रंगभूमि/४२

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रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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अदालत ने अगर दोनों युवकों को कठिन दंड दिया, तो जनता ने भी सूरदास को उससे कम कठिन दंड न दिया। चारों ओर थुड़ी-थुड़ी होने लगी लगी। मुहल्लेवालों का तो कहना ही क्या, आस-पास के गाँववाले भी दो-चार खोटी-खरी सुना जाते थे-माँगता तो है भीख, पर अपने को कितना लगाता है! जरा चार भले आदमियों ने मुँह लगा लिया, तो घमंड के मारे पाँव धरती पर नहीं रखता। सूरदास को मारे शर्म के घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। इसका एक अच्छा फल यह हुआ कि बजरंगी और जगधर का क्रोध शांत हो गया। बजरंगी ने सोचा, अब क्या मारूँ-पीटू, उसके मुँह में तो यों ही कालिख लग गई ; जगधर की अकेले इतनी हिम्मत कहाँ! दूसरा फल यह हुआ कि सुभागी फिर भैरो के घर जाने को राजी हो गई। उसे ज्ञात हो गया कि बिना किसी आड़ के मैं इन झोंकों से नहीं बच सकती। सूरदास की आड़ केवल टट्टी की आड़ थी।

एक दिन सूरदास बैठा हुआ दुनिया की हठधर्मी और अनीति का दुखड़ा रो रहा था कि सुभागी बोली-“भैया, तुम्हारे ऊपर मेरे कारन चारों ओर से बौछार पड़ रही है, बजरंगी और जगधर दोनों मारने पर उतारू हैं, न हो, तो मुझे भी अब मेरे घर पहुँचा दो। यही न होगा, मारे-पीटेगा, क्या करूँगी, सह लूँगी, इस बेआबरूई से तो बचूँगी?"

भैरो तो पहले ही से मुँह फैलाए हुये था, बहुत खुश हुआ, आकर सुंभागी को बड़े आदर से ले गया। सुभागी जाकर बुढ़िया के पैरों पर गिर पड़ी और खूब रोई। बुढ़िया ने उठाकर छाती से लगा लिया। बेचारी अब आँखों से माजूर हो गई थी। भैरो जब कहीं चला जाता, तो दूकान पर कोई बैठनेवाला न रहता, लोग अँधेरे में लकड़ी उठा ले जाते थे। खाना तो खैर किसी तरह बना लेती थी, किन्तु इस नोच-खसोट का नुकसान न सहा जाता था। सुभागी घर की देख-भाल तो करेगी! रहा भैरो, उसके हृदय में अब छल-कपट का लेश भी न रहा था। सूरदास पर उसे इतनी श्रद्धा हो गई कि कदाचित् किसी देवता पर भी न होगो। अब वह अपनी पिछली बातों पर पछताता और मुक्त कंठ से सूरदास के गुण गाता था।

इतने दिनों तक सूरदास घर बार की चिंताओं से मुक्त था, पकी-पकाई रोटियाँ मिल जाती थीं, बरतन धुल जाते थे, घर में झाड़ लग जाती थी। अब फिर वही पुरानी विपत्ति सिर पर सवार हुई। मिठुआ अब स्टेशन ही पर रहता था। घीसू और विद्याधर के दंड से उसकी आँखें खुल गई थीं। कान पकड़े, अब कभी जुआ और चरस के नगीच न जाऊँगा। बाजार से चबेना लेकर खाता और स्टेशन के बरामदे में पड़ा रहता था। कौन नित्य तीन-चार मील चले! जरा भी चिंता न थी कि सूरदास की कैसे निभती है,
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अब मेरे हाथ-पाँव हुए, कुछ मेरा धर्म भी उसके प्रति है या नहीं, आखिर किस दिन के लिए उसने मुझे अपने लड़के की भाँति पाला था। सूरदास कई बार खुद स्टेशन पर गया, और उससे कहा कि साँझ को घर चला आया कर, क्या अब भी भीख माँगू, मगर उसकी बला सुनती थी। एक बार उसने साफ कह दिया, यहाँ मेरा गुजर तो होता नहीं, तुम्हारे लिए कहाँ से लाऊ? मेरे लिए तुमने कौन-सी बड़ी तपस्या की थो, एक टुकड़ा रोटी दे देते थे, कुत्ते को न दिया, मुझो को दे दिया। तुमसे मैं कहने गया था कि मुझे खिलाओ-पिलाओ, छोड़ क्यों न दिया, जिन लड़कों के माँ-बार नहीं होते, वे सब क्या मर ही जाते हैं? जैसे तुम एक टुकड़ा दे देते थे, वैसे बहुत टुकड़े मिल जाते। इन बातों से सूरदास का दिल ऐसा टूटा कि फिर उससे घर आने को न कहा।

इधर सोफ़िया कई बार सूरदास से मिल चुकी थी। वह और तो कहीं न जाती, पर समय निकालकर सूरदास से अवश्य मिल जाता। ऐसे मौके से आती कि सेवकजी से सामना न होने पाये। जब आती, सूरदास के लिए कोई-न-कोई सौगात जरूर लाती। उसने इंद्रदत्त से उसका सारा वृत्तांत सुना था उसका अदालत में जनता से अपील करना, चंदे के रुपये स्वयं न लेकर दूसरे को दे देना, जमीन के रुपये, जो सरकार से मिले थे, दान दे देना-तब से उसे उससे और भी भक्ति हो गई थी। गँवारों की धर्म-पिपासा ईट-पत्थर पूजने से शांत हो जाती है, भद्रजनों की भक्ति सिद्ध पुरुषों की सेवा से। उन्हें प्रत्येक दीवाना पूर्वजन्म का कोई ऋषि मालूम होता है। उसकी गालियाँ सुनते हैं, उसके जूठे बरतन धोते हैं, यहाँ तक कि उसके धूल-धूसरित पैरों को धोकर चरणा-मृत लेते हैं। उन्हें उसको काया में कोई देवात्मा बैठो हुई मालूम होती है। सोफिया को सूरदास से कुछ ऐसी ही भक्ति हो गई थी। एक बार उसके लिए संतरे और सेब ले गई। सूरदास घर लाया, पर आप न खाया, मिठुआ की याद आई, उसकी कठोर बातें विस्मृत हो गई, सबेरे उन्हें लिये स्टेशन गया और उसे दे आया। एक बार सोफी के साथ ईदु भी आई थी। सरदो के दिन थे। सूरदास खड़ा काँप रहा था। इंदु ने वह कम्बल, जो वह अपने पैरों पर डाले हुए थी, सूरदास को दे दिया। सूरदास को वह कम्बल ऐसा अच्छा मालूम हुआ कि नुद न ओढ़ सका। मैं बुड्ढा भिखारी, यह कम्मल ओढ़कर कहाँ जाऊँगा? कौन भीख देगा? रात को जमीन पर लेटू, दिन-भर सड़क के किनारे खड़ा रहूँ, मुझे यह कम्मल लेकर क्या करना? जाकर मिठुआ को दे आया। इधर तो अब भी इतना प्रेम था, उधर मिठुआ इतना स्वार्थो था कि खाने को भी न पूछता। सूरदास समझता कि लड़का है, यही इसके खाने-पहनने के दिन हैं, मेरी खबर नहीं लेता, खुद तो आराम से खाता-पहनता है। अपना है, तो कब न काम आयेगा।

फागुन का महीना था, संध्या का समय। एक स्त्री घास बैंचकर जा रही थी। मजदूरों ने अभी-अभी काम से छुट्टो पाई थी। दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खडे खड़े उकता गये थे, विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे। घसियारिन को देखते ही
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उस पर अश्लील कबीरों की बौछार शुरू कर दी। सूरदास को यह बुरा मालूम हुआ, बोला-'यारो, क्यों अपनी जबान खराब करते हो? वह बिचारी तो अपनी राह चली जाती है, और तुम लोग उसका पीछा नहीं छोड़ते। वह भी तो किसी की बहू-बेटी होगी।"

एक मजदूर बोला-"भीख माँगों भीख, जो तुम्हारे करम में लिखा है। हम गाते हैं, तो तुम्हारी नानी क्यों मरती है?"

सूरदास-"गाने को थोड़े ही कोई मने करता है।"

मजदूर--"तो हम क्या लाठी चलाते हैं ?"

सूरदास-"उस औरत को छेड़ते क्यों हो?"

मजदूर-"तो तुम्हें क्याँ बुरा लगता है? तुम्हारी बहन है कि बेटी?"

सूरदास-"बेटी भी है, बहन भी है, हमारी हुई तो, किसी दूसरे भाई की हुई तो?"

उसके मुँह से वाक्य का अंतिम शब्द निकलने भी न पाया था कि एक मजदूर ने चुपके से जाकर उसकी एक टाँग पकड़कर खींच ली। बेचारा बेखबर खड़ा था। कंकड़ पर इतनी जोर से मुँह के बल गिरा कि सामने के दो दाँत टूट गये, छाती में बड़ी चोट आई, ओठ कट गये, मूर्छा-सी आ गई। पंद्रह-बीस मिनट तक वहीं अचेत पड़ा रहा। कोई मजदूर निकट भी न आया, सब अपनी राह चले गये। संयोग से नायकराम उसी समय शहर से आ रहे थे। सूरदास को सड़क पर पड़े देखा, तो चकराये कि माजरा क्या है, किसी ने मारा-पीटा तो नहीं? बजरंगी के सिवा और किसमें इतना दम है। बुग किया। कितना ही हो, अपने धर्म का सच्चा है। दया आ गई। समीप आकर हिलाया, तो सूरदास को होश आया, उठकर नायकराम का एक हाथ पकड़ लिया और दूसरे हाथ से लाठी टेकता हआ चला।

नायकराम ने पूछा-"किसी ने मारा है क्या सूरे, मुँह से लहू बह रहा है?"

