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रंगभूमि/३२

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रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३७५ से – ३८९ तक

 

[३२]

सूरदास के मुकदमे का फैसला सुनने के बाद इंद्रदत्त चले, तो रास्ते में प्रभु सेवक से मुलाकात हो गई। बातें होने लगी।

इंद्रदत्त-"तुम्हारा क्या विचार है, सूरदास निर्दोष है, या नहीं?"

प्रभु सेवक-"सर्वथा निर्दोष। मैं तो आज उसकी साधुता का कायल हो गया। फैसला सुनाने के वक्त तक मुझे विश्वास था कि अंधे ने जरूर इस औरत को बहकाया है, मगर उसके अंतिम शब्दों ने जादू का-सा असर किया। मैं तो इस विषय पर एक कविता लिखने का विचार कर रहा हूँ।"

इंद्रदत्त-"केवल कविता लिख डालने से काम न चलेगा। राजा साहब की पीठ में धूल लगानी पड़ेगी। उन्हें यह संतोष न होने देना चाहिए कि मैंने अंधे से चक्की पिसवाई। वह समझ रहे होंगे कि अंधा रुपये कहाँ से लायगा! दोनों पर ३००) जुर्माना हुआ है, हमें किसी तरह जुर्माना आज ही अदा करना चाहिए। सूरदास जेल से निकले, तो सारे शहर में उसका जुलूस निकालना चाहिए। इसके लिए २००) की और जरूरत होगी। कुल ५००) हों, तो काम चल जाय। बोलो, क्या देते हो?"

प्रभु सेवक-"जो उचित समझो, लिख लो।"

इंद्रदत्त-"तुम ५०) बिना किसी कष्ट के दे सकते हो?"

प्रभु सेवक-"और तुमने अपने नाम कितना लिखा है?"

इंद्रदत्त-मेरी हैसियत १०) से अधिक देने की नहीं। रानी जाह्नवी से १००) ले लूंगा। कुँवर साहब ज्यादा नहीं, तो १०) दे ही देंगे। जो कुछ कमी रह जायगी, वह दूसरों से माँग ली जायगी। संभव है, डॉक्टर गंगुली सब रुपये खुद ही दे दें, किसी से मांगना ही न पड़े।"

प्रभु सेवक—"सूरदास के मुहल्लेवालों से भी कुछ मिल जायगा।"

इंद्रदत्त—"उसे सारा शहर जानता है, उसके नाम पर दो-चार हजार रुपये मिल सकते हैं; पर इस छोटी-सी रकम के लिए मैं दूसरों को कष्ट नहीं देना चाहता।" यों बातें करते हुए दोनों आगे बढ़े कि सहसा इंदु अपनी फिटन पर आती हुई दिखाई दी। इंद्रदत्त को देखकर रुक गई और बोली-“तुम कब लौटे १ मेरे यहाँ नहीं आये!"

इंद्रदत्त—"आप आकाश पर हैं, मैं पाताल में हूँ, क्या बातें हों?"

इंदु—"आओ, बैठ जाओ, तुमसे बहुत-सी बातें करनी हैं।"

इंद्रदत्त फिटन पर जा बैठा। प्रभु सेवक ने जेव से ५०) का एक नोट निकाला और चुपके से इंद्रदत्त के हाथ में रखकर क्लब को चल दिये।

इंद्रदत्त—"अपने दोस्तों से भी कहना ।" प्रभु सेवक-"नहीं भई, मैं इस काम का नहीं हूँ। मुझे माँगना नहीं आता! कोई देता भी होगा, तो मेरी सूरत देखकर मुट्ठी बंद कर लेगा।"

इंद्रदत्त-(इंदु से) "आज तो यहाँ खूब तमाशा हुआ।”

इंदु-'मुझे तो ड्रामा का-सा आनंद मिला। सूरदास के विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?"

इंद्रदत्त-"मुझे तो वह निष्कपट, सच्चा, सरल मनुष्य मालूम होता है।"

इंदु-"बस-बस, यही मेरा भी विचार है। मैं समझती हूँ, उसके साथ अन्याय हुआ। फैसला सुनाते वक्त तक मैं उसे अपराधी समझती थी, पर उसकी अपील ने मेरे विचार में कायापलट कर दी। मैं अब तक उसे मक्कार, धूर्त, रँगा हुआ सियार समझती थी। उन दिनों उसने हम लोगों को कितना बदनाम किया! तभी से मुझे उससे घणा हो गई थी। मैं उसे मजा चखाना चाहती थी। लेकिन आज ज्ञात हुआ कि मैंने उसके चरित्र के समझने में भूल की। वह अपनी धुन का पक्का, निर्भीक, निःस्पृह, सत्यनिष्ठ आदमी है, किसी से दबना नहीं जानता।"

इंद्रदत्त-"तो इस सहानुभूति को क्रिया के रूप में भी लाइएगा? हम लोग आपस में चंदा करके जुर्माना अदा कर देना चाहते हैं। आप भी इस सत्कार्य में योग देंगी?"

इंदु ने मुस्किराकर कहा-"मैं मौखिक सहानुभूति ही काफी समझती हूँ।"

इंद्रदत्त-"आप ऐसा कहेंगी, तो मेरा यह विचार पुष्ट हो जायगा कि हमारे रईसों में नैतिक बल नहीं रहा। हमारे राव-रईस हरएक उचित और अनुचित कार्य में अधिकारियों की सहायता करते रहते हैं, इसीलिए जनता का उन पर से विश्वास उठ गया है। वह उन्हें अपना मित्र नहीं, शत्रु समझतो है। मैं नहीं चाहता कि आपकी गणना भी उन्हीं रईसों में हो। कम-से-कम मैंने आपको अब तक उन रईसों से अलग समझा है।"

इंदु ने गंभीर भाव से कहा-"इंद्रदत्त, में ऐसा क्यों कर रही हूँ, इसका कारण तुम जानते हो। राजा साहब सुनेंगे, तो उन्हें कितना दुःख होगा! मैं उनसे छिपकर कोई काम नहीं करना चाहती।"

इंद्रदत्त-"राजा साहब से इस विषय में अभी मुझसे बातचीत नहीं हुई। लेकिन मुझे विश्वास है कि उनके भाव भी हमीं लोगों-जैसे होंगे। उन्होंने इस वक्त कानूनी फैसला किया है। सच्चा फैसला उनके हृदय ने किया होगा। कदाचित् उनकी तरह न्यायपद पर बैठकर मैं भी वही फैसला करता, जो उन्होंने किया है। लेकिन वह मेरे ईमान का फैसला नहीं, केवल कानून का विधान होता। मेरी उनसे घनिष्ठता नहीं है, नहीं तो उनसे भी कुछ-न-कुछ ले मरता। उनके लिए भागने का कोई रास्ता नहीं था।"

इंदु—"संभव है, राजा साहब के विषय में तुम्हारा अनुमान सत्य हो। मैं आज उनसे पूछूँगी।"

इंद्रदत्त—"पूछिए, लेकिन मुझे भय है कि सजा साहब इतनी आसानी से न खुलेंगे।" इंदु-"तुम्हें भय है, और मुझे विश्वास है। लेकिन यह जानती हूँ कि हमारे मनोभाव समान दशाओं में एक-से होते हैं, इसलिए आपको इंतजार के कष्ट में नहीं डालना चाहती। यह लीजिए, यह मेरी तुच्छ भेंट है।"

यह कहकर इंदु ने एक सावरेन निकालकर इंद्रदत्त को दे दिया।

इंद्रदत्त-"इसे लेते हुए शंका होती है।"

इंदु-"किस बात की?"

