रंगभूमि/२५

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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साल-भर तक राजा महेंद्रकुमार और मिस्टर क्लार्क में निरंतर चोटें चलती रहीं। पत्र का पृष्ठ रणक्षेत्र था और शृंखलित शूरमों की जगह शरमों से कहीं बलवान् दलीलें। मनों स्याही बह गई, कितनी ही कलमें काम आई। दलीलें कट-कटकर रावण की सेना की भाँति फिर जीवित हो जाती थीं। राजा साहब बार-बार हतोत्साह हो जाते, सरकार से मेरा मुकाबला करना चींटी का हाथी से मुकाबला करना है। लेकिन मिस्टर जॉन सेवक और उनसे अधिक इंदु उन्हें ढाढ़स देती रहती थी। शहर के रईसों ने हिम्मत से कम, स्वार्थ-बुद्धि से अधिक काम लिया। उस विनयपत्र पर जो डॉक्टर गंगुली ने नगर निवासियों की ओर से गवर्नर की सेवा में भेजने के लिए लिखा था, हस्ताक्षर करने के समय अधिकांश सजन बीमार पड़ गये, ऐसे असाध्य रोग से पीड़ित हो गये कि हाथ में कलम पकड़ने की शक्ति न रही। कोई तीर्थ यात्रा करने चला गया, कोई किसी परमावश्यक काम से कहीं बाहर रवाना हो गया, जो गिने-गिनाये लोग कोई हीला न कर सके, वे भी हस्ताक्षर करने के बाद मिस्टर क्लार्क से क्षमा-प्रार्थना कर आये-"हुजूर, न जाने उसमें क्या लिखा था, हमारे सामने तो केवल सादा कागज आया था, हमसे यही कहा गया कि यह पानी का महसूल घटाने की दरख्वास्त है। हमें मालूम होता कि उसे सादे पत्र पर पीछे से हुजूर की शिकायत लिखी जायगी, तो हम भूलकर भी कलम न उठाते। हाँ, जिन महानुभावों ने सिगरेट-कंपनी के हिस्से लिये थे, उन्हें विवश होकर हस्ताक्षर करने पड़े। हस्ताक्षर करनेवालों की संख्या यद्यपि बहुत न थी; पर डॉक्टर गंगुली को व्यवस्थापक सभा में सरकार से प्रश्न करने के लिए एक बहाना मिल गया। उन्होंने अदम्य उत्साह और धैर्य के साथ प्रश्नों की बाढ़ जारी रखी। सभा में डॉक्टर महोदय का विशेष सम्मान था, कितने ही सदस्यों ने उनके प्रश्नों का समर्थन किया, यहाँ तक कि डॉक्टर गंगुली के एक प्रस्ताव पर अधिकारियों को बहुमत से हार माननी पड़ी। इस प्रस्ताव से लोगों को बड़ी-बड़ी आशाएँ थी; किंतु जब इसका भी कुछ असर न हुआ, तो जगह-जगह सरकार पर अविश्वास प्रकट करने के लिए सभाएँ होने लगीं। रईसों और जमींदारों की तो भय के कारण जबान बंद थी; किंतु मध्यम श्रेणी के लोगों ने खुल्लमखुल्ला इस निरंकुशता का विरोध करना शुरू किया। कुँवर भरतसिंह को उनका नेतृत्व प्रात हुआ और वह स्पष्ट शब्दों में कहने लगे-“अब हमें अपने पैरों पर खड़ा होना चाहिए। हमारा उद्धार अपने ही हाथों होगा।" महेंद्रकुमार भी गुप्त रूप से इस दल को प्रोत्साहित करने लगे। डॉक्टर गंगुली के बहुत कुछ आश्वासन देने पर भी शासकों पर उन्हें अश्रद्धा हो गई। निराशा निर्बलता से उत्पन्न होती है; पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है।

रात के नौ बज-गये थे। विनयसिंह के कारावास-दंड का समाचार पाकर कुवर
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साहब ने अपने हितैषियों को इस स्थिति पर विचार करने के लिए आमंत्रित किया था। डॉक्टर गंगुली, जॉन सेवक, प्रभु सेवक, राजा महेंद्रकुमार और कई अन्य सजन आये हुए थे। इंदु भी राजा साहब के साथ आई थी और अपनी माता से बातें कर रही थी। कुँवर साहब ने नायकराम को बुला भेजा था और वह कमरे के द्वार पर बैठे हुए तंबाकू मल रहे थे।

महेंद्रकुमार बोले-"रियासतों पर सरकार का बड़ा दबाव है। वे अपंग हैं और सरकार के इशारे पर चलने के लिए मजबूर हैं।"

भरतसिंह ने राजा साहब का खंडन किया-"जिससे किसी का उपकार न हो और जिसके अस्तित्व का आधार ही अपकार पर हो, उमका निशान जितनी जल्द मिट जाय, उतना ही अच्छा। विदेशियों के हाथों में अन्याय का यंत्र बनकर जीवित रहने से तो मर जाना ही उत्तम है।"

डॉक्टर गंगुली-"वहाँ का हाकिम लोग खुद पतित है। डरता है कि रियासत में स्वाधीन विचारों का प्रचार हो जायगा, तो हम प्रजा को कैसे लूटेगा। राजा मसनद लगाकर बैठा रहता है, उसका नौकर-चाकर मनमाना राज करता है।"

जॉन सेवक ने पक्षपात-रहित होकर कहा-"सरकार किसी रियासत को अन्याय करने के लिए मजबूर नहीं करती। हाँ, चूँकि वे अशक्त हैं, अपनी रक्षा आप नहीं कर सकतीं, इसलिए ऐसे कामों में जरूरत से ज्यादा तत्पर हो जाती हैं, जिनसे सरकार के प्रसन्न होने का उन्हें विश्वास होता है।”

