रंगभूमि/४१
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प्रभु सेवक ने तीन वर्ष अमेरिका में रहकर और हजारों रुपये खर्च करके जो अनुभव और ज्ञान प्राप्त किया था, वह मि० जॉन सेवक ने उनकी संगति से उतने ही महीनों में प्राप्त कर लिया। इतना ही नहीं, प्रभु सेवक की भाँति वह केवछ बतलाये हुए मार्ग पर आँखें बन्द करके चलने पर ही सन्तुष्ट न थे, उनकी निगाह आगे-पीछे, दायें-बायें भी रहती थी। विशेषज्ञों में एक संकीर्णता होती है, जो उनकी दृष्टि को सीमित रखती है। वह किसी विषय पर स्वाधीन होकर विस्तीर्ण दृष्टि नहीं डाल सकते, नियम, सिद्धान्त और परम्परागत व्यवहार उनकी दृष्टि को फैलने नहीं देते। वैद्य प्रत्येक रोग की औषधि ग्रन्थों में खोजता है; वह केवल निदान का दास है, लक्षणों का गुलाम, वह यह नहीं जानता कि कितने ही रोगों की औपधि लुकमान के पास भी न थी। सहज बुद्धि अगर सूक्ष्मदर्शी नहीं होती, तो संकुचित भी नहीं होती। वह हरएक विषय पर व्यापक रीति से विचार कर सकती, जरा-जरा-सी बातों में उलझकर नहीं रह जाती। यही कारण है कि मन्त्री-भवन में बैठा हुआ सेना-मंत्री सेनापति पर शासन करता है। प्रभु सेवक के पृथक्हो जाने से मि० जॉन सेवक लेश-मात्र भी चिन्तित नहीं हुए। वह दूने उत्साह से काम करने लगे। व्यवहार-कुशल मनुष्य थे। जितनी आसानी से कार्यालय में बैठकर बही-खाते लिख सकते थे, उतनी ही आसानी से अवसर पड़ने पर एजिन के पहियों को भी चला सकते थे। पहले कभी-कभी सरसरी निगाह से मिल को देख लिया करते थे, अब नियमानुसार और यथासमय जाते बहुधा दिन को भोजन वहीं करते और शाम को घर आते। कभी-कभी रात के नौ-दस बज जाते। वह प्रभु सेवक को दिखा देना चाहते थे कि मैंने तुम्हारे ही बल-बूते पर यह काम नहीं उठाया है, कौवे के न बोलने पर भी दिन निकल ही आता है। उनके धन-प्रेम का आधारा संतान-प्रम न था। वह उनके जीवन का मुख्य अंग, उनकी जीवन-धारा का मुख्य स्रोत था। संसार के और सभी धंधे इसके अंतर्गत थे।
मजदूरों और कारीगरों के लिए मकान बनवाने की समस्या अभी तक हल न हुई थी। यद्यपि जिले के मजिस्ट्रेट से उन्होंने मेल-जोल पैदा कर लिया था, पर चतारी के राजा साहब की ओर से उन्हें बड़ी शंका थी। राजा साहब एक बार लोकमत की उपेक्षा करके इतने बदनाम हो चुके थे कि उससे कहीं महत्त्व-पूर्ण विजय को आशा भी अब उन्हें वे चोटें खाने के लिए उत्तेजित न कर सकती थी। मिल बड़ी धूम से चल रही थी, लेकिन उसकी उन्नति के मार्ग में मजदूरों के मकानों का न होना सबसे बड़ी बाधा थी। जॉन सेवक इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे।
संयोग से परिस्थितियों में कुछ ऐसा उलट-फेर हुआ कि यह विकट समस्या बिना
विशेष उद्योग के हल हो गई। प्रभु सेवक के असहयोग ने वह काम कर दिखाया, जो कदाचित् उनके सहयोग से भी न हो सकता!