सूरदास-"नहीं भैया, ठोकर खाकर गिर पड़ा था।"

नायकराम-"छिपाओ मत, अगर बजरंगी या जगधर ने मारा हो, तो बता दो। दोनों को साल-साल-भर के लिए भिजवा न दूँ, तो ब्राह्मण नहीं।”


सूरदास-"नहीं भैया, किसी ने नहीं मारा, झूठ किसे लगा हूँ।"

नायकराम-"मिलवालों में से तो किसी ने नहीं मारा? ये सब राह-चलते आदमियों को बहुत छेड़ा करते हैं। कहता हूँ, लुटवा दूँगा, इन झोपड़ों में आग न लगा दूँ, तो कहना। बताओ, किसने यह काम किया? तुम तो आज तक कभी ठोकर खाकर नहीं गिरे। सारी देह लहू से लतपत हो गई है।"

सूरदास ने किसी का नाम न बतलाया। जानता था कि नायकराम क्रोध में आ जायगा, तो मरने-मारने को न डरेगा। घर पहुँचा, तो सारा मुहल्ला दौड़ा। हाय! हाय! किस मुद्दई ने बेचारे अंधे को मारा, देखो तो, मुँह कितना सूज आया है! लोगों ने
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सूरदास को बिछावन पर लिटा दिया। भैरो दौड़ा, बजरंगी ने आग जलाई, अफीम और तेल की मालिश होने लगी। सभी के दिल उसकी तरफ से नर्म पड़ गये। अकेला जगधर स्खुश था, जमुनी से बोला-"भगवान् ने हमारा बदला लिया है। हम सबर कर गये, पर भगवान् तो न्याय करनेवाले हैं।"

जमुनी चिढ़कर बोली-"चुप भी रहो, आये हो बड़े न्यायी की पूँछ बन के। बिपत में बैरी पर भी न हँसना चाहिए, वह हमारा बैरी नहीं है। सच बात के पीछे जान दे देगा, चाहे किसी को अच्छा लगे या बुरा। आज हममें से कोई बीमार पड़ जाय, तो तो देखो, रात-की-रात बैठा रहता है कि नहीं। ऐसे आदमी से क्या बैर!"

जगधर लजित हो गया।

पंद्रह दिन तक सूरदास घर से निकलने के लायक न हुआ। कई दिन मुँह से खून आता रहा। सुभागी दिन-भर उसके पास बैठी रहती। भैरो रात को उसके पास सोता। जमुनी नूर के तड़के गरम दूध लेकर आती और उसे अपने हाथों से पिला जाती। बजरंगी बाजार से दवाएँ लाता। अगर कोई उसे देखने न आया, तो वह मिठुआ था। उसके पास तीन बार आदमी गया, पर उसकी इतनी हिम्मत भी न हुई कि सेवा-शुश्रूषा के लिए नहीं, तो कुशल-समाचार पूछने ही के लिए चला आता। डरता था कि जाऊँगा, तो लोगों के कहने-सुनने से कुछ-न-कुछ देना ही पड़ेगा। उसे अब रुपये का चस्का लग गया था। सूरदास के मुँह से भी इतना निकल ही गया-“दुनिया अपने मतलब की है। बाप नन्हा-सा छोड़कर मर गया। माँ-बेटे की परवस्तो की, माँ मर गई, तो अपने लड़के की तरह पाला-पोसा, आप लड़कोरी बन गया, उसकी नींद सोता था, उसकी नींद जागता था, आज चार पैसे कमाने लगा, तो बात भी नहीं पूछता। खैर, हमारे भी भगवान हैं। जहाँ रहे, सुखी रहे। उसकी नीयत उसके साथ, मेरी नीयत मेरे साथ। उसे मेरी कलक न हो, मुझे तो उसकी कलक है। मैं कैसे भूल जाऊँ कि मैंने लड़के की तरह उसको पाला है!”

इधर तो सूरदास रोग-शय्या पर पड़ा हुआ था, उधर पाँडेपुर का भाग्य-निर्णय हो रहा था। एक दिन प्रातःकाल राजा महेंद्रकुमार, मि० जॉन सेवक, जायदाद के तखमीने का अफसर, पुलिस के कुछ सिपाही और एक दरोगा पाँडेपुर आ पहुँचे। राजा साहब ने निवासियों को जमा करके समझाया-"सरकार को एक खास सरकारी काम के लिए इस मुहल्ले की जरूरत है। उसने फैसला किया है कि तुम लोगों को उचित दाम देकर यह जमीन ले ली जाय, लाट साहब का हुक्म आ गया है। तखमीने के अफसर साहब इसी काम के लिए तैनात किये गये हैं। कल से उनका इजलास यहीं हुआ करेगा। आप सब मकानों की कीमत का तखमीना करेंगे और उसी के मुताबिक तुम्हें मुआवजा मिल जायगा। तुम्हें जो कुछ अर्ज-मारूज करना हो, आप ही से करना। आज से तीन महीने के अंदर तुम्हें अपने-अपने मकान खाली कर देने पड़ेंगे, मुआवजा पीछे मिलता रहेगा। जो आदमी इतने दिनों के अंदर मकान न खाली करेगा, उसके मुआवजे के रुपये जब्त
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कर लिये जायेंगे और वह जबरदस्ती घर से निकाल दिया जायगा। अगर कोई रोक-टोक करेगा, तो पुलिस उसका चालान करेगी, उसको सजा हो जायगी। सरकार तुम लोगों को बेवजह तकलीफ नहीं दे रही है, उसको इस जमीन की सख्त जरूरत है। मैं सिर्फ सरकारी हुक्म की तामील कर रहा हूँ।"

गाँववालों को पहले ही इसकी टोह मिल चुकी थी, किंतु इस खयाल से मन को बोध दे रहे थे कि कौन जाने, खबर ठीक है या नहीं। ज्यों-ज्यों विलंब होता था, उनकी आलस्य-प्रिय आत्माएँ निश्चित होती जाती थीं। किसी को आशा थी कि हाकिमों से कह-सुनकर अपना घर बचा लूँगा, कोई कुछ दे-दिलाकर अपनी रक्षा करने की फिक कर रहा था, कोई उज्रदारी करने का निश्चय किये हुए था, कोई यह सोचकर शांत बैठा हुआ था कि न जाने क्या होगा, पहले से क्यों अपनी जान हलकान करें, जब सिर पर पडेगी, तब देखी जायगी। तिस पर भी आज जो लोगों ने सहसा यह हुक्म सुना, तो मानों वज्राघात हो गया। सब-के-सब साथ हाथ बाँधकर राजा साहब के सामने खड़े हो गये और कहने लगे-'"सरकार, यहाँ रहते हमारी कितनी पीढ़ियाँ गुजर गई, अब सरकार हमको निकाल देगी, तो कहाँ जायँगे? दो-चार आदमी हों, तो कहीं घुस पड़ें, मुहल्ले-का-मुहल्ला उजड़कर कहाँ जायगा? सरकार जैसे हमें निकालती है, वैसे कहों ठिकाना भी बता दे।"

राजा साहब बोले-"मुझे स्वयं इस बात का बड़ा दुःख है, और मैंने तुम्हारी ओर से सरकार की सेवा में उज्र भी किया था; मगर सरकार कहती है, इस जमीन के बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। मुझे तुम्हारे साथ सच्ची सहानुभूति है, पर मजबूर हूँ, कुछ नहीं कर सकता, सरकार का हुक्म है, मानना पड़ेगा।"

इसका जवाब देने कि किसी को हिम्मत न पड़ती थी। लोग एक दूसरे को कुहनियों से ठेलते थे कि आगे बढ़कर पूछो, मुआवजा किस हिसाब से मिलेगा; पर किसी के कदम न बढ़ते थे। नायकराम यों तो बहुत चलते हुए आदमी थे, पर इस अवसर पर वह भी मौन साधे हुए खड़े थे; वह राजा साहब से कुछ कहना-सुनना व्यर्थ समझकर तखमीने के अफसर से तख मीने की दर में कुछ बेशी करा लेने की युक्त सोच रहे थे। कुछ दे-दिलाकर उनसे काम निकलना ज्यादा सरल जान पड़ता था। इस विपत्ति में सभी को सरदास की याद आती थी। वह होता, तो जरूर हमारी ओर से अरज-बिनतो करता, इतना गुरदा और किसी का नहीं हो सकता, कई आदमी लपके हुए सूरदास पास गये और उससे यह समाचार कहा।

सरदास ने कहा—"और सब लोग तो हैं ही, मैं चलकर क्या कर लूँगा। नायकराम क्यों सामने नहीं आते? यों तो बहुत गरजते हैं, अब क्यों मुँह नहीं खुलता? मुहल्ले ही में रोब दिखाने को हैं?"

ठाकुरदीन—"सबकी देखी गई। सबके मुँह में दही जमा हुआ है। हाकिमों से बोलने को हिम्मत चाहिए, अकिल चाहिए।" [ ४८७ ]शिवसेवक बनिया ने कहा—"मेरे तो उनके सामने खड़े होते पैर थरथर काँपते हैं। न जाने कोई कैसे हाकिमों से बातें करता है। मुझे तो वह जरा डाट दें, तो दम ही निकल जाय।"

झींगुर तेली बोला—'हाकिमों का बड़ा रोब होता है। उनके सामने तो अकिल ही खप्त हो जाती है।"

सूरदास—"मुझसे तो उठा ही नहीं जाता; चलना भी चाहूँ, तो कैसे चलूँगा।”

सूरदास यों लाठी के सहारे घर से बाहर आने-जाने लगा था, पर इस वक्त अनायास उसे कुछ मान करने की इच्छा हुई। कहने से धोबी गधे पर नहीं चढ़ता।

ठाकुरदीन—'यह कौन मुसकिल काम है! हम लोग तुम्हें उठा ले चलेंगे।"

सूरदास—"भाई, करोगे सब जने अपने-अपने मन ही को, मुझे क्यों नक बनाते हो! जो सबकी गत होगी, वही मेरी भी गत होगी। भगवान की जो मरजी है। वह होगी।"

ठाकुरदीन ने बहुत चिरौरी की, पर सूरदास चलने पर राजी न हुआ। तब ठाकुर-दीन को क्रोध आ गया। बेलाग बात कहते थे। बोले-“अच्छी बात है, मत जाओ। क्या तुम समझते हो, जहाँ मुरगा न होगा, वहाँ सबेरा ही न होगा? चार आदमी सराहने लगे, तो अब मिजाज ही नहीं मिलते। सच कहा है, कौआ धोने से बगला नहीं होता।”

आठ बजते-बजते अधिकारी लोग बिदा हो गये। अब लोग नायकराम के घर आकर पंचायत करने लगे कि क्या किया जाय।

जमुनी-"तुम लोग यों ही बकवास करते रहोगे, और किसी का किया कुछ न होगा। सूरदास के पास जाकर क्यों नहीं सलाह करते? देखो, क्या कहता है?"

बजरंगी-"तो जाती क्यों नहीं, मुझी को ऐसी कौन-सी गरज पड़ी हुई है?"

जमुनी-"तो फिर चलकर अपने-अपने घर बैठो, गपड़चौथ करने से क्या होना है।"

भैरो—'बजरंगी, यह हेकड़ी दिखाने का मौका नहीं है। सूरदास के पास सब जने मिलकर चलो। वह कोई-न-कोई राह जरूर निकालेगा।"

ठाकुरदीन-"मैं तो अब कभी उसके द्वार पर न जाऊँगा। इतना कह-सुनकर "हार गया, पर न उठा। अपने को लगाने लगा है।"

जगधर-"सूरदास क्या कोई देवता है, हाकिम का हुकुम पलट देगा?"

