रंगभूमि/२२

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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सैयद ताहिरअली को पूरी आशा थी कि जब सिगरेट का कारखाना बनना शुरू हो जायगा, तो मेरी कुछ-न-कुछ तरक्की अवश्य हो जायगी। मि० सेवक ने उन्हें इसका वचन दिया था। इस आशा के सिवा उन्हें अब तक ऋणों को चुकाने का कोई उपाय न नजर आता था, जो दिनों-दिन, बरसात की घास के समान बढ़ते जाते थे। वह स्वयं बड़ी किफायत से रहते थे। ईद के अतिरिक्त कदाचित् और कभी दूध उनके कंठ के नीचे न जाता था। मिठाई उनके लिए हराम थी। पान-तंबाकू का उन्हें शौक ही न था। किंतु वह खुद चाहे कितनी ही किफायत करें, घरवालों की जरूरत में काट-कपट करना न्याय-विरुद्ध समझते थे। जैनब और रकिया अपने लड़कों के लिए दूध लेना आवश्यक समझती थीं। कहतीं-“यही तो लड़कों के खाने-पीने की उम्र है, इसी उम्र में तो उनकी हड्डियाँ चौड़ी-चकली होती हैं, दिल और दिमाग बढ़ते हैं। इस उम्र में लड़कों को मुकब्बी खाना न मिले, तो उनकी सारी जिंदगी बरबाद हो जाती है।"

लड़कों के विषय में यह कथन सत्य हो या नहीं; पर पान-तंबाकू के विषय में ताहिरअली की विमाताएँ जिस युक्ति का प्रतिपादन करती थीं, उसकी सत्यता स्वयं सिद्ध थी-"स्त्रियों का इनके बगैर निबाह ही नहीं हो सकता। कोई देखे, तो कहे, क्या इनके यहाँ पान तक मयस्सर नहीं, यही तो अब शराफत की एक निशानी रह गई है, मामाएँ नहीं, खवासें नहीं, तो क्या पान से भी गये! मरदों को पान की ऐसी जरूरत नहीं। उन्हें हाकिमों से मिलना-जुलना पड़ता है, पराई बंदगी करते हैं, उन्हें पान की क्या जरूरत!"

विपत्ति यह थी कि माहिर और जाबिर तो मिठाइयाँ खाकर ऊपर से दूध पीते और साबिर और नसीमा खड़े मुँह ताका करते। जैनब बेगम कहतीं-"इनके गुड़ के बाप कोल्ह ही, खुदा के फजल से, जिंदा हैं। सबको खिलाकर खिलायें, तभी खिलाना कहलाये। सब कुछ तो उन्हीं की मुट्ठी में है, जो चाहें, खिलायें, जैसे चाहें, रखें; कोई हाथ पकड़नेवाला है?"

वे दोनों दिन-भर बकरी की तरह पान चबाया करतीं, कुल्सूम को भोजन के पश्चात्ए क बीड़ा भी मुश्किल से मिलता था। अपनी इन जरूरतों के लिए ताहिरअली से पूछने या चादर देखकर पाँव फैलाने की जरूरत न थी।

प्रातःकाल था। चमड़े की खरीद हो रही थी। सैकड़ों चमार बैठे चिलम पी रहे ये। यही एक समय था, जब ताहिरअली को अपने गौरव का कुछ आनंद मिलता था। इस वक्त उन्हें अपने महत्त्व का हलका-सा नशा हो जाता था। एक चमार द्वार पर भाड लगाता, एक उनका तख्त साफ करता, एक पानी भरता; किस का साग-भाजी लाने के लिए बाजार भेज देते और किसी से लकड़ी चिराते। इतने आदमियों को
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अपनी सेवा में तत्पर देखकर उन्हें मालूम होता था कि मैं भी कुछ हूँ। उधर जैनब और रकिया परदे में बैठी हुई पानदान का खर्च वसूल करतीं। साहब ने ताहिरअली को दस्तूरी लेने से मना किया था, स्त्रियों को पान-पत्ते का खर्च लेने का निषेध न किया था। इस आमदनी से दोनों ने अपने-अपने लिए गहने बनवा लिये थे। ताहिरअली इस रकम का हिसाब लेना छोटी बात समझते थे।