इंद्रदत्त-"कि कहीं राजा साहब के विचार कुछ और ही हो।"

इंदु ने गर्व से सिर उठाकर कहा-"इसकी कुछ परवा नहीं।"

इंद्रदत्त-"हाँ, इस वक्त आपने रानियों की-सी बात कही। यह सावरेन सूरदास की नैतिक विजय का स्मारक है। आपको अनेक धन्यवाद! अब मुझे आज्ञा दोजिए। अभी बहुत चक्कर लगाना है। जुर्माने के अतिरिक्त और जो कुछ मिल जाय, उसे भी नहीं छोड़ना चाहता।"

इंद्रदत्त उतरकर जाना ही चाहते थे कि इंदु ने जेब से दूसरा सावरेन निकालकर कहा-“यह लो, शायद इससे तुम्हारे चक्कर में कुछ कमी हो जाय ।"

इंद्रदत्त ने सावरेन जेब में रखा, और खुश-खुश चले। लेकिन इंदु कुछ चिंतित सी हो गई। उसे विचार आया-“कहीं राजा साहब वास्तव में सूरदास को अपराधी समझते हों, तो मुझे जरूर आड़े हाथों लेंगे। खैर, होगा, मैं इतना दबना भी नहीं चाहती। मेरा कर्तव्य है सत्कार्य में उनसे दबना। अगर कुविचार में पड़कर वह प्रजा पर अत्याचार करने लगें, तो मुझे उनसे मतभेद रखने का पूरा अधिकार है। बुरे कामों में उनसे दबना मनुष्य के पद से गिर जाना है। मैं पहले मनुष्य हूं; पत्नी, माता, बहन, बेटी पीछे"

इंदु इन्हीं विचारों में मन थी कि मि० जॉन सेवक और उनकी स्त्री मिल गई।

जॉन सेवक ने टोप उतारा। मिसेज सेवक बोलीं-"हम लोग तो आप ही की तरफ जा रहे थे। इधर कई दिन से मुलाकात न हुई थी। जी लगा हुआ था। अच्छा हुआ, राह ही में मिल गई।"

इंदु-“जी नहीं, मैं राह में नहीं मिली। यह देखिए, जाती हूँ; आप जहाँ जाती हैं, वहीं जाइए।"

जॉन सेवक-"मैं तो हमेशा Compromise पसंद करता हूँ। यह आगे पार्क "आता है। आज बैंड भी होगा, वहीं जा बैठे।"

इंदु-"वह Compromise पक्षपात-रहित तो नहीं है, लेकिन खैर!"

पार्क में तीनों आदमी उतरे और कुर्सियों पर जा बैठे। इंदु ने पूछा-"सोफिया का कोई पत्र आया था?"

मिसेज सेवक-"मैंने तो समझ लिया कि वह मर गई। मिल क्लार्क जैसा आदमी उसे न मिलेगा। जब तक यहाँ रही, टालमटोल करती रही। वहाँ जाकर विद्रोहियों से

मिल बैठी। न जाने उसकी तकदीर में क्या है। क्लार्क से संबन्ध न होने का दुःख मुझे हमेशा रुलाता रहेगा।"

जॉन सेवक-"मैं तुमसे हजार बार कह चुका, वह किसी से विवाह न करेगी। वह दांपत्य जीवन के लिए बनाई ही नहीं गई। वह आदर्श-वादिनी है, और आदर्शवादी सदैव आनंद के स्वप्न ही देखा करता है, उसे आनंद की प्राप्ति नहीं होती। अगर कभी विवाह करेगी भी, तो कुँवर विनय सिंह से।"

मिसेज सेवक——"तुम मेरे सामने कुँवर विनयसिंह का नाम न लिया करो। क्षमा कीजिएगा रानी इंदु, मुझे ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह पसंद नहीं।”

जान सेवक—"पर ऐसे बेजोड़ और अस्वाभाविक विवाह कभी-कभी हो जाते हैं।"

मिसेज सेवक—"मैं तुमसे कहे देती हूँ, और रानी इंदु, आप गवाह रहिएगा कि सोफी की शादी कभी विनयसिंह से न होगी।"

जॉन सेवक-"आपका इस विषय में क्या विचार है रानी इंदुः१ दिल की बात कहिएगा।"

इंदु-"मैं समझती हूँ, लेडी सेवक का अनुमान सत्य है। विनय को सोफो से कितना ही प्रेम हो, पर वह माताजी की इतनी उपेक्षा न करेंगे। माताजी-सी दुखी स्त्री आज संसार में न होगी। ऐसा मालूम होता है, उन्हें जीवन में अब कोई आशा ही नहीं रही। नित्य गुमसुम रहती हैं। अगर किसी ने भूलकर भी विनय का जिक्र छेड़ दिया, तो मारे क्रोध के उनकी त्योरियाँ बदल जाती हैं। अपने कमरे से विनय का चित्र उतरवा डाला है। उनके कमरे का द्वार बंद करा दिया है, न कभी आप उसमें जाती हैं, न और किसी को जाने देती हैं, और मिस सोफिया का नाम ले लेना तो उन्हें चुटकी काट लेने के बराबर है। पिताजी को भी स्वयंसेवकों की संस्था से अब कोई प्रेम नहीं रहा। जातीय कामों से उन्हें कुछ अरुचि हो गई है। अहा! आज बहुत अच्छी साइत में घर से चली थी। वह डॉक्टर गंगुली चले आ रहे हैं। कहिए, डॉक्टर साहब, शिमले से कब लौटे?"

