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रक्षा बंधन/⁠५-हवा

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रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ ३२ से – ३९ तक

 

हवा

( १ )

पं० जगनन्दन प्रसाद मिश्र बड़े कट्टर ब्राह्मण थे। छुआछूत और बीघा-विस्वा के पूर्ण अवतार। एक कपड़े के व्यापारी के यहाँ मुनीमी करते थे। लोग इनका कट्टरपन देखकर इन्हें खूब बनाया करते थे; परन्तु मिश्रजी या तो इतने बूदम थे कि लोगों का बनाना समझ नहीं पाते थे अथवा उन्हें अपने बनाये जाने में स्वयं आनन्द मिलता था। जो भी हो मिश्र जी थे बिलकुल गोल आदमी! जिस समय वह अपने भवन के द्वार पर बैठकर "हमरे मुरादाबाद मां" का व्याख्यान करते उस समय जान पड़ता था कि मुरादाबाद इस पुरुष-रत्न की पितृ-भूमि बनकर धन्य हो गया है। यद्यपि मिश्रजी अपने वार्तालाप में "दिजियौ,किजियौ" की पुट देकर अपनी भाषा को पूर्ण मुरादाबादी भाषा बनाने का प्रयत्न करते थे; परन्तु फिर भी मुरादाबाद-भाषा-विशारदों के कथनानुसार उनकी भाषा मुरादाबादी नहीं थी। कुछ जानकार लोगों का कहना था कि मिश्रजी मुरादाबादी हैं ही नहीं। मिश्र होते तो मुरादाबादी भी होते, जब मिश्र ही नहीं हैं तब इन्हें मुरादाबाद का क्या पता। तब कौन थे? लोग कहते थे कि यह हैं त्रिपाठी ! शहर में आकर मिश्र बन गये और मुरादाबाद से नाता जोड़ लिया। शहर में यह सब खप जाता है। परदेशी आदमी यहां आकर चाहे जो बन जाय ! शहर में तेली-तँबोली वैश्य बन जाते हैं--यद्यपि व वैश्यकर्मी तो होते ही हैं, अहीर-बारी इत्यादि ठाकुर बन जाते हैं, मोची-चमार कायस्थ और धाकर (निम्न श्रेणी के कान्यकुब्ज) कुलीन। इसी प्रकार बिस्वों में वृद्धि कर ली जाती है। अतः इस अन्धेरखाते से त्रिपाठी जी ने पूरा लाभ उठाया। शहर में आकर बीस बिस्वा के मुरादाबादी मिश्र बन गये।

'नया मुसलमान प्याज बहुत खाता है' की कहावत के अनुसार त्रिपाठी जी मिश्र बनकर कान्यकुब्जता की खराद पर चढ़ गये। एक तो कड़बा करेला दूसरे नीम चढ़ा। एक तो मिश्रजी पहले से ही कान्य-कुब्ज थे उस पर हो गये मुरादाबादी मिश्र। फिर क्या कहना था। ब्राह्मणत्व का पूरा ठेका उन्हीं को मिल गया।

संध्या का समय था और बाजार की छुट्टी का दिन ! मिश्रजी के द्वार पर भांग बन रही थी। तीन चार अन्य आदमी भी मौजूद थे। एक ध्यक्ति सिल पर भांग रगड़ रहा था। मिश्र नंगे बदन रानों तक धोती समेटे बैठे थे--कानों पर जनेऊ चढ़ा था। इसी समय एक पड़ौसी युवक उधर से निकला। मिश्रजी को देखकर खड़ा हो गया और बोला--"काहे मिश्र जी कान पर जनेऊ काहे चढ़ाये बैठे हो।"

"लघुशङ्का करके आये थे अभी हाथ नहीं धोये। जरा सा पानी देना हो।" मिश्रजी ने अन्तिम वाक्य भाँग पीसने वाले से कहा।

उसके पास एक पीतल की जलपूर्ण बाल्टी रक्खी थी उसमें लोटे से पानी लेकर वह बोला--"आओ!"

