सामग्री पर जाएँ

रक्षा बंधन/२३—मूंछें

विकिस्रोत से
रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ १८३ से – १८८ तक

 
मूँछ

( १ )

ठाकुर विश्वनाथ सिंह उन लोगों में से थे जिनकी यह धारणा थी कि पुराने रीति-रिवाज आचार-विचार सब उत्तम और निर्दोष हैं और अाधुनिक सभ्यता यदि पूर्णाश में नहीं तो अधिकांश दोषपूर्ण है। जिन बातों के वह बहुत ही भक्त थे उनमें कदाचित मूँछ ही प्रमुख थी। पुरुषों के लिए मूँछ को वह उतना ही आवश्यक समझते थे जितना कि बैल के लिए सींग।

उनकी अपनी मूँछे घनी, लम्बी तथा नोकीली थीं वह। मूँछों का लालन-पालन भी बड़ी तत्परता के साथ किया करते थे। मूँछों में तेल लगाना, कङ्घा करना उनका नित्य-कर्म था। जब फुर्सत के समय अकेले बैठते थे तो मूँछों पर हाथ फेरा करते थे और उन्हें मोड़ा करते थे। उनकी मूंँछ-भक्ति देख कर गाँव के वे लोग जिनसे उनका हँसी-दिल्लगी का रिश्ता था, उन्हें छेड़ा करते थे। कोई उनकी मूँछ को बुलबुल का अड्डा कहता था, कोई कुत्तो की पूछ से तुलना करता था। परन्तु इन बातों का ठाकुर विश्वनाथ सिंह पर कोई प्रभाव न पड़ता था। उनका खयाल था कि लोग ईर्षावश ऐसा कहते हैं।

विश्वनाथ सिंह जमींदार थे। जिस गांव में वह रहते थे उसी गांँव के चार आने के वह जमींदार---शेष बारह आने में अन्य कई जमींदार थे। सन्ध्या का समय था। विश्वनाथ सिंह के पास उनके कुछ मित्र तथा अन्य लोग बैठे हुए थे। ठाकुर साहब बात कर रहे थे और साथ ही मूंँछों पर हाथ फेरने तथा मरोड़ने का कार्य भी करते जा रहे थे। सहसा उनका एक समवयस्क बोल उठा---"यह मूँछे काहे धर धर मरोड़ रहे हो--अब बूढ़े होने को आये, अब मूँछे मरोड़ने का समय नहीं रहा।"

"हुँह! बूढ़े होने आये तो क्या हुआ? हैं तो मरद ही जनाने तो नहीं हो गये।" ठाकुर ने अकड़ कर कहा।

"तो क्या जिनके मूंँछे होती हैं वे ही मर्द होते हैं?" एक ने प्रश्न किया।

"और नहीं तो! बिना मूंँछ का भी कोई मरद है। सुनो कवि क्या कहता है। कहता है---"बिना कुचन की कामिनी, बिना मूंँछ का ज्वान ये तीनों फीके लगै बिना सुपारी पान!' समझे भोंदूमल?"

"हाँ तो यह ज्वान के लिए कहा गया है। आप अब ज्वान कहाँ रहे।"

अरे ज्वान से यहाँ मरद से मतलब है---बुड्ढे और ज्वान से मतलब नहीं है। जरा कविताई समझा करो। मूंँछ से बढ़ के मरद को और कोई शोभा नहीं है। पुराने जमाने में मूंँछ का बाल गिरवी रक्खा जाता था। हमारे बाबा पर एक दफा बड़ी मुसीबत पड़ी। एक महाजन से रुपया माँगा तो उसने कहा----'कोई चीज गिरौं धर दीजिए।' उस बखत हमारे बाबा की ऐसी हालत थी कि घर में ऐसी कोई चीज नहीं थी जिसे गिरौं धरते। जेवर के नाम हमारी दादी के पास चाँदी का छल्ला भी मौजूद नहीं था। जब महाजन को यह बात मालूम हुई तो वह बाबा से बोला---'अच्छा अपनी मूंँछ का बाल गिरौं धर दीजिए।' यह सुन कर बाबा आग हो गए और उसे खरी खोटी सुना कर चले आये। सो पहिले मूँछ की ऐसी कदर थी। अब अाजकल कहो तो पूरी मूँछ मुड़ा के धर दें--और दो चार रुपये में। और अब मूछे हैं कहाँ। हमारी लड़काई में मूँछे होती थीं---एक से एक आला---तसबीर की तरह देखा करो! जब से मूंँछें मुड़ाई जाने लगी तब से देश जनाना हो गया---मरदानगी जाती रही।"

