रंगभूमि/२४

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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सूरदास की जमीन वापस दिला देने के बाद सोफिया फिर मि० क्लार्क से तन गई। दिन गुजरते जाते थे और वह मि० क्लार्क से दूरतर होती जाती थी। उसे अब सच्चे अनुराग के लिए अपमान, लजा, तिरस्कार सहने को अपेक्षा कृत्रिम प्रेम का स्वाँग भरना कहीं दुस्सह प्रतीत होता था। सोचती थी, मैं जल से बचने के लिए आग में कूद पड़ी। प्रकृति बल-प्रयोग सहन नहीं कर सकती। उसने अपने मन को बलात् विनय की ओर से खींचना चाहा था, अब उसका मन बड़े वेग से उनकी ओर दौड़ रहा था। इधर उसने भक्ति के विषय में कई ग्रंथ पढ़े थे और फलतः उसके विचारों में एक रूपांतर हो गया था। अपमान और लोक-निंदा का भय उसके दिल से मिटने लगा था। उसके सम्मुख प्रेम का सर्वोच्च आदर्श उपस्थित हो गया था, जहाँ अहंकार की आवाज नहीं पहुँचती। त्याग-परायण तपस्वी को सोमरस का स्वाद मिल गया था और उसके नशे मे उसे सांसारिक भोग-विलास, मान-प्रतिष्ठा सार-हीन जान पड़ती थी। जिन विचारों से प्रेरित होकर उसने विनय से मुँह फेरने और क्लार्क से विवाह करने का निश्चय किया था, वे अब उसे नितांत अस्वाभाविक मालूम होते थे। रानी जाह्नवी से तिरस्कृत होकर अपने मन को दमन करने के लिए उसने अपने ऊपर यह अत्याचार किया था। पर अब उसे नजर ही न आता था कि मेरे आचरण में कलंक की कौन-सी बात थी, उसमें अनौचित्य कहाँ था। उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थी, उसे जघन्य समझ रही थी। उसे आश्चर्य होता था कि मैंने विनय के स्थान पर क्लार्क को प्रतिष्ठित करने का फैसला कैसे किया! मि० क्लार्क में सद्गुणों की कमी नहीं, वह सुयोग्य हैं, शीलवान् हैं, उदार हैं, सहृदय हैं। वह किसी स्त्री को प्रसन्न रख सकते हैं, जिसे सांसारिक सुख-भोग की लालसा हो। लेकिन उनमें वह त्याग कहाँ, वह सेवा का भाव कहाँ, वह जीवन का उच्चादर्श कहाँ, वह वीर-प्रतिज्ञा कहाँ, वह आत्मसमर्पण कहाँ! उसे अब प्रेमानुराग की कथाएँ और भक्ति-रस-प्रधान काव्य जीव और आत्मा, आदि और अनादि, पुनर्जन्म और मोक्ष आदि गूढ़ विषयों की व्याख्या से कहीं आकर्षक मालूम होते थे। इसी बीच में उसे कृष्ण का जीवन-चरित्र पढ़ने का अवसर मिला और उसने उस भक्ति को जड़ हिला दी, जो उसे प्रभु मसीह से थी। वह मन में दोनों. महान् पुरुषों की तुलना किया करती। मसीह की दया की अपेक्षा उसे कृष्ण के प्रेम से अधिक शांति मिलती थी। उसने अब तक गीता ही के कृष्ण को देखा था, और मसीह की दयालुता, सेवाशीलता और पवित्रता के आगे उसे कृष्ण का रहस्यमय जीवन गीता की जटिल दार्शनिक व्याख्याओं से भी दुर्बोध जान पड़ता था। उसका मस्तिष्क गीता के विचारोत्कर्ष के सामने झुक जाता था, पर उससे मन में भक्ति का भाव न उत्पन्न होता था। कृष्ण के बाल-जीवन को उसने भक्तों की कपोल-कल्पना समझ रखा था और
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उस पर विचार करना ही व्यर्थ समझती थी। पर अब ईसा की दया इस बाल-क्रीड़ा के सामने नीरस थी। ईसा की दया में आध्यात्मिकता थी, कृष्ण के प्रेम में भावुकता; ईसा की दया आकाश को भाँति अनंत थी, कृष्ण का प्रेम नवकुसुमित, नवपल्लवित उद्यान की भाँति मनोहर; ईसा की दया जल-प्रवाह की मधुर ध्वनि थी, कृष्ण का प्रेम वंशी की व्याकुल टेर; एक देवता था, दूसरा मनुष्य; एक तपस्वी था, दूसरा कवि; एक में जागृति और आत्मज्ञान था, दूसरे में अनुराग और उन्माद; एक व्यापारी था, हानिलाभ पर निगाह रखनेवाला, दूसरा रसिया था, अपने सर्वस्त्र को दोनों हाथों से लुटाने-वाला; एक संयमी था, दूसरा भोगी। अब सोफिया का मन नित्य इसी प्रेम-क्रीड़ा में बसा रहता था, कृष्ण ने उसे मोहित कर लिया था, उसे अपनी वंशी की ध्वनि सुना दी थी।