ठाकुरदीन-"मैं तो गोद में उठा लाने को तैयार था।"

बजरंगी-“घमंड है घमंड कि और लोग क्यों नहीं आये। गया क्यों नहीं हाकिमों के सामने? ऐसा मर थोड़े ही रहा है!"

जमुनी-"कैसे आता? वह तो हाकिमों से बुरा बने, यहाँ तुम लोग अपने-अपने मन की करने लगे, तो उसकी भद्द हो।” [ ४८८ ]भैरो—"ठीक तो कहती हो, मुद्दई सुस्त, तो गवाह कैसे चुस्त होगा। पहले चलकर पूछो, उसकी सलाह क्या है। अगर मानने लायक हो, तो मानो, न मानने लायक हो, न मानो। हाँ, एक बात जो तय हो जाय, उस पर टिकना पड़ेगा! यह नहीं कि कहा तो कुछ, पीछे से निकल भागे, सरदार तो भरम में पड़ा रहे कि आदमी पीछे हैं, और आदमी अपने-अपने घर की राह लें।"

बजरंगी—"चलो पंडाजी, पूछ ही देखें।"

नायकराम—"वह कहेगा बड़े साहब के पास चलो, वहाँ सुनाई न हो, तो पराग-राज लाट साहब के पास चलो। है इतना बूता?"

जगधर—"भैया की बात, महाराज, यहाँ तो किसी का मुँह नहीं खुला, लाट साहब के पास कौन जाता है!"

जमुनी—"एक बार चले क्यों नहीं जाते? देखो तो, क्या सलाह देता है?"

नायकराम—"मैं तैयार हूँ, चलो।"

ठाकुरदीन—"मैं न जाऊँगा, और जिसे जाना हो, जाय।"

जगधर-"तो क्या हमीं को बड़ी गरज पड़ी है?"

बजरंगी-"जो सबकी गत होगी, वही हमारी भी होगी।"

घंटे-भर तक पंचाइत हुई, पर सूरदास के पास कोई न गया। साझे की सुई ठेले पर लदती है। तू चल, मैं आता हूँ, यही हुआ किया। लोग अपने-अपने घर चले गये। संध्या-समय भैरो सूरदास के पास गया।

सूरदास ने पूछा—"आज क्या हुआ?"

भैरो-“हुआ क्या, घंटे भर तक बकवास हुई। फिर लोग अपने-अपने घर चले गये।”

सूरदास-"कुछ तय न हुआ कि क्या किया जाय?"

भैरो-“निकाले जायँगे, इसके सिवा और क्या होगा। क्यों सूरे, कोई न सुनेगा?"

सूरदास-"सुननेवाला भी वही है, जो निकालनेवाला है। तीसरा होता, तब न सुनता।"

भैरो-"मेरी मरन है। हजारों मन लकड़ी है, कहाँ ढोकर ले जाऊँगा १ कहाँ इतनी जमीन मिलेगी कि फिर टाल लगाऊँ?"

सूरदास-"सभी की मरन है। बजरंगी ही को इतनी जमीन कहाँ मिली जाती है कि पंद्रह-बीस जानवर भी रहें, आप भी रहें। मिलेगी भी तो इतना किराया देना पड़ेगा कि दिवाला निकल जायगा। देखो, मिठुआ आज भी नहीं आया। मुझे मालुम हो जाय कि वह बीमार है, तो छिन-भर न रुकू, कुत्ते की भाँति दौडूं, चाहे वह मेरी बात भी न पूछे। जिनके लिए अपनी जिंदगी खराब कर दो, वे भी गाढ़े समय पर मुँह फेर लेते हैं।"

भैरो–“अच्छा, तुम बताओ, तुम क्या करोगे, तुमने भी कुछ सोचा है?" [ ४८९ ]सूरदास-'मेरी क्या पूछते हो, जमीन थी वह निकल ही गई; झोपड़ों के बहुत मिलेंगे, तो दो-चार रुपये मिल जायँगे। मिले तो क्या, और न मिले, तो क्या? जब तक कोई न बोलेगा, पड़ा रहूँगा। कोई हाथ पकड़कर निकाल देगा, बाहर जा बैलूंगा। वहाँ से उठा देगा, फिर आ बैठूगा। जहाँ जन्म लिया है, वहीं मरूँगा। अपना झोपड़ा जीते जी न छोड़ा जायगा। मरने पर जो चाहे, ले ले। बाप-दादों की जमीन खो दी, अब इतनी निसानी रह गई है, इसे न छोडूंगा। इसके साथ ही आप भी मर जाऊँगा।"

भैरो-"सूरे, इतना दम तो यहाँ किसी में नहीं।"

सूरदास-"इसी से तो मैंने किसी से कुछ कहा ही नहीं। भला सोचो, कितना अंधेर है कि हम, जो सत्तर पीढ़ियों से यहाँ आबाद हैं, निकाल दिये जायें और दूसरे यहाँ आकर बस जायँ। यह हमारा घर है, किसी के कहने से नहीं छोड़ सकते, जबरदस्ती जो चाहे, निकाल दे, न्याय से नहीं निकाल सकता। तुम्हारे हाथ में बल है, तुम हमें मार सकते हो, हमारे हाथ में बल होता, तो हम तुम्हें मारते। यह तो कोई इंसाफ नहीं है। सरकार के हाथ में मारने का बल है, हमारे हाथ में और कोई बल नहीं है, तो मर जाने का बल तो है?"

भैरो ने जाकर दूसरों से ये बातें कहीं। जगधर ने कहा-"देखा, यह सलाह है! घर तो जायगा ही, जान भी जायगी।"

ठाकुरदीन बोले- "यह सूरदास का किया होगा। आगे नाथ न पीछे पगहा, मर ही जायगा, तो क्या? यहाँ मर जायँ, तो बाल-बच्चों को किसके सिर छोड़ें?"

बजरंगी-"मरने के लिए कलेजा चाहिए। जब हम ही मर गये, तो घर लेकर क्या होगा?"

नायकराम-“ऐसे बहुत मरनेवाले देखे हैं, घर से तो निकला ही नहीं गया, मरने चले हैं।"

भैरो-"उसकी न चलाभो पंडाजी, मन में आने की बात है।"

दूसरे दिन से तखमीने के अफसर ने मिल के एक कमरे में इजलास करना शुरू किया। एक मुंशी मुहल्ले के निवासियों के नाम, मकानों की हैसियत, पके हैं या कच्चे, पुराने हैं या नये, लंबाई, चौड़ाई आदि की एक तालिका बनाने लगा। पटवारी और मुंशी घर-घर घूमने लगे। नायकराम मुखिया थे। उनका साथ रहना जरूरी था। इस वक्त सभी प्राणियों का भाग्य-निर्णय इसी त्रिमूर्ति के हाथों में था। नायकराम की चढ़ बनी। दलाली करने लगे। लोगों से कहते, निकलना तो पड़ेगा ही, अगर कुछ गम खाने से मुआवजा बढ़ जाय, तो हरज ही क्या है। बैठे-बिठाए मुट्ठी गर्म होती थी; तो क्यों छोड़ते! सारांश यह कि मकानों की हैसियत का आधार वह भेंट थी, जो इस त्रिमूर्ति को चढ़ाई जाती थी। नायकराम टट्टी की आड़ से शिकार खेलते थे। यश भी कमाते थे, धन भो। भैरों का बड़ा मकान और सामने का मैदान सिमट गए, उनका क्षेत्रफल घट गया, त्रिमृति की वहाँ कुछ पूजा न हुई। जगधर का छोटा-सा मकान फैल
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गया, त्रिमूर्ति ने उसकी भेंट से प्रसन्न होकर रस्सियाँ ढीली कर दी, क्षेत्रफल बढ़ गया। ठाकुरदीन ने इन देवतों को प्रसन्न करने के बदले शिवजी को प्रसन्न करना ज्यादा आसान समझा: वहाँ एक लोटे जल के सिवा विशेष खर्च न था। दोनों वक्त पानी देने लगे। पर इस समय त्रिमूर्ति का दौरदौरा था, शिवजी की एक न चली, त्रिमूर्ति ने उनके छोटे, पर पके घर को कच्चा सिद्ध किया। बजरंगी देवतों को प्रसन्न करना क्या जाने, उन्हें नाराज ही कर चुका था, पर जमुनी ने अपनी सुबुद्धि से बिगड़ता हुआ काम बना लिया। मुंशीजी उसकी एक बछिया पर रीझ गए, उस पर दाँत लगाए। बजरंगी जानवरों को प्राण से भी प्रिय समझता था, तिनक गया। नायकराम ने कहा, बजरंगी पछताओगे बजरंगी ने कहा, चाहे एक कौड़ी मुभावजा न मिले, पर बछिया न दूंगा। आखिर जमुनी ने, जो सौदे पटाने में बहुत कुशल थी, उसको एकांत में ले जाकर समझाया कि जानवरों के रहने का कहीं ठिकाना भी है? कहाँ लिए-लिए फिरोगे? एक बछिया के देने से सौ रुपए का काम निकलता है, तो क्यों नहीं निकालते? ऐसी न-जाने कितनी बछिया पैदा होंगी, देकर सिर से बला टालो। उसके समझाने से अंत में बजरंगी भी राजी हो गया!

