रंगभूमि/३

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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मि० जॉन सेवक का बँगला सिगरा में था। उनके पिता मि० ईश्वर सेवक ने सेना-विभाग से पेंशन पाने के बाद वहीं मकान बनवा लिया था, ओर अब तक उसके स्वामी थे। इसके आगे उनके पुरखों का पता नहीं चलता, और न हमें उसकी खोज करने की विशेष जरूरत है। हाँ, इतनी बात अवश्य निश्चित है कि प्रभु ईसा की शरण जाने का गौरव ईश्वर सेवक को नहीं, उनके पिता को था। ईश्वर सेवक को अब भी अपना बाल्य जीवन कुछ-कुछ याद आता था, जब वह अपनी माता के साथ गंगास्नान को जाया करते थे। माता की दाह-क्रिया की स्मृति भी अभी न भूली थी। माता के देहान्त के बाद उन्हें याद आता था कि मेरे घर में कई सैनिक घुस आये थे, और मेरे पिता को पकड़कर ले गये थे। इसके बाद स्मृति विशृखल हो जाती थी। हाँ, उनके गोरे रंग और आकृति से यह सहज ही अनुमान किया जा सकता था कि वह उच्चवंशीय थे, और कदाचित् इसी सूबे में उनका पूर्व-निवास भी था।

यह बँगला जिस जमाने में बना था, सिगरा में भूमि का इतना आदर न था। अहाते में फूल-पत्तियों की जगह शाक-भाजी और फलों के वृक्ष थे। यहाँ तक कि गमलों- में भी सुरुचि की अपेक्षा उपयोगिता पर अधिक ध्यान दिया गया था। बेलें परवल, कद्द , कुंदरू, सेम आदि की थीं, जिनसे बँगले की शोभा भी होती थी, और फल भी मिलता था। एक किनारे खपरैल वा बरामदा था, जिसमें गाय-भैंसें पली हुई थीं। दूसरी ओर अस्तबल था। मोटर का शौक न बाप को था, न बेटे को। फिटन रखने में किफायत भी थी और आराम भी। ईश्वर सेवक को तो मोटरों से चिढ़ थी। उनके शोर से उनकी शांति में विघ्न पड़ता था। फिटन का घोड़ा अहाते में एक लंबी रस्सी से बाँधकर छोड़ दिया जाता था। अस्तबल से बाग के लिए खाद निकल आती थी, और केवल एक साईस से काम चल जाता। ईश्वर सेवक गृह-प्रबंध में निपुण थे; और गृहकार्यों में उनका उत्साह लेश-मात्र भी कम न हुआ था। उनकी आराम-कुरसी बँगले के सायबान में पड़ी रहती थी। उस पर वह सुबह से शाम तक बैठे जॉन सेवक की फिजूल-खर्ची और घर की बरबादी का रोना रोया करते थे। वह अब भी नियमित रूप से पुत्र को घंटे-दो घंटे उपदेश दिया करते थे, और शायद इसी 'उपदेश का फल था कि जान सेवक का धन और मान दिनों-दिन बढ़ता जाता था। 'किफायत' उनके जीवन का मूलतत्त्व था, और इसका उल्लंघन उन्हें असह्य था। वह अपने घर में धन का अपव्यय नहीं देख सकते थे, चाहे वह किसी मेहमान ही का धन क्यों न हो। धर्मानुरागी इतने थे कि बिला नागा दोनों वक्त गिरजाघर जाते। उनकी अपनी अलग सवारी थी। एक आदमी इस तामजान को खींचकर गिरजाघर के द्वार तक पहुँचा आया करता था। वहाँ पहुँचकर ईश्वर सेवक उसे तुरंत घर लौटा देते थे। [ २७ ]
गिरजा के अहाते में तामजान की रक्षा के लिए किसी आदमी के बैठे रहने की जरूरत न थी। घर आकर वह आदमी और कोई काम कर सकता था। बहुधा उसे लौटाते समय वह काम भी बतलाया करते थे। दो घंटे बाद वह आदमी जाकर उन्हें खींच लाता था। लौटती बार वह यथासाध्य खाली हाथ न लौटते थे, कभी दो-चार पपीते मिल जाते, कभी नारंगियाँ, कभी सेर-आध सेर मकोय। पादरी उनका बहुत सम्मान करता था। उनकी सारी उम्मत (अनुयायियों की मण्डली) में इतना वयोवृद्ध और दूसरा आदमी न था, उस पर धर्म का इतना प्रेमी! वह उसके धर्मोपदेशों को जितनी तन्मयता से सुनते थे, और जितनी भक्ति से कीर्तन में भाग लेते थे, वह आदर्श कही जा सकती थी।

प्रातःकाल था। लोग जल-पान करके, या छोटी हाजिरी खाकर, मेज़ पर से उठे थे। मि० जॉन सेवक ने गाड़ी तैयार करने का हुक्म दिया। ईश्वर सेवक ने अपनी कुरसी पर बैठे-बैठे चाय का एक प्याला पिया था, और झुंझला रहे थे कि इसमें शकर क्यों इतनी झोंक दी गई है। शकर कोई नियामत नहीं कि पेट फाड़कर खाई जाय, एक तो मुश्किल से पचती है, दूसरे इतनी महँगी। इसको आधी शकर चाय को मजेदार बनाने के लिए काफी थी। अंदाज से काम करना चाहिए, शकर कोई पेट भरने की चीज नहीं है। सैकड़ों बार कह चुका हूँ पर मेरी कौन सुनता है। मुझे तो सबने कुत्ता समझ लिया है। उसके भूँकने की कौन परवा करता है?

मिसेज सेवक ने धर्मानुराग और मितव्ययिता का पाठ भली-भाँति अभ्यस्त किया था। लजित होकर बोली-“पापा, क्षमा कीजिए। आज सोफी ने शकर ज्यादा डाल दी थी। कल से आपको यह शिकायत न रहेगी, मगर करूँ क्या, यहाँ तो हलकी चाय किसी को अच्छी ही नहीं लगती।"

ईश्वर सेवक ने उदासीन भाव से कहा-"मुझे क्या करना है, कुछ कयामत तक तो बैठा रहूँगा नहीं, मगर घर के बरबाद होने के ये ही लक्षण हैं। ईसू , मुझे अपने दामन में छुपा।"

मिसेज़ सेवक-"मैं अपनी भूल स्वीकार करती हूँ। मुझे अंदाज से शकर निकाल देनी चाहिए थी।"

ईश्वर सेवक-"अरे, तो आज यह कोई नई बात थोड़े ही है? रोज तो यही रोना रहता है। जॉन समझता है, मैं घर का मालिक हूँ, रुपये कमाता हूँ, खर्च क्यों न करूँ? मगर धन कमाना एक बात है, उसका सद्व्यय करना दूसरी बात। होशियार आदमी उसे कहते हैं, जो धन का उचित उपयोग करे। इधर से लाकर उधर खर्च कर दिया, तो क्या फायदा? इनसे तो न लाना ही अच्छा। समझाता ही रहा; पर इतनी ऊँची रास का घोड़ा ले लिया। इसकी क्या जरूरत थी? तुम्हें घुड़दौड़ नहीं करना है। एक टट्ट से काम चल सकता था। यही न कि औरों के घोड़े आगे निकल जाते, तो इसमें तुम्हारी क्या शेखो मारी जाती थी? कहीं दूर जाना नहीं पड़ता। टट्टू होता, छः सेर की जगह दो सेर दाना खाता। आखिर चार सेर दाना व्यर्थ ही जाता है न? मगर मेरी
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कौन सुनता है? ईसू, मुझे अपने दामन में छुपा। सोफी, यहाँ आ बेटी, कलामे-पाक सुना।"

सोफ़िया प्रभु सेवक के कमरे में बैठी हुई उनसे मसीह के इस कथन पर शंका कर रही थी कि गरीबों के लिए आसमान की बादशाहत है, और अमीरों का स्वर्ग में जाना उतना ही असंभव है, जितना ऊँट का सुई की नोक में जाना। उसके मन में शंका हो रही थी, क्या दरिद्र होना स्वयं कोई गुण है, और धनी होना स्वयं कोई अवगुण? उसकी बुद्धि इस कथन की सार्थकता को ग्रहण न कर सकती थी। क्या मसीह ने केवल अपने भक्तों को खुश करने के लिए ही धन की इतनी निन्दा की है? इतिहास बतला रहा है कि पहले केवल दीन, दुखी, दरिद्र और समाज से पतित जनता ही ने मसीह के दामन में पनाह ली। इसीलिए तो उन्होंने धन की इतनी अवहेलना नहीं की? कितने ही गरीब ऐसे हैं, जो सिर से पाँव तक अधर्म और अविचार में डूबे हुए हैं। शायद उनकी दुष्टता ही उनकी दरिद्रता का कारण है। क्या केवल दरिद्रता उनके सब पापों का प्रायश्चित्त कर देगी? कितने ही धनी हैं, जिनके हृदय आइने की भाँति निर्मल हैं। क्या उनका वैभव उनके सारे सत्कर्मों को मिटा देगा?

सोफिया सत्यासत्य के निरूपण में सदैव रत रहती थी। धर्मतत्त्वों को बुद्धि की कसौटी पर कश्चना उसका स्वाभाविक गुण था, और जब तक तर्क-बुद्धि स्वीकार न करे, वह केवल धर्म-ग्रंथों के आधार पर किसी सिद्धांत को न मान सकती थी। जब उसके मन में कोई शंका होती, तो वह प्रभु सेवक की सहायता से उसके निवारण की चेष्टा किया करती।

सोफिया-"मैं इस विषय पर बड़ी देर से गौर कर रही हूँ; पर कुछ समझ में नहीं आता। प्रभु मसीह ने दरिद्रता को इतना महत्त्व क्यों दिया, और धन-वैभव को क्यों निषिद्ध बतलाया?

प्रभु सेक्कः-"जाकर मसीह से पूछो।"

सोफ़िया-"तुम क्या समझते हो?"

प्रभु सेवक-"मैं कुछ नहीं समझता, और न कुछ समझना ही चाहता हूँ। भोजन, निद्रा और विनोद, ये ही मनुष्य-जीवन के तीन तत्त्व हैं। इनके सिवा सब गोरख-धन्धा है। मैं धर्म को बुद्धि से बिलकुल अलग समझता हूँ। धर्म को तोलने के लिए बुद्धि उतनी ही अनुपयुक्त है, जितना बैंगन तोलने के लिए सुनार का काँटा। धर्म धर्म है, बुद्धि बुद्धि। या तो धर्म का प्रकाश इतना तेजोमय है कि बुद्धि की आँखें चौंधिया जाती हैं, या इतना घोर अंधकार है कि बुद्धि को कुछ नजर ही नहीं आता। इन झगड़ों में व्यर्थ सिर खपाती हो। सुना, आज पापा चलते-चलते क्या कह गये!”

सोफिया—"नहीं, मेरा ध्यान उधर न था।”

प्रभु सेवक—“यही कि मशीनों के लिए शीघ्र आर्डर दे दो। उस जमीन को लेने का इन्होंने निश्चय कर लिया। उसका मौका बहुत पसंद आया। चाहते हैं कि जल्द-से जल्द बुनियाद पड़ जाय, लेकिन मेरा जी इस काम से घबराता है। मैंने यह व्यवसाय
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सीखा तो; पर सच पूछो, तो मेरा दिल वहाँ भी न लगता था। अपना समय दर्शन, साहित्य, काव्य की सैर में काटता था। वहाँ के बड़े-बड़े विद्वानों और साहित्य-सेवियों से वार्तालाप करने में जो आनन्द मिलता था, वह कारखाने में कहाँ नसीब था। सच पूछो, तो मैं इसीलिए वहाँ गया ही था। अब घोर संकट में पड़ा हुआ हूँ। अगर इस काम में हाथ नहीं लगाता, तो पापा को दुःख होगा, वह समझेंगे कि मेरे हजारों रुपये पानी में गिर गये! शायद मेरी सूरत से घृणा करने लगें। काम शुरू करता हूँ, तो यह भय होता है कि कहीं मेरी बेदिली से लाभ के बदले हानि न हो। मुझे इस काम में जरा भी उत्साह नहीं। मुझे तो रहने को एक झोपड़ी चाहिए, और दर्शन तथा साहित्य का एक अच्छा-सा पुस्तकालय। और किसी वस्तु की इच्छा नहीं रखता। यह लो, दादा को तुम्हारी याद आ गई। जाओ, नहीं तो वह यहाँ आ पहुँचेंगे, और व्यर्थ की बकवास से घंटों समय नष्ट कर देंगे।"

सोफिया—"यह विपत्ति मेरे सिर बुरी पड़ी है। जहाँ कुछ पढ़ने बैठी कि इनका बुलावा पहुँचा। आजकल 'उत्पत्ति' की कथा पढ़वा रहे हैं। मुझे एक-एक शब्द पर शंका होती है। कुछ बोलूँ, तो बिगड़ जायँ। बिलकुल बेगार करनी पड़ती है।"

मिसेज सेवक बेटी को बुलाने आ रही थीं। अंतिम शब्द उनके कानों में पड़ गये। तिलमिला गई। आकर बोलीं-"बेशक, ईश्वर-ग्रन्थ पढ़ना बेगार है, मसीह का नाम लेना पाप है, तुझे तो उस भिखारी अंधे की बातों में आनन्द आता है, हिन्दुओं के गपोड़े पढ़ने में तेरा जी लगता है; ईश्वर-वाक्य तो तेरे लिए जहर है। खुदा जाने, तेरे दिमाग में यह खब्त कहाँ से समा गया है। जब देखती हूँ, तुझे अपने पवित्र धर्म की निन्दा ही करते देखती हूँ। तू अपने मन में भले ही समझ ले कि ईश्वर-वाक्य कपोल-कल्पना है, लेकिन अंधे की आँखों में अगर सूर्य का प्रकाश न पहुँचे, तो यह सूर्य का दोष नहीं, अंधे की आँखों ही का दोष है। आज तीन-चौथाई दुनिया जिस महात्मा के नाम पर जान देती है, जिस महान् आत्मा की अमृत-वाणी आज सारी दुनिया को जीवन प्रदान कर रही है, उससे यदि तेरा मन विमुख हो रहा है, तो यह तेरा दुर्भाग्य और तेरी दुर्बुद्धि है। खुदा तेरे हाल पर रहम करे।"

सोफिया-"महात्मा ईसा के प्रति कभी मेरे मुँह से कोई अनुचित शब्द नहीं निकला। मैं उन्हें धर्म, त्याग और सद्विचार का अवतार समझती हूँ। लेकिन उनके प्रति श्रद्धा रखने का यह आशय नहीं है कि भक्तों ने उनके उपदेशों में जो असंगत बातें भर दी हैं, या उनके नाम से जो विभूतियाँ प्रसिद्ध कर रखी हैं, उन पर भी ईमान लाऊँ। और, यह अनर्थ कुछ प्रभु मसीह ही के साथ नहीं किया गया, संसार के सभी महात्माओं के साथ यही अनर्थ किया गया है।"