मिस्टर क्लार्क का लौकिक शिष्टाचार अब उसे हास्यास्पद मालूम होता था। वह जानती थी कि यह सारा प्रेमालाप एक परीक्षा में भी सफल नहीं हो सकता। वह बहुधा उनसे रुखाई करती। वह बाहर से मुस्किराते हुए आकर उसको बगल में कुर्सी खींचकर बैठ जाते, और यह उनकी ओर आँखें उठाकर भी न देखती। यहाँ तक कि कई बार उसने अपनी धार्मिक अश्रद्धा से मिस्टर क्लार्क के धर्मपरायण हृदय को कठोर आघात पहुँचाया। उन्हें सोफिया एक रहस्य-सी जान पड़ती थी, जिसका उद्घाटन करने में वह असमर्थ थे। उसका अनुपम सौंदर्य, उसकी हृदयहारिणी छवि, उसकी अद्भुत विचार- शीलता उन्हें जितने जोर से अपनी ओर खींचती थी, उतनी ही उसकी मानशीलता, विचार-स्वाधीनता और अनम्रता उन्हें भयभीत कर देती थी। उसके सम्मुख बैठे हुए वह अपनी लघुता का अनुभव करते थे, पग-पग पर उन्हें ज्ञात होता था कि मैं इसके योग्य नहीं हूँ। इसी वजह से इतनी घनिष्ठता होने पर भी उन्हें उसे वंचन-बद्ध करने का साहस न होता था। मिसेज सेवक आग में ईधन डालती रहती थीं—एक ओर क्लार्क को उकसातीं, दूसरी ओर सोफी को समझातीं—"तू समझती है, जीवन में ऐसे अवसर बार-बार आते हैं, यह तेरी गलती है। मनुष्य को केवल एक अवसर मिलता है, और वही उसके भाग्य का निर्णय कर देता है।"

मि० जॉन सेवक ने भी अपने पिता के आदेशानुसार दोरुखी चाल चलनी शुरू की। वह गुप्त रूप से तो राजा महेंद्रकुमारसिंह की कल घुमाते रहते थे; पर प्रकट रूप से मिस्टर क्लार्क के आदर-सत्कार में कोई बात उठा न रखते थे। रहे मि० ईश्वर सेवक, यह तो समझते थे, खुदा ने सोफिया को मिस्टर क्लार्क ही के लिए बनाया है। यह अक्सर उनके यहाँ आते थे और भोजन भी वहीं कर लेते थे। जैसे कोई दलाल ग्राहक को देखकर उसके पीछे-पीछे हो लेता है, और उसे किसी दूसरी दूकान पर बैठने नहीं देता, वैसे ही वह मिस्टर क्लार्क को घेरे रहते थे कि कोई ऊँची दूकान उन्हें आकर्षित न कर ले। मगर इतने शुभेच्छुकों के रहते हुए भी मिस्टर क्लार्क को अपनी सफलता दुर्लभ मालूम होती थी। [ २६५ ]
सोफ़िया को इन दिनों बनाव-सिंगार का बड़ा व्यसन हो गया था। अब तक उसने माँग-चोटी या वस्त्राभूषण की कभी चिंता न की थी। भोग-विलास से दूर रहना चाहती थी। धर्म-ग्रंथों की यही शिक्षा थी, शरीर नश्वर है, संसार असार है, जीवन मृग-तृष्णा है, इसके लिए बनाव-सँवार की जरूरत नहीं। वास्तविक शृंगार कुछ और ही है, उसी पर निगाह रखनी चाहिए। लेकिन अब वह जीवन को इतना तुच्छ न समझती थी। उसका रूप कभी इतने निखार पर न था। उसकी छवि-लालसा कभी इतनी सजग न थी।

