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रंगभूमि/१८

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रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २१० से – २१९ तक

 

[१८]

सोफिया घर आई, तो उसके आत्मगौरव का पतन हो चुका था, अपनी ही निगहों में गिर गई थी। उसे अब न रानी पर क्रोध था, न अपने माता-पिता पर। केवल अपनी आत्मा पर क्रोध था, जिसके हाथों उसकी इतनी दुर्गति हुई थी, जिसने उसे काँटों में उलझा दिया था। उसने निश्चय किया, मन को पैरों से कुचल डालूँगा, उसका निशान मिटा दूँगी। दुबिधा में पकड़कर वह अपने मन को अपने ऊपर शासन करने का अवसर न देना चाहती थी, उसने सदा के लिए मुँह बंद कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। वह जानती थी, मन का मुँह बद करना नितांत कठिन है; लेकिन वह चाहती थी, अब अगर मन कर्तव्य-मार्ग से विचलित हो, तो उसे अपने अनौचित्य पर लजा आये; जैसे कोई तिलकधारी वैष्णव शराब की भट्ठी में जाते हुए झिंझकता है और शर्म से गरदन नहीं उठा सकता, उसी तरह उसका मन भी संस्कार के बंधनों में पड़कर कुत्सित वासनाओं से झिझके। इस आत्मदन के लिए वह कलुपता और कुटिलता का अपराध सिर पर लेने को तैयार थो; यावज्जीवन नैराश्य और वियोग की आग में जलने के लिए तैयार थी। वह आत्मा से उस अपमान का बदला लेना चाहती थी, जो उसे रानी के हाथों सहना पड़ा था। उसका मन शराब पर टूटता था, वह उसे विष पिलाकर उसकी प्यास बुझाना चाहती थी। उसने निश्चय कर लिया था, अपने को मि० क्लार्क के हाथों में सौर दूँगी। आत्मदमन का इसके सिवा और कोई साधन न था।

किंतु उसका आत्मसम्मान कितना ही दलित हो गया हो, बाह्य सम्मान अपने पूर्ण ओज पर था। अपने घर में उसका इतना आदर-सत्कार कभी न हुआ था। मिसेज सेवक की आँखों में वह कभी इतनी प्यारी न थी। उनके मुख से उसने कभी इतनी मीठी बातें न सुनी थीं। यहाँ तक कि वह अब उसकी धार्मिक विवेचनाओं से भी सहानुभूति प्रकट करती थीं। ईश्वरोपासना के विषय में भी अब उस पर अत्याचार न किया जाता था। वह अब अपनी इच्छा की स्वामिनी थी, और मिसेज सेवक यह देखकर आनंद से फूली न समाती थीं कि सोफिया सबसे पहले गिरजाघर पहुँच जाती थी। वह समझती थीं, मि० क्लार्क के सत्संग से यह सुसंस्कार हुआ है।

परंतु सोफिया के सिवा यह और कौन जान सकता है कि उसके दिल पर क्या बीत रही है। उसे नित्य प्रेम का स्वाँग भरना पड़ता था, जिससे उसे मानसिक घृणा होती थी। उसे अपनी इच्छा के विरुद्ध कृत्रिम भावों की नकल करनी पड़ती थी। उसे प्रेम और अनुराग के वे शब्द तन्मय होकर सुनने पड़ते थे, जो उसके हृदय पर हथोड़ी की चोटों की भाँति पड़ते थे। उसे उन अनुरक्त चितवनों का लक्ष्य बनना पड़ता था, जिनके मने वह आँखें बंद कर लेना चाहती थी। मिस्टर क्लार्क की बातें कभी-कभी इतनी

रसमयी हो जाती थीं कि सोफो का जी चाहता था, इस स्वरचित रहस्य को खोल दूँ, इस कृत्रिम जीवन का अंत कर दूँ; लेकिन इसके साथ ही उसे अपनी आत्मा की व्यथा और जलन में एक ईर्ष्यामय आनंद का अनुभव होता था। पापी, तेरी यही सजा है, तू इसी योग्य है; तूने मुझे जितना अपमानित किया है, उसका तुझे प्रायश्चित्त करना पड़ेगा!