जब से सोफिया और विनयसिंह आ गये थे, सेवक-दल बड़ी उन्नति कर रहा था। उसकी राजनीति की गति दिन-दिन तीव्र और उग्र होती जाती थी। कुँवर साहब ने जितनी आसानी से पहली बार अधिकारियों की शंकाओं को शांत कर दिया था, उतनी आसानी से अबकी न कर सके। समस्या कहीं विषम हो गई थी। प्रभु सेवक को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करना मुश्किल न था, विनय को घर से निकाल देना, उसे अधिकारियों की दया पर छोड़ देना, कहीं मुश्किल था। इसमें संदेह नहीं कि कुँवर साहब निर्भीक पुरुष थे, जाति-प्रेम में पगे हुए, स्वच्छंद, निःस्पृह और विचारशील। उनका जीवन इतना सरल और सात्त्विक था कि उन्हें लोग त्यागमूर्ति कहा करते थे। उनको भोग-विलास के लिए किसी बड़ी जायदाद की बिलकुल जरूरत न थी। किंतु प्रत्यक्ष रूप से अधिकारियों के कोपभाजन बनने के लिए वह तैयार न थे। वह अपना सर्वस्व जाति-हित के लिए दे सकते थे, किंतु इस तरह कि हित का साधन उनके हाथ में रहे। उनमें वह आत्मसमर्पण की क्षमता न थी, जो निष्काम और निःस्वार्थ भाव से अपने को मिटा देती है। उन्हें विश्वास था कि हम आड़ में रहकर उससे कहीं अधिक उपयोगी बन सकते हैं, जितने सामने आकर। विनय का दूसरा ही मत था। वह कहता था, हम जायदाद के लिए अपनी आत्मिक स्वतंत्रता की हत्या क्यों करें। हम जायदाद के स्वामी बनकर रहेंगे, उसके दाम बनकर नहीं। अगर संपत्ति से निवृत्ति न प्राप्त कर सके, तो इस तपस्या का प्रयोजन ही क्या? यह तो गुनाह बेलजत है। निवृत्ति ही के लिए तो यह साधना की जा रही है। कुँवर साहब इसका यह जवाब देते कि हम इस जायदाद के स्वामी नहीं, केवल रक्षक हैं। यह आनेवाली संतानों की धरोहर-मात्र है। हमको क्या अधिकार है कि भावी संतान से वह सुख और समृद्धि छीन लें, जिसके वे वारिस होंगे। बहुत संभव है, वे इतने आदर्शवादी न हों, या उन्हें परिस्थिति के बदल जाने से आत्म-त्याग की जरूरत ही न रहे । यह भी संभव है कि उनमें वे स्वाभाविक गुण न हों, जिनके सामने संपत्ति की कोई हस्ती नहीं। ऐसी ही युक्तियों से वह विनय का समाधान करने की विफल चेष्टा किया करते थे। वास्तव में बात यह थी कि जीवन-पर्यंत ऐश्वर्य का सुख और सम्मान भोगने के पश्चात् वह निवृत्ति का यथार्थ आशय ही न ग्रहण कर सकते थे। वह संतान के लिए संपत्ति न चाहते थे, संपत्ति के लिए संतान चाहते थे। जायदाद के सामने संतान का स्थान गौण था। उन्हें अधिकारियों की खुशामद से घृणा थी, हुक्काम की हाँ में हाँ मिलाना हेय समझते थे; किंतु हुक्काम की नजरों में गड़ना, उनके हृदय में खटकना, इस हद तक कि वे शत्रुता पर तत्पर हो जायँ, उन्हें बेवकूफी मालूम होती थी। कुँवर साहब के हाथों में विनय को सीधी राह पर लाने का एक ही उपाय था, और वह यह कि सोफिया से उसका विवाह हो जाय। इस बेड़ी में जकड़कर उसकी उद्दण्डता को वह शान्त करना चाहते थे; लेकिन अब जो कुछ विलंब था, वह सोफिया