इसी समय जगधर आकर बोला—"मुंसीजी, हिसाब कब तक चुकता कीजिएगा! मैं कोई लखपती थोड़े ही हूँ कि रोज मिठाइयाँ देता जाऊँ, चाहे दाम मिलें या न मिलें। आप जैसे दो-चार गाहक और मिल जायँ, तो मेरा दिवाला ही निकल जाय। लाइए, रुपये दिलवाइए, अब हिला-हवाला न कीजिए, गाँव-मुहल्ले की बहुत मुरौवत कर चुका। मेरे सिर भी तो महाजन का लहना-तगादा है। यह देखिए कागद, हिसाब कर दीजिए।" देनदारों के लिए हिसाब का कागज़ यमराज का परवाना है। वे उसकी ओर ताकने का साहस नहीं कर सकते। हिसाब देखने का मतलब है, रुपये अदा करना। देनदार ने हिसाब का चिट्ठा हाथ में लिया और पानेवाले का हृदय आशा से विकसित हुआ। हिसाब का परत हाथ में लेकर फिर कोई हीला नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि देनदारों को खाली हाथ हिसाब देखने का साहस नहीं होता।

ताहिरअली ने बड़ी नम्रता से कहा—"भई, हिसाब सब मालूम है, अब बहुत जल्द तुम्हारा बकाया साफ़ हो जायगा। दो-चार दिन और सब्र करो।"

जगधर-“कहाँ तक सबर करूँ साहब १ दो-चार दिन करते-करते तो महीनों हो गये। मिठाइयाँ खाते बखत तो मीठी मालूम होती हैं, दाम देते क्यों कड़वा लगता है?"

ताहिर-“बिरादर, आजकल ज़रा तंग हो गया हूँ, मगर अब जल्द कारखाने का काम शुरू होगा, मेरी भी तरक्की होगी। बस, तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा?"

जगघर-"ना साहब, आज तो मैं रुपये लेकर ही जाऊँगा। महाजन के रुपये न दूँगा, तो आज मुझे छटाँक-भर भी सौदा न मिलेगा। भगवान जानते हैं, जो मेरे घर में टका भी हो। यह समझिए कि आप मेरा नहीं, अपना दे रहे हैं। आपसे झूठ बोलता होऊँ, तो जवानी काम न आये, रात बाल-बच्चे भूखे ही सो रहे। सारे मुहल्ले में सदा लगाई, किसी ने चार आने पैसे न दिये।"

चमारों के चौधरी को जगघर पर दया आ गई। ताहिरअली से बोला—"मुंशीजो, मेरा पावना इन्हीं को दे दीजिए, मुझे दो-चार दिन में दे दीजिएगा।"

ताहिर-“जगधर, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँ, मेरे पास रुपये नहीं हैं, खुदा के लिए दो-चार दिन ठहर जाओ।"

जगधर-"मुंसीजी, झूठ बोलना गाय खाना है, महाजन के रुपये आज न पहुँचे, तो कहीं का न रहूँगा।"

ताहिरअली ने घर में आकर कुल्सूम से कहा—"मिठाईवाला सिर पर सवार है, किसी तरह टलता ही नहीं। क्या करूँ, रोकड़ में से दस रुपये निकालकर दे दूँ?" [ २४६ ]कुल्सूम ने चिढ़कर कहा-"जिसके दाम आते हैं, वह सिर पर सवार होगा ही! अम्माँजानों से क्यों नहीं माँगते? मेरे बच्चों को तो मिठाई मिली नहीं; जिन्होंने उचक-उचककर खाया-खिलाया है, वे दाम देने की बेर क्यों भीगी बिल्ली बनी बैठी हुई हैं?"

ताहिर-"इसी मारे तो मैं तुमसे कोई बात कहता नहीं। रोकड़ से ले लेने में क्या हरज है? तनख्वाह मिलते ही जमा कर दूँगा।"

कुल्सूम-"खुदा के लिए कहीं यह गजब न करना। रोकड़ को काला साँप समझो। कहीं आज ही साहब रकम की जाँच करने लगे, तो?"

