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रंगभूमि/३८

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रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ४४६ से – ४५७ तक

 

[३८]

सोफिया और विनय रात-भर तो स्टेशन पर पड़े रहे। सबेरे समीप के गाँव में गये, जो भीलों की एक छोटी-सी बस्ती थी। सोफिया को यह स्थान बहुत पसंद आया। बस्ती के सिर पर पहाड़ का साया था, पैरों के नीचे एक पहाड़ी नाला मीठा राग गाता हुआ बहता था। भीलों के छोटे-छोटे झोपड़े, जिन पर बेलें फैली हुई थीं, अप्सराओं के खिलौनों को भाँति सुन्दर लगते थे। जब तक कुछ निश्चय न हो जाय कि क्या करना है, कहाँ जाना है, कहाँ रहना है, तब तक उन्होंने उसी गाँव में निवास करने का इरादा किया। एक झोपड़े में जगह भी आसानी से मिल गई। भीलों का आतिथ्य प्रसिद्ध है, और ये दोनों प्राणी भूख-प्यास, गरमी-सरदी सहने के अभ्यस्त थे। जो कुछ मोटा-झोटा मयस्सर हुआ, खा लिया, चाय और मक्खन, मुरब्बे और मेवों का चस्का न था। सरल और सात्त्विक जीवन उनका आदर्श था। यहाँ उन्हें कोई कष्ट न हुआ। इस झोपड़े में केवल एक भीलनी रहती थी। उसका लड़का कहीं फौज में नौकर था। बुढ़िया इन लोगों की सेवा-टहल सहर्ष कर देती। यहाँ इन लोगों ने मशहूर किया कि हम दिल्ली के रहने वाले हैं, जल-वायु बदलने आये हैं। गाँव के लोग उनका बड़ा अदब और लिहाज करते थे।

किंतु इतना एकांत और इतनी स्वाधीनता होने पर भी दोनों एक दूसरे से बहुत कम मिलते। दोनों न जाने क्यों सशंक रहते थे। उनमें मनोमालिन्य न था, दोनों प्रेम में डबे हुए थे। दोनों उद्विग्न थे, दोनों विकल, दोनों अधीर, किंतु नैतिक बंधनों की दृढ़ता उन्हें मिलने न देती थी। सात्त्विक धर्म-निरूपण ने सोफिया को सांप्रदायिक संकीर्णताओं से मुक्त कर दिया था। उसकी दृष्टि में भिन्न-भिन्न मत केवल एक ही सत्य के भिन्न-भिन्न नाम थे। उसे अब किसी से द्वेष न था, किसी से विरोध न था। जिस अशांति ने कई महीनों तक उसके धर्म-सिद्धान्तों को कुंठित कर रखा था, वह विलुप्त हो गई थी। अब प्राणि मात्र उसके लिए अपना था। और, यद्यपि विनय के विचार इतने उदार न थे, संसार की प्रेम-ममता उनके लिए एक दार्शनिक वाद से अधिक मूल्य न रखती थी। किंतु सोफिया की उदारता के सामने उनकी परंपरागत समाज-व्यवस्थाएँ मुँह छिपाती फिरती थीं। वास्तव में दोनों का आत्मिक संयोग हो चुका था, और भौतिक संयोग में भी कोई वास्तविक बाधा न थी। किंतु यह सब होते हुए भी वे दोनों पृथक् रहते, एकांत में साथ कभी न बैठते। उन्हें अब अपने ही से शंका होती थी! वचन का काल समास हो चुका था, लेख का समय आ गया था। वचन से जबान नहीं कटती। लेख से हाथ कट जाता है।

लेकिन लेख से हाथ चाहे कट जाय, इसके बिना कोई बात पक्की नहीं होती। थोड़ा-सा मतभेद, जरा-सा असंयम समझौते को रद्द कर सकता है। इसलिए दोनों ही

अनिश्चित दशा का अंत कर देना चाहते थे। कैसे करें, यह समझ में नहीं आता था। कौन इस प्रसंग को छेड़े? कदाचित् बातों में कोई आपत्ति खड़ी हो जाय। सोफिया के लिए विनय का सामीप्य काफी था, वह उन्हें नित्य आँखों से देखती थी, उनके हर्ष और अमर्ष में सम्मिलित होती थी, उन्हें अपना समझती थी। इससे अधिक वह कुछ न चाहती थी। विनय रोज आस-पास के देहातों में विचरने चले जाते थे। कोई स्त्री उनसे अपने परदेशी पुत्र या पति के नाम पत्र लिखातो, कहीं रोगियों को दवा देते, कहीं पारस्परिक कलहों में मध्यस्थ बनना पड़ता, भोर के गये पहर रात को लौटते। यह उनकी नित्य की दिनचर्या थी। सोफिया चिराग जलाये उनकी बाट देखा करती। जब वह आ जाते, तो उनके हाथ-पैर धुलवाकर भोजन कराती, दिन-भर की कथा प्रेम से सुनती और तब दोनों अपनी-अपनी कोठरियों में सोने चले जाते। वहाँ विनय को अपना घास का बिछौना बिछा हुआ मिलता। सिरहाने पानी की हाँड़ी रखी होती। सोफिया इतने ही में संतुष्ट थी। अगर उसे विश्वास हो जाता कि मेरा संपूर्ण जीवन इसी भाँति कट जायगा, तो वह अपना अहोभाग्य समझती। यही उसके जीवन का मधुर स्वप्न था। लेकिन विनय इतने धैर्यशील, इतने विरागी न थे। उनको केवल आध्यात्मिक संयोग से संतोष न होता था। सोफिया का अनुपम सौंदर्य, उसकी स्वर्गापम वचन-माधुरी, उसका विलक्षण अंग-विन्यास उनकी शृङ्गारमयी कल्पना को विकल करता रहता था। उन्होंने कुचक्रों में पड़कर एक बार उसे खो दिया था। अब दुबारा उस परीक्षा में न पड़ना चाहते थे। जब तक इसकी संभावना उपस्थित थी, उनके चित्त को कभी शाँति न हो सकती थी।

