रंगभूमि/२९

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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मिस्टर विलियम क्लार्क अपने अन्य स्वदेश-बंधुओं की भाँति सुरापान के भक्त थे, पर उसके वशीभूत न थे। वह भारतवासियों की भाँति पीकर छकना न जानते थे। घोड़े पर सवार होना जानते थे, उसे काबू से बाहर न होने देते थे। पर आज सोफी ने जान-बूझ-कर उन्हें मात्रा से अधिक पिला दी थी, बढ़ावा देती जाती थी-वाह! इतनी ही, एक ग्लास तो और लो, अच्छा, यह मेरी खातिर से, वाह! अभी तुमने मेरे स्वास्थ्य का प्याला तो पिया ही नहीं। सोफी ने विनय से कल मिलने का वादा किया था, पर उनकी बातें उसे एक क्षण के लिए भी चैन न लेने देती थीं। वह सोचती थी-"विनय ने आज ये नये बहाने क्यों दूँढ़ निकाले? मैंने उनके लिए धर्म की भी परवा न की, फिर भी वह मुझसे भागने की चेष्टा कर रहे हैं। अब मेरे पास और कौन-सा उपाय है? क्या प्रेम का देवता इतना पाषाण-हृदय है, क्या वह बड़ी-से-बड़ी पूजा पाकर भी प्रसन्न नहीं होता? माता की अप्रसन्नता का इतना भय उन्हें कभी न था। कुछ नहीं, अब उनका प्रेम शिथिल हो गया है। पुरुषों का चित्त चंचल होता है, इसका एक और प्रमाण मिल गया। अपनी अयोग्यता का कथन उनके मुँह से कितना अस्वाभाविक मालूम होता है! वह, जो इतने उदार, इतने विरक्त, इतने सत्यवादी, इतने कर्तव्यनिष्ट हैं, मुझसे कहते हैं, मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ! हाय! वह क्या जानते हैं कि मैं उनसे कितनी भक्ति रखती हूँ, मैं इस योग्य भी नहीं कि उनके चरण स्पर्श करूँ। कितनी पवित्र आत्मा है, कितने उज्ज्वल विचार, कितना अलौकिक आत्मोत्सर्ग! नहीं, वह मुझसे दूर रहने ही के लिए ये बहाने कर रहे हैं। उन्हें भय है कि मैं उनके पैरों की जंजोर बन जाऊँगो, उन्हें कर्तव्य-मार्ग में हटा दूँगी, उनको आदर्श से विमुख कर दूँगी। मैं उनकी इस शंका का कैसे निवारण करूँ?"

दिन-भर इन्हीं विचारों में व्यग्र रहने के बाद संध्या को वह इतनी विकल हुई कि उसने रात ही को विनय से फिर मिलने का निश्चय किया। उसने क्लार्क को शराब पिला- कर इसीलिए अचेत कर दिया था कि उसे किसी प्रकार का संदेह न हो। जेल के अधिकारियों से उसे कोई भय न था। वह इस अवसर को विनय से अनुनय-विनय करने में, उनके प्रेम को जगाने में, उनकी शंकाओं को शांत करने में लगाना चाहती थी; पर उसका यह प्रयास उसी के लिए घातक सिद्ध हुआ। मिस्टर क्लार्क मौके पर पहुँच सकते, तो शायद स्थिति इतनी भयंकर न होती, कम-से-कम सोफी को ये दुर्दिन न देखने पड़ते। क्लार्क अपने प्राणों से उसकी रक्षा करते। सोफी ने उनसे दगा करके अपना ही सर्वनाश कर लिया। अब वह न जाने कहाँ और किस दशा में थी। प्रायः लोगों का विचार था कि विद्रोहियों ने उसकी हत्या कर डाली और उसके शव को आभूषणों के लोम से अपने साथ ले गये। केवल विनयसिंह इस विचार से सहमत न
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थे। उन्हें विश्वास था कि सोफी अभी जिंदा है। विद्रोहियों ने जमानत के तौर पर उसे अपने यहाँ कैद कर रखा है, जिसमें संधि की शर्ते तय करने में सुविधा हो। सोफी रियासत को दबाने के लिए उनके हाथों में एक यंत्र के समान थी।

