समय मैं रंगरूट भर्ती करने के लिए ही नहीं घूमा, बल्कि जब सन् १९१४ में युद्ध शुरू हुआ तो स्वयं लन्दन में मैने घायल सिपाहियों को मदद पहुँचाने के लिए 'स्वयं-सेवक दल' का भी निर्माण किया था।
   इस प्रकार यदि मैंने पाप किया है तो भरपूर किया है, इसमें कोई शक नहीं। मैंने तो प्रत्येक समय सरकार की सेवा करने के एक भी संयोग को हाथ से नहीं आने दिया । इन सब अवसरों पर केवल दो ही प्रश्न मेरे सामने होते थे । मैं उस समय अपने को जिस सरकार का नागरिक मानता था, उसके                                     विरोधाभास                             २१३

नागरिक की हैसियत से मेरा धर्म क्या है ? दुसरे एक चुस्त अहिंसावादी की हैसियत से मेरा धर्म क्या है ?

   आज मैं यह जानता हूँ कि मेरी वह मान्यता गलत थी कि मैं सरकार का नागरिक था । परन्तु उपरोक्त चारों प्रसंगों पर मैं यह प्रामाणिकता के साथ मानता था कि अनेक बाधाओं के बीच गुजरते हुए भी मेरा देश स्वतन्त्रता की ओर प्रगति कर रहा है और व्यापक द्ऱुष्टि से देखा जाये तो लाक-दृष्टि से भी सरकार सर्वथा खराब नहीं है । इसी प्रकार ब्रिटिश अधिकारी भी स्थूल और धीमे होते हुए भी प्रमाणित हैं ।
   ऐसी मनोदशा होने का कारण मैंने वही करने का प्रयास किया जो कोई भी अंग्रेज करता ! स्वतन्त्र कार्य प्रारम्भ करने जितना योग्य और मूल्यवान मेने अपने आपको नहीं समझा । मुझे ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि मुझे सरकारी कर्मचारियों के निर्णयों पर न्यायाधीश बनना चाहए । बोश्रर युद्ध के समय, जुलु विद्रोह के समय और पिछले महायुद्ध के समय भी में सरकार के मन्त्रियों में मैं दुष्ट बुद्धि का आरोप नही करता था अंग्रेज़ लोग खासकर बुरे होते हैं अथवा अन्य मनुष्यों से निम्न कोटि के होते हैं, ऐसा मैंने उस समय भी नहीं माना और न आज ही मानता हूँ । मैं उस समय भी उन्हें किसी भी प्रजा के समान उच्च, आदर्श रखने और उच्च कार्य करने योग्य और उसी प्रकार भूल कर सकनेवाले प्राणी मानता था और अब भी मानता हूँ । २११                           युद्ध और अहिंसा

इसलिए मुझे महसूस हूआकि सरकार के संकट के तणों में एक मनुष्य और एक नागरिक के नाते अपनी अल्प सेवा अर्पित करके मैंने अपने धर्म का पालन किया । स्वराज्य में भी प्रत्येक देशवासी से में अपने देश के प्रति ऐसे ही व्यवहार की आशा रग्बता हूँ । यदि हर समय और हर अवसर पर प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपना कानून बनाने लगे और सूचम तराजू से अपनी भावी राष्ट्रीय महासभा के प्रत्येक कार्य को तौलने लगे तो मुझे भारी दु:ख हो । मैं तो अनेक विषयों के सम्बन्ध में राष्ट्र के प्रतिनिधियों के निर्णय के आगे अपने व्यक्तिगत निर्णय को ताक में रखकर राष्ट्र की आज्ञा को सिरमाथे पर चढ़ाना पसन्द करू । केवल इन प्रतिनिधियों को चुनने में मैं विशेष सावधानी से काम लू । मैं जानता हूँ इसके अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार से प्रजाकीय सरकार एक दिन भी नहीं चलाई जा सकती ।

