रघुवंश/भूमिका/कालिदास की कविता

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'कालिदास की कविता।'

कालिदास ने यद्यपि अपने जन्म से भारत हो को अलङ्कत किया, तथापि वे अकेले भारत के ही कवि नहीं। उन्हें भूमिमण्डल का महाकवि कहना चाहिए। उनकी कविता से भारतवासियों ही की आनन्द-वृद्धि नहीं होती। उसमें कुछ ऐसे गुण हैं कि अन्य देशों के निवासियों को भी उसके पाठ और परिशीलन से वैसा ही आनन्द मिलता है जैसा कि भारतवासियों को मिलता है। जिसमें जितनी अधिक सहृदयता है, जिसने प्रकृति के प्रसार और मानव-हृदय के भिन्न भिन्न भावों का जितना ही अधिक ज्ञान-सम्पादन किया है उसे कालिदास की कविता से उतना ही अधिक प्रमोदानुभव होता है। कवि-कुल-गुरु की कविता में प्रमोदोत्पादन की जो शक्ति है वह अविनाशिनी है। हज़ारों वर्ष बीत जाने पर भी न उसमें कमी हुई है, न उसमें किसी प्रकार का विकार उत्पन्न हुआ है और न आगे होने की सम्भावना ही है। जब तक जगत् के साक्षर जन सच्ची और सरस, स्वाभाविक और सुन्दर कविता का आदर करते रहेंगे तब तक कालिदास के विषय में उनकी पूज्य बुद्धि भी अक्षुण्ण रहेगी। प्रमोद जनक और शिक्षादायक वस्तुओं को जब तक मनुष्य समुदाय अपने लिए हितकर समझेगा तब तक कालिदास की कीर्ति, यदि उत्तरोत्तर बढ़े भी नहीं, तो कम भी न होगी।

कालिदास को संस्कृत-कवितारूपी आकाश का पूर्ण चन्द्र कहना चाहिए। उनके किस किस गुण की प्रशंसा की जाय। संस्कृत-भाषा पर उनका अधिकार असामान्य था। उन्होंने अपनी कविता में चुन चुन कर सरल, पर सरस और प्रसङ्गानुरूप शब्दों की ऐसी योजना की है जैसी कि आज तक और किसी कवि की कविता में नहीं पाई जाती। उनकी प्रतिभा विश्वतोमुखी थी। उनकी कल्पनाओं की पहुँच पृथ्वी, आकाश, पाताल सब कहीं थी। उनके वर्णन का ढंग बड़ा ही सुन्दर और हृदयस्पर्शी है। व्याकरण, ज्योतिष, अलङ्कारशास्त्र, नीतिशास्त्र, वेदान्त, सांख्य, पदार्थ-विज्ञान, इतिहास, पुराण आदि जिस शास्त्र और जिस विषय में उन्हें जो बात अपने मतलब की देख पड़ी है उसी को वहाँ से खींच कर उसके उप[ २८ ]
योग द्वारा उन्होंने अपने मनोभावों को मनोहर से मनोहर रूप देकर व्यक्त किया है।

श्रीयुत अरविन्द घोष ने कालिदास पर एक निबन्ध लिखा है। उसमें उन्होंने कालिदास की कविता के विषय में जो राय दी है उसका आशय नीचे दिया जाता है:-

"कालिदास की तर्कना-शक्ति बहुत ही अच्छी थी। शृङ्गार और करुण रस के वर्णन में वे सिद्धहस्त थे। कालिदास में प्रधान गुण यह था कि वे प्रत्येक काव्योपयोगी सामग्री को-काव्य के प्रत्येक अंश को-बड़े ही कौशल से सुन्दर बना देते थे। अपने वर्णनीय विषय की मूर्ति पाठकों के सामने खड़ी कर देने की जैसी शक्ति कालिदास में थी वैसी और किसी कवि में नहीं पाई जाती।