ये लोग रेलवे स्टेशन के पते से अपने नाम पत्र-पत्रिकाएँ, पुस्तकें आदि मँगा लिया करते थे। उनसे संसार की प्रगति का बोध हो जाता था। भीलों से उनको कुछ प्रेम-सा भी हो गया था। यहाँ से कहीं और चले जाने की उन्हें इच्छा ही न होती थी। दोनों को शंका थी कि इस सुरक्षित स्थान से निकलकर हमारी न जाने क्या दशा हो जाय, न जाने हम किस भँवर में जा पड़ें। इस शांति-कुटीर को दोनों ही गनीमत समझते थे। सोफिया को विनय पर विश्वास था, वह अपनी आकर्षण-शक्ति से परिचित थी। विनय को सोफिया पर विश्वास न था। वह अपनी आकर्षण-शक्ति से अनभिज्ञ थे।

इस तरह एक साल गुजर गया। सोफ़िया विनय को जल-पान कराकर अँगीठी के सामने बैठी एक किताब देख रही थी। कभी मार्मिक स्थलों पर पेंसिल से x निशान करती, कभी प्रश्न-चिह्न बनाती, कहीं लकीर खींचती। विनय को शंका हो रही थी कि कहीं यह तल्लोनता प्रेम-शैथिल्य का लक्षण तो नहीं है? पढ़ने में ऐसी मग्न है कि ताकती तक नहीं। कपड़े पहने, बाहर जाना चाहते थे। ठंडी हवा चल रही थी। जाड़े के कपड़े थे ही नहीं। कंबल काफी न था। अलसाकर अँगीठी के पास आये और माँची पर बैठ गये। सोफिया की आँखें किताब में गड़ी हुई थीं। विनय की लालसा-युक्त दृष्टि अवसर पाकर निर्विघ्न रूप से उसके रूप-लावण्य की छटा देखने लगी। सहसा सोफिया

ने सिर उठाया, तो विनय को सचेष्ट नेत्रों से अपनी ओर ताकते पाया। लजाकर आँखें नीची कर ली और बोली—“आज तो बड़ी सरदी है, कहाँ जाओगे! बैठो, तुम्हें इस पुस्तक के कुछ भाग सुनाऊँ। बहुत ही सुपाठ्य पुस्तक है।" यह कहकर उसने आँगन की ओर देखा, भीलनी गायब थो। शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी। अब दस बजे के पहले न आयेगी। सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई।

विनय ने उत्सुकता के साथ कहा—"नहीं सोफी, आज कहीं न जाऊँगा। तुमसे कुछ बातें करने को जी चाहता है। किताब बंद करके रख दो। तुम्हारे साथ रहकर भी तुमसे बातें करने को तरसता रहता हूँ।"

यह कहकर उन्होंने सोफिया के हाथों से किताब छीन लेने की चेष्टा की। सोफिया किताब को दृढ़ता से पकड़कर बोली—"ठहरो-ठहरो, क्या करते हो! अब यही शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। बैठो, इस फ्रेंच फिलॉसफर के विचार सुनाऊँ। देखो, उसने कितनी विशालहृदयता से धार्मिक निरूपण किया है!"

विनय—"नहीं, आज दस मिनट के लिए तुम इस फिलॉसफर से अवकाश माँग लो और मेरी ये बातें सुन लो, जो किसी सिंजर-बद्ध पक्षी को भाँति बाहर निकलने के लिए तड़फड़ा रही हैं, आखिर मेरे इस वनवास की कोई अवधि है, या सदैव जीवन के सुख-स्वप्न ही देखता रहूँगा?"

सोफिया—"इस लेखक के विचार उस जवाब से कहीं मनोरंजक हैं, जो मैं तुम्हें दे सकती हूँ। मुझे इन पर कई शंकाएँ हैं। संभव है, विचार परिवर्तन से उनकी निवृत्ति हो जाय।"

विनय-"नहीं, यह किताब बंद करके रख दो। आज मैं समर के लिए कमर कस-कर आया हूँ। आज तुमसे वचन लिये बिना तुम्हारा दामन न छोड़ेगा। क्या अब भी मेरी परीक्षा कर रहो हो?"

सोफिया ने किताब बंद करके रख दी और प्रेम-गंभीर भाव से बोली- मैंने तो अपने को तुम्हारे चरणों पर डाल दिया, अब और मुझसे क्या चाहते हो"

विनय—“अगर मैं देवता होता, तो तुम्हारी प्रेमोपासना से संतुष्ट हो जाता; लेकिन मैं भी तो इच्छाओं का दास, क्षुद्र मनुष्य हूँ। मैंने जो कुछ पाया है, उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैं और चाहता हूँ, सब चाहता हूँ। क्या अब भी तुम मेरा आशय नहीं समझी? मैं पक्षी को अपनी मुंडेर पर बैठे देखकर संतुष्ट नहीं, उसे अपने पिंजड़े में जाते देखना चाहता हूँ। क्या और भी स्पष्ट रूप से कहूँ? मैं सर्वंभोगी हूँ, केवल सुगंध से मेरी तृप्ति नहीं होती।"

सोफिया—"विनय, मुझे अभी विवश न करो, मैं तुम्हारी हूँ। मैं इस वक्त यह बात जितने शुद्ध भाव और निष्कपट हृदय से कह रही हूँ, उससे अधिक किसी मंदिर में, कलीसा में या हवन कुंड के सामने नहीं कह सकती। जिस समय मैंने तुम्हारा तिरस्कार किया था, उस समय भी तुम्हारी थी। लेकिन क्षमा करना, मैं कभी कोई ऐसा

