सामग्री पर जाएँ

रंगभूमि/२८

विकिस्रोत से
रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३१५ से – ३२५ तक

 

[२८]

सोफिया के चले जाने के बाद विनय के विचार-स्थल में भाँति-भाँति की शंकाएँ होने लगी। मन एक भीरु शत्रु है, जो.सदैव पीठ के पीछे से वार करता है। जब तक सोफ़ी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ। सोफी के पीठ फेरते ही उसने ताल ठोकनी शुरू की-"न जाने मेरी बातों का सोफिया पर क्या असर हुआ। कहीं वह यह तो नहीं समझ गई कि मैंने जीवन-पर्यंत के लिए सेवा-व्रत धारण कर लिया है। मैं भी कैसा मंद-बुद्धि हूँ, उसे माताजी की अप्रसन्नता का भय दिलाने लगा, जैसे भोले-भाले बच्चों की आदत होती है कि प्रत्येक बात पर अम्माँ से कह देने की धमकी देते हैं। जब वह मेरे लिए इतना आत्मबलिदान कर रही है, यहाँ तक कि धर्म के पवित्र बंधन को भी तोड़ देने पर तैयार हैं, तो उसके सामने मेरा सेवा-व्रत और कर्तव्य का ढोंग रचना संपूर्णतः नीति-विरुद्ध है। मुझे वह मन में कितना निष्ठुर, कितना भीरु, कितना हृदय-शून्य समझ रही होगी! माना कि परोपकार आदर्श जीवन है, लेकिन स्वार्थ भी तो सर्वथा त्याज्य नहीं। बड़े-से-बड़ा जाति-भक्त भी स्वार्थ ही की ओर झुकता है। स्वार्थ का एक भाग मिटा देना जाति-सेवा के लिए काफी है। यहा प्राकृतिक नियम है। आह! मैंने अपने पाँव में आप कुल्हाड़ी मारी। वह कितनी गर्वशील है, फिर भी मेरे लिए उसने क्या-क्या अपमान न सहे! मेरी माता ने उसका जितना अपमान किया, उतना कदाचित् उसकी माता ने किया होता, तो वह उसका मुँह न देखती। मुझे आखिर सूझी क्या! निस्संदेह मैं उसके योग्य नहीं हूँ, उसकी विशाल मनस्विता मुझे भयभीत करती है; पर क्या मेरी भक्ति मेरी त्रुटियों की पूर्ति नहीं कर सकती? 'जहाँगीर-जैसा आत्म-सेवी, मंद-बुद्धि पुरुष अगर नूरजहाँ को प्रसन्न रख सकता है, तो क्या मैं अपने आत्म-समर्पण से, अपने अनुराग से, उसे संतुष्ट नहीं कर सकता? कहीं वह मेरी शिथिलता से अप्रसन्न होकर मुझसे सदा के लिए विरक्त न हो जाय! यदि मेरे सेवा-व्रत, मातृभक्ति और संकोच का यह परिणाम हुआ, तो यह जीवन दुस्सह हो जायगा।

“आह! कितना अनुपम सौंदर्य है! उच्च शिक्षा और विचार से मुख पर कैसी आध्यात्मिक गंभीरता आ गई,है। मालूम होता है, कोई देवी इंद्रलोक से उतर आई हैं, मानों बहिर्जगत् से उसका कोई संबन्ध ही नहीं, अंतर्जगत् ही में विचरती है। विचार-शीलता स्वाभाविक सौंदर्य को कितना मधुर बना देती है! विचारोत्कर्ष ही सौंदर्य का वास्तविक शृंगार है। वस्त्राभूषणों से तो उसकी प्राकृतिक शोभा ही नष्ट हो जाती है, वह कृत्रिम और वासनामय हो जाता है। Vulgar शब्द ही इस आशय को व्यक्त कर सकता है। हास्य और मुस्कान में जो अंतर है, धूप और चाँदनी में जो अंतर है, संगीत और काव्य में जो अंतर है, वही अंतर अलंकृत और परिष्कृत सौंदर्य में है। उसकी मुस्कान कितनी मनोहर है, जैसे वसंत की शीतल वायु, या किसो कवि की अछूती सूझ।
यहाँ किसी रूपमयी सुंदरी से बातें करने लगो, तो चित्त मलिन हो जाता है, या तो शीन-काफ ठीक नहीं, या लिंग-भेद का ज्ञान नहीं। सोफी के लिए व्रत, नियम, सिद्धांत की उपेक्षा करना क्षम्य ही नहीं, श्रेयस्कर भी है। यह मेरे लिए, जीवन और मरण का प्रश्न है। उसके बगैर मेरा जीवन एक सूखे वृक्ष की भाँति होगा, जिसे जल की अविरत वर्षा भी पल्लवित नहीं कर सकती। मेरे जीवन की उपयोगिता, सार्थकता ही लुप्त हो जायगी। जीवन रहेगा, पर आनंद-विहीन, प्रेम-विहीन, उद्देश्य विहीन!"