'बड़े बड़े कवि जब बहुत उत्तेजित होकर किसी बात का वर्णन करने लगते हैं तभी उनमें उस बात को प्रत्यक्षवत् दिखा देने की शक्ति आती है। पर कालिदास में यह विलक्षण शक्ति सब समय वर्तमान रहती थी। इसी शक्ति के साथ अपनी सौन्दर्य-कल्पना की सर्वश्रेष्ठ शक्ति को मिला कर वे काव्यचित्र बनाया करते थे। वे जैसे उत्तम विषय की कल्पना कर सकते थे वैसे ही उसे खूबसूरती के साथ सम्पन्न भी कर सकते थे। भाषा और शब्दों के सौन्दर्य तथा उनकी ध्वनि और अर्थ आदि का भी वे बड़ा ख़याल रखते थे। उन्होंने संस्कृत-भाषा के भाण्डार से बहुत ही ललित छन्दों और भावपूर्ण सरस शब्दों को चुन चुन कर अपनी कविता के काम में लगाया है। इससे उनकी रचना देववाणी की तरह मालूम होती है। कालिदास की भावोद्बोधन शक्ति ऐसी अच्छी थी कि पिछले हज़ार वर्ष के संस्कृत-साहित्य में सर्वत्र उसी की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। इनकी कविता में संक्षिप्तता, गम्भीरता और गौरव--तीनों बातें पाई जाती हैं। भाषा की सुन्दरता और प्रसङ्गानुकूल शब्दों की योजना से इनकी रचना का सौन्दर्य और माधुर्य और भी बढ़ गया है। यों तो कालिदास ने सभी विषयों का वर्णन बड़े ही ललित पद्यों में किया है। पर इनके ऐतिहासिक काव्य और नाटक बहुत ही अच्छे हैं। ऐतिहासिक काव्य-रचना में कालिदास मिल्टन से भी बढ़ गये हैं। इनके नाटकों की भाषा में असाधारण [ २९ ]सुन्दरता और मधुरता है। वह भाषा बोल-चाल में व्यवहार करने लायक है। कालिदास को इन्हीं श्रेष्ठ गुणों से युक्त होकर ऐसे समय में जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिसके साथ इनकी स्वाभाविक सहा-नुभूति थी।

"कालिदास ने अपने अपूर्व कवि-कौशल से अनूठे अनूठे पौराणिक दृश्यों पर नये नये बेलबूटे लगा कर उनकी सुन्दरता और भी बढ़ा दी है। आँख, कान, नाक, मुँह आदि ज्ञानेन्द्रियों की तृप्ति के विषय, तथा कल्पना और प्रवृत्ति, यही बाते काव्यरचना के मुख्य उपादान हैं। कालिदास ने इन सामग्रियों से एक आदर्श-सौन्दर्य की सृष्टि की है। कालिदास के काव्यों से स्वर्गीय सौन्दर्य की आभा झलकती है। वहाँ सभी विषय सौन्दर्य के शासन के अधीन हैं। धार्मिक भाव और बुद्धि भी सौन्दर्य-शासन में रक्खी गई है। परन्तु इतने पर भी, अन्यान्य सौन्दर्य-उपासना-पूर्ण कविताओं के स्वाभाविक दोषों से कालिदास की कविता बची हुई है। अन्य कविताओं की तरह इनकी कविता धीरे धीरे कमज़ोर नहीं होती गई। उसमें दुराचार की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। इनकी कविता अपनी नायिकाओं की काली कुटिल अलकों और भ्र-भङ्गियों में भी अत्यन्त उलझी हुई नहीं जान पड़ती। कालिदास की रचना इन सब दोषों से बची हुई है। समुचित शब्दों के प्रयोग और काव्य के चम- त्कार की ओर ही इनका अधिक ध्यान था।"

अरविन्द बाबू की इस सम्मति से हम पूर्णतया सहमत हैं।


'कालिदास और शेक्सपियर।'