संध्या हो चुकी थी। सूर्य की शीतल किरणें, किसी देवता के आशीर्वाद की भांति, तरु-पुंजों के हृदय को विहसित कर रही थीं। सोफिया एक कुंज में खड़ी आप-ही-आप मुस्किरा रही थी कि मिस्टर क्लार्क की मोटर आ पहुँची। वह सोफिया को बाग में देखकर सीधे उसके पास आये और एक कृपा-लोलुन दृष्टि से देखकर उसकी ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफिया ने मुँह फेर लिया, मानों उनके बढ़े हुए हाथ को देखा ही नहीं।

सहसा एक क्षण बाद उसने हास्य-भाव से पूछा-"आज कितने अपराधियों को दंड दिया?"

मिस्टर क्लार्क झेप गये। सकुचाते हुए बोले-"प्रिये, यह तो रोज की बातें हैं, इनकी क्या चर्चा करूँ।"

सोफ़ी—"तुम यह कैसे निश्चय करते हो कि अमुक अपराधी वास्तव में अपराधी है? इसका तुम्हारे पास कोई यंत्र है?"

क्लार्क—"गवाह तो रहते हैं।"

सोफ़ी—'गवाह हमेशा सच्चे होते हैं?"

क्लार्क—"कदापि नहीं। गवाह अक्सर झूठे और सिखाये हुए होते हैं।"

सोफ़ी—“और उन्हीं गवाहों के बयान पर फैसला करते हो!"

क्लार्क—"इसके सिवा और उपाय ही क्या है!"

सोफो—“तुम्हारी असमर्थता दूसरे की जान क्यों ले? इसीलिए कि तुम्हारे वास्ते मोटरकार, बँगला, खानसामे, भाँति-भाँति की शराबें और विनोद के अनेक साधन जुटाये जायँ?"

क्लार्क ने हतबुद्धि की भाँति कहा-"तो क्या नौकरी से इस्तीफा दे दूँ?"

सोफिया—"जब तुम जानते हो कि वर्तमान शासन-प्रणाली में इतनी त्रुटियाँ हैं, तो तुम उसका एक अंग बनकर निरपराधियों का खून क्यों करते हो?"

क्लार्क—"प्रिये, मैंने इस विषय पर कभी विचार नहीं किया।"

सोफिया—"और बिना विचार किये ही नित्य न्याय को हत्या किया करते हो! कितने निर्दयी हो!"

क्लार्क—"हम तो केवल एक कल के पुजें हैं, हमें ऐसे विचारों से क्या प्रयोजन?"

सोफ़ी—"क्या तुम्हें इसका विश्वास है कि तुमने कोई अपराध नहीं किया?"

क्लार्क—"यह दावा कोई मनुष्य नहीं कर सकता।" [ २६६ ]सोफी—"तो तुम इसीलिए दंड से बचे हुए हो कि तुम्हारे अपराध छिये हुए हैं?"

क्लार्क—"यह स्वीकार करने को जी तो नहीं चाहता; विवश होकर स्वीकार करना पड़ेगा।"

सोफ़ी—"आश्चर्य है कि स्वयं अपराधी होकर तुम्हें दूसरे अपराधियों को दंड देते हुए जरा भी लजा नहीं आती।"

क्लार्क—"सोफी, इसके लिए तुम फिर कभी मेरा तिरस्कार कर लेना। इस समय मुझे एक महत्त्व के विषय में तुमसे सलाह लेनी है। खूब विचार करके राय देना। राजा महेंद्रकुमार ने मेरे फैसले की अपील गवर्नर के यहाँ की थी, इसका जिक्र तो मैं तुमसे कर ही चुका हूँ। उस वक्त मैंने समझा था, गवर्नर अपील पर ध्यान न देंगे। एक जिले के अफसर के खिलाफ किसी रईस की मदद करना हमारी प्रथा के प्रति-कूल है, क्योंकि इससे शासन में विघ्न पड़ता है; किंतु ६-७ महीनों में परिस्थिति कुछ ऐसी हो गई है, राजा साहब ने अपनी कुल-मर्यादा, दृढ़ संकल्प और तर्क-बुद्धि से इतनी अच्छी तरह काम लिया है कि अब शायद फैसला मेरे खिलाफ होगा। काउंसिल में हिंदुस्थानियों का बहुमत हो जाने के कारण अब गवर्नर का महत्व बहुत कम हो गया है। यद्यपि वह काउंसिल के निर्णय को रद कर सकते हैं, पर इस अधिकार से वह असाधारण अवसरों पर ही काम ले सकते हैं। अगर राजा साहब की अपील वापस कर दी गई, तो दूसरे ही दिन देश में कुहराम मच जायगा और समाचार-पत्रों को विदेशी राज्य के एक नये अत्याचार पर शोर मचाने का वह मौका मिल जायगा, जो वे नित्य खोजते रहते हैं। इसलिए गवर्नर ने मुझसे पूछा है कि यदि राजा साहब के आँसू पोंछे जायँ, तो तुम्हें कुछ दुःख तो न होगा? मेरी समझ में नहीं आता, इसका क्या उत्तर दूँ। अभी तक कोई निश्चय नहीं कर सका।"