कर्म न करूँगी, जिससे तुम्हारा अपमान, तुम्हारी अप्रतिष्ठा, तुम्हारी निंदा हो। मेरा यह संयम अपने लिए नहीं, तुम्हारे लिए है। आत्मिक मिलाप के लिए कोई बाधा नहीं होती; पर सामाजिक संस्कारों के लिए अपने संबंधियों और समाज के नियमों की स्वीकृति अनिवार्य है, अन्यथा वे लज्जास्पद हो जाते हैं। मेरी आत्मा मुझे कभी क्षमा न करेगी, अगर मेरे कारण तुम अपने माता-पिता, विशेषतः अपनी पूज्या माता के कोप-भाजन बनो, और वे मेरे साथ तुम्हें भी कुल-कलक समझने लगें। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि इस अवज्ञा के लिए रानीजी तुम्हें और विशेषकर मुझे, क्या दंड देंगी वह सती हैं, देवी हैं, उनका क्रोध न जाने क्या अनर्थ करे। मैं उनकी दृष्टि में कितनी पतित हूँ, इसका मुझे अनुभव हो कुका है, और तुम्हें भी उन्होंने कठोर-से-कठोर दंड दे दिया, जो उनके वश में था। ऐसी दशा में जब उन्हें ज्ञात होगा कि मैं और तुम केवल प्रेम के सूत्र में नहीं, संस्कारों के सूत्र में बँधे हुए हैं, तो आश्चर्य नहीं कि वह क्रोधावेश में आत्महत्या कर लें। संभव है, इस समय तुम इन समस्त विघ्न-बाधाओं को अंगीकार करने को तैयार हो जाओ; लेकिन मैं बाह्य संस्कारों को इतने महत्त्व की वस्तु नहीं समझती।"

विनय ने उदास होकर कहा—"सोफी, इसका आशय इसके सिवा और क्या है कि मेरा जीवन सुख-स्वप्न देखने में ही कट जाय!"

सोफी-"नहीं विनय, मैं इतनी हताश नहीं हूँ। मुझे अब भी आशा है कि कभी-न-कभी रानीजी से तुम्हारा और अपना अपराध क्षमा करा लूँगी, और तब उनके आशीर्वादों के साथ हम दांपत्य-क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। रानीजी की कृपा और अकृपा, दोनों ही सीमागत रहती हैं। एक सीमा का अनुभव हम कर चुके। ईश्वर ने चाहा, तो दूसरी सीमा का भी जल्द अनुभव होगा। मैं तुमसे सविनय अनुरोध करती हूँ कि अब इस प्रसंग को फिर मत उठाना, अन्यथा मुझे कोई दूसरा रक्षा-स्थान खोजना पड़ेगा।"

विनय ने धीरे से कहा—"वह दिन तब आयेगा, जब या तो अम्माँजी न होंगी या मैं न रहूँगा।"

तब उन्होंने कम्बल ओढ़ा, हाथ में लकड़ी लो और बाहर चले गये, जैसे कोई किसान महाजन की फटकार सुनकर उसके घर से बाहर निकले।

फिर पूर्ववत् दिन कटने लगे। विनय बहुत मलिन और खिन्न रहते। यथासंभव घर से बाहर ही बिचरा करते, आते भी तो भोजन करके चले जाते। कहीं जाना न होता, तो नदी के तट पर जा बैठते और घंटों जलद-क्रोड़ा देखा करते। कभी कागज की नावें बनाकर उसमें तैराते और उनके पीछे-पीछे वहाँ तक जाते, जहाँ वे जल-मग्न हो जाती। उन्हें अब भ्रम होने लगा था कि सोफिया को अब भी मुझ पर विश्वास नहीं है। वह मुझसे प्रेम करती है, लेकिन मेरे नैतिक बल पर उसे संदेह है।

एक दिन वह नदी के किनारे बैठे हुए थे कि बुढ़िया भीलनी पानी भरने आई।
उन्हें वहाँ बैठे देखकर उसने घड़ा रख दिया और बोली-"क्यों मालिक, तुम यहाँ अकेले क्यों बैठे हो? घर में मालकिन घबराती न होंगी? मैं उन्हें बहुत रोते देखा करती हूँ। क्या तुमने उन्हें कुछ कहा है क्या? क्या बात है? कभी तुम दोनों को बैठकर हँसते-बोलते नहीं देखती?"

विनय ने कहा-"क्या करूँ माता, उन्हें यही तो बीमारी है कि मुझसे रूठी रहती हैं। बरसों से उन्हें यही बीमारी हो गई है।"

भीलनी-"तो बेटा, इसका उपाय मैं कर दूँगी। ऐसी जड़ी दे दूँ कि तुम्हारे बिना उन्हें छिन-भर भी चैन न आये।"

विनय-"क्या, क्या ऐसी जड़ी भी होती है?"

बुढ़िया ने सरल विज्ञता से कहा-"बेटा, जड़ियाँ तो ऐसी-ऐसी होती हैं कि चाहे आग बाँध लो, पानी बाँध लो, मुरदे को जिला दो, मुद्दई को घर बैठे मार डालो। हाँ, जानना चाहिए। तुम्हारा भील बड़ा गुनी था। राजों के दरबार में आया-जाया करता था। उसी ने मुझे दो-चार बूटियाँ बता दी थीं। बेटा, एक एक बूटी एक-एक लाख को सस्ती है।"

विनय -"तो मेरे पास इतने रुपये कहाँ हैं?"

