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रघुवंश/भूमिका/कालिदास का समय

विकिस्रोत से
रघुवंश
कालिदास, अनुवादक महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ भूमिका से – २६ तक

 
भूमिका।
कालिदास का समय।

कालिदास कब हुए,इसका पता ठीक ठीक नहीं लगता । इस विषय में न तो कालिदास ही ने अपने किसी काव्य या नाटक में नाटक में कुछ लिखा और न किसी और ही प्राचीन कवि या ग्रन्थकार ने कुछ लिखा । प्राचीन भारत के विद्वानों को इतिहास से विशेष प्रेम न था। इस लोक की लीला को आल्पकालिक जान करवे उसे तुच्छ दृष्टि से देखते थे। परलोक ही का उन्हें विशेष ख़याल था। इस कारण पारलौकिक समस्याओं को हल करना ही उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा उद्देश समझा। ऐसी स्थिति में कवियों और राजाओं का चरित कोई क्यों लिखता और देश का इतिहास लिख कर कोई क्यों अपना समय खोता।

यह आख्यायिका प्रसिद्ध है कि. कालिदास विक्रमादित्य की सभा के नवरत्नों में थे । नौ पण्डित उनकी सभा के रत्नरूप थे; उन्हीं में कालिदास की गिनती थी । खोज से यह बात भ्रममूलक सिद्ध हुई है। “धन्वन्तरि-क्षपणकामरसिंहशङ कु"...--आदि पद्य में जिन नौ विद्वानों के नाम आये हैं वे सब समकालीन न थे । वराहमिहिर भी इन्हीं नौ विद्वानों में थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में लिखा है कि शक ४२७, अर्थात् ५०५ ईसवी, में इसे मैंने समाप्त किया। अतएव जो लोग ईसा के ५७ वर्ष पूर्व उज्जैन के महाराज विक्रमादित्य की सभा में इन नौ विद्वानों का होना मानते हैं वे भूलते हैं। पुरातत्व-वेत्ताओं का मत है कि कालिदास विक्रमादित्य के समय में ज़रूर हुए; पर ईसा के ५७ वर्ष पहले नहीं । ईसा के चार पाँच सौ वर्ष बाद किसी और ही विक्रमादित्य के समय में वे हुए। इस राजा की भी राजधानी उज्जेन थी। यह नया मत है। इसके पोषक कई देशी और विदेशी विद्वान् हैं। इन विद्वानों में कई एक का तो यह कथन है कि कालिदास किसी राजा या महाराजा के आश्रित ही न थे। वे गुप्तवंशी किसी विक्रमादित्य के शासनकाल में थे ज़रूर; पर उसका आश्रय उन्हें न था। हाँ, यह हो सकता है कि वे उज्जैन में बहुत दिनों तक रहे हों और उज्जयिनीनरेश से सहायता पाई हो। परन्तु उज्जयिनी के अधीश्वर के वे अधीन न थे। उनका नाटक अभिज्ञान-शाकुन्तल उज्जैन में महाकाल महादेव के किसी उत्सव-विशेष में विक्रमादित्य के सामने खेला गया था। यदि वे राजाश्रित थे तो इस नाटक को उन्होंने अपने आश्रयदाता को क्यों न समर्पण किया?

कालिदास के स्थिति-काल के विषय में, आज तक, भिन्न भिन्न विद्वानों ने भिन्न भिन्न, न मालूम कितने, मत प्रकाशित किये हैं। उनमें से कौन ठीक है, कौन नहीं-इसका निर्णय करना बहुत कठिन है। सम्भव है उनमें से एक भी ठीक न हो। तथापि, दो चार मुख्य मुख्य मतों का उल्लेख करना हम यहाँ पर उचित समझते हैं।

सर विलियम जोन्स और डाक्टर पीटर्सन का मत है कि कालिदास ईसवी सन् के ५७ वर्ष पूर्व उज्जयिनी के नरेश महाराज विक्रमादित्य के सभा-पण्डित थे। पूने के पण्डित नन्दर्गीकर का भी यही मत है और इस मत को उन्होंने बड़ी ही योग्यता और युक्तिपूर्ण कल्पनाओं से दृढ़ किया है। अश्वघोष ईसा की पहली शताब्दी में विद्यमान थे। उनके बुद्धचरित नामक महाकाव्य से अनेक अवतरण देकर नन्दर्गीकर ने यह सिद्ध किया है कि कालिदास के काव्यों को देख कर अश्वघोष ने अपना काव्य बनाया है; क्योंकि उसमें कालिदास के काव्यों के पद ही नहीं, कितने ही श्लोकपाद भी ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।

डाक्टर वेबर, लासन, जैकोबी, मानियर विलियम्स और सी॰ एच॰ टानी का मत है कि कालिदास ईसा के दूसरे शतक से लेकर चौथे शतक के बीच में विद्यमान थे। उनके काव्य इसके पहले के नहीं हो सकते। उनकी भाषा और उनके वर्णन-विषय आदि से यही बात सिद्ध होती है।

वत्सभट्टि की रची हुई एक कविता एक शिला पर खुदी हुई प्राप्त हुई है। उसमें मालव-संवत्, ५२९, अर्थात् ४७३ ईसवी, अङ्कित है। यह

कविता कालिदास की कविता से मिलती जुलती है। अतएव अध्यापक मुग्धानलाचार्य का अनुमान है कि कालिदास ईसा की पाँचवौँ शताब्दी के कवि हैं। विन्सेंट स्मिथ साहब भी कालिदास को इतना ही पुराना मानते हैं, अधिक नहीं।

डाकर भाऊ दाजी ने बहुत कुछ भवति न भवति करने के बाद यह अनुमान किया है कि उज्जैन के अधीश्वर हर्ष विक्रमादित्य के द्वारा काश्मीर पर शासन करने के लिए भेजे गये मातृगुप्त ही का दूसरा नाम कालिदास था। अतएव उनका स्थिति-काल ईसा की छठी सदी है। दक्षिण के श्रीयुत पण्डित के० बी० पाठक ने भी कालिदास का यही समय निश्चित किया है । डाक्टर फ्लीट, डाक्टर फगु सन, मिस्टर आर० सी० दत्त और पण्डित हरप्रसाद शास्त्री भी इस निश्चय या अनुमान .. के पृष्ठपोषक हैं।

इसी तरह और भी कितने ही विद्वानों ने कालिदास के विषय में लेख लिखे हैं और अपनी तर्कना के अनुसार अपना अपना निश्चय सर्व- साधारण के सम्मुख रक्खा है। कालिदास के समय के विषय में कोई ऐतिहासिक आधार तो है नहीं। उनके काव्यों की भाषा प्रणाली, उनमें जिन ऐतिहासिक पुरुषों का उल्लेख है उनके स्थिति-समय, और जिन पार- वर्ती कवियों ने कालिदास के ग्रंथों के हवाले या उनसे अवतरण दिये हैं उनके जीवनकाल के आधार पर ही कालिदास के समय का निर्णय विद्वानों को करना पड़ता है। इसमें अनुमान ही की मात्रा अधिक रहती है। अतएव जब तक और कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता, अथवा जब तक किसी का अनुमान औरों से अधिक युक्ति-सङ्गत नहीं होता, तब तक विद्वज्जन इस तरह के अनुमानों से भी तथ्य संग्रह करना अनुचित नहीं समझते।