    यह तो हुई उस समय के मेरे व्यवहार की मीमांसा । किन्तु आज के विषय में क्या ?
   आज मेरे सामने सारा नकशा ही बदल गया है । मुझे प्रतीत होता है कि मेरी ऑंखें खुल गई हैं। अनुभव ने मुझे अधिक समझ प्रदान की है । आज मौं वर्तमान राजतन्त्र को सम्पूर्णतः विकृत तथा या तो सुधारने या दफना देने योग्य समझता हूँ । इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं रह गई है कि उसके भीतर अपने आपको सुधारने की किंचित शक्ति                             विरोधाभास                            २१५

नहीं है। मैं मानता हूँ कि आज भी ऐसे अनेक अंग्रेज़ अधिकारी पड़े हैं जो प्रामाणिक हैं, किन्तु इससे आज हिन्दुस्तान का कुछ भला नहीं हो सकता; कारण इतने दिन मैं जिस भ्रमवश आन्धा बना हुआ था, मेरे खयाल से वे भी उसी भ्र्मा के शिकार हैं । अतः आज मैं इस सरकार को अपनी कहकर अथवा अपने को इसका नागरिक कहलाकर कोई अभिमान नहीं मान सकता । इसके विपरीत इस सरकार में मेरा एक अछूत का सा दर्जा है, यह मुझे सूर्य के समान स्पष्ट प्रतीत होता है, इसलिए जिस प्रकार हिन्दू जाति का एक अछूत हिन्दू धर्म अथवा हिन्दू समाज को शाप दे सकता है, उसी प्रकार मुझे भी या तो इस सरकार की कायापलट होने की नहीं तो उसके समूल नाश की प्रार्थना करनी पड़ेगी ।

दूसरा अहिंसा-सम्बन्धी प्रश्न् अधिक सूचम है । जहाँ मेरी अहिंसा भावना तो मुझे हमेशा हरेक प्रवृत्ति में से निकल भागने की प्रेरणा करती है, वहाँ मेरी आत्मा को जबतक दुनिया में एक भी अन्याय अथवा दु:ख का असहाय साच्ती बनना पड़ता है, तबतक वह सुखी होने से इन्कार करता है । किन्तु मेरे जैसे दुर्बल अल्प जीव के लिए दुनिया का प्रत्येक दुःख मिटा सकना अथवा दिखाई पड़नेवाले प्रत्येक अन्याय के विषय में शक्ति भर कर गुजरना सम्भव नहीं । इस दुहरी खींचा-तान से मुक्त रहने का मार्ग है, किन्तु वह स्थिति बहुत धीमी गति से और अनेक व्यथाओं के बाद ही प्राप्त हो सकती है । कार्य में २१६ युद्ध और अहिंसा

प्रवृत्त होने से इन्कार करके नहीं, बल्कि बुद्धिपूर्वक निष्काम कर्म करते हुए मुझे वह मुक्ति प्राप्त करनी है । और इस लड़ाई का रहस्य ही इस बात में समाया हुआ है कि आत्मत्त्व को मुक्त और पूर्ण स्वाधीन करने के लिए शरीर तत्व का सतत यज्ञ किया जाय ।

     इसके अलावा जहाँ मैं एक ओर दूसरे लोगों के समान सामान्य बुद्धिवाला अहिंसावादी नागरिक था, वहाँ बाकी के लोग वैसे अहिंसावादी न होते हुए भी सरकार के प्रति रोप और द्वष-भाव के कारण ही उसकी मदद करने के कर्त्तव्य से विमुख थे। उनके इन्कार के मूल में उनका अज्ञान और उनकी निर्बलता थी । उनके साथी के नाते उनको सच्चे मार्ग पर लाने का मेरा धर्म था । इसलिए मैंने उनके सामने उनका प्रकट कर्तव्य उपस्थित किया । अहिंसा-तत्त्व समझाया और चुनाव करने के लिए कहा । उन्होंने वैसा ही किया और इसमें कुछ भी बुरा प्रतीत नहीं हुआ।
   इस प्रकार अहिंसा की दृष्टि से भी अपने कार्य में मैं पश्चाताप करने जैसी कोई बात नहीं देखता । कारण स्वराज्य में भी जो लोग हथियार धारण करते होंगे उन्हें वैसा करने और देश की खातिर लड़ने के लिए कहने में मैं सकोच न करूंगा ।
   और इसी में लेखक के दूसरे प्रशन का उत्तर आ जाता है । मेरी मनोभिलाषा के स्वराज्य में तो हथियारों की कहीं आवश्यकता न होगी, किन्तु आजकल के इस प्रजाकीय प्रयत्न द्वारा                                  विरोधाभास                                २१७