विनय इन्हीं विचारों में डुबा हुआ था कि दारोगाजी आकर बैठ गये और बोले-"मालूम होता है, अब यह बला सिर से जल्द ही टलेगी। एजेंट साहब यहाँ से कूच करनेवाले हैं। सरदार साहब ने शहर में डौंडी फिरवा दी है कि अब किसी को कस्बे से बाहर जाने की जरूरत नहीं। मालूम होता है, मेम साहब ने यह हुक्म दिया है।"

विनय-"मेम साहब बड़ी विचारशील महिला हैं।"

दारोगा-"यह बहुत ही अच्छा हुआ, नहीं तो अवश्य उपद्रव हो जाता और सैकड़ों जानें जातीं।" जैसा तुमने कहा, मेम साहब बड़ी विचारशील हैं; हालाँकि उम्र अभी कुछ नहीं।"

विनय-"आपको खूब मालूम है कि वह कल यहाँ से चली जायगी?"

दारोगा-"हाँ, और क्या, सुनी-सुनाई कहता हूँ? हाकिमों की बातों की घंटे-घंटे टोह लगती रहती है। रसद और बेगार, जो एक सप्ताह के लिए ली जानेवाली थी, बंद कर दी गई है।"

विनय-“यहाँ फिर न आयेंगी?”

दारोगा-"तुम तो इतने अधीर हो रहे हो, मानों उन पर आसक्त हो।"

विनय ने लजित होकर कहा-"मुझसे उन्होंने कहा था कि कल तुम्हें देखने आऊँगी।"

दारोगा-"कह दिया होगा, पर अब उनकी तैयारी है। यहाँ तो खुश हैं कि बेदाग बच गये, नहीं तो और सभी जगह जेलरों पर जुरमाने किये हैं।"

दारोगाजी चले गये, तो विनय सोचने लगा-"सोफिया ने कल आने का वादा किया था। क्या अपना वादा भूल गई? अब न आयेगी? यदि एक बार आ जाती, तो मैं उसके पैरों पर गिरकर कहता, सोफी, मैं अपने होश में नहीं हूँ। देवी अपने उपासक से.इसलिए तो अप्रसन्न नहीं होती कि वह उसके चरणों को स्पर्श करते हुए भी झिझकता है। यह तो उपासक की अश्रद्धा का नहीं, असीम श्रद्धा का चिह्न है।"

ज्यों-ज्यों दिन गुजरता था, विनय की व्यग्रता बढ़ती जाती थी। मगर अपने मन की व्यथा किससे कहे। उसने सोचा—"रात को यहाँ से किसी तरह भागकर सोफी के पास जा पहुँचूँ! हा दुर्दैव, वह मेरी मुक्ति का आज्ञा-पत्र तक लाई थी, उस वक्त मेरे सिर पर न जाने कौन-सा भूत सवार था।"

सूर्यास्त हो रहा था। विनय सिर झुकाये दफ्तर के सामने टहल रहा था। सहसा

उसे ध्यान आया—"क्यों न फिर बेहोशी का बहाना करके गिर पड़े। यहाँ सब लोग घबरा जायँगे, और जरूर सोफी को मेरी खबर मिल जायगी। अगर उसकी मोटर तैयार होगी, तो भी एक बार मुझे देखने आ जायगी। पर यहाँ तो स्वाँग भरना भी नहीं आता। अपने ऊपर खुद ही हँसी आ जायगी। कहीं हँसी रुक न सकी, तो भद्द हो जायगी। लोग समझ जायँगे, बना हुआ है। काश इतना मूसलाधार पानी बरस जाता कि वह घर से बाहर निकल ही न सकती। पर कदाचित् इंद्र को भी मुझसे वैर है, आकाश पर बादल का कहीं नाम नहीं, मानों किसी हत्यारे का दया-हीन हृदय हो क्लार्क ही को कुछ हो जाता, तो आज उसका जाना रुक जाता।"