दो तीन वर्ष पहले, विशेष करके १६०६ ईसवी में, लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में डाकूर हानले, मिस्टर विन्सेन्ट स्मिथ आदि कई विद्वानों ने कालिदास के स्थिति-काल के सम्बन्ध में कई बड़े ही गवेषणा-पूर्ण लेख लिखे। इन लेखों में कुछ नई युक्तियाँ दिखाई गई। डाकर हानले आदि ने और बातों के सिवा ग्यता से। यह नया मत है। इसके पोषक कई देशी और विदेशी विद्वान् हैं। इन विद्वानों में कई एक का तो यह कथन है कि कालिदास किसी राजा या महाराजा के आश्रित ही न थे । वे गुप्तवंशी किसी विक्रमादित्य के शासनकाल में थे ज़रूर; पर उसका आश्रय उन्हें न था। हाँ, यह हो सकता है कि वे उज्जैन में बहुत दिनों तक रहे हों और उज्जयिनीनरेश से सहायता पाई हो । परन्तु उज्जयिनी के अधीश्वर के वे अधीन न थे।उनका नाटक अभिज्ञानशाकुन्तल उज्जैन में महाकाल महादेव के किसी उत्सव-विशेष में विक्रमादित्य के सामने खेला गया था। यदि वे राजाश्रित थे तो इस नाटक को उन्होंने अपने प्राश्रयदाता को क्यों न समर्पण किया?

कालिदास के स्थिति-काल के विषय में, आज तक, भिन्न भिन्न • विद्वानों ने भिन्न भिन्न, न मालूम कितने, मत प्रकाशित किये हैं। उनमें.से कौन ठीक है, कौन नहीं-इसका निर्णय करना बहुत कठिन है। सम्भव है उनमें से एक भी ठीक न हो । तथापि, दो चार मुख्य मुख्य मतों का उल्लेख करना हम यहाँ पर उचित समझते हैं।

• सर विलियम जोन्स और डाकर पीटर्सन का मत है कि कालिदास ईसवी सन के ५७ वर्ष पूर्व उज्जयिनी के नरेश महाराज विक्रमादित्य के सभा-पण्डित थे। पूने के पण्डित नन्दर्गीकर का भी यही मत है और इस मत को उन्होंने बड़ी हीयोग्यता.और.युक्तिपूर्ण कल्पनाओं से दृढ़ किया है । अश्वघोष ईसा की पहली शताब्दी में विद्यमान थे। उनके बुद्ध-चरित नामक महाकाव्य से अनेक अवतरण देकर नन्दर्गीकर ने यह सिद्ध किया है कि कालिदास के काव्यों को देख कर अश्वघोष ने अपना काव्य बनाया है; क्योंकि उसमें कालिदास के काव्यों के पद ही नहीं, कितने ही.श्लोकपाद भी ज्यों के त्यों पाये जाते हैं।

डाकूर वेबर, लासन, जैकोबी, मानियर विलियम्स और सी० एच० टानी का मत है कि कालिदास ईसा के दूसरे शतक से लेकर चौथे शतक के बीच में विद्यमान थे। उनके काव्य इसके पहले के नहीं हो सकते।.उनकी भाषा और उनके वर्णन-विषय आदि से यही बात सिद्ध होती है। वत्सभट्टि की रची हुई एक कविता एक शिला पर खुदी हुई प्राप्त हुई है। उसमें मालव-संवत्, ५२६, अर्थात् ४७३ ईसवी, अङ्कित है। यह
कविता कालिदास की कविता से मिलती जुलती है। अतएव अध्यापक मुग्धानलाचार्य का अनुमान है कि कालिदास ईसा की पाँचवी शताब्दी के कवि हैं। विन्सेंट स्मिथ साहब भी कालिदास को इतना ही पुराना मानते हैं, अधिक नहीं।

डाकूर भाऊ दाजी ने बहुत कुछ भवति न भवति करने के बाद यह अनुमान किया है कि उज्जैन के अधीश्वर हर्ष विक्रमादित्य के द्वारा काश्मीर पर शासन करने के लिए भेजे गये मातृगुप्त ही का दूसरा नाम कालिदास था। अतएव उनका स्थिति-काल ईसा की छठी सदी है। दक्षिण के श्रीयुत पण्डित के० बी० पाठक ने भी कालिदास का यही समय निश्चित किया है। डाक्टर फ्लीट, डाक्टर फर्गुसन, मिस्टर आर० सी० दत्त और पण्डित हरप्रसाद शास्त्री भी इस निश्चय या अनुमान के पृष्ठपोषक हैं।

इसी तरह और भी कितने ही विद्वानों ने कालिदास के विषय में लेख लिखे हैं और अपनी तर्कना के अनुसार अपना अपना निश्चय सर्व- साधारण के सम्मुख रक्खा है। कालिदास के समय के विषय में कोई ऐतिहासिक आधार तो है नहीं। उनके काव्यों की भाषा-प्रणाली, उनमें जिन ऐतिहासिक पुरुषों का उल्लेख है उनके स्थिति-समय, और जिन पारवर्ती कवियों ने कालिदास के ग्रंथों के हवाले या उनसे अवतरण दिये हैं उनके जीवनकाल के आधार पर ही कालिदास के समय का निर्णय विद्वानों को करना पड़ता है। इसमें अनुमान ही की मात्रा अधिक रहती है। अतएव जब तक और कोई पक्का प्रमाण नहीं मिलता, अथवा जब तक किसी का अनुमान औरों से अधिक युक्ति-सङ्गत नहीं होता, तब तक विद्वज्जन इस तरह के अनुमानों से भी तथ्य संग्रह करना अनुचित नहीं समझते।

दो तीन वर्ष पहले, विशेष करके १९०९ ईसवी में, लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में डाकूर हानले, मिस्टर विन्सेन्ट स्मिथ आदि कई विद्वानों ने कालिदास के स्थिति-काल के सम्बन्ध में कई बड़े ही गवेषणा-पूर्ण लेख लिखे। इन लेखों में कुछ नई युक्तियाँ दिखाई गई। डाकूर हानले आदि ने और बातों के सिवा रघुवंश से कल पता
उद्धृत किये जिनमें 'स्कन्द,' 'कुमार,' 'समुद्र' आदि शब्द पाये जाते हैं।
यथा:-

(१) अासमुद्रक्षितीशानां-

(२) प्राकुमारकथोद्घात-

(३) स्कन्दन साक्षादिव देवसेना-

यहाँ 'स्कन्द से उन्होंने स्कन्दगुप्त, 'कुमार' से कुमारगुप्त और 'समुद्र' से समुद्रगुप्त का भी अर्थ निकाला। उन्होंने कहा कि ये श्लिष्ट पद हैं, अतएव द्वार्थिक हैं-इनसे दो दो अर्थ निकलते हैं। एक तो साधारण, दूसरा असाधारण जो गुप्त राजाओं का सूचक है। इस पर सम्भलपुर के एक बङ्गाली विद्वान्, बी० सी० मजूमदार महाशय, ने इन लोगों की बड़ी हँसी उड़ाई। उन्होंने दिखलाया कि यदि इस तरह के दो दो अर्थ वाले श्लोक ढूँढ़े जायँ तो ऐसे और भी कितने ही शब्द और श्लोक मिल सकते हैं। परन्तु उनके दूसरे अर्थ की कोई सङ्गति नहीं हो सकती।