इस भाँति वह विरहिणी रो-रोकर जीवन के दिन काट रही थी और विडंबना यह थी कि यह व्यथा शांत होती नजर न आतो थी। सोफिया अज्ञात रूप से मि. क्लार्क से कुछ खिंची हुई रहती थी; हृदय बहुत दबाने पर भी उनसे न मिलता था। उसका यह खिंचाव क्लार्क की प्रेमाग्नि को और भो उत्तेजित करता रहता था। सोफ़िया इस अवस्था में भी अगर उन्हें मुँह न लगाती थी, तो इसका मुख्य कारण मि० क्लार्क की धार्मिक प्रवृत्ति थी। उसकी निगाह में धार्मिकता से बढ़कर कोई अवगुण न था। वह इसे अनुदारता, द्वेष, अहंकार और संकीर्णता का द्योतक समझती थी। क्लार्क दिल-हो-दिल में समझते थे कि सोफिया को मैं अभी नहीं पा सका, और इसलिए बहुत उत्सुक होने पर भी उन्हें सोफिया से प्रस्ताव करने का साहस न होता था। उन्हें यह पूर्ण विश्वास न होता था कि मेरी प्रार्थना स्वीकृत होगी। किंतु आशा-सूत्र उन्हें सोफिया के दामन से बाँधे हुए था।

इसी प्रकार एक वर्ष से अधिक गुजर गया और मिसेज सेवक को अब संदेह होने लगा कि सोफिया कहीं हमें सज्ज बाग तो नहीं दिखा रही है? आखिर एक दिन उन्होंने सोफिया से कहा—"मेरी समझ में नहीं आता, तू रात-दिन मि० क्लार्क के साथ बैठी-बैठी क्या किया करती है, क्या बात है, क्या वह प्रोपोज (प्रस्ताव) ही नहीं करते, या तू ही उनसे भागी-भागी फिरती है?"

सोफिया शर्म से लाल होकर बोली—"वह प्रोपोज ही नहीं करना चाहते, तो क्या मैं उनकी जबान हो जाऊँ?"

मिनेज सेवक—"यह तो हो ही नहीं सकता कि स्त्री चाहे और पुरुष प्रस्ताव न करे। वह तो आठों पहर अवसर देखा करता है। तू ही उन्हें फटकने न देतो होगा।"

सोफिया—"मामा, ऐसी बातें करके मुझे लज्जित न कीजिए।"

मिसेज सेवक—"कुसूर तुम्हारा है, और अगर तुम दो-चार दिन में मि० कलार्क को प्रोपोज करने का अवसर न दोगी, तो फिर मैं तुम्हें रानी साहबा के पास भेज दूँगी और फिर बुलाने का नाम भी न लूँगी।"

सोफी थर्रा गई। रानो के पास लौटकर जाने से मर जाना कहीं अच्छा था। उसने मन में ठान लिया-आज वह करूँगी, जो आज तक किसी स्त्री ने न किया होगा। साफ कह दूँगी, मेरे घर का द्वार मेरे लिए बंद है। अगर आप मुझे आश्रय देना चाहते हो, तो दीजिए, नहीं तो मैं अपने लिए कोई और रास्ता निकालूँ। मुझसे प्रेम की आशा न रखिए। आप मेरे स्वामी हो सकते हैं, प्रियतम नहीं हो सकते। यह समझकर आप मुझे अंगीकार करते हों, तो कीजिए; वरना फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाइएगा।

१४
संध्या हो गई थी। माघ का महीना था; उस पर हवा, फिर बादल; सर्दी के मारे हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। न कहीं आकाश का पता था, न पृथ्वी का। चारों तरफ कुहरा-ही-कुहरा नजर आता था। रविवार था। ईसाई स्त्रियाँ और पुरुष साफ-सुथरे कपड़े और मोटे-मोटे ओवरकोट पहने हुए एक-एक करके गिरजाघर में दाखिल हो रहे थे। एक क्षण में जॉन सेवक, उनकी स्त्री, प्रभु सेवक और ईश्वर सेवक फिटन से उतरे। और लोग तो तुरंत अंदर चले गये, केवल सोफिया बाहर रह गई। सहसा प्रभु सेवक ने बाहर आकर पूछा-"क्यों सोफी, मिस्टर क्लार्क अंदर गये?"

सोफिया—"हाँ, अभी-अभी गये हैं।”

प्रभु सेवक—"और तुम?"