मिसेज सेवक—"तुझे ईश्वर-ग्रन्थ के प्रत्येक शब्द पर ईमान लाना पड़ेगा, वरना तू अपनी गणना प्रभु मसीह के भक्तों में नहीं कर सकती!" [ ३० ]सोफिया-"तो मैं मजबूर होकर अपने को उनकी उम्मत से बाहर समझुँगी; क्योंकि बाइबिल के प्रत्येक शब्द पर ईमान लाना मेरे लिए असंभव है।"

मिसेज़ सेवक-“तू विधर्मिणी और भ्रष्टा है। प्रभु मसीह तुझे कभी क्षमा न करेंगे।"

सोफ़िया--'अगर धार्मिक संकीर्णता से दूर रहने के कारण ये नाम दिये जाते हैं, तो मुझे उनके स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है।"

मिसेज़ सेवक से अब जन्त न हो सका। अभी तक उन्होंने कातिलवार न किया था। मातृस्नेह हाथों को रोके हुए था। लेकिन सोफिया के वितंडावाद ने अब उनके धैर्य का अंत कर दिया। “बोलीं—प्रभु मसीह से विमुख होनेवाले के लिए इस घर में जगह नहीं है।"

प्रभु सेवक—"मामा, आप घोर अन्याय कर रही हैं। सोफिया यह कब कहती है कि मुझे प्रभु मसीह पर विश्वास नहीं है।"

मिसेज़ सेवक—"हाँ, वह यही कह रही है, तुम्हारी समझ का फेर है। ईश्वर-ग्रन्थ पर ईमान न लाने का और क्या अर्थ हो सकता है? इसे प्रभु मसीह के अलौकिक कृत्यों पर अविश्वास और उनके नैतिक उपदेशों पर शंका है। यह उनके प्रायश्चित्त के तत्त्व को नहीं मानती, उनके पवित्र आदेशों को स्वीकार नहीं करती।"

प्रभु सेवक—“मैंने इसे मसीह के आदेशों का उल्लंघन करते कभी नहीं देखा।"

सोफिया—“धार्मिक विषयों में मैं अपनी विवेक-बुद्धि के सिवा और किसी के आदेशों को नहीं मानती।"

मिसेज़ सेवक—"मैं तुझे अपनी संतान नहीं समझती, और तेरी सूरत नहीं देखना चाहती।"

यह कहकर सोफिया के कमरे में घुस गई, और उसकी मेज पर से बौद्ध-धर्म और वेदांत के कई ग्रंथ उठाकर बाहर बरामदे में फेक दिये! उसी आवेश में उन्हें पैरों से कुचला और जाकर ईश्वर सेवक से बोलीं—“पापा, आप सोफी को नाहक बुला रहे हैं, वह प्रभु मसीह की निन्दा कर रही है!”

मि० ईश्वर सेवक ऐसे चौंके, मानों देह पर आग की चिनगारी गिर पड़ी हो, और अपनी ज्योति-विहीन आँखों को फाड़कर बोले-"क्या कहा, सोफी प्रभु महीस की निंदा कर रही है? सोफ़ी?"

मिसे सेवक—"हाँ-हाँ, सोफी। कहती है, मुझे उनकी विभूतियों पर, उनके उप-देशों और आदेशों पर, विश्वास नहीं है।"

ईश्वर सेवक—(ठंडी साँस खींचकर) "प्रभु मसीह, मुझे अपने दागन में छुपा, अपनी भटकती हुई भेड़ों को सच्चे मार्ग पर ला। कहाँ है सोफी? मुझे उसके पास ले चलो, मेरे हाथ पकड़कर उठाओ। खुदा, मेरी बेटी के हृदय को अपनी ज्योति से जगा। [ ३१ ]
मैं उसके पैरों पर गिरूँगा, उसकी मिन्नतें करूँगा; उसे दीनता से समझाऊँगा। मुझे उसके पास तो ले चलो।"

मिसेज सेवक—"मैं सब कुछ करके हार गई। उस पर खुदा की लानत है। मैं उसका मुँह नहीं देखना चाहती।"

ईश्वर सेवक—"ऐसी बातें न करो। वह मेरे खून का खून, मेरी जान की जान, मेरे प्राणों का प्राण है। मैं उसे कलेजे से लगाऊँगा। प्रभु मसीह ने विधर्मियों को छाती से लगाया था, कुकर्मियों को अपने दामन में शरण दी थी, वह मेरी सोफिया पर अवश्य दया करेंगे। ईसू, मुझे अपने दामन में छुपा।”

जब मिसेज सेवक ने अब भी सहारा न दिया, तो ईश्वर सेवक लकड़ी के सहारे उठे, और लाठी टेकते हुए सोफिया के कमरे के द्वार पर आकर बोले-“बेटी सोफी, कहाँ है? इधर आ बेटी, तुझे गले से लगाऊँ। मेरा मसीह खुदा का दुलारा बेटा था, दीनों का सहायक, निर्बलों का रक्षक, दरिद्रों का मित्र, डूबतों का सहारा, पापियों का उद्धारक, दुखियों का बेड़ा पार लगानेवाला! बेटी, ऐसा और कौन-सा नबी है, जिसका दामन इतना चौड़ा हो, जिसकी गोद में संसार के सारे पापों, सारी बुराइयों के लिए स्थान हो? वही एक ऐसा नबी है, जिसने दुरात्माओं को, अधर्मियों को, पापियों को मुक्ति की शुभ सूचना दी। नहीं तो हम-जैसे मलिनात्माओं के लिए मुक्ति कहाँ थी? हमें उबारनेवाला कौन था?"

यह कहकर उन्होंने सोफ़ी को हृदय से लगा लिया। माता के कठोर शब्दों ने उसके निर्बल क्रोध को जाग्रत् कर दिया था। अपने कमरे में आकर रो रही थी, बार-बार मन उद्विग्न हो उठता था। सोचती थी, अभी, इसी क्षण, इस घर से निकल जाऊँ। क्या इस अनंत संसार में मेरे लिए जगह नहीं है? मैं परिश्रम कर सकती हूँ, अपना भार आप सँभाल सकती हूँ। आत्मस्वातंत्र्य का खून करके अगर जीवन की चिंताओं से निवृत्ति हुई, तो क्या? मेरी आत्मा इतनी तुच्छ वस्तु नहीं है कि उदर पालने के लिए उसकी हत्या कर दी जाय। प्रभु सेवक को अपनी बहन से सहानुभूति थी। धर्म पर उन्हें उससे कहीं कम श्रद्धा थी। किंतु वह अपने स्वतंत्र विचारों को अपने मन ही में संचित रखते थे। गिरजा चले जाते थे, पारिवारिक प्रार्थनाओं में भाग लेते थे; यहाँ तक कि धार्मिक भजन भी गा लेते थे। वह धर्म को गंभीर विचार के क्षेत्र से बाहर समझते थे। वह गिरजा उसी भाव से जाते थे, जैसे थिएटर देखने जाते। पहले अपने कमरे से झाँककर देखा कि कहीं मामा तो नहीं देख रही हैं; नहीं तो मुझ पर वज्र-प्रहार होने लगेंगे। तब चुपके से सोफिया के पास आये, और बोले-"सोफी, क्यों नादान बनती हो? साँप के मुँह में उँगली डालना कौन-सी बुद्धिमानी है? अपने मन में चाहे जो विचार रखो, जिन बातों को जो चाहे, मानो; जिनको जी न चाहे, न मानो; पर इस तरह ढिंढोरा पीटने से क्या फायदा? समाज में नक्कू बनने की क्या जरूरत? कौन तुम्हारे दिल के अंदर देखने जाता है।" [ ३२ ]
सोफिया ने भाई को अवहेलना की दृष्टि से देखकर कहा—"धर्म के विषय में मैं कर्म को वचन के अनुरूप ही रखना चाहती हूँ। चाहती हूँ, दोनों से एक ही स्वर निकले। धन का स्वाँग भरना मेरी क्षमता से बाहर है। आत्मा के लिए मैं संसार के सारे दुःख झेलने को तैयार हूँ। अगर मेरे लिए इस घर में स्थान नहीं है, तो ईश्वर का बनाया हुआ विस्तृत संसार तो है! कहीं भी अपना निर्वाह कर सकती हूँ। मैं सारी विडंबनाएँ सह लूँगी, लोक-निन्दा की मुझे चिन्ता नहीं है; मगर अपनी ही नजरों में गिरकर मैं जिन्दा नहीं रह सकती। अगर यही मान लूँ कि मेरे लिए चारों तरफ से द्वार बन्द हैं, तो भी मैं आत्मा को बेचने की अपेक्षा भूखों मर जाना कहीं अच्छा समझती हूँ।"

प्रभु सेवक--"दुनिया उससे कहीं तंग है, जितना तुम समझती हो।”

सोफिया--"कब के लिए तो जगह निकल ही आयेगी।"

सहसा ईश्वर सेवक ने जाकर उसे छाती से लगा लिया, और अपने भक्ति-गद्गद नेत्र-जल से उसके संतप्त-हृदय को शान्त करने लगे। सोफ़िया को उनकी श्रद्धालुता पर दया आ गई। कौन ऐसा निर्दय प्राणी है, जो भोले-भाले बालक के कठघोड़े का उपहास करके उसका दिल दुखाये, उसके मधुर स्वप्न को विशृङ्खल कर दे?

सोफिया ने कहा-"दादा, आप आकर इस कुरस पर बैठ जायँ, खड़े-खड़े आपको तकलीफ होती है।"

ईश्वर सेवक-"जब तक तू अपने मुख से न कहेगी कि मैं प्रभु मसीह पर विश्वास करती हूँ, तब तक मैं तेरे द्वार पर, यों ही, भिखारियों की भाँति, खड़ा रहूँगा।"

सोफिया-"दादा, मैंने यह कभी नहीं कहा कि मैं प्रभु ईसू पर ईमान नहीं रखती, या मुझे उन पर श्रद्धा नहीं है। मैं उन्हें महान् आदर्श पुरुष और क्षमा तथा दया का अवतार समझती हूँ, और समझती रहूँगी।"

ईश्वर सेवक ने सोफिया के कपोलों का चुंबन करके कहा- "बस, मेरा चित्त शांत हो गया। ईसू तुझे अपने दामन में ले। मैं बैठता हूँ, मुझे ईश्वर-वाक्य सुना, कानों को प्रभु मसीह की वाणो से पवित्र कर।"

सोफिया इनकार न कर सकी। 'उत्पत्ति' का एक परिच्छेद खोलकर पढ़ने लगी। ईश्वर सेवक आँखें बंद करके कुरस' पर बैठ गये, और तन्मय होकर सुनने लगे। मिसेज़ सेवक ने यह दृश्य देखा, और विजयगर्व से मुस्किराती हुई चली गई।

यह समस्या तो हल हो गई; पर ईश्वर सेवक के मरहमों से उसके अंतःकरण का नासूर न अच्छा हो सकता था। आये-दिन उसके मन में धार्मिक शंकाएँ उठती रहती थीं, और दिन-प्रतिदिन उसे अपने घर में रहना दुस्सह होता जाता था। शनैः-शनैः प्रभु सेवक की सहानुभूति भी क्षीण होने लगी। मि० जॉन सेवक को अपने व्यावसायिक कामों से इतना अवकाश ही न मिलता था कि उसके मानसिक विप्लव का निवारण करते। मिसेज़ सेवक पूर्ण निरंकुशता से उस पर शासन करती थीं। सोफिया के लिए सबसे कठिन परीक्षा का समय वह होता था, जब वह ईश्वर सेवक को बाइबिल पढ़कर
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सुनाती थी। इस परीक्षा से बचने के लिए वह नित्य बहाने हूँढ़ती रहती थी। अतः अपने कृत्रिम जीवन से उसे घृणा होती जाती थी। उसे बार बार प्रबल अंतःप्रेरणा होती कि घर छोड़कर कहीं चली जाऊँ, और स्वाधीन होकर सत्यासत्य की विवेचना करूँ; पर इच्छा व्यवहार-क्षेत्र में पैर रखते हुए संकोच से विवश हो जाती थी। पहले प्रभु सेवक से अपनी शंकाएँ प्रकट करके वह शांत-चित्त हो जाया करती थी; पर ज्यों-ज्यों उनकी उदासीनता बढ़ने लगी, सोफिया के हृदय से भी उनके प्रति प्रेम और आदर उठने लगा। उसे धारणा होने लगी कि इनका मन केवल भोग और विलास का दास है। जिसे सिद्धान्तों से कोई लगाव नहीं। यहाँ तक कि उनकी काव्य-रचनाएँ भी, जिन्हें वह पहले बड़े शौक से सुना करती थी, अब उसे कृत्रिम भावों से परिपूर्ण मालूम होतीं। वह बहुधा टाल दिया करती कि मेरे सिर में दर्द है, सुनने को जी नहीं चाहता। अपने मन में कहती, इन्हें उन सद्भावों और पवित्र आवेगों को व्यक्त करने का क्या अधिकार है, जिनका आधार आत्मदर्शन और अनुभव पर न हो।

एक दिन जब घर के सब प्राणी गिरजाघर जाने लगे, तो सोफिया ने सिर-दर्द का बहाना किया। अब तक वह शंकाओं के होते हुए भी रविवार को गिरजा-घर चली जाया करती थी। प्रभु सेवक उसका मनोभाव ताड़ गये, बोले-"सोफी, गिरजा जाने में तुम्हें क्या आपत्ति है? वहाँ जाकर आध घंटे चुपचाप बैठे रहना कोई ऐसा मुश्किल काम नहीं।"

प्रभु सेवक बड़े शौक से गिरजा जाया करते थे, वहाँ उन्हें बनाव और दिखाव, पाखंड और ढकोसलों की दार्शनिक मीमांसा करने और व्यंग्योक्तियों के लिए सामग्री जमा करने का अवसर मिलता था। सोफिया के लिए आराधना विनोद की वस्तु नहीं, शांति और तृप्ति की वस्तु थी। बोली-'तुम्हारे लिए आसान हो, मेरे लिए मुश्किल ही है।"

प्रभु सेवक—"क्यों अपनी जान बवाल में डालती हो। अम्माँ का स्वभाव तो जानती हो!"

सोफिया—“मैं तुमसे परामर्श नहीं चाहती, अपने कामों की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ।”

मिसेज़ सेवक ने आकर पूछा—"सोफी, क्या सिर में इतना दर्द है कि गिरजे तक नहीं चल सकती?"

सोफिया—"जा क्यों नहीं सकती; पर जाना नहीं चाहती।"

मिसेज़ सेवक—"क्यों?”

सोफिया—"मेरी इच्छा। मैंने गिरजा जाने की प्रतिज्ञा नहीं की है।"

मिसेज़ सेवक—"क्या तू चाहती है कि हम कहीं मुँह दिखाने के लायक न रहें?"