गंगुली—“सरदी पड़ने लगी। अब वहाँ से सब कोई कूच हो गया। हम तो अभी आपकी माताजी के पास गया था। कुँवर विनयसिंह के हाल पर उनको बड़ा दुःख है।"

जॉन सेवक—"अबकी तो आपने काउंसिल में धूम मचा दी।"

गंगुली—"हाँ, अगर वहाँ भाषण करना, प्रश्न करना, बहस करना काम है, तो आप हमारा जितना बड़ाई करना चाहता है, करे; पर मैं उसे काम नहीं समझता, यह तो पानी चारना है। काम उसको कहना चाहिए, जिससे देश और जाति का कुछ उपकार हो। ऐसा तो हमने कोई काम नहीं किया। हमारा तो अब वहाँ मन नहीं लगता पहले तो सब आदमी एक नहीं होता, और कभी. हो भी गया, तो गवर्नमेंट हमारा प्रस्ताव खारिज कर देता है। हमारा मेहनत खराब हो जाता है। यह तो लड़कों का खेल है, हमको नये कानून से घड़ी आशा थो, पर तीन-चार साल उसका अनुभव करके देख लिया कि इससे कुछ नहीं होता। हम जहाँ तब था, वहीं अब भी है। मिलिटरो का खरच

बढ़ता जाता है; उस पर कोई शंका करे, तो सरकार बोलता है, आपको ऐसा बात नहीं कहना चाहिए। बजट बनाने लगता है, तो हरएक आइटेम में दो-चार लाख ज्यादा लिख देता है। हम काउंसिल में जब जोर देता है, तो हमारा बात रखने के लिए वही फालतू रुपया निकाल देता है। मेंबर खुशी के मारे फूल जाता है—हम जीत गया, हम जीत गया! पूछो, तुम क्या जीत गया? तुम क्या जीतेगा? तुम्हारे पास जीतने का साधन ही नहीं है, तुम कैसे जीत सकता है? कभी हमारे बहुत जोर देने पर किफायत किया जाता है, तो हमारे ही भाइयों का नुकसान होता है। जैसे अबकी हमने पुलिस-विभाग में ५ लाख काट दिया। मगर यह कमी बड़े-बड़े हाकिमों के भत्ते या तलब में नहीं किया गया। बिचारा चौकीदार, कांसटेबल, थानेदार का तलब घटावेगा, जगह तोड़ेगा। इससे अब किफायत का बात कहते हुए भी डर लगता है कि इससे हमारे ही भाइयों का गरदन कटता है। सारा काउंसिल जोर देता रहा कि बंगाल की बाढ़ के सताये हुए आदमियों के सहायतार्थ २० लाख मंजूर किया जाय; सारा काउंसिल कहता रहा कि मि० क्लार्क का उदयपूर से बदली कर दिया जाय, पर सरकार ने मंजूर नहीं किया। काउंसिल कुछ नहीं कर सकता। एक पत्ती तक नहीं तोड़ सकता। जो आदमी काउंसिल को बना सकता है, वही उसको बिगाड़ भी सकता है। भगवान् ज़िलाता है, तो भगवान् ही मारता है। काउंसिल को सरकार बनाता है और वह सरकार की मुट्ठी में है। जब जाति द्वारा काउंसिल बनेगा, तब उससे देश का कल्यान होगा। यह सब जानता है, पर कुछ न करने से कुछ करते रहना अच्छा है। मरना भी मरना है, और खाट पर पड़े रहना भी मरना है; लेकिन एक अवस्था में कोई आशा नहीं रहता, दूसरी अवस्था में कुछ आशा रहता है। बस, इतना ही अंतर है, और कुछ नहीं।"

इंदु ने छेड़कर पूछा—"जब आप जानते हैं कि वहाँ जाना व्यर्थ है, तो क्यों जाते हैं? क्या आप बाहर रहकर कुछ नहीं कर सकते"

गंगुली—(हँसकर) “वही तो बात है इंदुरानी, हम खाट पर पड़ा है, हिल नहीं सकता, बात नहीं कर सकता, खा नहीं सकता; लेकिन बाबा, यमराज को देखकर हम तो उठ भागेगा, रोयेगा कि महाराज, कुछ दिन और रहने दो। हमारा जिंदगी काउंसिल में गुजर गया, अब हमको कोई दूसरा रास्ता नहीं दिखाई देता।"

इंदु—"मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना बेहतर समझू। कम-से-कम यह तो आशा होगी कि कदाचित् आनेवाला जीवन इससे अच्छा हो।"

गंगुली—(हँसकर) "हमको कोई कह दे कि मरकर तुम फिर इसी देश में आयेगा और फिर काउंसिल में जा सकेगा, तो हम यमराज से बोलेगा-बाबा, जल्दी कर। पर ऐसा तो कहता नहीं।"

जॉन सेवक—"मेरा विचार है कि नये चुनाव में व्यापार-भवन की ओर से खड़ा हो जाऊँ।"

गंगुली—"आप किस दल में रहेगा?"
जॉन सेवक—"मेरा कोई दल न है, और न होगा। मैं इसी विचार और उद्देश्य से जाऊँगा कि स्वदेशी व्यापार की रक्षा कर सकूँ। मैं प्रयत्न करूँगा कि विदेशी वस्तुओं पर बड़ी कठोरता से कर लगाया जाय, इस नीति का पालन किये बिना हमारा व्यापार कभी सफल न होगा।"

गंगुली-"इंगलैंड को क्या करेगा?"

जॉन सेवक-"उसके साथ भी अन्य देशों का-सा व्यवहार होना चाहिए। मैं इंगलैंड की व्यवसायिक दासता का घोर विरोधी हूँ।"

गंगुली-(घड़ी देखकर) "बहुत अच्छी बात है, आप खड़ा हो। अभी हमको यहाँ से अकेला जाना पड़ता है। तब दो आदमी साथ-साथ जायगा। अच्छा, अब जाता है। कई आदमियों से मिलना है।"

डॉक्टर गंगुली के बाद जॉन सेवक ने भी घर की राह ली। इंदु मकान पर पहुँची, तो राजा साहब बोले-"तुम कहाँ रह गई?"

इंदु—"रास्ते में डॉक्टर गंगुली और मि० जॉन सेवक मिल गये, बातें होने लगी।"

महेंद्र—"गंगुली को साथ क्यों न लाई?"

इंदु—"जल्दी में थे। आज तो इस अंधे ने कमाल कर दिया।"

महेंद्र—“एक ही धूर्त है। जो उसके स्वभाव से परिचित न होगा, जरूर धोखे में या गया होगा। अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने के लिए इससे उत्तम और कोई ढंग ध्यान ही में नहीं आ सकता। इसे चमत्कार कहना चाहिए। मानना पड़ेगा कि उसे मानव-चरित्र का पूरा ज्ञान है। निरक्षर होकर भी आज उसने कितने ही शिक्षित और विचारशील आदमियों को अपना भक्त बना लिया। यहाँ लोग उसका जुर्माना अदा करने के लिए चंदा जमा कर रहे हैं। सुना है, जुलूस भी निकालना चाहते हैं। पर मेरा दृढ़ विश्वास है कि उसने उस औरत को बहकाया, और मुझे अफसोस है कि और कड़ी सजा क्यों न दी।"

इंदु—"तो आपने चंदा भी न दिया होगा?"