जबसे हार्नले आदि ने यह नई युक्ति निकाली तब से कालिदास के स्थिति-काल-निर्णायक लेखों का तूफ़ान सा आगया है। इसी युक्ति के आधार पर लोग आकाश-पाताल एक कर रहे हैं। कोई कहता है कि कालिदास द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय में थे; कोई कहता है कुमारगुप्त के समय में थे; कोई कहता है स्कन्दगुप्त के समय में थे, कोई कहता है यशोधा के समय में थे। इसी पिछले राजा ने हूण-नरेश मिहिरगुल को, ५३२ ईसवी में, मुलतान के पास कोरूर में परास्त करके हूणों को सदा के लिए भारत से निकाल दिया। इसी विजय के उपलक्ष्य में वह शकारि विक्रमादित्य कहलाया। इस विषय में, आगे और कुछ लिखने के पहले, मुख्य मुख्य गुप्तराजाओं की नामावली और उनका शासनकाल लिख देना अच्छा होगा। इससे पाठकों को पूर्वोक्त पण्डितों की युक्तियाँ समझने में सुभीता होगा। अच्छा अब इनके नाम आदि सुनिए:-

(१) चन्द्रगुप्त प्रथम, (विक्रमादित्य) मृत्यु ३२६ ईसवी

(२) समुद्रगुप्त-शासन-काल ३२६ से ३७५ ईसवी तक

(३) चन्द्रगुप्त द्वितीय, (विक्रमादित्य) शासन-काल ३७५ से

४१३ ईसवी तक
कालिदास का समय।

(४) कुमारगुप्त,प्रथम ,शासन-काल ४१३ से ४८० ईसवी त . (५) स्कन्दगुप्त (६) नरसिह गुप्तशासनकाल ईसा की पाँचवीं (७) यशोधा (विक्रमादित्य) ।

शताब्दी के अन्त से छठी शताब्दी के प्रथमाई तक ।

इनमें से पहले ६ राजाओं की राजधानी पुष्पपुर या पटना थी। पर अन्तिम राजा यशोधा की राजधानी उज्जेन थी। यह पिछला राजा गुप्त राजाओं का करद राजा था। पर गुप्तों की शक्ति क्षीण होने पर यह स्वतन्त्र हो गया था। इन राजाओं में से तीन राजाओं ने-पहले, तीसरे और सातवे ने विक्रमादित्य की पदवी ग्रहण की थी। ये राजा बड़े प्रतापी थे । इसी से ये विक्रमादित्य उपनाम से अभिहित हुए।

परन्तु डाकर हार्नले आदि की पूर्वोक्त युक्तियों के आविष्कार-विषय में एक झगड़ा है । बाबू बी० सी० मजूमदार कहते हैं कि इसका यश मुझे मिलना चाहिए । इस विषय में उनका एक लेख जून १९११ के माडर्न रिव्यू में निकला है। उसमें वे कहते हैं कि १९०५ ईसवी में मैंने ही इन बातों को सबसे पहले हूँढ निकाला था। बँगला के भारतसुहृद् नामक पत्र में "शीतप्रभाते” नामक जो मेरी कविता प्रकाशित हुई है उसमें सूत्ररूप से मैंने ये बातें छः सात वर्ष पहले ही लिख दी थीं । १९०९ में इस विषय में मेरा जो लेख रायल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में निकल चुका है उसमें इन बातों का मैंने विस्तार किया है। अब इनका मत सुनिए।

डाकृर हार्नले की राय है कि उज्जेन का राजा यशोधर्मा ही शकारिविक्रमादित्य है और उसी के शासन काल या उसी की सभा में कालिदास थे। कारण यह कि ईसा के ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नाम का कोई राजा ही न था । जैसी कविता कालिदास की है वैसी कविता-वैसी भाषा,वैसी भावभङ्गी-उस ज़माने में थी ही नहीं है । ईसा की पाँचवीं और छठी

  • कालिदास के पूर्ववर्ती भास कवि के स्वप्नवासवदत्तम् आदि कई नाटक जो अभी हाल में प्रकाशित हुए हैं उनमें कालिदास ही की जैसी कविता और भाषा है। अतएव,जो लोग यह समझते थे कि ईसा के पूर्व पहले शतक में कालिदास के ग्रंथों की जैसी परिमा- र्जित संस्कृत का प्रचार ही न था उनके इस अनुमान को महाकवि भास 'के ग्रंथों ने निर्मल सिद्ध कर दिया।
    सदी में, संस्कृत भाषा का पुनरुज्जीवन होने पर, वैसी कविता का प्रादुर्भाव हुआ था। इन सब बातों को मजूमदार महाशय मानते हैं। पर यशोधा के समय में कालिदास का होना नहीं मानते। वे कहते हैं कि रघुवंश में जो इन्दुमती का स्वयंवर-वर्णन है उसमें उज्जेन के राजा का तीसरा नम्बर है। यदि कालिदास यशोधा के समय में, या उसकी सभा में, होते तो वे कभी ऐसा न लिखते। क्योंकि यशोधर्म्मा उस समय चक्रवर्ती राजा था। मगध का साम्राज्य उस समय प्रायः विनष्ट हो चुका था। यशोधर्म्मा मगध की अधीनता में न था। अतएव, मगधाधिप के पास पहले और उज्जेननरेश के पास उसके बाद इन्दुमती का जाना यशोधर्म्मा को असह्य हो जाता। अतएव इस राजा के समय में कालिदास न थे। फिर किसके समय में थे ? बाबू साहब का अनुमान है कि कुमार-गुप्त के शासन के अन्तिम भाग में उन्होंने ग्रन्थरचना प्रारम्भ की और स्कन्दगुप्त की मृत्यु के कुछ समय पहले इस लोक की यात्रा समाप्त की। इस अनुमान की पुष्टि में उन्होंने और भी कई बातें लिखी हैं। आपका कहना है कि रघुवंश में जो रघु का दिग्विजय है वह रघु का नहीं, यथार्थ में वह स्कन्दगुप्त का दिग्विजय वर्णन है। आपने रघुवंश में गुप्तवंश के प्रायः सभी प्रसिद्ध प्रसिद्ध राजाओं के नाम ढूंढ़ निकाले हैं। यहाँ तक कि कुमारगुप्त को खुश करने ही के लिए कालिदास के द्वारा कुमारसम्भव की रचना का अनुमान आपने किया है। इसके सिवा और भी कितनी ही बड़ी विचित्र कल्पनाये आपने की हैं। इनके अनुसार कालिदास ईसा की पाँचवीं सदी में विद्यमान थे।

कुछ समय से साहित्याचार्य पाण्डेय रामावतार शर्मा भी इस तरह की पुरानी बातों की खोज में प्रवृत्त हुए हैं। आपने भी इस विषय में अपना मत प्रकाशित किया है। आपकी राय है कि कालिदास द्वितीय चन्द्रगुप्त और उसके पुत्र कुमारगुप्त के समय में थे। यह खबर जब मजूमदार बाबू तक पहुँची तब उन्होंने माडर्न-रिव्यू में वह लेख प्रकाशित किया जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। उसमें आप कहते हैं कि कालिदास का स्थितिकाल ढूँढ़ निकालने का यश जो पाण्डेय जी लेना चाहते हैं वह उन्हें नहीं मिल सकता। उसके पाने का अधिकारी अकेला मैं ही हूँ। क्योंकि इस आविष्कार को मैंने बहुत पहले किया था। पाण्डेय जी कहते हैं कि जो
आविष्कार मैंने किया है उसका इङ्गित मुझे स्मिथ साहब और मुग्धानलाचार्य्य से मिला था। उसी इशारे पर मैंने अपने अनुमान की इमारत खड़ी की है। मेरी सारी कल्पनायें और तर्कनायें मेरी निज की हैं। इनके अनुसार कालिदास ईसा की चौथी शताब्दी के अन्त और पाँचवीं के आरम्भ में थे। श्रीराजेन्द्रनाथ विद्याभूषण प्रणीत 'कालिदास' नामक समालोचना-अन्य की भूमिका में श्रीयुत हरिनाथ दे महाशय ने भी पाण्डेय जी का मत लिखा है। उसमें उन्होंने लिखा है किः-