जब अँधेरा हो गया, तो उसे सोफी पर क्रोध आने लगा—"जब आज ही यहाँ से जाना था, तो उसने मुझसे कल आने का वादा ही क्यों किया, मुझसे जान-बूझकर झूठ क्यों बोली? क्या अब कभी मुलाकात हो न होगी; तब पूछूँगा। उसे खुद समझ जाना चाहिए था कि यह इस वक्त अस्थिर-चित्त हो रहा है। उससे मेरे चित्त की दशा छिपी नहीं है। वह उस अंतद्वंद्व को जानती है, जो मेरे हृदय में इतना भीषण रूप धारण किये हुए है। एक ओर प्रेम और श्रद्धा है, तो दूसरी ओर अपनी प्रतिज्ञा, माता की अप्रसन्नता का भय और लोक-निंदा को लजा। इतने विरुद्ध भावों के समागम से यदि कोई अनर्गल बातें करने लगे, तो इसमें आश्चर्य हो क्या। उसे इस दशा में मुझसे खिन्न न होना चाहिए था, अपनी प्रेममय सहानुभूति से मेरी हृदयाग्नि को शांत करना चाहिए था। अगर उसकी यही इच्छा है कि मैं इसी दशा में घुल-घुलकर मर जाऊँ, तो यही सही। यह हृदय-दाह जीवन के साथ ही शांत होगा। आह! ये दो दिन कितने आनंद के दिन थे! रात हो रही है, फिर उसी अँधेरी, दुगंधमय कोठरी में बंद कर दिया जाऊँगा, कौन पूछेगा कि मरते हो या जीते। इस अंधकार में दीपक की ज्योति दिखाई भी दी, तो जब तक वहाँ पहुँचूँ, नजरों से ओझल हो गई।"

इतने में दारोगाजी फिर आये। पर अब की वह अकेले न थे, उनके साथ एक पण्डितजी भी थे। विनयसिंह को खयाल आया कि मैंने इन पण्डितजी को कहीं देखा है; पर याद न आता था, कहाँ देखा है। दारोगाजी देर तक खड़े पण्डिजी से बातें करते रहे। विनयसिंह से कोई न बोला। विनय ने समझा, मुझ धोखा हुआ, कोई ओर आदमी होगा। रात को सब कैदी खा-पीकर लेटे। चारों ओर के द्वार बंद कर दिये गये। विनय थरथरा रहा था कि मुझे भी अपनी कोठरी में जाना पड़ेगा; पर न जाने क्यों उसे वहीं पड़ा रहने दिया गया।

रोशनी गुल कर दी गई। चारों ओर सन्नाटा छा गया। विनय उसी उद्विग्न दशा में खड़ा सोच रहा था, कैसे यहाँ से निकलूँ। जानता था कि चारों तरप के द्वार बंद हैं, न रस्सी है, न कोई यंत्र, न कोई सहायक, न कोई मित्र। तिज पर भी वह प्रतीक्षा-भाव से द्वार पर खड़ा था कि शायद कोई हिकमत सूझ जाय। निराशा में प्रतीक्षा अंधे की लाठी है। सहसा सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई दिया। विनय ने समझा, कोई चौकीदार होगा। डरा कि मुझे यहाँ खड़ा देखकर कहीं उसके दिल में संदेह न हो जाय। धीरे से कमरे की ओर चला। इतना भीरु वह कभी न हुआ था। तोप के सामने खड़ा सिपाही भी बिच्छू को देखकर सशंक हो जाता है।

विनय कमरे में गये ही थे कि पीछे से वह आदमी भी अंदर आ पहुँचा। विनय ने चौंककर पूछा "कौन!"

नायकराम बोले-"आपका गुलाम हूँ, नायकराम पण्डा।"

विनय-"तुम यहाँ कहाँ? अब याद आया, आज तुम्हीं तो दारोगा के साथ पगड़ी बाँधे खड़े थे? ऐसी सूरत बना ली थी कि पहचान ही में न आते थे। तुम यहाँ कैसे आ गये।"

नायकराम-"आप ही के पास तो आया हूँ।"

विनय-"झूठे हो। यहाँ कोई यजमानी है क्या?"

नायकराम-"जजमान कैसे, यहाँ तो मालिक हो हैं।"

विनय-"कब आये, कब? वहाँ तो सब कुशल है?”

नायकराम-"हाँ, सब कुशल ही है। कुँवर साहब ने जब से आपका हाल सुना है, बहुत घबराये हुए हैं, रानीजी भी बीमार हैं?"

विनय-"अम्माँजी कब से बीमार हैं?"

नायकराम-"कोई एक महीना होने आता है। बस घुली जाती हैं। न कुछ खाती हैं, न पीती हैं, न किसी से बोलती हैं। न जाने कौन रोग है कि किसी बैद, हकीम, डाक्टर की समझ ही में नहीं आता। दूर-दूर के डाक्टर बुलाये गये हैं, पर मरज की थाह किसी को नहीं मिलती। कोई कुछ बताता है, कोई कुछ। कलकत्ते से कोई कबिराज आये हैं, वह कहते हैं, अब यह बच नहीं सकतीं। ऐसी घुल गई हैं कि देखतेः डर लगता है। मुझे देखा, तो धीरे से बोली- पण्डाजी, अब डेरा कूच है। अब मैं खड़ा-खड़ा रोता रहा।"

विनय ने सिसकते हुए कहा-"हाय ईश्वर! मुझे माता के चरणों के दर्शन भी न होंगे क्या?"