महेंद्र-"कभी-कभी तुम बेसिर-पैर की बातें करने लगती हो। चंदा कैसे देता, अपने मुँह में आप ही थप्पड़ मारता!"

इंदु—"लेकिन मैंने तो दे दिया है। मुझे........"

महेंद्र—"अगर तुमने दे दिया है, तो बुरा किया है।"

इंदु—"मुझे यह क्या मालूम था कि....."

महेंद्र—"व्यर्थ बातें न बनाओ। अपना नाम गुप्त रखने को तो कह दिया है?"

इंदु—"नहीं, मैंने कुछ नहीं कहा।"

महेंद्र-"तो तुमसे ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न होगा। तुमने इंद्रदत्त को रुपये दिये होंगे। इंद्रदत्त यों बहुत विनयशील और सहृदय युवक है, और मैं उसका दिल से आदर करता हूँ। लेकिन इस अवसर पर वह दूसरों से चंदा वसूल करने के लिए

तुम्हारा नाम उछलाता फिरेगा। जरा दिल में सोचो, लोग क्या समझेंगे। शोक है! अगर इस वक्त मैं दीवार से सिर नहीं टकरा लेता, तो समझ लो कि बड़े धैर्य से काम ले रहा हूँ। तुम्हारे ह्मयों मुझे सदैव अपमान ही मिला, और तुम्हारा यह कार्य तो मेरे मुख पर कालिमा का वह चिह्न है, जो कभी मिट नहीं सकता।"

यह कहकर महेंद्रकुमार निराश होकर आरामकुर्सी पर लेट गये और छत की ओर ताकने लगे। उन्होंने दीवार से सिर न टकराने में चाहे असीम धैर्य से काम लिया या न लिया हो, पर इंदु ने अपने मनोभावों को दबाने में असीम धैर्य से जरूर काम लिया। जी में आता था कि कह दूँ, मैं आपकी गुलाम नहीं हूँ, मुझे यह बात संभव ही नहीं मालूम होती कि कोई ऐसा प्राणी भी हो सकता है, जिस पर ऐसी करुण अपील का कुछ असर ही न हो। मगर भय हुआ कि कहीं बात बढ़ न जाय। उसने चाहा कि कमरे से चली जाऊँ और निर्दय प्रारब्ध को, जिसने मेरी शांति में विघ्न डालने का ठेका-सा ले लिया है, पैरों-तले कुचल डालूँ और दिखा दूँ कि धैर्य और सहनशीलता से प्रारब्ध के कठोरतम आषातों का प्रतिकार किया जा सकता है, किंतु ज्यों ही वह द्वार की तरफ चली कि महेंद्रकुमार फिर तनकर बैठ गये और बोले-"जाती कहाँ हो, क्या मेरी सूरत से भी घणा हो गई? मैं तुमसे बहुत सफाई से पूछना चाहता हूँ कि तुम इतनी निरंकुशता से क्यों काम करती हो। मैं तुमसे कितनी बार कह चुका हूँ कि जिन बातों का संबन्ध मुझसे हो, वे मुझसे पूछे बिना न की जाया करें-हाँ, अपनी निजी बातों में तुम स्वाधीन हो—मगर तुम्हारे ऊपर मेरी अनुनय-विनय का कोई असर क्यों नहीं होता? क्या तुमने कसम खा ली है कि मुझे बदनाम करके, मेरे सम्मान को धूल में मिलाकर, मेरी प्रतिष्ठा को पैरों से कुचलकर तभी दम लोगी?"

इंदु ने गिड़गिड़ाकर कहा—"ईश्वर के लिए इस वक्त मुझे कुछ कहने के लिए विवश न कीजिए। मुझसे भूल हुई या नहीं, इस पर मैं बहस नहीं करना चाहती। मैं माने लेती हूँ कि मुझसे भूल हुई और जरूर हुई। मैं उसका प्रायश्चित्त करने को तैयार हूँ। अगर अब भी आपका जी न भरा हो, तो लीलिए, बैठी जाती हूँ। आप जितनी देर तक और जो कुछ चाहें, कहें; मैं सिर न उठाऊँगी।"

मगर क्रोध अत्यंत कठोर होता है। वह देखना चाहता है कि मेरा एक-एक वाक्य निशाने पर बैठता है या नहीं, वह मौन को सहन नहीं कर सकता। उसकी शक्ति अपार है, ऐसा कोई घातक-से-घातक शस्त्र नहीं है, जिससे बढ़कर काट करनेवाले यंत्र उसकी शस्त्रशाला में न हों लेकिन मौन वह मंत्र है, जिसके आगे उसकी सारी शक्ति विफल हो जाती है। मौन उसके लिए अजेय है। महेंद्रकुमार चिढ़कर बोले-"इसका यह आशय है कि मुझे बकवास का रोग हो गया है और कभी-कभी उसका दौरा हो जाया करता है।

इंदु—"यह आप खुद कहते हैं।"

इंदु से भूल हुई कि वह अपने वचन को निभा न सकी। क्रोध को एक चाबुक

और मिला। महेंद्र ने आँखें निकालकर कहा—"यह मैं नहीं कहता, तुम कहती हो। आखिर बात क्या है? मैं तुमसे जिज्ञासा-भाव से पूछ रहा हूँ कि तुम क्यों बार-बार वे ही काम करती हो, जिनसे मेरी निंदा और जग-हँसाई हो, मेरी मान-प्रतिष्ठा धूल में मिल जाय, मैं किसी को मुँह दिखाने लायक न रहूँ? मैं जानता हूँ, तुम जिद से ऐसा नहीं करतीं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ, तुम मेरे आदेशानुसार चलने का प्रयास भी करती हो। किंतु फिर भी जो यह अपवाद हो जाता है, उसका क्या कारण है? क्या यह बात तो नहीं कि पूर्व जन्म में हम और तुम एक दूसरे के शत्रु थे; या विधाता ने मेरी अभिलाषाओं और मंसूबों का सर्वनाश करने के लिए तुम्हें मेरे पल्ले बाँध दिया है? मैं बहुधा इसी विचार में पड़ा रहता हूँ, पर कुछ रहस्य नहीं खुलता।”

इंदु—"मुझे गुप्त ज्ञान रखने का तो दावा नहीं। हाँ, अगर आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर इंद्रदत्त को ताकीद कर दूँ कि मेरा नाम न जाहिर होने पाये।"