भरतसिंह-“विनय कितना नम्र, सुशील, सुधीर है, यह आप लोगों से छिपा नहीं। मुझे इसका विश्वास हो नहीं हो सकता कि उसकी जात से किसी का अहित हो सकता है।"

प्रभु सेवक कुँवर साहब के मुँह लगे हुए थे। अब तक जॉन सेवक के भय से न बोले थे; पर अब न रहा गया। बोले-"क्यों; क्या पुलिस से चोरों का अहित नहीं होता? क्या साधुओं से दुर्जनों का अहित नहीं होता? और फिर गऊ-जैसे पशु की हिंसा करनेवाले क्या संसार में नहीं हैं? विनय ने दलित किसानों की सेवा करनी चाही थी। उसी का यह उन्हें उपहार मिला है। प्रजा की सहन-शक्ति की भी कोई सीमा होनी चाहिए और होती है। उसकी अवहेलना करके कानून ही नहीं रह जाता। उस समय उस कानून को भंग करना ही प्रत्येक विचारशील प्राणी का कर्तव्य हो जाता है। अगर आज सरकार का हुक्म हो कि सब लोग मुँह में कालिख लगाकर निकलें, तो इस हुक्म की उपेक्षा करना हमारा धर्म हो जायगा। उदयपुर के दरबार का कोई अधिकार नहीं है कि वह किसी को रियासत से निकल जाने पर मजबूर करे।”

डॉक्टर गंगुली-"उदयपुर ऐसा हुक्म दे सकता है। उसको अधिकार है।"

प्रभु सेवक-"मैं इसे स्वीकार नहीं करता। जिस आज्ञा का आधार केवल पशु-बल हो, उसका पालन करना आवश्यक नहीं। अगर उदयपुर में कोई उत्तरदायिस्व-पूर्ण
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सरकार होती और वह बहुमत से यह हुक्म देती, तो दूसरी बात थी। लेकिन जब कि प्रजा ने कभी दरबार से यह इच्छा नहीं की, बल्कि वह विनयसिंह पर जान देती है, तो केवल अधिकारियों की स्वेच्छा हमको उनकी आज्ञा का पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकती।"

राजा साहब ने इधर-उधर भीत नेत्रों से देखा कि यहाँ कोई मेरा शत्रु तो नहीं बैठा हुआ है। जॉन सेवक भी त्योरियाँ बदलने लगे।

डॉक्टर गंगुली-"हम दरबार से लड़ तो नहीं सकता।"

प्रभु सेवक-"प्रजा को अपने स्त्रत्व की रक्षा के लिए उत्तेजित तो कर सकते हैं!"

भरतसिंह-"इसका परिणाम विद्रोह के सिवा और क्या हो सकता है, और विद्रोह का दमन करने के लिए दरबार सरकार से सहायता लेगा। हजारों बेकसों का खून हो जायगा।"

प्रभु सेवक-"जब तक हम खून से डरते रहेंगे, हमारे स्वत्ल भी हमारे पास आने से डरते रहेंगे। उनकी रक्षा भी तो खून ही से होगी। राजनीति का क्षेत्र समरक्षेत्र से कम भयावह नहीं है। उसमें उतरकर रक्तपात से डरना कापुरुषता है।"

जॉन सेवक से अब जन्त न हुआ। बोले-"तुम-जैसे भावुक युवकों को ऐसे गहन राजनीतिक विषयों पर कुछ कहने के पहले अपने शब्दों को खूब तौल लेना चाहिए। वह अवसर शांत और शीतल विचार से काम लेने का है।”

प्रभु सेवक ने दबी जबान से कहा; मानों मन में कह रहा है-"शीतल विचार कायरता का दूसरा नाम है।"

डॉक्टर गंगुली-"मेरे विचार में भारतीय सरकार की सेवा में डेपुटेशन जाना चाहिए।"

भरतसिंह-"सरकार कह देगी, हमें दरबार के आंतरिक विषय में दखल देने का अधिकार नहीं।"

महेंद्रकुमार-“दरबार ही के पास क्यों न डेपुटेशन भेजा जाय?"

जॉन सेवक-"हाँ, यही मेरी भी सलाह है। राज्य के विरुद्ध आंदोलन करना राज्य को निर्बल बना देता है और प्रजा को उदंड। राज्य-प्रभुत्व का प्रत्येक दशा में अक्षुण्ण रहना आवश्यक है, अन्यथा उसका फल वही होगा, जो आज साम्यवाद का व्यापक रूप धारण कर रहा है। संसार ने तीन शताब्दियों तक जनवाद की परीक्षा की और अंत में हताश हो गया। आज समस्त संसार जनवाद के आतंक से पीड़ित है। हमारा परम सौभाग्य है कि वह अग्नि-ज्वाला अभी तक देश में नहीं पहुँची, और हमें यत्न करना चाहिए कि उससे भविष्य में भी निश्शंक रहें।"

कुँवर भरतसिंह जनवाद के बड़े पक्षपाती थे। अपने सिद्धांत का खंडन होते देखकर बोले-“फूस का झोपड़ा बनाकर आप अग्नि-ज्वाला से निश्शंक रह ही नहीं सकते। बहुत संभव है कि ज्वाला के बाहर से न आने पर भी घर ही की एक चिनगारी उड़कर

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उस पर गिर पड़े। आप झोपड़ा रखिए ही क्यों! जनवाद आदर्श व्यवस्था न हो; पर संसार अभी उससे उत्तम कोई शासन-विधान नहीं निकाल सका है। खैर, जब यह सिद्ध हो गया कि हम दरबार पर कोई असर नहीं डाल सकते, तो सब करने के सिवा और क्या किया जा सकता है। मैं राजनीतिक विषयों से अलग रहना चाहता हूँ, क्योंकि उससे कोई फायदा नहीं। स्वाधीनता का मूल्य रक्त है। जब हममें उसके देने की शक्ति ही नहीं है, तो व्यर्थ में कमर क्यों बाँधे, पैतरे क्यों बदलें, ताल क्यों ठोंके? उदासीनता ही में हमारा कल्याण है।"