की ओर से। सोफिया को अब भी भय था कि यद्यपि रानी मुझ पर बड़ी कृपा-दृष्टि रखती हैं, पर दिल से उन्हें यह संबंध पसंद नहीं। उसका यह भय सर्वथा अकारण भी न था। रानी भी सोफिया से प्रेम कर सकती थीं, और करती थीं, उसका आदर कर सकती थीं, और करती थीं; पर अपनी वधू में वह त्याग और विचार की अपेक्षा लज्जाशीलता, सरलता, संकोच और कुल-प्रतिष्ठा को अधिक मूल्यवान् समझती थीं, संन्यासिनी वधू नहीं, भोग करनेवाली वधू चाहती थीं। कितु वह अपने हृदयंगत भावों को भूलकर भी मुँह से न निकालती थीं। नहीं, वह इस विचार को मन में आने ही न देना चाहती थीं, इसे कृतघ्नता समझती थीं।
कुँवर साहब कई दिन तक इसी संकट में पड़े रहे। मि० जॉन सेवक से बात-चीत किये बिना विवाह कैसे ठीक होता? आखिर एक दिन इच्छा न होने पर भी विवश होकर उनके पास गये। संध्या हो गई थी। मि० सेवक अभी-अभी मिल से लौटे थे, और मजदूरों के मकानों की स्कीम सामने रखे हुए कुछ सोच रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही उठे और बड़े तपाक से हाथ मिलाया।
कुँवर साहब कुर्सी पर बैठते हुए बोले—"आप विनय और सोफिया के विवाह के विषय में क्या निश्चय करते हैं? आप मेरे मित्र और सोफिया के पिता हैं, और दोनों ही नाते से मुझे आपसे यह कहने का अधिकार है कि अब इस काम में देर न कीजिए।"
जॉन सेवक—"मित्रता के नाते आप मुझसे चाहे जो सेवा ले सकते हैं, लेकिन (गंभीर भाव से) सोफिया के पिता के नाते मुझे कोई निश्चय करने का अधिकार नहीं। उसने मुझे इस अधिकार से वंचित कर दिया। नहीं तो उसे इतने दिन यहाँ आये हो गये, क्या एक बार भी यहाँ तक न आती? उसने हमसे यह अधिकार छीन लिया।"
इतने में मिसेज सेवक भी आ गई। पति की बातें सुनकर बोलीं-"मैं तो मर जाऊँगी, लेकिन उसकी सूरत न देखूँगी। हमारा उससे अब कोई संबंध नहीं रहा।"
कुँवर—"आप लोग सोफिया पर अन्याय कर रहे हैं। जब से वह आई है, एक दिन के लिए भी घर से नहीं निकली। इसका कारण केवल संकोच है, और कुछ नही। शायद डरती है कि बाहर निकलूँ, और किसी पुराने परिचित से साक्षात् हो जाय, तो उसमे क्या बात करूँगी। थोड़ी देर के लिए कल्पना कर लीजिए कि हममें से कोई भी उसकी जगह होता, तो उसके मन में कैसे भाव आते। इस विषय में वह क्षम्य है। मैं तो इसे अपना दुर्भाग्य समझूँगा, अगर आप लोग उससे यों विरक्त हो जायँगे। अब विवाह में विलंब न होना चाहिए।'
मिसेज सेवक—"खुदा वह दिन न लाये। मेरे लिए तो वह मर गई, उसका फातेहा पढ़ चुकी, उसके नाम को जितना रोना था, रो चुकी!"