सोफी—"क्या इसका निर्णय करना मुश्किल है?"

क्लार्क—"हाँ, इसलिए मुश्किल है कि जन-सम्मति से राज्य करने की जो व्यवस्था हम लोगों ने खुद की है, उसे पैरों-तले कुचलना बुरा मालूम होता है। राजा कितना ही सबल हो; पर न्याय का गौरव रखने के लिए कभी-कभी राजा को भी सिर झुकाना पड़ता है। मेरे लिए कोई बात नहीं, फैसला मेरे अनुकूल हो या प्रतिकूल, मेरे ऊपर इसका कोई असर नहीं पड़ता। बल्कि प्रजा पर हमारे न्याय की धाक और बैठी जाती है। (मुस्किराकर) गवर्नर ने मुझे इस अपराध के लिए दंड भी दिया है। वह मुझे यहाँ से हटा देना चाहते हैं।"

"सोफिया—"क्या तुम्हें इतना दबना पड़ेगा?"

क्लार्क—"हाँ, मैं एक रियासत का पोलिटिकल एजेंट बना दिया जाऊँगा। यह पद बड़े मजे का है। राजा तो केवल नाम के लिए होता है, सारा अख्तियार तो एजेंट ही के हाथों में रहता है। हममें जो बड़े भाग्यशाली होते हैं, उन्हीं को यह पद प्रदान किया जाता है।" [ २६७ ]सोफिया—"तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो।"

मिस्टर क्लार्क इस व्यंग्य से मन में कटकर रह गये। उन्होंने समझा था, सोफी यह समाचार सुनकर फूली न समायेगी, और तब मुझे उससे यह कहने का अवसर मिलेगा कि यहाँ से जाने के पहले हमारा दांपत्य सूत्र में बंध जाना आवश्यक है। "तब तो तुम बड़े भाग्यशाली हो, इस निर्दय व्यंग्य ने उनकी सारी अभिलाषाओं पर पानी फेर दिया। इस वाक्य में वह निष्ठुरता, वह कटाक्ष, वह उदासीनता भरी हुई थी, जो शिष्टाचार की भी परवा नहीं करती। सोचने लगे-इसकी सम्मति की प्रतीक्षा किये बिना मैंने अपनी इच्छा प्रकट कर दी, कहीं यह तो इसे बुरा नहीं लगा! शायद समझती हो कि अपनी स्वार्थ-कामना से यह इतने प्रसन्न हो रहे हैं, पर उस बेकस अंधे की इन्हें जरा भी परवा नहीं कि उस पर क्या गुजरेगी। अगर यही करना था, तो यह राग ही क्यों छेड़ा था। बोले-“यह तो तुम्हारे फैसले पर निर्भर है।"

सोफी ने उदासीन भाव से उत्तर दिया—"इन विषयों में तुम मुझसे चतुर हो।"

क्लार्क—"उस अंधे की फिक्र है।"

सोफी ने निर्दयता से कहा—“उस अंधे के खुदा तुम्ही नहीं हो।"

क्लार्क—"मैं तुम्हारी सलाह पूछता हूँ और तुम मुझी पर छोड़ती जाती हो।"

सोफ़ी—"अगर मेरी सलाह से तुम्हारा अहित हो, तो?"

क्लार्क ने बड़ी वीरता से उत्तर दिया—"सोफी, मैं तुम्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ कि मैं तुम्हारे लिए सब कुछ कर सकता हूँ?"