प्रभु सेवक—"यह तो बहुत मुश्किल है कि आँखों से अपना घर लुटते देखें, और मुँह न खोलें।"

भरतसिंह—"हाँ, बहुत मुश्किल है, पर अपनी वृत्तियों को साधना पड़ेगा। उसका यही उपाय है कि हम कुल्हाड़ी का बँट न बनें। बॅट कुल्हाड़ी की मदद न करे, तो कुल्हाड़ी कठोर और तेज होने पर भी हमें बहुत हानि नहीं पहुंचा सकती। यह हमारे लिए घोर लजा की बात है कि हम शिक्षा, ऐश्वर्य या धन के बल पर शासकों के दाहिने हाथ बनकर प्रजा का गला काटें और इस बात पर गर्व करें कि हम हाकिम हैं।"

जॉन सेवक—"शिक्षित-वर्ग सदैव से राज्य का आश्रित रहा है और रहेगा। राज्य विमुख होकर वह अपना अस्तित्व नहीं मिटा सकता।"

भरतसिंह—“यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है। शिक्षित-वर्ग जब तक शासकों का आश्रित रहेगा, हम अपने लक्ष्य के जौ-भर भी निकट न पहुँच सकेंगे। उसे अपने लिए थोड़े, बहुत थोड़े दिनों के लिए कोई दूसरा ही अवलंब खोजना पड़ेगा।"

राजा महेंद्रसिंह बगले झाँक रहे थे कि यहाँ से खिसक जाने का कोई मौका मिल जाय। इस वाद-विवाद का अंत करने के इरादे से बोले—“तो आप लोगों ने क्या निश्चय किया? दरबार की सेवा में डेपुटेशन भेजा जायगा?"

डॉक्टर गंगुली—"हम खुद जाकर विनय को छुड़ा लायेगा।"

भरतसिंह—"अगर वधिक ही से प्राण-याचना करनी है, तो चुप रहना ही अच्छा। कम-से-कम बात तो बनी रहेगी।"

डॉक्टर गंगुली—“फिर वही Pessism का बात। हम विनय को समझाकर उसे यहाँ आने पर राजी कर लेगा।"

रानी जाह्नवी ने इधर आते हुए इस वाक्य के अंतिम शब्द सुन लिये। गर्व-सूचक भाव से बोलीं—"नहीं डॉक्टर गंगुली, आप विनय पर यह कृपा न कीजिए। यह उसकी पहली परीक्षा है। इसमें उसको सहायता देना उसके भविष्य को नष्ट करना है। वह न्याय-पक्ष पर है, उसे किसी से दबने की जरूरत नहीं। अगर उसने प्राण-भय से इस अन्याय को स्वीकार कर लिया, तो सबसे पहले मैं ही उसके माथे पर कालिमा का टीका लगा दूँगी।"

रानी के ओज-पूर्ण शब्दों ने लोगों को विस्मित कर दिया। ऐसा जान पड़ता था कि कोई देवी आकाश से यह संदेश सुनाने के लिए उतर आई है। [ २७७ ]
एक क्षण के बाद भरतसिंह ने रानी के शब्दों का भावार्थ किया-“मेरे खयाल में अभी विनयसिंह को उसी दशा में छोड़ देना चाहिए। यह उसकी परीक्षा है। मनुष्य बड़े-से-बड़ा काम जो कर सकता है, वह यही है कि आत्मरक्षा के लिए मर मिटे। यही मानवीय जीवन का उच्चतम उद्देश्य है। ऐसी ही परीक्षाओं में सफल होकर हमें वह गौरव प्राप्त हो सकता है कि जाति हम पर विश्वास कर सके।"

गंगुली-"रानी हमारी देवी हैं। हम उनके सामने कुछ नहीं कह सकता। पर देवी लोगों का बात संसारवालों के व्यवहार के योग्य नहीं हो सकता। हमको पूरा आशा है कि हमारा सरकार जरूर बोलेगा।"

सनी-"सरकार को न्यायशीलता का एक दृष्टांत तो आपके सामने ही है। अंगर अब भी आपको उस पर विश्वास हो, तो मैं यही कहूँगी कि आपको कुछ दिनों किसी औषधि का सेवन करना पड़ेगा।"

गंगुली-“दो-चार दिन में यह बात मालूम हो जायगा। सरकार को भी तो अपनी नेकनामी-बदनामी का डर है।"

महेंद्रकुमार बहुत देर के बाद बोले-"राह देखते-देखते तो आँखें पथरा गई। हमारी आशा इतनी चिरंजीवी नहीं।"

सहसा टेलीफोन की घंटी बोली। कुँवर साहब ने पूछा-"कौन महाशय हैं?"

"मैं हूँ प्राणनाथ। मिस्टर क्लार्क का तबादला हो गया।"

"कहाँ?"