इस दुर्घटना से रियासत में तहलका मच गया। अधिकारिवर्ग आपको डरते थे, प्रजा आपको। अगर रियासत के कर्मचारियों ही तक बात रहती, तो विशेष चिंता की बात न थी, रियासत खून के बदले खून लेकर संतुष्ट हो जाती, ज्यादा-से-ज्यादा एक की जगह चार का खून कर डालती। पर सोफी के बीच में पड़ जाने से समस्या जटिल हो गई थी, मुआमला रियासत के अधिकार-क्षेत्र के बाहर पहुँच गया था, यहाँ तक कि लोगों को भय था, रियासत पर कोई जवाल न आ जाय। इसलिए अपराधियों की पकड़-धकड़ में असाधारण तत्परता से काम लिया जा रहा था। संदेह-मात्र पर लोग फाँस दिये जाते थे और उनको कठोरतम यातनाएँ दी जाती थीं। साक्षी और प्रमाण की कोई मर्यादा न रह गई थी। इन अपराधियों के भाग्य-निर्णय के लिए एक अलग न्यायालय खोल दिया गया था। उसमें मँजे हुए प्रजा-द्रोहियों की छाँट-छाँटकर नियुक्त किया गया था। यह अदालत किसी को छोड़ना न जानती थी। किसी अभियुक्त को प्राण-दंड देने के लिए एक सिपाही की शहादत काफी थी। सरदार नीलकंठ बिना अन्न- जल, दिन-के-दिन विद्रोहियों की खोज लगाने में व्यस्त रहते थे। यहाँ तक कि हिज हाइनेस महाराजा साहब स्वयं शिमला, दिल्ली और उदयपुर एक किये हुए थे। पुलिस-कर्मचारियों के नाम रोज ताकीदें भेजी जाती थीं। उधर शिमला से भी ताकीदों का ताँता बँधा हुआ था। ताकीदों के बाद धमकियाँ आने लगीं। उसी अनुपात से यहाँ प्रजा पर भी उत्तरोत्तर अत्याचार बढ़ता जाता था। मि० क्लार्क को निश्चय था कि इस विद्रोह में रियासत का हाथ भी अवश्य था। अगर रियासत ने पहले ही से विद्रोहियों का जीवन कठिन कर दिया होता, तो वे कदापि इस भाँति सिर न उठा सकते। रियासत के बड़े-से- बड़े अधिकारी भी उनके सामने जाते काँपते थे। वह दौरे पर निकलते, तो एक अँगरेजी रिसाला साथ ले लेते और इलाके-के-इलाके उजड़वा देते, गाँव-के-गाँव तबाह करवा देते, यहाँ तक कि स्त्रियों पर भी अत्याचार होता था। और, सबसे अधिक खेद की बात यह थी कि रियासत और क्लार्क के इन सारे दुष्कृत्यों में विनय भी मनसा, वाचा, कर्मणा सहयोग करते थे। वास्तव में उन पर प्रमाद का रंग छाया हुआ था। सेवा और उपकार के भाव हृदय से संपूर्णतः मिट गये थे। सोफ़ी और उसके शत्रुओं का पता लगाने का उद्योग, यही एक काम उनके लिए रह गया था। मुझे दुनिया क्या कहती है, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है, माताजी का क्या हाल हुआ, इन बातों की ओर अब उनका ध्यान हो न जाता था। अब तो वह रियासत के दाहने हाथ बने हुए थे। अधिकारी समय-समय पर उन्हें और भी उत्तेजित करते रहते थे। विद्रोहियों के दमन में कोई पुलिस का कर्मचारी, रियासत का कोई नौकर इतना हृदयहीन, विचारहीन, न्यायहीन न बन सकता था! उन की राज-भक्ति का वारापार न था, या यों कहिए कि इस समय वह रियासत के
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कर्णधार बने हुए थे, यहाँ तक कि सरदार नीलकंठ भी उनसे दबते थे। महाराना साहब को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि उनसे सलाह लिये बिना कोई काम न करते। उनके लिए आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी। और मि० क्लार्क से तो उनकी दाँतकाटी रोटी थी। दोनों एक ही बँगले में रहते थे और अंतरंग में सरदार साहब की जगह पर विनय की नियुक्ति की चर्चा की जाने लगी थी।

प्रायः साल-भर तक रियासत में यही आपाधापी रही। जब जसवंतनगर विद्रोहियों से पाक हो गया, अर्थात् वहाँ कोई जवान आदमी न रहा, तो विनय ने स्वयं सोफ़ी का सुराग लगाने के लिए कमर बाँधी। उनकी सहायता के लिए गुप्त पुलिस के कई अनुभवी आदमी तैनात किये गये। चलने की तैयारियाँ होने लगीं। नायकराम अभी तक कमजोर थे। उनके बचने की आशा ही न रही थी; पर जिंदगी बाकी थी, बच गये। उन्होंने विनय को जाने पर तैयार देखा, तो साथ चलने का निश्चय किया। आकर बोले-"भैया, मुझे भी साथ ले चलो, मैं यहाँ अकेला न रहूँगा।"

विनय—"मैं कहीं परदेश थोड़े ही जाता हूँ। सातवें दिन यहाँ आया करूँगा, तुमसे मुलाकात हो जायगी।"

सरदार नीलकंठ वहाँ बैठे हुए थे। बोले-"अभी तुम जाने के लायक नहीं हो।"

नायकराम—“सरदार साहब, आप भी इन्हीं की-सी कहते हैं। इनके साथ न रहूँगा, तो रानीजी को कौन मुँह दिखाऊँगा!"

विनय—"तुम यहाँ ज्यादा आराम से रह सकोगे, तुम्हारे ही भले की कहता हूँ।"

नायकराम—"सरदार साहब, अब आप ही भैया को समझाइए। आदमी एक घड़ी की नहीं चलाता, एक हफ्ता तो बहुत है। फिर मोरचा लेना है वीरपालसिंह से, जिसका लोहा मैं भी मानता हूँ। मेरी कई लाठियाँ उसने ऐसी रोक लीं कि एक भी पड़ जाती, तो काम तमाम हो जाता। पक्का फेकैत है। क्या मेरी जान तुम्हारी जान से प्यारी है?"

नीलकंठ—"हाँ, वीरपाल है तो एक ही शैतान। न जाने कब, किधर से, कितने आदमियों के साथ टूट पड़े। उसके गोइन्दे सारी रियासत में फैले हुए हैं।"

नायकराम—"तो ऐसे जोखिम में कैसे इन का साथ छोड़ दूँ? मालिक की चाकरी में जान भी निकल जाय, तो क्या गम है, और वह जिन्दगानी है किसलिए!"

