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रक्षा बंधन/२२-स्वयं सेवक

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रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ १७७ से – १८२ तक

 
स्वयंसेवक

(१)

अनोखेलाल अपने गाँव आया हुआ है। जाति का कुर्मी तथा वयस २४, २५ साल के लगभग है। दो वर्ष पूर्व नौकरी की तलाश में शहर गया हुआ था।

गाँव के परिचित लोग अनोखेलाल से मिलने आने लगे। "अरे भइया बहुत दिन में गाँव की सुधि ली––शहर में ऐसे रम गये।" "कभी होली-दिवाली भी न आये।" "शहर में जाकर फिर देहात में आने को जी नहीं होता।" इस प्रकार लोग कह रहे थे। अनोखेलाल सबको उत्तर देता था।

एक व्यक्ति ने पूछा––"वहाँ क्या काम करते हो भइया!"

"शहर में काम की क्या कमी है––आदमी मेहनती होना चाहिए।"

"तुम क्या काम करते हो?"

"मैं तो सेवा-समिति में काम करता हूँ।"

"सेवा-समिति में!"

"हाँ! वहाँ एक बहुत बड़ी सेवा-समिति है उसी में स्वयंसेवक हूँ।"

एक संस्कृतज्ञ पण्डित हाथ पर तमाखू फटफटाते बोले––"वेतनभोगी स्वयंसेवक?"

"हाँ वेतन मिलता है।" पण्डित जी हँसे! अनोखेलाल ने पूछा--

"आप हँसे क्यों?

"हँसा यह कि स्वयंसेवक और वेतन-भोगी!"

"तो क्या हुआ?"

"ये दोनों तो विरुद्ध बातें हैं। स्वयंसेवक के अर्थ होते हैं---स्वेच्छापूर्वक सेवा करने वाला। अतः जो स्वेच्छापूर्वक सेवा करेगा वह वेतन कभी नहीं लेगा।"

"तो खायगा क्या?

"जीविका के लिए अन्य कोई कार्य करे।"

"जब वह अन्य कार्य करेगा तब सेवा क्या खाक करेगा?"

"कुछ भी हो स्वयंसेवक तो उसी को कहते हैं। वेतनभोगी तो नौकर होगया स्वयंसेवक नहीं रहा।"

"हम सेवा समिति के नौकर हैं, परन्तु जनता की सेवा तो मुफ्त करते हैं---यही हमारी स्वयं-सेवा है।"

"हाँ---आँ करते होंगे, परन्तु हम तो इसे स्वयं सेवा मान नहीं सकते।"

"आप न मानें, परन्तु जनता तो मानती है।"

"हाँ भइया! शहर का मामला है, वहाँ नये नये कायदे कानून बनते हैं।"

"यह तो बड़ा पुराना कायदा है।"

पण्डित जी मुस्कराने लगे। बोले---"पुराना हो या नया---हम तो एक बात जानते हैं कि स्वयंसेवक उसे कहते हैं जो अपनी इच्छा से बिना किसी पुरस्कार अथवा वेतन के लालच के, सेवा करे!"

"ऐसा तो वही कर सकता है जिसके घर में खाने को हो।"

"जिसके घर में खाने को होगा, वह अन्य प्रकार से सेवा करेगा---स्वयं सेवक नहीं बनेगा---यदि बनेगा तो कुछ समय, कभी दे देगा---हर समय हाजिरी नहीं बजा सकता।"

पण्डित जी मुस्कराकर चुप हो गये।

( २ )

पण्डित लालताप्रसाद उन लोगों में से थे जो अपने सामने किसी दूसरे को बुद्धिमान् बनने का अधिकार ही नहीं देते।

अनोखेलाल की चर्चा चलने पर आप मुँह बना कर कहते--- "करते हैं नौकरी और बनते हैं स्वयंसेवक। और हमें समझाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे-एसे लौंडे हमने जाने कितने पढ़ाकर छोड़ दिये।"

"तो इसमें कौन सी शान है?" एक ने पूछा।

"स्वयंसेवक कहने-सुनने में जरा अच्छा मालूम होता है।"

"बस।"

"और नहीं तो उसमें कौन लाट साहबी घुसी है।"