ताहिर-“अजी नहीं, साहब को इतनी फुरसत कहाँ कि रोकड़ मिलाते रहें!"

कुल्सूम-“मैं अमानत की रकम छूने को न कहूँगी। ऐसा ही है, तो नसीमा का तौक उतारकर कहीं गिरो रख दो, और तो मेरे किये कुछ नहीं हो सकता।"

ताहिरअली को दुःख तो बहुत हुआ; पर करते क्या। नसीमा का तौक निकालते थे, और रोते थे। कुल्सूम उसे प्यार करती थी और फुसलाकर कहती थी, तुम्हें नया तौक बनवाने जा रहे हैं। नसीमा फूली न समाती थी कि मुझे नया तौक मिलेगा।

तौक रूमाल में लिये हुए ताहिरअली बाहर निकले, और जगधर को अलग ले जाकर बोले-"भई, इसे ले जाओ, कहीं गिरो रखकर अपना काम चलाओ। घर में रुपये नहीं हैं।"

जगधर-"उधार सौदा बेचना पाप है; पर करूँ क्या, नगद बेचने लगूँ, तो घूमता ही रह जाऊँ।"

यह कहकर उसने सकुचाते हुए तौक ले लिया और पछताता हुआ चला गया। कोई दूसरा आदमी अपने गाहक को इतना दिक करके रुपये न वसूल करता। उसे लड़की पर दया आ ही जाती, जो मुस्किराकर कह रही थी, मेरा तौक कब बनाकर लाओगे? परंतु जगधर गृहस्थी के असह्य भार के कारण उससे कहीं असजन बनने पर मजबूर था, जितना वह वास्तव में था।

जगधर को गये आध घंटा भी न गुजरा था कि बजरंगी त्योरियाँ बदले हुए आकर बोला-"मुंशीजी, रुपये देने हों, तो दीजिए, नहीं कह दीजिए, बाबा, हमसे नहीं हो सकता; बस, हम सबर कर लें। समझ लेंगे कि एक गाय नहीं लगी। रोज-रोज दौड़ाते क्यों हैं?"

ताहिर-"बिरादर, जैसे इतने दिनों तक सब किया है, थोड़े दिन और करो। ख्नुदा ने चाहा, तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी।"

बजरंगी-“ऐसे वादे तो आप बीसों बार कर चुके हैं।"

ताहिर-"अबकी पक्का वादा करता हूँ।”

बजरंगी-"तो किस दिन हिसाब कीजिएगा?"

ताहिरअली असमंजस में पड़ गये, कौन-सा दिन बतलायें। देनदारों को हिसाब के दिन का उतना ही भय होता है, जितना पापियों को। वे 'दो-चार', 'बहुत जल्द',
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'आज-कल में' आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किये जाने के लिए नहीं, केवल पानेवालों को टालने के लिए किये जाते हैं। ताहिरअली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण-पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहे, क्या जवाब दूँ, खर्च का यह हाल है, और तरक्की के लिए कहता हूँ, तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले—"दिन कौन-सा बताऊँ, चार-छ दिन में जब आ जाओगे, उसी दिन हिसाब हो जायगा।"

बजरंगी-"मुंशीजी, मुझसे उड़नघाइयाँ न बताइए। मुझे भी सभी तरह के गाहकों से काम पड़ता है। अगर दस दिन में आउँगा, तो आप कहेंगे, इतनी देर क्यों की, अब रुपये खर्च हो गये। चार-पाँच दिन में आऊँगा, तो आप कहेंगे, अभी तो रुपये मिले ही नहीं। इसलिए मुझे कोई दिन बता दीजिए, जिसमें मेरा भी हरज न हो और आपको भी सुबीता हो।"