विनय—"भई, बात यह है कि मैं अपने साथ किसी गैर की जान जोखिम में नहीं डालना चाहता।”

नायकराम—"हाँ, जब आप मुझे गैर समझते हैं, तो दूसरी बात है। हाँ, गैर तो हूँ ही; गैर न होता, तो रानीजी के इशारे पर यहाँ कैसे दौड़ा आता, जेल में जाकर कैसे बाहर निकाल लाता और साल भर तक खाट क्यों सेता? सरदार साहब, हजूर ही अब इन्साफ कीजिए। मैं गैर हूँ? जिसके लिए जान हथेली पर लिये फिरता हूँ, वही गैर समझता है।" [ ३२९ ]नीलकंठ—"विनयसिंह, यह आपका अन्याय है। आप इन्हें गैर क्यों कहते हैं? अपने हितैषियों को गैर कहने से उन्हें दुःख होता है।"

नायकराम—"बस, सरदार साहब, हजूर ने लाख रुपये की बात कह दी। पुलिस के आदमी गैर नहीं हैं और मैं गैर हूँ!"

विनय—"अगर गैर कहने से तुम्हें दुःख होता है, तो मैं यह शब्द वापस लेता हूँ। मैंने गैर केवल इस विचार से कहा था कि तुम्हारे संबन्ध में मुझे घरवालों को जवाब देना पड़ेगा। पुलिसवालों के लिए तो कोई मुझसे जवाब न मागेगा।"

नायकराम—“सरदार साहब, अब आप ही इसका जवाब दीजिए। यह मैं कैसे कहूँ कि मुझे कुछ हो गया, तो कुँवर साहब कुछ पूछ-ताछ न करेंगे, उनका भेजा हुआ आया ही हूँ। भैया को जवाबदेही तो जरूर करनी पड़ेगी।"

नीलकंठ—"यह माना कि तुम उनके भेजे हुए आये हो; मगर तुम इतने अबोध नहीं हो कि तुम्हारे हानि-लाभ की जिम्मेदारी विनयसिंह के सिर हो। तुम अपना अच्छा-बुरा आप सोच सकते हो। क्या कुँवर साहब इतना भी न समझेंगे।"

नायकराम—“अब कहिए धर्मावतार, अब तो मुझे ले चलना पड़ेगा, सरदार साहब ने मेरी डिग्री कर दी। मैं कोई नाबालक नहीं हूँ कि सरकार के सामने आपको जवाब देना पड़े।"

अन्त को विनय ने नायकराम को साथ ले चलना स्वीकार किया और दो-तीन दिन पश्चात् दस आदमियों की एक टोली, भेष बदलकर, सब तरह लैस होकर, टोहिये कुत्तों को साथ लिये, दुर्गम पर्वतों में दाखिल हुई। पहाड़ों से आग निकल रही थी। बहुधा कोसों सक पानी को एक बूंद भी न मिलती, रास्ते पथरीले, वृक्षों का पता नहीं, दोपहर को लोग गुफाओं में विश्राम करते थे, रात को बस्ती से अलग किसी चौपाल या मन्दिर में पड़ रहते। दो-दो आदमियों का संग था। चौबीस घण्टों में एक बार सब आदमियों को एक स्थान पर जमा होना पड़ता था। दूसरे दिन का कार्यक्रम निश्चय करके लोग फिर अलग-अलग हो जाते थे। नायकराम और विनयसिंह की एक जोड़ी थी। नायकराम अभी तक चलने-फिरने में कमजोर था, पहाड़ों की चढ़ाई में थककर बैठ जाता, भोजन की मात्रा भी बहुत कम हो गई थी, दुर्बल इतना हो गया था कि पहचानना कठिन था, किन्तु विनयसिंह पर प्राणों को न्यौछावर करने को तैयार रहता था। यह जानता था कि ग्रामीणों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, विविध स्वभाव और श्रेणी के मनुष्यों से परिचित था। जिस गाँव में जा पहुँचता, धूम मच जाती कि काशी के पण्डाजी पधारे हैं। भक्तजन जमा हो जाते, नाई-कहाँर आ पहुँचते, दूध-घी, फल-फूल, शाक-भाजी आदि की रेल-पेल हो जाती। किसी मंदिर के चबूतरे पर खाट पड़ जाती, बाल-वृद्ध, नर-नारी बेधड़क पण्डाजी के पास आते और यथाशक्ति दक्षिणा देते। पण्डाजी बातों-बातों में उनसे गाँव का सारा समाचार पूछ लेते। विनयसिंह को अब ज्ञात हुआ कि नायकराम साथ [ ३३० ]
न होते, तो मुझे कितने कष्ट झेलने पड़ते। वह स्वभाव के मितभाषी, संकोचशील, गंभीर आदमी थे, उनमें वह शासन-बुद्धि न थी, जो जनता पर आतंक जमा लेती है, न वह मधुर वाणी, जो मन को मोहती है। ऐसी दशा में नायकराम का संग उनके लिए दैवी सहायता से कम न था।