(१) तस्मै सभ्याः सभार्य्याय गोप्त्रे गुप्ततमेन्द्रिया:

(२) अन्वास्य गोप्ता गृहिणी-सहायः

(३) स्ववीय गुप्ता हि मनाः प्रसूतिः

इत्यादि रघुवंश के श्लोकों में गोप्ता, गुप्त, गोप्त्रे आदि पद गुप्तवंशी राजाओं के सूचक हैं।

प्रयाग में समुद्रगुप्त का जो स्तम्भ है उस पर उसके विजय की वार्ता खुदी हुई है। वह रघु के दिग्विजय से बहुत कुछ मिलती है। अर्थात कालिदास ने रघु के दिग्विजय के बहाने समुद्रगुप्त का दिग्विजय-वर्णन किया है। मजूमदार महाशय ने रघु का दिग्विजय स्कन्दगुप्त का दिग्विजय बताया! इन्होंने उसे समुद्रगुप्त का बताया!! आगे चल कर पाठकों को मालूम होगा कि एक और महाशय ने उसे ही यशोधा का दिग्विजय समझा है!!! कुमारसम्भव के "कुमार-कल्पं सुषुवे कुमारं" और "न कारणाद् स्वाद् बिभिदे कुमारः"-आदि में जो 'कुमार' शब्द है उसे आप लोग कुमारगुप्त का गुप्तवाची बतलाते हैं।

पाण्डेयजी की यशःप्राप्ति में बड़ी बाधायें आ रही हैं। डाक्टर एच० बेक (Beckh) तिब्बती और संस्कृत भाषा के बड़े पण्डित हैं। कालिदास के समय निर्णय के विषय में जिन तत्वों का आविष्कार पाण्डेयजी ने किया है प्रायः उन्हीं का आविष्कार डाक्टर साहब ने भी किया है। परन्तु पण्डितों की राय है कि दोनों महाशयों को एक दूसरे की खोज की कुछ भी ख़बर न थी। दोनों निरूपण या निर्णय यद्यपि मिलते हैं तथापि उनमें परस्पर आधार-प्राधेय भाव नहीं। पारागनी - Trm -----...
काल-सम्बन्ध में एक बड़ा ग्रन्थ लिख रहे हैं। उनके मत का सारांश नीचे दिया जाता है।

ईसा के पहले, पहले शतक में, विक्रम नाम का कोई ऐतिहासिक राजा नहीं हुआ। उसके नाम से जो संवत् चलता है वह पहले मालवगणस्थित्याव्द कहलाता था। मन्दसौर में ५२६९ संवत् का जो उत्कीर्ण लेख मिला है वह इस संवत् का दर्शक सब से पुराना लेख है। उसमें लिखा है:-

मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये-इत्यादि

महाराज यशोधा के बहुत काल पीछे इस संवत् का नाम विक्रम- संवत् हुआ। गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान पहले ग्रन्थकार हैं जिन्होंने विक्रम संवत् का उल्लेख किया है। देखिए:-

सप्तनवत्यधिकेष्वेकादासु शतेष्वतीतेषु।
वर्षाणां विक्रमतो गणरत्नमहोदधिर्विहितः॥

इसका पता नहीं चलता कि कब और किसने मालव-संवत् का नाम विक्रम संवत् कर दिया।

कालिदास शुङ्ग-राजाओं से परिचित थे। वे गणित और फलित दोनों ज्योतिष जानते थे। मेघदूत में उन्होंने बृहत्कथा की कथाओं का उल्लेख किया है। हूण आदि सीमा-प्रान्त की जातियों का भी उन्हें ज्ञान था। उन्होंने अपने प्रन्थों में, पातजंल के अनुसार, कुछ व्याकरण-प्रयोग जान बूझ कर ऐसे किये हैं जो बहुत कम प्रयुक्त होते हैं। इन कारणों से कालिदास ईसवी सन के पहले के नहीं माने जा सकते। पतञ्जलि ईसा के पूर्व दूसरे शतक में थे। उनके बाद पाली की पुत्री प्राकृत ने कितने ही रूप धारण किये। वह यहाँ तक प्रबल हो उठी कि कुछ समय तक उसने संस्कृत को प्रायः दबा सा दिया। अतएव जिस काल में प्राकृत का इतना प्राबल्य था उस काल में कालिदास ऐसे संस्कृत-कवि का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। फिर, पैशाची भाषा में लिखी हुई गुणाढ्य-कृत बृहत्कथा की कथाओं से कालिदास का परिचित होना भी यह कह रहा है कि वे गुणाढ्य के बाद हुए हैं, प्राकृत के प्राबल्य-काल में नहीं। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में ज्योतिष-सम्बन्धिनी जो बाते लिखी हैं उनसे वे आर्यभट्ट और वराहमिहिर के समकालीन ही से जान पड़ते हैं। इन बातों से सूचित होता है कि कालिदास
ईसवी सन् के तीसरे शतक के पहले के नहीं। इसके साथ ही यह भी सूचित होता है कि वे ईसवी सन् के पाँचवें शतक के बाद के भी नहीं, क्योंकि सातवे शतक के कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में कालिदास का नामोल्लेख किया है। दूसरे पुलकेशी की प्रशस्ति में रविकीर्ति ने भी भारवि के साथ कालिदास का नाम लिखा है। यह प्रशस्ति भी सातवें शतक की है। इस प्रशस्ति के समय भारवि को हुए कम से कम सौ वर्ष ज़रूर हो चुके होंगे। क्योंकि किसी प्रसिद्ध राजा की प्रशस्ति में उसी कवि का नाम लिखा जा सकता है जो स्वयं भी खूब प्रसिद्ध हो। और, प्राचीन समय में किसी की कीर्ति के प्रसार में सौ वर्ष से क्या कम लगते रहे होंगे। इधर बाण ने कालिदास का नामोल्लेख करने के सिवा सुबन्धु की वासवदत्ता, का भी उल्लेख किया है। अतएव सुबन्धु भी बाण के कोई सौ वर्ष पहले हुए होंगे। इस हिसाब से भारवि और सुबन्धु का समय ईसवी सन् के छठे शतक के पूर्वार्द्ध में सिद्ध होता है। भारवि और सुबन्धु की रचना में भङ्गश्लेष आदि के कारण क्लिष्टता आ गई है। पर यह दोष कालिदास की कविता में नहीं. है। अतएव वे भारवि और सुबन्धु के कोई सौ वर्ष ज़रूर पहले के हैं। अतएव वे गुप्त-नरेश द्वितीय चन्द्रगुप्त, उपनाम विक्रमादित्य, और तत्परवर्ती कुमारगुप्त के समय के जान पड़ते हैं। अर्थात् वे, अनुमान से, ३७५ से ४५० ईसवी के बीच में विद्यमान थे।