ताहिर—"दिन बता देने में मुझे कोई उज्र न होता, लेकिन बात यह है कि मेरी तनख्वाह मिलने की कोई तारीख मुकर्रर नहीं है; दो-चार दिनों का हेर-फेर हो जाता है। एक हफ्ते के बाद किसी लड़के को भी भेज दोगे, तो रुपये मिल जायँगे।”

बजरंगी—"अच्छी बात है, आप ही का कहना सही। अगर अबकी वादा-खिलाफी कीजिएगा, तो फिर माँगने न आऊँगा।"

बजरंगी चला गया, तो ताहिरअली डींगें मारने लगे—"तुम लोग समझते होगे, ये लोग इतनी-इतनी तलब पाते हैं, घर में बटोरकर रखते होंगे, ओर यहाँ खर्च का यह हाल है कि आधा महीना भी नहीं खत्म होता और रुपये उड़ जाते हैं। शराफत रोग है, और कुछ नहीं।"

एक चमार ने कहा—"हजूर, बड़े आदमियों का खर्च भी बड़ा होता है। आप ही लोगों की बदौलत तो गरीबों की गुजर होती है। घोड़े की लात घोड़ा हो सह सकता है।"

ताहिर—“अजी, सिर्फ पान में इतना खर्च हो जाता है कि उतने में दो आदमियों का अच्छी तरह गुजर हो सकता है।"

चमार—"हजूर, देखते नहीं हैं क्या, बड़े आदमियों की बड़ी बात होती है।”

ताहिरअली के आँसू अच्छी तरह न पुँछने पाये थे कि सामने से ठाकुरदीन आता हुआ दिखलाई दिया। बेचारे पहले ही से कोई बहाना सोचने लगे। इतने में उसने आकर सलाम किया और बोला—"मुंशीजी, कारखाने में कब से हाथ लगेगा?"

ताहिर—"मसाला जमा हो रहा है। अभी इंजीनियर ने नकशा नहीं बनाया है, इसी वजह से देर हो रही है।"

ठाकुरदीन—“इंजियर ने भी कुछ लिया होगा। बड़ी बेइमान जात है हजूर, मैंने भी कुछ दिन ठेकेदारी की है; जो कमाता था, इंजियरों को खिला देता था। आखिर
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घबराकर छोड़ बैठा। इंजियर के भाई डाक्टर होते हैं। रोगी चाहे मरता हो, पर फीस लिये बिना बात न सुनेंगे। फ़ीस के नाम से रिआयत भी करेंगे, तो गाड़ी के किराये और दवा के दाम में कस लेंगे। (हिसाब का परत दिखाकर) जरा इधर भी एक निगाह हो जाय।"

ताहिर-"सब मालूम है, तुमने गलत थोड़े ही लिखा होगा।"

ठाकुरदीन-"हजूर, ईमान है, तो सब कुछ है। साथ कोई न जायगा। तो मुझे क्या हुकुम होता है?"

ताहिर-“दो-चार दिन की मुहलत दो।"

ठाकुरदीन—“जैसी आपकी मरजी। हजूर, चोरी हो जाने से लाचार हो गया, नहीं तो दो-चार रुपयों की कौन बात थी। उस चोरी में तबाह हो गया। घर में फूटा लोटा तक न बचा। दाने को मुहताज हो गया हजूर! चोरों को आँखों के सामने भागते देखा, उनके पीछे दौड़ा। पागलखाने तक दौड़ता चला गया। अँधेरी रात थी, ऊँच-खाल कुछ न सूझता था। एक गढ़े में गिर पड़ा। फिर उठा। माल बड़ा प्यारा होता है। लेकिन चोर निकल गये थे। थाने में इत्तलाय की, थानेदारों की खुसामद की। मुदा गई हुई लच्छमी कहीं लौटती हैं। तो कब आऊँ?"