“पोलिटिकल विभाग में जा रहे हैं। ग्रेड कम कर दिया गया है।"

डॉक्टर गंगुली-"अब बोलिए, मेरा बात सच हुआ कि नहीं। आए लोग कहता था, सरकार का नीयत बिगड़ा हुआ है। पर हम कहता था, उसको हमारा बात मानना पड़ेगा।"

महेंद्रकुमार-"अजी, प्राणनाथ मसखरा है, आपसे दिल्लगी कर रहा होगा।”

भरतसिंह-"नहीं, मुझसे तो उसने कभी दिल्लगी नहीं की।"

रानी-"सरकार ने इतने नैतिक साहस से शायद पहली ही बार काम लिया है।"

गंगुली--"अब वह जमाना नहीं है, जब सरकार प्रजा-मत की उपेक्षा कर सकता था। अब काउंसिल का प्रस्ताव उसे मानना पड़ता है।"

भरतसिंह-"जमाना तो वही है, और सरकार की नीति में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें जरूर कोई-न-कोई राजनीतिक रहस्य है।"

जॉन सेवक-"व्यापारी-मंडल ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करके गवर्नमेंट के छक्के छुड़ा दिये।"

महेंद्रकुमार-"मेरा डेपुटेशन बड़े मौके से पहुंचा था।"

गंगुली-"मैंने काउंसिल को ऐसा संघटित कर दिया था कि हमको इतना बड़ा मेजारिटी कभी नहीं मिला।" [ २७८ ]
उस पर गिर पड़े। आप झोपड़ा रखिए ही क्यों! जनवाद आदर्श व्यवस्था न हो; पर संसार अभी उससे उत्तम कोई शासन-विधान नहीं निकाल सका है। खैर, जब यह सिद्ध हो गया कि हम दरबार पर कोई असर नहीं डाल सकते, तो सब करने के सिवा और क्या किया जा सकता है। मैं राजनीतिक विषयों से अलग रहना चाहता हूँ, क्योंकि उससे कोई फायदा नहीं। स्वाधीनता का मूल्य रक्त है। जब हममें उसके देने की शक्ति ही नहीं है, तो व्यर्थ में कमर क्यों बाँधे, पैतरे क्यों बदले, ताल क्यों ठोंके? उदासीनता ही में हमारा कल्याण है।"

प्रभु सेवक-“यह तो बहुत मुश्किल है कि आँखों से अपना घर लुटते देखें, और मुँह न खोलें।"

भरतसिंह-"हाँ, बहुत मुश्किल है, पर अपनी वृत्तियों को साधना पड़ेगा। उसका यही उपाय है कि हम कुल्हाड़ी का बैट न बनें। बेंट कुल्हाड़ी की मदद न करे, तो कुल्हाड़ी कठोर और तेज होने पर भी हमें बहुत हानि नहीं पहुंचा सकती। यह हमारे लिए घोर लजा की बात है कि हम शिक्षा, ऐश्वर्य या धन के बल पर शासकों के दाहिने हाथ बनकर प्रजा का गला काटें और इस बात पर गर्व करें कि हम हाकिम हैं।"

जॉन सेवक-"शिक्षित-वर्ग सदैव से राज्य का आश्रित रहा है और रहेगा। राज्य-विमुख होकर वह अपना अस्तित्व नहीं मिटा सकता।"

भरतसिंह-“यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है। शिक्षित-वर्ग जब तक शासकों का आश्रित रहेगा, हम अपने लक्ष्य के जौ-भर भी निकट न पहुँच सकेंगे। उसे अपने लिए थोड़े, बहुत थोड़े दिनों के लिए कोई दूसरा ही अवलंब खोजना पड़ेगा।" राजा महेंद्रसिंह बगलें झाँक रहे थे कि यहाँ से खिसक जाने का कोई मौका मिल जाय। इस वाद-विवाद का अंत करने के इसदे से बोले-"तो आप लोगों ने क्या निश्चय किया? दरबार की सेवा में डेपुटेशन भेजा जायगा?"

डॉक्टर गंगुली—"हम खुद जाकर विनय को छुड़ा लायेगा।"

भरतसिंह—"अगर वधिक ही से प्राण-याचना करनी है, तो चुप रहना ही अच्छा। कम-से-कम बात तो बनी रहेगी।"

डॉक्टर गंगुली—"फिर वही Pessism का बात। हम विनय को समझाकर उसे यहाँ आने पर राजी कर लेगा।"

रानी जाह्नवी ने इधर आते हुए इस वाक्य के अंतिम शब्द सुन लिये। गर्व-सूचक भाव से बोलीं-"नहीं डॉक्टर गंगुली, आप विनय पर यह कृपा न कीजिए। यह उसकी पहली परीक्षा है। इसमें उसको सहायता देना उसके भविष्य को नष्ट करना है। वह न्याय-पक्ष पर है, उसे किसी से दबने की जरूरत नहीं। अगर उसने प्राण-भय से इस अन्याय को स्वीकार कर लिया, तो सबसे पहले मैं ही उसके माथे पर कालिमा का टीका लगा दूँगी।"

रानी के ओज-पूर्ण शब्दों ने लोगों को विस्मित कर दिया। ऐसा जान पड़ता था कि कोई देवी आकाश से यह संदेश सुनाने के लिए उतर आई है। [ २७९ ]
एक क्षण के बाद भरतसिंह ने रानी के शब्दों का भावार्थ किया-"मेरे खयाल में अभी विनयसिंह को उसी दशा में छोड़ देना चाहिए। यह उसकी परीक्षा है। मनुष्य बड़े-से बड़ा काम जो कर सकता है, वह यही है कि आत्मरक्षा के लिए मर मिटे। यही मानवीय जीवन का उच्चतम उद्देश्य है। ऐसी ही परीक्षाओं में सफल होकर हमें वह गौरव प्राप्त हो सकता है कि जाति हम पर विश्वास कर सके।"

गंगुली-"रानी हमारी देवी हैं। हम उनके सामने कुछ नहीं कह सकता। पर देवी लोगों का बात संसारवालों के व्यवहार के योग्य नहीं हो सकता। हमको पूरा आशा है कि हमारा सरकार जरूर बोलेगा।"

सनी-"सरकार को न्यायशीलता का एक दृष्टांत तो आपके सामने ही है। अगर अब भी आपको उस पर विश्वास हो, तो मैं यही कहूँगी कि आपको कुछ दिनों किसी औषधि का सेवन करना पड़ेगा।"

गंगुली-“दो-चार दिन में यह बात मालूम हो जायगा। सरकार को भी तो अपनी नेकनामी-बदनामी का डर है।"

महेंद्रकुमार बहुत देर के बाद बोले-"राह देखते-देखते तो आँखें पथरा गई। हमारी आशा इतनी चिरंजीवी नहीं।"

सहसा टेलीफोन की घंटी बोली। कुँवर साहब ने पूछा--"कौन महाशय हैं?"