यह पाण्डेयजी की कल्पना-कोटियों का सारांश है। इसके बाद पाण्डेयजी ने और भी अनेक युक्तियों से अपने मत की पुष्टि की है। इन्दुमती के स्वयम्वर का उल्लेख कर के आप ने लिखा है कि कालिदास ने सब से पहले इन्दुमती को मगध-नरेश के ही पास खड़ा किया है, अवन्ती के अधीश्वर के पास नहीं। यदि वे अवन्ती (उज्जेन) के राजा के आश्रित होते तो वे इन्दुमती को पहले अपने आश्रयदाता के सामने ले जाते। पाण्डेयजी की राय में मगध-नरेश ही उस समय अवन्ती का भी स्वामी था। अतएव अवन्तिनाथ का जो वर्णन इन्दुमती के स्वयंवर में है उससे मगधेश्वर ही का बोध होता है। दोनों का स्वामी एकही था और वह द्वितीय चन्द्रगुप्त के सिवा और कोई नहीं हो सकता। ग्रन और mor-----
काल-सम्बन्ध में एक बड़ा ग्रन्थ लिख रहे हैं। उनके मत का सारांश नीचे दिया जाता है।

ईसा के पहले, पहले शतक में, विक्रम नाम का कोई ऐतिहासिक राजा नहीं हुआ। उसके नाम से जो संवत् चलता है वह पहले मालवगणस्थित्याब्द कहलाता था। मन्दसौर में ५२९ संवत् का जो उत्कीर्ण लेख मिला है वह इस संवत् का दर्शक सब से पुराना लेख है। उसमें लिखा है:-

मालवानां गणस्थित्या याते शतचतुष्टये-इत्यादि

महाराज यशोधा के बहुत काल पीछे इस संवत् का नाम विक्रमसंवत् हुआ। गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान पहले ग्रन्थकार हैं जिन्होंने विक्रम संवत् का उल्लेख किया है। देखिए:-

सप्तनवत्यधिकेन्वेशदशसु शतेष्वतीतेषु।
वर्षाणां विक्रमतो गणरत्नमहोदधिर्विहितः॥

इसका पता नहीं चलता कि कब और किसने मालव-संवत् का नाम विक्रम संवत् कर दिया।

कालिदास शुङ्ग-राजाओं से परिचित थे। वे गणित और फलित दोनों ज्योतिष जानते थे। मेघदूत में उन्होंने बृहत्कथा की कथाओं का उल्लेख किया है। हूण आदि सीमा-प्रान्त की जातियों का भी उन्हें ज्ञान था। उन्होंने अपने प्रन्थों में, पातञ्जल के अनुसार, कुछ व्याकरण-प्रयोग जान बूझ कर ऐसे किये हैं जो बहुत कम प्रयुक्त होते हैं। इन कारणों से कालिदास ईसवी सन् के पहले के नहीं माने जा सकते। पतञ्जलि ईसा के पूर्व दूसरे शतक में थे। उनके बाद पाली की पुत्री प्राकृत ने कितने ही रूप धारण किये। वह यहाँ तक प्रबल हो उठी कि कुछ समय तक उसने संस्कृत को प्रायः दबा सा दिया। अतएव जिस काल में प्राकृत का इतना प्राबल्य था उस काल में कालिदास ऐसे संस्कृत-कवि का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता। फिर, पैशाची भाषा में लिखी हुई गुणाढ्य-कृत बृहत्कथा की कथाओं से कालिदास का परिचित होना भी यह कह रहा है कि वे गुणाढ्य के बाद हुए हैं, प्राकृत के प्राबल्य-काल में नहीं। कालिदास ने अपने ग्रन्थों में ज्योतिष-सम्बन्धिनी जो बातें लिखी हैं उनसे वे आर्यभट्ट और वराहमिहिर के समकालीन ही से जान पड़ते हैं। इन बातों से सूचित होता है कि कालिदास
ईसवी सन् के तीसरे शतक के पहले के नहीं। इसके साथ ही यह भी सूचित होता है कि वे ईसवी सन् के पाँचवें शतक के बाद के भी नहीं, क्योंकि सातवे शतक के कवि बाणभट्ट ने हर्षचरित में कालिदास का नामोल्लेख किया है। दूसरे पुलकेशी की प्रशस्ति में रविकीर्ति ने भी भारवि के साथ कालिदास का नाम लिखा है। यह प्रशस्ति भी सातवें शतक की है। इस प्रशस्ति के समय भारवि को हुए कम से कम सौ वर्ष ज़रूर हो चुके होंगे। क्योंकि किसी प्रसिद्ध राजा की प्रशस्ति में उसी कवि का नाम लिखा जा सकता है जो स्वयं भी खूब प्रसिद्ध हो। और, प्राचीन समय में किसी की कीर्ति के प्रसार में सौ वर्ष से क्या कम लगते रहे होंगे। इधर बाण ने कालिदास का नामोल्लेख करने के सिवा सुबन्धु की वासवदत्ता, का भी उल्लेख किया है। अतएव सुबन्धु भी बाण के कोई सौ वर्ष पहले हुए होंगे। इस हिसाब से भारवि और सुबन्धु का समय ईसवी सन् के छठे शतक के पूर्वार्द्ध में सिद्ध होता है। भारवि और सुबन्धु की रचना में भङ्गश्लेष आदि के कारण क्लिष्टता आ गई है। पर यह दोष कालिदास की कविता में नहीं है। अतएव वे भारवि और सुबन्धु के कोई सौ वर्ष ज़रूर पहले के हैं। अतएव वे गुप्त-नरेश द्वितीय चन्द्रगुप्त, उपनाम विक्रमादित्य, और तत्परवर्ती कुमारगुप्त के समय के जान पड़ते हैं। अर्थात् वे, अनुमान से, ३७५ से ४५० ईसवी के बीच में विद्यमान थे।

यह पाण्डेयजी की कल्पना-कोटियों का सारांश है। इसके बाद पाण्डेयजी ने और भी अनेक युक्तियों से अपने मत की पुष्टि की है। इन्दुमती के स्वयम्बर का उल्लेख कर के आप ने लिखा है कि कालिदास ने सबसे पहले इन्दुमती को मगध-नरेश के ही पास खड़ा किया है, अवन्ती के अधीश्वर के पास नहीं। यदि वे अवन्ती (उज्जेन) के राजा के आश्रित होते तो वे इन्दुमती को पहले अपने आश्रयदाता के सामने ले जाते। पाण्डेयजी की राय में मगध-नरेश ही उस समय अवन्ती का भी स्वामी था। अतएव अवन्तिनाथ का जो वर्णन इन्दुमती के स्वयंवर में है उससे मगधेश्वर ही का बोध होता है। दोनों का स्वामी एकही था और वह द्वितीय चन्द्रगुप्त के सिवा और कोई नहीं हो सकता।

अब एक और आविष्कारक के आविष्कृत तत्व सुनिए। कलकत्ते में ए०
सी० चैटर्जी, एम० ए०, बी० एल० एक वकील हैं। आपकी रचित कालिदास-विषयक ढाई सौ पृष्ठ की एक पुस्तक अभी कुछ दिन हुए प्रकाशित हुई है। पुस्तक अँगरेज़ी में है। उसमें कालिदास से सम्बन्ध रखने वाले अनेक विषयों का वर्णन और विचार है। एक अध्याय उसमें कालिदास के स्थिति-समय पर भी है। चैटर्जी महोदय का मत है कि कालिदास मालव-नरेश यशोधा के शासन-काल, अर्थात् ईसा की छठी सदी, में वर्तमान थे। इनकी एक कल्पना बिलकुल ही नई है। उसे थोड़े में सुन लीजिए।