रचनानैपुण्य और प्रतिभा के विकाशसम्बन्ध में कालिदास की बराबरी का यदि और कोई कवि हुआ है तो वह शेक्सपियर ही है। भिन्न भिन्न देशों में जन्म लेकर भी सारे संसार को अपने कवित्व-कौशल से एक सा मुग्ध करनेवाले यही दो कवि हैं। इनकी रचनायें इस बात का प्रमाण हैं कि इन दोनों के हृदय-क्षेत्र में एकही सा कवित्व-बीज वपन हुआ था। इनके विचार, इनके भाव, इनकी उक्तियाँ अनेक स्थलों में परस्पर लड़ गई हैं। जिस वस्तु को जिस दृष्टि से कालिदास ने देखा है प्रायः उसी दृष्टि से शेक्सपियर ने भी देखा है। शेक्सपियर ने अपने नाटकों में भिन्न भिन्न [ ३० ]
स्वभाववाले मनुष्यों के भिन्न भिन्न चित्र अङ्कित किये हैं। कालिदास ने भी ठीक वैसा ही किया है। जिसका जैसा स्वभाव है उसका वैसा ही चित्र उन्होंने उतारा है। जिस कार्य का जैसा परिणाम होना चाहिए उसका वैसाही निदर्शन उन्होंने किया है। प्रेमियों की जो दशा होती है, उनके हृदय में जिन विकारों का प्रादुर्भाव होता है, वे अपने प्रेमपात्र कों जिस दृष्टि से देखते हैं-कालिदास और शेक्सपियर दोनों के नाटको में इन बातों का सजीव चित्र देखने को मिलता है। शेक्सपियर के मैकबेथ, ओथेलो, रोमियो, जूलियट, मिरंडा और देसदेमोना आदि के चित्रों का मिलान कालिदास के दुष्यन्त, अग्निमित्र, पुरूरवा, शकुन्तला, प्रियवदा आदि के चित्रों से करने पर यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि इन दोनों महाकवियों को मानवी स्वभाव का कितना तलस्पर्शी ज्ञान था। कहीं कहीं पर तो इन महाकवियों के नाटक-पात्रों ने, तुल्य प्रसङ्ग आने पर, ठीक एकहीसा व्यवहार किया। शकुन्तला के विषय में दुष्यन्त कहता है:-

अभिमुखे मयि संहृतमीक्षितं हसितमन्यनिमित्तकथोदयम्

रोमियो भी जूलियट के विषय में प्रायः यही कहता है:-

She will not stay the siege of loving terms,

Nor bide the encounter of assailing eyes.

शेक्सपियर और कालिदास में यदि कुछ भेदभाव है तो यह है कि कालिदास प्रकृति-ज्ञान में अद्वितीय थे और शेक्सपियर मानवमनोभाव-ज्ञान में। मानव-जाति के मनोभावों का जैसा सजीव चित्र शेक्सपियर ने चित्रण किया है वैसाही सजीव चित्र कालिदास ने प्राकृतिक पदार्थों का चित्रण किया है। कालिदास बहिर्जगत् के चित्रकार या व्याख्याता थे, शेक्सपियर अन्तर्जगत् के। मानवी मनोविकारों का कोई भेद शेक्सपियर से छिपा नहीं रहा। उसी तरह सृष्टि में जितने प्राकृतिक पदार्थ हैं-जितने प्राकृतिक दृश्य हैं-उनका कोई भी रहस्य कालिदास से छिपा नहीं रहा। कवित्वशक्ति दोनों में ऊँचे दरजे की थो; परन्तु एक की शक्ति अन्तर्जगत् के रहस्यों का विश्लेषण करने की तरफ़ विशेष झुकी हुई थी, दूसरे की बहिर्जगत् के। इस निष्कर्ष से सब लोग सहमत हों या न हों; परन्तु [ ३१ ]
इन दोनों महाकवियों की रचनाओं को खूब ध्यान से पढ़ने और उन पर विचार करनेवाले इस बात से अवश्य सहमत होंगे कि कालिदास की तुलना यदि किसी महाकवि से की जा सकती है तो शेक्सपियर ही से की जा सकती है।

