रंगभूमि/२१

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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सूरदास के आर्तनाद ने महेंद्रकुमार की ख्याति और प्रतिष्ठा को जड़ से हिला दिया। वह आकाश से बातें करनेवाला कीर्ति-भवन क्षण-भर में धराशायी हो गया। नगर के लोग उनकी सेवाओं को भूल-से गये। उनके उद्योग से नगर का कितना उपकार हुआ था, इसको किसी को याद ही न रही। नगर को नालियाँ और सड़कें, बगीचे और गलियाँ, उनके अविश्रांत प्रयत्नों की कितनी अनुगृहीत थीं! नगर की शिक्षा और स्वास्थ्य को उन्होंने किस हीनावस्था से उठाकर उन्नति के मार्ग पर लगाया था, इसकी ओर कोई ध्यान ही न देता था। देखते-देखते युगांतर हो गया। लोग उनके विषय में आलोचनाएँ करते हुए कहते-“अब वह जमाना नहीं रहा, जब राजे रईसों के नाम आदर से लिये जाते थे, जनता को स्वयं ही उनमें भक्ति होती थी। वे दिन विदा हो गये। ऐश्वर्य-भक्ति प्राचीन काल की राज्य-भक्ति ही का एक अंश थी। प्रजा अपने-राजा, जागीरदार, यहाँ तक कि अपने जमींदार पर सिर कटा देती थी। यह सर्वमान्य नीति-सिद्धांत था कि राजा भोक्ता है, प्रजा भोग्य है। यही सृष्टि का नियम था, लेकिन आज राजा और प्रजा में भोक्ता और भोग्य का संबंध नहीं है, अब सेवक और सेव्य का संबंध है। अब अगर किसी राजा की इज्जत है, तो उसको सेवा प्रवृत्ति के कारण। अन्यथा उसकी दशा दाँतों-तले दबी हुई जिह्वा की-सी है। प्रजा को भी उस पर विश्वास नहीं आता। अब जनता उसी का सम्मान करती है, उसी पर न्योछावर होती है, जिसने अपना सर्वस्व प्रजा पर अर्पित कर दिया हो, जो त्याग-धन का धनी हो। जब तक कोई सेवा-मार्ग पर चलना नहीं सीखता, जनता के दिलों में घर नहीं कर पाता।"

राजा साहब को अब मालूम हुआ कि प्रसिद्धि श्वेत वस्त्र के सदृश है, जिस पर एक धब्बा भी नहीं छिप सकता। जिस तरफ उनकी मोटर निकल जाती, लोग उन पर आवाजें कसते, यहाँ तक कि कभी-कभी तालियाँ भी पड़तीं। बेचारे बड़ी विपत्ति में फंँसे हुए थे। ख्याति-लाभ करने चले थे, मर्यादा से भी हाथ धोया। और अवसरों पर इंदु से परामर्श कर लिया करते थे, इससे हृदय को शांति मिलती थी; पर अब वह द्वार भी बंद था। इंदु से सहानुभूति की कोई आशा न थी।

रात के नौ बजे थे। राजा साहब अपने दीवानखाने में बैठे हुए इसी समस्या पर "विचार कर रहे थे लोग कितने कृतघ्न होते हैं! मैंने अपने जीवन के सात वर्ष उनकी निरंतर सेवा में व्यतीत कर दिये, अपना कितना समय, कितना अनुभव, कितना सुख उनकी नजर किया! उसका मुझे आज यह उपहार मिल रहा है कि एक अंधा भिखारी मुझे सारे शहर में गालियाँ देता फिरता है और कोई उसकी जबान नहीं पकड़ता, बल्कि लोग उसे और भी उकसाते और उत्तेजित करते हैं। इतने सुव्यवस्थित रूप से अपने इलाके का प्रबंध करता, तो अब तक निकासी में लाखों रुपये की वृद्धि हो गई होती। [ २३९ ]
एक दिन वह था कि जिधर से निकल जाता था, लोग खड़े हो-होकर सलाम करते थे, सभाओं में मेरा व्याख्यान सुनने के लिए लोग उत्सुक रहते थे और मुझे अंत में बोलने का अवसर मिलता था; और एक दिन यह है कि मुझ पर तालियाँ पड़ती हैं और मेरा स्वाँग निकालने की तैयारियाँ की जाती हैं। अंधे में फिर भी विवेक है, नहीं तो बनारस के शोहदे दिन-दहाड़े मेरा घर लूट लेते।