कुँवर—"यह ज्यादती आप लोग मेरी रियासत के साथ कर रहे हैं, विवाह एक ऐसा उपाय है, जो विनय की उदंडता को शांत कर सकता है।" जॉन सेवक—"मेरी तो सलाह है कि आप रियासत को कोर्ट ऑफ्वार्ड स के सिपुर्द कर दीजिए। गवर्नमेंट आपके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेगी और आपके प्रति उसका सारा संदेह शांत हो जायगा। तब कुँवर विनयसिंह की राजनीतिक उदंडता का रियासत पर जरा मी असर न पड़ेगा; और यद्यपि इस समय आपकी यह व्यवस्था बुरी मालूम होगी, लेकिन कुछ दिनों बाद जब उनके विचारों में प्रौढ़ता आ जायगी, तो वह आपके कृतज्ञ होंगे और आपको अपना सच्चा हितैषो समझेंगे। हाँ, इतना निवेदन है कि इस काम में हाथ डालने के पहले आप अपने को. खूब दृढ़ कर लें। उस वक्त अगर आपकी ओर से जरा भी पसोपेश हुआ, तो आपका सारा प्रयत्न विफल हो जायगा, आप गवर्नमेंट के सन्देह को शान्त करने की जगह और भी उकसा देंगे।"
कुँवर—"मैं जायदाद की रक्षा के लिए सब कुछ करने को तैयार हूँ। मेरो इच्छा केवल इतनी है कि विनय को आर्थिक कष्ट न होने पाये। बस, अपने लिए मैं कुछ नहीं चाहता।"
जॉन सेवक—'आप प्रत्यक्ष रूप से तो कुँवर विनयसिंह के लिए कोई व्यवस्था नहीं कर सकते। हाँ, यह हो सकता है कि आप अपनी वृत्ति में से जितना उचित समझें, उन्हें दे दिया करें।"
कुँवर—“अच्छा, मान लीजिए, विनय इसी मार्ग पर और भी अग्रसर होते गये, तो?"
जॉन सेवक—"तो उन्हें रियासत पर कोई अधिकार न होगा।"
कुँवर—"लेकिन उनकी सन्तान को तो यह अधिकार रहेगा?"
जॉन सेवक—"अवश्य।
कुँवर—“गवर्नमेंट स्पष्ट रूप से यह शर्त मंजूर कर लेगी?"
जॉन सेवक—"न मंजूर करने का कोई कारण नहीं मालूम पड़ता।"
कुंवर—"ऐसा तो न होगा कि विनय के कामों का फल उनकी सन्तान को भोगना पड़े? सरकार रियासत को हमेशा के लिए जब्त कर ले? ऐसा दो-एक जगह हुआ है।बरार ही को देखिए।”
जॉन सेवक—"कोई खास बात पैदा हो जाय, तो नहीं कह सकते; लेकिन सरकार की यह नीति कभी नहीं रही। बरार की बात जाने दीजिए। वह इतना बड़ा सूका है कि किसी रियासत में उसका मिल जाना राजनीतिक कठिनाइयों का कारण हो सकता है।"
कुँवर—"तो मैं कल डॉक्टर गंगुली को शिमले से तार भेजकर बुलाये लेता हूँ?"
जॉन सेवक—"आप चाहें, तो बुला लें। मैं तो समझता हूँ, यहीं से मसविदा बना-कर उनके पास भेज दिया जाय। या मैं स्वयं चला जाऊँ और सारी बातें आपके इच्छानुसार तय कर आऊँ।"
कुँवर साहब ने धन्यवाद दिया और घर चले आये। रात-भर वह इसी हैस-बैस में पड़े रहे कि विनय और जाह्नवी से इस निश्चय का समाचार कहूँ या न कहूँ। उनका
जवाब उन्हें मालूम था। उनसे उपेक्षा और दुराग्रह के सिवा सहानुभूति की जरा भी आशा नहीं। कहने से फायदा ही क्या? अभी तो विनय को कुछ भय भी है। यह हाल सुनेगा, तो और भी दिलेर हो जायगा। अन्त को उन्होंने यही निश्चय किया कि अभी बतला देने से कोई फायदा नहीं, और विघ्न पड़ने की संभावना है। जब काम पूरा हो जायगा, तो कहने-सुनने को काफी समय मिलेगा।
मिस्टर जॉन सेवक पैरों-तले घास न जमने देना चाहते थे। दूसरे ही दिन उन्होंने एक बैरिस्टर से प्रार्थना-पत्र लिखवाया और कुँचर साहब को दिखाया। उसी दिन वह कागज डॉक्टर गंगुली के पास भेज दिया गया। डॉक्टर गंगुली ने इस प्रस्ताव को बहुत पसन्द किया और खुद शिमले से आये। यहाँ कुँवर साहब से परामर्श किया और दोनों आदमी प्रान्तीय गवर्नर के पास पहुँचे। गवर्नर को इंसमें क्या आपत्ति हो सकती थी, विशेषतः ऐसी दशा में, जब रियासत पर एक कौड़ी भी कर्ज न था? कर्मचारियों ने रियासत के हिसाब-किताब की जाँच शुरू की और एक महीने के अन्दर रियासत पर सरकारी अधिकार हो गया। कुँवर साहब लजा और ग्लानि के मारे इन दिनों विनय से बहुत कम बोलते, घर में बहुत कम आते, आँखें चुराते रहते थे कि कहीं यह प्रसंग न छिड़ जाय। जिस दिन सारी शर्ते तय हो गई, कुँवर साहब से न रहा गया, विनयसिंह से बोले -"रियासत पर तो सरकारी अधिकार हो गया।"
विनय ने चौंककर पूछा—"क्या जब्त हो गई?"