भीलनी-"नहीं, बेटा, तुमसे मैं क्या लूँगी! तुम बिसुनाथपुरी के निवासी हो। तुम्हारे दरसन पा गई, यही मेरे लिए बहुत है। वहाँ जाकर मेरे लिए थोड़ा-सा गंगाजल भेज देना। बुढ़िया तर जायगी। तुमने मुझसे पहले न कहा, नहीं तो मैंने वह जड़ी तुम्हें दे दी होती। तुम्हारी अनबन देखकर मुझे बड़ा दुख होता है।"

संध्या समय, जब सोफिया बैठी भोजन बना रही थी, भीलनी ने एक जड़ी लाकर विनयसिंह को दी और बोली-"बेटा, बड़े जतन से रखना, लाख रुपये दोगे, तब भी न मिलेगी। अब तो यह विद्या ही उठ गई। इसको अपने लहू में पंद्रह दिन तक रोज भिगोकर सुखाओ। तब इसमें से एक-एक रत्ती काटकर मालकिन को धूनी दो। पंद्रह दिन के बाद जो बच रहे, वह उनके जूड़े में बाँध दो। देखो, क्या होता है। भगवान चाहेंगे, तो तुम आप उनसे ऊबने लगोगे। वह परछाई की भाँति तुम्हारे पीछे लगी रहेंगी।" फिर उसने विनय के कान में एक मंत्र बताया, जो कई निरर्थक शब्दों का संग्रह था, और कहा कि जड़ी को लहू में डुबाते समय यह मंत्र पाँच बार पढ़-कर जड़ी पर फूंक देना।

विनयसिंह मिथ्यावादी न थे, मंत्र-तंत्र पर उनका अणु-मात्र भी विश्वास न था। लेकिन सुनी-सुनाई बातों से उन्हें यह मालूम था कि निम्न जातियों में ऐसी तांत्रिक क्रियाओं का बड़ा प्रचार है, और कभी-कभी इनका विस्मय-जनक फल भी होता है। उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूखों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण। शिक्षित पर, जो प्रायः शंकावादी होते हैं, जो ईश्वर के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं करते, भला इनका क्या असर हो सकता है। तो

भी उन्होंने यह सिद्धि प्राप्त करने का निश्चय किया। उन्हे उससे किसी फल की आशा न थी, केवल उसकी परीक्षा लेना चाहते थे।

लेकिन कहीं सचमुच इस जड़ी में कुछ चमत्कार हो, तो फिर क्या पूछना! इस कल्पना ही से उनका हृदय पुलकित हो उठा। सोफिया मेरी हो जायगी। तब उसके प्रेम में और ही बात होगी!

ज्यों ही मंगल का दिन आया, वह नदी पर गये, स्नान किया और चाकू से अपनी एक उँगली काटकर उसके रक्त में जड़ी को भिगोया, और तब उसे एक ऊँची चट्टान पर पत्थरों से ढककर रख आये। पंद्रह दिन तक लगातार यही क्रिया करते रहे। ठंड ऐसी पड़ती थी कि हाथ-पाँव गले जाते थे, बरतनों में पानी जम जाता था। लेकिन विनय नित्य स्नान करने जाते। सोफिया ने उन्हें इतना कर्मनिष्ठ न देखा था। कहती, इतने सबेरे न नहाओ, कहीं सरदी न लग जाय, जंगली आदमी भी दिन भर अँगीठियाँ जलाये बैठे रहते हैं, बाहर मुँह नहीं निकाला जाता, जरा धूप निकल आने दिया करो। लेकिन विनय मुस्किराकर कह देते, बीमार पड़ेगा, तो कम-से-कम तुम मेरे पास बैठोगी तो! उनकी कई उँगलियों में घाव हो गये, पर वह इन घावों को छिपाये रहते थे।

इन दिनों विनय को दृष्टि सोफिया की एक-एक बात, एक-एक गति पर लगी रहती थी। वह देखना चाहते थे कि मेरी क्रिया का कुछ असर हो रहा है या नहीं, किंतु कोई प्रत्यक्ष फल न दिखाई देता था। पंद्रहवें दिन जाकर उन्हें सोफिया के व्यवहार में कुछ थोड़ा-सा अंतर दिखाई पड़ा। शायद किसी और समय उनका इस ओर ध्यान भी न जाता, किंतु आजकल तो उनकी दृष्टि बहुत सूक्ष्म हो गई थी। जब वह घर से बाहर जाने लगे, तो सोफिया अज्ञात भाव से निकल आई और कई फलांग तक उनसे बातें करती हुई चली गई। जब विनय ने बहुत आग्रह किया, तब लौटी। विनय ने समझा, यह उसी क्रिया का असर है।

आज से धूनी देने की क्रिया आरंभ होती थी। विनय बहुत चिंतित थे—“यह क्रिया क्योंकर पूरी होगी! अकेले सोफी के कमरे में जाना सभ्यता, सज्जनता और शिष्टता के विरुद्ध है। कहीं सोफो जाग जाय और मुझे देख ले, तो मुझे कितना नीच समझेगी। कदाचित् सदैव के लिए मुझसे घृणा करने लगे। न भी जागे, तो भी यह कौन-सी भलमंसी है कि कोई आदमी किसी युवती के कमरे में प्रवेश करे। न जाने किस दशा में लेटी होगी। संभव है, केश खुले हों, वस्त्र हट गया हो। उस समय मेरी मनोवृत्तियाँ कितनी कुचेष्ट हो जायँगी। मेरा कितना नैतिक पतन हो गया है!"