रास्ते में कभी-कभी हिंसक जंतुओं से मुठभेड़ हो जाती। ऐसे अवसरों पर नायकराम सीनासिपर हो जाता था। एक दिन चलते-चलते दोपहर हो गया। दूर तक आबादी का कोई निशान न था। धूप की प्रखरता से एक-एक पग चलना मुश्किल था। कोई कुआँ या तालाब भी नजर न आता था। सहसा एक ऊँचा टीकरा दिखाई दिया। नायकराम उस पर चढ़ गया कि शायद ऊपर से कोई गाँव या कुआँ दिखाई दे। उसने शिखर पर पहुँचकर इधर-उधर निगाहें दौड़ाई, तो दूर पर एक आदमी जाता हुआ दिखाई दिया। उसके हाथ में एक लकड़ी और पीठ पर एक थैली थी। कोई बिना वर्दी का सिपाही मालूम होता था। नायकराम ने उसे कई बार जोर-जोर से पुकारा, तो उसने गरदन फेरकर -देखा। नायकराम उसे पहचान गये। यह विनयसिंह के साथ का एक स्वयंसेवक था। उसे इशारे से बुलाया और टोले से उतरकर उसके पास आये। इस सेवक का नाम इंद्रदत्त था।

इंद्रदत्त ने पूछा— "तुम यहाँ कैसे आ फँसे जी १ तुम्हारे कुँवर कह हैं?"

नायकराम—“पहले यह बताओ कि यहाँ कोई गाँव भी है, कहीं दाना-पानी मिल सकता है?"

इंद्रदत्त—"जिसके रामधनी, उसे कौन कमी! क्या राजदरबार ने भोजन की रसद नहीं लगाई? तेली से ब्याह करके तेल का रोना!”

नायकराम—"क्या करूँ भाई, बुरा फँस गया हूँ, न रहते बनता है, न जाते।”

इंद्रदत्त—"उनके साथ तुम भी अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो। कहाँ हैं आजकल?"

नायकराम—"क्या करोगे?"

इंद्रदत्त—"कुछ नहीं, जरा मिलना चाहता था।"

नायकराम—“हैं तो वह भी। यहीं भेंट हो जायगी। थैली में कुछ है?"यों बातें करते हुए दोनों विनयसिंह के पास पहुँचे। विनय ने इंद्रदत्त को देखा, तो शत्रु-भाव से बोला—"इंद्रदत्त, तुम कहाँ? घर क्यों नहीं गये?"

इंद्रदत्त—"आपसे मिलने की बड़ी आकांक्षा थी। आपसे कितनी ही बातें करनी हैं। पहले यह बतलाइए कि आपने यह चोला क्यों बदला?"

नायकराम—“पहले तुम अपनी थैली में से कुछ निकालो, फिर बातें होंगी।"

विनयसिंह अपनी कायापलट का समर्थन करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे। बोले—"इसलिए कि मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। मैं पहले समझता था कि प्रजा बड़ी सहनशील और शांतिप्रिय है। अब ज्ञात हुआ कि वह नीच और कुटिल है। उसे
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ज्यों ही अपनी शक्ति का कुछ ज्ञान हो जाता है, वह उसका दुरुपयोग करने लगती है। जो प्राणी शक्ति का संचार होते ही उन्मत्त हो जाय, उसका अशक्त, दलित रहना ही अच्छा है। गत विद्रोह इसका ज्वलंत प्रमाण है। ऐसी दशा में मैंने जो कुछ किया और कर रहा हूँ, वह सर्वथा न्यायसंगत और स्वाभाविक है।"

इंद्रदत्त-"क्या आपके विचार में प्रजा को चाहिए कि उस पर कितने ही अत्याचार किये जायें, वह मुँह न खोले?"

विनय-"हाँ, वर्तमान दशा में यही उसका धर्म है।"

इंद्रदत्त-"उसके नेताओं को भी यही आदर्श उसके सामने रखना चाहिए?"

विनय-"अवश्य!"

इंद्रदत्त-"तो जब आपने जनता को विद्रोह के लिए तैयार देखा, तो उसके सम्मुख खड़े होकर धैर्य और शांति का उपदेश क्यों नहीं दिया?"

विनय-"व्यर्थ था, उस वक्त कोई मेरी न सुनता।"

इंद्रदत्त-“अगर न सुनता, तो क्या आपका यह धर्म नहीं था कि दोनों दलों के बीच में खड़े होकर पहले खुद गोली का निशाना बनते?"

विनय-"मैं अपने जीवन को इतना तुच्छ नहीं समझता।"

इंद्रदत्त-"जो जीवन सेवा और परोपकार के लिए समर्पण हो चुका हो, उसके लिए इससे उत्तम और कौन मृत्यु हो सकती थी?"

विनय-"आग में कूदने का नाम सेवा नहीं है। उसे दमन करना ही सेवा है।"

इंद्रदत्त-"अगर वह सेवा नहीं है, तो दीन जनता की, अपनी कामुकता पर, आहुति देना भी सेवा नहीं है। बहुत संभव था कि सोफिया ने अपनी दलीलों से वीरपालसिंह को निरुत्तर कर दिया होता। किंतु आपने विषय के वशीभूत होकर पिस्तौल का पहला वार किया, और इसलिए इस हत्याकांड का सारा भार आपकी ही गरदन पर है और जल्द या देर में आपको इसका प्रायश्चित्त करना पड़ेगा। आप जानते हैं, प्रजा को आपके नाम से कितनी घृणा है? अगर कोई आदमी आपको यहाँ देखकर पहचान जाय, तो उसका पहला काम यह होगा कि आपके ऊपर तीर चलाये। आपने यहाँ की जनता के साथ, अपने सहयोगियों के साथ, अपनी जाति के साथ और सबसे अधिक अपनी पूज्य माता के साथ जो कुटिल विश्वासघात किया है, उसका कलंक कभी आपके माथे से न मिटेगा। कदाचित् रानीजी आपको देखें, तो अपने हाथों से आपकी गरदन पर कटार चला दें। आपके जीवन से मुझे यह अनुभव हुआ कि मनुष्य का कितना नैतिक पतन हो सकता है।"

