रक्षा बंधन/२१—मनुष्य

विकिस्रोत से

[ १६८ ]माता ने पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और अश्रुबिन्दु विसर्जन किए, परन्तु वे बिन्दु सुख के थे अथवा दुःख के कौन कहे?

लड़की ने यह सब देख-सुनकर अपना मुँह खोल दिया और भैया-भैया कहती हुई घनश्याम से लिपट गई। घनश्याम ने देखा—लड़की कोई और नहीं, वही बालिका है, जिसने पाँच वर्ष पूर्व उनके राखी बाँधी थी और जिसकी याद प्रायः उन्हें आया करती थी।

***

श्रावण का महीना है और श्रावणी का महोत्सव। घनश्यामदास की कोठी खूब सजाई गई है। घनश्याम अपने कमरे में बैठे एक पुस्तक पढ़ रहे हैं। इतने में एक दासी ने आकर कहा—बाबू भीतर चलो।—घनश्याम भीतर गए। माता ने उन्हें एक आसन पर बिठाया और उनकी भगिनी सरस्वती ने उनके तिलक लगाकर राखी बाँधी। घनश्याम ने दो अशर्फियाँ उनके हाथ में धर दी और मुस्कराकर बोले—क्या पैसे भी देने होंगे?

सरस्वती ने हँसकर कहा—नहीं भैया, ये अशर्फियाँ पैसों से अच्छी हैं। इनसे बहुत-से पैसे आवेंगे। [ १६९ ]

मनुष्य

बर्मा से आसाम आने वाली सड़क पर शरणार्थियों के झुण्ड चले आरहे थे। इनमें जवान, बूढ़े, बच्चे तथा स्त्रियाँ---सभी प्रकार के मनुष्य थे। इसी समय एक मोटरकार जो तेजा के साथ चली आ रही थी सहसा धीमी होकर रुक गई। इस कार को एक साहबी ठाट-बाट के हिंदुस्तानी सज्जन चला रहे थे। इनके बराबर एक १३; १४ वर्ष का बालक था, यह भी सूट-बूट तथा सोला हैट पहने था। पीछे की सीट पर एक प्रौढ़ तथा एक युवती बैठी थी। कार खड़ी होते ही ड्राइव करने वाले प्रौढ़ सज्जन का चेहरा पीला पड़ गया। उन्होंने घबरा कर कहा "पैट्रोल खत्म हो गया---अब क्या किया जाय।"

कार खड़ी होते ही उसे पैदल चलने वाले कुछ लोगों ने घेर लिया। एक बुड्ढा बोला---"मैं बहुत थक गया हूँ हजूर---बिठा लीजिए।" एक स्त्री बोली, "सरकार! मुझे बिठा लीजिए---मेरे पैरों में छाले पड़ गये हैं।" इसी प्रकार कई प्राणी अपने-अपने लिए प्रार्थना करने लगे। कार चलाने वाले सज्जन विषाद-पूर्ण स्वर में बोले-"अरे भई तेल खतम हो गया। अब हमको भी तुम्हारे साथ पैदल चलना पड़ेगा।"

"अच्छा!" कहकर वे लोग जो अपने-अपने लिए प्रार्थनाएँ कर रहे थे निराश होगये और पुनः चल दिए।

एक व्यक्ति बोल उठा---"मोटर की जान निकल गई।"

"कहाँ आकर धोखा दिया ससुरी ने।" एक दूसरे ने कहा। [ १७० ]"अजी यह भी कोई सवारी है। इस वक्त घोड़ा-गाड़ी होती तो काम देती। घोड़ा मरते-मरते भी ठिकाने तक तो पहुँचा ही देता।" तीसरा बोला।

कार के स्वामी कार से उतरे। उनके चेहरे पर बड़ी घबराहट थी। उन्होंने स्त्रियों से कहा---"उतरो अब पैदल चलना पड़ेगा।"