सहसा अरदली ने आकर मि० क्लार्क का आज्ञा-पत्र उनके सामने रख दिया। राजा साहब ने चौंककर लिफाफा खोला, तो अवाक रह गये। विपत्ति-पर-विपत्ति! रही-सही इज्जत भी खाक में मिल गई।

चपरासो-“हुजूर, कुछ जवाब देंगे?"

राजा साहब-"जवाब की जरूरत नहीं।"

चपरासी-"कुछ इनाम नहीं मिला। हुजूर ही......"

राजा साहब ने उसे और कुछ न कहने दिया। जेब से एक रुपया निकालकर फेक दिया। अरदली चला गया।

राजा साहब सोचने लगे-दुष्ट को इनाम माँगते शर्म भी नहीं आती, मानों मेरे नाम कोई धन्यवाद-पत्र लाये हैं। कुत्ते हैं, और क्या, कुछ न दो, तो काटने दौड़ें, झूठी-सच्ची शिकायतें करें। समझ में नहीं आता, क्लार्क ने क्यों अपना हुक्म मंसूख कर दिया। जॉन सेवक से किसी बात पर अनबन हो गई क्या? शायद सोफिया ने क्लार्क को ठुकरा दिया। चलो, यह भी अच्छा ही हुआ। लोग यह तो कहेंगे ही कि अंधे ने राजा साहब को नीचा दिखा दिया; पर इस दुहाई से तो गला छूटेगा।

उनकी दशा इस समय उस आदमी की-सी थी, जो अपने मुँह-जोर घोड़े के भाग जाने पर खुश हो। अब हड्डियों के टूटने का भय तो नहीं रहा। मैं घाटे में नहीं हूँ। अब रूठी रानी भी प्रसन्न हो जायँगी। इंदु से कहूँगा, मैंने ही मिस्टर क्लार्के से अपना फैसला मंसूख करने के लिए कहा है।

वह कई दिन से इंदु से मिलने न गये थे। अंदर जाते हुए डरते थे कि इंदु के तानों का क्या जवाब दूँगा। इंदु भी इस भय से उनके पास न आती थी कि कहीं फिर मेरे मुँह से कोई अप्रिय शब्द न निकल जाय। प्रत्येक दांपत्य-कलह के पश्चात् जब वह उसके कारणों पर शांत हृदय से विचार करती थी, तो उसे ज्ञात होता था कि मैं ही अपराधिनी हूँ, और अपने दुराग्रह पर उसे हार्दिक दुःख होता था। उसकी माता ने वाल्यावस्था ही से पतिव्रत का बड़ा ऊँचा आदर्श उसके सम्मुख रखा था। उस आदर्श से गिरने पर वह मन-ही-मन कुढ़ती और अपने को धिक्कारती थी-'मेरा धर्म उनकी आज्ञा का पालन करना है। मुझे तन-मन से उनकी सेवा करनी चाहिए। मेरा सबसे पहला कर्तव्य उनके प्रति है, देश और जाति का स्थान गौण है; पर मेरा दुर्भाग्य बार-बार मुझे कर्तव्य-मार्ग से विचलित कर देता है। मैं इस अंधे के पीछे बरबस उनसे उलझ पड़ी। वह विद्वान् हैं, विचारशील हैं। यह मेरी धृष्टता है कि मैं उनकी अगुआई करने का दावा
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करती हूँ। जब मैं छोटी-छोटी बातों में मानापमान का विचार करती हूँ, तो उनसे कैसे आशा करूँ कि वह प्रत्येक विषय में निष्पक्ष हो जायँ।"