नायकराम-"मैंने जब बहुत पूछा, सरकार किसी को देखना चाहती हैं, तो आँखों में आँसू भरकर बोलीं, एक बार विनय को देखना चाहती हूँ, पर भाग्य में देखना बदा नहीं है, न जाने उसका क्या हाल होगा।"

विनय इतना रोये कि हिचकियाँ बँध गई। जब जरा आवाज काबू में हुई, तो बोले-"अम्माँजी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा था। अब चित्त व्याकुल हो रहा है। कैसे उनके दर्शन पाऊँगा? भगवान् न जाने किन पापों का यह दंड मुझे दे रहे हैं।"

नायकराम-"मैंने पूछा, हुक्म हो, तो जाकर उन्हें लिवा लाऊँ। इतना सुना था कि वह जल्दी से उठकर बैठ गई और मेरा हाथ पकड़कर बोलीं-'तुम उसे लिवा

लाओगे? नहीं, वह न आयेगा, वह मुझसे रूठा हुआ है। कभी न आयेगा। उसे साथ लाओ, तो तुम्हारा बड़ा उपकार होगा।' इतना सुनते ही मैं वहाँ से चल खड़ा हुआ। अब बिलम न कीजिए, कहीं ऐसा न हो कि माता की लालसा मन ही में रह जाय, नहीं तो आपको जनम-भर पछताना पड़ेगा।"

विनय-"कैसे चलूँगा?"

नायकराम-"इसकी चिंता मत कीजिए, ले तो मैं चलूँगा। जब यहाँ तक आ गया, तो यहाँ से निकलना क्या मुसकिल है!"

विनय कुछ सोचकर बोले-"पण्डाजी, मैं तो चलने को तैयार हूँ; पर भय यही है कि कहीं अम्माँजी नाराज न हो जायँ, तुम उनके स्वभाव को नहीं जानते।"

नायकराम-"भैया, इसका कोई भय नहीं है। उन्होंने तो कहा है कि जैसे बने, वैसे लाओ। उन्होंने यहाँ तक कहा था कि माफी मांगनी पड़े, तो इस औसर पर माँग लेनी चाहिए।"

विनय-"तो चलो, कैसे चलते हो?"

नायकराम-"दिवाल फाँदकर निकल जायँगे, यह कौन मुसकिल है!"

विनयसिंह को शंका हुई कि कहीं किसी की निगाह पड़ गई, तो! सोफी यह सुनेगी, तो क्या कहेगी? सब अधिकारी मुझ पर तालियाँ बजायेंगे। सोफी सोचेगी, बड़े सत्यवादी बनते थे, अब वह सत्यवादिता कहाँ गई। किसी तरह सोफ़ी को यह खबर दी जा सकती, तो वह अवश्य आज्ञा-पत्र भेज देती, पर यह बात नायकराम से कैसे कहूँ?

बोले-“पकड़ गये, तो?"

नायकराम-“पकड़ गये, तो! पकड़ेगा कौन? यहाँ कच्ची गोली नहीं खेले हैं। सब आदमियों को पहले ही से गाँठ रखा है।"

विनय-"खूब सोच लो। पकड़ गये, तो फिर किसी तरह छुटकारा न होगा।"

नायकराम—“पकड़े जाने का तो नाम ही न लो। यह देखो, सामने कई ईटें दिवाल से मिलाकर रखी हुई हैं। मैंने पहले ही से यह इंतजाम कर लिया है। मैं ईंटों पर खड़ा हो जाऊँगा। आप मेरे कंधे पर चढ़कर इस रस्सी को लिये हुए दिवाल पर चढ़ जाइएगा। रस्सी उस तरफ फेक दीजिएगा। मैं इसे इधर मजबूत पकड़े रहूँगा, आप उधर धीरे से उतर जाइएगा। फिर वहाँ आप रस्सी को मजबूत पकड़े रहिएगा, मैं भी इधर से चला आऊँगा। रस्सी बड़ी मजबूत है, टूट नहीं सकती। मगर हाँ, छोड़ न दीजिएगा, नहीं तो मेरी हड्डी-पसली टूट जायँगी।" यह कहकर नायकराम रस्सी का पुलिंदा लिये हुए ईटों के पास जाकर खड़े हो गये।

विनय भी धीरे-धीरे चले। सहसा किसी चीज के खटकने की आवाज आई। विनय ने चौंककर कहा-"भाई, मैं न जाऊँगा। मुझे यहीं पड़ा रहने दो। माताजी के दर्शन करना मेरे भाग्य में नहीं है।"

नायकराम—"घबराइए मत, कुछ नहीं है।" विनय—"मेरे तो पैर थरथरा रहे।"

नायकराम—"तो इसी जीवट पर चले थे साँप के मुँह में उँगली डालने?"