उनकी ये बातें सुनकर कुछ लोग हँसते थे, कुछ प्रभावित होते थे।

( २ )

उनका एक पुत्र थर्ड इयर में पढ़ता था। शहर में कालेज के बोडिंग हाउस में रहता था---वयस बीस वर्ष के लगभग थी। उसकी उगती हुई मूँछों को देख देख कर ठाकुर साहब को बड़ी प्रसन्नता होती थी। वह उस दिन का स्वप्न देखा करते थे जबकि उनके पुत्र जगन्नाथ सिंह को मूँछें भी उन्हीं की जैसी होंगी।

जगन्नाथ सिंह छुट्टियों में घर आया करता था। एक बार जब वह घर आया तो ठाकुर विश्वनाथ सिंह को यह देख कर फिट पा गया कि जगन्नाथ के अोठों पर उस्तरा फिरा हुआ है। पहले तो उन्हें अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ, परन्तु ध्यानपूर्वक देखने पर जब उन्हें निश्चय हो गया कि मूंँछें मुड़ाई गई हैं तो वह अापे के बाहर होगये। वह बोले---"क्यों रे जगन्नाथ मूँछें मुड़ा डालीं क्या?"

जगन्नाथ बोला---"मुड़ाई नहीं हैं, अपने हाथ से मूंँड़ी हैं।" इतना सुनते ही ठाकुर साहब का हार्टफेल होने लगा। अपना चित्त संँभालने का प्रयत्न करते हुए उन्होंने कहा---"मेरे जीते जी! अरे नालायक मुझे जिन्दा ही मारे डाल रहा है। तू इतना भी नहीं जानता कि जब तक माँ-बाप जिन्दा बैठे रहते हैं तब तक मूँछें नहीं मुँड़ाई जातीं? यही तुम्हारी पढ़ाई-लिखाई है?

जगन्नाथ बोला---"ये सब पुराने विचार हैं चाचा! आजकल की सभ्यता में मूंँछें रखना व्यर्थ समझा जाता है।"

"यह नई सभ्यता तो मर्दो को जनाना बनाकर छोड़ेगी और तो कुछ रहा नहीं। एक मूंछों की लाज बाकी थी सो उसे भी तुम्हारे जैसे कुलकलंक खतम किये दे रहे हैं!"

जगन्नाथ ने पिता को समझाने का प्रयत्न किया पर उसके समझाने ने आग पर घी का काम किया---"और देखो, यह लौंडा उलटे मुझी को उल्लू बना रहा है।"

ठाकुर साहब ने इस घटना को इतना महत्व दिया कि उस दिन भोजन नहीं किया। जिन लोगों ने सुना और समझाने आये कि--- "आजकल तो सभी मूँछें मुड़ाने लगे हैं, लड़के ने मुँड़ा डालीं तो कौन बड़ा अपराध किया।" उनको भी ठाकुर ने फटकारा। बोले---"बाप-माँ जिन्दा और लड़का मूँछें मुँड़ाये घूमे---ऐसा अन्धेर भी कभी सुना था। अरे मरदानगी और शोभा गई चूल्हे-भाड़ में पर इस बात का तो विचार किया होता कि मेरे माँ-बाप जिन्दा बैठे हैं।"

लोगों ने जगन्नाथ से पूछाकि--"मूंँछें क्यों मूँड़ने लगा? अपने बाप का स्वभाव जान-बूझ कर ऐसा ग़लती का काम किया।"

जगन्नाथ बोला---"कालेज के हमारे साथी चिढ़ाते थे। एक दिन बाजार गये तो हमारे एक साथी ने उस्तरा लिया---छोटे से खूबसूरत वक्स में चमचमाता हुआ देख कर जी ललचा उठा। मैंने भी एक सेट ले लिया। जब खरीद लिया तो उसका व्यवहार भी आवश्यक हो गया।"

एक वृद्ध सज्जन बोले---"यही तो बड़ी बुरी बात हुई है। उस्तरे दुकान दुकान बिकने लगे---इससे और खराबी हो गई।"

"उस्तरे तो पहले भी बिकते थे---आकाश से थोड़े ही बरसते थे।" एक व्यक्ति बोला।

"गधे हो! पहले ऐसे उस्तरे थोड़े ही बिकते थे कि अपने हाथ से बना लो? अब तो विलायतवालों ने ऐसे उस्तरे चला दिये कि एक बच्चा भी अपने आप बना ले। यही सारी खराबी की जड़ हो गई।"

