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रंगभूमि/३३

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रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३९० से – ३९४ तक

 

[३३]

फैक्टरी करीब-करीब तैयार हो गई थी। अब मशीनें गड़ने लगी। पहले तो मजदूर-मिस्त्री आदि प्रायः मिल के बरामदों ही में रहते थे, वहीं पेड़ों के नीचे खाना पकाते और सोते; लेकिन जब उनकी संख्या बहुत बढ़ गई, तो मुहल्ले में मकान ले-लेकर रहने लगे। पाँडेपुर छोटी-सी बस्ती तो थी ही, वहाँ इतने मकान कहाँ थे, नतीजा यह हुआ कि मुहल्लेवाले किराये के लालच से परदेशियों को अपने-अपने घरों में ठहराने लगे! कोई परदे की दीवार खिंचवा लेता था, कोई खुद झोपड़ा बनाकर उसमें रहने लगता और मकान भड़तों को दे देता। भैरो ने लकड़ी की दूकान खोल ली थी। वह अपनी माँ के साथ वहीं रहने लगा, अपना घर किराये पर दे दिया। ठाकुरदीन ने अपनी दूकान के सामने एक टट्टी लगाकर गुजर करना शुरू किया, उसके घर में एक ओवरसियर आ डटे। जगधर सबसे लोभी था, उसने सारा मकान उठा दिया और आप एक फूस के छप्पर में निर्वाह करने लगा। नायकराम के बरामदे में तो नित्य एक बरात ठहरती थी। यहाँ तक लोभ ने लोगों को घेरा कि बजरंगी ने भी मकान का एक हिस्सा उठा दिया। हाँ, सूरदास ने किसी को नहीं टिकाया। वह अपने नये मकान में, जो इंदुरानी के गुप्तदान से बना था, सुभागी के साथ रहता था। सुभागी अभी तक भैरो के साथ रहने पर राजी न हुई थी। हाँ, भैरो की आमद रफ्त अब सूरदास के घर अधिक रहती थी।

कारखाने में अभी मशीनें न गड़ी थीं, पर उसका फैलाव दिन-दिन बढ़ता जाता था। सूरदास की बाकी पाँच बीघे जमीन भी उसी धारा के अनुसार मिल के अधिकार में आ गई। सूरदास ने सुना, तो हाथ मलकर रह गया। पछताने लगा कि जाम साहब ही से क्यों न सौदा कर लिया! पाँच हजार देते थे। अब बहुत मिलेंगे, दो-चार सौ रुपये मिल जायँगे। अब कोई आंदोलन करना उसे व्यर्थं मालूम होता था। जब पहले ही कुछ न कर सका, तो अबकी क्या कर लूँगा। पहले ही यह शंका थी, वह पूरी हो गई।

दोपहर का समय था। सूरदास एक पेड़ के नीचे बैठा झपकियाँ ले रहा था कि इतने में तहसील के एक चपरासी ने आकर उसे पुकारा और एक सरकारी परवाना दिया।

सूरदास समझ गया कि हो-न-हो जमीन ही का कुछ झगड़ा है। परवाना लिये हुए मिल में आया कि किसी बाबू से पढ़वाये। मगर कचहरी की सुबोध लिपि बाबुओं से क्या चलती! कोई कुछ न बता सका। हारकर लौट रहा था कि प्रभु सेवक ने देख लिया। तुरंत अपने कमरे में बुला लिया और परवाने को देखा। लिखा हुआ था-अपनी जमीन के मुआवजे के १०००) रुपये तहसील में आकर ले जाओ।

सूरदास—“कुल एक हजार है?"

प्रभु सेवक—"हाँ, इतना ही तो लिखा है।" सूरदास—"तो मैं रुपये लेने न जाऊँगा। साहब ने पाँच हजार देने कहे थे, उनके एक हजार रहे, घूस-पास में सौ-पचास और उड़ जायँगे। सरकार का खजाना खाली है, भर जायेगा।"

प्रभु सेवक—"रुपये न लोगे, तो जब्त हो जायँगे। यहाँ तो सरकार इसी ताक में रहती है कि किसी तरह प्रजा का धन उड़ा ले। कुछ टैक्स के बहाने से, कुछ रोजगार के बहाने से, कुछ किसी बहाने से हजम कर लेती है।"

सूरदास—"गरीबों की चीज लेती है, तो बाजार-भाव से दाम न देना चाहिए? एक तो जबरजस्ती जमीन ले ली, उस पर मनमाना दाम दे दिया। यह तो कोई न्याय नहीं है।"