मिश्रजी ने हाथ धोकर कान पर से जनेऊ उतारा ! युवक ने पूछा--"क्यों मिश्र जी, जनेऊ कान पर क्यों चढ़ा लिया जाता है?"

"शास्त्र में लिखा है कि टट्टी-पेशाब के समय जनेऊ कान पर चढ़ा लेना चाहिए।"

"लेकिन क्यों? प्रश्न तो यह है।"

"यह आजकल के अँग्रेजी पढ़े हर बात में 'क्यों और काहे' लगा देते हैं। शास्त्र की आज्ञा है--इसमें क्यों और काहे का क्या काम।"

"हमारी समझ में तो नंगे बदन यदि लघुशङ्का करने बैठे तो जनेऊ ऊपर चढ़ा ले चाहे कान पर या गले में। क्योंकि लघुशङ्का करने बैठने पर नंगे बदन होने से जनेऊ आगे आ जाता है। उस दशा में उसके अपवित्र होने की सम्भावना रहती है। परन्तु यदि कपड़े पहने हो तो जनेऊ कान पर चढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि उस दशा में जनेऊ आगे नहीं गिरता--कपड़ों में दबा रहता है !"

"सुनो इन अँग्रेजी पढ़ों की बातें ! क्या कानून निकाला। अरे बच्चा यह हैं शास्त्र की बातें ऋषि लोगों की बनायी हुई इसमें तुम अपनी अक्किल न भिड़ाओ। ब्राह्मण को सूने मस्तक बाहर नहीं निकलना चाहिए--इसका तुम क्या मतलब लगाते हो?'

"बात यह है कि सूना मस्तक होने से जाति का पता नहीं लगता। प्राचीनकाल में ब्राह्मणों की यही दो तीन पहिचानें थीं, शिख-सूत्र और तिलक। बाहर निकलने में शिखा, टोपी-पगिया इत्यादि में छिप जाती हैं और जनेऊ कपड़ों के नीचे छिप जाता है। ऐसी दशा में केवल तिलक से ही मालूम पड़ सकता है कि यह ब्राह्मण है। इसीलिए तिलक लगाया जाता था। परन्तु आजकल जब कि सभी जातियाँ तिलक लगाने लगी हैं तब ब्राह्मणों के तिलक का कोई महत्व नहीं रहा।"

मिश्रजी उच्च स्वर से हँसकर बोले--"भाई वाह ! क्या कुलाव मिलाये हैं। भइया ! यह हैं धर्मशास्त्र की बातें--इनमें तुम्हारी बुद्धि नहीं लड़ सकती।"

युवक--"अब आप मानते ही नहीं।" कहकर मुस्कराता हुआ चला गया।

( २ )

मिश्रजी का एक पुत्र था। वयस २२, २३ के लगभग। एफ० ए० तक पढ़कर एक कपड़े की फर्म में काम करने लगा था। कांग्रेसी होने के नाते खद्दरधारी था तथा छुमाछूत का विरोधी। एक दिन एक व्यक्ति बोला--"दादा तुम तो हो पूरे कन्नौजिया लेकिन तुम्हारा बबुआ (पुत्र) सबके साथ खाता-पीता है।"

मिश्रजी भृकुटी चढ़ाकर बोले--"सबके साथ खाता-पीता है?"

"तुम्हें ठीक मालूम है?"

"बिल्कुल ! काँग्रेसी होकर वह बिना खाये रह ही नहीं सकता।"

"लेकिन हमने तो उसे मना कर दिया था कि यह काम मत करना।"

"आपकी मानता कौन है।"

"न मानेंगे तो मैं निकाल बाहर भी करूँगा। मैं और किस्म का आदमी हूं।"

"खैर ! निकालियेगा क्या। आजकल तो यह हवा ही चल रही है।"

"सो हवा बाहर ही बाहर चलती है, मेरे घर में नहीं आ सकती। जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक तो कोई हवा आती नहीं, बाद को चाहे जो हो।"

रात में जब बबुआ घर आया तो मिश्रजी ने उससे पूछा--"क्यों जी, तुम, सुना है, सबके साथ खाते-पीते हो।"

"कौन कहता था?"