सारे दिन वह इन्हीं अंशांतिमय विचारों में पड़े रहे, लेकिन संध्या होते ही वह कुम्हार के घर से एक कच्चा प्याला लाये और उसे हिफाजत से रख दिया। मानव-चरित्र की एक विचित्रता यह है कि हम बहुधा ऐसे काम कर डालते हैं, जिन्हें करने की इच्छा हमें नहीं होती। कोई गुप्त प्रेरणा हमें इच्छा के विरुद्ध ले जाती है।

२९
आधी रात हुई, तो विनय प्याली में आग और हाथ में वह रक्त-सिंचित जड़ी लिये हुए सोफी की कोठरी के द्वार पर आये। कंबल का परदा पड़ा हुआ था । झोपड़े में किवाड़ कहाँ ! कंबल के पास खड़े होकर उन्होंने कान लगाकर सुना। सोफ़ी मीठी नींद सो रही थी। वह थर-थर काँपते, पसीने से तर, अंदर घुसे । दीपक के मंद प्रकाश में सोफी निद्रा में मग्न लेटी हुई ऐसी मालूम होती थी, मानों मस्तिष्क में मधुर कल्पना विश्राम कर रही हो । विनय के हृदय पर आतंक-सा छा गया। कई मिनट तक मंत्र-मुग्ध-से खड़े रहे, पर अपने को सँभाले हुए, मानों किसी देवी के मंदिर में हैं। उन्नत हृदयों में सौंदर्य उपासना-भाव को जाग्रत कर देता है, वासनाएँ विश्रांत हो जाती हैं । विनय कुछ देर तक सोफी को भक्ति-भाव से देखते रहे । तब वह धीरे से बैठ गये,प्याले में जड़ी का एक टुकड़ा तोड़कर रख दिया और उसे सोफिया के सिरहाने की ओर खिसका दिया । एक क्षण में जड़ी की सुगंध से सारा कमरा बस उठा। ऊद और अंबर में यह सुगंध कहाँ ? धुएँ में कुछ ऐसी उद्दीपन-शक्ति थी कि विनय का चित्त चंचल हो उठा । ज्यों ही धुआँ बंद हुआ, विनय ने प्याले से जड़ी की राख निकाल ली। भीलनी के आदेशानुसार उसे सोफिया पर छिड़क दिया और बाहर निकल आये। लेकिन अपनी कोठरी में आकर वह घंटों बैठे पश्चात्ताप करते रहे। बार-बार अपने नैतिक भावों को चोट पहुँचाने की चेष्टा की | इस कृत्य को विश्वासघात, सतीत्व-हत्या कहकर मन में घृणा का संचार करना चाहा । सोते वक्त निश्चय किया कि बस, इस क्रिया का आज ही से अंत है । दूसरे दिन दिन-भर उनका हृदय खिन्न, मलिन, उग्नि रहा । ज्यों-ज्यों रात निकट आती थी, उन्हें शंका होती जाती थी कि कहीं मैं फिर यह क्रिया न करने लगूं । दो-तीन भीलों को बुला लाये और उन्हें अपने.. पास सुलाया ।.भोजन करने में बड़ी देर की, जिसमें चारपाई पर पड़ते-ही-पड़ते नींद आ जाय । जब.भोजन करके उठे, तो सोफी आकर उनके पास बैठ गई । यह पहला ही अवसर था.कि वह रात को उनके पास बैठी बातें करती रही । आज के समाचार-पत्रों में प्रभु सेवक.को पूना में दी हुई वक्तता प्रकाशित हुई थी । सोफी ने उसे उच्च स्वर से पढ़ा। गर्व से उसका सिर ऊँचा हो गया । बोली-"देखो, कितना विलासप्रिय आदमी था, जिसे.सदैव अच्छे वस्त्रों और अन्य सुख-सामग्रियों की धुन सवार रहती थी। उसकी कितनी.कायापलट हुई है ! मैं समझतो थी, इससे कभी कुछ न होगा, आत्मसेवन में ही इसका जीवन व्यतीत होगा। मानव-हृदय के रहस्य कितने दुर्बोध होते हैं ! उसका यह त्याग और अनुराग देखकर आश्चर्य होता है।"

विनय-"जब प्रभु सेवक इस संस्था के कर्णधार हो गये, तो मुझे कोई चिंता नहीं। डॉक्टर गंगुली उसे दवा बाँटनेवालों की मंडली बनाकर छोड़ते । पिताजी पर मेरा. विश्वास नहीं, और इंद्रदत्त तो बिलकुल उजड्ड है । प्रभु सेवक से ज्यादा योग्य पुरुष न मिल सकता था । वह यहाँ होते, तो बलाय लेता । यह दैवी सहायता है, और अब मुझे आशा होती है कि हमारी साधना निष्फल न होगी ।"
भीलों के खर्राटों की आवाजें आने लगी। सोफो चलने को उठी, तो उसने विनय को ऐसी चितवनों से देखा, जिसमें प्रेम के सिवा और भी कुछ था-आद्र आकांक्षा झलक रही थी। एक आकर्षण था, जिसने विनय को सिर से पैर तक हिला दिया। जब वह चली गई, तो उन्होंने एक पुस्तक उठा ली और पढ़ने लगे। लेकिन ज्यों-ज्यों क्रिया का समय आता था, उनका दिल बैठा जाता था। ऐसा जान पड़ता था, जैसे कोई जबरदस्ती उन्हें ठेल रहा है। जब उन्हें यकीन हो गया कि सोफिया सो गई होगी, तो वह धीरे से उठे, प्याले में आग ली और चले। आज वह कल से भी ज्यादा भयभीत हो रहे थे। एक बार जी में आया कि प्याले को पटक हूँ। लेकिन इसके एक ही क्षण बाद उन्होंने सोफी के कमरे में कदम रखा। आज उन्होंने आँखें ऊपर उठाई ही नहीं। सिर नीचा किये धूनी सुलगाई और राख छिड़ककर चले आये। चलती बार उन्होंने सोफिया का सुखचंद्र देखा। ऐसा भासित हुआ कि वह मुस्किरा रही है। कलेजा धक-से हो गया। सारे शरीर में सनसनी-सी दौड़ गई। ईश्वर! अब लाज तुम्हारे हाथ है, इसने देख न लिया हो! विद्यु द्गति से अपनी कोठरी में आये, दीपक बुझा दिया और चारपाई पर गिर पड़े। घंटों कलेजा धड़कता रहा।