सोफिया ने दीन भाव से कहा— "मैं भी चली जाऊँगी।"

प्रभु सेवक—"आज तुम बहुत उदास मालूम होती हो।”

सोफिया की आँखें अश्रु-पूर्ण हो गई। बोली-'हाँ प्रभु, आज मैं बहुत उदास हूँ। आज मेरे जीवन में सबसे महान् संकट का दिन है; क्योंकि आज मैं क्लार्क को प्रोपोज करने के लिए मजबूर करूँगी। मेरा नैतिक और मानसिक पतन हो गया। अब मैं अपने सिद्धांतों पर जान देनेवाली, अपने ईमान को ईश्वरीय इच्छा समझनेवाली, धर्म-तत्वों को तर्क की कसौटी पर रखनेवाली सोफिया नहीं हूँ। वह सोफिया संसार में नहीं है। अब मैं जो कुछ हूँ, वह अपने मुँह से कहते हुए मुझे स्वयं लजा आती है।"

प्रभु सेवक कवि होते हुए भी उस भावना-शक्ति से वंचित था, जो दूसरों के हृदय में पैठकर उनकी दशा का अनुभव करती है। वह कल्पना-जगत् में नित्य विचरता रहता था और ऐहिक सुख-दुःख से अपने को चिंतित बनाना उसे हास्यास्पद जान पड़ता था। ये दुनिया के झमेले हैं, इनमें क्यों सिर खपाय, मनुप्य को भोजन करना और मस्त रहना चाहिए। यही शब्द सोफिया के मुख से सैकड़ों बार सुन चुका था। झुंझला कर बोला—"तो इसमें रोने-धोने की क्या जरूरत है? अम्माँ से साफ-साफ क्यों नहीं कह देती? उन्होंने तुम्हें मजबूर तो नहीं किया है।"

सोफिया ने उसका तिरस्कार करते हुए कहा—"प्रभु, ऐसी बातों से दिल न दुखाओ। तुम क्या जानो, मेरे दिल पर क्या गुजर रही है। अपनी इच्छा से कोई विप का प्याला नहीं पीता। शायद हा कोई ऐसा दिन जाता हो कि मैं तुमसे अपनी सैकड़ों बार की कहो हुई कहानी न कहती होऊँ। फिर भी तुम कहते हो, तुम्हें मजबूर किसने किया? तुम तो कवि हो, तुम इतने भाव-शून्य कैसे हो गये? मजबूरी के सिवा आज मुझे कौन यहाँ खींच लाया? आज मेरी यहाँ आने की जरा भी इच्छा न थी; पर यहाँ मौजूद हूँ। मैं तुमसे सल्य कहती हूँ, धर्म का रहा-सहा महत्त्व भी मेरे दिल से उठ गया। मूर्खो को यह कहते हुए लजा नहीं आती कि मजहब खुदा की बरकत है। मैं कहती हूँ, यह राय कोप है-दैवी वज्र है, जो मानव-जाति के सर्वनाश के लिए अवतरित हुआ है। इसी कोप के कारण आज मैं विष का घूँट पी रही हूँ। रानी जाह्नवी-जैसी

सहृदय महिला के मुझसे यों आँखें फेर लेने का और क्या कारण था? मैं उस देव-पुरुष से क्यों छल करती, जिसकी हृदय में आज भी उपासना करती हूँ, और नित्य करती रहूँगी? अगर यह कारण न होता, तो मुझे अपनी आत्मा को यह निर्दयता-पूर्ण दंड देना ही क्यों पड़ता? मैं इस विषय पर जितना ही विचार करती हूँ, उतना ही धर्म के प्रति अश्रद्धा बढ़ती है। आह! मेरी निष्ठुरता से विनय को कितना दुःख हुआ होगा, इसकी कल्पना ही से मेरे प्राण सूखे जाते हैं। वह देखो, मि० क्लार्क बुला रहे हैं। शायद सरमन (उपदेश) शुरू होनेवाला है। चलना पड़ेगा, नहीं तो मामा जाता न छोड़ेंगी।"