"मैं हूँ प्राणनाथ। मिस्टर क्लार्क का तबादला हो गया।"

"कहाँ?"

“पोलिटिकल विभाग में जा रहे हैं। ग्रेड कम कर दिया गया है।"

डॉक्टर गंगुली-"अब बोलिए, मेरा बात सच हुआ कि नहीं। आप लोग कहता था, सरकार का नीयत बिगड़ा हुआ है। पर हम कहता था, उसको हमारा बात मानना पड़ेगा।"

महेंद्रकुमार-"अजी, प्राणनाथ मसखरा है, आपसे दिल्लगी कर रहा होगा।

भरतसिंह-"नहीं, मुझसे तो उसने कभी दिल्लगी नहीं की।"

रानी-"सरकार ने इतने नैतिक साहस से शायद पहली ही बार काम लिया है।"

गंगुली-"अब वह जमाना नहीं है, जब सरकार प्रजा-मत की उपेक्षा कर सकता था। अब काउंसिल का प्रस्ताव उसे मानना पड़ता है।"

भरतसिंह-"जमाना तो वही है, और सरकार की नीति में भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। इसमें जरूर कोई-न-कोई राजनीतिक रहस्य है।"

जॉन सेवक-"व्यापारी-मंडल ने मेरे प्रस्ताव को स्वीकार करके गवर्नमेंट के छक्के छुड़ा दिये।"

महेंद्रकुमार-"मेरा डेपुटेशन बड़े मौके से पहुंचा था।"

गंगुली-"मैंने काउंसिल को ऐसा संघटित कर दिया था कि हमको इतना बड़ा मेजारिटी कभी नहीं मिला।" [ २८० ]
इंदु रानी के पीछे खड़ी थी। बोली-"विनय-पत्र पर मेरे ही उद्योग से इतने आदमियों के नाम आये थे। मुझे तो विश्वास है, यह उसी की करामात है।"

नायकराम अब तक चुपचाप बैठे हुए थे। उनकी समझ में न आता था कि यहाँ क्या बातें हो रही हैं। टेलीफोन की बात उनकी समझ में आई। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि लोग सफलता का सेहरा अपने-अपने सिर बाँध रहे हैं। ऐसे अवसर पर भला वह कब चूकनेवाले थे। बोले-"सरकार, यहाँ भी गाफिल बैठनेवाले नहीं हैं। सिबिल सारजंट के कान में यह बात डाल दी थी कि राजा साहन की ओर से एक हजार लठैत जवान तैयार बैठा हुआ है। उ का हुक्म बहाल न हुना, तो खून-खच्चर हो जायगा, सहर में तूफान आ जायगा। उन्हों। उन्होंने लाट साहब से यह बात जरूर ही कही होगी।"

महेंद्रकुमार-"मैं तो समझता हूँ, यह तुम्हारी धामकियों ही की करामात है।"

नायकराम-"धर्मावतार, धमकियाँ कैसी, खून की नदी बह जाती। आपका ऐसा अकबाल है कि चाहूँ, तो एक बार सहर लुटवा हूँ। ये लाल साफे खड़े मुँह ताकते रह जायँ।"

प्रभु सेवक ने हास्य-भाव से कहा-"सच पूछिए, तो यह उस कविता का फल है, जो मैंने 'हिंदुस्तान-रिव्यू' में लिखी थी।"

रानी-"प्रभु, तुमने यह चपत खूब लगाई। डॉक्टर गंगुली अपना सिर सुहला रहे हैं। क्यों डॉक्टर, बैठी या नहीं? एक तुच्छ सफलता पर आप लोग इतने फूले नहीं समाते! इसे विजय न समझिए, यह वास्तव में पराजय है, जो आपको अपने अभीष्ट से कोसों दूर हटा देती है, आपके गले में फंदे को और भी मजबूत कर देती है। बाजे-वाले सरदी में बाजे को आग से सेंकते हैं, केवल इसीलिए कि उसमें से कर्णमधुर स्वर निकले। आप लोग भी सेंके जा रहे हैं, अब चोटों के लिए पीठ मजबूत कर लीजिए।"

यह कहती हुई जाह्नवी अंदर चली गई; पर उनके जाते ही इस तिरस्कार का असर भी जाता रहा, लोग फिर वही राग अलापने लगे।

महेंद्रकुमार-"क्लार्क महोदय भी क्या याद करेंगें किसी से पाला पड़ा था।"

गंगुली-“अब इससे कौन इनकार कर सकता है कि ये लोग कितने न्याय-प्रिय होते हैं।

जॉन सेवक-"अब जरा उस अंधो की भी खबर लेनी चाहिए।"

नायकराम-"साहब, उसको हार-जीत का कोई गम नहीं है। उस जमीन की दसगुनी भी मिल जाय, तो भी वह इसी तरह रहेगा।"

जॉन सेवक- "मैं कल ही से मिल में काम लगा दूँगा। जरा मिस्टर क्लार्क को भी देख लूँ।”

महेंद्रकुमार-“मैं तो अभिवादन-पत्र न दूँगा। उनकी तरफ से कोशिश तो होगी; पर बोर्ड का बहुमत मेरे साथ है।"

गंगुली-“ऐसा हाकिम लोंग को अभिवादन-पत्र देने का काम नहीं।" [ २८१ ]
महेंद्रकुमार के पेट में चूहे दौड़ रहे थे कि इंदु से भी इस सुख-संवाद पर बातें करूँ। यों तो वह बहुत ही गंभीर पुरुष थे; पर इस विजय ने बालोचित उल्लास से विह्वल कर दिया था। एक नशा-सा छाया हुआ था। रानी के जाने के जरा देर बाद वह विहसित-मुख, प्रसन्न-चित्त, अज्ञात भाव से अकड़ते, गर्व से मस्तक उठाये अंदर दाखिल हुए। इंदु रानी के पास बैठी हुई थी। खड़ी होकर बोली-"आखिर साहब बहादुर को बोरिया-बँधना संभालना पड़ा न!"