कुँवर—"नहीं, मैंने कोर्ट ऑफ वार्ड स के सिपुर्द कर दिया!"
यह कहकर उन्होंने शर्तों का उल्लेख किया, और विनीत भाव से बोले—"क्षमा करना, मैंने तुमसे इस विषय में सलाह नहीं ली।"
विनय—"मुझे इसका बिलकुल दुःख नहीं है, लेकिन आपने व्यर्थ ही अपने को गवर्नमेंट के हाथ में डाल दिया। अब आपकी हैसियत केवल एक वसीकेदार की है, जितका वसीका किसी वक्त बंद किया जा सकता है।"
कुँवर—"इसका इलजाम तुम्हारे सिर है।"
विनय—"आपने यह निश्चय करने के पहले ही मुझसे सलाह ली होती, तो यह नौबत न आने पाती। मैं आजीवन रियासत से पृथक् रहने का प्रतिज्ञा पत्र लिख देता और आप उसे प्रकाशित करके हुक्काम को प्रसन्न रख सकते थे।"
कुँबर—(सोचकर) "उस दशा में भी यह संदेह हो सकता था कि मैं गुप्त रीति से तुम्हारी सहायता कर रहा हूँ। इस संदेह को मिटाने के लिए मेरे पास और कौन साधन था?"
विनय—"तो मैं इस घर से निकल जाता और आपसे मिलना-जुलना छोड़ देता। अब भी अगर आप इस इंतजाम को रद्द करा सकें, तो अच्छा हो। मैं अपने खयाल से नहीं, आप ही के खयाल से कह रहा हूँ। मैं अपने निर्वाह की कोई राह निकाल लूंँगा।" कुँवर साहब सजल-नयन होकर बोले—“विनय, मुझसे ऐसी कठोर बातें न करो। मैं तुम्हारे तिरस्कार का नहीं, तुम्हारो सहानुभूति और दया का पात्र होने योग्य हूँ। मैं जानता हूँ, केवल सामाजिक सेवा से हमारा उद्धार नहीं हो सकता। यह भी जानता हूँ कि हम स्वच्छंद होकर सामाजिक सेवा भी नहीं कर सकते। कोई आयोजना, जिससे देश में अपनी दशा को अनुभव करने की जागृति उत्पन्न हो, जो भ्रातृत्व और जातीयता के भावों को जगाये, संदेह से मुक्त नहीं रह सकती। यह सब जानते हुए मैंने सेवा-क्षेत्र में कदम रखे थे। पर यह न जानता था कि थोड़े ही समय में यह संस्था यह रूप धारण करेगी और इसका यह परिणाम होगा! मैंने सोचा था, मैं परोक्ष में इसका संचालन करता रहूँगा; यह न जानता था कि इसके लिए मुझे अपना सर्वस्व-और अपना ही नहीं, भावी संतान का सर्वस्व भी होम कर देना पड़ेगा। मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझमें इतने महान् त्याग की सामर्थ्य नहीं।"