पंद्रह दिन तक त्रिमूर्ति का राज्य रहा। तखमीने के अफसर साहब बारह बजे घर से आते, अपने कमरे में दो-चार सिगार पीते, समाचार-पत्र पढ़ते, एक-दो बजे घर चल देते। जब तालिका तैयार हो गई, तो अफसर साहब उसकी जाँच करने लगे फिर निवासियों की बुलाहट हुई। अफसर ने सबके तखमीने पढ़-पढ़कर सुनाए। एक सिरे से धाँधली थी। भैरो ने कहा-"हजूर, चलकर हमारा घर देख लें, वह बड़ा है कि जगधर का! इनको तो मिलें ४००), और मुझे मिले ३००)। इस हिसाब से मुझे ६००) मिलना चाहिए।"

ठाकुरदीन बिगड़ेदिल थे ही, साफ-साफ कह दिया-"साहब, तखमीना किसी हिसाब से थोड़े ही बनाया गया है। जिसने मुँह मीठा कर दिया, उसकी चाँदी हो गई; जो भगवान के भरोसे बैठा रहा, उसकी बधिया बैठ गई। अब भी आप मौके पर चल कर जाँच नहीं करते कि ठीक-ठीक तखमीना हो जाय, गरीबों के गले रेत रहे हैं।"

अफसर ने बिगड़कर कहा—"तुम्हारे गाँव का मुखिया तो तुम्हारी तरफ से रख लिया गया था। उसकी सलाह से तखमीना किया गया है। अब कुछ नहीं हो सकता।"

ठाकुरदीन—"अपने कहलानेवाले तो और लूटते हैं।"

अफसर—"अब कुछ नहीं हो सकता।"

सूरदास की झोपड़ी का मुआवजा १) रक्खा गया था, नायकराम के घर के पूरे ३ हजार। लोगों ने कहा-"यह गाँव-घरवालों का हाल! ये हमारे सगे हैं, भाई का गला काटते हैं। उस पर घमंड यह कि हमें धन का लोभ नहीं। आखिर तो पंडा ही न, जात्रियों को ठगनेवाला! जभी तो यह हाल है। जरा-सा अखतियार पाके आँखे
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फिर गई। कहीं थानेदार होते, तो किसी को घर में न रहने देते। इसी से कहा है, गंजे के नह नहीं होते।"

मिस्टर क्लार्क के बाद मि० सेनापति जिलाधीश हो गए थे। सरकार का धन खर्च करते काँपते थे। पैसे की जगह धेले से काम निकालते थे। डरते रहते थे कि कहीं बदनाम न हो जाऊँ। उनमें वह आत्मविश्वास न था, जो गरेज अफसरों को होता है। अँगरेजों पर पक्षपात का संदेह नहीं किया जा सकता, वे निर्भीक और स्वाधीन होते हैं। मि० सेनापति को संदेह हुआ कि मुआवजे बड़ी नरमी से लिखे गए हैं। उन्होंने उसकी आधी रकम काफी समझी। अब यह मिसिल प्रांतीय सरकार के पास स्वीकृति के लिये भेजी गयी। वहाँ फिर उसकी जाँच होने लगी। इस तरह तीन महीने की अवधि गुजर गई, और मि० जॉन सेवक पुलिस के सुपरिटेंडेंट, दारोगा माहिरअली और मजदूरों के साथ मुहल्ले को खाली कराने के लिये आ पहुँचे। लोगों ने कहा, अभी तो हमको रुपये ही नहीं मिले। जॉन सेवक ने जवाब दिया, हमें तुम्हारे रुपयों से कोई मतलब नहीं, रुपये जिससे मिलें, उससे लो। हमें तो सरकार ने १ मई को मुहल्ला खाली करा देने का वचन दिया है, और अगर कोई कह दे कि आज १ मई नहीं है, तो हम लौट जायँगे। अब लोगों में बड़ी खलबली पड़ी, सरकार की क्या नियत है? क्या मुआवजा दिए बिना ही हमें निकाल दिया जायगा। घर-का-घर छोड़ें, और मुआवजा भी न मिले! यह तो बिना मौत मरे। रुपये मिल जाते, तो कहीं जमीन लेकर घर बनवाते, खाली हाथ कहाँ जाँय। क्या घर में खजाना रक्खा हुआ है! एक तो रुपया के चार आने मिलने का हुक्म हुआ, उसका भी यह हाल! न-जाने सरकार की नीयत बदल गई कि बीचवाले खाए जाते हैं।

माहिरअली ने कहा-"तुम लोगों को जो कुछ कहना-सुनना है, जाकर हाकिम जिला से कहो। मकान आज खाली करा लिए जायँगे।"

बजरंगी-"मकान कैसे खाली होंगे, कोई राहजनी है! जिस हाकिम का यह हुकुम है, उसी हाकिम का तो यह हुकुम भी है।"

माहिर-"कहता हूँ, सीधे से अपने बोरिए-बकचे लादो, और चलते-फिरते नजर आओ। नाहक हमें गुस्सा क्यों दिलाते हो? कहीं मि० हंटर को आ गया जोश, तो फिर तुम्हारी खैरियत नहीं।"

नायकराम-"दरोगाजी, दो-चार दिन की मुहलत दे दीजिए। रुपये मिलेंगे ही, ये बेचारे क्या बुरा कहते हैं कि बिना रुपये-पैसे कहाँ भटकते फिरें।"

मि० जॉन सेवक तो सुपरिटेंडेंट को साथ लेकर मिल की सैर करने चले गए थे, वहाँ चाय-पानी का प्रबंध किया गया था, माहिरअली की हुकूमत थी। बोले-"पंडाजी, ये झाँसे दूसरों को देना। यहाँ तुम्हें बहुत दिनों से देख रहे हैं, और तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। मकान आज और आज खाली होंगे।"

सहसा एक ओर से दो बच्चे खेलते हुए आ गए, दोनों नंगे पाँव थे, फटे हुए कपड़े
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पहने, पर प्रसन्न-वदन। माहिरअली को देखते ही चचा-चचा कहते हुए उसकी तरफ दौड़े। ये दोनो साबिर और नसीमा थे। कुल्सूम ने इसी मुहल्ले में एक छोटा-सा मकान १) किराए पर ले लिया था। गोदाम का मकान जॉन सेवक ने खाली करा लिया था। बेचारी इसी छोटे-से घर में पड़ी अपनी मुसीबत के दिन काट.रही थी। माहिर ने दोनों बच्चों को देखा, तो कुछ झेपते हुए बोले-"भाग जाओ, भाग जाओ, यहाँ क्या करने आए?" दिल में शरमाए कि सब लोग कहते होंगे, ये इनके भतीजे हैं, और इतने फटे हाल, यह उनकी खबर भी नहीं लेते।

नायकराम ने दोनो बच्चों को दो-दो पैसे देकर कहा-"जाओ, मिठाई खाना, ये तुम्हारे चचा नहीं हैं।" नसीमा-हूँ ! चचा तो हैं, क्या मैं पहचानती नहीं?"

नायकराम-"चचा होते, तो तुझे गोद में न उठा लेते, मिठाइयाँ न मँगा देते? तू भूल रही है।"

माहिरअली ने ऋद्ध होकर कहा -"पंडाजी, तुम्हें इन फिजूल बातों से क्या मतलब? मेरे भतीजे हों या न हों, तुमसे सरोकार? तुम किसी की निज की बातों में बोलनेवाले कौन होते हो? भागो साबिर, नसीमा भाग, नहीं तो सिपाही पकड़ लेगा।"

दोनो बालकों ने अविश्वास-पूर्ण नेत्रों से माहिरअली को देखा, और भागे। रास्ते में नसीमा ने कहा-"चचा ही-जैसे तो हैं, क्यों साबिर, चचा ही हैं न?"

साबिर-"नहीं तो और कौन हैं?"

नसीमा-"तो फिर हमें भगा क्यों दिया?"

साबिर-'जब अब्बा थे, तब न हम लोगों को प्यार करते थे! अब तो अब्बा नहीं हैं तब तो अब्बा ही सबको खिलाते थे।"

नसीमा-"अम्मा को भी तो अब अब्वा नहीं खिलाते। वह तो हम लोगों को पहले से ज्यादा प्यार करती हैं। पहले कभी पैसे न देती थीं, अब तो पैसे भी देती हैं।"

साबिर–“वह तो हमारी अम्मा हैं न।"

लड़के तो चले गए, इधर दारोगाजी ने सिपाहियों को हुक्म दिया-“फेक दो असबाब, और मकान फौरन खाली करा लो। ये लोग लात के आदमी हैं, बातों से न मानेंगे।"

दो कांस्टेबिल हुक्म पाते ही बजरंगी के घर में घुस गए, और बरतन निकाल निकाल फेकने लगे, बजरंगी बाहर लाल आँखें किए खड़ा ओठ चबा रहा था। जमुनी घर में इधर-उधर दौड़ती-फिरती थी, कभी हाँड़ियाँ उठाकर बाहर लाती, कभी फेके हुए बरतनों को समेटती। मुँह एक क्षण के लिये भी बंद न होता था-"मूड़ी काटे कारखाना बनाने चले हैं, दुनिया को उजाड़कर अपना घर भरेंगे, भगवान भी ऐसे पापियों का संहार नहीं करते, न-जाने कहाँ जाके सो गए हैं! हाय! हाय! घिहुआ की जोड़ी पटककर तोड़ डाली!" [ ४९३ ]
बजरंगी ने टूटी हुई जोड़ी उठा ली, और एक सिपाही के पास जाकर बोला-"जमादार, यह जोड़ी तोड़ डालने से तुम्हें क्या मिला? साबित उठा ले जाते, तो भला किसी काम तो आती! कुशल है कि लाल पगड़ी बाँधे हुए हो, नहीं तो आज......"

उसके मुँह से पूरी बात भी न निकली थी कि दोनो सिपाहियों ने उस पर डंडे चलाने शुरू किए, बजरंगी से अब जब्त न हो सका, लपककर एक सिपाही की गरदन एक हाथ से और दूसरे की गरदन दूसरे हाथ से पकड़ ली, और इतनी जोर से दबाई कि दोनो की आँखें निकल आई। जमुनि ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो रोती हुई बजरंगी के पास आकर बोली-तुम्हें भगवान की कसम है, जो किसी से लड़ाई करो। छोड़ो-छोड़ो! क्यों अपनी जान से बैर कर रहे हो।”

बजरंगी-"तू जा बैठ। फाँसी पा जाऊँ, तो मैके चली जाना। मैं तो इन दोनो के प्राण ही लेकर छोडूंगा।"

जमुनी-"तुम्हें घीसू की कसम, तुम मेरा ही मास खाओ, जो इन दोनो को छोड़कर यहाँ से चले न जाओ।"

बजरंगी ने दोनो सिपाहियों को छोड़ दिया, पर उसके हाथ से छूटना था कि वे दौड़े हुए माहिरअली के पास पहुँचे, और कई और सिपाहियों को लिए हुए फिर आए। पर बजरंगी को जमुनी पहले ही से टाल ले गई थी। सिपाहियों को शेर न मिला, तो शेर की माँद को पीटने लगे, घर की सारी चीजें तोड़-फोड़ डालीं। जो अपने काम की चीज नजर आई, उस पर हाथ भी साफ किया। यहो लीला दूसरे घरों में भी हो रही थी। चारों तरफ लूट मची हुई थी। किसी ने अंदर से घर के द्वार बंद कर लिए, कोई अपने बाल-बच्चों को लेकर पिछवाड़े से निकल भागा। सिपाहियों को मकान खाली कराने का हुक्म क्या मिला, लूट मचाने का हुक्म मिल गया। किसी को अपने बरतन-भाँड़े समेटने की मुहलत भी न देते थे। नायकराम के घर पर भी धावा हुआ। माहिरअली स्वयं पाँच सिपाहियों को लेकर घुसे। देखा, तो वहाँ चिड़िया का पूत भी न था,घर में झाड़ फिरी हुई थी, एक टूटी हाँडी भी न मिली। सिपाहियों के हौसले मन ही में रह गए। सोचे थे, इस घर में खूब बढ़-बढ़कर हाथ मारेंगे, पर निराश और लज्जित होकर निकलना पड़ा। बात यह थी कि नायकराम ने पहले ही अपने घर की चीजें निकाल फेकी थीं।