गाँव में अनोखेलाल 'स्वयं सेवक जी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। कुछ लोग तो साधारण तौर पर कहते थे और कुछ व्यंग से। पहले तो अनोखेलाल को व्यंग्यपूर्वक कहनेवालों पर ताव आता था परन्तु फिर यह सोच कर कि "बकने दो अपना क्या नुकसान है" वह शांत हो गया।

अब अनोखेलाल की छुट्टी का केवल एक सप्ताह रह गया।

एक दिन वह घूमता हुआ पण्डित लालता प्रसाद की ओर चला गया। लालता प्रसाद ने पूछा---"कहो, कब जा रहे हो।"

"अाज से पाँचवें दिन चला जाऊँगा।"

"हूँ! एक दिन हम भी शहर आने वाले हैं!"

"तो आइयेगा। मेरे पास ही ठहरियेगा।"

पण्डित जी बड़े अभिमानपूर्वक बोले---"सो तो हमें ठहरने की दिक्कत नहीं है। सङ्गमपुर के जमीदार का लड़का वहाँ पढ़ता है---मकान लिये हुए है, वहाँ ठहर सकते हैं। राय साहब हमारे बड़े कृपालु हैं उनके पास ठहर सकते हैं।"

"तब भला आप एक गरीब स्वयंसेवक के यहाँ क्यों ठहरने लगे।"

"सो कोई बात नहीं। हमारे गाँव के हो---तुम्हारे यहाँ ठहरने में हमें कोई संकोच थोड़े ही है। स्वयंसेवक हो! तुम्हारा स्थान भी कोई न्यून नहीं है।"

"स्वयंसेवक क्या हैं, पेट पालते हैं किसी तरह! स्वयंसेवक होना बड़ा कठिन है पण्डित जी!"

"कठिन क्या हैं! उसमें काम ही क्या है। मेले-ठेले में पानी पिलाओ और भूले-भटकों को राह बताओ! इसमें कौन कठिनता है।"

"इसमें तो कोई कठिनता नहीं। पर कठिन काम पड़ जाने पर उसे भी करना ही पड़ता है। स्वयंसेवक होकर उससे मुँह नहीं मोड़ सकते।"

"अरे भइया जान जोखिम आने पर सब मुँह मोड़ जाते हैं, वैसे कहने को कोई चाहे जो कहे।"

"नहीं पण्डित जी स्वयंसेवक कभी मुँह नहीं मोड़ेगा।"

"अभी लड़के हो! मेरा सब देखा-सुना है। बड़े-बड़े स्वयंसेवकों को मैं देख चुका हूँ।"

"कभी छोटों की बात भी मान लिया कीजिये।"

"क्या मान लूँ! हमसे कोई अधिक बुद्धिमान अथवा अनुभवी हो तो मान लूँ। तुम्हारी बात कैसे मान लूँ? अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन की पैदायश।"

अनोखेलाल निश्वास छोड़ कर मन ही मन बोला––"भगवान इनका यह अभिमान चूर्ण करे।"

(३)

जिस दिन अनोखेलाल जाने वाला था उसके एक दिन पूर्व दोपहर को पण्डित लालताप्रसाद के मकान से मिले हुए मकान की एक लड़की हाथ में गिलास लिये हुए पण्डित जी के घर आयी और पण्डिताइन से गिलास में आग लेकर अपने घर की ओर चली।

घर की चौपाल तक पहुँचते-पहुँचते गिलास इतना गर्म हो गया कि लड़की ने उसे हाथ से छोड़ दिया। चौपाल में एक ओर खर-पतवार जमा था---गिलास की आग जो गिरी तो उसमें से एक चिनगारी छिटक कर उस खर-पतवार में पहुँच गई। लड़की घर के भीतर चली गई और एक तवा लाकर उस पर, दो-चार कोयले जो पड़े थे, उठा ले गई। ज्येष्ठ का महीना था---लू जोर की चल रही थी। सहसा पतवार के ढेर में से एक ज्वाला उठी। वह चौपाल के छप्पर तक पहुँची---छप्पर भी जलने लगा। इधर गांव में हल्ला हो गया---"आग लगी! आग लगी!" गांँव के अनेक आदमी दौड़े। कुए से पानी खींचने लगे, कुछ लोग निकटवर्ती गढ़इया से घड़े भर-भर के लाने लगे। जब तक आदमी दौड़ कर आवे तब तक पण्डित लालताप्रसाद का छप्पर भी जलने लगा। लोग पहले घर के आदमी तथा सामान निकालने में लगे थे। पण्डित लालताप्रसाद जल्दी-जल्दी अपना असबाब निकाल रहे थे। पत्नी और बच्चों को पहले ही निकाल कर बाहर खड़ा कर दिया था।

सहसा उनकी पत्नी बोली---"बक्स तो निकाल लाओ!"