ठाकुर विश्वनाथ ने ऐसा हो हल्ला मचाया कि जगन्नाथसिंह तोबा बोल गया और उसने निश्चय कर लिया कि पिता के जीवन काल में मूँछें कभी नहीं मूँड़ेगा।

( ३ )

ठाकुर विश्वनाथसिंह और उनके गाँव के अन्य ज़मींदारों में चलती ही रहती थी। एक दिन उनके एक काश्तकार ने आकर शिकायत की- "ठाकुर हमारे खेत की मेंड के पास एक शीशम का पेड़ है उसे बलभद्र- सिंह कटा रहे हैं।"

"क्यों ?' ठाकुर ने पूछा।

"जबरदस्ती और क्यों। जगह-जमीन आपकी है-वह कटानेवाले कौन हैं !"

"ठीक बात हैं । क्या अभी कटा रहे हैं।"

"हाँ उनके आदमी कुल्हाड़ी लेकर आगये हैं।"

यह सुनकर ठाकुर विश्वनाथसिंह अपने कुछ आदमियों को लेकर चले। शीशम के पेड़ के पास पहुंचने पर उन्होंने देखा कि पेड़ पर कुल्हाड़ी चल रही है-पास ही जमींदार हनुमान सिंह खड़े हैं। यह देख कर विश्वनाथ बोले-"बस खबरदार ! अब कुल्हाड़ी न चले, नहीं अच्छा न होगा!"

"क्यों न चले कुल्हाड़ी ?" हनुमानसिंह ने पूछा।

"पेड़ हमारी जगह में है।"

"कुछ घास तो नहीं खा गये हो । यह तुम्हारी जगह है ? तुम्हारी जगह वहाँ खतम हो जाती है।"

इस पर कहा-सुनी होने लगी। हनुमानसिंह बोले-'तो खैर आप की जगह सही--आपको जो करना हो सो कर लीजिए । हम तो पेड़ कटवायँगे।"

विश्वनाथसिंह बोले-पेड़ कटवाना दिल्लगी नहीं है-लहासें गिर जायगी।"

"अरे जाओ ठाकुर ! बहुत बलफो नहीं, नहीं तो ये गिलहरी की पूंछ जैसी मूँछें उखड़वा ली जायगी । मेरा नाम है हनुमानसिंह !"

इतना सुनते ही विश्वनाथसिंह आग हो गया, अपने आदमियों से बोले-'मारो सालों को।"

उनके साथ के आदमियों में से एक प्रमुख व्यक्ति बोला-"ठाकुर पहले यह निश्चय कर लेनो कि जगह तुम्हारी है । ऐसे फौजदारी करने से कोई नतीजा नहीं।"

"तब तक पेड़ तो कट जायगा।' विश्वनाथ ने कहा।

"कट जाने दो ! अदालत से पेड़ के दाम भिलेंगे हर्जाना मिलेगा। अदालत की लडाई लड़ो-फौजदारी करने में मामला उलटा हो जायगा।"

विश्वनाथसिंह चुपचाप वहाँ से चले आये ।

दूसरे दिन लोगों को यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि ठाकुर विश्वनाथ ने मूँछे मुंडवा डालीं । लोगों ने कारण पूछा तो ठाकुर बोले-"अब मूँछे रखने का धरम नहीं रहा। हमारे मुंह पर हमारी मूंछे उखाड़वाने की बात कही गई और हम कुछ न कर सके—तब मूंछे रखने से क्या फायदा।"

"बिना सरदार की फौज कभी लड़ी है । हमारी देह में बल होता और हम लाठी चलाने लगते तो साथ वाले भी भिड़ जाते । जब हमी कुछ नहीं कर सके तब साथ वाले क्या करते।"

"जगन्नाथ ने मूँछे मूड़ी थी तब तो उस बेचारे पर बहुत बिगड़े थे।"

"अब उससे भी कह देंगे कि मूछों का जमाना नहीं रहा।" यह कह कर ठाकुर ने मूछों पर हाथ फेरा ।

“अब वहाँ क्या घरा है जो हाथ फेरते हो।"

"आदत पड़ी हुई है वह तो छूटते छूटते ही छूटेगी।"

यह कहते हुए ठाकुर की आँखों में आँसू छलछला आये।