उधर सिपाहियों ने घरों के ताले तोड़ने शुरू किर। कहीं किसी पर मार पड़ती थी, कहीं कोई अपनी चीजें लिए भागा जाता था। चिल-पों मची हुई थी। विचित्र दृश्य था, मानों दिन दहाड़े डाका पड़ रहा हो। सब लोग घरों से निकलकर या निकाले जाकर सड़क पर जमा होते जाते थे। ऐसे अवसरों पर प्रायः उपद्रवकारियों का जमाव हो ही जाता है। लूट का प्रलोभन था ही, किसी को निवासियों से बैर था, किसी को पुलिस से अदावत, अतिक्षणशंका होती थी कि कहीं शाति न भंग हो जाय, कहीं कोई हंगामा न मच जाय। साहिरअली ने जनसमुदाय की त्योरियाँ देखीं, तो तुरत एक सिपाही को
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वह तो यहाँ तक चाहते थे कि निवासियों को कुछ रुपये पेशगी दे दिये जायँ, जिसमें वे पहले ही से अपना-अपना ठिकाना कर लें। पर किसी अज्ञात कारण से रुपये की स्वीकृति में विलंब हो रहा था। वह मि० सेनापति से बार-बार कहते कि आप मंजूरी की आशा पर अपने हुक्म से रुपये दिला दें; पर जिलाधीश कानों पर हाथ रखते थे कि न-जाने सरकार का क्या इरादा है, मैं बिना हुक्म पाए कुछ नहीं कर सकता। जब आज भी मंजूरी न आई, तो राजा साहब ने तार द्वारा पूछा। दोपहर तक वह जवाब का इंतजार करते रहे। आखिर जब इस जमाव की खबर मिली, तो घबराए। उसी वक्त दौड़े हुए जिलाधीश के बँगले पर गए कि उनसे कुछ सलाह लें। उन्हें आशा थी कि वह स्वयं घटनास्थल पर जाने को तैयार होंगे, पर वहाँ जाकर देखा, तो साहब बीमार पड़े थे। बीमारी क्या थी, बीमारी का बहाना था। बदनामी से बचने का यही उपाय था। राजा साहब से बोले- "मुझे खेद है, मैं नहीं जा सकता, आप जाकर उपद्रव को शांत करने के लिए जो उचित समझें, करें।"

महेंद्रकुमार अब बहुत घबराए, अपनी जान किसी भाँति बचती न नजर आती थी

—"अगर कहीं रक्तपात हो गया, तो मैं कहीं का न रहूँगा! सब कुछ मेरे ही सिर आएगी। पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं। आज मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत है! निरपराध मारा जा रहा हूँ! मुझ पर कुछ ऐसा सनीचर सवार हुआ है कि जो कुछ करना चाहता हूँ, उसके प्रतिकूल करता हूँ, जैसे अपने ऊपर कोई अधिकार ही न रहा हो। इस जमीन के झमेले में पड़ना ही मेरे लिये जहर हो गया। तब से कुछ ऐसी समस्याएँ उपस्थित होती चली आती हैं, जो मेरी महत्वाकांक्षाओं का सर्वनाश किए देती हैं। यह, कीर्ति, नाम, सम्मान को कौन रोए, मुँह दिखाने के लाले पड़े हुए हैं!"

यहाँ से निराश होकर वह फिर घर आए कि चलकर इंदु से राय लूँ, देखू, क्या कहती है। पर यहाँ इंदु न थी। पूछा, तो मालूम हुआ, सैर करने गई हैं।

इस समय राजा साहब की दशा उस कृपण की-सी थी, जो अपनी आँखों से अपना धन लुटते देखता हो, और इस भय से कि लोगों पर मेरे धनी होने का भेद खुल जायगा, कुछ बोल न सकता हो। अचानक उन्हें एक बात सूझी-


क्यों न मुआवजे के रुपए अपने ही पास से दे दूँ? रुपए कहीं जाते तो हैं नहीं, जब मंजूरी आ जायगी, वापस ले लूँगा। दो-चार दिन का मुआमला है, मेरी बात रह जायगी, और जनता पर इसका कितना अच्छा असर पड़ेगा! कुल सत्तर हजार तौ हैं ही। और इसकी क्या जरूरत है कि सब रुपए आज ही दे दिए जायँ? कुछ आज दे दूँ, कुछ कल, दे दूं, तब तक मंजूरी आ ही जायगी। जब लोगों को रुपए मिलने लगेंगे तो तस्कीन हो जायगी, यह भय न रहेगा कि कहीं सरकार रुपये जब्त न कर ले। खेद है, मुझे पहले यह बात न सूझी, नहीं तो इतना झमेला ही क्यों होता। उन्होंने उसी वक्त इंपीरियल बैंक के नाम बीस हजार का चेक लिखा। देर बहुत हो गई थी, इसलिये बैंक के मैनेजर के नाम एक पत्र भी लिख दिया कि रुपए देने में विलंब न कीजिएगा, नहीं
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तो शांति भंग हो जाने का भय है। बैंक से आदमी रुपए लेकर लोटा, तो पाँच बज चुके थे। तुरत मोटर पर सवार होकर पाँडेपुर आ पहुँचे। आए तो थे ऐसी शुभेच्छाओं से, पर वहाँ विनय और इन्दु को देखकर तैश आ गया। जी में आया, लोगों से कह दूँ, जिनके बूते पर उछल रहे हो, उनसे रुपए लो, इधर सरकार को लिख दूंँ कि लोग विद्रोह करने पर तैयार हैं, उनके रुपए जब्त कर लिए जायँ। उसी क्रोध में उन्होंने विनय से वे बातें कीं, जो ऊपर लिखी जा चुकी हैं। मगर जब उन्होंने देखा कि जन-समह का रेला बढ़ा चला आ रहा है, लोगों के मुख आवेश-विकृत हो रहे हैं, सशस्त्र पुलिस संगीने चढ़ाए हुए हैं, और इधर-उधर दो-चार पत्थर भी चल रहे हैं, तो उनकी वही दशा हुई, जो भय में नशे की होती है। तुरत मोटर पर खड़े हो गए, और जोर से चिल्लाकर बोले-"मित्रो, जरा शांत हो जाओ। यों दंगा करने से कुछ न होगा। मैं रुपए लाया हूँ, अभी तुमको मुआवजा मिल जायगा। सरकार ने अभी मंजरी नहीं भेजी है, लेकिन तुम्हारी इच्छा हो, तो तुम मुझसे अपने रुपए ले सकते हो। इतनी-सी बात के वास्ते तुम्हारा यह दुराग्रह सर्वथा अनुचित है। मैं जानता हूँ कि यह तुम्हारा दोष नहीं है, तुमने किसी के बहकाने से ही शरारत पर कमर बाँधी है। लेकिन मैं तुम्हें उस विद्रोह ज्वाला में न कूदने दूंगा, जो तुम्हारे शुभचिंतकों ने तैयार कर रक्खी है। यह लो, तुम्हारे रुपए हैं। सब आदमी बारी बारी से आकर अपने नाम लिखाओ, अँगूठे का निशान करो, रुपए लो, और चुपके-चुपके घर जाओ।"

एक आदमी ने कहा—"घर तो आपने छीन लिए।"

राजा-"रुपयों से घर मिलने में देर न लगेगी, हमसे तुम्हारी जो कुछ सहायता हो सकेगी, वह उठा न रक्खेंगे। इस भीड़ को तुरंत हट जाना चाहिए, नहीं तो रुपए मिलने में देर होगी।"

जो जन-समूह उमड़े हुए बादलों की तरह भयंकर और गंभीर हो रहा था, यह घोषणा सुनते ही रुई के गालों की भांति फट गया। न-जाने लोग कहाँ समा गए। केवल वे ही लोग रह गए, जिन्हें रुपये पाने थे। सामयिक सुबुद्धि मँडलाती हुई विपत्ति का कितनी सुगमता से निवारण कर सकती है, इसका यह उज्ज्वल प्रमाण था। एक अनुचित शब्द, एक कठोर वाक्य अवस्था को असाध्य बना देता।

पटवादी ने नामावली पढ़नी शुरू की। राजा साहब अपने हाथों से रुपए बाँटने लगे। आसामी रुपये लेता था, अँगूठे का निशान बनाता था, और तब दो सिपाही उसके साथ कर दिए जाते थे कि जाकर मकान खाली करा लें।

रुपए पाकर लौटते हुए लोग यों बातें करते जाते थे-

एक मुसलमान—“यह राजा बड़ा मूजी है; सरकार ने रुपये भेज दिए थे, पर दबाए बैठा था। हम लोग गरम न पड़ते, तो हजम कर जाता।"

दूसरा—“सोचा होगा, मकान खाली करा लूँ, और रुपए सरकार को वापस करके सुर्खरू बन जाऊँ।"

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एक ब्राह्मण ने इसका विरोध किया-"क्या बकते हो वेचारे ने रुपये अपने पास से दिए हैं।"

तीसरा-तुम गौखे हो, ये चालें क्या जानो, जाके पोथी पढ़ो, और पैसे ठगो।”

चौथा-"सबों ने पहले ही सलाह कर ली होगी। आपस में रुपए बाँट लेते, हम लोग ठाठ ही पर रह जाते।"

एक मुंशोजी बोले-इतना भी न करें, तो सरकार कैसे खुश हो। इन्हें चाहिए था कि रिआया की तरफ से सरकार से लड़ते, मगर आप नुद ही खुशामदी टट्ट बने हुए हैं। सरकार का दबाव तो हीला है।

पाँचवाँ-"तो यह समझ लो, हम लोग न आ जाते, तो बेचारों को कौड़ी भी न मिलती। घर से निकल जाने पर कौन देता है, और कौन लेता है! बेचारे माँगने जाते, तो चपरासियों से मारकर निकलवा देते।”

जनता की दृष्टि में एक बार विश्वास खोकर फिर जमाना मुश्किल है। राजा साहब को जनता के दरबार से यह उपहार मिल रहा था!