विनय ने कुछ नम्र होकर कहा-"इंद्रदत्त, अगर तुम समझते हो कि मैंने स्वार्थवश अधिकारियों की सहायता की, तो तुम मुझ पर घोर अन्याय कर रहे हो। प्रजा का साथ देने में जितनी आसानी से यश प्राप्त होता है, उससे कहीं अधिक आसानी से अधिकारियों का साथ देने में अपयश मिलता है। यह मैं जानता था। किंतु सेवक का धर्म
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यश और अपयश का विचार करना नहीं है, उसका धर्म सन्मार्ग पर चलना है। मैंने सेवा का व्रत धारण किया है, और ईश्वर न करे कि वह दिन देखने के लिए जीवित रहूँ, जब मेरे सेवा-भाव में स्वार्थ का समावेश हो। पर इसका यह आशय नहीं है कि मैं जनता का अनौचित्य देखकर भी उसका समर्थन करूँ। मेरा व्रत मेरे विवेक की हत्या नहीं कर सकता।"

इंद्रदत्त-"कम-से-कम इतना तो आप मानते ही हैं कि स्वहित के लिए जनता का अहित न करना चाहिए!"

विनय-"जो प्राणी इतना भी न माने, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।"

इंद्रदत्त-"क्या आपने केवल सोफिया के लिए रियासत की समस्त प्रजा को विपत्ति में नहीं डाला और अब भी उसका सर्वनाश करने की धुन में नहीं हैं?"

विनय-"तुम मुझ पर यह मिथ्या दोषारोपण करते हो। मैं जनता के लिए सत्य से मुँह नहीं मोड़ सकता। सत्य मुझे देश और जाति, दोनों से प्रिय है। जब तक मैं समझता था कि प्रजा सत्य-पक्ष पर है, मैं उसकी रक्षा करता था। जब मुझे विदित हुआ कि उसने सत्य से मुँह मोड़ लिया, मैंने भी उससे मुँह मोड़ लिया। मुझे रियासत के अधिकारियों से कोई आंतरिक विरोध नहीं है। मैं वह आदमी नहीं हूँ कि हुक्काम को न्याय पर देखकर भी अनायास उनसे वैर करूँ, और न मुझसे यही हो सकता है कि प्रजा को विद्रोह और दुराग्रह पर तत्पर देखकर भी उसकी हिमायत करूँ। अगर कोई आदमी मिस सोफिया की मोटर के नीचे दब गया, तो यह एक आकस्मिक घटना थी, सोफिया ने जान-बूझकर तो उस पर से मोटर को चला नहीं दिया। ऐसी दशा में जनता का उस भाँति उत्तेजित हो जाना इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण था कि वह अधिकारियों को बल-पूर्वक अपने वश में करना चाहती है। आप सोफिया के प्रति मेरे आचरण पर आक्षेप करके मुझ पर ही अन्याय नहीं कर रहे हैं, वरन् अपनी आत्मा को भी कलंकित कर रहे हैं।"

इंद्रदत्त-"ये हजारों आदमी निरपराध क्यों मारे गये? क्या यह भी प्रजा ही का कसूर था?"

विनय-"यदि आपको अधिकारियों की कठिनाइयों का कुछ अनुभव होता, तो आप मुझसे कदापि यह प्रश्न न करते। इसके लिए आप क्षमा के पात्र हैं। साल-भर पहले जब अधिकारियों से मेरा कोई संबंध न था, कदाचित् मैं भी ऐसा ही समझता था। किंतु अब मुझे अनुभव हुआ है कि उन्हें ऐसे अवसरों पर न्याय का पालन करने में कितनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं। मैं यह स्वीकार नहीं करता कि अधिकार पाते ही मनुष्य का रूपांतर हो जाता है। मनुष्य स्वभावतः न्याय प्रिय होता है। उसे किसी को बरबस कष्ट देने से आनंद नहीं मिलता, बल्कि उतना ही दुःख और क्षोभ होता है, जितना किसी प्रजा-सेवक को। अंतर केवल इतना ही है कि प्रजा-सेवक किसी दूसरे पर दोषारोपण करके अपने को संतुष्ट कर लेता है, यहीं उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है, अधिकारियों
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को यह अवसर प्राप्त नहीं होता। वे आप अपने आचरण की सफाई नहीं पेश कर सकते। आपको खबर नहीं कि हुक्काम ने अपराधियों को खोज निकालने में कितनी दिक्कतें उठाई। प्रजा अपराधियों को छिपा लेती थी और राजनीति के किसी सिद्धांत का उस पर कोई असर न होता था अतएव अपराधियों के साथ निरपराधियों का फँस जाना संभव ही था। फिर आपको मालूम नहीं है कि इस विद्रोह ने रियासत को कितने महान् संकट में डाल दिया है। अँगरेजी सरकार को संदेह है कि दरबार ने ही यह सारा षड़यंत्र रचा था। अब दरबार का कर्तव्य है कि वह अपने को इस आक्षेप से मुक्त करे, और जब तक मिस सोफिया का सुराग नहीं मिल जाता, रियासत की स्थिति अत्यंत चिंतामय है। भारतीय होने के नाते मेरा धर्म है कि रियासत के मुख पर से इन कलिमा को मिटा दूँ; चाहे इसके लिए मुझे कितना ही अपमान, कितना ही लांछन, कितना ही कटु वचन क्यों न सहना पड़े, चाहे मेरे प्राण ही क्यों न चले जायँ। जाति-सेवक की अवस्था कोई स्थायी रूप नहीं रखती, परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है। कल मैं रियासत का जानी दुश्मन था, आज उसका अनन्य भक्त हूँ और इसके लिए मुझे लेश-मात्र भी लजा नहीं।"