स्त्रियाँ अत्यन्त भयभीत थीं। दोनों उतरीं। साहब के कूले पर थर्मस फ्लास्क ( पानी की बोतल ) लटक रही थी। स्त्रियों से उन्होंने कहा---"और सब छोड़ो, खाली, टिफिन केरियर ले लो।"

कार के पीछे दो चमड़े के बक्स बँधे थे। कुछ सामान अन्दर भी रक्खा था। उनको सतृष्ण नेत्रों से देखते हुए दीर्घ निश्वास छोड़ कर वह व्यक्ति बोला--"छोड़ो इन सब को।

"अजी बाबू जी इस लाश को तो दफना देते। बेचारी ने न जाने आप की कितनी सेवा की होगी।"

यह सुनकर कुछ आदमी हंसने लगे। बाबू बिगड़ कर बोले--"हम तो मुसीबत में हैं और तुम लोगों को मज़ाक सूझा है।"

"तो हम लोग कौन सुख में हैं सरकार! लेकिन मुसीबत को भी हँसी-खुशी सहना चाहिये।"

"आप को ज्यादा रञ्ज न हो, इसलिए ऐसी बातें कर रहे हैं--- बुरा न मानियेगा।"

बाबू साहब मुस्करा दिए, बोले "ठीक कहते हो भाई! हमें अपनी तो कुछ परवा नहीं इन औरतों और बच्चे की चिन्ता है।"

"खैर चिन्ता करने से कोई फायदा नहीं। अब तो भुगतना ही पड़ेगा। आइये चलें।

बाबू साहब ने एक दृष्टि कार तथा असबाब पर डाली---ठन्डी साँस खींची और चल दिए। दोनों स्त्रियाँ भी रोती हुई चल दीं। चलते समय उन्होंने कार पर रक्खे हुए चार कम्बल उठा कर अपने कन्धों पर डाल लिए।

बाबू साहब चलते हुये बोले---"इस दुनिया में कुछ है नहीं। कल [ १७१ ]तक क्या था आज क्या हो गया।" "यही बात है सरकार! दुनिया में किसी चीज पर भरोसा करना गलती है। यहाँ अपना कुछ नहीं।" "क्यों भई, हम लोग सही सलामत हिन्दुस्तान पहुँच जाँयगे?" बाबू साहब ने पूछा।

"चले चलिए! हिम्मत न हारिये। अगर जिन्दगी हैं तो पहुँच ही जाँयगे, नहीं तो एक दिन तो मरना ही है।"

"अरे भई मौत के डर से तो बर्मा छोड़ा---घर-वार माल-असबाब छोड़ा। परन्तु उससे छुटकारा न मिला। इससे तो वहीं बने रहते तो अच्छा था।" "जी जो नहीं मानता। उस समय यही समझ में आया कि भाग चलने में ही बचत है। लेकिन बाबू जी आपने काफी पेट्रोल साथ नहीं लिया यह गलती की।"

क्या बतावें भई। पेट्रोल के दो टीन जल्दी में रह गये। तकदीर की बात है। निकाल कर धरे लेकिन कार पर रखना भूल गये। जब दूर निकल आये तब याद आया अगर वे होते तो फिर क्या था। लेकिन तकदीर से कौन लड़ सकता है।"

"यही बात है। लाख उपाय करो, पर एक नहीं चलता। बताइये! पेट्रोल ही रखना भूल गए। वाह रे भाग्य!"

"तुम वर्मा में क्या करते थे?" बाबू साहब ने उस व्यक्ति से पूछा।

"नौकरी!"

बाबू साहब ने इस व्यक्ति को गौर से देखा। यह व्यक्ति गरीब मालूम होता था, परन्तु हृष्ट-पुष्ट तथा बलवान था---वयस पेंतीस के लगभग होगी। बाबू साहब ने पूछा---"तुम्हारे बाल-बच्चे?"