प्रभु सेवक—"सरकार यहाँ न्याय करने नहीं आई है भाई, राज्य करने आई है। न्याय करने से उसे कुछ मिलता है? कोई समय वह था, जब न्याय को राज्य की बुनियाद समझा जाता था। अब वह जमाना नहीं है। अब व्यापार का राज्य है, और जो इस राज्य को स्वीकार न करे, उसके लिए तारों का निशाना मारनेवाली तोपें हैं। तुम क्या कर सकते हो? दीवानी में मुकदमा दायर करोगे, वहाँ भी सरकार हो के नौकर-चाकर न्याय-पद पर बैठे हुए हैं।"

सूरदास—"मैं कुछ न लूँगा। जब राजा ही अधर्म करने लगा, तो परजा कहाँ तक जान बचाती फिरेगी?"

प्रभु सेवक—"इससे फायदा क्या? एक हजार मिलते हैं, ले लो; भागते भूत की लँगोटी ही भली।"

सहसा इंद्रदत्त आ पहुँचे और बोले—"प्रभु, आज डेरा कूच है, राजपूताना जा रहा हूँ।

प्रभु सेवक—"व्यर्थ जाते हो। एक तो ऐसी सख्त गरमी, दूसरे वहाँ की दशा अब बड़ी भयानक हो रही है। नाहक कहीं फँस-फँसा जाओगे।"

इंद्रदत्त—"बस, एक बार विनयसिंह से मिलना चाहता हूँ। मैं देखना चाहता हूँ कि उनके स्वभाव, चरित्र, आचार-विचार में इतना परिवर्तन, नहीं रूपांतर, कैसे हो गया।"

प्रभु सेवक—"जरूर कोई-न-कोई रहस्य है। प्रलोभन में पड़नेवाला आदमी तो नहीं है। मैं तो उनका परम भक्त हूँ। अगर वह विचलित हुए, तो मैं समझ जाऊँगा कि धर्मनिष्ठा का संसार से लोप हो गया।"

इंद्रदत्त—"यह न कहो प्रभु, मानव-चरित्र बहुत ही दुर्बोध वस्तु है। मुझे तो विनय की काया-पलट पर इतना क्रोध आता है कि पाऊँ, तो गोली मार दूं। हाँ, संतोष इतना ही है कि उनके निकल जाने का इस संथ्था पर कोई असर नहीं पड़ सकता। तुम्हें तो मालूम है, हम लोगों ने बंगाल में प्राणियों के उद्धार के लिए कितना भगीरथ प्रयत्न किया। कई-कई दिन तक तो हम लोगों को दाना तक न मयस्सर होता था।"

सूरदास—"भैया, कौन लोग. इस भाँति गरीबों का पालन करते हैं?" इंद्रदत्त-“अरे सूरदास! तुम यहाँ कोने में खड़े हो! मैंने तो तुम्हें देखा ही नहीं। कहो, सब कुशल है न?”

सूरदास--"सब भगवान की दया है। तुम अभी किन लोगों की बात कह रहे थे?"

इंद्रदत्त-"अपने ही साथियों की। कुँवर भरतसिंह ने कुछ जवान आदमियों को संगठित करके एक संगत बना दी है, उसके खर्च के लिए थोड़ी-सी जमीन भी दान कर दी है। आजकल हम लोग कोई सौ आदमी हैं। देश की यथाशक्ति सेवा करना ही हमारा परम धर्म और व्रत है। इस वक्त हममें से कुछ लोग तो राजपूताना गये हुए हैं, और कुछ लोग पंजाब गये हुए हैं, जहाँ सरकारी फौज ने प्रजा पर गोलियाँ चला दी हैं।"

सूरदास-"भैया, यह तो बड़े पुन्न का काम है। ऐसे महात्मा लोगों के तो दरसन करने चाहिए। तो भैया, तुम लोग चंदे भी उगाहते होगे?"