कालिदास और भवभूति।

भवभूति भी नाटक-रचना में सिद्धहस्त थे। करुण-रस का जैसा परिपाक उनकी कविता में देखा जाता है वैसा किसी अन्य कवि की कविता में नहीं देखा जाता। मानवी हृदय के अन्तर्गत भादों को जान लेने और उनके शब्द चित्र बनाकर तद्वारा उन्हें सामाजिकों को हृदयङ्गम करा देने की विद्या भवभूति को खूब ही साध्य थी। करुण रस का--यत्र तत्र शृङ्गार और वीर का भी-भवभूति ने जहाँ जहाँ उत्थान किया है वहाँ वहाँ घटनाक्रम के अनुसार उस रस का धीरे धीरे तूफान सा आ गया है। कालिदास ने जिस बात को बड़ी खूबी के साथ थोड़े में कह दिया है उसी को भवभूति ने बेहद बढ़ाया है। मनोभावों को बढ़ा कर वर्णन करना कहीं अच्छा लगता है, कहीं नहीं अच्छा लगता। देश, काल, पात्र और अवस्था का खयाल रख कर प्रसङ्गोपात्त विषय का आकुञ्चन किंवा प्रसारण किया जाना चाहिए। युद्ध के लिए किसी को उत्तेजित करने के लिए वीररसपरिपोषक लम्बी वक्तृता असामयिक और अशोभित नहीं होती। परन्तु जो मनुष्य इष्ट-वियोग अथवा अन्य किसी कारण से व्यथित है उसके मुख से निकली हुई धाराप्रवाही वक्तृता अप्राकृतिक

मालूम होती है। थोड़े में अपनी व्यथा-कथा कह कर चुप हो जाना ही व्यथा की गम्भीरता का दर्शक है। शकुन्तला के वियोग में दुष्यन्त ने, और मालती के वियोग में माधव ने, जो कुछ कहा है वह इस बात का प्रमाण है कि जिस बात को भवभूति बड़े बड़े श्लोकों, लम्बे लम्बे समासों और चुने हुए शब्दों में कह कर भी पाठकों का उतना मनोरञ्जन न कर सकते थे उसी को कालिदास थोड़े में इस खूबी में कह सकते थे कि वह दर्शकों या पाठकों के चित्त में चुभी सी जाती थी। शब्दचित्रण में भवभूति बढ़े चढ़े थे, भावोद्बोधन में कालिदास। एक उदाहरण लीजिए। भवभूति का एक शब्दचित्र है:[ ३२ ]
सन्तानवाहीण्यपि मानुषाणां दुःखानि सबन्धुवियोगजानि।
दृष्टं जने प्रेयसि दुःसहानि स्रोतःसहस्ररिव संप्लवन्डे॥

अर्थात्-प्रेमी जन को देखने से बन्धु वियोग-जन्य दुःख मानो हज़ार गुना अधिक हो जाता है। वह इतना बढ़ जाता है मानो उससे हज़ारों सोते फूट निकलते हैं। इसी बात को-इसी भाव को-देखिए, कालिदास थोड़े ही शब्दों में, पर किस खूबी से, कहते हैं:-

स्वजनस्य हि दुःखमग्रतो विवृतद्वारमियोपजायते।

अर्थात्-स्वजनों के आगे छिपे हुए दुःख को बाहर निकल आने के लिए हृदय का द्वार सा खुल जाता है।

इसी से कहते हैं कि भवभूति के भाव शब्द-समूह के सघन वेष्टन से वेष्टित हैं। कालिदास के भावों का शब्द-वेष्टन इतना बारीक और इतना थोड़ा है कि वे उसके भीतर झलकते हुए देख पड़ते हैं। यही इन दोनों नाट्यकारों की कविता में विशेषता है।

'कालिदास की उपमायें।'