सोफिया—"हरगिज़ नहीं, मैं सिर्फ इतना ही चाहती हूँ कि आप मुझे चर्च जाने के लिए मजबूर न करें!" [ ३४ ]
ईश्वर सेवक पहले ही अपने तामजान पर बैठकर चल दिये थे। जॉन सेवक ने आकर केवल इतना पूछा-"क्या बहुत ज्यादा दर्द है? मैं उधर से कोई दवा लेता आऊँगा, जरा पढ़ना कम कर दो, और रोज़ घूमने जाया करो।"

यह कहकर वह प्रभु सेवक के साथ फिटन पर आ बैठे। लेकिन मिसेज़ सेवक इतनी आसानी से उसका गला छोड़नेवाली न थीं। बोलीं-"तुझे ईसू के नाम से क्यों इतनी घृणा है?"

सोफ़िया--"मैं हृदय से उन पर श्रद्धा रखती हूँ!"

माँ-"तू झूठ बोलती है।”

सोफिया-"अगर दिल में श्रद्धा न होती, तो जवान से कदापि न कहती।"

माँ-तू प्रभु मसीह को अपना मुक्तिदाता समझती है? तुझे यह विश्वास है कि वही तेरा उद्धार करेंगे?"

सोफिया-"कदापि नहीं। मेरा विश्वास है कि मेरी मुक्ति, अगर मुक्ति हो सकती है, तो मेरे कर्मों से होगी।"

माँ-"तेरे कर्मों से तेरे मुँह में कालिख लगेगी, मुत्ति न होगी।"

यह कहकर मिसेज़ सेवक भी फ़िटन पर जा बैठी। संध्या हो गई थी। सड़क पर ईसाइयों के दल-के-दल, कोई ओवरकोट पहने, कोई माघ की ठंड से सिकुड़े हुए, खुश गिरजे चले जा रहे थे; पर सोफिया को सूर्य की मलिन ज्योति भी असह्य हो रही थी, वह एक ठंडी साँस खींचकर बैठ गई। "तेरे कर्मों से तेरे मुँह में कालिख लगेगी”—ये शब्द उसके अंतःकरण को भाले के समान वेधने लगे। सोचने लगी-"मेरी स्वार्थ-सेवा का यही उचित दंड है। मैं केवल रोटियों के लिए अपनी आत्मा को हत्या कर रही हूँ, अपमान और अनादर के झोंके सह रही हूँ। इस घर में कौन मेरा हितैषी है? कौन है, जो मेरे मरने की खबर पाकर आँसू की चार बूंदें गिरा दे? शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी। मैं इनकी नज़रों में इतनी गिर गई हूँ! ऐसे जीवन पर धिक्कार है! मैंने देखे हैं, हिंदू-घरानों में भिन्न-भिन्न मतों के प्राणी कितने प्रेम से रहते हैं। बाप सना-तन-धर्मावलंबी है, तो बेटा आर्यसमाजी। पति ब्रह्मसमाज में है, तो स्त्री पाषाण-पूजकों में। सब अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। कोई किसी से नहीं बोलता। हमारे यहाँ आत्मा कुचली जाती है। फिर भी यह दावा है कि हमारी शिक्षा और सभ्यता विचार-स्वातंत्र्य के पोषक हैं। हैं तो हमारे यहाँ भी उदार विचारों के लोग, प्रभु सेवक ही उनकी एक मिसाल है, पर इनकी उदारता यथार्थ में विवेक-शून्यता है। ऐसे उदार प्राणियों से तो अनुदार ही अच्छे। इनमें कुछ विश्वास तो है, निरे बहुरुपिये तो नहीं हैं। आखिर मामा अपने दिल में क्या समझती हैं कि बात-बात पर वाग्वाणों से छेदने लगती हैं? उनके दिल में यही विचार होगा कि इसे कहीं और ठिकाना नहीं है, कोई इसका पूछने-वाला नहीं है। मैं इन्हें दिखा दूँगी कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकती हूँ। अब इस घर में रहना नरक-वास के समान है। इस बेहयाई की रोटियाँ खाने से भूखों मर जाना
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अच्छा है। बला से लोग हँसेंगे, आजाद तो हो जाऊँगी। किसी के ताने-मेहने तो न सुनने पड़ेंगे!"

सोफिया उठी, और मन में कोई स्थान निश्चित किये विना ही अहाते से बाहर निकल आई। उस घर की वायु अब उसे दुषित मालूम होती थी। वह आगे बढ़ती जाती थी; पर दिल में लगातार प्रश्न हो रहा था, कहाँ जाऊँ? जब वह घनी आबादी में पहुँची, तो शोहदों ने उस पर इधर-उधर से आवाज कसने शुरू किये। किन्तु वह शर्म से सिर नीचा करने के बदले उन आवाजों और कुवासनामयी दृष्टियों का जवाब घणायुक्त नेत्रों से देती चली जाती थी, जैसे कोई सवेग जल-धारा पत्थरों को ठुकराती हुई आगे बढ़ती चली जाय। यहाँ तक कि वह उस खुली हुई सड़क पर आ गई, जो दशाश्वमेध-घाट की ओर जाती है।

उसके जी में आया, ज़रा दरिया की सैर करती चलूँ। कदाचित् किसी सजन से भेंट हो जाय। जब-तक दो-चार आदमियों से परिचय न हो, और वे मेरा हाल न जानें, मुझसे कौन सहानुभूति प्रकट करेगा? कौन मेरे हृदय की बात जानता है? ऐसे सदय प्राणी सौभाग्य ही से मिलते हैं। जब अपने माता-पिता अपने शत्रु हो रहे हैं, तो दूसरों से भलाई की क्या आशा?

वह इसी नैराश्य की दशा में चली जा रही थी कि सहसा उसे एक विशाल प्रासाद देख पड़ा, जिसके सामने बहुत चौड़ा हरा मैदान था। अंदर जाने के लिए एक ऊँचा फाटक था, जिसके ऊपर एक सुनहरा गुंबद बना हुआ था। इस गुंबद में नौबत बज रही थी। फाटक से भवन तक सुखों की एक रविश थी, जिसके दोनों ओर बेलें और गुलाब की क्यारियाँ थीं। हरी-हरो घास पर बैठे कितने ही नर-नारी माघ की शीतल वायु का आनंद ले रहे थे। कोई लेटा हुआ था, कोई तकियेदार चौकियों पर बैठा सिगार पी रहा था।

सोफिया ने शहर में ऐसा रमणीक स्थान न देखा था। उसे आश्चर्य हुआ कि शहर के मध्य भाग में भी ऐसे मनोरम स्थान मौजूद हैं! वह एक चौकी पर बैठ गई, और सोचने लगी-"अब लोग चर्च से आ गये होंगे। मुझे घर में न देखकर चौंकेंगे तो जरूर; पर समझेंगे, कहीं घूमने गई होगी। अगर रात-भर यहीं बैठी रहूँ, तो भी वहाँ किसी को चिंता न होगी, आराम से खा-पीकर सोयेंगे। हाँ, दादा को अवश्य दुःख होगा, वह भी केवल इसीलिए कि उन्हें बाइबिल पढ़कर सुनानेवाला कोई नहीं। मामा तो दिल में खुश होंगी कि अच्छा हुआ, आँखों से दूर हो गई। मेरा किसी से परिचय नहीं। इसी से कहा है, सबसे मिलते रहना चाहिए, न जाने कब किससे काम पड़ जाय। मुझे बरसों रहते हो गये, और किसी से राह-रस्म न पैदा की। मेरे साथ नैनीताल में यहाँ के किसी रईस की लड़की पढ़ती थी, भला-सा नाम था। हाँ, इंदु। कितना कोमल स्वभाव था! बात-बात से प्रेम टपका पड़ता था। हम दोनों गले में बाँहें डाले टहलती थीं। वहाँ कोई बालिका इतनी सुंदर और ऐसी सुशील न थी। मेरे और उसके विचारों
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कितना सादृश्य था! कहीं उसका पता मिल जाता, तो दस-पाँच दिन उसी के यहाँ मेहमान हो जाती। उसके पिता का अच्छा-सा नाम था। हाँ, कुँवर भरतसिंह। पहले यह बात ध्यान में न आई, नहीं तो एक कार्ड लिखकर डाल देती। मुझे भूल तो क्या गई होगी, इतनी निष्ठुर तो न मालूम होती था। कम-से-कम मानव-चरित्र का तो अनुभव हो जायगा।"

मजबूरी में हमें उन लोगों की याद आती है, जिनकी सूरत भी विस्मृत हो चुकी होती है। विदेश में हमें अपने मुहल्ले का नाई या कहार भी मिल जाय, तो हम उसके गले मिल जाते हैं, चाहे देश में उससे कभी सीधे मुँह बात भी न की हो।

सोफिया सोच रही थी कि किसी से कुँवर भरतसिंह का पता पूछूँ, इतने में भवन में सामनेवाले पक्के चबूतरे पर फर्श बिछ गया। कई आदमी सितार, बेला, मृदंग ले आ बैठे, और इन साजों के साथ स्वर मिलाकर कई नवयुवक एक स्वर से गाने लगे-

"शान्ति-समर में कभी भूलकर धैर्य नहीं खोना होगा;
वज्र-प्रहार भले सिर पर हो, नहीं किन्तु रोना होगा।
अरि से बदला लेने का मन-बीज नहीं बोना होगा;
घर में कान तूल देकर फिर तुझे नहीं सोना होगा।
देश-दाग को रुधिर-वारि से हर्षित हो धोना होगा;
देश-कार्य की भारी गठरी सिर पर रख ढोना होगा।
आँखें लाल, भवें टेढ़ी कर, क्रोध नहीं करना होगा;
बलि-वेदी पर तुझे हर्ष से चढ़कर कट मरना होगा।
नश्वर है नर-देह, मौत से कभी नहीं डरना होगा;
सत्य-मार्ग को छोड़ स्वार्थ-पथ पैर नहीं धरना होगा।
होगी निश्चय जीत धर्म की यही भाव भरना होगा;
मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ' मरना होगा।"

संगीत में न लालित्य था, न माधुर्य; पर वह शक्ति, वह जागृति भरी हुई थी, जो सामूहिक संगीत का गुण है, आत्मसमर्पण और उत्कर्ष का पवित्र संदेश विराट आकाश में, नीरव गगन में और सोफिया के अशांत हृदय में गूँजने लगा। वह अब तक धार्मिक विवेचन ही में रत रहती थी। राष्ट्रीय संदेश सुनने का अवसर उसे कभी न मिला था। उसके रोम-रोम से वही ध्वनि, दीपक-से ज्योति के समान निकलने लगी-

"मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ' मरना होगा।"

उसके मन में एक तरंग उठी कि मैं भी जाकर गानेवालों के साथ गाने लगती। भाँति-भाँति के उद्गार उठने लगे—"मैं किसी दूर देश में जाकर भारत का आर्तनाद सुनाती। यहीं खड़ी होकर कह दूँ, मैं अपने को भारत-सेवा के लिए समर्पित करती हूँ। [ ३७ ]
अपने जीवन के उद्देश्य पर एक व्याख्यान देती-हम भाग्य के दुखड़े रोने के लिए, अपनी अवनत दशा पर आँसू बहाने के लिए नहीं बनाये गये हैं।”

समा बँधा हुआ था, सोफिया के हृदय की आँखों के सामने इन्हीं भावों के चित्र नृत्य करते हुए मालूम होते थे।

अभी संगीत की ध्वनि गूँज ही रही थी कि अकस्मात् उसी अहाते के अन्दर एक खपरैल के मकान में आग लग गई। जब तक लोग उधर दौड़ें, अग्नि की ज्वाला प्रचंड हो गई। सारा मैदान जगमगा उठा। वृक्ष और पौदे प्रदीप्तप्रकाश के सागर में नहा उठे। गानेवालों ने तुरंत अपने-अपने साज वहीं छोड़े, धोतियाँ ऊपर उठाई, आस्तीनें चढ़ाई और आग बुझाने दौड़े। भवन से और भी कितने ही युवक निकल पड़े। कोई कुएँ से पानी लाने दौड़ा, कोई आग के मुँह में घुसकर अंदर की चीजें निकाल-निकालकर बाहर फेकने लगा। लेकिन कहीं वह उतावलापन, वह घबराहट, वह भगदड़, वह कुहराम, वह 'दौड़ो दौड़ो' का शोर, वह स्वयं कुछ न करके दूसरों को हुक्म देने का गुल न था; जो ऐसी दैवी आपदाओं के समय साधारणतः हुआ करता है। सभी आदमी ऐसे सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे कि एक बूंद पानी भी व्यर्थ न गिरने पाता था, और अग्नि का वेग प्रतिक्षण घटता जाता था, लोग इतनी निर्भयता से आग में कूदते थे, मानों वह जलकुंड है।

अभी अग्नि का वेग पूर्णतः शांत न हुआ था कि दूसरी तरफ से आवाज आई- "दौड़ो दौड़ो, आदमी डूब रहा है।" भवन के दूसरी ओर एक पक्की बावली थी, जिसके किनारे झाड़ियाँ लगी हुई थीं, तट पर एक छोटी-सी नौका खूँटे से बँधी हुई पड़ी थी। आवाज सुनते ही आग बुझानेवाले दल से कई आदमी निकलकर बावली की तरफ लपके, और डूबनेवाले को बचाने के लिए पानी में कूद पड़े। उनके कूदने की आवाज 'धमः! धम!' सोफिया के कानों में आई। ईश्वर का यह कैसा प्रकोप कि एक ही साथ दोनों प्रधान तत्त्वों में यह विप्लव! और एक ही स्थान पर! वह उठकर बावली की ओर जाना ही चाहती थी कि अचानक उसने एक आदमी को पानी का डोल लिये फिसलकर जमीन पर गिरते देखा। चारों ओर अग्नि शांत हो गई थी; पर जहाँ वह आदमी गिरा था, वहाँ अब तक बड़े वेग से धधक रही थी। अग्नि-ज्वाला विकराल मुँह खोले उस अभागे मनुष्य की तरफ लपकी। आग की लपटें उसे निगल जाती; पर सोफिया विद्युत्-गति से ज्याला की तरफ दौड़ी, और उस आदमी को खींचकर बाहर निकाल लाई। यह सब कुछ पल-मात्र में हो गया, अभागे की जान बच गई, लेकिन सोफिया का कोमल गात आग की लपट से झुलस गया। वह ज्वालों के घेरे से बाहर आते ही अचेत होकर जमीन पर गिर पड़ी।

सोफिया ने तीन दिन तक आँखें नहीं खोलीं। मन न जाने किन लोकों में भ्रमण किया करता था। कभी अद्भुत, कभी भयावह दृश्य दिखाई देते। कभी ईसा की सौम्य

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मूर्ति आँखों के सामने आ जाती, कभी किसी विदुषी महिला के चंद्रमुख के दर्शन होते, जिन्हें यह सेंट मेरी समझती।

चौथे दिन प्रातःकाल उसने आँखें खोलीं, तो अपने को एक सजे हुए कमरे में पाया। गुलाब और चंदन की सुगंध आ रही थी। उसके सामने कुरसी पर वही महिला बैठी हुई थीं, जिन्हें उसने सुषुप्तावस्था सेंट मेरी समझा था, और सिरहाने की ओर एक वृद्ध पुरुष बैठे हुए थे, जिनकी आँखों से दया टपकी पड़ती थी। इन्हीं को कदाचित् उसने, अर्द्ध-चेतना की दशा में, ईसा समझा था। स्वप्न की रचना स्मृतियों की पुनरावृत्ति-मात्र होती है।

सोफिया ने क्षीण स्वर में पूछा—"मैं कहाँ हूँ? मामा कहाँ हैं?"