कई दिन तक मन में यह खिचड़ी पकाते रहने के कारण उसे सूरदास से चिढ़ हो गई। सोचा-इसी अभागे के कारण मैं यह मनस्ताप भोग रही हूँ। इसी ने यह मनो-मालिन्य पैदा कराया है। आखिर उस जमीन से मुहल्लेवालों ही का निस्तार होता है न, तो जब उन्हें कोई आपत्ति नहीं है, तो अंधे की क्यों नानी मरती है! किसी की जमीन पर कोई जबरदस्ती क्यों अधिकार करे, यह ढकोसला है, और कुछ नहीं। निर्बल जन आदि काल से ही सताये जाते हैं और सताये जाते रहेंगे। जब यह व्यापक नियम है, तो क्या एक कम, क्या एक ज्यादा।

इन्हीं दिनों सूरदास ने राजा साहब को शहर में बदनाम करना शुरू किया, तो उसके ममत्व का पलड़ा बड़ी तेजी से दूसरी ओर झुका। उसे सूरदास के नाम से चिढ़ हो गई यह टके का आदमी और इसका इतना साहस कि हम लोगों के सिर चढ़े! अगर साम्यवाद का यही अर्थ है तो ईश्वर हमें इससे बचाये। यह दिनों का फेर है, नहीं तो इसकी क्या मजाल थी कि हमारे उपर छीटे उड़ाता।

इंदु दीन जनों पर दया कर सकती थी—दया में प्रभुत्व का भाव अंतर्हित है— न्याय न कर सकती थी, न्याय की भित्ति साम्य पर है। सोचती-यह उस बदमाश को पुलिस के हवाले क्यों नहीं कर देते? मुझसे तो यह अपमान न सहा जाता। परिणाम कुछ होता, पर इस समय तो इस बुरी तरह पेश आती कि देखनेवालों के रोयें बड़े हो जाते।

वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि सोफिया ने जाकर उसके सामने राजा साहब पर सूरदास के साथ अन्याय करने का अपराध लगाया, खुली हुई धमकी दे गई। इंदु को इतना क्रोध आया कि सूरदास को पाती, तो उसका मुँह नोच लेती। सोफिया के जाने के बाद वह क्रोध में भरी हुई राजा साहब से मिलने आई; पर बाहर मालूम हुआ कि वह कुछ दिन के लिए इलाके पर गये हुए हैं। ये दिन उसने बड़ी बेचैनी में काटे। अफसोस हुआ कि गये और मुझसे पूछा भी नहीं!

राजा साहब जब इलाके से लौटे तो उन्हें मि० क्लार्क का परवाना मिला। वह उस पर विचार कर रहे थे कि इंदु उनके पास आई और बोली—“इलाके पर गये और मुझे खबर तक न हुई, मानों मैं घर में हूँ ही नहीं।"

राजा ने लजित होकर कहा—"ऐसा ही एक जरूरी काम था। एक दिन की भी देर हो जाती, तो इलाके में फौजदारी हो जाती। मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है।"

"इलाके में रहते, तो कम-से-कम इतनी बदनामी तो न होती।"

“अच्छा, तुम्हें भी मालूम हो गया। तुम्हारा कहना न मानने में मुझसे बड़ी भूल हुई। इस अंधे ने ऐसी विपत्ति में डाल दिया कि कुछ करते-धरते नहीं बनता। सारे शहर
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में बदनाम कर रहा है। न जाने शहरवालों को इससे इतनी सहानुभूति कैसे हो गई। मुझे इसकी जरा भी आशंका न थी कि यह शहरवालों को मेरे विरुद्ध खड़ा कर देगा।"

"मैंने तो जब से सुना है कि अंधा तुम्हें बदनाम कर रहा है, तब से ऐसा क्रोध आ रहा है कि वश चले, तो उसे जीता चुनवा दूँ।”

राजा साहब ने प्रसन्न होकर कहा—"तो हम दोनों घूम-घामकर एक ही लक्ष्य पर आ पहुँचे।"

"इस दुष्ट को ऐसा दंड देना चाहिए कि उम्र-भर याद रहे।”

"मिस्टर क्लार्क ने इसका फैसला खुद ही कर दिया। सूरदास की जमीन वापस कर दी गई।"

इंदु को ऐसा मालूम हुआ कि जमीन धंस रही है और मैं उसमें समाई जा रही हूँ। वह दीवार न थाम लेती, तो जरूर गिर पड़ती-"सोफिया ने मुझे यों नीचा दिखाया है। मेरे साथ यह कूट-नीति चली है! हमारी मर्यादा को धूल में मिलाना चाहती है। चाहती है कि मैं उसके कदम चूमूँ। कदापि नहीं।" उसने राजा साहब से कहा—“अब आप क्या करेंगे?"