महेंद्रकुमारसिंह रानी के सामने अपना कुत्सित आनंद न प्रकट कर सके। बोले-"हाँ, अब तो टलना ही पड़ेगा।"

इंदु-"अब कल मैं इन लेडी साहब का कुशल-समाचार पूछँगी, जो धरती पर पाँव न रखती थीं, अपने आगे किसी को कुछ समझती ही न थीं। बुलाकर दावत करूँ!"

महेंद्रकुमार-"कभी न आयेगी, और जरूरत ही क्या है!"

इंदु-"जरूरत क्यों नहीं। झेपेगी तो, सिर तो नीचा हो जायगा। न आयेगी, न सही। अम्माँ, आपने तो देखा है, सोफिया पहले कितनी नम्र और मिलनसार थी; लेकिन क्लार्क से विवाह की बातचीत होते ही मिजाज आसमान पर चढ़ गया।"

रानी ने गंभीर भाव से कहा-"बेटी, यह तुम्हारा भ्रम है। सोफिया मिस्टर क्लार्क से कभी विवाह न करेगी। अगर मैं आदमियों को कुछ पहचान सकती हूँ, तो देख लेना, मेरी बात ठीक उतरती है या नहीं।"

इंदुः-"अम्माँ, क्लार्क से उसकी मँगनी हो गई है। संभव है, गुप्त रूप से विवाह भी हो गया हो। देखती नहीं हो; दोनों कितने घुले-मिले रहते हैं।"

रानी-"कितने ही घुले-मिले रहें; पर उनका विवाह न हुआ है, न होगा। मैं अपनी संकीर्णता के कारण सोफिया की कितनी ही उपेक्षा करूँ; किंतु वह सती है, इसमें अणु-मात्र भी संदेह नहीं। उसे लजित करके तुम पछताओगी।"

इंदु-"अगर वह इतनी उदार है, तो आपके बुलाने से अवश्य आयेगी।"

रानी-"हाँ, मुझे पूर्ण विश्वास है।"

इंदु-"तो बुला भेजिए, मुझे दावत का प्रबंध क्यों करना पड़े।"

रानी-"तुम यहाँ बुलाकर उसका अपमान करना चाहती हो। मैं तुमसे अपने

हृदय की बात कहती हूँ; अगर वह ईसाइन न होती, तो आज के पाँचवें वर्ष मैं उससे विनय का विवाह करती और इसे अपना धन्य भाग समझती।"

इंदु को ये बातें कुछ अच्छी न लगीं। उठकर अपने कमरे में चली गई। एक क्षण में महेंद्रकुमार भी यहाँ पहुँच गये और दोनों डींगें मारने लगे। कोई लड़का खेल में जीतकर भी इतना उन्मत्त न होता होगा।

उधर दीवानखाने से भी सभा उठ गई। लोग अपने-अपने घर गये। जब एकांत हो गया, तो कुँवर साहब ने नायकराम को बुलाकर कहा—"पण्डाजी, तुमसे मैं एक काम लेना चाहता हूँ, करोगे?" [ २८२ ]नायकराम--"सरकार, हुकुम हो, तो सिर देने को हाजिर हैं। ऐसी क्या बात है भला?"

कुँवर-“देखा, दुनियादारी मत करो। मैं जो काम लेना चाहता हूँ, वह सहज नहीं। बहुत समय, बहुत बुद्धि, बहुत बल व्यय करना पड़ेगा। जान-जोखिम भी है। अगर दिल इतना मजबूत हो, तो हामी भरो, नहीं लो साफ-साफ जवाब दे दो, मैं कोई यात्री नहीं कि तुम्हें अपनी धाक बिठाना जरूरी हो। मैं तुम्हें जानता हूँ और तुम मुझे जानते हो। इसलिए साफ बातचीत होनी चाहिए।"

नायकराम—"सरकार, आपसे दुनियादारी करके भगवान को क्या मुँह दिखाऊँगा! आपका नमक तो रोम-रोम में सना हुआ है। अगर मेरे काबू की बात होगी, तो पूरी करूँगा, चाहे जान ही पर क्यों न आ बने। आपके हुकुम देने की देर है।"

कुँवर—"विनय को छुड़ाकर ला सकते हो?"

नायकराम—"दीनबंधु, अंगर प्राण देकर भी ला सकूँगा, तो उठा न रखूँगा।"

कुँवर—"तुम जानते हो, मैंने तुमसे यह सवाल क्यों किया! मेरे यहाँ सैकड़ों आदमी हैं। खुद डॉक्टर गंगुली जाने को तैयार हैं। महेंद्र को भेज दूँ, तो वह भी चले जायँगे। लेकिन इन लोगों के सामने मैं अपनी बात नहीं छोड़ना चाहता। सिर पर यह इलजाम नहीं लेना चाहता कि कहते कुछ हैं, और करते कुछ। धर्म-संकट में पड़ा हुआ हूँ। पर बेटे की मुहब्बत नहीं मानती। हूँ तो आदमी, काठ का कलेजा तो नहीं है? कैसे सब करूँ? उसे बड़े-बड़े अरमानों से पाला है, वही एक जिंदगी का सहारा है। तुम उसे किसी तरह अपने साथ लाओ। उदयपुर के अमले और कर्मचारी देवता नहीं, उन्हें लालच देकर जेल में जा सकते हो, विनयसिंह से मिल सकते हो, अमलों की मदद से उन्हें बाहर ला सकते हो, यह कुछ कठिन नहीं। कठिन है विनय को आने पर राजी करना। वह तुम्हारी बुद्धि और चतुरता पर छोड़ता हूँ। अगर तुम मेरी दशा का ज्ञान उन्हें करा सकोगे, तो मुझे विश्वास है, वह चले आयेंगे। बोलो, कर सकते हो काम? इसका मेहनताना एक बूढ़े बाप के आशीर्वाद के साथ और जो कुछ चाहोगे, पेश करूँगा।”