बड़े बड़े पण्डितों का मत है कि कपिल के सांख्य-प्रवचन-सूत्र सब से पुराने नहीं। किसी ने उन्हें पीछे से बनाया है। ईश्वरकृष्ण की सांख्य, कारिकाये ही सांख्य-शास्त्र का सबसे पुराना ग्रन्थ है। और, ईश्वरकृष्ण ईसा के छठे शतक के पहले के नहीं। कालिदास ने कुमारसम्भव में जो लिखा है :-

स्वामामनन्ति प्रकृति पुरुषार्थप्रवर्तिनीम्।
तहशिनमुदासीनं त्वामेव पुरुष विदुः॥

वह सांख्यशास्त्र का सारांश है। जान पड़ता है कि उसे कालिदास ने ईश्वरकृष्ण के ग्रन्थ को अच्छी तरह देखने के बाद लिखा है। दोनों की भाषा में भी समानता है और सांख्यतत्व-निदर्शन में भी। इस बात की पुष्टि में चैटर्जी महाशय ने रघुवंश के तेरहवें सर्ग का एक पद्य, और रघुवंश तथा कुमारसम्भव में व्यवहृत 'सङ्घात' शब्द भी दिया है। आपकी राय है कि 'सङ्घात' शब्द भी कालिदास को ईश्वरकृष्ण ही के ग्रन्थ से मिला है। यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि ईसा के छठे ही शतक में ईश्वरकृष्ण भी हुए और कालिदास भी। फिर किस तरह अपने समकालीन पण्डित की पुस्तक का परिशीलन करके कालिदास ने उसके तत्व अपने काव्यों में निहित किये। क्या मालूम ईश्वरकृष्ण छठी सदी में कब हुए और कहाँ हुए ? यदि यह मान भी लिया जाय कि कालिदास छठी ही सदी में थे तो भी इसका क्या प्रमाण कि वे ईश्वरकृष्ण से दस बीस वर्ष पहले ही लोकान्तरित नहीं हुए ? इसका भी क्या प्रमाण कि ईश्वरकृष्ण की कारिकाओं के पहले सांख्य का और कोई ग्रन्थ
विद्यमान न था ? सम्भव है कि कालिदास के समय में रहा हो और पीछे से नष्ट हो गया हो। कुछ भी हो, चैटर्जी महाशय की सब से नवीन और मनोरञ्जक कल्पना यही है। आपकी राय में रघुवंश और कुमारसम्भव ५८७ ईसवी के पहले के नहीं।

चैटर्जी महोदय ने अपने मत को और भी कई बातों के आधार पर निश्चित किया है। कालिदास के काव्यों में ज्योतिषशास्त्र-सम्बन्धिनी बातों के जो उल्लेख हैं उनसे भी आपने अपने मत की पुष्टि की है। कविकुलगुरु शैव थे; अथवा यों कहना चाहिए कि उनके ग्रन्थों में शिवोपासनाद्योतक पद्य हैं। ऐतिहासिक खोजों से आपने यह सिद्ध किया है कि इस उपासना का प्राबल्य, बौद्ध मत के ह्रास होने पर, छठी सदी में ही हुआ था। यह बात भी आपने अपने मत को पुष्ट करने वाली समझा है। आपकी सम्मति है कि रघु का दिग्विजय काल्पनिक है। यथार्थ में रघु सम्बन्धिनी सारी बातें यशोधर्म्मा विक्रमादित्य से ही सम्बन्ध रखती हैं। रघुवंश के :-

(१) प्रतापस्तस्य भानोश्च युगपद् व्यानशे दिशः।
(२) ततः प्रतस्थ कौवेरी भास्वानिव रघुदि शम्॥
(३) सहस्रगुणमुत्सृष्टुमादत्त हि रसं रविः।
(४) मत्त भर दनात्कीर्ण व्यक्तविक्रमलक्षणम्॥


इत्यादि और भी कितने ही श्लोकों में जो 'रवि,' 'भानु' और 'भास्वान्' आदि शब्द आये हैं उनसे आपने विक्रमादित्य के 'आदित्य' का अर्थ लिया है और जहाँ 'विक्रम' और 'प्रताप' आदि शब्द आये हैं वहाँ उनसे 'विक्रम' का। इस तरह आपने सिद्ध किया है कि यशोधा विक्रमादित्य ही को लक्ष्य करके कालिदास ने इन श्लिष्ट श्लोकों की रचना की है। अतएव वे उसी के समय में थे। उस ज़माने का इतिहास और कालिदास के ग्रन्थों की अन्तर्वर्ती विशेषतायें इस मत को पुष्ट करती हैं। यही चैटर्जी महाशय की गवेषणा का सारांश है। इन विद्वानों की राय में विक्रमादित्य कोई नाम-विशेष नहीं, वह एक उपाधिमात्र थी।

अश्वघोष के बुद्धचरित और कालिदास के काव्यों में जो समानता पाई जाती है उसके विषय में चैटर्जी महाशय का मत है कि दोनों कवियों के विचार लड़ गये हैं। अश्वघोष ने कालिदास के काव्यों को देखने के अनन्तर
अपना ग्रन्थ नहीं बनाया। दो कवियों के विचारों का लड़ जाना सम्भव है। पर क्या यह भी सम्भव है कि एक के काव्य के पद के पद, यहाँ तक कि प्रायः श्लोकार्द्ध के श्लोकार्द्ध तद्वत् दूसरे के दिमाग से निकल पड़ें? अस्तु, इन बातों का निर्णय विद्वान् ही कर सकते हैं। हम तो यहाँ उनकी राय मात्र लिखे देते हैं।

अच्छा यह तो सब हुआ। पर एक बात हमारी समझ में नहीं आई। यदि कालिदास को चन्द्रगुप्त, कुमारगुप्त, समुद्रगुप्त, स्कन्दगुप्त या और किसी गुप्तनरेश किंवा यशोधर्म्मा का कीर्ति गान अभीष्ट था तो उन्होंने साफ़ साफ़ वैसा क्यों न किया ? क्यों न एक अलग ग्रन्थ में उनकी स्तुति की ? अथवा क्यों न उनका चरित या वंशवर्णन स्पष्ट शब्दों में किया ? गुप्त, स्कन्द, कुमार, समुद्र, चन्द्रमा, विक्रम और प्रताप आदि शब्दों का प्रयोग करके छिपे छिपे क्यों उन्होंने गुप्त-वंश का वर्णन किया ? इस विषय में बहुत कुछ कहने को जगह है।

जैसा ऊपर, एक जगह, लिखा जा चुका है, पुरातत्व के अधिकांश विद्वानों का मत है कि ईसा के ५७ वर्ष पूर्व भारत में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा ही न था। उसके नाम से जो संवत् प्रचलित है वह पहले मालव संवत् कहलाता था। पीछे से उसका नाम विक्रम संवत् हुआ।

सारांश यह कि कालिदास विक्रमादित्य के सभा पण्डित ज़रूर थे; पर दो हज़ार वर्ष के पुराने काल्पनिक विक्रमादित्य के सभा-पण्डित न थे। ईसा के पाँच छः सौ वर्ष बाद मालवा में जो विक्रमादित्य हुआ-चाहे वह यशोधर्म्मा हो, चाहे और कोई-उसी के यहाँ वे थे। पर प्रसिद्ध विद्वान चिन्तामणिराव वैद्य, एम० ए०, ने विक्रम संवत् पर एक बड़ाही गवेषणापूर्ण लेख लिख कर इन बातों का खण्डन किया है। उन्होंने ईसा के पहले एक विक्रमादित्य के अस्तित्व का ग्रंथ लिखित प्रमाण भी दिया है और यह भी सिद्ध किया है कि इस नाम का संवत् उसी प्राचीन विक्रमादित्य का चलाया हुआ है। अतएव वैद्य महाशय के लेख का भी सार सुन लीजिए।