वृद्ध पुरुष ने कहा—"तुम कुँवर भरतसिंह के घर में हो। तुम्हारे सामने रानी साहब बैठी हुई हैं, तुम्हारा जी अब कैसा है?"

सोफिया—"अच्छी हूँ, प्यास लगी। मामा कहाँ हैं, पापा कहाँ हैं, आप कौन हैं?"

रानी—"यह डॉक्टर गंगुली हैं, तीन दिन से तुम्हारी दवा कर रहे हैं। तुम्हारे पापा-मामा कौन हैं?

सोफिया—“पापा का नाम मि० जॉन सेवक है। हमारा बँगला सिगरा में है।”

डॉक्टर—"अच्छा, तुम मि० जॉन सेवक की बेटी हो? हम उसे जानता है; अभी बुलाता है।"

रानी—"किसी को अभी भेज दूँ?"

सोफिया—"कोई जल्दी नहीं है, आ जायँगे। मैंने जिस आदमी को पकड़कर खींचा था, उसकी क्या दशा हुई?"

रानी—"बेटी, वह ईश्वर की कृपा से बहुत अच्छी तरह है। उसे जरा भी आँच नहीं लगी। वह मेरा बेटा विनय है। अभी आता होगा। तुम्हीं ने तो उसके प्राण बचाये। अगर तुम दोड़कर न पहुँच जातीं, तो आज न जाने क्या होता। मैं तुम्हारे ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकती। तुम मेरे कुल की रक्षा करनेवाली देवी।”

सोफिया—"जिस घर में आग लगी थी, उसके आदमी सब बच गये?"

रानी—"बेटी,यह तो केवल अभिनय था। विनय ने यहाँ एक सेवा-समिति बना रखी है! जब शहर में कोई मेला होता है, या कहीं से किसी दुर्घटना का समाचार आता है, तो समिति वहाँ पहुँचकर सेवा-सहायता करती है। उस दिन समिति की परीक्षा के लिए कुँवर साहब ने वह अभिनय किया था।”

डॉक्टर—"कुँवर साहब देवता है, कितने गरीब लोगों की रक्षा करता है। यह समिति, अभी थोड़े दिन हुए, बंगाल गई थी। यहाँ सूर्य-ग्रहण का स्नान होनेवाला है। लाखों यात्री दूर-दूर से आयेगा। उसके लिए यह सब तैयारी हो रही है।”

इतने में एक युवती रमणी आकर खड़ी हो गई। उसके मुख से उज्ज्वल दीपक
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के समान प्रकाश की रश्मियाँ छिटक रही थीं। गले में मोतियों के हार के सिवा उसके शरीर पर कोई आभूषण न था। ऊषा की शुभ्र छटा मूर्तिमान् हो गई थी।

सोफिया ने उसे एक क्षण-भर देखा, तब बोली-"इंदु, तुम यहाँ कहाँ? आज 'कितने दिनों बाद तुम्हें देखा है?"

इंदु चौंक पड़ी। तीन दिन से बराबर सोफिया को देख रही थी, खयाल आता था 'कि इसे कहीं देखा है; पर कहाँ देखा है, यह याद न आती थी। उसकी बातें सुनते ही स्मृति जाग्रत हो गई, आँखें चमक उठी, गुलाब खिल गया। बोली-“ओहो! सोफी, तुम हो?"

दोनों सखियाँ गले मिल गई। यह वही इंदु थी, जो सोफिया के साथ नैनीताल में पढ़ती थी। सोफिया को आशा न थी कि इंदु इतने प्रेम से मिलेगी। इंदु कभी पिछली बातें याद करके रोती, कभी हँसती, कभी गले मिल जाती। अपनी माँ से उसका गुणा-नुवाद करने लगी। माँ उसका प्रेम देख-देखकर फूली न समाती थी। अंत में सोफिया-ने झेपते हुए कहा-"इंदु, ईश्वर के लिए अब मेरी और ज्यादा तारीफ न करो, नहीं तो मैं तुमसे न बोलूँगी। इतने दिनों तक कभी एक खत भी न लिखा, मुँह-देखे का प्रेम करती हो।"

रानी-"नहीं बेटी सोफी, इंदु मुझसे कई बार तुम्हारी चर्चा कर चुकी है। यहाँ कितने ही रईसों की लड़कियाँ इससे मिलने आती हैं, पर किसी से इसका मन नहीं मिलता, किसी से हँसकर बोलती तक नहीं। तुम्हारे सिवा मैंने इसे किसी की तारीफ करते नहीं सुना।"

इंदु-"बहन, तुम्हारी शिकायत वाजिब है, पर करूँ क्या, मुझे खत ही नहीं लिखना आता। एक तो बड़ी भूल यह हुई कि तुम्हारा पता नहीं पूछा, और अगर पता मालूम भी होता, तो भी मैं खत न लिख सकती। मुझे डर लगता है कि कहीं तुम हँसने न लगो। मेरा पत्र कभी समाप्त ही न होता, और न जाने क्या क्या लिख जाती।"

कुँवर साहब को मालूम हुआ कि सोफिया बातें कर रही है, तो वह भी उसे धन्यवाद देने के लिए आये। पूरे छः फीट के मनुष्य थे, बड़ी-बड़ी आँखें, लंबे बाल, लंबी दाढ़ी, मोटे कपड़े का एक नीचा कुरता पहने हुए थे। सोफिया ने ऐसा तेजस्वी स्वरूप कभी न देखा था। उसने अपने मन में ऋषियों की जो कल्पना कर रखी थी, वह बिलकुल ऐसी ही थी। इस दिशाल शरीर में बैठी हुई विशाल आत्मा दोनों नेत्रों से ताक रही थी। सोफ़ी ने सम्मान-भाव से उठना चाहा; पर कुँवर साहब मधुर, सरल स्वर में बोले-"बेटी, लेटी रहो, तुम्हें उठने में कष्ट होगा। लो, मैं बैठ जाता हूँ, तुम्हारे पापा से मेरा परिचय है, पर क्या मालूम था कि तुम मि सेवक की बेटी हो। मैंने उन्हें बुलाया है, लेकिन मैं कहे देता हूँ, मैं अभी तुम्हें न जाने दूँगा। यह कमरा अब तुम्हारा है, और यहाँ से चले जाने पर भी तुम्हें एक बार यहाँ नित्य आना पड़ेगा। (रानी से) जाह्नवी, यहाँ प्यानो मँगवाकर रख दो। आज मिस सोहराबजी को बुलवाकर
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सोफिया का एक तैल-चित्र खिंचवाओ। सोहराबजी ज्यादा कुशल हैं; पर में नहीं चाहता कि सोफिया को उनके सामने बैठना पड़े। वह चित्र हमें याद दिलाता रहेगा कि किसने महान् संकट के अवसर पर हमारी रक्षा की।"

रानी-"कुछ नाज भी दान करा दूँ?"

यह कहकर रानी ने डॉक्टर गंगुली की ओर देखकर आँखें मटकाई। कुँवर साहब तुरंत बोले-"फिर वही ढकोसले! इस जमाने में जो दरिद्र है, उसे दरिद्र होना चाहिए; जो भूखों मरता है, उसे भूखों मरना चाहिए; जब घंटे-दो घंटे की मिहनत से खाने भर को मिल सकता है, तो कोई सबब नहीं कि क्यों कोई आदमी भूखों मरे। दान ने हमारी जाति में जितने आलसी आदमी पैदा कर दिये हैं, उतने सब नशों ने मिलकर भी न पैदा किये होंगे। दान का इतना महत्त्व क्यों रखा गया, यह मेरी समझ में नहीं आता।"

रानी-"ऋषियों ने भूल की कि तुमसे सलाह न ले ली।”

कुँवर-"हाँ, मैं होता, तो साफ कह देता-आप लोग यह आलस्य, कुकर्म और अनर्थ का बीज बो रहे हैं। दान आलस्य का मूल है, और आलस्य सब पापों का मूल है। इसलिए दान ही सब पापों का मूल है, कम-से-कम पोषक तो अवश्य ही है। दान नहीं, अगर जी चाहता हो, तो मित्रों को एक भोज दे दो।"

डॉक्टर गंगुली-"सोफिया, तुम राजा साहब का बात सुनता है? तुम्हारा प्रभु मसीह तो दान को सबसे बढ़कर महत्त्व देता है, तुम कुँवर साहब से कुछ नहीं कहता?"

सोफिया ने इंदु की ओर देखा, और मुस्किराकर आँखें नीची कर लीं, मानों कहा रही थी कि मैं इनका आदर करती हूँ, नहीं तो जवाब देने में असमर्थ नहीं हूँ।

सोफिया मन-ही-मन इन प्राणियों के पारस्परिक प्रेम की तुलना अपने घरवालों से कर रही थी। आपस में कितनी मुहब्बत है। माँ-बाप दोनों इंदु पर प्राण देते हैं। एक मैं अभागिनी हूँ कि कोई मुँह भी नहीं देखना चाहता। चार दिन यहाँ पड़े हो गये, किसी ने खबर तक न ली। किसी ने खोज ही न की होगी। अम्माँ ने तो समझा होगा, कहीं डूब मरी। मन में प्रसन्न हो रही होंगी कि अच्छा हुआ, सिर से बला टल्ली। मैं ऐसे सहृदय प्राणियों में रहने योग्य नहीं हूँ। मेरी इनसे क्या बराबरी!

यद्यपि यहाँ किसी के व्यवहार में दया की झलक भी न थी, लेकिन सोफिया को उन्हें अपना इतना आदर-सत्कार करते देखकर अपनी दीनावस्था पर ग्लानि होती थी। इंदु से भी शिष्टाचार करने लगी। इंदु उसे प्रेम से 'तुम' कहती थी; पर वह उसे 'आप' कहकर संबोधित करती थी।

कुँवर साहब कह गये थे, मैंने मि० सेवक को सूचना दे दी है, वह आते ही होंगे। सोफिया को अब यह भय होने लगा कि कहीं वह आ न रहे हों। आते-ही-आते मुझे अपने साथ चलने को कहेंगे। मेरे सिर फिर वही विपत्ति पड़ेगी। इंदु से अपनी विपत्ति-कथा कहूँ, तो शायद उसे मुझसे कुछ सहानुभूति हो। यह मौकरानी यहाँ व्यर्थ ही बैठी हुई है। इंदु आई भी, तो उससे कैसे बातें करूँगी। पापा के आने के पहले एक बार
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इंदु से एकांत में मिलने का मौका मिल जाता, तो अच्छा होता। क्या करूँ, इंदु को बुला भेजूँ ? न जाने क्या करने लगी। प्यानो बजाऊँ, तो शायद सुनकर आये।

उधर इंदु भी सोफ़िया से कितनी ही बातें करना चाहती थी। रानीजी के सामने उसे दिल की बातें कहने का अवसर न मिला था। डर रही थी कि सोफिया के पिता उसे लेते गये, तो मैं फिर अकेली हो जाऊँगी। डॉक्टर गंगुली ने कहा था कि इन्हें ज्यादा बातें मत करने देना, आज और आराम से सो लें, तो फिर कोई चिंता न रहेगी। इसलिए वह आने का इरादा करके भी रह जाती थी। आखिर नौ बजते-बजते वह अधीर हो गई। आकर नौकरानी को अपना कमरा साफ करने के बहाने से हटा दिया, और सोफिया के सिरहाने बैठकर बोली-"क्यों बहन, बहुत कमजोरी तो नहीं मालूम होती?"

सोफिया—"बिलकुल नहीं। मुझे तो मालूम होता है कि मैं चंगी हो गई।"

इंदु—"तुम्हारे पापा कहीं तुम्हें अपने साथ ले गये, तो मेरे प्राण ही निकल जायँगे। तुम भी उनकी राह देख रही हो। उनके आते ही खुश होकर चली जाओगी, और शायद फिर कभी मेरी याद भी न करोगी।"

यह कहते-कहते इंदु की आँखें सजल हो गई। मनोभावों के अनुचित आवेश को हम बहुधा मुस्किराहट से छिपाते हैं। इंदु की आँखों में आँसू भरे हुए थे, पर वह मुस्किरा रही थी।

सोफ़िया बोली—"आप मुझे भूल सकती हैं, पर मैं आपको कैसे भूलूँगी?"

वह अपने दिल का दर्द सुनाने ही जा रही थी कि संकोच ने आकर जबान बन्द कर दी, बात फेरकर बोली-"मैं कभी-कभी आपसे मिलने आया करूँगी।"

इंदु—"मैं तुम्हें यहाँ से अभी पन्द्रह दिन तक न जाने दूँगी। धर्म बाधक न होता, तो कभी न जाने देती। अम्माँजी तुम्हें अपनी बहू बनाकर छोड़तीं। तुम्हारे ऊपर बेतरह रीझ गई हैं। जहाँ बैठती हैं, तुम्हारी ही चर्चा करती हैं। विनय भी तुम्हारे हाथों बिका हुआ-सा जान पड़ता है। तुम चली जाओगी, तो सबसे ज्यादा दुःख उसी को होगा। एक बात भेद की तुमसे कहती हूँ। अम्माँजो तुम्हें कोई चीज तोहफा समझकर दें, तो इनकार मत करना, नहीं तो उन्हें बहुत दुःख होगा।"

इस प्रेममय आग्रह ने संकोच का लंगर उखाड़ दिया। जो अपने घर में नित्य कटु शब्द सुनने की आदी हो, उसके लिए इतनी मधुर सहानुभूति काफी से ज्यादा थी। अब सोफ़ो को इंदु से अपने मनोभावों को गुप्त रखना मैत्री के नियमों के विरुद्ध प्रतीत हुआ। करुण स्वर में बोली-"इंदु, मेरा वश चलता, तो कभी रानी के चरणों को न छोड़ती, पर अपना क्या काबू है? यह स्नेह और कहाँ मिलेगा?"

इंदु या भाव न समझ सकी। अपनी स्वाभाविक सरलता से बोली—“कहीं विवाह को बातचीत हो रही है क्या?"

उसकी समझ में विवाह के सिवा लड़कियों के इतना दुखी होने का कोई कारण न था। [ ४२ ]सोफिया-"मैंने तो इरादा कर लिया है कि विवाह न करूँगी!"

इंदु-"क्यों?"

सोफ़िया-"इसलिए कि विवाह से मुझे अपनी धार्मिक स्वाधीनता त्याग देनी पड़ेगी धर्म विचार-स्वातन्त्र्य का गला घोंट देता है। मैं अपनी आत्मा को किसी मत के हाथ नहीं बेचना चाहती। मुझे ऐसा ईसाई पुरुष मिलने की आशा नहीं, जिसका हृदय इतना उदार हो कि वह मेरी धार्मिक शंकाओं को दरगुजर कर सके। मैं परिस्थिति से विवश होकर ईसा को खुदा का बेटा और अपना मुक्तिदाता नहीं मान सकती, विवश होकर गिरिजाघर में ईश्वर की प्रार्थना करने नहीं जाना चाहती। मैं ईसा को ईश्वर नहीं मान सकती।"

इंदु-"मैं तो समझती थी, तुम्हारे यहाँ हम लोगों के यहाँ से कहीं ज्यादा आजादी है; जहाँ चाहो, अकेली जा सकती हो। हमारा तो घर से निकलना मुश्किल है।"

सोफिया-"लेकिन इतनी धार्मिक संकीर्णता तो नहीं है?"