महेंद्र—"क्या बच्चों की-सी बातें करती हो; तुम्हें यह सोचना चाहिए था कि यह चंदा किस नीयत से जमा किया जा रहा है। इसका उद्देश्य है मेरे न्याय का अपमान करना, मेरी ख्याति की जड़ खोदना। अगर मैं अपने सेवक की डाँट-फटकार करूँ और तुम उसकी पीठ पर हाथ फेरो, तो मैं इसके सिवा और क्या समझ सकता हूँ कि तुम मुझे कलंकित करना चाहती हो? चंदा तो खैर होगा ही, मुझे उसके रोकने का अधिकार नहीं है—जब तुम्हारे ऊपर कोई वश नहीं है, तो दूसरों का क्या कहना- लेकिन मैं जुलूस कदापि न निकलना दूंगा। मैं उसे अपने हुक्म से बंद कर दूंगा और अगर लोगों को ज्यादा तत्पर देखूगा, तो सैनिक-सहायता लेने में भी संकोच न करूँगा"

इंदु—"आप जो उचित समझें, करें। मुझसे ये सब बातें क्यों कहते हैं?"

महेंद्र—"तुमसे इसलिए कहता हूँ कि तुम भी उस अंधे के भक्तों में हो, कौन कह सकता है कि तुमने उससे दीक्षा लेने का निश्चय नहीं किया है! आखिर रैदास भगत के चेले ऊँची जातों में भी तो हैं!"

इंदु—"मैं दीक्षा को मुक्ति का साधन नहीं समझती और शायद कभी दीक्षा न लँगी। मगर हाँ, आप चाहे जितना बुरा समझें, दुर्भाग्य-वश मुझे यह पूरा विश्वास हो गया है कि सूरदास निरपराध है। अगर यही उसकी भक्ति है, तो मैं अवश्य उसकी भक्त हूँ!"

महेंद्र—"तुम कल जुलूस में तो न जाओगी?"

इंदु—"जाना तो चाहती थी, पर अब आपकी खातिर से न जाऊँगी। अपने सिर पर नंगी तलवार लटकते नहीं देख सकती।"

महेंद्र—"अच्छी बात है, इसके लिए तुम्हें अनेक धन्यवाद!"

इंदु अपने कमरे में आकर लेट गई। उसका चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। वह "देर तक राजा साहब की बातों पर विचार करती रही, फिर आप-ही-आप बोली—"भग-

वान्, यह जीवन असह्य हो गया है। या तो तुम इनके हृदय को उदार कर दो, या मुझे संसार से उठा लो। इंद्रदत्त इस वक्त न जाने कहाँ होगा। क्यों न उसके पास एक रुक्का भेज दूंँ कि खबरदार, मेरा नाम जाहिर न होने पाये! मैंने इनसे नाहक कह दिया कि चंदा दिया। क्या जानती थी कि यह गुल खिलेगा!"

उसने तुरंत घंटी बजाई, नौकर अंदर आकर खड़ा हो गया। इंदु ने रुक्का लिखा— "प्रिय इंद्र, मेरे चंदे को किसी पर जाहिर मत करना, नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा! मुझे बहुत विवश होकर ये शब्द लिखने पड़े हैं।"

फिर रुक्के को नौकर को देकर बोली—“इद्रदत्त बाबू का मकान जानता है?"

नौकर—"होई तो कहूँ सहरै मैं न? पूछ लेबै!”

इंदु—"शहर में तो शायद उम्र-भर उनके घर का पता न लगे।"

नौकर—"आप चिट्ठी तो दें, पता तो हम लगाउब, लगी न, का कही!"

इंदु—"ताँगा ले लेना, काम जल्दी का है।”

नौकर—"हमार गोड़ ताँगा से कम थोरे हैं। का हम कौनो ताँगा ससुर से कम चलित है।"

इंदु—“बाजार चौक से होते हुए मेरे घर तक जाना। बीस बिस्वे वह तुम्हें मेरे घर ही पर मिलेंगे। इंद्रदत्त को देखा है? पहचानता है न?"

नौकर—'जेहका एक बेर देख लेई, ओहका जनम-भर न भूली। इंदर बाबू का तो सेकरन बेर देखा है।"

इंदु—"किसी को यह खत मत दिखाना।"

नौकर—"कोऊ देखी कसस, पहले ओकी आँख न फोरि डारख?"

इंदु ने रुक्का दिया नौकर लेकर चला गया। तब वह फिर लेट गई और के हो बातें सोचने लगी-"मेरा यह अपमान इन्हीं के कारण हो रहा है। इंद्र अपने दिल में क्या सोचेगा? यही न कि राजा साहब ने इसे डाँटा होगा। मानों मैं लौंडी हूँ, जब चाहते हैं, डॉट बता देते हैं। मुझे कोई काम करने की स्वाधीनता नहीं है। उन्हें अख्त्यार है, जो चाहें, करें। मैं उनके इशारों पर चलने के लिए मजबूर हूँ। कितनी अधोगति है।"

यह सोचते ही वह तेजी से उठी और घंटी बजाई। लौंडी आकर खड़ी हो गई। इंदु बोली—"देख, भीखा चला तो नहीं गया। मैंने उसे एक रुका दिया है। जाकर उससे वह रुका माँग ला। अब न भेजूंगी। चला गया हो, तो किसी को साइकिल पर दौड़ा देना। चौक की तरफ मिल जायगा।"

लैंडी चली गई और जरा देर में भीखा को लिये दुए आ पहुँची। भीखा बोला—"जो छिन-भर और न जात, तो हम घर माँ न मिलित।"

इंदु—"काम तो तुमने जुर्माने का किया है कि इतना जरूरी खत और अभी तक पार में पड़े रहे। लेकिन इस वक्तं यही अच्छा हुआ। वह रुक्का अब न जायगा, मुझे दो।
उसने रुक्का लेकर फाड़ डाला। तब आज का समाचार-पत्र खोलकर देखने लगी। पहला ही शीर्षक था—'शास्त्रीजी की महत्त्व-पूर्ण वक्तृता।' इंदु ने पत्रको नीचे डाल दिया— "यह महाशय तो शैतान से ज्यादा प्रसिद्ध हो गये। जहाँ देखो, वहीं शास्त्री। ऐसे मनुष्य की योग्यता की चाहे जितनी प्रशंसा की जाय, पर उसका सम्मान नहीं किया जा सकता। शास्त्रीजी का नाम आते ही मुझे इनकी याद आ जाती है। जो आदमी जरा-जरा से मतभेद पर सिर हो जाय, दाल में जरा-सा नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को घर से निकाल दे, जिसे दूसरों के मनोभावों का जरा भी लिहाज न हो, जिसे जरा भी चिंता न हो कि मेरो बातों से किसी के दिल पर क्या असर होगा, वह भी कोई आदमी है! हो सकता है कि कल को कहने लगें, अपने पिता से मिलने मत जाओ। मानों, मैं इनके हाथों बिक गई!"