पण्डित जी को याद आया कि बक्स नहीं निकाला गया। उसमें पण्डित जी की समस्त पूँजी गहने और नोटों के रूप में बन्द थी। पण्डित जी दौड़कर अन्दर घुस गये। पण्डित जी के अंदर जाते ही चौपाल का छप्पर जलता हुआ द्वार पर गिरा, अतः द्वार बन्द हो गया।

यह देखकर पण्डित जी की पत्नी ने हल्ला मचाया। कुछ लोग, जिनमें अनोखेलाल भी था, दौड़कर पण्डित जी के द्वार पर आये।

पत्नी रोकर बोली----"पण्डित जी अन्दर रह गये-उन्हें निकालो।"

लोगों ने बाँसों से जलते हुए छप्पर को द्वार पर से हटाया। छप्पर हटने पर देखा गया कि द्वार भी जल रहा है। यह देखकर एक बोला---"अब तो पण्डित का निकलना कठिन है। भीतर कोई जा ही नहीं सकता।"

अनोखेलाल दौड़कर घर के दूसरी ओर गया। उसने देखा कि दीवारों पर रक्खी हुई परछतियाँ भी जल रही हैं।

अनोखेलाल बोला---"चारों और आग है।"

गाँव वाले बोले---"अब पण्डित नहीं निकल सकते।" इधर पण्डित जी की पत्नी तथा बच्चे चीत्कार कर रहे थे! अनोखे लाल बोला---"मैं हूँ स्वयंसेवक और एक स्वयं-सेवक सेवा करने में अपने प्राणों का मोह नहीं करता। यह कह कर वह दौड़ कर अपने घर गया और एक कम्बल ले आया। कम्बल ओढ़ कर और अपना मुँह भली भांति ढक कर वह थोड़ा पीछे हटा और फिर दौड़कर द्वार के निकट पहुंचा और वहां से छलांँग मार कर भीतर पहुंच गया। सारा घर धुएँ से भरा था। पण्डित घर के आंँगन में बैठे---"हे भगवान रक्षा करो! हे नारायण दया करो!" कह रहे थे----बक्स एक ओर पड़ा था। धुआँ और आग की गर्मी इतनी थी कि वहाँ ठहरना कठिन था। अनोखेलाल ने झटपट पण्डित जी को उठाकर पीठ पर लाद लिया और पुनः कम्बल ओढ़ कर द्वार की ओर लपका परन्तु अब द्वार अग्नि की लपटों के कारण सर्वथा अवरुद्ध हो चुका था। दो बार अनोखेलाल ने प्रयत्न किया परन्तु धुएँ और ज्वाला के कारण पीछे हट गया। बाहर बड़ा हल्ला मचने लगा। लोग कह रहे थे--"अब दोनों जल मरेंगे।"

अनोखेलाल ने तीसरा प्रयत्न जान खेल कर किया। उसने एक जोर की छलांँग भरी और द्वार को पार करके चबूतरे पर मुंह के बल आ गिरा। लोगों ने उसे दौड़ कर उठाया! उसके घुटने और कोहनी फूट गई थीं। दोनों टांगे नीचे से खुली थीं---उन पर फफोले पड़ गये थे।

पण्डित जी बिलकुल बेदाग थे। वह अनोखेलाल के पैरों पर गिर पड़े और बोले---"भाई तुम सच्चे स्वयं-सेवक हो। सेवा की भावना हुए बिना कोई इस प्रकार अपने प्राणों का मोह छोड़ कर दूसरे के प्राण नहीं बचा सकता।"

गाँव वालों ने नारा लगाया---"अनोखेलाल की जय! स्वयं-सेवक की जय!"