प्रभु सेवक तो कदम बढ़ाते हुए जा पहुँचे; सोफिया दो-ही-चार कदम चली थी कि एकाएक उसे सड़क पर किसी के गाने की आहट मिली। उसने सिर उठाकर चहारदीवारी के ऊपर से देखा, एक अंधा आदमी, हाथ में खजरी लिये, यह गीत गाता हुआ चला जाता है-

भई, क्यों रन से मुँह मोडै़?
वीरों का काम है लड़ना, कुछ नाम जगत में करना,
क्यों निज मरजादा छोडै़?
भई, क्यों रन से मुँह मोडै़?
क्यों जीत की तुझको इच्छा, क्यों हार की तुझको चिंता,
क्यों दुख से नाता जोड़े?
भई, क्यों रन से मुँह मोडै़?
तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,
क्यों धरम-नीति को तोडै़?
भई, क्यों रन से मुँह मोडै़?

सोफिया ने अंधे को पहचान लिया; सूरदास था। वह इस गीत को कुछ इस तरह मस्त होकर गाता था कि सुननेवालों के दिल पर चोट-सी लगती थी। लोग राह चलते-चलते सुनने को खड़े हो जाते थे। सोफिया तल्लीन होकर वह गीत सुनती रही। उसे इस पद में जीवन का संपूर्ण रहस्य कूट-कूटकर भरा हुआ मालूम होता था—

“तू रंगभूमि में आया, दिखलाने अपनी माया,
क्यों धरमनीति को तोहै? भई, क्यों रन से मुँह मोडै़?"

राग इतना सुरोला, इतना मधुर, इतना उत्साह-पूर्ण था कि एक समा-सा छा गया। राग पर बँजरी की ताल और भी आफत करती थी। जो सुनता था, सिर धुनता था।

सोफिया भूल गई कि मैं गिरजे में जा रही हूँ, सरमन की जरा भी याद न रही। वह बड़ी देर तक फाटक पर खड़ी यह 'सरमन' सुनती रही। यहाँ तक कि सरमन समाप्त हो गया, भक्तजन बाहर निकलकर चले। मि० क्लार्क ने आकर धीरे से सोफिया के कन्धे पर हाथ रखा, तो वह चौंक पड़ी। क्लार्क—"लार्ड विशप का सरमन समाप्त हो गया और तुम अभी तक यहीं खड़ी हो!"

सोफिया—"इतनी जल्द! में जरा इस अन्धे का गाना सुनने लगी। सरमन कितनी देर हुआ होगा?"

क्लार्क—आध घण्टे से कम न हुआ होगा। लार्ड विशप के सरमन संक्षित होते है; पर अत्यन्त मनोहर। मैंने ऐस दिव्य, ज्ञान में डूबा हुआ, उपदेश आज तक न सुना था, इङ्गलैड में भी नहीं। खेद है, तुम न आई।"

सोफिया—"मुझे आश्चर्य होता है कि मैं यहाँ आध घण्टे तक खड़ी रही!" इतने में मि० ईश्वर सेवक अपने परिवार के साथ आकर खड़े हो गये। मिसेज सेवक ने क्लार्क को मातृस्नेह से देखकर यूछा-

"क्यों विलियम, सोफ़ी आज के सरमन के विषय में क्या कहती है?"

क्लार्क—“यह तो अंदर गई ही नहीं।"

मिसेज सेवक ने सोफिया को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा—“सोफी, यह तुम्हारे लिए शर्म की बात है।"

सोफी लज्जित होकर बोली—“मामा, मुझसे बड़ा अपराध हुआ। मैं इस अन्धे का गाना सुनने के लिए जरा रुक गई, इतने में सरमन समाप्त हो गया!"

ईश्वर सेवक—"बेटी, आज का सरमन सुधा-तुल्य था, जिसने आत्मा को तृप्त कर दिया। जिसने नहीं सुना, वह उम्र-भर पछतायेगा। प्रभु, मुझे अपने दामन में छिपा। ऐसा सरमन आज तक न सुना था।"

मिसेज सेवक—“आश्चर्य है कि उस स्वर्गोपम सुधा-वृष्टि के सामने तुम्हें यह ग्रामीण गान अधिक प्रिय मालूम हुआ!"