ताहिर-"तुम्हारे आने की जरूरत नहीं, मैं खुद भिजवा दूँगा।"

ठाकुरदीन-"जैसी आपकी खुसी, मुझे कोई उजर नहीं है। मुझे तगादा करते आप ही सरम आती है। कोई भलामानुस हाथ में पैसे रहते हुए टालमटोल नहीं करता, फौरन् निकालकर फेंक देता है। आज जरा पान लेने जाना था, इसीलिए चला आया था। सब न हो सके, तो थोड़ा-बहुत दे दीजिए। किसी तरह काम न चला, तब आपके पास आया। आदमी पहचानता हूँ हजूर, पर मौका ऐसा ही आ पड़ा है।"

ठाकुरदीन की विनम्रता और प्रफुल्लित सहृदयता ने ताहिरअली को मुग्ध कर दिया। तुरंत संदूक खोला और ५) निकालकर उसके सामने रख दिये। ठाकुरदीन ने रुपये उठाये नहीं, एक क्षण कुछ विचार करता रहा, तब बोला-"ये आपके रुपये हैं कि सरकारी रोकड़ के हैं?"

ताहिर—“तुम ले जाओ, तुम्हें आम खाने से मतलब कि पेड़ गिनने से?"

ठाकुरदीन—"नहीं मुंशीजी, यह न होगा। अपने रुपये हों, तो दीजिए, मालिक की रोकड़ हो, तो रहने दीजिए; फिर आकर ले जाऊँगा। आपके चार पैसे खाता हूँ, तो आपको आँखों से देखकर गढ़े में न गिरने दूँगा। बुरा मानिए, तो मान जाइए, इसकी चिंता नहीं, सफा बात करने के लिए बदनाम हूँ, आपके रुपये यों अलल्ले-तलल्ले खर्च होंगे, तो एक दिन आप धोखा खायेंगे। सराफत ठाट-बाट बढ़ाने में नहीं है, अपनी आबरू बचाने में है।"

ताहिरअली ने सजल-नयन होकर कहा-"रुपये लेते जाओ।"

ठाकुरदीन उठ खड़ा हुआ और बोला-"जब आपके पास हों, तब देना।" [ २४९ ]अब तक तो ताहिरअली को कारखाने के बनने की उम्मीद थी। इधर आमदनी बढ़ो, उधर मैंने रुपये दिये; लेकिन जब मि० क्लार्क ने अनिश्चित समय तक के लिए कारखाने का काम बंद करवा दिया, तब ताहिरअली का अपने लेनदारों को समझाना मुश्किल हो गया। लेनदारों ने ज्यादा तग करना शुरू किया। ताहिरअली बहुत चिंतित रहने लगे; बुद्धि कुछ काम न करती थी। कुल्सूम कहती थी-“ऊपर का खर्च सब बंद कर दिया जाय। दूध, पान और मिठाइयों के बिना आदमी को कोई तकलीफ नहीं हो सकती है ऐसे कितने आदमी हैं, जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैं? और की क्या कहूँ, मेरे ही लड़के तरसते हैं। मैं पहले भी समझा चुकी हूँ और अब फिर समझाती हूँ कि जिनके लिए तुम अपना खून और पसीना एक कर रहे हो, वे तुम्हारी बात भी न पूछेगे। पर निकलते ही साफ उड़ न जायँ, तो कहना। अभी से रुख देख रही हूँ। औरों को सूद पर रुपये दिये जाते हैं, जेवर बनवाये जाते हैं; लेकिन घर के खर्च को कभी कुछ माँगो, तो टका-सा जवाब मिलता है, मेरे पास कहाँ! तुम्हारे ऊपर इन्हें कुछ तो रहम आना चाहिए। आज दूध, मिठाइयाँ बंद कर दो, तो घर में रहना मुश्किल हो जाय।"

तीसरा पहर था। ताहिरअली बरामदे में उदास बैठे हुए थे। सहसा भैरो आकर बैठ गया, और बोला-"क्यों मुंशीजी, क्या सचमुच अब यहाँ कारखाना न बनेगा?"