इंद्रदत्त—"ईश्वर ने आपको तर्क-बुद्धि दी है और उससे आप दिन को रात सिद्ध कर सकते हैं; किंतु आपकी कोई उक्ति प्रजा के दिल से इस खपाल को नहीं दूर कर सकती कि आपने उसके साथ दगा की, ओर इस विश्वासघात की जो यंत्रणा आपको सोफिया के हाथों मिलेगी, उससे आपको आँखें खुल जायँगी।”

विनय ने इस भाँति लपककर इंद्रदत्त का हाथ पकड़ लिया, मानों वह भागा जा रहा हो और बोले—"तुम्हें सोफिया का पता मालूम है?"

इंद्रदत्त—"नहीं।

विनय—"झूठ बोलते हो।'

इंद्रदत्त—"हो सकता है।"

विनय—"तुम्हें बताना पड़ेगा।"

इंद्रदत्त—"आपको अब मुझसे यह पूछने का अधिकार नहीं रहा। आपका या दरबार का मतलब पूरा करने के लिए मैं दूसरों की जान संकट में नहीं डालना चाहता। आपने एक बार विश्वासघात किया है और फिर कर सकते हैं।"

नायकराम—"बता देंगे, आप क्यों इतना घबराये जाते हैं! इतना तो बता ही दो

भैया इंद्रदत्त, कि मेम साहब कुशल से हैं न?"

इंद्रदत्त—"हाँ, बहुत कुशल से हैं और प्रसन्न हैं। कम-से-कम विनयसिंह के लिए कभी विकल नहीं होतीं। सच पूछो, तो उन्हें अब इनके नाम से घृणा हो गई है।"

विनय—"इंद्रदत्त, हम और तुम बचपन के मित्र हैं। तुम्हें जरूरत पड़े, तो मैं अपने प्राण तक दे दूं; पर तुम इतनी ज़रा-सी बात बतलाने से इनकार कर रहे हो। यही दोस्ती है? [ ३३४ ]इंद्रदत्त-"दोस्ती के पीछे दूसरों की जान क्यों विपत्ति में डालूँ?"

विनय-"मैं माता के चरणों की कसम खाकर कहता हूँ, मैं इसे गुप्त रखूँगा। मैं केवल एक बार सोफिया से मिलना चाहता हूँ।"

इंद्रदत्त-"काठ की हाँड़ी बार-बार नहीं चढ़ती।"

विनय-"इंद्र, मैं जीवन-पर्यंत तुम्हारा उपकार मानूँगा।"

इंद्रदत्त-"जी नहीं, बिल्ली बख्शे, मुरगा बाँड़ा ही अच्छा।"

विनय-"मुझसे जो कमम चाहे, ले लो।"

इंद्रदत्त-"जिस बात के बतलाने का मुझे अधिकार नहीं; उसे बतलाने के लिए आप मुझसे व्यर्थ आग्रह कर रहे हैं।"

विनय-"तुम पाषाण-हृदय हो।"

इंद्रदत्त-"मैं उससे भी कठोर हूँ। मुझे जितना चाहिए, कोस लीजिए, पर सोफी के विषय में मुझसे कुछ न पूछिए।"

नायकराम-"हाँ भैया, बस यही टेक चली जाय। मरदों का यही काम है। दो टूक कह दिया कि जानते हैं, लेकिन बतलायेंगे नहीं, चाहे किसी को भला लगे या बुरा।”

इंद्रदत्त-"अब तो कलई खुल गई न? क्यों कुँवर साहब महाराज, अब तो बढ़-बढ़कर बातें न करोगे?"

विनय-"इंद्रदत्त, जले पर नमक न छिड़को। जो बात पूछता हूँ, बतला दो; नहीं तो मेरी जान को रोना पड़ेगा। तुम्हारी जितनी खुशामद कर रहा हूँ, उतनी आज तक किसी की नहीं की थी; पर तुम्हारे ऊपर जरा भी असर नहीं होता।

इंद्रदत्त-"मैं एक बार कह चुका कि मुझे जिस बात के बतलाने का अधिकार नहीं, वह किसी तरह न बताऊँगा। बस, इस विषय में तुम्हारा आग्रह करना व्यर्थ है। यह लो, अपनी राह जाता हूँ। तुम्हें जहाँ जाना हो, जाओ।"

नायकराम-“सेठ जी, भागो मत, मिस साहब का पता बताये विना न जाने पाओगे।"

इंद्रदत्त-"क्या जबरदस्ती पूछोगे?"