संध्या हो गई थी। चार-ही-पाँच असामियों को रुपए मिलने पाए थे कि अँधेरा हो गया। राजा साहब ने लैंप की रोशनी में नौ बजे रात तक रुपये बाँटे। तब नायकराम ने कहा——

"सरकार, अब तो बहुत देर हुई। न हो, कल पर उठा रखिए।"

राजा साहब भी थक गए थे, जनता को भी अब रुपए मिलने में कोई बाधा न दीखती थी, काम कल के लिए स्थगित कर दिया गया। मगर सशस्त्र पुलिस ने वहीं डेरा जमाया कि कहीं फिर न लोग जमा हो जाँय।

दूसरे दिन दस बजे फिर राजा साहब आए, विनय और इंद्रदत्त भी कई सेवकों के साथ आ पहुँचे। नामावली खोली गई। सबसे पहले सूरदास की तलबी हुई। लाठी टेकता हुआ आकर राजा साहब के सामने खड़ा हो गया।

राजा साहब ने उसे सिर से पाँव तक देखा, और बोले-'तुम्हारे मकान का मुआवजा केवल १) है, यह लो, और घर खाली कर दो।"

सूरदास—"कैसा रुपया?"

राजा—"अभी तुम्हें मालूम ही नहीं, तुम्हारा मकान सरकार ने ले लिया है। यह उसी का मुआवजा है।"

सूरदास—"मैंने तो अपना मकान बेचने को किसी से नहीं कहा।"

राजा—"और लोग भी तो खाली कर रहे हैं।"

सूरदास-जो लोग छोड़ने पर राजी हों, उन्हें दीजिए। मेरी झोपड़ी रहने दीजिए। पड़ा रहूँगा, और हजूर का कल्यान मनाता रहूँगा।"

राजा—“यह तुम्हारी इच्छा की बात नहीं है, सरकारी हुक्म है। सरकार को इस
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जमीन की जरूरत है। यह क्योंकर हो सकता है कि और मकान गिरा दिए जायँ, और तुम्हारा झोंपड़ा बना रहे?"

सूरदास-"सरकार के पास जमीन की क्या कमी है। सारा मुलुक पड़ा हुआ है। एक गरीब की झोपड़ी छोड़ देने से उसका काम थोड़े ही रुक जायगा।”

राजा-"व्यर्थ की हुजत करते हो, यह रुपया लो, अँगूठे का निशान बनाओ, और जाकर झोपड़ी में से अपना सामान निकाल लो।"

सूरदास-“सरकार जमीन लेकर क्या करेगी? यहाँ कोई मन्दिर बनेगा? कोई तालाब खुदेगा? कोई धरमशाला बनेगी? बताइए।"

राजा-"यह मैं कुछ नहीं जानता।"

सूरदास-"जानते क्यों नहीं, दुनिया जानती है, बच्चा-बच्चा जानता है। पुतली घर के मजूरों के लिए घर बनेंगे। बनेंगे, तो उससे मेरा क्या फायदा होगा कि धर छोड़कर निकल जाऊँ! जो कुछ फायदा होगा, साहब को होगा। परजा की तो बरवादी ही है। ऐसे काम के लिए मैं अपना झोपड़ा न छोड़ेगा। हाँ, कोई धरम का काम होता, तो सबसे पहले मैं अपना झोंपड़ा दे देता। इस तरह जबरजस्ती करने का आपको अख्तियार है, सिपाहियों को हुक्म दे दें, फूस में आग लगते कितनी देर लगती है। पर यह न्याय नहीं है। पुराने जमाने में एक राजा अपना बगीचा बनवाने लगा, तो एक बुढ़िया की झोपड़ी बीच में पड़ गई। राजा ने उसे बुलाकर कहा, तू यह झोपड़ी मुझे दे दे, जितने रुपये कह, तुझे दे दूँ, जहाँ कह, तेरे लिए घर बनवा दूं। बुढ़िया ने कहा, मेरा झोपड़ा रहने दीजिए। जब दुनिया देखेगी कि आपके बगीचे के एक कोने में बुढ़िया की झोपड़ी है, तो आपके धरम और न्याय को बड़ाई करेगी। बगीचे को दीवार दस पाँच हाथ टेढ़ी हो जायगी, पर इससे आपका नाम सदा के लिए अमर हो जायगा। राजा ने बुढ़िया की झोपड़ी छोड़ दी। सरकार का धरम परजा को पालना है कि उसका घर उजाड़ना, उसको बरबाद करना?"

राजा साहब ने झुंझलाकर कहा-“मैं तुमसे दलील करने नहीं आया हूँ, सरकारी हुक्म की तामील करने आया हूँ।"

सूरदासू-"हजूर, मेरी मजाल है कि आपसे दलील कर सकूँ। मगर मुझे उजड़िए मत, बाप-दादों की निशानी यही झोपड़ी रह गई है, इसे बनी रहने दीजिए।'

राजा साहब को इतना अवकाश कहाँ था कि एक-एक असामी से घण्टों वाद-विवाद करते। उन्होंने दूसरे आदमी के बुलाने का हुक्म दिया।

इन्द्रदत्त ने देखा कि सूरदास अब भी वहीं खड़ा है, हटने का नाम नहीं लेता, तो डरे कि राजा साहब कहीं उसे सिपाहियों से धक्के देकर हटवा न दें। धीरे से उसका हाथ पकड़कर अलग ले गए, और बोले-"सूरे, है तो अन्याय; मगर क्या करोगे, झोंपड़ी तो छोड़नी ही पड़ेगी। जो कुछ मिलता है, ले लो। राजा साहब की बदनामी का डर है, नहीं तो मैं तुमसे लेने को न कहता।" [ ४९८ ]
कई आदमियों ने इन लोगों को घेर लिया। ऐसे अवसरों पर लोगों की उत्सुकता बढ़ी हुई होती है। क्या हुआ? क्या कहा? क्या जवाब दिया। सभी इन प्रश्नों के जिज्ञासु होते हैं। सूरदास ने सजल नेत्रों से ताकते हुए आवेश कंपित कंठ से कहा- "भैया, तुम भी कहते हो कि रुपया ले लो! मुझे तो इस पुतलीघर ने पीस डाला। बाप-दादों की निशानी दस बीघे जमीन थी, वह पहले ही निकल गई, अब यह झोपड़ी भी छीनी जा रही है। संसार इसी माया-मोह का नाम है। जब इससे मुक्त हो जाऊँगा, तो झोपड़ी में रहने न आऊँगा। लेकिन जब तक जीता हूँ, अपना घर मुझसे न छोड़ा जायगा। अपना घर है, नहीं देते। हाँ, जबरदस्ती जो चाहे, ले ले।"

इन्द्रदत्त-"जबरदस्ती कोई नहीं कर रहा है! कानून के अनुसार ही ये मकान खाली कराये जा रहे हैं। सरकार को अधिकार है कि वह किसी सरकारी काम के लिए जो मकान या जमीन चाहे ले ले।"

सूरदास-"होगा कानून, मैं तो एक धरम का कानून जानता हूँ, इस तरह जबर-जस्ती करने के लिए जो कानून चाहे, बना लो। यहाँ कोई सरकार का हाथ पकड़ने-वाला तो है नहीं। उसके सलाहकार भी तो सेठ-महाजन ही हैं।"

इंद्रदत्त ने राजा साहब के पास जाकर कहा-"आज अंधे का मुआमला आज स्थगित कर दें, तो अच्छा हो। गँवार आदमी, बात नहीं समझता, बस अपनी ही गाये जाता है।"

राजा ने सूरदास को कुपित नेत्रों से देखकर कहा-"गँवार नहीं है, छटा हुआ बदमाश है। हमें और तुम्हें, दोनों ही को कानून पढ़ा सकता है। है भिखारी, मगर टर्रा। मैं इसका झोंपड़ा गिरवाये देता हूँ।"

इस वाक्य के अंतिम शब्द सूरदास के कानों में पड़ गये। बोला-"झोंपड़ा क्यों गिरवाइएगा? इससे तो यही अच्छा कि मुझो को गोली मरवा दीजिए।"

यह कहकर सूरदास लाठी टेकता हुआ वहाँ से चला गया। राजा साहब को उसकी धृष्टता पर क्रोध आ गया। ऐश्वर्य अपने को बड़ी मुश्किल से भूलता है, विशेषतः जब दूसरों के सामने उसका अपमान किया जाय। माहिरअली को बुलाकर कहा-"इसकी झोपड़ी अभी गिरा दो।"

दारोगा माहिरअली चले, निःशस्त्र पुलिस और सशस्त्र पुलिस और मजदूरों का एक दल उनके साथ चला, मानों किसी किले पर धावा करने जा रहे हैं। उनके पीछे-पीछे जनता का एक समूह भी चला। राजा ने इन आदमियों के तेवर देखे, तो होश उड़ गये। उपद्रव की आशंका हुई। झोपड़े को गिराना इतना सरल न प्रतीत हुआ, जितना उन्होंने समझा था। पछताये कि मैंने व्यर्थं माहिरअली को यह हुक्म दिया। जब मुहल्ला मैदान हो जावा, तो झोपड़ा आप-ही-आप उजड़ जाता, सूरदास कोई भूत तो है नहीं कि अकेला उसमें पड़ा रहता। मैंने चिवटी को तलवार से मारने की चेष्टा की! माहिरअली क्रोधी आदमी है, और इन आदमियों के रुख भी बदले हुए हैं। [ ४९९ ]
जनता क्रोध में अपने को भूल जाती है, मौत पर हँसती है। कहीं माहिरअली उतावली कर बैठा, तो निस्संदेह उपद्रव हो जायगा। इसका सारा इलजाम मेरे सिर जायगा। यह अंधा आप तो डूबा ही हुआ है, मुझे भी डुबाये देता है। बुरी तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है। लेकिन इस समय वह हाकिम की हैसियत में थे। हुक्म को वापस न ले सकते थे। सरकार की आबरू में बट्टा लगने से कहीं ज्यादा भय अपनी आबरू में बट्टा लगने का था। अब यही एक उपाय था कि जनता को झोंपड़े की ओर न जाने दिया जाय। सुपरिटेंडेंट अभी-अभी मिल से लौटा था, और घोड़े पर सवार सिगार पी रहा था कि राजा साहब ने जाकर उससे कहा-इन आदमियों को रोकना चाहिए।"

उसने कहा-"जाने दीजिए, कोई हरज नहीं, शिकार होगा।"

"भीषण हत्या होगी।"

"हम इसके लिए तैयार हैं।"

विनय के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। न आगे जाते बनता था, न पीछे। घोर आत्मवेदना का अनुभव करते हुए बोले-"इंद्र, मैं बड़े संकट में हूँ।"

इंद्रदत्त ने कहा-"इसमें क्या संदेह है!"