प्रभु सेवक—"मामा, यह न कहिए। ग्रामीणों के गाने में कभी-कभी इतना रस होता है, जो बड़े-बड़े कवियों की रचनाओं में भी दुर्लभ है।"

मिसेज सेवक—“अरे, यह तो वही अन्धा है, जिसकी जमीन हमने ले ली है। आज यहाँ कैसे आ पहुँचा? अभागे ने रुपये न लिये, अब गली-गली भीख मांगता फिरता है।"

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर से कहा—"दुहाई है पंचो, दुहाई है। सेवक साहब और राजा साहब ने मेरी जमीन जबरजस्ती छीन ली है। मुझ दुखिया की फरियाद कोई नहीं सुनता। दुहाई है!”

"दुरबल को न सताइए, जाकी मोटी हाय;
मुई खाल की साँस सों सार भसम ह जाय।"

क्लार्क ने मि० सेवक से पूछा—"उसकी जमीन तो मुआवजा देकर ली गई थी न? अब यह कैसा झगड़ा है?" मि० सेवक—"उसने मुआवजा नहीं लिया। रुपये खजाने में जमा कर दिये गये हैं। बदमाश आदमी है।"

एक ईसाई बैरिस्टर ने, जो चतारी के राजा साहब के प्रतियोगी थे, सूरदास से पूछा—"क्यों अन्धे, कैसी जमीन थी? राजा साहब ने कैसे ले ली?"

सूरदास—“हुजूर, मेरे बाप-दादों की जमीन है। सेवक साहब वहाँ चुरुट बनाने का कारखाना खोल रहे हैं। उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है, दुहाई है सरकार की, दुहाई पंचो, गरीब की कोई नहीं सुनता।"

ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा—"मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है।"

क्लार्क—"बहुत अच्छा मुआवजा दिया गया है।"

बैरिस्टर—"आप किसी को मुआवजा लेने के लिए मजबूर नहीं कर सकते, जब तक आप यह सिद्ध न कर दें कि आप जमीन को किसी सार्वजनिक कार्य के लिए ले रहे हैं।"

काशी-आयरन-वर्क्स के मालिक मिस्टर जॉन बर्ड ने, जो जॉन सेवक के पुराने प्रतिद्वंद्वी थे, कहा— "बैरिस्टर साहब, क्या आपको नहीं मालूम है कि सिगरेट का कारखाना खोलना परम परमार्थ है? सिगरेट पीनेवाले आदमी को स्वर्ग पहुँचने में जरा भी दिक्कत नहीं होती।"

प्रोफेसर चार्ल्स सिमियन, जिन्होंने सिगरेट के विरोध में एक पैंफ्लेट लिखा था, बोले—"अगर सिगरेट के कारखाने के लिए सरकार जमीन दिला सकती है, तो कोई कारण नहीं है कि चकलों के लिए न दिलाये। सिगरेट के कारखाने के लिए जमीन पर कब्जा करना उस धारा का दुरुपयोग करना है। मैंने अपने पैंफ्लेट में संसार के बड़े-से-बड़े विद्वानों और डॉक्टरों की सम्मतियाँ लिखी थीं। स्वास्थ्य-नाश का मुख्य कारण सिगरेट का बहुत प्रचार है। खेद है, उस पैंफ्लेट की जनता ने कदर न को।"

काशी-रेलवे-यूनियन के मंत्री मिस्टर नीलमणि ने कहा—"ये सभी नियम पूँजी-पतियों के लाभ के लिए बनाये गये हैं, और पूँजीपतियों ही को यह निश्चय करने का अधिकार दिया गया है कि उन नियमों का कहाँ व्यवहार करें। कुत्ते को खाल की रखवाली सौंपी गई है। क्यों अवे, तेरो जमीन कुल कितनी है?"

सूरदास—"हजूर, दस बीघे से कुछ ज्यादा ही होगी। सरकार, बाप-दादों की यही निसानी है। पहले राजा साहब मुझसे मोल माँगते थे, जब मैंने न दिया, तो जबरजस्ती ले ली। हजूर, अंधा-अपाहिज हूँ, आपके सिवा किससे फरियाद करूँ? कोई सुनेगा तो सुनेगा, नहीं भगवान् तो सुनेंगे!”