दूसरे दिन प्रातःकाल उसने गाड़ी तैयार कराई और दुशाला ओढ़कर घर से 'निकली। महेंद्रकुमार बाग में टहल रहे थे। यह उनका नित्य का नियम था। इंदु को जाते देखा, तो पूछा—"इतने सबेरे कहाँ?”

इंदु ने दूसरी ओर ताकते हुए कहा-"जाती हूँ आपकी आज्ञा का पालन करने। इंद्रदत्त से रुपये वापस लूंँगी।"

महेंद्र—“इंदु, सच कहता हूँ, तुम मुझे पागल बना दोगी।”

इंदु—"आप मुझे कठपुतलियों की तरह नचाना चाहते हैं। कभी इधर, कभी उधर!"

सहसा इंद्रदत्त सामने से आते हुए दिखाई दिये। इंदु उनकी ओर लपककर चली, मानों अभिवादन करने जा रही है, और फाटक पर पहुँचकर बोली—“इंद्रदत्त, सच कहना, तुमने किसी से मेरे चंदे की चर्चा तो नहीं की?"

इंद्रदत्त सिटपिटा-सा गया, जैसे कोई आदमी दूकानदार को पैसे की जगह रुपया दे आये। बोला-"आपने मुझे मना तो नहीं किया था।"

इंदु—"तुम झूठे हो, मैंने मना किया था।"

इंद्रदत्त—"इंदुरानी, मुझे खूब याद है कि आपने मना नहीं किया था। हाँ, मुझे स्वयं बुद्धि से काम लेना चाहिए था। इतनी भूल जरूर मेरी है।"

इंदु—(धीरे से) "तुम महेंद्र से इतना कह सकते हो कि मैंने इनकी चर्चा किसो से नहीं की, मुझ पर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी। बड़े नैतिक संकट में पड़ी हुई हूँ।"

यह कहते-कहते इंदु की आँखें डबडबा आई। इंद्रदत्त वातावरण ताड़ गया। बोला—"हाँ, कह दूंगा-आपकी खातिर से।"

एक क्षण में इद्रदत्त राजा के पास जा पहुँचा। इंदु घर में चली गई।

महेंद्रकुमार ने पूछा—“कहिए महाशय, इस वक्त कैसे कष्ट किया?"

इंद्रदत्त—"मुझे तो कष्ट नहीं हुआ, आपको कष्ट देने आया हूँ। क्षमा कीजिएगा।

यद्यपि यह नियम विरुद्ध है, पर मेरी आपसे प्रार्थना है कि सूरदास और सुभागी का

जमाना आप इसी वक्त मुझसे ले लें और उन दोनों को रिहा करने का हुक्म दे दें। कचहरी अभी देर में खुलेगी। मैं इसे आपकी विशेष कृपा समझूँगा।"

महेंद्रकुमार—"हाँ, नियम-विरुद्ध तो है, लेकिन तुम्हारा लिहाज करना पड़ता है। रुपये मुनीम को दे दो, मैं रिहाई का हुक्म लिखे देता हूँ। कितने रुपये जमा किये?"

इंद्रदत्त—"बस, शाम को चुने हुए सजनों के पास गया था। कोई पाँच सौ रुपये हो गये।"

महेंद्रकुमार—"तब तो तुम इस कला में निपुण हो। इदुरानी का नाम देखकर न देनेवालों ने भी दिये होंगे।"

इंद्रदत्त—"मैं इदुरानी के नाम का इससे ज्यादा आदर करता हूँ। अगर उनका नाम दिखाता, तो पाँच सौ रुपये न लाता, पाँच हजार लाता।"

महेंद्रकुमार—"अगर यह सच है, तो तुमने मेरी आबरू रख ली।"

इंद्रदत्त—"मुझे आपसे एक याचना और करनी है। कुछ लोग सूरदास को इजत के साथ उसके घर पहुँचाना चाहते हैं। संभव है, दो-चार सौ दर्शक जमा हो जायँ। मैं आपसे इसकी आज्ञा चाहता हूँ।"

महेंद्रकुमार—"जुलूस निकालने की आज्ञा नहीं दे सकता। शांति-भंग हो जाने की शंका है।"

इंद्रदत्त—"मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि पत्ता तक न हिलेगा।"

महेंद्रकुमार—"यह असंभव है।"

इंद्रदत्त—"मैं इसकी जमानत दे सकता हूँ।"

महेंद्रकुमार—"यह नहीं हो सकता।"

इंद्रदत्त समझ गया कि राजा साहब से अब ज्यादा आग्रह करना व्यर्थ है। जाकर मुनीम को रुपये दिये और ताँगे की ओर चला। सहसा राजा साहब ने पूछा-"जुलूस तो न निकलेगा न?"

इंद्रदत्त—"निकलेगा। मैं रोकना चाहूँ, तो भी नहीं रोक सकता।"

इंद्रदत्त वहाँ से अपने मित्रों को सूचना देने के लिए चले। जुलूस का प्रबंध करने में घंटों की देर लग गई। इधर उनके जाते ही राजा साहब ने जेल के दारोगा को टेलीफोन कर दिया कि सूरदास और सुभागी छोड़ दिये जाय और उन्हें बन्द गाड़ी में बैठा कर उनके घर पहुँचा दिया जाय। जब इंद्रदत्त सवारी, बाजे आदि लिये हुए जेल पहुँचे, तो मालूम हुआ, पिंजरा खाली है, चिड़ियाँ उड़ गई। हाथ मलकर रह गये। उन्हीं पाँवों पाँड़ेपुर चले। देखा, तो सूरदास एक नीम के नीचे राख के ढेर के पास बैठा हुआ है। एक ओर सुभागी सिर झुकाये खड़ी है। इंद्रदत्त को देखते ही जगधर और अन्य कई आदमी इधर-उधर से आकर जमा हो गये।

इंद्रदत्त—"सूरदास, तुमने तो बड़ी जल्दी की। वहाँ लोग तुम्हारा जुलूस निकालने

की तैयारियाँ किये हुए थे। राजा साहब ने बाजी मार ली। अब बतलाओ, वे रुपये क्या हो, जो जुलूस के खर्च के लिए जमा किये गये थे?"

सूरदास—"अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ चुपके से आ गया। नहीं तो सहर-भर में धूमना पड़ता! जुलूस बड़े-बड़े आदमियों का निकलता है कि अंधे भिखारियों का? आप लोगों ने जरोबाना देकर छुड़ा दिया, यही कौन कम धरम किया!"

इंद्रदत्त—"अच्छा बताओ, ये रुपये क्या किये जायँ? तुम्हें दे दूँ?"