सोफी—(हँसकर) "इसके लिए मैं तुम्हारी बहुत अनुगृहीत हूँ।"

इतने में मिसेज सेवक वहाँ आ गई और क्लार्क से हँस-हँसकर बातें करने लगीं। सोफी ने देखा, अब मिस्टर क्लार्क को बनाने का मौका नहीं रहा, तो अपने कमरे में चली आई। देखा, तो प्रभु सेवक वहाँ बैठे हैं। सोफी ने कहा-"इन हजरत को अब यहाँ से बोरिया-बँधना सँभालना पड़ेगा। किसी रियासत के एजेंट होंगे।"

प्रभु सेवक—(चौंककर) "कब?”

सोफी—"बहुत जल्द। राजा महेंद्रकुमार इन्हें ले बीते।"

प्रभु सेवक—"तब तो तुम यहाँ थोड़े हो दिनों की मेहमान हो।"

सोफ़ी—“मैं इनसे विवाह न करूँगी।"

प्रभु सेवक—"सच?"

सोफी—"हाँ, मैं कई दिन से यह फैपला कर चुकी हूँ, पर तुमसे कहने का मौका न मिला।"

प्रभु सेवक—"क्या डरती थीं कि कहीं मैं शोर न मचा दूँ?"

सोफी—“बात तो वास्तव में यही थी।"

प्रभु सेवक—"मेरी समझ में नहीं आता कि तुम मुझ पर इतना अविश्वास क्यों करती हो, जहाँ तक मुझे याद है, मैंने तुम्हारी बात किसी से नहीं कही।" [ २६८ ]सोफी—"क्षमा करना प्रभु! न जाने क्यों मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं आता। तुममें अभी कुछ ऐसा लड़कपन है, कुछ ऐसे खुले हुए, निद्वंद्व मनुष्य हो कि में तुमसे कोई बात कहते उसी भाँति डरती हूँ, जैसे कोई आदमी वृक्ष की पतली ठहनी पर पैर रखते डरता है।"

प्रभु सेवक—"अच्छी बात है, यों ही मुझसे डरा करो। वास्तव में मैं कोई बात सुन लेता हूँ, तो मेरे पेट में चूहे दौड़ने लगते हैं और जब तक किसी से कह न लूँ, मुझे चैन ही नहीं आता। खैर, मैं तुम्हें इस फैसले पर बधाई देता हूँ। मैंने तुमसे स्पष्ट तो कभी नहीं कहा; पर कई बार संकेत कर चुका हूँ कि मुझे किसी दशा में क्लार्क को अपना बहनोई बनाना पसंद नहीं है। मुझे न जाने क्यों उनसे चिढ़ है। वह बेचारे मेरा बड़ा आदर करते हैं; पर अपना जी उनसे नहीं मिलता। एक बार मैंने उन्हें अपनी एक कविता सुनाई थी। उसी दिन से मुझे उनसे चिढ़ हो गई है। बैठे सौंठ की तरह सुनते रहे, मानों मैं किसी दूसरे आदमी से बातें कर रहा हूँ। कविता का ज्ञान ही नहीं। उन्हें देखकर बस यही इच्छा होती है कि खूब बनाऊँ। मैंने कितने ही मनुष्यों को अपनी रचना सुनाई होगी, पर विनय-जैसा मर्मज्ञ और किसी को नहीं पाया। अगर वह कुछ लिखें, तो खूब लिखें। उनका रोम-रोम काव्यमय है।'

सोफी—"तुम इधर कभी कुँवर साहब की तरफ नहीं गये थे?"

प्रभु सेवक—"आज गया था और वहीं से चला आ रहा हूँ। विनयसिंह बड़ी विपत्ति में पड़ गये हैं। उदयपुर के अधिकारियों ने उन्हें जेल में डाल रखा है।"

सोफिया के मुख पर क्रोध या शोक का कोई चिह्न न दिखाई दिया। उसने यह न पूछा, क्यों गिरफ्तार हुए? क्या अपराध था? ये सब बातें उसने अनुमान कर ली। केवल इतना पूछा— "रानीजी तो वहाँ नहीं जा रही हैं?"

प्रभु सेवक—"न! कुँवर साहब और डॉक्टर गंगुली, दोनों जाने को तैयार हैं; पर रानी किसी को नहीं जाने देतीं। कहती हैं, विनय अपनी मदद आप कर सकता है। उसे किसी की सहायता की जरूरत नहीं।"

सोफिया थोड़ी देर तक गंभीर विचार में स्थिर बैठी रही। विनय की वीर मूर्ति उसकी आँखों के सामने फिर रही थी। सहसा उसने सिर उठाया और निश्चयात्मक भाव से बोली_"मैं उदयपुर जाऊँगी।"

प्रभु सेवक—"वहाँ जाकर क्या करोगी?"