नायकराम-"हाँ, जबरदस्ती पूछू गा, बाम्हन होकर तुमसे भिक्षा माँग रहा हूँ और तुम इनकार करते हो, इसी पर धर्मात्मा, सेवक, चाकर बनते हो! यह समझ लो, बाम्हन भीख लिये बिना द्वार से नहीं जाता, नहीं पाता, तो धरना देकर बैठ जाता है, और फिर ले ही कर उठता है।"

इंद्रदत्त-"मुझसे ये पंडई चालें न चलो, समझे! ऐसे भीख देनेवाले कोई और होंगे।"

नायकराम-"क्यों बाप-दादों का नाम डुबाते हो भैया, कहता हूँ, यह भीख दिये बिना अब तुम्हारा गला नहीं छूट सकता।"

यह कहते हुए नायकराम चट जमीन पर बैठ गये, इंद्रदत्त के दोनों पैर पकड़ लिये,
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उन पर अपना सिर रख दिया और बोले-'अब तुम्हारा जो धरम हो, वह करो। मैं मूरख हूँ, गँवार हूँ, पर बाम्हन हूँ। तुम सामरथी पुरुष हो। जैसा उचित समझो, करो।

इंद्रदत्त अब भी न पसीजे, अपने पैरों को छुड़ाकर चले जाने की चेष्टा की, पर उनके मुख से स्पष्ट विदित हो रहा था कि इस समय बड़े असमंजस में पड़े हुए हैं, और इस दीनता की उपेक्षा करते हुए अत्यंत लजित हैं। वह बलिष्ठ पुरुष थे, स्वयंसेवकों में कोई उनका-सा दीर्घकाय युवक न था। नायकराम अभी कमजोर थे। निकट था कि इंद्रदत्त अपने पैरों को छुड़ाकर निकल जाय कि नायकराम ने विनय से कहा-"भैया, खड़े क्या देखते हो? पकड़ लो इनके पाँव, देखू, यह कैसे नहीं बताते।"

विनयसिंह कोई स्वार्थ सिद्ध करने के लिए खुशामद करना भी अनुचित समझते थे, पाँव पर गिरने की बात ही क्या। किसी संत-महात्मा के सामने दीन भाव प्रकट करने से उन्हें संकोच न था, अगर उससे हार्दिक श्रद्धा हो। केवल अपना काम निकालने के लिए उन्होंने सिर झुकाना सीखा ही न था। पर जब उन्होंने नायकराम को इंद्रदत्त के पैरों पर गिरते देखा, तो आत्मसम्मान के लिए कोई स्थान न रहा। सोचा, जब मेरी खातिर नायकराम ब्राह्मण होकर यह अपमान सहन कर रहा है, तो मेरा दूर खड़े शान की लेना मुनासिब नहीं। यद्यपि एक क्षण पहले इंद्रदत्त से उन्होंने अविनय-पूर्ण बातें की थीं और उनकी चिरौरी करते हुए लज्जा आती थी, पर सोफ़ी का समाचार भी इसके सिवा अन्य किसी उपाय से मिलता हुआ नहीं नजर आता था। उन्होंने आत्मसम्मान को भी सोफी पर समर्पण कर दिया। मेरे पास यही एक चीज थी, जिसे मैंने अभी तक तेरे हाथ में न दिया था। आज वह भी तेरे हवाले करता हूँ। आत्मा अब भी सिर न झुकाना चाहती थी, पर कमर झुक गई। एक पल में उनके हाथ इंद्रदत्त के पैरों के पास जा पहुँचे। इंद्रदत्त ने तुरंत पैर खींच लिये और विनय को उठाने के चेष्टा करते हुए बोले-"विनय, यह क्या अनर्थ करते हो, हैं, हैं!"

विनय को दशा उस सेवक की-सी थी, जिसे उसके स्वामी ने थूककर चाटने का दंड दिया हो। अपनी अधोगति पर रोना आ गया।

नायकराम ने इंद्रदत्त से कहा-“भैया, मुझे भिच्छुक समझकर दुत्कार सकते थे; लेकिन अब कहो!"

इंद्रदत्त संकोच में पड़कर बोले-"विनय, क्यों मुझे इतना लजित कर रहे हो! मैं वचन दे चुका हूँ कि किसी से यह भेद न बताऊँगा।"

नायकराम-"तुमसे कोई जबरजस्ती तो नहीं कर रहा है। जो अपना धरम समझो, वह करो, तुम आप बुद्धिमान हो।”

इंद्रदत्त ने खिन्न होकर कहा-"जबरदस्ती नहीं, तो और क्या है! गस्ज बावली होती है, पर आज मालूम हुआ कि वह अंधी भी होती है। विनय, व्यर्थ ही अपनी आत्मा पर यह अन्याय कर रहे हो। भले आदमी, क्या आत्मगौरव भी घोलकर पी
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गये? तुम्हें उचित था कि प्राण देकर भी आत्मा की रक्षा करते। अब तुम्हें ज्ञात हुआ होगा कि स्वार्थ-कामना मनुष्य को कितना पतित कर देती है। मैं जानता हूँ, एक वर्ष पहले सारा संसार मिलकर भी तुम्हारा सिर न झुका सकता था, आज तुम्हारा यह नैतिक पतन हो रहा है! अब उठो, मुझे पाप में न डुबाओ।"