जॉन सेवक अब वहाँ पल-भर भी न ठहर सके। वाद-विवाद हो जाने का भय था और संयोग से उनके सभी प्रतियोगी एकत्र हो गये थे। मिस्टर क्लार्क मी सोफिया के साथ अपनी मोटर पर आ बैठे। रास्ते में जॉन सेवक ने कहा-"कहीं राजा साहब ने इस अंधे की फरियाद सुन ली, तो उनके हाथ-पाँव फूल जायेंगे।" मिसेज सेवक-“पाजी आदमी है। इसे पुलिस के हवाले क्यों नहीं करा देते?"

ईश्वर सेवक-"नहीं बेटा, ऐसा भूलकर भी न करना; नहीं तो अखबारवाले इस बात का बतंगड़ बनाकर तुम्हें बदनाम कर देंगे। प्रभु, मेरा मुँह अपने दामन में छिपा और इस दुष्ट की जबान बंद कर दे।"

मिसेज सेवक-"दो-चार दिन में आप ही शांत हो जायगा। टेकेदारों को ठीक कर लिया न?"

जॉन सेवक-"हॉ, काम तो आजकल में शुरू हो जानेवाला है, मगर इस मूजी को चुप करना आसान नहीं है। मुहल्लेवालों को तो मैंने फोड़ लिया, वे सब इसकी मदद न करेंगे; मगर मुझे आशा थी कि उधर से सहारा न पाकर इसकी हिम्मत टूट जायगी। वह आशा पूरी न हुई। मालूम होता है, बड़े जीवट का आदमी है, आसानी से काबू में आनेवाला नहीं है। राजा साहब का म्युनिसिपलबोर्ड में अब वह जोर नहीं रहा; नहीं तो कोई चिंता न थी। उन्हें पूरे साल-भर तक बोर्डवालों की खुशामद करनी पड़ी, तब जाकर वह प्रस्ताव मंजूर करा सके। ऐसा न हो, बोर्डवाले फिर कोई चाल चलें।"

इतने में राजा महेंद्रकुमार की मोटर सामने आकर रुको। राजा साहब बोले-"आपसे खूब मुलाकात हुई। मैं आपके बँगले से लौटा आ रहा हूँ। आइए, हम और आप सैर कर आयें। मुझे आपसे कुछ जरूरी बातें करनी हैं।"

जब जॉन सेवक मोटर पर आ बैठे, तो बातें होने लगी। राजा साहब ने कहा-“आपका सूरदास तो एक ही दुष्ट निकला। कल से सारे शहर में घूम-घूमकर गाता है और हम दोनों को बदनाम करता है। अंबे गाने में कुशल होते हो है। उसका स्वर बहुत ही लोचदार है। बात-की-बात में हजारों आदमी घेर लेते हैं। जब खूब जमाव हो जाता है, तो यह दुहाई मचाता है और हम दोनों को बदनाम करता है।"

जॉन सेवक-"अभी चर्च में आ पहुँचा था। बस, वहीं दुहाई देता था। प्रोफेसर सिमियन, मि० नीलमणि आदि महापुरुषों को तो आप जानते ही हैं, उसे और भी उकसा रहे हैं। शायद अभी वहीं खड़ा हो।”

महेंद्रकुमार-"मिस्टर क्लार्क से तो कोई बातचीत नहीं हुई?"

जॉन सेवक-"थे तो वह भी, उनकी सलाह है कि अंधे को पागलखाने भेज दिया जाय। मैं मना न करता तो वह उसी वक्त थानेदार को लिखते।"

"महेंद्रकुमार-"आपने बहुत अच्छा किया, उन्हें मना कर दिया। उसे पागलखाने या जेलखाने भेज देना आसान है, लेकिन जनता को यह विश्वास दिलाना कठिन है कि उसके साथ अन्याय नहीं किया गया। मुझे तो उसकी दुहाई-तिहाई की परवा न होती; पर आप जानते हैं, हमारे कितने दुश्मन हैं। अगर उसका यही ढंग रहा, तो दस-पाँच दिनों में हम सारे शहर में नक्कू बन जायँगे।"

जॉन सेवक-"अधिकार और बदनामी का तो चोली-दामन का साथ है। इसकी चिंता न कीजिए। मुझे तो यह अफसास है कि मैंने मुहल्लेवालों को काबू में लाने के

लिए बड़े-बड़े वादे कर लिये। जब अंधे पर किसी का कुछ असर न हुआ, तो मेरे वादे बेकार हो गये।”