"कोई कहता हो, बात सच है या झूठ।"

"हाँ खाता तो हूँ।"

मिश्रजी मुँह फाड़कर बोले--"एँ।"

"हां ! क्या पेड़ा-बर्फी और बिना अन्न की मिठाई खाने में भी दोष है?"

"हूँ ! हूँ ! इसमें तो दोष नहीं है।"

"तो बस फिर ! मैं कुछ दाल-भात तो खाता ही नहीं हूँ--मिठाई खा लेता हूँ।"

"मिठाई खाने में कोई हर्ज नहीं है।" "हर्ज नहीं है समझ कर ही मैं खा लेता हूँ।"

"इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है। मिठाई तो हम भी खा लेते हैं।"

इस प्रकार यह बात समाप्त हुई।

एक दिन बाजार की छुट्टी के दिन मिश्रजी सन्ध्या-समय गंगाजी पहुँचे। जैसे ही यह घाट पर पहुँचे तो इन्होंने देखा कि बबुआ दो अन्य युवकों के साथ एक तख्त पर बैठा खोन्चे वाले के दही-बड़े खा रहा है। यह देखकर मिश्रजी को गश आने लगा। एक तख्त पर थसक कर बैठ गये और दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया।

उधर बबुआ ने जो पिता को देखा तो चट-पट खोन्चे वाले के पैसे देकर साथियों सहित खिसक गया। कुछ देर बाद जब मिश्रजी ने सिर उठाकर उधर देखा तो वहां कोई नहीं था। मिश्रजी ने आंखें मलकर पुनः गौर से देखा, परन्तु वहां कोई होता तो दिखाई देता।

रात में जब घर पर दोनों का सङ्गम हुआ तो मिश्रजी ने कहा--"काहे सरऊ ! आज गंगा जी पर बैठे दही-बड़े खा रहे थे।"

बबुआ बोला--"नहीं तो।"

"साले अभी जूता लेता हूँ, इतने जूते मारूँगा कि चांद पिलपिली हो जायगी। ऊपर से झूठ बोलता है।"

"अरे चाचा आज मैं गंगा जी गया ही नहीं।"

"ओफ ओह ! हद है ! मुझे झूठा बना रहा है। जब कि मैंने खुद अपनी आँखों से देखा।"

"किसी और को देखा होगा। उसकी शकल मुझसे मिलती होगी।

"अबे ससुरे, कपड़े तो तेरे ही जैसे थे।"

"सो तो आजकल सब काँग्रेसी खद्दर का कुर्ता-टोपी पहनते हैं।"

"और तुम्हारे साथ वह श्याम सुन्दर, रामसिंह और देवकी थे--सो--?"

"उनको बुलाकर पूछो। उनकी बाबत मैं कुछ नहीं जानता।"

"अच्छी बात है वह कह देंगे तब तो मानोगे?"

"हां मान लेंगे।' दूसरे दिन मिश्रजी ने उन लोगों से पूछा तो उत्तर मिला--"वह बबुआ नहीं था, वह तो हमारा एक नातेदार था--उसकी शकल बिलकुल बबुआ से मिलती है।" रामसिंह ने कहा।

पण्डितजी अपनी जुगनू जैसी आँखें टिम-टिमाते हुए बोले, "अच्छा !"

"जी हां।"

"और हमने समझा बबुआ है। यह अच्छी दिल्लगी रही।" कहकर मिश्रजी हँस दिये।

इस प्रकार बबुआ ने मिश्रजी को बेबकूफ बनाकर अपना पिण्ड बचाया। मिश्र जी को विश्वास हो गया कि वह बबुआ नहीं था।

( ३ )