वैसा हिन्दू स्वराज्य निर्माण करने की मेरी धारणा नहीं है । कारण एक तो इस वस्तु को तात्कालिक ध्येय के रूप में सफल करने के लिए आज यह प्रयत्न नहीं हो रहा है और दूसरी बात यह कि प्रजा को इसके लिए तैयार करने के लिए योग्य कार्यक्रम निश्चित करने की योग्यता मुझमें है ऐसा मैं नहीं मानता । मुझमें अभी इतने सारे विकार और मानवी दुर्बलतायें भरी हुई हैं कि ऐसे कार्य की प्रेरणा अथवा शक्ति मैं अपने भीतर नहीं महसूस करता । मैं तो इतना ही दावा करता हूँ कि मैं अपनी प्रत्येक दुर्बलता को जीतने के लिए सनत प्रयत्न्शील रहता हूँ । मुझे प्रतीत होता है कि इन्द्रियों का दमन करने की शक्ति मैंने काफी प्राप्त कर ली है । तथापि मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि मैं इस स्थिति में पहुँच गया हूँ कि मुझसे पाप हो ही नहीं सकता, इन्द्रियों मुझे पराजित नहीं कर सकतीं।

         तो भी मैं यह मानता हूँ कि पूर्ण अवर्णनीय निष्पाप अवस्ठा-जिसमें मनुष्य अपनी अन्तरात्मा में अन्य सब वस्तुओं की लय करके केवल मात्र ईश्वर की उपस्थिति अनुभव करता है – प्राप्त करना प्रत्येक मनुष्य के लिए सम्भव है । मैं मानता हूँ कि यह अभी बहुत आगे की अवस्था है और इसलिए सम्पूर्ण आहिंसा का कार्यक्रम जनता के आगे रखने का मैं आज अपने को अधिकारी नहीं समझता ।
        इस महान तत्त्व की चर्चा के बाद रेल इत्यादि का प्रश्न तो सर्वथा गोण रह जाता है । मैंने स्वयं इन सुविधाओं का व्यक्ति२१५                             युद्ध और अहिंसा

गतं उपयोग करना नहीं छोड़ा और न मेरी यह अपेक्षा है कि जनता इनका उपयोग करना छोड़ दे । मैं यह भी नहीं मानता कि स्वराज्य में इन वस्तुओं का उपयोग बन्द कर दिया जायगा । तथापि मैं इतनी आशा अवश्य रखता हूँ कि स्वराज्य में जनता यह मानना छोड़ दे कि इन साधनों में हमारी नैतिक उन्नति को आगे बढ़ानेवाला कोई विशेष गुण है अथवा यह कि वे हमारी ऐतिहासिक उन्नति के लिए भी अनिवार्य हैं । इन साधनों की आवश्यकता की पूर्ति जितना ही उपयोग किया जाय और हिन्दुस्तान के ७५ हजार गाँवों को रेल-तार के जाल से पाट देने की अभिलाषा न रखी जाये यह मैं जनता को अवश्य सलाह ढूँगा । जब स्वतन्त्रता की स्फूर्ति-द्वारा जनता तेजस्वी बन जायगी, उस समय उसे ज्ञात होगा कि ये साधन हमारी प्रगति की अपेक्षा हमारी गुलामी के लिए अधिक सहायक होने के कारण हमारे राज्यकर्ताओं के लिए जरूरी थे । प्रगति तो लँगड़ी स्री जैमी है । यह लँगड़ाती-लँगड़ाती कुदकती-कुदकती ही आती है, तार या रेल से उसको नहीं भेजा जा सकता ।

‘नवजीवन': २० नवम्बर, १ ६ २ १