जोखिम के समय पद-सम्मान का विचार नहीं रहता।

विनय—"तुम मुझे जरूर फँसाओगे।"

नायकराम—"मरद होकर फँसने से इतना डरते हो! फँस ही गये, तो कौन चूड़ियाँ मैली हो जायँगी! दुसमन की कैद से भागना लज्जा की बात नहीं।"

यह कहकर वह ईंटों पर खड़ा हो गया और विनय से बोला-"मेरे कंधे पर आ जाओ।"

विनय—"कहीं तुम गिर पड़े, तो?"

नायकराम-"तुम्हारे-जैसे पाँच सवार हो जायँ, तो लेकर दौड़। धरम की कमाई में बल होता है।"

यह कहकर उसने विनय का हाथ पकड़कर उसे अपने कंधे पर ऐसी आसानी से उठा लिया, मानों कोई बच्चा है।

विनय—"कोई आ रहा है।"

नायकराम-"आने दो। यह रस्सी कमर में बाँध लो और दिवाल पकड़कर चढ़ जाओ।"

अब विनय ने हिम्मत मजबूत की। यही निश्चयात्मक अवसर था। सिर्फ एक फलाँग की जरूरत थी। ऊपर पहुँच गये, तो बेड़ा पार है, न पहुँच सके, तो अपमान, लजा, दंड, सब कुछ है। ऊपर स्वर्ग है, नीचे नरक; ऊपर मोक्ष है, नीचे माया-जाल। दीवार पर चढ़ने में हाथों के सिवा और किसी चीज से मदद न मिल सकती थी। विनय दुर्बल होने पर भी मजबूत आदमी थे। फलाँग मारी और बेड़ा पार हो गया; दीवार पर जा पहुँचे और रस्सी पकड़कर नीचे उतर पड़े। दुर्भाग्य-वश पीछे दीवार से मिली हुई गहरी खाई थी, जिसमें बरसात का पानी भरा हुआ था। विनय ने ज्यों ही रस्सी छोड़ी, गरदन तक पानी में डूब गये और फिर बड़ी मुश्किल से बाहर निकले। तब रस्सो पकड़कर नायकराम को इशारा किया। वह मजा हुआ खिलाड़ी था। एक क्षण में नीचे आ पहुँचा। ऐसा जान पड़ता था कि वह दीवार पर बैठा था, केवल उतरने की देर थी।

विनय—"देखना, खाई है!"

नायकराम—“पहले ही देख चुका हूँ। तुमसे बताने की याद ही न रही।"

विनय—"तुम इस काम में निपुण हो। मैं कभी न निकल सकता। किधर चलोगे?"

नायकराम—"सबसे पहले तो देवो के मंदिर में चलूँगा, वहाँ से फिर मोटर पर बैठकर इसटेसन की ओर। ईश्वर ने चाहा, तो आज़ के तीसरे दिन घर पहुँच जायेंगे। देवी सहाय न होती, तो इतनी जल्दी और इतनी आसानी से यह काम न होता। उन्हींने यह संकट हरा। उन्हें अपना खून चढ़ाऊँगा।"

अब दोनों आजाद थे। विनय को ऐसा मालूम हो रहा था कि मेरे पाँव आप-ही-

आप उठे जाते हैं। वे इतने हल्के हो गये थे। जरा देर में दोनों आदमी सड़क पर आ गये।

विनय—"सबेरा होते ही दौड़-धूप शुरू हो जायगी।"

नायकराम—"तब तक हम लोग यहाँ से सौ कोस पर होंगे।"

विनय—"घर से भी तो वारंट द्वारा पकड़ मँगा सकते हैं।"

नायकराम—"वहाँ की चिंता मत करो। वह अपना राज है।"

आज सड़क पर बड़ी हलचल थी। सैकड़ों आदमी लालटेने लिये कस्बे से छावनी की तरफ जा रहे थे। एक गोल इधर से आता था, दूसरा उधर से। प्रायः लोगों के हाथों में लाठियाँ थीं। विनयसिंह को कुतूहल हुआ, आज यह भीड़-भाड़ कैसी! लोगों पर वह निःस्तब्ध तत्परता छाई थी, जो किसी भयंकर उद्वेग की सूचक होती है। किंतु किसी से कुछ पूछ न सकते थे कि कहीं वह पहचान न जाय।

नायकराम-“देवी के मंदिर तक तो पैदल ही चलना पड़ेगा।"

विनय-"पहले इन आदमियों से तो पूछो, कहाँ दौड़े जा रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा कि कहीं कुछ गड़बड़ हो गई।"

नायकराम-"होगी, हमें इन बातों से क्या मतलब? चलो, अपनी राह चलें।"

विनय-"नहीं-नहीं, जरा पूछो तो, क्या बात है?”