इंदु-"नहीं, कोई किसी को पूजा-पाठ के लिए मजबूर नहीं करता। बाबूजी नित्य गंगा स्नान करते हैं, घण्टों शिव की आराधना करते हैं। अम्माँजी कभी भूलकर भी स्नान करने नहीं जातीं, न किसी देवता की पूजा करती हैं; पर बाबूजी कभी आग्रहः नहीं करते। भक्ति तो अपने विश्वास और मनोवृत्ति पर ही निर्भर है। हम भाई-बहन के विचारों में भी आकाश-पाताल का अन्तर है। मैं कृष्ण की उपासिका हूँ, विनय ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करता; पर बाबूजी हम लोगों से कभी कुछ नहीं कहते, और न हम भाई-बहन में कभी इस विषय पर वाद-विवाद होता है।"

सोफिया-"हमारी स्वाधीनता लौकिक और इसलिए मिथ्या है। आपकी स्वाधीनता मानसिक और इसलिए सत्य है। असली स्वाधीनता वही है, जो विचार के प्रवाह में बाधक न हो।"

इंदु-"तुम गिरजे में कभी नहीं जाती?"

सोफिया-"पहले दुराग्रह-वश जाती थी, अब की नहीं गई। इस पर घर के लोग बहुत नाराज हुए। बुरी तरह तिरस्कार किया गया।"

इंदु ने प्रेममयी सरलता से कहा-“वे लोग नाराज हुए होंगे, तो तुम बहुत रोई होंगी। इन प्यारी आँखों से आँसू बहे होंगे। मुझसे किसी का रोना नहीं देखा जाता।"

सोफिया-"पहले रोया करती थी, अब परवा नहीं करती।"

इंदु-"मुझे तो कभी कोई कुछ कह देता है, तो हृदय पर तीर-सा लगता है। दिन-दिन भर रोती ही रह जाती हूँ। आँसू ही नहीं थमते। वह बात बार-बार हृदय में चुभा करती है। सच पूछो, तो मुझे किसी के क्रोध पर रोना नहीं आता, रोना आता है अपने ऊपर कि मैंने क्यों उन्हें नाराज किया, क्यों मुझसे ऐसी भूल हुई।"

सोफिया को भ्रम हुआ कि इंदु मुझे अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना चाहती
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है, माथे पर शिकन पड़ गई। बोली-“मेरी जगह पर आप होतीं, तो ऐसा न कहतीं। आखिर क्या आप अपने धार्मिक विचारों को छोड़ बैठती?”

इंदु-“यह तो नहीं कह सकती कि क्या करती; पर घरवालों को प्रसन्न रखने की चेष्टा किया करती।"

सोफिया-"आपकी माताजी अगर आपको जबरदस्ती कृष्ण की उपासना करने से रोकें, तो आप मान जायँगी?"

इंदु-"हाँ, मैं तो मान जाऊँगी। अम्माँ को नाराज न करूँगी। कृष्ण तो अंतर्यामी हैं, उन्हें प्रसन्न रखने के लिए उपासना की जरूरत नहीं। उपासना तो केवल अपने मम के संतोष के लिए है।"

सोफिया- (आश्चर्य से) “आपको जरो भी मानसिक पीड़ा न होगी?"

इंदु-"अवश्य होगी; पर उनकी खातिर मैं सह लूंगी।"

सोफिया--"अच्छा, अगर वह आपकी इच्छा के विरुद्ध आपका विवाह करना चाहें तो?"

इंदु-(लजाते हुए) "वह समस्या तो हल हो चुकी। माँ-बाप ने जिससे उचित समझा, कर दिया। मैंने जबान तक नहीं खोली।"

सोफिया-"अरे, यह कब?"

इंदु-"इसे तो दो साल हो गये। ( आखें नीची करके) अगर मेरा अपना वश होता, तो उन्हें कभी न वरती, चाहे कुँवारी ही रहती। मेरे स्वामी मुझसे प्रेम करते हैं, धन की कोई कमी नहीं। पर मैं उनके हृदय के केवल चतुर्थांस की अधिकारिणी हूँ, उसके तीन भाग सार्वजनिक कामों को भेंट होते हैं। एक के बदले चौथा पाकर कौन संतुष्ट हो सकता है। मुझे तो बाजरे की पूरी बिस्कुट के चौथाई हिस्से से कहीं अच्छी मालूम होती है। क्षुधा तो तप्त हो जाती है, जो भोजन का यथार्थ उद्देश्य है।”

सोफिया—"आपकी धार्मिक स्वाधीनता में तो बाधा नहीं डालते?”

इंदु—"नहीं। उन्हें इतना अवकाश कहाँ है?"

सोफिया—"तब तो मैं आपको मुबारकबाद दूंगी।"

इंदु—"अगर किसी कैदी को बधाई देना उचित हो, तो शौक से दो।"

सोफिया—"बेड़ी प्रेम की हो, तो?"

इंदु—“ऐसा होता, तो मैं तुमसे बधाई देने को आग्रह करती। मैं बँध गई, वह मुक्त हैं। मुझे यहाँ आये तीन महीने होने आते हैं; पर तीन बार से ज्यादा नहीं आये, और वह भी एक-एक घंटे के लिए। इसी शहर में रहते हैं, दस मिनट में मोटर आ सकती है; पर इतनी फुर्सत किसे है। हाँ, पत्रों से अपनी मुलाकात का काम निकालना चाहते हैं, और वे पत्र भी क्या होते हैं, आदि से अंत तक अपने दुखड़ों से भरे हुए। आज यह काम है, कल वह काम है; इनसे मिलने जाना है, उनका स्वागत करना है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गये, राज्य मिल गया। जब देखो, वही धुन सवार! [ ४४ ]
और सब कामों के लिए फुर्सत है। अगर फुर्सत नहीं है, तो सिर्फ यहाँ आने की। मैं तुम्हें चिताये देती हूँ, किसी देश-सेवक से विवाह न करना, नहीं तो पछताओगी। तुम उसके अवकाश के समय की मनोरंजन-सामग्री-मात्र रहोगा।"

सोफिया--"मैं तो पहले ही अपना मत स्थिर कर चुकी; सबसे अलग-ही-अलग रहना चाहती हूँ, जहाँ मेरी स्वाधीनता में बाधा डालनेवाला कोई न हो। मैं सत्पथ पर रहूँगी, या कुपथ पर चलूँगी, यह जिम्मेदारी भी अपने ही सिर लेना चाहती हूँ। मैं बालिग हूँ, और अपना नफा-नुकसान देख सकती हूँ। आजन्म किसी की रक्षा में नहीं रहना चाहती; क्योंकि रक्षा का अर्थ पराधीनता के सिवा और कुछ नहीं।"

इंदु—"क्या तुम अपने मामा और पापा के अधीन नहीं रहना चाहती?"

सोफिया--"न, पराधीनता में प्रकार का नहीं, केवल मात्राओं का अंतर है।"

इंदु—"तो मेरे ही घर क्यों नहीं रहतीं? मैं इसे अपना सौभाग्य समझूगी। और अम्माँजी तो तुम्हें आँखों की पुतली बनाकर रखेंगी। मैं चली जाती हूँ, तो वह अकेले घबराया करती हैं। तुम्हें पा जायँ, तो फिर गला न छोड़ें। कहो, तो अम्माँ से कहूँ। यहाँ तुम्हारी स्वाधीनता में कोई दखल न देगा। बोलो, कहूँ जाकर अम्माँ से?”

सोफिया—"नहीं, अभी भूलकर भी नहीं। आपकी अम्माँजी को जब मालूम होगा कि इसके माँ-बाप इसकी बात नहीं पूछते, तो मैं उनकी आँखों से भी गिर जाऊँगो। जिसको अपने घर में इजत नहीं, उसको बाहर भी इजत नहीं होती।"

इंदु-"नहीं सोफी, अम्माँजी का स्वभाव बिल्कुल निराला है। जिस बात से तुम्हें अपने निरादर का भय है, वही बात अम्माजी के आदर की वस्तु है, वह स्वयं अपनी माँ से किसी बात पर नाराज हो गई थीं, तब से मैके नहीं गई। नानी मर गई; पर अम्माँ ने उन्हें क्षमा नहीं किया। सैकड़ों बुलावे आये; पर उन्हें देखने तक न गई। उन्हें ज्योंही यह बात मालूम होगो, तुम्हारी दूनी इज्जत करने लगेंगी।”

सोफो ने आँखों में आँसू भरकर कहा—'बहन, मेरी लाज अब आप ही के हाथ है।" इंदु ने उसका सिर अपनी जाँघ पर रखकर कहा-“वह मुझे अपनी लाज से कर प्रिय नहीं है।" उधर मि० जॉन सेक्क को कुँवर साहब का पत्र मिला, तो जाकर स्त्री से बोले- "देखा, मैं कहता न था कि सोफी पर कोई संकट आ पड़ा। यह देखो, कुँवर भरतसिंह का पत्र है। तीन दिनों से उनके घर पड़ी हुई है। उनके एक झोपड़े में आग लग गई थी, वह भी उसे बुझाने लगी। कहीं लपट में आ गई।"

मिसेज सेवक—"ये सब बहाने हैं। मुझे उसकी किसी बात पर विश्वास नहीं रहा। जिसका दिल खुदा से फिर गया, उसे झूठ बोलने का क्या डर? यहाँ से बिगड़कर गई थी, समझा होगा, घर से निकलते ही फूलों की सेज बिछी हुई मिलेगी। जब कहीं शरण न मिली तो यह पत्र लिखवा दिया। अब आटे-दाल का भाव मालूम होगा। यह भी संभव है, खुदा ने उसके अविचार का यह दंड दिया हो।" [ ४५ ]मि० जॉन सेवक-"चुप भी रहो, तुम्हारी निर्दयता पर मुझे आश्चर्य होता है। मैंने तुम जैसी कठोर-हृदया स्त्री नहीं देखी।"

मिसेज़ सेवक-"मैं तो नहीं जाती। तुम्हें जाना हो, तो जाओ।"

जॉन सेवक-"मुझे तो देख रही हो, मरने की फुरसत नहीं है। उसी पाँड़ेपुरवाली जमीन के विषय में बातचीत कर रहा हूँ। ऐसे मूजी से पाला पड़ा है कि किसी तरह चंगुल ही में नहीं आता। देहातियों को जो लोग सरल कहते हैं, बड़ी भूल करते हैं। इनसे ज्यादा चालाक आदमी मिलना मुश्किल है। तुम्हें इस वक्त कोई काम नहीं है, मोटर मँगवाये देता हूँ, शान से चली जाओ, और उसे अपने साथ लेती आओ।"

ईश्वर सेवक वहीं आराम-कुरसी पर आँखें बंद किये ईश्वर-भजन में मग्न बैठे थे। जैसे बहरा आदमी मतलब की बात सुनते ही सचेत हो जाता है, मोटरकार का जिक्र सुनते ही ध्यान टूट गया। बोले-"मोटरकार की क्या जरूरत है? क्या दस-पाँच रुपये काट रहे हैं? यों उड़ाने से तो कारूँ का खजाना भी काफी न होगा। क्या गाड़ी पर जाने से शान में फर्क आ जायगा? तुम्हारी मोटर देखकर कुँवर साहब रोब में न आयेंगे, उन्हें नुदा ने बहुतेरी मोटरें दी हैं। प्रभु, दास को अपनी शरण में लो, अब देर न करो, मेरी सोफी बेचारी वहाँ बेगानों में पड़ी हुई है, न जाने इतने दिन किस तरह काटे होंगे। खुदा उसे सच्चा रास्ता दिखाये। मेरी आँखें उसे ढूँढ़ रही हैं। जब से वह गई है, कलामे-पाक सुनने की नौबत नहीं आई। ईसू , मुझ पर सायां कर। वहाँ उस बेचारी का कौन पुछत्तर होगा, अमीरों के घर में गरीबों का कहाँ गुजर!"

जॉन सेवक—"अच्छा ही हुआ, यहाँ होती, तो रोजाना डॉक्टर की फीस न देनी पड़ती?"

ईश्वर सेवक—"डॉक्टर का क्या काम था। ईश्वर की दया से मैं खुद थोड़ी-बहुत डॉक्टरी कर लेता हूँ। घरवालों का स्नेह डॉक्टर की दवाओं से कहीं ज्यादा लाभदायक होता है। मैं अपनी बच्ची को गोद में लेकर कलामे-पाक सुनाता, उसके लिए खुदा से दुआ माँगता।"

मिसेज सेवक—"तो आप ही चले जाइए!"

ईश्वर सेवक—"सिर और आँखों से; मेरा ताँगा मँगवा दो। हम सबों को चलना चाहिए। भूले-भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है। मैं भी चलता हूँ। अमीरों के सामने दीन बनना पड़ता है। उनसे बराबरी का दावा नहीं किया जाता।”

जॉन सेवक— "मुझे अभी साथ न ले जाइए, मैं किसी दूसरे अवसर पर जाऊँगा। इस वक्त वहाँ शिष्टाचार के सिवा और कोई काम न होगा। मैं उन्हें धन्यवाद दूँगा, वह मुझे धन्यवाद देंगे। मैं इस परिचय को दैवी प्रेरणा समझता हूँ। इतमीनान से मिलूँगा। कुँवर साहब का शहर में बहुत दबाव है। म्युनिसिपैलिटी के प्रधान उनके दामाद हैं। उनकी सहायता से मुझे पाँडेपुरवाली जमीन बड़ी आसानी से मिल जायगी। संभव है, वह कुछ हिस्से भी खरीद लें। मगर आज इन बातों का मौका नहीं है।" [ ४६ ]ईश्वर सेवक—"मुझे तुम्हारी बुद्धि पर हँसी आती है। जिस आदमी से राह-रस्म पैदा करके तुम्हारे इतने काम निकल सकते हैं, उससे मिलने में भी तुम्हें इतना संकोच। तुम्हारा समय इतना बहुमूल्य है कि आध घंटे के लिए भी वहाँ नहीं जा सकते? पहली ही मुलाकात में सारी बातें तय कर लेना चाहते हो? ऐसा सुनहरा अवसर पाकर भी तुम्हें उससे फायदा उठाना नहीं आता।”

जॉन सेवक—“खैर, आपका अनुरोध है, तो मैं ही चला जाऊँगा। मैं एक जरूरी काम कर रहा था, फिर कर लूँगा। आपको कष्ट करने की जरूरत नहीं। (स्त्री ने) तुम तो चल रही हो?”