नायकराम—"महाराज, कल चला जाऊँगा। भगवान ने चाहा, तो उन्हें साथ लाऊँगा, नहीं तो फिर मुँह न दिखाऊँगा।"

कुँवर—"नहीं पण्डाजी, जब उन्हें मालूम हो जायगा कि मैं कितना विकल हूँ, तो वह चले आयेंगे; वह अपने बाप की जान को सिद्धान्त पर बलिदान न करेंगे। उनके लिए मैंने अपने जीवन की कायापलट कर दी, यह फकीरी भेष धारण किया, क्या बह मेरे लिए इतना भी न करेंगे! पण्डाजी, सोचो, जिस आदमी ने हमेशा मखमली बिछौनों। पर आराम किया हो, उसे इस काठ के तख्त पर आराम मिल सकता है? विनय का प्रेम ही वह मन्त्र है, जिसके वश होकर मैं यह कठिन तपस्या कर रहा हूँ। जब विनय ने त्याग का व्रत ले लिया, तो मैं किस मुँह से बुढ़ापे में भोग-विलास में लिप्त रहता। आह! [ २८३ ]
ये सब जाह्नवी के बोये हुए काँटे हैं। उसके आगे मेरी कुछ नहीं चलती। मेरा सुख-स्वर्ग उसी के कारण नरक-तुल्य हो रहा है। उसी के कारण मेरा प्यारा विनय मेरे हाथों से निकला जाता है, ऐसा पुत्र रत्न खोकर यह संसार मेरे लिए नरक हो जायगा। तुम कल जाओगे? मुनीम से जितने रुपये चाहो, ले लो।"

नायकराम-"आपके अकबाल से किसी बात की कमी नहीं। आपकी दया चाहिए। आपने इतने प्रतापी होकर जो त्याग किया है, वह कोई दूसरा करता, तो आँख निकल पड़ती। त्याग करना कोई हँसी है! यहाँ तो घर में पूँजी भाँग नहीं, जात्रियों की सेवा टहल न करें, तो भोजन का ठिकाना भी न हो, पर बूटी की ऐसी चाट पड़ गई है कि एक दिन न मिले, तो बावला हो जाता हूँ। कोई आपकी तरह क्या खाके त्याग करेगा!"

कुँवर-“यह तो मानी हुई बात है कि तुम गये, तो विनय को लेकर ही लौटोगे। अब यह बताओ कि मैं तुम्हें क्या दक्षिणा दूँ? तुम्हारी सबसे बड़ी अभिलाषा क्या है?"

नायकराम-"सरकार की कृपा बनी रहे, मेरे लिए यह कुछ कम नहीं।”

कुँवर-"तो इसका आशय यह है कि तुम मेरा काम नहीं करना चाहते।”

नायकराम-"सरकार, ऐसी बात न कहें। आप मुझे पालते हैं, आपका हुकुम न बजा लाऊँगा, तो भगवान को क्या मुँह दिखाऊँगा। और फिर आपका काम कैसा, अपना ही काम है।"

कुँवर-"नहीं भई, मैं तुम्हें सेंत में इतना कष्ट नहीं देना चाहता। यह सबसे बड़ा सलूक है, जो तुम मेरे साथ कर रहे हो। मैं भी तुम्हारे साथ वही सलूक करना चाहता हूँ, जिसे तुम सबसे बड़ा समझते हो। तुम्हारे के लड़के हैं?"

नायकराम ने सिर झुकाकर कहा-"धर्मावतार, अभी तो ब्याह ही नहीं हुआ।"

कुँवर-"अरे, यह क्या बात है। आधी उम्न गुजर गई। और तुम अभी कुँआरे ही बेठे हो!"

नायकराम-"सरकार, तकदीर के सिवा और क्या कहूँ।"

इन शब्दों में इतनी मार्मतक वेदना भरी हुई थी कि कुँवर साहब पर नायकराम की चिरसंचित अभिलाषा प्रकट हो गई। बोले-"तो तुम घर में अकेले ही रहते हो?"

नायकराम—"हाँ धर्मावतार, भूत की भाँति अकेला ही पड़ा रहता हूँ। आपके अकबाल से दो खंड का मकान है, बाग-बगीचे हैं, गाय-भैंसें हैं; पर रहनेवाला कोई नहीं, भोगनेवाला कोई नहीं। हमारी बिरादरी में उन्हीं का ब्याह होता है, जो बड़े भाग्यवान होते हैं।"

कुँवर—(मुस्किराकर)"तो तुम्हारा विवाह कहीं ठहरा दूँ"

नायकराम—"महाराज, ऐसी तकदीर कहाँ?"

कुँवर—"तकदीर मैं बना दूँगा, मगर यह कैद तो नहीं है कि कन्या बहुत ऊँचे कुल की हो?"