"कुछ नहीं, करना क्या है। सच पूछो, तो मुझे इसका जरा भी दुःख नहीं है। मेरा तो गला छूट गया।”

"और हेठी कितनी हुई!”

"हेठी जरूर हुई; पर इस बदनामी से अच्छी है।"

इंदु का मुख-मंडल गर्व से तमतमा उठा। बोली-“यह वात आपके मुँह से शोभा नहीं देती। यह नेकनामी-बदनामी का प्रश्न नहीं है, अपनी मर्यादा-रक्षा का प्रश्न है। आपकी कुल-मर्यादा पर आघात हुआ है, उसकी रक्षा करना आपका परम धर्म है, चाहे उसके लिए न्याय के सिद्धांतों की बलि ही क्यों न देनी पड़े। मि० क्लार्क की हस्ती ही क्या है, मैं किसी सम्राट् के हाथों भी अपनी मर्यादा की हत्या न होने दूँगी, चाहे इसके लिए मुझे अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राण भी, देना पड़े। आप तुरंत गवर्नर को मि० क्लार्क के न्याय-विरुद्ध हस्तक्षेप की सूचना दीजिए। हमारे पूर्वजों ने अँगरेजों की उस समय प्राण-रक्षा की थी, जब उनकी जानों के लाले पड़े हुए थे। सरकार उन एहसानों को मिटा नहीं सकती। नहीं, आप स्वयं जाकर गवर्नर से मिलिए, उनसे कहिए कि मि क्लार्क के हस्तक्षेप से मेरा अपमान होगा, मैं जनता की दृष्टि में गिर जाऊँगा और शिक्षित वर्ग को सरकार में भी लेश-मात्र विश्वास न रहेगा। साबित कर दीजिए कि किसी रईस का अपमान करना दिल्लगी नहीं है।"

राजा साहब ने चिंतित स्वर में कहा—"मि० क्लार्क से सदा के लिए विरोध हो जायगा। मुझे आशा नहीं है कि उनके मुकाबले में गवर्नर मेरा पक्ष ले। तुम इन लोगों को जानती नहीं हो। इनकी अफसरी-मातहती दिखाने-भर की है, वास्तव में सब एक है। एक जो करता है, सब उसका समर्थन करते हैं। व्यर्थ की हैरानी होगी।" [ २४२ ]"अगर गवर्नर न सुनें, तो बाइसराय से अपील कीजिए। विलायत जाकर वहाँ के नेताओं से मिलिए। यह कोई छोटी बात नहीं है, आपके सिर पर एक महान् उत्तरदायित्व का भार आ पड़ा है, इसमें जौ-भर भी दबना आपको सदा के लिए कलंकित कर देगा।"

राजा साहब ने एक मिनट तक विचार करके कहा—"तुम्हें यहाँ के शिक्षितों का हाल मालूम नहीं है। तुम समझती होगी कि वे मेरी सहायता करेंगे, या कम-से-कम सहानुभूति ही दिखायेंगे; पर जिस दिन मैंने प्रत्यक्ष रूप से मि० क्लार्क की शिकायत की, उसी दिन से लोग मेरे घर आना-जाना छोड़ देंगे। कोई मुँह तक न दिखायेगा। लोग रास्ता कतराकर निकल जायँगे। इतना ही नहीं, गुप्त रूप से क्लार्क से मेरे शिकायत करेंगे और मुझे हानि पहुँचाने में कोई बात उठा न रखेंगे। हमारे भद्र-समाज की नैतिक दुर्बलता अत्यंत लज्जाजनक है। सब-के-सब प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के आश्रित हैं। जब तक उन्हें मालूम है कि हुक्काम से मेरी मैत्री है, तभी तक मेरा आदर-सत्कार करते हैं। जिस दिन उन्हें मालूम होगा कि जिलाधीश की निगाह मुझसे फिर गई, उसी दिन से मेरे मान-सम्मान की इति समझो। अपने बंधुओं की यही दुर्बलता और कुटिल स्वार्थ-लोलुपता है, जो हमारे निर्भीक, सत्यवादी और हिम्मत के धनी नेताओं को हताश कर देती है।"