"बाल बच्चे तो हिन्दुस्तान में हैं। कौन बाल-बच्चे! खाली घर- वाली है। अभी दो महीने हुए तब चिटठी मिली थी कि उसके लड़का हुआ है।"

"वह किसके पास है?"

"अपने मायके में है।"

कुछ क्षण चुप रह कर बाबू साहब बोले--"तुम हमारे साथ रहो! [ १७२ ]हम सकुशल हिन्दुस्तान पहुँच गये तो तुम्हें अपने यहाँ रख लेंगे।"

"मैं तो अब आप ही के साथ हूँ। हिन्दुस्तान पहुंँचने पर देखा जायगा।"

"तुम्हारा नाम क्या है?"

"रामभजन लाल।"

( २ )

चलते-चलते सन्ध्या हो गई। रामभजन लाल बोला---"अब कहीं ठहर जाना चाहिए---बाबू! रात बिता कर सवेरे चलेंगे।"

बाबू साहब बोले---"कहाँ ठहरेंगे।"

"यहीं किसी पेड़ के तले और ठिकाना ही कहाँ है।" रामभजन ने कहा।

अतएव एक वृक्ष के तले कम्बल बिछा कर ये चारों बैठ गये। राम भजन अपनी पीठ पर गठरी लादे था। उसे खोल कर उसने एक दरी निकाल कर अपने लिए बिछाई। टिफिन केरियर खोल कर चारों ने थोड़ा-थोड़ा भोजन किया। रामभजन को भी खाने को कहा गया, पर वह बोला---"आप अपने लिए रखिए--मेरे पास खाने को है। अभी आपको कई दिन काटने हैं।"

"क्या है?" बाबू साहब ने पूछा।

"ऐसे ही सटर-पटर है। भुने चावल हैं, और कुछ चने हैं। सब खा डाले, अब थोड़े रह गये हैं---दो तीन दिन भर को हैं। मुझे तो चलते आठदिन हो गये। आप मोटर में आये इससे जल्दी आ गये। हाँ पानी नहीं है---पानी थोड़ा आपको देना पड़ेगा।"

थर्मस बोतल से थोड़ा-थोड़ा पानी सबने पिया---थोड़ा, रामभजन को भी दिया। लड़का तो तुरन्त सो गया--स्त्रियाँ भी लेट गई। बाबू साहब बैठे रहे। रामभजन बोला---"ऐसी मुसीबत कभी न उठाई होगा बाबू!"

"मुसीबत! हमें तो इस मुसीबत का कभी स्वप्न में भी ध्यान नहीं आया था।" [ १७३ ]"आप तो अमीर आदमी हैं आपको मुसीबत से क्या सरोकार! मैं गरीब हूँ, बड़े-बड़े कठिन समय मैंने पार किए;पर ऐसा समय कभी नहीं पड़ा।"

"क्या बतावें इससे तो वहीं बने रहते तो अच्छा था, जो होता देखा जाता। मरते भी तो पाराम से तो मरते। अब सोचता हूँ कि भाग कर आना गलत हुआ।"

"जैसी होनी होती है वैसी ही बुद्धि भी हो जाती है।"

"लेकिन मोटर होने के कारण समझे थे कि निकल जायँगे---सो मोटर ही दगा दे गई।'

"आपने ठीक सोचा था! तेल होता तो आप आराम से चले जाते।"

इसी प्रकार ये लोग बातें करते रहे। रात में कभी कुछ देर को सो जाते, कभी उठ कर बैठ जाते। इस प्रकार वह रात पार हुई। सवेरे उठकर फिरे चले। चलते-चलते प्यास लगती तो गला सींच लेते थे। बोतल का पानी समाप्त हो रहा था। बाबू साहब बोले---"पानी समाप्त हो जायगा तब क्या होगा?"