विनय ने इसका कुछ जवाब न दिया। अपने या सोफी के विषय में भी उन्हें कोई चिंता न थी, चिंता थी सेवा-दल के संचालन की। इसके लिए धन कहाँ से आयेगा? उन्हें कभी भिक्षा माँगने की जरूरत न पड़ी थी। जनता से रुपये कैसे मिलते हैं, यह गुर न जानते थे। कम-से-कम पाँच हजार माहवार का खर्च था। इतना धन एकत्र करने के लिए एक संस्था की अलग ही जरूरत थी। अब उन्हें अनुभव हुआ कि धन-संपत्ति इतनी तुच्छ वस्तु नहीं। पाँच हजार रुपये माहवार, ६० हजार रुपये साल, के लिए १२ लाख का स्थायी कोश होना आवश्यक है। कुछ बुद्धि काम न करती थी। जाह्नवी के पास निज का कुछ धन था, पर वह उसे देना न चाहती थीं और अब तो उसकी रक्षा करने की और भी जरूरत थी, क्योंकि वह विनय को दरिद्र नहीं बनाना चाहती थीं।
तीसरे पहर का समय था। विनय और इंद्रदत्त, दोनों रुपयों की चिंता में मम बैठे हुए थे। सहसा सोफिया ने आकर कहा—"मैं एक उपाय बताऊँ?"
इंद्रदत्त—"भिक्षा माँगने चलें?"
सोफिया—"क्यों न एक ड्रामा खेला जाय। ऐक्टर हैं ही, कुछ परदे बनवा लिये जायँ, मैं भी परदे बनाने में मदद दूंगी।".
विनय—"सलाह तो अच्छी है, लेकिन नायिका तुम्हें बनना पड़ेगा।"
सोफिया—"नायिका का पार्ट इंदुरानी खेलेंगी, मैं परिचारिका का पार्ट लूंगी।
इंद्रदत्त—"अच्छा, कौन-सा नाटक खेला जाय? भट्टजी का 'दुर्गावती' नाटक?"
विनय—"मुझे तो 'प्रसाद' का 'अजातशत्रु' बहुत पसंद है।"
सोफिया—"मुझे 'कर्बला' बहुत पसंद आया। वीर और करुण, दोनों ही रसों का अच्छा समावेश है।"
इतने में एक डाकिया अंदर दाखिल हुआ और एक मुहरबंद रजिस्टर्ड लिफाफा विनय के हाथ में रखकर चला गया। लिफाफे पर प्रभु सेवक की मुहर थी। लंदन से आया था। विनय-"अच्छा, बताओ, इसमें क्या होगा?"
सोफिया-"रुपये तो होंगे नहीं, और चाहे जो हो। वह गरीब रुपये कहाँ पायेगा? वहाँ होटल का खर्च ही मुश्किल से दे पाता होगा।"
विनय--"और मैं कहता हूँ कि रुपयों के सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता।"
इंद्रदत्त-"कभी नहीं। कोई नई रचना होगी।"
विनय-"तो रजिस्ट्री कराने की क्या जरूरत थी?"
इंद्रदत्त-"रुपये होते, तो बीमा न कराया होता?"
विनय-"मैं कहता हूँ, रुपये हैं, चाहे शर्त बद लो।"
इंद्रदत्त-"मेरे पास कुल पाँच रुपये हैं, पाँच-पाँच की बाजी है।"
विनय-"यह नहीं। अगर इसमें रुपये हों, तो मैं तुम्हारी गरदन पर सवार होकर यहाँ से कमरे के उस सिरे तक जाऊँगा। न हुए, तो तुम मेरी गरदन पर सवार होना। बोलो?"