सोफी—"यह नहीं कह सकती कि वहाँ जाकर क्या करूँगी। अगर और कुछ न कर सकूँगी, तो कम-से-कम जेल में रहकर विनय की सेवा तो करूँगी, अपने प्राण तो उन पर निछावर कर दूँगी। मैंने उनके साथ जो छल किया है, चाहे किसी इरादे से किया हो, वह नित्य मेरे हृदय में काँटे की भाँति चुभा करता है। उससे उन्हें जो दुःख हुआ होगा, उसकी कल्पना करते ही मेरा चित्त विकल हो जाता है। मैं अब उस छल का प्रायश्चित्त करूँगी; किसी और उपाय से नहीं, तो अपने प्राणों ही से।" [ २६९ ]
यह कहकर सोफिया ने खिड़की से झाँका, तो मि० क्लार्क अभी तक खड़े मिसेज' सेवक से बातें कर रहे थे। मोटरकार भी खड़ी थी। वह तुरन्त बाहर आकर मि० क्लार्क से बोली—“विलियम, आज मामा से बातें करने ही में रात खत्म कर दोगे? मैं सैर करने के लिए तुम्हारा इन्तजार कर रही हूँ।"

कितनी मंजुल वाणी थी ! कितनी मनोहारिणी छवि से, कमल-नेत्रों में मधुर हास्य का कितना जादू भरकर, यह प्रेम-याचना की गई थी! क्लार्क ने क्षमा-प्रार्थी नेत्रों से सोफिया को देखा—यह वही सोफिया है, जो अभी एक ही क्षण पहले मेरी हँसी उड़ा रही थी! तब जल पर आकाश की श्यामल छाया थी, अब उसी जल में इन्दु की सुन-हरी किरणें नृत्य कर रही थीं, उसी लहराते हुए जल की कंपित, विहसित, चंचल छटा उसको आँखों में थी। लजित होकर बोले—"प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई।"

सोफिया ने माता को सरल नेत्रों से देखकर कहा—"मामा, देखती हो इनकी निष्ठुरता, यह अभी से मुझसे तंग आ गये हैं। मेरी इतनी सुधि भी न रही कि झूठे ही पूछ लेते, सैर करने चलोगी?"

मिसेज सेवक—"हाँ, विलियम, यह तुम्हारी ज्यादती है। आज सोफी ने तुम्हें रंगे हाथों पकड़ लिया। मैं तुम्हें निर्दोष समझती थी और सारा दोष उसी के सिर रखती थी।"

क्लार्क ने कुछ मुस्किराकर अपदी झेप मिटाई और सोफिया का हाथ पकड़कर मोटर की तरफ चले। पर अब भी उन्हें शंका हो रही थी कि मेरे हाथ में जो नाजुक कलाई है, वह कोई वस्तु है या केवल कल्पना और स्वप्न। रहस्य और भी दुर्भेद्य होता हुआ दिखाई देता था। यह कोई बन्दर को नचानेवाला मदारी है या बालक, जो बन्दर को दूर से देखकर खुश होता है, उसे मिठाई देता है, पर बन्दर के निकट आते ही भय से चिल्लाने लगता है।

जब मोटर चली, तो सोफिया ने कहा—“एजेन्ट के अधिकार तो बड़े होते हैं, वह चाहे, तो किसी रियासत के भीतरी मुआमिलों में भी हस्तक्षेप कर सकता है, क्यों?"

क्लार्क ने प्रसन्न होकर कहा—“उसका अधिकार सर्वत्र, यहाँ तक कि राजा के महल के अन्दर भी, होता है। रियासत का कहना ही क्या, वह राजा के खाने, सोने, आराम करने का समय तक नियत कर सकता है। राजा किससे मिले, किससे दूर रहे, किसका आदर करे, किसकी अवहेलना करे, ये सब बातें एजेंट के अधीन हैं। वह यहाँ तक निश्चय कर सकता है कि राजा की मेज पर कौन-कौन-से प्याले आयेंगे, राजा के लिए कैसे और कितने कपड़ों की जरूरत है, यहाँ तक कि वह राजा के विवाह का भी निश्चय करता है। बस, यों समझो कि वह रियासस का खुदा होता है।"

सोफिया—तब तो वहाँ सैर-सपाटे का खूब अवकाश मिलेगा? यहाँ की भाँति दिन-भर दफ्तर में तो न बैठना पड़ेगा?" [ २७० ]क्लार्क—"वहाँ कैसा दफ्तर, एजेंट का काम दफ्तर में बैठना नहीं है। वह वहाँ बादशाह का स्थानापन्न होता है।"

सोफिया—"अच्छा, जिस रियासत में चाहो, जा सकते हो?"