"जनता को काबू में रखना कठिन है।"

"आप जाइए, मैं देख लूँगा। आपका यहाँ रहना उचित नहीं।"

"तुम अकेले हो जाओगे!"

"कोई चिंता नहीं।"

"तुम भी मेरे साथ क्यों नहीं चलते? अब हम यहाँ रहकर क्या कर लेंगे, हम अपने कर्तव्य का पालन कर चुके।"

“आप जाइए। आपको जो संकट है, वह मुझे नहीं। मुझे अपने किसी आत्मीय के मानअपमान का भय नहीं।"

विनय वहीं अशांत और निश्चल खड़े रहे, या यों कहो कि गड़े रहे, मानों कोई स्त्री घर से निकाल दी गई हो। इंद्रदत्त उन्हें वहीं छोड़कर आगे बढ़े, तो जन-समूह उसी गली के मोड़ पर रुका हुआ था, जो सूरदास के झोंपड़े की ओर जाती थी। गली के द्वार पर पाँच सिपाही संगीनें चढ़ाये खड़े थे। एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था। संगीनों की दीवार सामने खड़ी थी।

इंद्रदत्त ने एक कुएँ की जगत पर खड़े होकर उच्च स्वर से कहा—“भाइयो, सोच लो, तुम लोग क्या चाहते हो? क्या इस झोपड़ी के लिए पुलिस से लड़ोगे? अपना और अपने भाइयों का रक्त बहाओगे? इन दामों यह झोपड़ी बहुत महँगी है। अगर उसे बचाना चाहते हो, तो इन आदमियों ही से विनय करो, जो इस वक्त वरदी पहने, संगोनें चढ़ाये, यमदूत बने हुए तुम्हारे सामने खड़े हैं, और यद्यपि प्रकट रूप से वे तुम्हारे शत्रु हैं, पर उनमें एक भी ऐसा न होगा, जिसका हृदय तुम्हारे साथ न हो, जो एक असहाय, दुर्बल, अंधे की झोंपड़ी गिराने में अपनी दिलावरी समझता हो। [ ५०० ]
इनमें सभी भले आदमी हैं, जिनके बाल-बच्चे हैं, जो थोड़े वेतन पर तुम्हारे जान-माल की रक्षा करने के लिए घर से आये हैं।"

एक आदमी-"हमारे जान-माल की रक्षा करते हैं, या सरकार के रोब-दाब की?"

इंद्रदत्त"-एक ही बात है । तुम्हारे जान-माल की रक्षा के लिए सरकार के रोब-दाब की रक्षा करनी परमावश्यक है। इन्हें जो वेतन मिलता है, वह एक मजूर से भी कम है...।"

एक प्रश्न-"बग्घी-इक्केवालों से पैसे नहीं लेते।"

दूसरा प्रश्न-"चोरियाँ नहीं कराते १ जुआ नहीं खेलाते १ घूस नहीं खाते?"

इंद्रदत्त-"यह सब इसीलिए होता है कि वेतन जितना मिलना चाहिए, उतना नहीं मिलता। ये भी हमारी और तुम्हारी भाँति मनुष्य हैं, इनमें भी दया और विवेक है, ये भी दुर्बलों पर हाथ उठाना नीचता समझते हैं। जो कुछ करते हैं, मजबूर होकर। इन्हीं से कहो, अंधे पर तरस खाये, उसकी झोपड़ी बचायें। (सिपाहियों से) क्यों मित्रो, तुमसे इस दया की आशा रखें? इन मनुष्यों पर क्या करोगे?"

इंद्रदत्त ने एक और जनता के मन में सिपाहियों के प्रति सहानुभूति उत्पन्न करने की चेष्टा की और दूसरी ओर सिपाहियों की मनोगत दया को जाग्रत करने की। हवलदार संगीनों के पीछे खड़ा था। बोला-"हमारी रोजी बचाकर और जो चाहे कीजिए। इधर से न जाइए।"

इंद्रदत्त-"तो रोजी के लिए इतने प्राणियों का सर्वनाश कर दोगे? ये बेचारे भी तो एक दीन की रक्षा करने आये हैं। जो ईश्वर यहाँ तुम्हारा पालन करता है, वह क्या किसी दूसरी जगह तुम्हें भूखों मारेगा? अरे! यह कौन पत्थर फेकता है? याद रखो, तुम लोग न्याय की रक्षा करने आये हो, बलवा करने नहीं। ऐसे नीच आघातों से अपने को कलंकित न करो। मत हाथ उठाओ, अगर तुम्हारे ऊपर गोलियों की बाढ़ भी चले.....।"

इंद्रदत्त को कुछ और कहने का अवसर न मिला। सुपरिटेंडेंट ने गली के मोड़ पर आदमियों का जमाव देखा, तो घोड़ा दौड़ाता इधर चला। इंद्रदत्त की आवाज कानों में पड़ी, तो डाँटकर बोला-"हटा दो इसको। इन सब आदमियों को अभी सामने से हटा दो। तुम सब आदमी अभी हट जाओ, नहीं हम गोली मार देगा।"

समूह जौ-भर भी न हटा।

"अभी हट जाओ, नहीं हम फायर कर देगा।"

कोई आदमी अपनी जगह से न हिला।

सुपरिटेंडेंट ने तीसरी बार आदमियों को हट जाने की आज्ञा दी।

समूह शांत, गंभीर, स्थिर रहा।

फायर करने की आशा हुई, सिपाहियों ने बंदूकें हाथ में लीं। इतने में राजा साहब बदहवास आकर बोले—"For God's sake Mr. Brown spare me!" [ ५०१ ]
लेकिन हुक्म हो चुका था। बाढ़ चली, बंदूकों के मुँह से धुआँ निकला, घाँय-धाँय की रोमांचकारी ध्वनि निकली और कई आदमी चक्कर खाकर गिर पड़े। समूह की ओर से पत्थरों की बौछार होने लगी। दो-चार टहनियाँ गिर पड़ी थीं, किंतु वृक्ष अभी तक खड़ा था।

फिर बंदूक चलाने की आज्ञा हुई। राजा साहब ने अबकी बहुत गिड़गिड़ाकर कहा-"Mr. Brown,these,shots'are piercing my heart" किंतु आज्ञा मिल चुकी थी, दूसरी बाढ़ चली, फिर कई आदमी गिर पड़े। डालियाँ गिरी, लेकिन वृक्ष स्थिर खड़ा रहा।

तीसरी बार फायर करने की आज्ञा दी गई। राजा साहब ने सजल-नयन होकर व्यथित कंठ से कहा-Mr. Brown, now I am done for!” बाढ़ चली, कई आदमी गिरे और उनके साथ इंद्रदत्त भी गिरे। गोली वक्षःस्थल को चीरती हुई पार हो गई थी। वृक्ष का तना गिर गया!

समूह में भगदर पड़ गई। लोग गिरते-पड़ते, एक दूसरे को कुचलते, भाग खड़े हुए। कोई किसी पेड़ की आड़ में छिपा, कोई किसी घर में घुस गया, कोई सड़क के किनारे की खाइयों में जा बैठा; पर अधिकांश लोग वहाँ से हटकर सड़क पर आ खड़े हुए।

नायकराम ने विनयसिंह से कहा- "भैया, क्या खड़े हो, इंद्रदत्त को गोली लग गई।"

विनय अभी तक उदासीन भाव से खड़े थे। यह खबर पाते ही गोली-सी लग गई। बेतहाशा दौड़े, और संगीनों के सामने, गली के द्वार पर, आकर खड़े हो गये। उन्हें देखते ही भागनेवाले सँभल गये; जो छिपे बैठे थे, निकल पड़े। जब ऐसे-ऐसे लोग मरने को तैयार हैं, जिनके लिए संसार में सुख-ही-सुख है, तो फिर हम किस गिनती में हैं! यह विचार लोगों के मन में उठा। गिरती हुई दीवार फिर खड़ी हो गई। सुपरिंटेंडेंट ने दाँत पीसकर चौथी बार फायर करने का हुक्म दिया। लेकिन यह क्या? कोई सिपाही बंदूक नहीं चलाता, हवलदार ने बंदूक जमीन पर पटक दी, सिपाहियों ने भी उसके साथ ही अपनी-अपनी बंदूकें रख दीं। हवलदार बोला- “हुजूर को अख्तियार है, जो चाहें करें; लेकिन अब हम लोग गोली नहीं चला सकते। हम भी मनुष्य हैं, हत्यारे नहीं।"

ब्रॉउन-“कोर्टमार्शल होगा।"

हवलदार-"हो जाय।"

ब्रॉउन-"नमकहराम लोग!"

हवलदार-"अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहीं, उनकी रक्षा करने के लिये नौकरी की थी!"

यह कहकर सब-के-सब पीछे की ओर फिर गए, और सूरदास के झोंपड़े की तरफ चले। उनके साथ ही कई हजार आदमी जय-जयकार करते हुए चले। विनय उनके
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आगे-आगे थे। राजा साहब और ब्रॉउन, दोनों खोये हुए-से खड़े थे। उनकी आँखों के सामने एक ऐसी घटना घटित हो रही थी, जो पुलिस के इतिहास में एक नूतन युग की सूचना दे रही थी, जो परंपरा के विरुद्ध, मानव-प्रकृति के विरुद्ध, नीति के विरुद्ध थी। सरकार के वे पुराने सेवक, जिनमें से कितनों ही ने अपने जीवन का अधिकांश प्रजा का दमन करने ही में व्यतीत किया था, यों अकड़ते हुए चले जायें! अपना सर्वस्व, यहाँ तक कि प्राणों को भी, समर्पित करने को तैयार हो जाये! राजा साहब अब तक उत्तरदायित्व के भार से काँप रहे थे, अब यह भय हुआ कि कहीं ये लोग मुझ पर टूट न पड़ें। ब्रॉउन तो घोड़े पर सवार आदमियों को हंटर मार-मारकर भगाने की चेष्टा कर रहा था और राजा साहब अपने लिए छिपने की कोई जगह तलाश कर रहे थे, लेकिन किसी ने उनकी तरफ ताका भी नहीं। सब-के-सब विजय-घोष करते हुए, तरल वेग से सूरदास की झोपड़ी की ओर दौड़े चले जाते थे। वहाँ पहुँचकर देखा, तो झोपड़े के चारों तरफ सैकड़ों आदमी खड़े थे, माहिरअली अपने आदमियों के साथ नीम के वृक्ष के नीचे खड़े नई सशस्त्र पुलिस की प्रतीक्षा कर रहे थे, हिम्मत न पड़ती थी कि इस व्यूह को चीरकर झोपड़े के पास जायँ। सबके आगे नायकराम कंधे पर लठ रखे खड़े थे। इस व्यूह के मध्य में, झोंपड़े के द्वार पर, सूरदास सिर झुकाये बैठा हुआ था, मानों धैर्य, आत्मबल और शांत तेज की सजीव मूर्ति हो।

विनय को देखते ही नायकराम आकर बोला—"भैया, तुम अब कुछ चिंता मत करो! मैं यहाँ सँभाल लूँगा। इधर महीनों से सूरदास से मेरी अनबन थी, बोल-चाल तक बंद था, पर आज उसका जीवट-जिगर देखकर दंग हो गया। एक अंधे अपाहिज में यह हियाव! हम लोग देखने ही को मिट्टी का यह बोझ लादे हुए हैं।"

विनय-"इंद्रदत्त का मरना गजब हो गया!"