घर में एक छोटा सा कमरा बबुआ के लिए अलग था। एक दिन मिश्रजी को कुछ सादे कागज की आवश्यकता पड़ी। संयोगवश उनके पास कागज नहीं था। अतः आपने सोचा कि बबुआ के कमरे में होगा। यह सोचकर बबुआ के कमरे में पहुँचे। इधर-उधर देखा परन्तु कागज न दिखाई पड़ा। एक ओर एक अल्मारी थी। उसमें एक छोटा ताला लटक रहा था। आपने सोचा इस अलमारी में होगा, परन्तु ताला लगा है। आप यह सोच रहे थे और हाथ से ताले को पकड़ कर हिला रहे थे, इसी समय ताला खुल गया। आप बड़े प्रसन्न हुए। सोचा--ताले में चाबी लगी नहीं खुला रह गया। यह सोचते हुए अल्मारी खोली। कागज की खोज में दृष्टि तो दौड़ाई तो ऊपर के खाने में तीन-चार श्वेत गोले से दिखाई पड़े। आपने एक गोला उठाकर बाहर निकाला और रोशनी में उसे जो देखा तो ऊँह कहकर हाथ से छोड़ दिया। गोला फर्श पर गिरकर टूट गया और उसकी कुछ छीटें मिश्रजी के पैरों पर पड़ी। मिश्रजी नाक दाब कर बोले, "अण्डा!" और बाहर भागे। बाहर निकल कर आपने उसी समय स्नान किया और बड़े क्रोध में भरे

"हर्ज नहीं है समझ कर ही मैं खा लेता हूँ।"

"इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है। मिठाई तो हम भी खा लेते हैं।"

इस प्रकार यह बात समाप्त हुई।

एक दिन बाजार की छुट्टी के दिन मिश्रजी सन्ध्या-समय गंगाजी पहुँचे। जैसे ही यह घाट पर पहुँचे तो इन्होंने देखा कि बबुआ दो अन्य युवकों के साथ एक तख्त पर बैठा खोन्चे वाले के दही-बड़े खा रहा है। यह देखकर मिश्रजी को गश आने लगा। एक तख्त पर थसक कर बैठ गये और दोनों हाथों से मुँह ढांप लिया।

उधर बबुआ ने जो पिता को देखा तो चट-पट खोन्चे वाले के पैसे देकर साथियों सहित खिसक गया। कुछ देर बाद जब मिश्रजी ने सिर उठाकर उधर देखा तो वहां कोई नहीं था। मिश्रजी ने आंखें मलकर पुनः गौर से देखा, परन्तु वहां कोई होता तो दिखाई देता।

रात में जब घर पर दोनों का सङ्गम हुआ तो मिश्रजी ने कहा--"काहे सरऊ ! आज गंगा जी पर बैठे दही-बड़े खा रहे थे।"

बबुआ बोला--"नहीं तो।"

"साले अभी जूता लेता हूँ, इतने जूते मारूँगा कि चांद पिलपिली हो जायगी। ऊपर से झूठ बोलता है।"

"अरे चाचा आज मैं गंगा जी गया ही नहीं।"

"ओफ ओह ! हद है ! मुझे झूठा बना रहा है। जब कि मैंने खुद अपनी आँखों से देखा।"

"किसी और को देखा होगा। उसकी शकल मुझसे मिलती होगी।

"अबे ससुरे, कपड़े तो तेरे ही जैसे थे।"

"सो तो आजकल सब काँग्रेसी खद्दर का कुर्ता-टोपी पहनते हैं।"

"और तुम्हारे साथ वह श्याम सुन्दर, रामसिंह और देवकी थे--सो--?"

"उनको बुलाकर पूछो। उनकी बाबत मैं कुछ नहीं जानता।"

"अच्छी बात है वह कह देंगे तब तो मानोगे?"

"हां मान लेंगे।'

दूसरे दिन मिश्रजी ने उन लोगों से पूछा तो उत्तर मिला—"वह बबुआ नहीं था, वह तो हमारा एक नातेदार था—उसकी शकल बिलकुल बबुआ से मिलती है।" रामसिंह ने कहा।

पण्डितजी अपनी जुगनू जैसी आँखें टिम-टिमाते हुए बोले, "अच्छा !"