नायकराम ने एक आदमी से पूछा, तो ज्ञात हुआ कि नौ बजे के समय एजेंट साहब अपनी मेम के साथ मोटर पर बैठे हुए बाजार की तरफ से निकले। मोटर बड़ी तेजी से जा रही थी। चौराहे पर पहुंची, तो एक आदमी, जो बाई ओर से आ रहा। था, मोटर के नीचे दब गया। साहब ने आदमी को दबते हुए देखा; पर मोटर को रोका नहीं। यहाँ तक कि कई आदमी मोटर के पीछे दौड़े। बाजार के इस सिरे तक आते-आते मोटर को बहुत-से आदमियों ने घेर लिया। साहब ने आदमियों को डाँटा कि अभी हट जाओ। जब लोग न हटे, तो उन्होंने पिस्तौल चला दी। एक आदमी तुरंत गिर पड़ा। अब लोग क्रोधोन्माद की दशा में साहब के बँगले पर जा रहे थे।

विनय ने पूछा—“वहाँ जाने की क्या जरूरत है?”

एक आदमी—"जो कुछ होना है, वह हो जायगा। यही न होगा, मारे जायँगे। मारे तो यों ही जा रहे हैं। एक दिन तो मरना है ही। दस-पाँच आदमी मर गये, तो कौन संसार सूना हो जायगा?"

विनय के होश उड़ गये। यकीन हो गया कि आज कोई उपद्रव अवश्य होगा। बिगड़ी हुई जनता वह जल-प्रवाह है, जो किसी के रोके नहीं रुकता। ये लोग झल्लाये हुए हैं। इस दशा में इनसे धैर्य और क्षमा की बातें करना व्यर्थ है। कहीं ऐसा न हो कि ये लोग बँगले को घेर लें। सोफिया भी वहीं है! कहीं उस पर न आघात कर बठे। दुरावेश में सौजन्य का नाश हो जाता है। नायकराम से बोले- "पण्डाजी, जरा बँगले तक होते चलें।" नायकराम—"किसके बँगले तक?"

विनय—"पोलिटिकल एजेंट के।”

नायकराम—"उनके बँगले पर जाकर क्या कीजिएगा? क्या अभी तक परोकार से जी नहीं भरा? ये जानें, वह जानें, हमसे-आपसे मतलब?"

विनय—"नहीं, मौका नाजुक है, वहाँ जाना जरूरी है।"

नायकराम—"नाहक अपनी जान के दुसमन हुए हो। वहाँ कुछ दंगा हो जाय, तो! मरद हैं हो, चुपचाप खड़े मुँह तो देखा न जायगा। दो-चार हाथ इधर या उधर "चला ही देंगे। बस, धर-पकड़ हो जायगी। इससे क्या फायदा?"

विनय—"कुछ भी हो, मैं यहाँ यह हंगामा होते देखकर स्टेशन नहीं जा सकता"

नायकराम—"रानीजी तिल-तिल पर पूछतो होंगी।"

विनय—"तो यहाँ कौन हमें दो चार दिन लगे जाते हैं। तुम यहीं ठहरो, मैं अभी आता हूँ।"

नायकराम—"जब तुम्हें कोई भय नहीं है, तो यहाँ कौन रोनेवाला बैठा हुआ है। मैं आगे-आगे चलता हूँ। देखना, मेरा साथ न छोड़ना। यह ले लो, जोखिम का मामला है। मेरे लिए यह लकड़ी काफी है।"