डाकूर कीलहान के मन में, नाना कारणों से, विक्रम संवत् के विषय में एक कल्पना उत्पन्न हुई। उन्होंने यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि इस संवत् का जो नाम इस समय है वह आरम्भ में न था। पहले वह मालव
संवत् के नाम से उल्लिखित होता था। अनेक शिला-लेखों और ताम्रपत्रों के आधार पर उन्होंने यह दिखाया कि ईसा के सातवें शतक के पहले लेखों और पत्रों में इस संवत् का नाम मालव-संवत् पाया जाता है। उनमें अङ्कित "मालवानां गणस्थित्या” पद का अर्थ उन्होंने लगाया-मालव देश की गणना का क्रम। डाकूर साहब का कथन है कि ईसा के छठे शतक में यशोधर्म्मा नाम का एक प्रतापी राजा मालवा में राज्य करता था। उसका दूसरा नाम हर्षवर्धन था। उसने ५४४ ईसवी में, हूणों के राजा मिहिरगुल को मुलतान के पास कोरूर में परास्त करके हूणों का बिलकुलही तहस नहस कर डाला। इस जीत के कारण उसने विक्रमादित्य उपाधि ग्रहण की। तबसे उसका नाम हुआ हर्षवर्धन विक्रमादित्य। इसी जीत की खुशी में उसने पुराने प्रचलित मालव-संवत् का नाम बदल कर अपनी उपाधि केयअनुसार उसे विक्रम संवत् कहे जाने की घोषणा दी। साथ ही उसने एक बात और भी की। उसने कहा, इस संवत् को ६०० वर्ष का पुराना मान लेना चाहिए, क्योंकि नये किंवा दो तीन सौ वर्ष के पुराने संवत् का उतना आदर न होगा। इसलिए उसने ५४४ में ५६ जोड़ कर ६०० किये। इस तरह उसने इस विक्रम-संवत् की उत्पत्ति ईसा के ५६ या ५७ वर्ष पहले मान लेने की आज्ञा लोगों को दी।

इस संवत् के सम्बन्ध में जितने वाद, विवाद और प्रतिवाद हुए हैं, सब का कारण डाकूर कीलहान का पूर्वोक्त लेख है। पुराने जमाने के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में "मालवानां गणस्थित्या" होने से ही क्या यह सिद्ध माना जा सकता है कि इस संवत् का कोई दूसरा नाम न था ? इसका कोई प्रमाण नहीं कि जिस समय के ये लेख और पत्र हैं उस समय के कोई और ऐसे लेख या पत्र कहीं छिपे हुए नहीं पड़े जिनमें यही संवत् विक्रम संवत् के नाम से उल्लिखित हो ? देखना यह चाहिए कि ईस्वी सन् के ५७ वर्ष पहले मालवा में कोई बड़ी घटना हुई थी या नहीं और विक्रमादित्य नाम का कोई राजा वहाँ था या नहीं।

ज़रा देर के लिए मान लीजिए कि इसका आदिम नाम मालव-संवत् ही था। अच्छा तो इस नाम को बदल कर कोई 'विक्रम संवत्' करेगा क्यों ? कोई भी समझदार आदमी दूसरे की चीज़ का उल्लेख अपने नाम से नहीं
करता। किसी विजेता राजा को दूसरे के चलाये संवत् को अपना कहने में क्या कुछ भी लज्जा न मालूम होगी ? वह अपना एक नया संवत् सहज ही में चला सकता है। किसी के संवत् का नाम बदल कर उसे अपने नाम से चलाना और फिर उसे ६०० वर्ष पीछे फेंक देना बड़ी ही अस्वाभाविक बात है। भारतवर्ष का इतिहास देखने से मालूम होता है कि जितने विजेता राजाओं ने संवत् चलाया है सबने नया संवत् अपनेही नाम से चलाया है। पुराणों और भारतवर्ष की राजनीति-सम्बन्धिनी प्राचीन पुस्तकों में इस बात की साफ़ आज्ञा है कि बड़े बड़े नामी और विजयी नरेशों को अपना नया संवत् चलाना चाहिए। युधिष्ठिर, कनिष्क, शालिवाहन और श्रीहर्ष आदि ने इस आज्ञा का पालन किया है। शिवाजी तक ने अपना संवत्ल ग चलाने की चेष्टा की है। अतएव दूसरे के संवत् को अपना बनाने की कल्पना हास्यास्पद और सर्वथा अस्वाभाविक है।

पुरातत्ववेत्ता ईसा के पूर्व, पहले शतक, में किसी विक्रमादित्य का होना मानने से बेतरह सङ्कोच करते हैं। इसलिए कि उस समय का न कोई ऐसा सिक्का ही मिला है जिसमें इस राजा का नाम हो, न कोई शिलालेखही मिला है, न कोई ताम्रपत्रही मिला है। परन्तु उनकी यह युक्ति बड़ी ही निर्बल है। तत्कालीन प्राचीन इतिहास में इस राजा के नाम का न मिलना उसके अनस्तित्व का बोधक नहीं माना जा सकता। पुराने जमाने के सारे ऐतिहासिक लेख प्राप्त हैं कहाँ ? यदि वे सब प्राप्त हो जाते और उनमें विक्रमादित्य का नाम न मिलता तो ऐसी शङ्का हो सकती थी। पर बात ऐसी नहीं है। विक्रमादित्य का नाम ज़रूर मिलता है। दक्षिण में शातवाहन-वंशीय हाल-नामक एक राजा हो गया है। विन्सेंट स्मिथ साहब ने उसका समय ६८ ईसवी निश्चित किया है। इस हाल ने गाथा-सप्तशती नाम की एक पुस्तक प्राचीन महाराष्ट्री भाषा में लिखी है। उसके पैंसठवें पद्य का संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है:-


  • केनडी नामक एक विलायती विद्वान् ने, कुछ समय हुश्आ, एक नवीन ही कल्पना कर डाली है। आप की राय है कि विक्रम संवत् राजा कनिष्क का चलाया हुआ है। ईसा के ५६ वर्ष पहले काश्मीर में बौद्धों का दूसरा सम्मेलन कराने और
अपने जन्मधर्म को छोड़ कर बौद्ध होने के उपलक्ष्य में उसी ने इस संवत् का प्रचार किया। पर इस अनुमान का पोषक एक भी अच्छा प्रमाण आपने नहीं दिया।
संवाहनसुखरसतोषितेन ददता तय करे लक्षम्।
चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुशिक्षित तस्याः।।

इस पद्य में विक्रमादित्य की उदारता का वर्णन है-उसके द्वारा एक लाख रुपये दिये जाने का उल्लेख है। इससे इस बात का पूरा प्रमाण मिलता है कि हाल-नरेश के पहले विक्रमादित्य नाम का दानशील राजा कोई ज़रूर था। अब इस बात का विचार करना है कि इस राजा ने शकों का पराभव किया था या नहीं ? उसका शकारि होना यथार्थ है या अयथार्थ ?