मिसेज सेवक-"मुझे नाहक ले चलते हो; मगर खैर, चलो।"

भोजन के बाद चलना निश्चित हुआ। अँगरेजी प्रथा के अनुसार यहाँ दिन का भोजन एक बजे होता था। बीच का समय तैयारियों में कटा। मिसेज सेवक ने अपने आभूषण निकाले, जिनसे वृद्धावस्था ने भी उन्हें विरक्त नहीं किया था। अपना अच्छे-से-अच्छा गाउन और ब्लाउज निकाला। इतना शृंगार वह अपनी बरस-गाँठ के सिवा और किसी उत्सव में न करती थीं। उद्देश्य था सोफिया को जलाना, उसे दिखाना कि तेरे आने से मैं रो-रोकर मरी नही जा रही हूँ। कोचवान को गाड़ी धोकर साफ करने का हुक्म दिया गया। प्रभु सेवक को भी साथ ले चलने की राय हुई। लेकिन जॉन सेवक ने जाकर उसके कमरे में देखा, तो उसका पता न था। उसकी मेज पर एक दर्शन-ग्रंथ खुला पड़ा था। मालूम होता था, पढ़ते-पढ़ते उठकर कहीं चला गया है। वास्तव में यह ग्रंथ तीन दिनों से इसी भाँति खुला पड़ा था। प्रभु सेवक को उसे बंद करके रख देने का भी अवकाश न था। वह प्रातःकाल से दो घड़ी रात तक शहर का चक्कर लगाया करता। केवल दो बार भोजन करने घर पर आता था। ऐसा कोई स्कूल न था, जहाँ उसने सोफ़ी को न ढूँढ हो। कोई जान-पहचान का आदमी, कोई मित्र ऐसा न था, जिसके घर जाकर उसने तलाश न की हो। दिन-भर की दौड़-धूप के बाद रात को निराश होकर लौट आता, और चारपाई पर लेटकर घंटों सोचता और रोता। कहाँ चली गई? पुलिस के दफ्तर में दिन-भर में दस-दस बार जाता और पूछता, कुछ पता चला? समाचार-पत्रों में भी सूचना दे रखी थी। वहाँ भी रोज कई बार जाकर दरियाफ्त करता। उसे विश्वास होता जाता था कि सोफी हमसे सदा के लिए बिदा हो गई। आज भी, रोज की भाँति, एक बजे थका-माँदा, उदास और निराश लौटकर आया, तो जॉन सेवक ने शुभ-सूचना दी-"सोफिया का पता मिल गया।"

प्रभु सेवक का चेहरा खिल उठा। बोला-"सच! कहाँ है? क्या उसका कोई पत्र आया है?"

जॉन सेवक-"कुँवर भरतसिंह के मकान पर है। जाओ, खाना खा लो। भी वहाँ चलना है।" [ ४७ ]प्रभु सेवक- "मैं तो लौटकर खाना खाऊँगा। भूख गायब हो गई। है तो अच्छी तरह?"

मिसेज सेवक—“हाँ-हाँ, बहुत अच्छी तरह है। खुदा ने यहाँ से रूठकर जाने की सजा दे दी।”

प्रभु सेवक-"मामा, खुदा ने आपका दिल न जाने किस पत्थर का बनाया है। क्या घर से आप ही रूठकर चली गई थी? आप ही ने उसे निकाला, और अब भी आपको उस पर जरा भी दया नहीं आती?"

मिसेज सेवक-"गुमराहों पर दया करना पाप है।"

प्रभु सेवक-"अगर सोफी गुमराह है, तो ईसाइयों में १०० में ९९ आदमी गुमराह हैं। वह धर्म का स्वाँग नहीं दिखाना चाहती, यही उसमें दोष है। नहीं तो प्रभु मसीह से जितनी श्रद्धा उसे है, उतनी उन्हें भी न होगी, जो ईसा पर जान देते हैं।"

मिसेज सेवक-"खैर, मालूम हो गया कि तुम उसकी वकालत खूब कर सकते हो। "मुझे इन दलीलों को सुनने की फुरसत नहीं।"

यह कहकर मिसेज सेवक वहाँ से चली गई। भोजन का समय आया। लोग मेजा पर बैठे। प्रभु सेवक आग्रह करने पर भी न गया। तीनों आदमी फिटन पर बैठे, तो ईश्वर सेवक ने चलते-चलते जॉन सेवक से कहा-"सोफो को जरूर साथ लाना, और इस अवसर को हाथ से न जाने देना। प्रभु मसीह तुम्हें सुबुद्धि दें, सफल-मनोरथ करें।"

थोड़ी देर में फिटन कुँवर साहब के मकान पर पहुँच गई। कुँवर साहब ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया। मिसेज सेवक ने मन में सोच रखा था, मैं सोफिया से एक शब्द भी न बोलूँगी, दूर से खड़ी देखती रहूँगी। लेकिन जब सोफिया के कमरे में पहुँची, और उसका मुरझाया हुआ चेहरा देखा, तो शोक से कलेजा मसोस उठा। मातृस्नेह उबल पड़ा। अधीर होकर उससे लिपट गई। आँखों से आँसू बहने लगे। इस प्रवाह में सोफिया का मनोमालिन्य बह गया। उसने दोनों हाथ माता की गरदन में डाल दिये, और कई मिनट तक दोनों प्रेम का स्वर्गीय आनंद उठाती रहीं। जॉन सेवक ने सोफिया का माथा चूमा; किन्तु प्रभु सेवक आँखों में आँसू-भरे उसके सामने खड़ा रहा। आलिंगन करते हुए उसे भय होता था कि कहीं हृदय फट न जाय। ऐसे अवसरों पर उसके भाव और भाषा, दोनों ही शिथिल हो जाते थे।

जब जॉन सेवक सोफ़ो को देखकर कुँवर साहब के साथ बाहर चले गये, तो मिसेज सेवक बोली-"तुझे उस दिन क्या सूझी कि यहाँ चली आई? यहाँ अजनबियों में पड़े-पड़े तेरी तबीयत घबराती रही होगी। ये लोग अपने धन के घमंड में तेरी बात भी न पूछते होंगे।"

सोफिया-"नहीं मामा, यह बात नहीं है। घमण्ड तो यहाँ किसी में छू भी नहीं
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गया है। सभी सहृदयता और विनय के पुतले हैं। यहाँ तक कि नौकर चाकर भी इशारों पर काम करते हैं। मुझे आज चौथे दिन होश आया है? पर इन लोगों ने इतने प्रेम से सेवा-शुश्रूषा न की होती, तो शायद मुझे हफ्तों बिस्तर पर पड़ा रहना पड़ता। मैं अपने घर में भी ज्यादा-से-ज्यादा इतने ही आराम से रहती।”

मिसेज सेवक-"तुमने अपनी जान जोखिम में डाली थी, तो क्या ये लोग इतना भी करने से रहे?"

सोफिया-"नहीं मामा, ये लोग अत्यन्त सुशील और सजन हैं। खुद रानीजी प्रायः मेरे पास बैठी पंखा झलती रहती हैं। कुँवर साहब दिन में कई बार आकर देख जाते हैं, और इंदु से तो मेरा बहनापा-सा हो गया है। यही लड़की है, जो मेरे साथ नैनीताल में पढ़ा करती थी।"

मिसेज़ सेवक-(चिढ़कर) "तुझे दूसरों में सब गुण-ही-गुण नजर आते हैं। अवगुण सब घरवालों ही के हिस्से में पड़े हैं। यहाँ तक कि दूसरे धर्म भी अपने धर्म से अच्छे है।

प्रभु सेवक-"मामा, आप तो जरा-जरा-सी बात पर तिनक उठती हैं। अगर कोई अपने साथ अच्छा बरताव करे, तो क्या उसका एहसान न माना जाय? कृतघ्नता से "जुरा कोई दूषण नहीं है।"

मिरेज सेवक-"यह कोई आज नई बात थोड़े ही है। घरवालों की निन्दा तो इसकी आदत हो गई है। यह मुझे जताना चाहती है कि ये लोग इसके साथ मुझसे ज्यादा प्रेम करते हैं। देखू, यहाँ से जाती है, तो कौन-सा तोहफा दे देते हैं। कहाँ हैं तेरी रानी साहब? मैं भी उन्हें धन्यवाद दे दूँ। उनसे आज्ञा ले लो, और घर चलो। "पापा अकेले घबरा रहे होंगे।"

सोफिया-"वह तो तुमसे मिलने को बहुत उत्सुक थीं। कब की आ गई होती, पर कदाचित् हमारे बीच में बिना बुलाये आना अनुचित समझती होंगी।"

प्रभु सेवक—“मामा, अभी सोफी को यहाँ दो-चार दिन और आराम से पड़ी रहने दीजिए। अभी इसे उठने में कष्ट होगा। देखिए, कितनी दुर्बल हो गई है!”

सोफिया—"रानीजी भी यही कहती थीं कि अभी मैं तुम्हें न जाने दूँगी।"

मिसेज सेवक—"यह क्यों नहीं कहतो कि तेरा ही जी यहाँ से जाने को नहीं चाहता। वहाँ तेरा इतना प्यार कौन करेगा!"

सोफिया—"नहीं मामा, आप मेरे साथ अन्याय कर रही हैं। मैं अब यहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहती। इन लोगों को मैं अब ओर कट न दूँगी। मगर एक बात मुझे मालूम हो जानी चाहिए। मुझ पर फिर तो अत्याचार न किया जायगा? मेरी धार्मिक स्वतन्त्रता में फिर तो कोई बाधा न डाली जायगो?"

प्रभु सेवक—"सोफी, तुम व्यर्थ इन बातों की क्यों चर्चा करतो हो? तुम्हारे साथ कौन-सा अत्याचार किया जाता है! जरा-सी बात का बतंगड़ बनाती हो।" [ ४९ ]मिसेज सेवक-"नहीं, तूने यह बात पूछ ली, बहुत अच्छा किया। मैं भी मुगालते में नहीं रखना चाहती। मेरे घर में प्रभु मसीह के द्रोहियों के लिए जगह नहीं है।"

प्रभु सेवक-"आप नाहक उससे उलझती हैं। समझ लीजिए, कोई पगली बक रही है।"

मिसेज सेवक-"क्या करूँ, मैंने तुम्हारी तरह दर्शन नहीं पढ़ा। यथार्थ को स्वप्न नहीं समझ सकती। यह गुण तो तत्त्वज्ञानियों ही में हो सकता है। यह मत समझो कि मुझे अपनी संतान से प्रेम नहीं है। खुदा जानता है, मैंने तुम्हारी खातिर क्या-क्या कष्ट नहीं झेले। उस समय तुम्हारे पापा एक दफ्तर में क्लर्क थे। घर का सारा काम-काज मुझी को करना पड़ता था। बाजार जाती, खाना पकाती, झाडू लगाती; तुम दोनों ही बचपन में कमजोर थे, नित्य एक-न-एक रोग लगा ही रहता था। घर के कामों से जरा फुरसत मिलती, तो डॉक्टर के पास जाती। बहुधा तुम्हें गोद में लिये-ही-लिये रातें कट जाती। इतने आत्मसमर्पण से पाली हुई संतान को जब ईश्वर से विमुख होते देखती हूँ, तो मैं दुःख और क्रोध से बावली हो जाती हूँ। तुम्हें मैं सच्चा, ईमान का पक्का, मसीह का भक्त बनाना चाहती थी। इसके विरुद्ध जब तुम्हें ईसू से मुँह मोड़ते देखती हूँ; उनके उपदेश, उनके जीवन और उनके अलौकिक कृत्यों पर शंका करते पाती हूँ, तो मेरे हृदय के टुकड़े हो जाते हैं, और यही इच्छा होती है कि इसकी सूरत न देखूँ। मुझे अपना मसीह सारे संसार से, यहाँ तक कि अपनी जान से भी प्यारा है।"

सोफिया—"आपको ईसू इतना प्यारा है, तो मुझे भी अपनी आत्मा, अपना ईमान उससे कम प्यारा नहीं है। मैं उस पर किसी प्रकार का अत्याचार नहीं सह सकती।"

मिसेज सेवक-"खुदा तुझे इस अभक्ति की सजा देगा। मेरी उससे यही प्रार्थना। है कि वह फिर मुझे तेरी सूरत न दिखाये।"

यह कहकर मिसेज़ सेवक कमरे के बाहर निकल आई। रानी और इंदु उधर से आ रही थीं। द्वार पर उनसे भेंट हो गई। रानीजी मिसेज सेवक के गले लिपट गई, और कृतज्ञता-पूर्ण शब्दों का दरिया बहा दिया। मिसेज सेवक को इस साधु प्रेम में वनावट की बू आई। लेकिन रानी को मानव-चरित्र का ज्ञान न था। इंदु से बोलीं—"देख, मिस सोफिया से कह दे, अभी जाने की तैयारी न करे। मिसेज सेवक, आप मेरी खातिर से सोफिया को अभी दो-चार दिन यहाँ और रहने दें, मैं आपसे सविनय अनुरोध करती हूँ। अभी मेरा मन उसकी बातों से तृप्त नहीं हुआ, और न उसकी कुछ सेवा हो कर सकी। मैं आपसे वादा करती हूँ, मैं स्वयं उसे आपके पास पहुँचा दूँगी। जब तक वह यहाँ रहेगी, आपसे दिन में एक बार भेंट तो होती ही रहेगी। धन्य हैं आप, जो ऐसी सुशीला लड़की पाई! दया और विवेक की मूर्ति है। आत्मत्याग तो इसमें कूट-कूटकर भरा हुआ है।"

मिसेज सेवक—"मैं इसे अपने साथ चलने के लिए मजबूर नहीं करती। आप जितने दिन चाहें, शौक से रखें।" [ ५० ]रानी—“बस-बस, मैं इतना ही चाहती थी। आपने मुझे मोल ले लिया। आपसे ऐसी ही आशा भी थी। आप इतनी सुशीला न होतीं, तो लड़की में ये गुण कहाँ से आते? एक मेरी इंदु है कि बातें करने का भी ढंग नहीं जानतो। एक बड़ी रियासत की रानी है; पर इतना भी नहीं जानती कि मेरी वार्षिक आय कितनी है! लाखों के गहने संदूक में पड़े हुए हैं, उन्हें छूती तक नहीं। हाँ, सैर करने को कह दीजिए, तो दिन-भर घूमा करे। क्यों इंदु, झूठ कहती हूँ?”