सुन्दर, सर्वाङ्गपूर्ण और निर्दोष उपमानों के लिए कालिदास की जो इतनी ख्याति है वह सर्वथा यथार्थ है। किसी देश और किसी भाषा का अन्य कोई कवि इस विषय में कालिदास की बराबरी नहीं कर सकता। इनकी उपमा अलौकिक हैं। उनमें उपमान और उपमेय का अद्भुत सादृश्य है। जिस भाव, जिस विचार, जिस उक्ति को स्पष्टतर करने के लिए कालिदास ने उपमा का प्रयोग किया है उस उक्ति और उपमा का संयोग ऐसा बन पड़ा है जैसा कि दूध-बूरे का संयोग होता है। उपमा को उक्ति से अलग कर देने से वह अत्यन्त फीकी किंवा नीरस हो जाती है। यह बात केवल उपमाओं ही के लिए नहीं कही जा सकती। उपमाओं के सिवा उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त और निदर्शनालङ्कारों का भी प्रायः यही हाल है। अन्य कवियों की उपमाओं में उपमान और उपमेय के लिङ्ग और वचन में कहीं कहीं विभिन्नता पाई जाती है; पर कालिदास की उपमानों में शायद ही कहीं यह दोष हो। देखिए:-

(१) प्रबालशोभा इव पादपानां शृङ्गारचेष्टा विविधा बभूवुः ।

(२) नरेन्द्रमार्गाट इव प्रपेदे विवर्णभाव स स भूमिपालः । [ ३३ ](३) समीरणोत्थैव तरङ्गलेखा पद्मान्तर मानसराजहंसीम् ।

(४) बिभर्षि चाकारमनिवृतानां मृणालिनी हैममिवोपरागम् ।

(५) पर्याप्तपुष्पस्तबकावनम्रा सञ्चारिणी पल्लविनी लतेव।

(६) नेत्रैः पपुस्तृप्तिमनाप्नुवभिनवोदय नाथमिवैौषधीनाम् ।

कैसी सुन्दर उपमाये हैं; कैसी श्रुतिसुखद और प्रसाद-गुणपूर्ण पदावली है। किसकी प्रशंसा की जाय ? उपमा की "कोमल-कान्त-पदावली" की अथवा हृदयहारिणी उक्ति की ?

कालिदास की कुछ उपमायें बहुत छोटी हैं; अनुष्टुप छन्द के एक ही चरण में वे कही गई हैं। ऐसी उपमानों में भी वही खूबी है जो लम्बे लम्बे श्लोकों में गुम्फित उपमाओं में है। ये छोटी छोटी उपमायें नीति, सदाचार और लोक-रीति-सम्बन्धिनी सत्यता से भरी हुई हैं। इसी से पण्डितों के कण्ठ का भूषण हो रही हैं। साधारण बात-चीत और लेख आदि में इनका बेहद व्यवहार होता है:-

(१) श्रादानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव।

(२) त्याज्यो दुष्टः प्रियोऽप्यासीदमुलीवोरगक्षता।

(३) विषवृक्षोऽपि संवध्य स्वयं छेत्तु मसाम्प्रतम्।

(४) हंसो हि क्षीरमादत्त तन्मिश्रा वय॑यत्यपः।

(५) उपप्लवाय लोकानां धूमकेतुरिवोत्थितः।

आदि ऐसी ही उपमायें हैं।


कालिदास का शास्त्र-ज्ञान।

कालिदास के काव्य और नाटक इस बात का साक्ष्य दे रहे हैं कि कालिदास केवल महाकवि ही न थे। कोई शास्त्र ऐसा न था जिसमें उनकी गति न हो। वे असामान्य वैयाकरण थे। अलङ्कार-शास्त्र के वे पारगामी थे। संस्कृत-भाषा पर उनकी निःसीम सत्ता थी। जो बात वे कहना चाहते थे उसे कविता द्वारा व्यक्त करने के लिए सबसे अधिक सुन्दर और भाव-व्यञ्जक शब्दों के समूह के समूह उनकी जिह्वा पर नृत्य सा करने लगते थे। कालिदास की कविता में शायद ही कुछ शब्द ऐसे होंगे जो असुन्दर और अनुपयोगी अथवा भावोद्बोधन में असमर्थ समझे जा सकें। वेदान्त के वे ज्ञाता थे; आयुर्वेद के वे ज्ञाता थे; सांख्य, न्याय और योग के वे ज्ञाता थे; ज्योतिष के वे ज्ञाता थे; पदार्थ-विज्ञान के वे ज्ञाता