विन्सेन्ट स्मिथ साहब ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में लिखा है कि शक जाति के म्लेच्छों ने ईसा के कोई १५० वर्ष पहले उत्तर-पश्चि- माञ्चल से इस देश में प्रवेश किया। उनकी दो शाखायें हो गई। एक शाखा के शकों ने तक्षशिला और मथुरा में अपना अधिकार जमाया और क्षत्रप नाम से प्रसिद्ध हुए। इनके सिक्कों से इनका पता ईसा के १०० वर्ष पहले तक चलता है। उसके पीछे उनके अस्तित्व का कहीं पता नहीं लगता। दूसरी शाखावालों ने ईसा की पहली शताब्दी में काठियावाड़ को अपने अधिकार में किया। धीरे धीरे इन लोगों ने उज्जेन को भी अपने अधीन कर लिया। इन्हें गुप्तवंशी राजाओं ने हरा कर उत्तर की ओर भगा दिया। अच्छा, तो इनके पराभवकता तो गुप्त हुए। पहली शाखा के ऋणों का विनाश किसने साधन किया ? क्या बिना किसी के निकाले ही वे इस देश से चले गये ? अपना राज्य-अपना अधिकार-क्या कोई योंही छोड़ देता है ? उनका पता पीछे के ऐतिहासिक लेखों से चलता क्यों नहीं ? क्या इसके सिवा इसका और कोई उत्तर हो सकता है कि ईसा के ५७ वर्ष पहले विक्रमादित्य ही ने उन्हें नष्ट-विनष्ट करके इस देश से निकाल दिया ? इसी विजय के कारण उसको शकारि उपाधि मिली और संवत् भी इसी घटना की याद में उसने चलाया। मुल्तान के पास कोरूर वाला युद्ध इन्हीं तक्षशिला और मथुरा के शकों और विक्रमादित्य के मध्य हुआ था। इसके सिवा इसका अब और क्या प्रमाण चाहिए ?

इस पर भी शायद कोई यह कहे कि यह सब सही है। पर कोई पुराना शिलालेख लाओ, कोई पुराना सिक्का लाओ, कोई पुराना ताम्रपत्र लाओ जिसमें विक्रम संवत् का उल्लेख हो। तब हम आपकी बात मानेंगे, अन्यथा
नहीं। खुशी की बात है कि इस तरह का एक प्राचीन लेख भी मिला है। यह पेशावर के पास तख्तेबाही नामक स्थान में प्राप्त हुआ है। इसलिए उसी के नाम से यह प्रसिद्ध है। यह उत्कीर्ण लेख पार्थियन राजा गुडूफर्स के समय का है। यह राजा भारत के उत्तर-पश्चिमाञ्चल का स्वामी था। इस लेख में १०३ का अङ्क है; पर संवत् का नाम नहीं। गुडूफर्स के सिंहासन पर बैठने के छब्बीसवें वर्ष का यह लेख है। डाक्टर फ्लोट और मिस्टर विन्सेंट स्मिथ ने अनेक तर्कनाओं और प्रमाणों से यह सिद्ध किया है कि यह १०३ विक्रम संवत् ही का सूचक है। राजा गुडूफर्स का नाम यहूदियों की एक पुस्तक में आया है। यह पुस्तक ईसा के तीसरे शतक की लिखी हुई है। इससे, और इस सम्बन्ध के और प्रमाणों से, यह निःसंशय प्रतीत होता है कि विक्रम संवत् का प्रचार ईसा के तीसरे शतक के पहले भी था और मालवा ही में नहीं, किन्तु पेशावर और काश्मीर तक में उसका व्यवहार होता था। इस पर भी यदि कोई इस संवत् का प्रवर्तक माल- वाधिपति शकारि विक्रमादित्य को न माने और उसकी उत्पत्ति ईसा के छठे शतक में हुई बतलाने की चेष्टा करे तो उसका ऐसा करना हठ और दुराग्रह के सिवा और क्या कहा जा सकता है।

वैद्य महाशय के कथन का सार-अंश इतना ही है। उनकी उक्तियों का आज तक किसी ने युक्तिपूर्ण खण्डन नहीं किया। और, किया भी हो तो हमारे देखने में नहीं आया। तथापि इस समय कितने ही विद्वान् पांडेयजी के मत की ओर विशेष खिंचे हुए हैं। परन्तु पांडेयजी की दो एक कल्पनाये किसी किसी को नहीं जंचती। प्राकृत-काल में कालि. दास जैसे कवि का होना क्यों सम्भव नहीं ? उदू और फ़ारसी के केन्द्र देहली और लखनऊ में क्या संस्कृत के पण्डित नहीं उत्पन्न हुए और संस्कृत के केन्द्र काशी में क्या उर्दू और फ़ारसी के विद्वान नहीं हुए ? अच्छा यदि द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय में ही कालिदास का होना मान लिया जाय तो वे चन्द्रगुप्त के आश्रित कैसे हुए ? वे तो उज्जैन में थे, चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटली-पुत्र थी। अवन्तो या उज्जेन चन्द्रगुप्त के अधीन थी तो क्या हुआ, वहाँ वह रहता तो था ही नहीं। रहता तो उसका सूबेदार था। एक बात और शी है। कालिदास ने मगध की राजधानी का नाम
पुष्पपुर लिखा है। यह पटना (पाटली-पुत्र) का प्राचीन नाम है। क्या ईस्वी सन् के चौथे और पाँचवे शतक में भी पुष्पपुर ही मगध की राजधानी था ? यदि नहीं, तो इससे कालिदास का द्वितीय चन्द्रगुप्त के समय में होना नहीं सिद्ध होता। अस्तु।

कालिदास के समयनिरूपण के सम्बन्ध में विद्वानों की जो सम्मतियाँ हैं उनमें से प्रधान प्रधान का उल्लेख यहाँ किया गया। अब इनमें से पाठकों को जो विशेष मनोनीत हो उसे वे स्वीकार कर सकते हैं।

'कालिदास की जन्मभूमि।'

कालिदास के काव्यों को ध्यानपूर्वक पढ़ने से यह मालूम होता है कि वे काश्मीर के रहने वाले थे। मेघदूत में उन्होंने उज्जेन और विदिशा से अलका तक का आँखों देखा सा वर्णन किया है। उसे पढ़ते समय ऐसा जान पड़ता है कि जिन पर्वतों, नदियों, नगरों और देवस्थानों आदि का उल्लेख उन्होंने किया है उनसे उनका प्रत्यक्ष परिचय था। कुमार- सम्भव में हिमालय का जो वर्णन है उससे भी यही अनुमान होता है। साहित्याचार्य पण्डित रामावतार पाण्डेय, एम० ए०, का भी यही अनुमान है। उन्होंने इस अनुमान की पुष्टि में विक्रमाङ्कदेवचरित से बिल्हण का यह श्लोक उद्धृत किया है:--

सहोदराः कुङ्क मकेसराणां भवन्ति नूनं कविताविलासाः।

न शारदादेशमपास्य दृष्टस्तेषां यदन्यत्र मया प्रहः॥

अर्थात् केसर और कविता-विलास काश्मीर में सहोदर की तरह उत्पन्न होते हैं। यदि बाण जैसे गद्य-काव्य-प्रणेता और कालिदास जैसे पद्य-रचना-निपुण महाकवि काश्मीर के निवासी न होते तो बिल्हण को ऐसी गॉक्ति कहने का साहस न होता।

जान पड़ता है कि कालिदास प्रौढ़ वय में उज्जेन आये, क्योंकि कुमार- सम्भव और मालविकाग्निमित्र में, जो उनकी युवावस्था के ग्रन्थ हैं, उज्जेन-सम्बन्धिनी कोई बाते नहीं हैं। पर मेघदूत में सिप्रा, विदिशा और उज्जेन के मन्दिर, प्रासाद और उद्यान आदि का ऐसा अच्छा वर्णन है जैसे उन्होंने उनको प्रत्यक्ष देखा हो।