इस भाँति पाँच दिनों तक विनय ने बड़ी कठिनाइयों से यह साधना की, और इतने ही दिनों में उन्हें सोफिया पर इसका असर साफ नजर आने लगा। यहाँ तक कि पाँचवें दिन वह दोपहर तक उनके साथ भीलों की झोपड़ियों की सैर करती रही। उसके नेत्रों में गंभीर चिंता की जगह अब एक लालसा-पूर्ण चंचलता झलकती थी और अधरों पर मधुर हास्य की आभा। आज रात को भोजन के उपरांत वह उनके पास बैठकर समाचार-पत्र पढ़ने लगी और पढ़ते-पढ़ते उसने अपना सिर विनय की गोद में रख दिया, और उनके हाथों को अपने हाथों में लेकर बोली-"सच बताओ विनय, एक बात तुमसे पूछू, बताओगे न? सच बताना, तुम यह तो नहीं चाहते कि यह बला सिर से टल जाय? मैं कहे देती हूँ, जीते जी न टलूँगी, न तुम्हें छोडूंगी, तुम भी मुझसे भागकर नहीं जा सकते। किसी तरह न जाने दूँगी, जहाँ जाओगे, मैं भी चलूँगी, तुम्हारे गले का हार बनी रहूँगी।"

यह कहते-कहते उसने विनय के हाथ छोड़ दिये और उनके गले में बाँहें डाल दी। विनय को ऐसा मालूम हुआ कि मेरे पैर उखड़ गये हैं और मैं लहरों में बहा जा रहा हूँ। एक विचित्र आशंका से उनका हृदय काँप उठा, मानों उन्होंने खेल में सिंहनी को जगा दिया हो। उन्होंने अज्ञात भाव से सोफी के कर-पाश से अपने को मुक्त कर लिया और बोले-"सोफी!"

सोफी चौंक पड़ी, मानों निद्रा में हो। फिर उठकर बैठ गई और बोली-"मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि मैं पूर्व-जन्म में, उससे पहले भी, आदि से तुम्हारी हूँ, कुछ स्वप्न-सा याद आता है कि हम और तुम किसी नदी के किनारे एक झोपड़े में रहते थे। सच!"

विनय ने सशंक होकर कहा-"तुम्हारा जी कैसा है?". सोफी-“मुझे कुछ हुआ थोड़े ही है, मैं तो अपने पूर्व-जन्म की बात याद कर रही हूँ। मुझे ऐसा याद आता है कि तुम मुझे झोपड़े में अकेली छोड़कर अपनी नाव पर कहीं परदेश चले गये थे और मैं नित्य नदी के तीर बैठी हुई तुम्हारी राह देखती थी, पर तुम न आते थे।।"

विनय-"सोफिया, मुझे भय हो रहा है कि तुम्हारा जी अच्छा नहीं है। रात बहुत हो गई है, अब सो जाओ।"

सोफी-"मेरा तो आज यहाँ से जाने को जी नहीं चाहता। क्या तुम्हें नींद आ रही है? तो सोओ, मैं बैठी हूँ, जब तुम सो जाओगे, मैं चली जाऊँगी।"

एक क्षण बाद फिर बोली-"मुझे न जाने क्यों संशय हो रहा है कि तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे। सच बताओ, क्या तुम मुझे छोड़ जाओगे?"

विनय-"सोफी, अब हम अनंत काल तक अलग न होंगे।"

सोफी-"तुम इतने निर्दय नहीं हो, मैं जानती हूँ। मैं रानीजी से न डरूँगी, साफ-साफ कह दूंगी, विनय मेरे हैं।"

विनय की दशा उस भूखे आदमी की सी थी, जिसके सामने परसी थाली रखी हुई। हो, क्षुधा से चित्त व्याकुल हो रहा हो, आँतें सिकुड़ी जाती हो, आँखों में अँधेरा छा रह हो; मगर थाली में हाथ न डाल सकता हो, इसलिए कि पहले किसी देवता का भोग लगना है। उन्हें अब इसमें कोई संदेह न रहा था कि सोफ़ी की व्याकुलता उसी क्रिया का फल है। उन्हें विस्मय होता था कि उस जड़ी में ऐसी कौन-सी शक्ति है। वह अपने कृत्य पर लजित थे, और सबसे अधिक भयभीत थे, आत्मा से नहीं, परमात्मा से नहीं, सोफो से। जब सोफी को ज्ञात हो जायगा-कभी-न-कभी तो यह नशा उतरेगा हो-तब वह मुझसे इसका कारण पूछेगी और मैं छिपा न सकूँगा। उस समय वह मुझे क्या कहेगी!