राजा साहब ने बहुत हीले-हवाले किये, परिस्थिति का बहुत ही दुराशापूर्ण चित्र खींचा, लेकिन इंदु अपने ध्येय से जौ-भर भी न टली। वह उनके हृदय में उस सोये हुए भाव को जगाना चाहती थी, जो कभी प्रताप आर साँगा, टीपू और नाना के नाम पर लहालोट हो जाता था। वह जानती थी कि वह भाव प्रभुत्व-प्रेम की घोर निद्रा में मग्न है, मरा नहीं। बोली—"अगर मान लें कि आपकी सारी शंकाएँ पूरी हो जायँ, आपका सम्मान मिट जाय, सारा शहर आपका दुश्मन हो जाय, हुक्काम आपको सन्देह की दृष्टि से देखने लगें, यहाँ तक कि आपके इलाके के जब्त होने की नौबत भी आ जाय, तब भी मैं आपसे यही कहती जाऊँगी, अपने स्थान पर अटल रहिए। यही हमारा क्षात्र धर्म है। आज ही यह बात समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो जायगी और सारी दुनिया नहीं, तो कम-से-कम समस्त भारत आपकी ओर उत्सुक नेत्रों से देखेगा कि आप जातीय गौरव की कितने धैर्य, साहस और त्याग के साथ रक्षा करते हैं। इस संग्राम में हमारी हार भी महान् विजय का स्थान पायगी; क्योंकि यह पशु-बल की नहीं, आत्मबल की लड़ाई है। लेकिन मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि आपकी शंकाएँ निर्मूल सिद्ध होंगी। एक कर्मचारी के अन्याय की फरियाद सरकार के कानों में पहुँचाकर आप उस सुदृढ़ राजभक्ति का परिचय देंगे, सरकार की उस न्याय-रीति पर पूर्ण विश्वास की घोषणा करेंगे, जो साम्राज्य का आधार है। बालक माता के सामने रोये, हठ करे, मचले; पर माता की ममता क्षण-मात्र भी कम नहीं होती। मुझे तो निश्चय है कि सरकार अपने न्याय को धाक जमाने के लिए आपका और भी सम्मान करेगी। जातीय आन्दोलन के नेता प्रायः उच्च कोटि की उपाधियों से विभूषित किये जाते हैं। और, कोई कारण नहीं कि आपको भी वही सम्मान न प्राप्त हो।" [ २४३ ]यह युक्ति राजा साहब को विचारणीय जान पड़ी। बोले—"अच्छा, सोचूँगा।" इतना कहकर बाहर चले गये।

दूसरे दिन सुबह जॉन सेवक राजा साहब से मिलने आये। उन्होंने भी यहो सलाह दी कि इस मुआमले में जरा भी न दबना चाहिए। लड़ूँगा तो मैं, आप केवल मेरी पीठ ठोकते जाइएगा। राजा साहब को कुछ ढाढ़स हुआ, एक से दो हुए। सन्ध्या-समय वह कुँवर साहब से सलाह लेने गये। उनकी भी यही राय हुई। डॉक्टर गंगुली तार द्वारा बुलाये गये। उन्होंने यहाँ तक जोर दिया कि "आप चुप भी हो जायँगे, तो मैं व्यत्र-स्थापक सभा में इस विषय को अवश्य उपस्थित करूँगा। सरकार हमारे वाणिज्य- व्यव-साय की ओर इतनी उदासीन नहीं रह सकती। यह न्याय-अन्याय या मानापमान का प्रश्न नहीं है, केवल व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का प्रश्न है।”

राजा साहब इंदु से बोले—"लो भई, तुम्हारी ही सलाह पक्की रही। जान पर खेल रहा हूँ।”

इंदु ने उन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखकर कहा—"ईश्वर ने चाहा, तो आपकी विजय ही होगी।"