रामभजन बोला---"जो भगवान की इच्छा होगी। रास्ते में कहीं पानी मिला तो ठीक है।"

"पानी तो इधर-उधर कहीं अवश्य होगा।"

"पर अपने को मालूम जो नहीं है।"

"यही तो मुश्किल हैं।"

दोपहर तक पानी समाप्त हो गया। दोपहर को ये लोग पुनः ठहर गये और दो घण्टे आराम करके फिर चले।

बाबू साहब बोले---"बिना पानी के तो बे-मौत मर जायँगे। खाना चाहे दो रोज न मिले।"

इस प्रकार बातें करते हुए जा रहे थे कि एक स्थान पर चार देहाती बर्मी दिखाई पड़े। ये लोग एक पानी के चश्मे पर पहरा दे रहे थे। चारों के पास तलवारें थीं। रामभजन बोला---"पानी तो है, परन्तु [ १७४ ]ये साले पहरा लगाये हैं।"

इसी समय कुछ अन्य लोग जो इन लोगों के साथ-साथ चल रहे थे पानी लेने के लिए उधर गये।

बर्मियों ने तलवारों से उन्हें धमकाया और रुपये मांगने लगे। कुछ ने रुपये देकर पानी पिया। कुछ लोग लोटा लिए हुए थे उन्होंने लोटे भरने चाहे तो बर्मियों ने उसके लिए भी रुपये माँगे। बाबू साहब बोले---"भई पानी तो लेना चाहिए।"

रामभजन ने उन बर्मियों से बात की तो उन्होंने इन पाँचों को पानी पिला देने तथा बोतल और रामभजन का लोटा भर देने के सौ रुपये मांँगे। बाबू साहब ने तुरन्त सौ रुपये के नोट निकाल कर दे दिए और पानी पीकर बोतल तथा लोटा भर लिया। कुछ लोग जिनके पास बर्मियों को देने के लिए काफी रुपये नहीं थे खड़े मुँह ताकते रहे।

एक व्यक्ति रामभजन से बोला---"भई एक लोटा हमारा भी भरवा देते।"

रामभजन बोला---"देखते नहीं हो तलवारें चमका रहे हैं। बिना रुपये लिए भला ये लोग देंगे?"

"हम तो प्यासों मर जायँगे।"

रामभजन ने दृष्टि डाली---कुल पन्द्रह बीस आदमी थे। इनमें से अनेकों के पास लाठियाँ थीं। रामभजन भी लाठी लिए हुए था। रामभजन अलग हट कर उन लोगों से बोला---"प्यासों में मरने तो यह अच्छा है कि पानी लेने के प्रयत्न में मारे जाओ। हम लोग पन्द्रह बीस हैं---ये चार! क्या हम लोग इन्हें मार के भगा नहीं सकते?"

"अरे भाई इनके पास तलवारें हैं।"

"बड़े कायर हो तुम लोग। अच्छा पहला वार मैं करूंगा---बोलो, है हिम्मत!"

सबने सलाह की। सलाह करके यह निश्चय किया कि प्यासों मरने से तो यह अच्छा है कि यहीं लड़-भिड़ कर मर जाँय! रामभजन से सबने अपना निर्णय कहा। रामभजन बोला---"तब ठीक है। बाबू [ १७५ ]साहब आप स्त्रियों और लड़के को लेकर आगे बढ़ जाइये और हमारा इन्तजार कीजिए।"

बाबू साहब बोले---"चलो जी, तुम भी किस झगड़े में पड़ गए।"

"यह झगड़ा नहीं है बाबू!" जीवन-मरण का प्रश्न है। आप चलिए, मैं अभी आता हूं।" विवश होकर बाबू साहब अपने परिवार सहित आगे बढ़ गये। इधर रामभजन तथा अन्य लोग उन बर्मियों के पास पुनः पहुँचे। बर्मी समझे कि पानी खरीदने आते हैं। पास पहुँच कर रामभजन ने एक दम से एक बर्मी पर लाठी का वार किया। लाठी कड़ाक से उसके सर पर पड़ी और वह चक्कर खाकर गिर पड़ा। अन्य लोगों ने शेष उन तीन पर लाठियाँ बरसा दीं। परन्तु वे तीनों जान लेकर भागे। कुछ ही मिनटों में मैदान साफ हो गया। रामभजन बोला--"अब पियो जितना पानी चाहो और अपने-अपने बरतन भर लो। जरा सी हिम्मत करने से काम बन गया।"