विनय को इतना क्रोध आया कि इसके पैरों को खींच लूँ और छाती पर चढ़ बैठू। दुष्ट इस दशा में भी डंक मारने से बाज नहीं आता। पर यह विचार करके कि अब तो जो कुछ होना था, हो चुका, ग्लानि-भाव से बोले—"इंद्रदत्त, तुम मुझे जितना पामर समझते हो, उतना नहीं हूँ; पर सोफी के लिए मैं सब कुछ कर सकता हूँ। मेरा आत्मसम्मान, मेरी बुद्धि, मेरा पौरुष, मेरा धर्म सब कुछ प्रेम के हवन कुंड में स्वाहा हो गया। अगर तुम्हें अब भी मुझ पर दया न आये, तो मेरी कमर से पिस्तौल निकालकर एक निशाने से काम तमाम कर दो।"

यह कहते कहते विनय की आँखों में आँसू भर आये। इंद्रदत्त ने उन्हें उठाकर कंठ से लगा लिया और करुण भाव से बोले-"विनय, क्षमा करो, यद्यपि तुमने जाति का अहित किया है, पर मैं जानता हूँ कि तुमने वही किया, जो कदाचित् उस स्थिति में मैं या कोई भी अन्य प्राणी करता। मुझे तुम्हारा तिरस्कार करने का अधिकार नहीं। तुमने अगर प्रेम के लिए आत्ममर्यादा को तिलांजलि दे दी, तो मैं भी मैत्री और सौजन्य के लिए अपने वचन से विमुख हो जाऊँगा। जो तुम चाहते हो, वह मैं बता दूँगा। पर इससे तुम्हें कोई लाभ न होगा; क्योंकि मिस सोफिया की दृष्टि में तुम गिर गये हो, उसे अब तुम्हारे नाम से घृणा होती है। उससे मिलकर तुम्हें दुःख होगा।”

नायकराम—“भैया, तुम अपनी-सी कर दो, मिस साहब को मनाना-जनाना इनका काम है। आसिक लोग बड़े चलते-पुरजे होते हैं, छटे हुए सोहदे, देखने ही को सीधे होते हैं। मासूक को चुटकी बजाते अपना कर लेते हैं। जरा आँखों में पानी भरकर देखा, और मासूक पानी हुआ।

इंद्रदत्त—“मिस सोफिया मुझे कभी क्षमा न करेंगी; लेकिन अब उनका-सा हृदय कहाँ से लाऊँ। हाँ, एक बात बतला दो। इसका उत्तर पाये बिना मैं कुछ न बता सकूँगा।"

विनय—"पूछो।"

इंद्रदत्त—"तुम्हें वहाँ अकेले जाना पड़ेगा। वचन दो कि खुफिया पुलिस का कोई आदमी तुम्हारे साथ न होगा।"

विनय—"इससे तुम निश्चित रहो।"

इंद्रदत्त—"अगर तुम पुलिस के साथ गये, तो सोफिया की लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।"

विनय—"मैं ऐसी मूर्खता करूँगा ही क्यों!"

इंद्रदत्त—“यह समझ लो कि मैं सोफी का पता बताकर उन लोगों के प्राण तुम्हारे हाथों में रखे देता हूँ, जिनकी खोज में तुमने दाना-पानी हराम कर रखा है।" [ ३३७ ]नायकराम—"भैया, चाहे अपनी जान निकल जाय, उन पर कोई रेप न आने पायेगा। लेकिन यह भी बता दो कि वहाँ हम लोगों की जान का जोखम तो नहीं है?"

इंद्रदत्त—(विनय से) "अगर वे लोग तुमसे वैर साधना चाहते, तो अब तक तुम लोग जीते न रहते। रियासत की समस्त शक्ति भी तुम्हारी रक्षा न कर सकती। उन लोगों को तुम्हारो एक-एक बात की खबर मिलती रहती है। यह समझ लो कि तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है। इतने प्रजा-द्रोह के बाद अगर तुम अभी जिंदा हो, तो यह मिस सोफिया की कृपा है। अगर मिस सोफिया की तुमसे मिलने की इच्छा होती, तो इससे ज्यादा आसान कोई काम न था, लेकिन उनकी तो यह हालत है कि तुम्हारे नाम ही से चिढ़ती हैं। अगर अब भी उनसे मिलने की अभिलाषा हो, तो मेरे साथ आओ।”

विनय सिंह को अपनी विचार-परिवर्तक शक्ति पर विश्वास था। इसकी उन्हें लेश-मात्र भी शंका न थी कि सोफी मुझसे बातचीत न करेगी। हाँ, खेद इस बात का था कि मैंने सोफी ही के लिए अधिकारियों को जो सहायता दी, उसका परिणाम यह हुआ। काश मुझे पहले ही मालूम हो जाता कि सोफी मेरी नीति को पसंद नहीं करती, वह मित्रों के हाथ में है और सुखी है, तो मैं यह अनीति करता ही क्यों? मुझे प्रजा से कोई वैर तो था नहीं। सोफ़ी पर भी तो इसकी कुछ-न-कुछ जिमेदारी है। वह मेरी मनोवृत्तियों को जानती थी। क्या वह एक पत्र भेजकर मुझे अपनी स्थिति की सूचना न दे सकती थी! जब उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे अब मुझ पर त्यौरियाँ चढ़ाने का क्या अधिकार है?”

यह सोचते वह इंद्रदत्त के पीछे-पीछे चलने लगे। भूख-प्यास हवा हो गई।