इंद्रदत्त-"मंजूर है, खोलो लिफाफा।"
लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला। पूरे दस हजार का। लंदन बैंक के नाम। विनय उछल पड़े। बोले-“मैं कहता न था! यहाँ सामुद्रिक विद्या पढ़े हैं। आइए, लाइए गरदन।"
इंद्रदत्त-"ठहरो-ठहरो, गरदन तोड़के रख दोगे क्या! जरा खत तो पढ़ो, क्या लिखा है, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं ? लगे सवारी गाँठने।"
विनय-"जी नहीं, यह नहीं होने का। आपको सवारी देनी होगी। गरदन टूटे या रहे, इसका मैं जिम्मेदार नहीं। कुछ दुबले-पतले तो हो नहीं, खासे देव तो बने हुए हो।
इंद्रदत्त-"भई, आज मंगल के दिन नजर न लगाओ। कुल दो मन पैंतीस सेर तो रह गया हूँ। राजपूताना जाने के पहले तीन मन से ज्यादा था।"
विनय-"खैर, देर न कीजिए, गरदन झुकाकर खड़े हो जाइए।"
इंद्रदत्त-"सोफिया, मेरी रक्षा करो; तुम्हीं ने पहले कहा था, इसमें रुपये न होंगे। वही सुनकर मैंने भी कह दिया था।"
होफिया-मैं तुम्हारे झगड़ों में नहीं पड़ती। तुम जानो, वह जाने।" यह कहकर उसने खत पढ़ना शुरू किया-
"प्रिय बंधुवर, मैं नहीं जानता कि मैं यह पत्र किसे लिख रहा हूँ। कुछ खबर नहीं कि आजकल व्यवस्थापक कौन है। मगर सेवक-दल से मुझे अब भी वही प्रेम है, जो पहले था। उसको सेवा करना अपना कर्तव्य समझता हूँ। आप मेरा कुशल-समाचार जानने के लिए उत्सुक होंगे। मैं पूना ही में था कि वहाँ के गवर्नर ने मुझे मुलाकात करने को बुलाया। उनसे देर तक साहित्य-चर्चा होती रही। एक ही मर्मज्ञ हैं। हमारे देश में ऐसे रसिक कम निकलेंगे। विनय (उसका कुछ हाल नहीं मालूम हुआ) के
तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और, मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखू, तो चित्त विकल हो जाता है।"
इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।
इंद्रदत्त-"आइए इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।"
इंदु-"झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।"
इंद्रदत्त-"तो मालूम होता है,आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।"
इंदु-'मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी! एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ हैं? अम्माजी तो अब राजी हैं न?"
विनय-"किसी के दिल की बात कोई क्या जाने।"
इंदु-"मैं तो समझती हूँ, अम्माँजी राजी भी हो जायँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दुःख तो अवश्य होगा, लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।"
विनय ने आँसू पीते हुए कहा-"मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।"
इंदु-"सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धर्म-संकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्री नहीं है, केवल एक कल्पना है, भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि को अंतर-तम भावना है।"
इंद्रदत्त-"और आपकी ये सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है, न देवता। न अप्सरा है, न परी। जैसी अन्य स्त्रियाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्री वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात को, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी, आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखो है। आर लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्ति हो, तो अलबत्ता उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,
आप लोग स्वयं धुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।"
इंदु-"ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।"
इतने में सोफ़िया वह पत्र लिये हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-"तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि० सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।"
सोफिया ने इंदु के गले मिलते हुए पूछा-"पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?"
इंदु-"अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जायगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।"
इंद्रदत्त-"राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्द भूल गये। अबक्री शहर में रहना मुश्किल हो जायगा।"
इंदु---"सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।"
इंद्रदत्त-"साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्र चला दिया।"
इंदु--:"क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राजा को अपंग नही बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली १ सरकार पर इतने एहसान करके यही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए कोई
राजा-ठाकुर हुए! सबसे बड़ी बात तो यह है कि कंपनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।"
विनय-"राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए था। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।"
इंदु-"कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँड़ेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।"
इंद्रदत्त-"न होना चाहिए।"
सोफिया-"जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गये, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।"
तीनों आदमी पाँडेपुर की तरफ चले।
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