आखिर जब अँगीठी की आग ठंडी हो गई और सोफी को सरदी मालूम होने लगी, तो सोफी चली गई। क्रिया का समय भी आ पहुँचा। लेकिन आज विनय को उसका साहस न हुआ। उन्हें उसकी परीक्षा ही करनी थी, परीक्षा हो गई और तांत्रिक साधनों पर उन्हें हमेशा के लिए श्रद्धा हो गई।

सोफिया को चारपाई पर लेटते ही ऐसा भ्रम हुआ कि रानी जाह्नवी सामने खड़ी ताक रही हैं। उसने कंबल से सिर निकालकर देखा और तब अपनी मानसिक दुर्बलता पर झुंझलाकर सोचने लगी-आजकल मुझे क्या हो गया है? मुझे क्यों भाँति-भाँति के संशय होते रहते हैं? क्यों नित्य अनिष्ट-शंका हृदय पर छाई रहती है? जैसे मैं विचार-हीन-सी हो गई हूँ। विनय आजकल क्यों मुझसे खिंचे हुए हैं? कदाचित् वह डर रहे हैं कि रानीजी कहीं उन्हें शाप न दे दें, अथवा आत्मघात न कर लें। इनकी बातों में पहले की उत्सुकता, प्रेमातुरता नहीं है। रानी मेरे जीवन का सर्वनाश किये देती हैं।

इन्हीं अशांतिमय विचारों में डूबी हुई वह सो गई, तो देखती क्या है..कि वास्तव में रानी जी मेरे सामने खड़ी क्रोधोन्मत्त नेत्रों से ताक रही हैं और कह रही हैं-

"विनय मेरा है! वह मेरा पुत्र है, उसे मैंने जन्म दिया है, उसे मैंने पाला है, तू क्यों उसे मेरे हाथों से छीने लेती है? अगर तूने उसे मुझसे छीना, मेरे कुल को कलंकित किया, तो मैं तुम दोनों का इसी तलवार से वध कर दूंगी!"

सोफी तलवार की चमक देखकर घबरा गई। चिल्ला उठी। नींद टूट गई। उसकी सारी देह तृणवत् काँप रही थी। वह दिल मजबूत करके उठी और विनयसिंह की कोठरी में आकर उनके सीने से चिमट गई। विनय की आँखें लग ही रही थीं। चौंक-कर सिर उठाया।

सोफी-“विनय, विनय, जागो, मैं डर रही हूँ।"

विनय तुरत चारपाई से उतरकर खड़े हो गये और पूछा-"क्या है सोफी?"

सोफी “रानीजी को अभी-अभी मैंने अपने कमरे में देखा। अभी वहीं खड़ी हैं।"

विनय-"सोफी, शांत हो जाओ। तुमने कोई स्वप्न देखा है। डरने की कोई

सोफी-"स्वप्न नहीं था विनय, मैंने रानीजी को प्रत्यक्ष देखा।"

विनय-"वह यहाँ कैसे आ जायँगी? हवा तो नहीं हैं!"

सोफी-“तुम इन बातों को नहीं जानते विनय! प्रत्येक प्राणी के दो शरीर होते हैं-एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। दोनों अनुरूप होते हैं, अंतर केवल इतना ही है कि सूक्ष्म शरीर स्थूल से कहीं सूक्ष्म होता है। वह साधारण दशाओं में अदृश्य रहता है, लेकिन समाधि या निद्रावस्था में स्थूल शरीर का स्थानपन्न बन जाता है। रानीजी का सूक्ष्म शरीर अवश्य यहाँ है।"

दोनों ने बैठकर रात काटी।

सोफिया को अब विनय के बिना क्षण-भर भी चैन न आता। उसे केवल मानसिक अशांति न थी, ऐंद्रिक सुख-भोग के लिए भी वह उत्कंठित रहती। जिन विषयों की कल्पना-मात्र से उसे अरुचि थी, जिन बातों को याद करके ही उसके मुख पर लालिमा छा जाती, वे ही कल्पनाएँ और वे ही भावनाएँ अब नित्य उसके चित्त पर आच्छादित रहतीं। उसे अपनी वासना-लिप्सा पर आश्चर्य होता था। किन्तु जब वह विलास कल्पना करते-करते उस क्षेत्र में प्रविष्ट होती, जो दांम्पत्य जीवन ही के लिए नियंत्रित है,तो रानीजी की वही क्रोध-तेज-पूर्ण मूर्ति उसके सम्मुख आकर खड़ी हो जाती और वह 'चौंककर कमरे से निकल भागती। इस भाँति उसने दस-बारह दिन काटे। कृपाण के नीचे खड़े अभियोगी की दशा भी इतनी चिंताजनक न होगी!

एक दिन वह घबराई हुई विनय के पास आई और बोली-"विनय, मैं बनारस जाऊँगी। मैं बड़े संकट में हूँ। रानीजी मुझे यहाँ चैन न लेने देंगी। अगर यहाँ रही, तो शायद जीवन से हाथ धोना पड़े, मुझ पर अवश्य कोई-न-कोई अनुष्ठान किया गया है। मैं इतनी अव्यवस्थित-चित्त कभी न थी। मुझे स्वयं ऐसा मालूम होता है कि अब मैं वह हूँ ही नहीं, कोई और ही हूँ। मैं जाकर रानीजी के पैरों पर गिरूँगी। उनसे

अपना अपराध क्षमा कराऊँगी और उन्हीं की आज्ञा से तुम्हें प्राप्त करूँगी। उनकी इच्छा के बगैर मैं तुम्हें नहीं पा सकती, और जबरदस्ती ले लूं, तो कुशल से न बीतेगी। विनय, मुझे स्वप्न में भी यह शंका न थी कि मैं तुम्हारे लिए इतनी अधीर हो जाऊँगी। मेरा हृदय कभी इतना दुर्बल और इतना मोह-ग्रस्त न था।"

विनय ने चिंतित होकर कहा-“सोफी, मुझे आशा है कि थोड़े दिनों में तुम्हारा चित्त शांत हो जायगा।"

सोफी-"नहीं विनय, कदापि नहीं। रानीजी ने तुम्हें एक महान् उद्देश्य के लिए बलि कर रखा है। बलि-जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है। मैं उनसे भिक्षा मागूंगी।"

विनय-"तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा।"

सोफ़ी-"नहीं-नहीं, ईश्वर के लिए ऐसा मत कहो। मैं तुम्हें रानीजी के सामने न ले जाऊँगी। मुझे अकेले जाने दो।”