सबने खूब छक कर पानी पिया और जिसके पास जो पात्र था वह भर लिया। रामभजन बोला---"अब चलो तेज कदम---ऐसा न हो कि वे लोग मदद लेकर आ जाँय रामभजन ने उस बर्मी की, जो बेहोश पड़ा था, तलाशी ली। उसके पास बाबू साहब के नोट तथा अन्य रुपये निकले। वह सब रामभजन ने ले लिए। बाबू साहब के नोट रख कर अन्य रुपये उसने उन आदमियों को दे दिये।

बाबू साहब के पास पहुँच कर रामभजन बोला---"लीजिए अपने रुपये।"

बाबू साहब अचकचा कर बोले "ये कैसे मिले।"

"छीन लिए सालों से! और कैसे मिले।"

बाबू साहब बोले "शाबाश! इन्हें अपने ही पास रक्खो।"

रामभजन बोला, "आप रख लीजिए फिर मैं ले लूँगा। अब जरा तेज कदम चलिए।"

सब लोग लपक कर चले। लड़का बहुत थक गया था, चल नहीं पा रहा था, उसे रामभजन ने अपने कन्धे पर बिठा लिया अन्य लोग राम[ १७६ ]भजन से इतने प्रसन्न हुए कि वे भी इन्हीं के साथ हो गये। इस प्रकार अब पाँच आदमियों से बढ़ कर यह एक पूरा काफिला हो गया।

चौथे दिन ये लोग भारत की सीमा पर पहुंँचे। यहांँ सहायता का प्रबन्ध था। इतने दिनों में ही स्त्रियों की बुरी दशा हो गई। उनके पैरों में घाव हो गये। बाबू साहब भी आधे रह गये। लड़के की दशा अच्छी थी, क्योंकि उसे रामभजन तथा अन्य लोग बीच-बीच में अपने कन्धों पर लेकर चलते थे।

रामभजन बाबू साहब के साथ कलकत्ते तक आया। यहाँ आकर वह बोला "अब मैं अपने गाँव जाऊंगा बाबू!"

"अब कब और कहाँ मिलोगे?" बाबू साहब ने पूछा।

"मेरा पता लिख लीजिए। आप अपने ठिकाने से मुझे चिट्ठी डालियेगा फिर जैसा होगा देखा जयगा।"

बाबू साहब ने रामभजन का पता लिख लिया।

चलते समय बाबू साहब आँसू भर कर बोले---"रामभजन तुम्हारी बदौलत हम लोग जीवित आगये, अन्यथा वहीं खत्म हो जाते।"

"सब को भगवान ने पार लगाया बाबू, मेरी क्या शक्ति थी।"

बाबू साहब रामभजन को दो सौ रुपये देने लगे। परन्तु रामभजन बोला, मैंने मजदूरी नहीं की है बाबू! रुपये लेने से तो यह मजदूरी और नौकरी हो जायगी। मैंने तो जो किया मनुष्यता के नाते किया।

मुसीबत में दूसरों की सहायता और सेवा करना यही तो मनुष्यता है। है। मैं अपनी मनुष्यता को बेच नहीं सकता बाबू! आप अपने रुपये अपने पास रखिये।"

बाबू साहब ने बहुत कहा, बहुत समझाया, पर रामभजन ने एक न मानी। वह बोला, "फिर कभी मुझे आवश्यकता पड़ेगी तो आप से मांँग लूँगा, इस समय तो एक पैसा न लूँगा।" यह कह कर रामभजन बाबू साहब से विदा हो गया। बाबू साहब सोचने लगे, "ऐसे ही आदमी को मनुष्य कहना चाहिए।"