यह कहकर नायकराम ने एक दोनलीवाली पिस्तौल कमर से निकालकर विनय के हाथ में रख दी। विनय पिस्तौल लिये हुए आगे बढ़े। जब राजभवन के निकट पहुँचे, तो इतनी भीड़ देखी कि एक-एक कदम चलना मुश्किल हो गया, और भवन से एक गोली के टप्पे पर तो उन्हें विवश होकर रुकना पड़ा। सिर-ही-सिर दिखाई देते थे। राजभवन के सामने एक बिजली की लालटेन जल रही थी और उसके उज्ज्वल प्रकाश में हिलता, मचलता, रुकता, ठिठकता हुआ जन-प्रवाह इस तरह भवन की ओर चला जा रहा था, मानों उसे निगल जायगा। भवन के सामने, इस प्रवाह को रोकने के लिए, वरदीपोश सिपाहियों की एक कतार, संगीनें चढ़ाये, चुपचाप खड़ी थी और ऊँचे चबूतरे पर खड़ी होकर सोफी कुछ कह रही थी; पर इस हुल्लड़ में उसकी आवाज सुनाई न देती थी। ऐसा मालूम होता था कि किस। विदुषो की मूर्ति है, जो कुछ कहने का संकेत कर रही है।

सहसा सोफिया ने दोनों हाथ ऊपर उठाये। चारों ओर सन्नाटा छा गया। सोफी ने उच्च और कंपित स्वर में कहा-"मैं अन्तिम बार तुम्हें चेतावनी देती हूँ कि यहाँ से शान्ति के साथ चले जाओ, नहीं तो सैनिकों को विवश होकर गोली चलानी पड़ेगी। "एक क्षण के अन्दर यह मैदान साफ हो जाना चाहिए।"

वीरपालसिंह ने सामने आकर कहा-"प्रजा अब ऐसे अत्याचार नहीं सह सकती।"

सोफी—“अगर लोग सावधानी से रास्ता चलें, तो ऐसी दुर्घटना क्यों हो!"

वीरपाल–मोटरवालों के लिए भी कोई कानून है या नहीं?"

सोफी—"उनके लिए कानून बनाना तुम्हारे अधिकार में नहीं है।" वीरपाल—"हम कानून नहीं बना सकते, पर अपनी प्राण-रक्षा तो कर सकते हैं?"

सोफी—"तुम विद्रोह करना चाहते हो और उसके कुफल का भार तुम्हारे सिर पर होगा।"

वीरपाल—"हम विद्रोही नहीं हैं, मगर यह नहीं हो सकता कि हमारा एक भाई किसी मोटर के नीचे दब जाय, चाहे वह मोटर महाराना ही का क्यों न हो, और हम मुँह न खोलें।"

सोफी—“वह संयोग था।"

वीरपाल—"सावधानी उस संयोग को टाल सकती थी। अब हम उस वक्त तक यहा से न जायँगे, जब तक हमें वचन न दिया जायगा कि भविष्य में ऐसी दुर्घटनाओं के लिए अपराधी को उचित दण्ड मिलेगा, चाहे वह कोई हो।"

सोफी—संयोग के लिए कोई वचन नहीं दिया जा सकता। लेकिन...”

सोफी कुछ और कहना चाहती थी कि किसी ने एक पत्थर उसकी तरफ फेका, जो उसके सिर में इतनी जोर से लगा कि वह वहीं सिर थामकर बैठ गई। यदि विनय तत्क्षण किसी ऊँचे स्थान पर खड़े होकर जनता को आश्वासन देते, तो कदाचित् उपद्रव न होता, लोग शान्त होकर चले जाते । सोफी का जख्मी हो जाना जनता का क्रोध शांत करने को काफी था। किन्तु जो पत्थर सोफी के सिर में लगा, वही कई गुने आघात के साथ विनय के हृदय में लगा। उसकी आँखों में खून उतर आया, आपे से बाहर हो गया। भीड़ को बल-पूर्वक हटाता, आदमियों को ढकेलता, कुचलता सोफी की बगल में जा पहुँचा, पिस्तौल कमर से निकाली और वीरपालसिंह पर गोली चला दी। फिर क्या था, सैनिकों को मानों हुक्म मिल गया, उन्होंने बन्दूकें छोड़नी शुरू की। कुहराम मच गया, लेकिन फिर भी कई मिनट तक लोग वहीं खड़े गोलियों का जवाब ईट-पत्थर से देते रहे। दो-चार बन्दूकें इधर से भी चलीं। वीरपाल बाल-बाल बच गया और विनय को निकट होने के कारण पहचानकर बोल—"आप भी उन्हीं में हैं!"

विनय—“हत्यारा!"

वीरपाल—"परमात्मा हमसे फिर गया है।"

विनय—"तुम्हें एक स्त्री पर हाथ उठाते लज्जा नहीं आती?"

चारों तरफ से आवाजें आने लगीं-"विनयसिंह हैं, यह कहाँ से आ गये, यह भी उधर मिल गये, इन्हीं ने तो पिस्तौल छोड़ो है!"