इंदु—"तो क्या करूँ, मन-भर सोना लादे बैठी रहूँ? मुझे तो इस तरह अपनी देह को जकड़ना अच्छा नहीं लगता।”

रानी—"सुनी आपने इसकी बातें। गहनों से इसकी देह जकड़ जाती है! आइए, अब आपको अपने घर की सैर कराऊँ। इंदु, चाय बनाने को कह दे।"

मिसेज सेवक-"मिस्टर सेवक बाहर खड़े मेरा इंतजार कर रहे होंगे। देर होगी।"

रानी-“वाह, इतनी जल्दो। कम-से-कम आज यहाँ भोजन तो कर ही लीजिएगा। लंच करके हवा खाने चलें, फिर लौटकर कुछ देर गप-शप करें। डिनर के बाद मेरी मोटर आपको घर पहुँचा देगी।"

मिसेज सेवक इनकार न कर सकी। रानी ने उनका हाथ पकड़ लिया, और अपने राजभवन की सैर कराने लगीं। आध घंटे तक मिसेज सेवक मानों इंद्र-लोक की सैर करती रहीं। भवन क्या था, आमोद, विलास, रसज्ञता और वैभव का क्रीड़ास्थल था। संगमरमर के फर्श पर बहुमूल्य कालीन बिछे हुए थे। चलते समय उनमें पैर धंस जाते थे। दीवारों पर मनोहर पच्चीकारी; कमरों की दीवारों में बड़े-बड़े आदम-कद आईने; गुलकारी इतनी सुंदर कि आँखें मुग्ध हो जायँ; शीशे की अमूल्य अलभ्य वस्तुएँ; प्राचीन चित्रकारों की विभूतियाँ; चीनी के विलक्षण गुलदान; जापान, चीन, यूनान और ईरान की कला-निपुणता के उत्तम नमूने; सोने के गमले; लखनऊ की बोलती हुई मूर्तियाँ; इटाली के बने हुए हाथी-दाँत के पलँग; लकड़ी के नफीस ताक; दोवारगोरें; किश्तियाँ; आँखों को लुभानेवाली, पिंजड़ों में चहकतो हुई, भाँति-भाँति की चिड़ियाँ; आँगन में संगमरमर का हौज और उसके किनारे संगमरमर की अप्सराएँ-मिसेज सेवक ने इन सारी वस्तुओं में से किसी की प्रशंसा नहीं की, कहीं भी विस्मय या आनंद का एक शब्द भी मुँह से न निकाला। उन्हें आनंद के बदले ईर्ष्या हो रही थी। ईर्ष्या में गुणग्राहकता नहीं होती। वह सोच रही थीं-एक यह भाग्यवान् हैं कि ईश्वर ने इन्हें भोग-विलास और आमोद-प्रमोद की इतनी सामग्रियाँ प्रदान कर रखी हैं। एक अभागिनी मैं हूँ कि एक झोपड़े में पड़ी हुई दिन काट रही हूँ। सजावट और बनावट का जिक्र ही क्या, आवश्यक वस्तुएँ भी काफी नहीं। इस पर तुर्रा यह कि हम प्रातः से संध्या तक छाटती फाड़कर काम करती हैं, यहाँ कोई तिनका तक नहीं उठाता। लेकिन इसका क्या शोक? आसमान की बादशाहत में तो अमीरों का हिस्सा नहीं। वह तो हमारे पास होगी। अमीर लोग कुत्तों की भाँति दुतकारे जायेंगे, कोई झाँकने तक न पायेगा। [ ५१ ]
इस विचार से उन्हें कुछ तसल्ली हुई। ईर्ष्या की व्यापकता ही साम्यवाद की सर्व-प्रियता का कारण है। रानी साहब को आश्चर्य हो रहा था कि इन्हें मेरी कोई चीज पसंद न आई, किसी वस्तु का बखान न किया। मैंने एक-एक चित्र और एक-एक प्याले के लिए हजारों खर्च किये हैं। ऐसी चीजें यहाँ और किस के पास हैं। अब अलभ्य हैं, लाखों में भी न मिलेंगी। कुछ नहीं, बन रही हैं, या इतना गुण ज्ञान ही नहीं है कि इनकी कद्र कर सकें।

इतने पर भी रानीजी को निराशा नहीं हुई। उन्हें अपना बाग दिखाने लगीं। भाँति-भाँति के फूल और पौदे दिखाये। माली बड़ा चतुर था। प्रत्येक पौदे का गुण और इतिहास बतलाता जाता था-कहाँ से आया, कब आया, किस तरह लगाया गया, कैसे उसकी रक्षा की जाती है; पर मिसेज सेवक का मुँह अब भी न खुला। यहाँ तक कि अंत में उसने एक ऐसी नन्ही-सी जड़ी दिखाई, जो येरुसलम से लाई गई थी। कुँवर साहब उसे स्वयं बड़ी सावधानी से लाये थे, ओर उसमें एक-एक पत्ती का निकलना उनके लिए एक-एक शुभ-संवाद से कम न था। मिसेज सेवक ने तुरंत उस गमले को उठा लिया, उसे आँखों से लगाया, और पत्तियों को चूमा। बोलीं-"मेरा सौभाग्य है कि इस दुर्लभ वस्तु के दर्शन हुए।"

रानी ने कहा-“कुँवर साहब स्वयं इसका बड़ा आदर करते हैं। अगर यह आज सूख जाय, तो दो दिन तक उन्हें भोजन अच्छा न लगेगा।"

इतने में चाय तैयार हुई। मिसेज सेवक लंच पर बैठो। रानीजी को चाय से रुचि न थी। विनय और इंदु के बारे में बातें करने लगी। विनय के आचार-विचार, सेवा-भक्ति और परोपकार-प्रेम की सराहना की, यहाँ तक कि मिसेज सेवक का जो उकता गया। इसके जवाब में वह अपनी संतानों का बखान न कर सकती थीं।

उधर मि० जॉन सेवक और कुँवर साहब दीवानखाने में बैठे लंच कर रहे थे। चाय और अंडों से कुँवर साहब की रुचि न थी। विनय भी इन दोनों वस्तुओं को त्याज्य समझते थे। जॉन सेवक उन मनुष्यों में थे, जिनका व्यक्तित्व शोघ्र ही दूसरों को आकर्षित कर लेता है। उनकी बातें इतनी विचार-पूर्ण होती थीं कि दूसरे अपनी बातें भूलकर उन्हीं की सुनने लगते थे। और, यह बात न थी कि उनका भाषण शब्दाडंबर-मात्र होता हो। अनुभवशील और मानव-चरित्र के बड़े अच्छे ज्ञाता थे। ईश्वरदत्त प्रतिभा थी, जिसके बिना किसी सभा में सम्मान नहीं प्राप्त हो सकता। इस समय वह भारत की औद्योगिक और व्यावसायिक दुर्बलता पर अपने विचार प्रकट कर रहे थे। अवसर पाकर उन साधनों का भी उल्लेख करते जाते थे, जो इस कुदशा-निवारण के लिए उन्होंने सोच रखे थे। अंत में बोले- "हमारी जाति का उद्धार कला-कौशल और उद्योग की उन्नति में है। इस सिगरेट के कारखाने से कम-से-कम एक हजार आदमियों के जीवन की समस्या हल हो जायगी, और खेती के सिर से उनका बोझ टल जायगा। जितनी जमीन एक आदमी अच्छी तरह जोत-बो सकता है, उसमें घर-भर
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का लगा रहना व्यर्थं है। मेरा कारखाना ऐसे बेकारों को अपनी रोटी कमाने का अवसर देगा।"

कुँवर साहब-"लेकिन जिन खेतों में इस वक्त नाज बोया जाता है, उन्हीं खेतों में तंबाकू बोई जाने लगेगी। फल यह होगा कि नाज और महँगा हो जायगा।"

जॉन सेवक-"मेरी समझ में तंबाकू की खेती का असर जूट, सन, तेलहन और अफीम पर पड़ेगा। निर्यात जिंस कुछ कम हो जायगी। गल्ले पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता। फिर हम उस जमीन को भी जोत में लाने का प्रयास करेंगे, जो अभी तक परती पड़ी हुई है।"

कुँवर साहब-"लेकिन तंबाकू कोई अच्छी चीज तो नहीं। इसकी गणना मादक वस्तुओं में है, और स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ता है।"

जॉन सेवक-(हँसकर) “ये सब डाक्टरों को कोरी कल्पनाएँ हैं, जिन पर गंभीर विचार करना हास्यास्पद है। डॉक्टरों के आदेशानुसार हम जीवन व्यतीत करना चाहें, तो जीवन का अंत ही हो जाय। दूध में सिल के कीड़े रहते हैं, घी में चरवी की मात्रा अधिक है, चाय और कहवा उत्तेजक हैं, यहाँ तक कि साँस लेने से भी कीटाणु शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। उनके सिद्धांतों के अनुसार समस्त संसार कीटों से भरा हुआ है, जो हमारा प्राण लेने पर तुले हुए हैं। व्यवसायी लोग इन गोरख-धंधों में नहीं पड़ते; उनका लक्ष्य केवल वर्तमान परिस्थितियों पर रहता है। हम देखते हैं कि इस देश में विदेश से करोड़ों रुपये के सिगरेट और सिगार आते हैं। हमारा कर्तव्य है कि इस धन-प्रवाह को विदेश जाने से रोके। इसके बगैर हमारा आर्थिक जीवन कभी पनप नहीं सकता।"

यह कहकर उन्होंने कुँवर साहब को गर्व-पूर्ण नेत्रों से देखा। कुँवर साहब की शंकाएँ बहुत कुछ निवृत्त हो चुकी थीं। प्रायः वादी को निरुत्तर होते देखकर हम दिलेर हो जाते हैं। बच्चा भी भागते हुए कुत्ते पर निर्भय होकर पत्थर फेकता है।

जॉन सेवक निश्शंक होकर बाले-"मैंने इन सब पहलुओं पर विचार करके ही यह मत स्थिर किया, और आपके इस दास को (प्रभु सेवक की ओर इशारा करके) इस व्यवसाय का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए अमेरिका भेजा। मेरी कंपनी के अधिकांश हिस्से बिक चुके हैं, पर अभी रुपये नहीं वसूल हुए। इस प्रांत में अभी सम्मिलित व्यवसाय करने का दस्तूर नहीं। लोगों में विश्वास नहीं। इसलिए मैंने दस प्रति सैकड़े वसूल करके काम शुरू कर देने का निश्चय किया है। साल-दो-साल में जब आशातीत सफलता होगी, और वार्षिक लाभ होने लगेगा, तो पूँजी आप-ही-आप दौड़ी आयेगी। छत पर बैठा हुआ कबूतर 'आ-आ' की आवाज सुनकर सशंक हो जाता है, और जमीन पर नहीं उतरता; पर थोड़ा-सा दाना बखेर दीजिए, तो तुरंत उतर आता है। मुझे पूरा विश्वास है कि पहले ही साल हमें २५ प्रति सैकड़े लाभ होगा। यह प्रॉसपेक्टस है, इसे गौर से देखिए। मैंने लाभ का अनुमान करने में बड़ी सावधानी से काम लिया है; बढ़ भले ही जाय, कम नहीं हो सकता।" [ ५३ ]कुँवर साहब—"पहले ही साल २५ प्रति सैकड़े?"

जॉन सेवक—“जी हाँ, बड़ी आसानी से। आपसे मैं हिस्से लेने के लिए विनय करता, पर जब तक एक साल का लाभ दिखा न दूँ, आग्रह नहीं कर सकता। हाँ, इतना अवश्य निवेदन करूँगा कि उस दशा में, संभव है, हिस्से बराबर पर न मिल सके। १००) के हिस्से शायद २००) पर मिलें।"

कुँवर साहब—"मुझे अब एक ही शंका और है। यदि इस व्यवसाय में इतना लाभ हो सकता है, तो अब तक ऐसी और कम्पनियाँ क्यों न खुलीं?"

जॉन सेवक—(हँसकर) "इसलिए कि अभी तक शिक्षित समाज में व्यवसाय-बुद्धि पैदा नहीं हुई। लोगों की नस-नस में गुलामी समाई हुई है। कानून और सरकारी नौकरी के सिवा और किसी ओर निगाह जाती ही नहीं। दो-चार कंपनियाँ खुलीं भी, किन्तु उन्हें विशेषज्ञों के परामर्श और अनुभव से लाभ उठाने का अवसर न मिला। अगर मिला भी, तो बड़ा मँहगा पड़ा! मशीनरी मँगाने में एक के दो देने पड़े, प्रबन्ध अच्छा न हो सका। विवश होकर कंपनियों का कारबार बन्द करना पड़ा। यहाँ प्रायः सभी कंपनियों का यही हाल है। डाइरेक्टरों की थैलियाँ भरी जाती हैं, हिस्से बेचने और विज्ञापन देने में लाखों रुपये उड़ा दिये जाते हैं, बड़ी उदारता से दलालों का आदर-सत्कार किया जाता है, इमारतों में पूँजी का बड़ा भाग खर्च कर दिया जाता है, मैनेजर भी बहुवेतन-भोगो रखा जाता है। परिणाम क्या होता है? डाइरेक्टर अपनी जेब भरते हैं, मैनेजर अपना पुरस्कार भोगता है, दलाल अपनी दलाली लेता है; मतलब यह कि सारी पूँजी ऊपर-ही-ऊपर उड़ जाती है। मेरा सिद्धान्त है, कम-से-कम खर्च और ज्यादा-से-ज्यादा नफा। मैंने एक कौड़ी दलाली नहीं दी, विज्ञापनों की मद उड़ा दी। यहाँ तक कि मैंने मैनेजर के लिए भी केवल ५००) ही वेतन देना निश्चित किया है, हालाँ कि किसी दूसरे कारखाने में एक हजार सहज ही में मिल जाते। उस पर घर का आदमी। डाइरेक्टरों के बारे में भी मेरा यही निश्चय है कि सफर-खर्च के सिवा और कुछ न दिया जाय।"

कुँवर साहब सांसारिक पुरुष न थे। उनका अधिकांश समय धर्म-ग्रंथों के पढ़ने में लगता था। वह किसी ऐसे काम में शरीक न होना चाहते थे, जो उनकी धार्मिक एकाग्रता में बाधक हो। धूर्ती ने उन्हें मानव-चरित्र का छिद्रान्वेषी बना दिया था। उन्हें किसी पर विश्वास न होता था। पाठशालाओं और अनाथालयों को चंदे देते हुए वह बहुत डरते रहते थे, और बहुधा इस विषय में औचित्य की सीमा से बाहर निकल जाते थे-सुपात्रों को भी उनसे निराश होना पड़ता था। पर संयमशीलता जहाँ इतनी सशंक रहती है, वहाँ लाभ का विश्वास होने पर उचित से अधिक निःशंक भी हो जाती है। मिस्टर जॉन सेवक का भाषण व्यावसायिक ज्ञान से परिपूर्ण था; पर कुँवर साहब पर इससे ज्यादा प्रभाव उनके व्यक्तित्व का पड़ा। उनकी दृष्टि में जॉन सेवक अब केवल धन के उपासक न थे, वरन् हितैषी मित्र थे। ऐसा आदमी उन्हें मुगालता न दे सकता था। [ ५४ ]
बोले-“जब आप इतनी किफायत से काम करेंगे, तो आपका उद्योग अवश्य सफल होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। आपको शायद अभी मालूम न हो, मैंने यहाँ एक सेवा-समिति खोल रखी है। कुछ दिनों से यही खन्त सवार है। उसमें इस समय लगभग एक सौ स्वयंसेवक हैं। मेले-ठेलों में जनता की रक्षा और सेवा करना उसका काम है। मैं चाहता हूँ कि उसे आर्थिक कठिनाइयों से सदा के लिए मुक्त कर दें। हमारे देश की संस्थाएँ बहुधा धनाभाव के कारण अल्पायु होती हैं। मैं इस संस्था को सुदृढ़ बनाना चाहता हूँ। और मेरी यह हार्दिक अभिलाषा है कि इससे देश का कुछ कल्याण हो। मैं किसी से इस काम में सहायता नहीं लेना चाहता। उसके निर्विघ्न संचालन के लिए एक स्थायो कोष की व्यवस्था कर देना चाहता हूँ। मैं आपको अपना मित्र और हितचिंतक समझकर पूछता हूँ, क्या आपके कारखाने में हिस्से ले लेने से मेरा उद्देश्य पूरा हो सकता है? आपके अनुमान में कितने रुपये लगाने से एक हजार की मासिक आमदनी हो सकती है?”