इंद्रदत्त-"हाँ, जिसकी इच्छा होती है, चंदा भी दे देता है; लेकिन हम लोग खुद नहीं माँगते फिरते।”

सूरदास-"मैं आप लोगों के साथ चलूं, तो आप मुझे रखेंगे? यहाँ पड़े-पड़े अपना पेट पालता हूँ, आपके साथ रहूँगा, तो आदमी हो जाऊँगा।"

इंद्रदत्त ने प्रभु सेवक से अँगरेजी में कहा-"कितना भोला आदमी है! सेवा और त्याग की सदेह मूर्ति होने पर भी गरूर छू तक नहीं गया, अपने सत्कार्य का कुछ मूल्य नहीं समझता। परोपकार इसके लिए कोई इच्छित कर्म नहीं रहा, इसके चरित्र में मिल गया है।"

सूरदास ने फिर कहा-"और कुछ तो न कर सकूँगा, अपढ़, गँवार ठहरा, हाँ, जिसके सरहाने बैठा दीजिएगा, पंखा झलता रहूँगा, पीठ पर जो कुछ लाद दीजिएगा, लिये फिरूँगा।"

इंद्रदत्त—"तुम सामान्य रीति से जो कुछ करते हो, वह उससे कहीं बढ़कर है, जो हम लोग कभी-कभी विशेष अवसरों पर करते हैं। दुश्मन के साथ नेकी करना रोगियों की सेवा से छोटा काम नहीं है।"

सूरदास का मुख-मंडल खिल उठा, जैसे किसी कवि ने किसी रसिक से दाद पाई हो। बोला—"भैया, हमारी क्या बात चलाते हो? जो आदमी पेट पालने के लिए भीख माँगेगा, वह पुन्न-धरम क्या करेगा! बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ। छोटा मुँह बड़ी बात है; लेकिन आपका हुकुम हो, तो मुझे मावजे के जो रुपये मिले हैं, उन्हें आपकी संगत की भेंट कर दूं।"

इंद्रदत्त—"कैसे रुपये?"

प्रभु सेवक—"इसकी कथा बड़ी लंबी है। बस, इतना ही समझ लो कि पापा ने राजा महेंद्र कुमार की सहायता से इसकी जो जमीन ले ली थी, उसका एक हजार रुपया इसे मुआवजा दिया गया है। यह मिल उसी लूट के माल पर बन रही है।" इंद्रदत्त-"तुमने अपने पापा को मना नहीं किया?"

प्रभु सेवक-"खुदा की कसम, मैं और सोफी, दोनों ही ने पापा को बहुत रोका; पर तुम उनकी आदत जानते ही हो, कोई धुन सवार हो जाती है, तो किसी की नहीं सुनते।"

इंद्रदत्त-"मैं तो अपने बाप से लड़ जाता, मिल बनती या भाड़ में जाती! ऐसी दशा में तुम्हारा कम-से-कम यह कर्तव्य था कि मिल से बिलकुल अलग रहते। बाप की आज्ञा मानना पुत्र का धर्म है, यह मानता हूँ; लेकिन जब बाप अन्याय करने लगे, तो लड़का उसका अनुगामी बनने के लिए बाध्य नहीं। तुम्हारी रचनाओं में तो एक-एक शब्द से नैतिक विकास टपकता है, ऐसी उड़ान भरते हो कि हरिश्चंद्र और हुसैन भी मात हो जायँ; मगर मालूम होता है, तुम्हारी समस्त शक्ति शब्द-योजना ही में उड़ जाती है, क्रियाशीलता के लिए कुछ बाकी नहीं बचता। यथार्थ तो यह है कि तुम अपनी रचनाओं की गर्द को भी नहीं पहुँचते। बस, जबान के शेर हो। सूरदास, हम लोग तुम जैसे गरीबों से चंदा नहीं लेते। हमारे दाता धनी लोग हैं।"

सूरदास—"भैया, तुम न लोगे, तो कोई चोर ले जायगा। मेरे पास रुपयों का काम ही क्या है। तुम्हारी दया से पेट-भर अन्न मिल ही जाता है, रहने को झोपड़ी बन ही गई है, और क्या चाहिए। किसी अच्छे काम में लग जाना इससे कहीं अच्छा है कि चोर उठा ले जायँ। मेरे ऊपर इतनी दया करो।"

इंद्रदत्त—"अगर देना ही चाहते हो, तो कोई कुआँ खुदवा दो। बहुत दिनों तक तुम्हारा नाम रहेगा।"

सूरदास—“भैया, मुझे नाम की भूख नहीं है। बहाने मत करो, ये रुपये लेकर अपनी संगत में दे दो। मेरे सिर से बोझ टल जायगा।"

प्रभु सेवक—(अँगरेजी में) "मित्र, इसके रुपये ले लो, नहीं तो इसे चैन न आयेगा। इस दयाशीलता को देवोपम कहना उसका अपमान करना है। मेरी तो कल्पना भी वहाँ तक नहीं पहुँचती। ऐसे-ऐसे मनुष्य भी संसार में पड़े हुए हैं। एक हम हैं कि अपने भरे हुए थाल में से एक टुकड़ा उठाकर फेक देते हैं, तो दूसरे दिन पत्रों में अपना नाम देखने को दौड़ते हैं। संपादक अगर उस समाचार को मोटे अक्षरों में प्रकाशित न करे, तो उसे गोली मार दें। पवित्र आत्मा है!"