क्लार्क—"हाँ, केवल पहले कुछ लिखा-पढ़ी करनी पड़ेगी। तुम कौन-सी रियासत पसंद करोगी?”

सोफिया—"मुझे तो पहाड़ी देशों से विशेष प्रेम है। पहाड़ों के दामन में बसे हुए गाँव, पहाड़ों की गोद में चरनेवाली भेड़ें और पहाड़ों से गिरनेवाले जल-प्रपात, ये सभी दृश्य मुझे काव्यमय प्रतीत होते हैं। मुझे मालूम होता है, वह कोई दूसरा ही जगत् है, "इससे कहीं शांतिमय और शुभ्र। शैल मेरे लिए एक मधुर स्वप्न है। कौन-कौन-सी रियासतें पहाड़ों में हैं?"

क्लार्क—“भरतपुर, जोधपुर, कश्मीर, उदयपुर......।"

सोफिया—"बस तुम उदयपुर के लिए लिखो। मैंने इतिहास में उदयपुर की वीर-कथाएँ पढ़ी हैं और तभी से मुझे उस देश को देखने की बड़ी लालसा है। वहाँ के राजपूत कितने वीर, कितने स्वाधीनता-प्रेमी, कितने आन पर जान देनेवाले होते थे! लिखा है, चित्तौड़ में जितने राजपूतों ने वीर गति पाई, उनके जनेऊ तौले गये, तो ७५ मन निकले। कई हजार राजपूत-स्त्रियाँ एक साथ चिता पर बैठकर राख हो गई। ऐसे प्रण-वीर प्राणी संसार में शायद ही और कहीं हों।”

लार्क—"हाँ, वे वृत्तांत मैंने भी इतिहासों में देखे हैं। ऐसी वीर जाति का जितना सम्मान किया जाय, कम है। इसीलिए उदयपुर का राजा हिंदूराजों में सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। उनकी वीर-कथाओं में अतिशयोक्ति से बहुत काम लिया गया है, फिर भी यह मानना पड़ेगा कि इस देश में इतनी जाँबाज और कोई जाति नहीं है।"

सोफिया—"तुम आज ही उदयपुर के लिए लिखो और संभव हो, तो हम लोग एक मास के अंदर यहाँ से प्रस्थान कर दें।”

क्लार्क—"लेकिन कहते हुए डर लगता है...तुम मेरा आशय समझ गई होगी... यहाँ से चलने के पहले मैं तुमसे वह चिर-सिंचित.........मेरा जीवन......"

सोफिया ने मुस्किराकर कहा-"समझ गई, उसके प्रकट करने का कष्ट न उठाओ। इतनी मंदबुद्धि नहीं हूँ; लेकिन मेरी निश्चय-शक्ति अत्यंत शिथिल है, यहाँ तक कि सैर करने के लिए चलने का निश्चय भी मैं घंटों के सोच-विचार के बाद करती हूँ। ऐसे महत्त्व के विषय में, जिसका संबन्ध जीवन-पर्यंत रहेगा, मैं इतनी जल्द कोई फैसला नहीं कर सकती। बल्कि साफ तो यों है कि अभी तक मैं यही निर्णय नहीं कर सकी कि मुझ जैसी निर्द्वंद, स्वाधीन-विचार-प्रिय स्त्री दांपत्य जीवन के योग्य है भी या नहीं। विलियम, मैं तुमसे हृदय की बात कहती हूँ, गृहिणी-जीवन से मुझे भय मालूम होता है। इसलिए जब तक तुम मेरे स्वभाव से भली भाँति परिचित न हो जाओ, मैं तुम्हारे हृदय में झूठी आशाएँ पैदा करके तुम्हें धोखे में नहीं डालना चाहती। अभी मेरा और तुम्हारा परि-
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चय केवल एक वर्ष का है। अब तक मैं तुम्हारे लिए केवल एक रहस्य हूँ। क्यों, हूँ या नहीं?"