ताहिर—"बनेगा क्यों नहीं, अभी थोड़े दिनों के लिए रुक गया है।"

भैरो-"मुझे तो बड़ी आशा थी कि कारखाना बन गया, तो मेरा बिकरी-बट्टा बढ़ जायगा; दूकान पर बिकरी बिलकुल मंदी है। मैं चाहता हूँ कि यहाँ सवेरे थोड़ी देर बैठा करूँ। आप मंजूर कर लें, तो अच्छा हो। मेरी थोड़ी-बहुत बिकरी हो जायगी। आपको भी पान खाने के लिए कुछ नजर कर दिया करूँगा।"

किसी और समय ताहिर अली ने भैरो को डाँट बताई होती। ताड़ी की दुकान खोलने की आज्ञा देना उनके धर्म-विरुद्ध था। पर इस समय रुपये की चिंता ने उन्हें असमंजस में डाल दिया। इससे पहले भी धनाभाव के कारण उनके कर्म और सिद्धांत में कई बार संग्राम हो चुका था, और प्रत्येक अवसर पर उन्हें सिद्धांतों ही का खून करना पड़ा था। आज वही संग्राम हुआ और फिर सिद्धांतों ने परिस्थितियों के सामने सिर झुका दिया। सोचने लगे-क्या करूँ? इसमें मेरा क्या कसूर? मैं किसी बेजा खर्च के लिए शरा को नहीं तोड़ रहा हूँ, हालत ने मुझे बेबस कर दिया है। कुछ झेपते हुए बोले—“यहाँ ताड़ी की बिकरी न होगी।”

भैरो—“हजूर, बिकरी तो ताड़ी की महक से होगी। नसेबाजों की ऐसी आदत होती है कि न देखें, तो चाहे बरसों न पियें, पर नसा सामने देखकर उनसे नहीं रहा जाता।"

ताहिर—"मगर साहब के हुक्म के बगैर मैं कैसे इजाजत दे सकता हूँ?"

भैरो-"आपकी जैसी मरजी! मेरी समझ में तो साहब से पूछने की जरूरत ही नहीं। मैं कौन यहाँ दूकान रखूँगा। सबेरे एक घड़ा लाऊँगा, घड़ी-भर में बेचकर अपनी राह लूँगा। उन्हें खबर ही न होगी कि यहाँ कोई ताड़ी बेचता है।" [ २५० ]ताहिर--"नमकहरामी सिखाते हो, क्यों?"

भैरो—"हजूर, इसमें नमकहरामी काहे की, अपने दाँव-धात पर कौन नहीं लेता।"

सौदा पट गया। भैरो एकमुश्त १५) देने को राजी हो गया। जाकर सुभागी से बोला-"देख, सौदा कर आया न! तू कहती थी, वह कभी न मानेंगे, इसलाम हैं, उनके यहाँ ताड़ी-सराब मना है, पर मैंने कह न दिया था कि इसलाम हो, चाहे बाम्हन हो, धरम-करम किसी में नहीं रह गया। रुपये पर सभी लपक पड़ते हैं। ये मियाँ लोग बाहर ही से उजले कपड़े पहने दिखाई देते हैं। घर में भूनी भाँग नहीं होती। मियाँ ने पहले तो दिखाने के लिए इधर-उधर किया, फिर १५) में राजी हो गये। पंद्रह रुपये तो पंद्रह दिन में सीधे हो जायेंगे।"

सुभागी पहले घर की मालकिन बनना चाहती थी, इसलिए रोज डंडे खाती थी। अब वह घर-भर की दासी बनकर मालकिन बनी हुई है। रुपये-पैसे उसी के हाथ में रहते हैं। सास, जो उसकी सूरत से जलती थी, दिन में सौ-सौ बार उसे आशीर्वाद देती है। सुभागी ने चटपट रुपये निकालकर भैरो को दिये। शायद दो बिछुड़े हुए मित्र इस तरह टूटकर गले न मिलते होंगे, जैसे ताहिरअली इन रुपयों पर टूटे। रकम छोटी थी, इसके बदले में उन्हें अपने धर्म की हत्या करनी पड़ी थी। लेनदार अपने-अपने रुपये ले गये। ताहिरअली के सिर का बोझ हलका हुआ, मगर उन्हें बहुत रात तक नींद न आई। आत्मा की आयु दीर्घ होती है। उसका गला कट जाय, पर प्राण नहीं निकलते।