नायकराम—"दीनबंधु, कन्याओं के लिए ऊँचा-नीचा कुल नहीं देखा जाता। [ २८४ ]
कन्या और गऊ तो पवित्र हैं। ब्राह्मण के घर आकर और भी पवित्र हो जाती हैं। फिर जिसने दान लिया, संसार-भर का पाप हजम किया, तो फिर औरत की क्या बात है। जिसका ब्याह नहीं हुआ, सरकार, उसकी जिंदगानी दो कौड़ी की।"

कुँवर-"अच्छी बात है, ईश्वर ने चाहा, तो लौटते ही दूल्हा बनोगे। तुमने पहले कभी चर्चा ही नहीं की।"

नायकराम-“सरकार, यह बात आपसे क्या कहता। अपने हेलियों-मेलियों के सिवा और किसी से चर्चा नहीं की। कहते लाज आती है। जो सुनेगा, वह समझेगा, इसमें कोई-न-कोई ऐब जरूर है। कई बार लबारियों की बातों में आकर सैकड़ों रुपये गँवाये। अब किसी से नहीं कह सकता। भगवान के आसरे बैठा हूँ।"

कुँवर-"तो कल किस गाड़ी से जाओगे?"

नायकराम-"हजुर, डाक से चला जाऊँगा।"

कुँअर-"ईश्वर करें, जल्द लौटो। मेरी आँखें तुम्हारी ओर रहेंगी। यह लो, खर्च के लिए लेते जाओ।"

यह कहकर कुँवर साहब ने मुनीम को बुलाकर उसके कान में कुछ कहा। मुनीम ने नायकराम को अपने साथ आने का इशारा किया और अपनी गद्दी पर बैठकर बोला-'बोलो, कितना हमारा, कितना तुम्हारा?"

नायकराम-"क्या यह भी कोई दक्षिणा है?"

मुनीम-"रकम तो तुम्हारे हाथ जाती है?"

नायकराम-"मेरे हाथ नहीं आती, विनयसिंह के पास भेजी जा रही है। बचा, मुसीबत में भी मालिक से नमकहरामी करते हो! उनके ऊपर तो बिपत पड़ी है और तुम्हें अपना घर भरने की धुन है। तुम-जैसै लालचियों को तो ऐसी जगह मारे, जहाँ पानी न मिले।"

मुनीम ने लजित होकर नोटों का एक पुलिंदा नायकराम को दे दिया। नायकराम ने गिनकर नोटों को कमर में बाँधा और मुनीम से बोले-"मेरी कुछ दक्षिणा दिलवाते हो?"

मुनीम-"कैसी दक्षिणा?"

नायकराम-"नगद रुपयों की। नौकरी प्यारी है कि नहीं? जानते हो, यहाँ से निकाल दिये जाओगे, तो कहीं भीख न मिलेगी। अगर भला चाहते हो, तो पचास पय की गड्डी बाँये हाथ से बढ़ा दो, नहीं तो जाकर कुँवर साहब से जड़े देता हूँ। खड़े-खड़े निकाल दिये जाओमे। जानते हो कि नहीं रानीजी को? निकाले भी जाओगे! और गरदन भी नापी जायगी। ऐसी बेभाव की पड़ेगी कि चाँद गंजी हो जायगी।"

मुनीम—"गुरू, अब यारों ही से यह गीदड़ भभकी! इतने रुपये मिल गये, कौन कुँवर विनयसिंह रसीद लिखे देते हैं।"

नायकराम—"रुपये लाते हो कि नहीं, बोलो चटपट।" [ २८५ ]मुनीम-"गुरू, तुम तो......"

नायकराम-"रुपये लाते हो कि नहीं? यहाँ बातों की फुरसत नहीं। चटपट सोचो। मैं चला। याद रखो, कहीं भीख भी न मिलेगी।"

मुनीम-"तो यहाँ मेरे पास रुपये कहाँ हैं! यह तो सरकारी रकम है।"

नायकराम--"अच्छा, तो हैंडनोट लिख दो।"

मुनीम-"गुरू, जरा इधर देखो, गरीब आदमी हूँ।"

नायकराम-"तुम गरोब हो। बचा, हराम की कौड़ियाँ खाकर मोटे पड़ गये हो, उस पर गरीब बनते हो। लिखो चटपट। कुँवर साहब जरा भी मुरौबत न करेंगे। यों ही मुझे इतने रुपये दिला दिये हैं। बस, मेरे कहने-भर की देर है। गबन का मुकदमा चल जायगा बेटा, समझे? लाओ, बाप की पूजा करो। तुम-जैसे घाघ रोज थोड़े ही फँसते हैं।"

मुनीम ने नायकराम की त्योरियों से भाँप लिया कि यह अब बिना दक्षिणा लिये न छोड़ेगा। चुपके से २५) निकालकर उनके हाथ में रखे और बोला-"पण्डित, अब दया करो, ज्यादा न सताओ।"

नायकराम ने रुपये मुट्ठी में किये और बोले-“ले बचा, अब किसी को न सताना, मैं तुम्हारी टोह में रहूँगा।"

नायकराम चले गये; तो मुनीम ने मन में कहा-“ले जाओ; समझ लेंगे, खैरात किया।"

कुँवर भरतसिंह उस वक्त दीवानखाने के द्वार पर खड़े थे। आज वायु की शीतलता में आनन्द न था। गगन-मंडल में चमकते हुए तारागण व्यंग्य-दृष्टि की भाँति हृदय में चुभते थे। सामने, वृक्षों के कुंज में, विनय की स्मृति-मूर्ति, श्याम, करुण स्वर की भाँति कंपित, धुएँ की भाँति असंबद्ध, यों निकलती हुई मालूम हुई, जैसे किसी सन्तप्त हृदय से हाय की ध्वनि निकलती है। कुँवर साहब कई मिनट तक खड़े रोते रहे। विनय के लिए उनके अन्तःकरण से इस भाँति शुभेच्छाएँ निकल रही थीं, जैसे उषा-काल में बाल-सूर्य की स्निग्ध, मधुर, मन्द, शीतल किरणें निकलती हैं।

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