महेंद्रकुमार—"अजी, आपकी तो जीत-ही-जीत है; गया तो मैं। इतनी जमीन आपको दस हजार से कम में न मिलती। धर्मशाला बनवाने में आपके इतने ही रुपये लगेंगे। मिट्टी तो मेरी खराब हुई। शायद जीवन में यह पहला ही अवसर है कि मैं जनता की आँखों में गिरता हुआ नजर आता हूँ। चलिए, जरा पाँड़ेपुर तक हो आयें। संभव है, मुहल्लेवालों के समझाने का अब भी कुछ असर हो।"

मोटर पाड़ेपुर की तरफ चली। सड़क खराब थी; राजा साहब ने इंजीनियर को ताकीद कर दी थी कि सड़क की मरम्मत का प्रबंध किया जाय; पर अभी तक कहीं कंकड़ भी न नजर आता था। उन्होंने अपनी नोटबुक में लिखा, इसका जवाब तलब किया जाय। चुंगीघर पहुँचे, तो देखा कि चुंगी का मुंशी आराम से चारपाई पर लेटा हुआ है और कई गाड़ियाँ सड़क पर रवन्ने के लिए खड़ी हैं। मुंशीजी ने मन में निश्चय कर लिया है कि गाड़ी-पीछे १) लिये बिना रवन्ना न दूँगा; नहीं तो गाड़ियों को यहीं रात-भर खड़ी रखूँगा। राजा साहब ने जाते-ही-जाते गाड़ीवालों को रवन्ना दिला दिया और मुंशीजी के रजिस्टर पर यह कैफियत लिख दी। पाँड़ेपुर पहुंचे, तो अँधेरा हो चला था। मोटर रुकी। दोनों महाशय उतरकर मंदिर पर आये। नायकराम लुंगी बाँधे हुए भंग घोट रहे थे, दौड़े हुए आये। बजरंगी नाँद में पानी भर रहा था, आकर खड़ा हो गया। सलाम-बंदगी के पश्चात् जॉन सेवक ने नायकराम से कहा-“अंधा तो बहुत बिगड़ा हुआ है।"

नायकराम—"सरकार, बिगड़ा तो इतना है कि जिस दिन डौंडी पिटी, उस दिन से घर नहीं आया। सारे दिन सहर में घूमता है; भजन गाता है और दुहाई मचाता है।”

राजा साहब—"तुम लोगों ने उसे कुछ समझाया नहीं?"

नायकराम—"दीनबंधु, अपने सामने किसी को कुछ समझता ही नहीं। दूसरा आदमी हो, तो मार-पीट की धमकी से सीधा हो जाय; पर उसे तो डर-भय जैसे छू ही नहीं गया। उसी दिन से घर नहीं आया।"

राजा साहब—"तुम लोग उसे समझा-बुझाकर यहाँ लाओ। सारा संसार छान आये हो; एक मूर्ख को काबू में नहीं ला सकते?”

नायकराम—"सरकार, समझाना-बुझाना तो मैं नहीं जानता, जो हुकुम हो, हाथ-पैर तोड़कर बैठा हूँ, आप ही चुप हो जायगा।"

राजासाहब—"छी, छी, कैसी बातें करते हो! मैं देखता हूँ, यहाँ पानी का नल नहीं है। तुम लोगों को तो बहुत कष्ट होता होगा। मिस्टर सेवक, आप यहाँ नल पहुँचाने का ठेका ले लिजिए।"

नायकराम—बड़ी दया है दीनबंधु, नल आ जाय, तो क्या कहना है।" राजा साहब-"तुम लोगों ने कभी इसके लिए दरख्वास्त ही नहीं दी।"

नायकराम---"सरकार, यह बस्ती हद-बाहर है।"

राजा साहब-"कोई हरज नहीं, नल लगा दिया जायगा।"

इतने में ठाकुरदीन ने आकर कहा- “सरकार, मेरी भी कुछ खातिरी हो जाय।" यह कहकर उसने चाँदी के वरक में लिपटे हुए पान के बीड़े दोनों महानुभावों की सेवा में अर्पित किये। मि० सेवक को, अँगरेजी वेष-भूपा रखने पर भी, पान से घणा न थी, शौक से खाया। राजा साहब मुँह में पान रखते हुए बोले-"क्या यहाँ लालटेन नहीं हैं? अँधेरे में तो बड़ी तकलीफ होती होगी?”