सूरदास—"कितने रुपये होंगे?"

इंद्रदत्त—"कोई तीन सौ होंगे।"

सूरदास—"बहुत हैं। इतने में भैरो की दूकान मजे में बन जायगी।"

जगधर को बुरा लगा, बोला—"पहले अपनी झोपड़ी की तो फिकिर करो!"

सूरदास—"मैं इसी पेड़ के नीचे पड़ रहा करूँगा, या पंडाजी के दालान में।"

जगधर—"जिसकी दूकान जली है, वह बनवायेगा, तुम्हें क्या चिंता है "

सूरदास—"जली तो है मेरे ही कारन!"

जगधर—"तुम्हारा घर भी तो जला है?"

सूरदास—"यह भी बनेगा, लेकिन पीछे से। दूकान न बनी, तो भैरो को कितना घाटा होगा! मेरी भीख तो एक दिन भी बंद न होगी।"

जगधर—"बहुत सराहने से भी आदमी का मन बिगड़ जाता है। तुम्हारी भलमनसी का लोग बखान करने लगे, तो अब तुम सोचते होगे कि ऐसा काम करूँ, जिसमें और बड़ाई हो। इस तरह दूसरों की ताली पर नाचना न चाहिए।"

इंद्रदत्त—"सूरदास, तुम इन लोगों को बकने दो, तुम ज्ञानी हो, ज्ञान-पक्ष को मत छोड़ो। ये रुपये तुम्हारे पास रखे जाता हूँ; जो इच्छा हो, करना।"

इंद्रदत्त चला गया, तो सुभागी ने सूरदास से कहा—"उसकी दूकान बनवाने का नाम न लेना।"

सूरदास—"मेरे घर से पहले उसकी दूकान बनेगी। यह बदनामी सिर पर कौन ले कि सूरदास ने भैरो का घर जलवा दिया। मेरे मन में यह बात समा गई है कि हमी में से किसी ने उसकी दूकान जलाई।"

सुभागी—“उससे तुम कितना ही दबो, पर वह तुम्हारा दुसमन ही बना रहेगा। कुत्ते को पूँछ कभी सीधी नहीं होती।"

सूरदास—"तुम दोनों फिर एक हो जाओगे, तब तुझसे पढूंगा।'

सुभागी—"भगवान मार डालें, पर उसका मुँह न दिखावें।"

सूरदास—“मैं कहे देता हूँ, एक दिन तू भैरो के घर की देवी बनेगी।"

सूरदास रुपये लिये हुए भैरो. के घर की ओर चला। भैरो रपट करने जाना तो चाहता था; पर शंका हो रही थी कि कहीं सूरदास की झोपड़ो की भी बात चली, तो क्या जवाब दूंँगा। बार-बार इरादा करके रुक जाता था। इतने में सूरदास को

सामने आते देखा, तो हक्का-बक्का रह गया। विस्मित होकर बोला—"अरे, क्या जरी-बाना दे आया क्या?"

बुढ़िया बोली—"बेटा, इसे जरूर किसी देवता का इट है, नहों तो वहाँ से कैसे भाग आता!"

सूरदास ने बढ़कर कहा—'भैरो, मैं ईश्वर को बीच में डालकर कहता हूँ, मुझे कुछ नहीं मालूम कि तुम्हारी दूकान किसने जलाई। तुम मुझे चाहे जितना नीच समझो, पर मेरी जानकारी में यह बात कभी न होने पाती। हाँ, इतना कह सकता हूँ कि यह किसी मेरे हितू का काम है।"

भैरो—"पहले यह बताओ कि तुम छूट कैसे आये? मुझे तो यही बड़ा अचरज है।"

सूरदास—"भगवान की इच्छा। सहर के कुछ धर्मात्मा आदमियों ने आपस में चंदा करके मेरा जरीबाना भी दे दिया और कोई तोन सौ रुपये जो बच रहे हैं; मुझे दे गये हैं। मैं तुमसे यह कहने आया हूँ कि तुम ये रुपये लेकर अपनी दूकान बनवा लो, जिसमें तुम्हारा हरज न हो। मैं सब रुपये ले आया हूँ।"

भैरो भौचक्का होकर उसकी ओर ताकने लगा, जैसे कोई आदमी आकाश से मोतियों की वर्षा होते देखे। उसे शंका हो रही थी कि इन्हें बटोरूँ या नहीं, इनमें कोई रहस्य तो नहीं है, इनमें कोई जहरीला कोड़ा तो नहीं छिपा है, कहीं इनको बटोरने से मुझ पर कोई आफत तो न आ जायगी। उसके मन में प्रश्न उठा, यह अंधा सचमुच मुझे रुपये देने के लिए लाया है, या मुझे ताना दे रहा है। जरा इसका मन टटोलना चाहिए। बोला—"तुम अपने रुपये रखो, यहाँ कोई रुपयों के भूखे नहीं हैं। प्यासों मरते भी हों, तो दुसमन के हाथ से पानी न पियें।"

सूरदास—“भैरो, हमारी-तुम्हारी दुसमनी कैसी? मैं तो किसी को अपना दुसमन नहीं देखता। चार दिन की जिंदगानी के लिए क्या किसी से दुसमनी को जाय! तुमने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की। तुम्हारी जगह मैं होता और समझता कि तुम मेरी घरवाली को बहकाये लिये जाते हो, तो मैं भी यही करता, जो तुमने किया। अग्नी आबरू किसको प्यारी नहीं होती! जिसे अपनी आबरू प्यारी न हो, उसकी गिनती आदमियों में नहीं, पशुओं में है। मैं तुमसे सच कहता हूँ, तुम्हारे हो लिए मैंने ये रुपये लिये, नहीं तो मेरे लिए तो पेड़ की छाँह बहुत थो। मैं जानता हूँ, अभी तुम्हें मेरे ऊपर संदेह हो रहा है, लेकिन कभी-न-कभी तुम्हारा मन मेरी ओर से साफ हो जायगा। ये रुपये लो ओर भगवान का नाम लेकर दूकान बनाने में हाथ लगा दो। कम पड़ेंगे, तो जिस भगवान ने इतनी मदद की है, वही भगवान और मदद भी करेंगे।"