"बना हुआ था। घर का भेदा लंका-दाह।"

"शायद शर्त पर छोड़ गये हैं।"

"धन की लालसा सिर पर सवार है।"

"मार दो एक पत्थर, सिर फट जाय, यह भी हमारा दुश्मन है।"

"दगाबाज है।"

"इतना बड़ा आदमी और थोड़े-से धन के लिए ईमान बेच बैठा!"
बन्दूकों के सामने निहत्थे लोग कब तक ठहरते! जब कई आदमी अपने पक्ष के लगातार गिरे, तो भगदर पड़ गई; कोई इधर भागा, कोई उधर। मगर वीरपालसिंह और उसके साथ के पाँचों सवार जिनके हाथों में बंदूकें थीं, राजभवन के पीछे की ओर से विनयसिंह के सिर पर आ पहुँचे। अँधेरे में किसी की निगाह उन पर न पड़ी। विनय ने पीछे की तरफ घोड़ों की टाप सुनी, तो चौंके, पिस्तौल चलाई, पर वह खाली थी।

वीरपाल ने व्यंग्य करके कहा-"आप तो प्रजा के मित्र बनते थे!"

विनय-"तुम जैसे हत्यारों की सहायता करना मेरा नियम नहीं है।"

वीरपाल-"मगर हम उससे अच्छे हैं, जो प्रजा की गरदन पर अधिकारियों से मिलकर छुरी चलाये।"

विनय क्रोधावेश में बाज की तरह झपटे कि उसके हाथ से बंदुक छीन लें, किंतु वीरपाल के एक सहयोगी ने झपटकर विनयसिंह को नीचे गिरा दिया, दूसरा साथी तलवार लेकर उसकी ओर लपका ही था कि सोफी, जो अब तक चेतना-शून्य दशा में भूमि पर पड़ी हुई थी, चीख मारकर उठी और विनयसिंह से लिपट गई। तलवार अपने लक्ष्य पर न पहुँचकर सोफी के माथे पर पड़ो। इतने में नायकराम लाठी लिये हुए आ पहुँचा और लाठियाँ चलाने लगा। दो विद्रोही आहत होकर गिर पड़े। वीरपाल अब तक हतबुद्धि की भाँति खड़ा था। न उसे ज्ञात था कि सोफी को पत्थर किसने मारा, न उसने अपने सहयोगियों ही को विनय पर आघात करने के लिए कहा था। यह सब कुछ उसकी आँखों के सामने, पर उसकी इच्छा के विरुद्ध, हो रहा था। पर अब अपने साथियों को गिरते देखकर वह तटस्थ न रह सका। उसने बंदूक का कुंदा तौलकर इतनी जोर से नायकराम के सिर में मारा कि उसका सिर फट गया और एक पल में उसके तीनों साथी अपने आहत साथियों को लेकर भाग निकले। विनयसिंह सँभलकर उठे, तो देखा कि बगल में नायकराम खून से तर अचेत पड़ा है और सोफी का कहीं पता नहीं। उसे कौन ले गया, क्यों ले गया, कैसे ले गया, इसको उन्हें खबर न थी।

मैदान में एक आदमी भी न था। दो-चार लाशें अलबत्ता इधर-उधर पड़ी हुई थीं।

मिस्टर क्लार्क कहाँ थे? तूफान उठा और गया, आग लगी और बुझो, पर उनका कहीं पता तक नहीं। वह शराब के नशे में मस्त, दीन-दुनिया से बेखबर, अपने शयनागार में पड़े हुए थे। विद्रोहियों का शोर सुनकर सोफी भवन से बाहर निकल आई थी। मिस्टर क्लार्क को इसलिए जगाने की चेष्टा न की थी कि उनके आने से रक्तपात का भय था। उसने शांत उपायों से शांति-रक्षा करनी चाही थी और उसी का यह फल था। वह पहले सतर्क हो जाती, तो कदाचित् स्थिति इतनी भयावह न होने पाती।

विनय ने नायकराम को देखा। नाड़ी का पता न था, आँखें पथरा गई थीं। चिंता, शोक और पश्चात्ताप से चित्त इतना विकल हुआ कि वह रो पड़े। चिंता थी माता को, उनके दर्शन भी न करने पाया; शोक था सोफिया का, न जाने उसे कौन ले गया;
पश्चात्ताप था अपनी क्रोधशीलता पर कि मैं ही इस सारे विद्रोह और रक्तपात का कारण हूँ। अगर मैंने वीरपाल पर पिस्तौल न चलाई होती, तो यह उपद्रव शांत हो जाता।

आकाश पर श्यामल घन-घटा छाई हुई थी, पर विनय के हृदयाकाश पर छाई हुई शोक-घटा उससे कहीं घनघोर, अपार और असूझ थी।