ठाकुरदीन ने नायकराम की ओर मार्मिक दृष्टि से देखा, मानों यह कह रहा है कि मेरे बीड़ों ने यह रंग जमा दिया। बोला-"सरकार, हम लोगों की कौन सुनता है, अब हजूर की निगाह हो गई है, तो लग ही जायँगी। बस, और कहीं नहीं, इसी मंदिर पर एक लालटेन लगा दी जाय। साधु-महात्मा आते हैं, तो अँधेरे में उन्हें कष्ट होता है। लालटेन से मंदिर की सोभा बढ़ जायगी। सब आपको आसीरबाद देंगे।"

राजा साहब-"तुम लोग एक प्रार्थना-पत्र भेज दो।"

ठाकुरदीन-“हजूर के परताप से दो-एक साधु-संत रोज ही आते रहते हैं। अपने से जो कुछ हो सकता है, उनका सेवा-सत्कार करता हूँ। नहीं तो यहाँ और कौन पूछने-वाला है! सरकार, जब से चोरी हो गई, तब से हिम्मत टूट गई।"

दोनों आदमी मोटर पर बैठनेवाले ही थे कि सुभागी एक लाल साड़ी पहने, चूंघट निकाले, आकर जरा दूर पर खड़ी हो गई, मानों कुछ कहना चाहती है। राजा साहब ने पूछा-"यह कौन है? क्या कहना चाहती है?"

नायकराम—“सरकार, एक पासिन है। क्या है सुभागी, कुछ कहने आई है?"

सुभागी--(धीरे से) "कोई सुनेगा?"

राजा साहब—"हाँ, हाँ, कह। क्या कहती है?"

सुभागी—"कुछ नहीं मालिक, यही कहने आई थी कि सूरदास के साथ बड़ा अन्याय हुआ है। अगर उनकी फरियाद न सुनी गई, तो वह मर जायँगे।"

जॉन सेवक—"उसके मर जाने के डर से सरकार अपना काम छोड़ दे?"

सुभागी—"हजूर, सरकार का काम परजा को पालना है कि उजाड़ना? जब से यह जमीन निकल गई है, बेचारे को न खाने की सुध है, न पीने की। हम गरीब औरतों का तो वही एक आधार है, नहीं तो मुहल्ले के मरद कभी औरतों को जीता न छोड़ते। और मरदों की मिलीभगत है। मरद चाहे औरत के अंग-अंग, पोर-पोर काट डाले, कोई उसको मने नहीं करता। चोर-चोर मौसेरे भाई हो जाते हैं। वही एक बेचारा था कि हम गरीबों की पीठ पर खड़ा हो जाता था।"

भैरो भी आकर खड़ा हो गया था। बोला—"हजूर, सूरे न होता तो यह आपके सामने खड़ी न होती। उसी ने जान पर खेलकर इसकी जान बचाई थी।" राजा साहब—"जीवट का आदमी मालूम होता है।"

नायकराम—“जीवट क्या है सरकार, बस यह समझिए कि हत्या के बल जीतता है।"

राजा साहब—"बस, यह बात तुमने बहुत ठीक कही, हत्या ही के बल जीतता है। चाहूँ, तो आज पकड़वा दूँ; पर सोचता हूँ, अंधा है, उस पर क्या गुस्सा दिखाऊँ। तुम लोग उसके पड़ोसी हो, तुम्हारी बात कुछ-न-कुछ सुनेगा ही। तुम लोग उसे समझाओ। नायकराम, हम तुमसे बहुत जोर देकर कहे जाते हैं।"

एक घंटा रात जा चुकी थी। कुहरा और भी घना हो गया था। दूकानों के दीपकों के चारों तरफ कोई मोटा कागज-सा पड़ा हुआ जान पड़ता था। दोनों महाशय बिदा हुए; पर दोनों ही चिन्ता में डूबे हुए थे। राजा साहब सोच रहे थे कि देखें, लालटेन और पानी के नल का कुछ असर होता है या नहीं। जॉन सेवक को चिन्ता थी कि कहीं मुझे जीती-जिताई बाजी न खोनी पड़े।