क्लार्क—"हाँ, सोफी! वास्तव में अभी मैं तुम्हें अच्छी तरह नहीं पहचान पाया हूँ।"

सोफिया—"फिर ऐसी दशा में तुम्हीं सोचो, हम दोनों का दांपत्य सूत्र में बँध जाना, कितनी बड़ी नादानी है। मेरे दिल की जो पूछो, तो मुझे एक सहृदय, सजन, विचारशील और सच्चरित्र पुरुष के साथ मित्र बनकर रहना उसकी स्त्री बनकर रहने से कम आनंददायक नहीं मालूम होता। तुम्हारा क्या विचार है, यह मैं नहीं जानती, लेकिन मैं स्त्री और पुरुष के संबन्ध को दो हृदयों के संयोग का सबसे उत्तम रूप नहीं समझती, मैं सहानुभूति और सहवास को वासनामय संबन्ध से कहीं महत्व-पूर्ण समझती हूँ।"

क्लार्क—"किंतु सामाजिक और धार्मिक प्रथाएँ ऐसे संबन्धों को......"

सोफ़िया—"हाँ, ऐसे संबन्ध अस्वाभाविक होते हैं और साधारणतः उन पर आचरण नहीं किया जा सकता। मैं भी इसे सदैव के लिए जीवन का नियम बनाने को प्रस्तुत नहीं हूँ, लेकिन जब तक हम एक दूसरे को अच्छी तरह समझ न लें, जब तक हमारे अंतःकरण एक दूसरे के सामने आईने न बन जायँ, उस समय तक मैं ऐसे ही संबंध को आवश्यक समझती हूँ।"

क्लार्क—"मैं तुम्हारी इच्छाओं का दास हूँ। केवल इतना कह सकता हूँ कि तुम्हारे बिना मेरा जीवन वह घर है, जिसमें कोई रहनेवाला नहीं; वह दीपक है, जिसमें उजाला नहीं; वह कवित्त है, जिसमें रस नहीं।"

सोफिया—"बस, बस। यह प्रेमियों की भाषा केवल प्रेम-कथाओं के ही लिए शोभा देती है। यह लो, पाँडेपुर आ गये। अँधेरा हो रहा है। सूरदास चला गया होगा। यह हाल सुनेगा, तो उस गरीब का दिल टूट जायगा।”

क्लार्क—"उसके निर्वाह का और कोई प्रबंध कर दूँ?”

सोफिया—"इस भूमि से उसका निर्वाह नहीं होता था, केवल मुहल्ले के जानवर चरा करते थे, वह गरीव है, भिखारी है, पर लोभी नहीं। मुझे तो वह कोई साधु मालूम होता है?"

क्लार्क—"अंधे कुशाग्र-बुद्धि और धार्मिक होते हैं।"

सोफिया—"मुझे तो उसके प्रति बड़ी श्रद्धा हो गई है। यह देखो, पापा ने काम शुरू कर दिया। अगर उन्होंने राजा की पीठ न ठोकी होती, तो उन्हें तुम्हारे सम्मुख आने का कदापि साहस न होता!"

क्लार्क—"तुम्हारे पापा बड़े चतुर आदमी हैं। ऐसे ही प्राणी संसार में सफल होते हैं। कम-से-कम मैं तो यह दोरुखी चाल न चल सकता।"

सोफिया—"देख लेना, दो-ही-चार वर्षों में इस मुहल्ले में कारखाने के मजदूरों के मकान होंगे, यहाँ का एक मनुष्य भी न रहने पायेगा।"

क्लार्क—'पहले तो अंधे ने बड़ा शोर-गुल मचाया था। देखें, अब क्या करता है?" [ २७२ ]सोफिया—"मुझे तो विश्वास है कि वह चुप होकर कभी न बैठेगा, चाहे इस जमीन के पीछे उसकी जान ही क्यों न चली जाय।"

क्लार्क—"नहीं प्रिये, ऐसा कदापि न होने पायेगा। जिस दिन यह नौबत आयेगी, सबसे पहले सूरदास के लिए मेरे कंठ से जय-ध्वनि निकलेगी, सबसे पहले मेरे हाथ उस पर फूलों की वर्षा करेंगे।"

सोफिया ने क्लार्क को आज पहिली ही बार सम्मान-पूर्ण प्रेम की दृष्टि से देखा।