"जी हां।"

"और हमने समझा बबुआ है। यह अच्छी दिल्लगी रही।" कहकर मिश्रजी हँस दिये।

इस प्रकार बबुआ ने मिश्रजी को बेबकूफ बनाकर अपना पिण्ड बचाया। मिश्र जी को विश्वास हो गया कि वह बबुआ नहीं था।

( ३ )

घर में एक छोटा सा कमरा बबुआ के लिए अलग था। एक दिन मिश्रजी को कुछ सादे कागज की आवश्यकता पड़ी। संयोगवश उनके पास कागज नहीं था। अतः आपने सोचा कि बबुआ के कमरे में होगा। यह सोचकर बबुआ के कमरे में पहुँचे। इधर-उधर देखा परन्तु कागज न दिखाई पड़ा। एक ओर एक अल्मारी थी। उसमें एक छोटा ताला लटक रहा था। आपने सोचा इस अलमारी में होगा, परन्तु ताला लगा है। आप यह सोच रहे थे और हाथ से ताले को पकड़ कर हिला रहे थे, इसी समय ताला खुल गया। आप बड़े प्रसन्न हुए। सोचा--ताले में चाबी लगी नहीं खुला रह गया। यह सोचते हुए अल्मारी खोली। कागज की खोज में दृष्टि तो दौड़ाई तो ऊपर के खाने में तीन-चार श्वेत गोले से दिखाई पड़े। आपने एक गोला उठाकर बाहर निकाला और रोशनी में उसे जो देखा तो ऊँह कहकर हाथ से छोड़ दिया। गोला फर्श पर गिरकर टूट गया और उसकी कुछ छीटें मिश्रजी के पैरों पर पड़ी। मिश्रजी नाक दाब कर बोले, "अण्डा!" और बाहर भागे। बाहर निकल कर आपने उसी समय स्नान किया और बड़े क्रोध में भरे हुए अपनी पत्नी से बोले, "अब इस लड़के का हमारे साथ गुजारा नहीं होगा।"

"क्यों क्या हुआ?

"जरो उसके कमरे में जाकर देख लो।"

पत्नी गयी और नाक दाबें लौटकर बोली--"यह तो बबुआ ने बड़ा गजब किया।"

"तुम्हीं देखो अब क्या किया जाय।"

"अब हम क्या बतावें।"

"बस इसे अलग कर देना चाहिए।"

माँ बैठकर रोने लगी। मिश्रजी बकते-झकते छत पर चले गये।

रात में बबुआ से उनकी बहुत कुछ कहा-सुनी हुई। मिश्रजी ने क्रोध में आकर पहले बबुआ को चार-पांच थप्पड़ मारे फिर अपना सिर पीट लिया।

दूसरे दिन से बबुआ गायब हो गया। एक दिन तो मिश्रजी ने धैर्य्य धारण किया परन्तु दूसरे दिन जब बबुआ का पता न लगा तो वह घबराकर दौड़ लगाने लगे।

इकलौता लड़का। जिसने सुना उसने ही मिश्रजी को धिक्कारा कि सयाने लड़के पर हाथ चला बैठे ! मिश्रजी बड़े जेर ! उल्टे लोग उन्हीं को बेबकूफ बना रहे हैं।

एक कान्यकुब्ज बोले--"अण्डा खाता है तो क्या हुआ। तुम कात्यायनी हो, मांस खाते हो कि नहीं?"

"हाँ सो तो हमारे यहां खाया जाता है, पर हम नहीं खाते।"

"तो बस फिर ! जब खाया जाता है तो आप न खायें तो इससे क्या और जैसा मांस वैसा अण्डा !"

"अण्डा तो अपने यहां नहीं खाया जाता।"

"न खाया जाय ! पर हम तो दोनों में कोई भेद नहीं समझते।" मिश्रजी सिर हिलाकर निरुत्तर से हो गये। अखबार में निकलवाया गया कि बेटा लौट आओ अब हम तुम्हारी बातों में दखल नहीं देंगे—इत्यादि।

तीसरे दिन बबुआ आ गया।

अब बबुआ धड़ल्ले के साथ कान्यकुब्जता के सब नियम तोड़ता रहता है। मिश्रजी से कोई कहता तो उत्तर देते हैं—"क्या करें! आजकल हवा ही ऐसी चल गई है।"