जॉन सेवक की व्यावसायिक लोलुपता ने अभी उनकी सद्भावनाओं को शिथिल नहीं किया था। कुँवर साहब ने उनकी राय पर फैसला छोड़कर उन्हें दुबिधा में डाल दिया। अगर उन्हें पहले से मालूम होता कि यह समस्या सामने आवेगी, तो नफ का तखमीना बताने में ज्यादा सावधान हो जाते। गैरों से चालें चलना क्षम्य समझा जाता है; लेकिन ऐसे स्वार्थ के भक्त कम मिलेंगे, जो मित्रों से दगा करें। सरल प्राणियों के सामने कपट भी लजित हो जाता है।

जॉन सेवक ऐसा उत्तर देना चाहते थे, जो स्वार्थ और आत्मा, दोनों ही को स्वीकार हो। बोले- "कंपनी की जो स्थिति है, वह मैंने आपके सामने खोलकर रख दी है। संचालन-विधि भी आपसे बतला चुका हूँ। मैंने सफलता के सभी साधनों पर निगाह रखी है। इस पर भी संभव है, मुझसे भूलें हो गई हो, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि मनुष्य विधाता के हाथों का खिलौना-मात्र है। उसके सारे अनुमान, सारी बुद्धिमत्ता, सारी शुभ-चिंताएँ नैसर्गिक शक्तियों के अधीन हैं। तंबाकू की उपज बढ़ाने के लिए किसानों को पेशगी रुपये देने ही पड़ेंगे। एक रात का पाला कंपनी के लिए घातक हो सकता है। जले हुए सिगरेट का एक टुकड़ा कारखाने को खाक में मिला सकता है। हाँ, मेरी परिमित बुद्धि की दौड़ जहाँ तक है, मैंने कोई बात बढ़ाकर नहीं कही है। आकस्मिक बाधाओं को देखते हुए आप लाभ के अनुमान में कुछ और कमी कर सकते हैं।”

कुँवर साहब—"आखिर कहाँ तक?"

जॉन सेवक—"२०) सैकड़े समझिए।"

कुँवर साहब—"और पहले वर्ष?

जॉन सेवक—"कम-से-कम १५) प्रति सैकड़े।"

कुँवर साहब—"मैं पहले वर्ष १०) और उसके बाद १५) प्रति सैकड़े पर संतुष्ट हो जाऊँगा।" [ ५५ ]जॉन सेवक-"तो फिर मैं आपसे यही कहूँगा कि आपसे हिस्से लेने में विलंब न करें। नुदा ने चाहा, तो आपको कभी निराशा न होगी।"

सौ-सौ रुपये के हिस्से थे। कुँवर साहब ने ५०० हिस्से लेने का वादा किया और बोले-"कल पहली किस्त के दस हजार रुपये बैंक द्वारा आपके पास भेज दूँगा।”

जॉन सेवक की ऊँची-से-ऊँची उड़ान भी यहाँ तक न पहुँची थी; पर वह इस सफलता प्रसन्न न हुए। उनको आत्मा अब भी उनका तिरस्कार कर रही थी कि 'तुमने एक सरल-हृदय सजन पुरुष को धोका दिया। तुमने देश की व्यावसायिक उन्नति के लिए नहीं, अपने स्वार्थ के लिए यह प्रयत्न किया है। देश के सेवक बनकर तुम अपनी पाँचों उँगलियाँ घी में रखना चाहते हो। तुम्हारा मनोवांछित उद्दश्य यही है कि नफे का बड़ा भाग किसी-न-किसी हीले से आप हज्म करो। तुमने इस लोकोक्ति को प्रमाणित कर दिया कि 'बनिया मारे जान, चोर मारे अनजान'।”

अगर कुँवर साहब के सहयोग से जनता में कंपनी की साख जम जाने का विश्वास न होता, तो मिस्टर जॉन सेवक साफ कह देते कि कंपनी इतने हिस्से आपको नहीं दे सकती। एक परोपकारी संस्था के धन को किसी संदिग्ध व्यवसाय में लगाकर उसके अस्तित्व को खतरे में डालना स्वार्थपरता के लिए भी कड़आ ग्रास था; मगर धन का देवता आत्मा का बलिदान पाये बिना प्रसन्न नहीं होता। हाँ, इतना अवश्य हुआ कि अब तक वह निजी स्वार्थ के लिए यह स्वाँग भर रहे थे, उनकी नीयत साफ नहीं थी, लाभ को भिन्न-भिन्न नामों से अपने ही हाथ में रखना चाहते थे। अब उन्होंने निःस्पृह होकर नेकनीयती का व्यवहार करने का निश्चय किया। बोले-"मैं कंपनी के संस्थापक की हैसियत से इस सहायता के लिए हृदय से आपका अनुगृहीत हूँ। खुदा ने चाहा, तो आपको आज के फैसले पर कभी पछताना न पड़ेगा। अब मैं आपसे एक और प्रार्थना करता हूँ। आपकी कृपा ने मुझे धृष्ट बना दिया है। मैंने कारखाने के लिए जो जमीन पसंद की है, वह पाँडेपुर के आगे पक्की सड़क पर स्थित है। रेल का स्टेशन वहाँ से निकट है, और आस-पास बहुत-से गाँव हैं। रकबा दस बीघे का है। जमीन परतो पड़ी हुई है। हाँ, वरती के जानवर उसमें चरने आया करते हैं। उसका मालिक एक अंधा फकीर है। अगर आप उधर कभी हवा खाने गये होंगे, तो आपने उस अंवे को अवश्य देखा होगा।”

कुँवर साहब—'हाँ-हाँ, अभी तो कल ही गया था, वही अंधा है न, काला काला, दुबला-दुबला, जो सवारियों के पीछे दौड़ा करता है?"

जॉन सेवक—"जी हाँ, वहीं-वही। वह जमीन उसी की है; किन्तु वह उसे किसी दाम पर नहीं छोड़ना चाहता। मैं उसे पाँच हजार तक देता था; पर राजी न हुआ। वह कुछ झकी-सा है। कहता है, मैं वहाँ धर्मशाला, मंदिर और तालाब बनवाऊँगा। दिन-भर भीख माँगकर तो गुजर करता है, उस पर इरादे इतने लंबे हैं। कदाचित् हल्लेवालों के भय से उसे कोई मामला करने का साहस नहीं होता। मैं एक निजी मामले
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में सरकार से सहायता लेना उचित नहीं समझता; पर ऐसी दशा में मुझे इसके सिवा दूसरा कोई उपाय भी नहीं सूझता। और, फिर यह बिलकुल निजी बात भी नहीं है। म्यूनिसिपैलिटी और सरकार, दोनों ही को इस कारखाने से हजारों रुपये साल की आमदनी होगी, हजारों शिक्षित और अशिक्षित मनुष्यों का उपकार होगा। इस पहलू से देखिए, तो यह सार्वजनिक काम है, और इसमें सरकार से सहायता लेने में मैं औचित्य का उल्लंघन नहीं करता। आप अगर जरा तवजह करें, तो बड़ी आसानी से काम निकल जाय।”

कुँवर साहब-"मेरा उस फकीर पर कुछ दबाव नहीं है, और होता भी, तो मैं उससे काम न लेता।"

जॉन सेवक-“आप राजा साहब चतारी......"

कुँवर साहब-"नहीं, मैं उनसे कुछ नहीं कह सकता। वह मेरे दामाद हैं, और इस विषय में मेरा उनसे कहना नीति-विरुद्ध है। क्या वह आपके हिस्सेदार नहीं हैं?"

जॉन सेवक-"जी नहीं, वह स्वयं अतुल संपत्ति के स्वामी होकर भी धनियों की उपेक्षा करते हैं। उनका विचार है कि कल-कारखाने पूँजीवालों का प्रभुत्व बढ़ाकर जनता का अपकार करते हैं। इन्हीं विचारों ने तो उन्हें यहाँ प्रधान बना दिया।”

कुँवर साहब-"यह तो अपना-अपना सिद्धांत है। हम द्वैध जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और मेरा विचार है कि जनतावाद के प्रेमी उच्च श्रेणी में जितने मिलेंगे, उतने निम्न श्रेणी में न मिल सकेंगे। खैर, आप उनसे मिलकर देखिए तो। क्या कहूँ, शहर के आस-पास मेरी एक एकड़ जमीन भी नहीं है, नहीं तो आपको यह कठिनाई न होती। मेरे योग्य और जो काम हो, उसके लिए हाजिर हूँ।"

जॉन सेवक-"जी नहीं, मैं आपको और कष्ट नहीं देना चाहता, मैं स्वयं उनसे मिलकर तय कर लूँगा।”

कुँवर साहब-"अभी तो मिस सोफिया पूर्ण स्वस्थ होने तक यहीं रहेगी न? आपको तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है?"

जॉन सेवक इस विषय में सिर्फ दो-चार बातें करके यहाँ से बिदा हुए। मिसेज सेवक फिटन पर पहले ही से आ बैठी थीं। प्रभु सेवक विनय के साथ बाग में टहल रहे थे। विनय ने आकर जॉन सेवक से हाथ मिलाया। प्रभु सेवक उनसे कल फिर मिलने का वादा करके पिता के साथ चले। रास्ते में बातें होने लगी।

जॉन सेवक-"आज एक मुलाकात में जितना काम हुआ, उतना महीनों की दौड़-धूप से भी न हुआ था। कुँवर साहब बड़े सजन आदमी हैं। ५० हजार के हिस्से, ले लिये। ऐसे ही दो-चार भले आदमी और मिल जायँ, तो बेड़ा पार है।”

प्रभु सेवक-"इस घर के सभी प्राणी दया और धर्म के पुतले हैं। मैंने विनयसिंह-जैसा काव्य-मर्मज्ञ नहीं देखा। मुझे तो इनसे प्रेम हो गया।"

जॉन सेवक-"कुछ काम की बातचीत भी की?”

प्रभु सेवक-"जी नहीं, आपके नजदीक जो काम की बातचीत है, उन्हें उसमें
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जरा भी रुचि नहीं। वह सेवा का व्रत ले चुके हैं, और इतनी देर तक अपनी समिति की ही चर्चा करते रहे।"

जॉन सेवक-"क्या तुम्हें आशा है कि तुम्हारा यह परिचय चतारो के राजा साहब "पर भी कुछ असर डाल सकता है? विनयसिंह राजा साहब से हमारा कुछ काम निकलवा सकते हैं?"

प्रभु सेवक-"उनसे कहे कौन, मुझमें तो इतनी हिम्मत नहीं है। उन्हें आप स्वदेशानुरागी संन्यासी समझिए। मुझसे अपनी समिति में आने के लिए उन्होंने बहुत आग्रह किया है।"

जॉन सेवक-"शरीक हो गये न!"

प्रभु सेवक-"जी नहीं, कह आया हूँ कि सोचकर उत्तर दूँगा। बिना सोचे-समझे इतना कठिन व्रत क्योंकर धारण कर लेता।"

जॉन सेवक-"मगर सोचने-समझने में महीनों न लगा देना। दो-चार दिन में आकर नाम लिखा लेना। तब तुम्हें उनसे कुछ काम की बात करने का अधिकार हो जायगा। (स्त्री से) तुम्हारी रानीजी से कैसी निभी?"

मिसेज सेवक-"मुझे तो उनसे घणा हो गई। मैंने किसी में इतना घमंड नहीं देखा।"

प्रभु सेवक-"मामा, आप उनके साथ घोर अन्याय कर रही हैं।"

मिसेज सेवक-"तुम्हारे लिए देवी होंगी, मेरे लिए तो नहीं हैं।"

जॉन सेवक-"यह तो मैं पहले ही समझ गया था कि तुम्हारी उनसे न पटेगी। काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें। तुम्हारा काम तो दूसरों में ऐब निकालना है।

सोफी को क्यों नहीं लाई?"

मिसेज सेवक-"वह आये भी तो, या जबरन् घसीट लाती?"

जॉन सेवक-"आई नहीं, या रानी ने आने नहीं दिया?"

प्रभु सेवक-"वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाय।"

जॉन सेवक-"इन्हें यह शर्त क्यों मंजूर होने लगी!"

मिसेज सेवक-"हाँ, इस शर्त पर मैं उसे नहीं ला सकती। वह मेरे घर रहेगी, तो मेरो बात माननी पड़ेगी।"

जॉन सेवक-"तुम दोनों में एक को भी बुद्धि से सरोकार नहीं। तुम सिड़ी हो, वह जिद्दी है। उसे मना-मनूकर जल्दी लाना चाहिए।"

प्रभु सेवक--"अगर मामा अपनी बात पर अड़ी रहेंगी, तो शायद वह फिर घर न जाय।"

जॉन सेवक—"आखिर जायगी कहाँ?"

प्रभु सेवक—"उसे कहीं जाने की जरूरत ही नहीं। रानी उस पर जान देती हैं।" [ ५८ ]जॉन सेवक—"यह बेल मुँढ़े चढ़ने की नहीं है। दो में से एक को दबना पड़ेगा।"

लोग घर पहुँचे, तो गाड़ी की आहट पाते ही ईश्वर सेवक ने बड़ी स्नेहमयी उत्सुकता से पूछा-“सोफी आ गई न? आ, तुझे गले लगा लूँ। ईसू तुझे अपने दामन में ले।"

जॉन सेवक-पापा, वह अभी यहाँ आने योग्य नहीं है। बहुत अशक्त हो गई है। दो-चार दिन बाद आवेगी।"

ईश्वर सेवक—"गजब खुदा का! उसकी यह दशा है, और तुम सब उसे उसके हाल पर छोड़ आये! क्या तुम लोगों में जरा भी मानापमान का विचार नहीं रहा! बिलकुल खून सफेद हो गया?"

मिसेज सेवेक-"आप जाकर उसकी खुशामद कोजिएगा, तो आवेगी! मेरे कहने से तो नहीं आई। बच्ची तो न कि गोद में उठा लाती?”

जॉन-सेवक-"पापा, वहाँ बहुत आराम से है। राजा और रानी, दोनों ही उसके साथ प्रेम करते हैं। सच पूछिए, तो रानी ही ने उसे नहीं छोड़ा।”

ईश्वर सेवक-"कुँवर साहब से कुछ काम की बातचीत भी हुई?”

जॉन सेवक—"जी हाँ, मुबारक हो। ५० हजार की गोटी हाथ लगी।”

ईश्वर सेवक—"शुक्र है, शुक्र है। ईसू मुझ पर अपना साया कर।" यह कहकर वह फिर आराम-कुर्सी पर बैठ गये।