इंद्रदत्त—"सूरदास, अगर तुम्हारी यही इच्छा है, तो मैं रुपये ले लूँगा, लेकिन इस शर्त पर कि तुम्हें जब कोई जरूरत हो, हमें तुरंत सूचना देना। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि शीघ्र ही तुम्हारी कुटी भक्तों का तीर्थ बन जायगी, और लोग तुम्हारे दर्शनों को आया करेंगे।"

सूरदास—"तो मैं आज रुपये लाऊँगा।"

इंद्रदत्त—"अकेले न जाना, नहीं तो कचहरी के कुत्ते तुम्हें बहुत दिक करेंगे। मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।" सूरदास-"अब एक अरज आपसे भी है साहब! आप पुतलीघर के मजूरों के लिए घर क्यों नहीं बनवा देते? वे सारी बस्ती में फैले हुए हैं और रोज ऊधम मचाते रहते हैं। हमारे मुहल्ले में किसी ने औरतों को नहीं छेड़ा था, न कभी इतनी चोरियाँ हुई, न कभी इतने धड़ल्ले से जुआ हुआ, न सराबियों का ऐसा हुल्लड़ रहा। जब तक मजूर लोग यहाँ काम पर नहीं आ जाते, औरतें घरों से पानी भरने नहीं निकलतीं। रात को इतना हुल्लड़ होता है कि नींद नहीं आती। किसी को समझाओ, तो लड़ने पर उतारू हो जाता है।"

यह कहकर सूरदास चुप हो गया और सोचने लगा, मैंने बात बहुत बढ़ाकर तों नहीं कही! इंद्रदत्त ने प्रभु सेवक को तिरस्कार-पूर्ण लोचनों से देखकर कहा-“भई, यह तो अच्छी बात नहीं। अपने पापा से कहो, इसका जल्दी प्रबंध करें। न जाने तुम्हारे वे सब सिद्धांत क्या हो गये। बैठे-बैठे यह सारा मजरा देख रहे हो, और कुछ करते-धरते नहीं।"

प्रभु सेवक-"मुझे तो सिरे से इस काम से घृणा है, मैं न इसे पसंद करता हूँ और न इसके योग्य हूँ। मेरे जीवन का सुख-स्वर्ग तो यही है कि किसी पहाड़ी के दामन में एक जलधारा के तट पर, छोटी-सी झोपड़ी बनाकर पड़ा रहूँ। न लोक की चिंता हो, न परलोक की। न अपने नाम को कोई रोनेवाला हो, न हँसनेवाला। यही मेरे जीवन का उच्चतम आदर्श है। पर उस आदर्श को प्राप्त करने के लिए जिस संयम और उद्योग की जरूरत है, उससे वंचित हूँ। खैर, सच्ची बात तो यह है कि इस तरफ मेरा ध्यान हो नहीं हुआ। मेरा तो यहाँ आना-न आना दोनों बराबर है। केवल पापा के लिहाज से चला आता हूँ। अधिकांश समय यही सोचने में काटता हूँ कि क्योंकर इस कैद से रिहाई पाऊँ। आज ही पापा से कहूँगा।”

इंद्रदत्त-"हाँ, आज ही कहना। तुम्हें संकोच हो, तो मैं कह दूँ?"

प्रभु सेवक-"नहीं जी, इसमें क्या संकोच है। इससे तो मेरा रंग और जम जायगा। पापा को खयाल होगा, अब इसका मन लगने लगा, कुछ इसने कहा तो! उन्हें तो मुझसे यही रोना है कि मैं किसी बात में बोलता ही नहीं।"

इंद्रदत्त यहाँ से चले, तो सूरदास बहुत दूर तक उनके साथ सेवा-समिति की बातें पूछता हुआ चला आया। जब इंद्रदत्त ने बहुत आग्रह किया, तो लौटा। इंद्रदत्त वहीं सड़क पर खड़ा उस दुर्बल, दीन प्राणी को हवा के झोंके से लड़खड़ाते, वृक्षों को छाँह में विलीन होते देखता रहा। शायद यह निश्चय करना चाहता था कि वह कोई देवता है या मनुष्य !