भैरो को इन वाक्यों में सहृदयता ओर सजनता की झलक दिखाई दी। सत्य विश्वासोत्पादक होता है। नरम होकर बोला—"आओ, बैठो, चिलम पियो। कुछ बातें हों, तो समझ में आये। तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता। दुसमन के साथ तो कोई भलाई नहीं करता, तुम मेरे साथ क्यों इतनी मेहरबानी करते हो?" सूरदास—"तुमने मेरे साथ कौन-सी दुसमनी की? तुमने वही किया, जो तुम्हारा धरम था। मैं रात-भर हिरासत में बैठा यही सोचता रहा कि तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हो, मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई नहीं की, तो मुझे मालूम हुआ कि तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं कर रहे हो। यही तुम्हारा धरम है। औरत के पीछे तो खून हो जाता है। तुमने नालिस हो कर दी, तो कौन बुरा काम किया! बस, अब तुमसे मेरी यही बिनती है कि जिस तरह कल भरी अदालत में पंचों ने मुझे निरपराध कह दिया, उसी तरह तुम भी मेरी ओर से अपना मन साफ कर लो। मेरी इससे भी बड़ी दुर्गत हो, अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई घाट किया हो। हाँ, मुछसे एक ही बात नहीं हो सकती। मैं सुभागी को अपने घर से निकाल नहीं सकता। डरता हूँ कि कोई आड़ न रहेगा, तो न जान उसकी क्या दसा हो। मेरे यहाँ रहेगो, तो कौन जाने कभी तुम्हीं उसे फिर रख लो।"

भैरो का मलिन हृदय इस आंतरिक निर्मलता से प्रतिबिंबित हो गया। आज पहली बार उसे सूरदास की नेकनीयती पर विश्वास हुआ। सोचा—"अगर इसका दिल साफ न होता, तो मुझसे ऐसी बातें क्यों करता? मेरा कोई डर तो इसे है नहीं। मैं जो कुछ कर सकता था, कर चुका। इसके साथ तो सारा सहर है। सबों ने जरोबाना अदा कर दिया। ऊपर से कई सौ रुपये और दे गये। मुहल्ले में भी इसकी धाक फिर बैठ गई। चाहे तो बात-की-बात में मुझे बिगाड़ सकता है। नीयत साफ न होती, तो अब सुभागी के साथ आराम से रहता। अंधा है, अपाहिज है, भीख माँगता है; पर उसकी कितनी मरजाद है, बड़े-बड़े आदमी आव-भगत करते हैं! मैं कितना अधम, नोच आदमी हूँ, पैसे के लिए रात-दिन दगा-फरेग करता रहता हूँ। कौन-सा पाप है, जो मैंने नहीं किया! इस बेचारे का घर जलाया, एक बार नहीं, दो बार; इसके रुपये उठा ले गया। यह मेरे साथ नेकी ही करता चला आता है। सुभागी के बारे में मुझे सक-हो-सक था। अगर कुछ नायत बद होती, तो इसका हाथ किसने पकड़ा था, सुभागी को खुले-खजाने रख लेता। अब तो अदालत-कचहरी का भी डर नहीं रहा।" यह सोचता हुआ वह सूरदास के पास आकर बोला-"सूरे, अब तक मैंने तुम्हारे साथ जो बुराई-भलाई की, उसे माफ करो। आज से अगर तुम्हारे साथ कोई बुराई करूँ, तो भगवान मुझसे समझें। ये रुपये मुझे मत दो, मेरे पास रुपये हैं। ये भी तुम्हारे ही रुपये हैं। दूकान बनवा लूंगा। सुभागी पर भी मुझे अब कोई संदेह नहीं रहा। मैं भगवान को बीच में डालकर कहता हूँ, अब मैं कभी उसे कोई कड़ी बात तक न कहूँगा। मैं अब तक धोखे में पड़ा हुआ था। सुभागों को मेरे यहाँ आने पर राजी कर दो। वह तुम्हारो बात को नाहीं न करेगी।"

सूरदास—“राजी हो है, बस उसे यही डर है कि तुम फिर मारने-पीटने लगोगे।"

भैरो—“सूरे, अब मैं उसे भी पहचान गया। मैं उसके जोग नहीं था। उसका ब्याह तो किसी धर्मात्मा आदमी से होना चाहिए था। (धोरे से) आज तुमसे कहता हूँ, पहली बार भी मैंने ही तुम्हारे घर में आग लगाई थी और तुम्हारे रुपये चुराये थे।"

सूरदास—"उन बातों को भूल जाओ भैरो! मुझे सब मालूम है। संसार में कौन

है, जो कहे कि मैं गंगाजल हूँ। जब बड़े-बड़े साधू-संन्यासी माया-मोह में फंसे हुए हैं, तो हमारी-तुम्हारी क्या बात है! हमारी बड़ी भूल यही है कि खेल को खेल की तरह नहीं खेलते। खेल में धाँधली करके कोई जीत ही जाय, तो क्या हाथ आयेगा। खेलना तो इस तरह चाहिए कि निगाह जीत पर रहे, पर हार से घबराये नहीं, ईमान को न छोड़े। जीतकर इतना न इतराये कि अब कभी हार होगी ही नहीं। यह हार-जीत तो जिंदगानी के साथ है। हाँ, एक सलाह की बात कहता हूँ। तुम ताड़ी की दूकान छोड़कर कोई दूसरा रोजगार क्यों नही करते।”

भैगे—“जो कहो, वह करूँ। यह रोजगार है खराब। रात-दिन जुआरी, चोर, बदमास आदमियों का ही साथ रहता है। उन्हीं की बातें सुनो, उन्हीं के ढंग सीखो। अब मुझे मालूम हो रहा है कि इसी रोजगार ने मुझे चौपट किया। बताओ, क्या करूँ?"

सूरदास—“लकड़ी का रोजगार क्यों नहीं कर लेते? बुरा नहीं है। आजकल यहाँ परदेसी बहुत आयेंगे, बिक्री भी अच्छी होगी। जहाँ ताड़ी की दूकान थी, वहीं एक बाड़ा बनवा दो और इन रुपयों से लकड़ी का काम करना सुरू कर दो।"

भैरो—“बहुत अच्छी बात है। मगर ये रुपये अपने ही पास रखो। मेरे मन का क्या ठिकाना। रुपये पाकर कोई और बुराई न कर बैठू। मेरे-जैसे आदमी को तो कभी आधे पेट के सिवा भोजन न मिलना चाहिए। पैसे हाथ में आये, और सनक सवार हुई।"

सूरदास—"मेरे घर न द्वार, रखूँगा कहाँ?"

भैरो—'इससे तुम अपना घर बनवा लो।"

सूरदास—"तुम्हें लकड़ी की दुकान से नफा हो, तो बनवा देना।"

भैरो—"सुभागी को समझा दो।"

सूरदास—"समझा दूंगा।"

सूरदास चला गया। भैरो घर गया, तो बुढ़िया बोली-"तुझसे मेल करने आया था न?”

भैरो—“हाँ, क्यों न मेल करेगा, मैं बड़ा लाट हूँ न! बुढ़ापे में तुझे और कुछ नहीं सूझता। यह आदमी नहीं, साधू है!"


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