नायकराम-“भैया, दिल न छोटा करो, भगवान की यही इच्छा होगी!"

विनय-"कितनी वीर-मृत्यु पाई है।"

नायकराम-“मैं तो खड़ा देखता ही था, माथे पर सिकन तक नहीं आई।"

विनय-"मुझे क्या मालूम था कि आज यह नौबत आयेगी, नहीं पहले खुद जाता। वह अकेले सेवा-दल का काम सँभाल सकते थे, मैं नहीं सँभाल सकता। कितना सहास मुख था! कठिनाइयों को तो ध्यान में ही न लाते थे, आग में कूदने के लिए तैयार रहते थे। कुशल यही है कि अभी विवाह नहीं हुआ था।"

नायकराम-“घरवाले कितना जोर देते रहे, पर इन्होंने एक बार नहीं करके फिर हाँन की।"

विनय—"एक युवती के प्राण बच गये।"

नायकराम—“कहाँ की बात भैया, ब्याह हो गया होता, तो वह इस तरह बेधड़क गोलियों के सामने जाते ही न। बेचारे माता-पिता का क्या हाल होगा!”

विनय—"रो-रोकर मर जायँगे और क्या।" [ ५०३ ]
नायकराम-"इतना अच्छा है कि और कई भाई हैं, और घर के पोढ़े हैं।"

विनय-"देखो, इन सिपाहियों की क्या गति होती है। कल तक फौज आ जायगी। इन गरीबों की भी कुछ फिक्र करनी चाहिए।"

नायकराम-"क्या फिकिर करोगे भैया? उनका कोर्टमार्शल होगा। भागकर कहाँ जायँगे?"

विनय-"यही तो उनसे कहना है कि भागें नहीं, जो कुछ किया है, उसका यश लेने से न डरें हवलदार को फाँसी हो जायगी।"

यह कहते हुए दोनों आदमी झोंपड़े के पास आये, तो हवलदार बोला-"कुँवर साहब, मेरा तो कोर्टमर्शल होगा ही, मेरे बाल-बच्चों की खबर लीजिएगा।" यह कहते-कहते वह धाड़ मार-मार रोने लगा।

बहुत-से आदमी जमा हो गये और कहने लगे-"कुँवर साहब, चंदा खोल दीजिए। हवलदार! तुम सच्चे सूरमा हो, जो निर्बलों पर हाथ नहीं उठाते।”

विनय-"हवलदार, हमसे जो कुछ हो सकेगा, वह उठा न रखेंगे। आज तुमने हमारे मुख की लाली रख ली।”

हवलदार-"कुँवर साहब, मरने-जीने की चिंता नहीं, मरना तो एक दिन होगा ही, अपने भाइयों की सेवा करते हुए मारे जाने से बढ़कर और कौन मौत होगी? धन्य है आपको, जो सुख-विलास त्यागे हुए अभागों की रक्षा कर रहे हैं।"

विनय-"तुम्हारे साथ के जो आदमी नौकरी करना चाहें, उन्हें हमारे यहाँ जगह मिल सकती है।"

हवलदार-“देखिए, कौन बचता है और कौन मरता है।"

राजा साहब ने अवसर पाया, तो मोटर पर बैठकर हवा हो गये। मि० ब्राउन सैनिक सहायता के विषय में जिलाधीश से पगमर्श करने चले गये। माहिरअली और उनके सिपाही वहाँ जमे रहे। अँधेरा हो गया था, जनता भी एक-एक करके जाने लगी। सहसा सूरदास आकर बोला-"कुँवरजी कहाँ हैं? धर्मावतार, हाथ-भर जमीन के लिए क्यों इतना झंझट करते हो। मेरे कारन आज इतने आदमियों की जान गई। मैं क्या जानता था कि राई का परबत हो जायगा, नहीं तो अपने हाँथों से इस झोपड़े में आग लगा देता और मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाता। मुझे क्या करना था, जहीं माँगता, वहीं पड़ रहता। भैया, मुझसे यह नहीं देखा जाता कि मेरी झोंपड़ी के पीछे कितने ही घर उजड़ जायँ। जब मर जाऊँ, तो जो जी में आये, करना।"

विनय—"तुम्हारी झोपड़ी नहीं, यह हमारा जातीय मंदिर है। हम इस पर फावड़े चलते देखकर शांत नहीं बैठे रह सकते।"

सूरदास—“पहले मेरी देह पर फावड़ा चल चुकेगा, तब घर पर फावड़ा चलेगा।"

विनय—"और अगर आग लगा दें?"

सूरदास—"तब तो मेरी चिता बनी-बनाई है। भैया, मैं तुमसे और सब भाइयों से
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हाथ जोड़कर कहता हूँ कि अगर मेरे कारन किसी माँ की गोद सुनी हुई, या मेरी कोई बहन बिधवा हुई, तो मैं इस झोपड़ी में आग लगाकर जल मरूँगा।"

विनय ने नायकराम से कहा-"अब?"

नायकराम - "बात का धनी है; जो कहेगा, जरूर करेगा।"

विनय-"तो फिर अभी इसी तरह चलने दो। देखो, उधर से कल क्या गुल खिलता है। उनका इरादा देखकर हम लोग सोचेंगे, हमें क्या करना चाहिए। अब चलो, अपने वीरों की सद्गति करें। ये हमारे कौमी शहीद हैं, इनका जनाजा धूम से निकलना चाहिए।"

नौ बजते-बजते नौ अर्थियाँ निकलीं और तीन जनाजे। आगे-आगे इंद्रदत्त की अर्थी थी, पीछे-पीछे अन्य वीरों की। जनाजे कबरिस्तान की तरफ गये। अर्थियों के पीछे कोई दस हजार आदमी, नंगे सिर, नंगे पाँव, सिर झुकाये, चले जाते थे। पग-पग पर समूह बढ़ता जाता था, चारों ओर से लोग दौड़े चले आते थे। लेकिन किसी के मुख पर शोक या वेदना का चिह्न न था, न किसी आँख में आँसू थे, न किसी कंठ से आर्तनाद की ध्वनि निकलती थी। इसके प्रतिकूल लोगों के हृदय गर्व से फूले हुए थे, आँखों में स्वदेशामिमान का मद भरा हुआ था। यदि इस समय रास्ते में तोपें चड़ा दी जाती, तो भी जनता के कदम पीछे न हटते। न कहीं शोक-ध्वनि थी, न विजय-नाद था, अलौकिक निःस्तब्धता थी, भावमयी, प्रवाहमयी, उल्लासमयी!

रास्ते में राजा महेंद्रकुमार का भवन मिला। राजा साहब छत पर खड़े यह दृश्य देख रहे थे। द्वार पर सशस्त्र रक्षकों का एक दल संगीनें चढ़ाये खड़ा था। ज्यों ही अर्थियाँ उनके द्वार के सामने से निकलीं, एक रमणी अंदर से निकलकर जन-प्रवाह में मिल गई। यह इंदु थी। उस पर किसी की निगाह न पड़ी। उसके हाथों में गुलाब के फूलों की एक माला थी, जो उसने स्वयं गूं थी थी। वह यह हार लिये हुए आगे बढ़ी और इंद्रदत्त की अर्थी के पास जाकर अश्रुबिंदुओं के साथ उस पर चढ़ा दिया। विनय ने देख लिया। बोले-"इंदु!” इंदु ने उनकी ओर जल-पूरित लोचनों से देखा, और कुछ न बोली-कुछ बोल न सकी।

गंगे! ऐसा प्रभावशाली दृश्य कदाचित् तुम्हारी आँखों ने भी न देखा होगा। तुमने बड़े-बड़े वीरों को भस्म का ढेर होते देखा है, जो शेरों का मुँह फेर सकते थे, बड़े-बड़े प्रतापी भूपति तुम्हारी आँखों के सामने राख में मिल गये, जिनके सिंहनाद से दिक्पाल थर्राते थे, बड़े-बड़े प्रभुत्वशाली योद्धा यहाँ चिताग्नि में समा गये! कोई यश और कीर्ति का उपासक था, कोई राज्य विस्तार का, कोई मत्सर-ममत्व का कितने ज्ञानी, विरागी, योगी, पंडित तुम्हारी आँखों के सामने चितारूढ़ हो गये। सच कहना, कभी तुम्हारा हृदय इतना आनंद-पुलकित हुआ था? कभी तुम्हारी तरंगों ने इस भाँति सिर उठाया था? अपने लिए सभी मरते हैं, कोई इह-लोक के लिए, कोई पर
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लोक के लिए। आज तुम्हारी गोद में वे लोग आ रहे हैं, जो निष्काम थे, जिन्होंने पवित्र विशुद्ध न्याय की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया!

और, ऐसा मंगलमय शोक-समाज भी तुमने कभी देखा, जिसका एक-एक अंग भ्रातृप्रेम, स्वजाति-प्रेम और वीर भक्ति से परिपूर्ण हो?

रात-भर ज्वाला उठती रही, मानों वीरात्माएँ अग्नि-विमान पर बैठी हुई स्वर्गलोक को जा रही हैं।

ऊषा-काल की स्वर्णमयी किरणें चिताओं से प्रेमालिंगन करने लगी। यह सूर्यदेव का आशीर्वाद था।

लौटते समय तक केवल गिने-गिनाये लोग रह गये थे। महिलाएँ वीरगान करती हुई चली आती थीं। रानी जाह्नवी आगे-आगे थीं, सोफी इंदु और कई अन्य महिलाएँ पीछे। उनकी वीर-रस में डूबी हुई मधुर संगीत-ध्वनि प्रभात की आलोक-रश्यियों पर नृत्य कर रही थी, जैसे हृदय की तंत्रियों पर अनुराग नृत्य करता है।