विनय-"इस दशा में मैं तुम्हें अकेले कभी न जाने दूंगा। अगर ऐसा ही है, तो मैं तुम्हें वहाँ छोड़कर वापस आ जाऊँगा।"

सोफ़ी-"वचन दो कि बिना मुझसे पूछे रानीजी के पास न जाओगे।"

विनय—"हाँ, सोफी, यह स्वीकार है। वचन देता हूँ।"

सोफी-"फिर भी दिल नहीं मानता। डर लगता है, वहाँ तुम आवेश में आकर कहीं रानीजी के पास न चले जाओ। तुम यहीं क्यों नहीं रहते? मैं तुम्हें नित्यप्रति पत्र लिखा करूँगी और जल्द-से-जल्द लौट आऊँगी।"

विनय ने उसे तस्कीन देने के लिए अकेले जाने की अनुमति दे दी, लेकिन उनका स्नेह-सिंचित हृदय यह कब मान सकता था कि सोफिया इस अव्यवस्थित दशा में इतनी लंबी यात्रा करे। सोचा, उसकी निगाह बचाकर किसी दूसरी गाड़ी में बैठ जाऊँगा। उन्हें लौटकर आने की बहुत कम आशा थी। भीलों ने सुना, तो भाँति-भाँति के उपहार लेकर बिदा करने आये। मृग-चर्मों, बघनखों और नाना प्रकार की जड़ी-बूटियों का ढेर लग गया। एक भील ने धनुष भेंट किया। सोफी और विनय, दोनों ही को इस स्थान से प्रेम हो गया था। निवासियों का सरल, स्वाभाविक, निष्कपट जीवन उन्हें ऐसा भा गया था कि उन लोगों को छोड़कर जाते हुए हार्दिक वेदना होती थी। भील-गण खड़े रो रहे थे और कह रहे थे, जल्द आना, हमें भूल न जाना। बुढ़िया भीलनी तो उन्हें छोड़ती ही न थी। सब-के-सब स्टेशन तक उन्हें पहुँचाने आये। लेकिन जब गाड़ी आई और वह बैठी, विनय से बिदा होने का समय आया, तो वह विनय के गले से लिपटकर रोने लगी। विनय चाहते थे कि निकल जायें और किसी दूसरी गाड़ी में जा बैठे, पर वह उन्हें छोड़ती ही न थी। मानों यह अंतिम वियोग है। जब गाड़ी ने सीटी दी, तो वह हृदय-वेदना से विकल होकर बोली—“विनय, मुझसे इतने दिनों कैसे रहा जायगा? रो-रोकर मर जाऊँगी। ईश्वर, मैं क्या करूँ?' विनय--“सोफी, घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।"

सोफो-"नहीं-नहीं, ईश्वर के लिए नहीं। मैं अकेली ही जाऊँगी।"

विनय गाड़ी में आकर बैठ गये। गाड़ी रवाना हो गई। जरा देर बाद सोफिया ने कहा-"तुम न आते, तो मैं शायद घर तक न पहुँचती। मुझे ऐसा ज्ञात हो रहाथा कि प्राण निकले जा रहे हैं। सच बताना विनय, तुमने मुझ पर मोहनी तो नहीं डालदी है? मैं इतनी अधीर क्यों हो गई हूँ?"

विनय ने लज्जित होकर कहा-"क्या जाने सोफी, मैंने एक क्रिया तो की है। नहींकह सकता कि वह मोहिनी थी या कुछ और!"

सोफी-"सच?"

विनय-"हाँ, बिलकुल सच। मैं तुम्हारी प्रेम-शिथिलता से डर गया था कि कहीं तुम मुझे फिर न परीक्षा में डालो।"

सोफी ने विनय की गरदन में हाथ डाल दिये और बोली-"तुम बड़े छलिया हो। अपना जादू उतार लो, मुझे क्यों तड़पा रहे हो?"

विनय-"क्या कहूँ, उतारना नहीं सीखा, यही तो भूल हुई।"

सोफी-"तो मुझे भी वही मंत्र क्यों नहीं सिखा देते? न मैं उतार सकूँगी, न तुम उतार सकोगे। (एक क्षण बाद) लेकिन नहीं, मैं तुम्हें संज्ञा-हीन न बनाऊँगी। दो मेंसे एक को तो होश रहना चाहिए। दोनों मदमत्त हो जायेंगे, तो अनर्थ हो जायगा। अच्छा बताओ, कौन-सी क्रिया की थी?"

विनय ने अपनी जेब से वह जड़ी निकालकर दिखाते हुए कहा-"इसी की धूनी देता था।"

सोफी-"जब मैं सो जाती थी, तब?"

विनय-(सकुचाते हुए) "हाँ, सोफी, तभी।"

सोफी-"तुम बड़े ढीठ हो। अच्छा, अब यही जड़ी मुझे दे दो। तुम्हारा प्रेम शिथिल होते देखू गी, तो मैं भी यही क्रिया करूँगी।"

यह कहकर उसने जड़ी लेकर रख ली। थोड़ी देर बाद उसने पूछा-"यह तो बताओ, वहाँ तुम रहोगे कहाँ ? मैं रानीजी के पास तुम्हें न जाने दूँगी।"

रिझ्य-"अब मेरा कोई मित्र नहीं रहा। सभी मुझसे असंतुष्ट हो रहे होंगे। नायकराम के घर चला जाऊँगा। तुम वहीं आकर मुझसे मिल लिया करना । वह तो घर पहुँच ही गया होगा।"

सोफिया-"कहीं जाकर कह न दे!"

विनय-"नहीं, मंदबुद्धि हो, पर विश्वासघाती नहीं।"

सोफिया-"अच्छी बात है। देखें, रानीजी से मुराद मिलती है या मौत!"