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रघुवंश/११—परशुराम का पराभव

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रघुवंश
कालिदास, अनुवादक महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ २१७ से – २३३ तक

 

ग्यारहवाँ सर्ग।

परशुराम का पराभव।

महामुनि विश्वामित्र के यज्ञ में राक्षस विघ्न डालने लगे। उनके उपद्रव से विश्वामित्र तङ्ग आ गये। अतएव, वे दशरथ के पास आये और यज्ञ की रक्षा के लिए उन्होंने राजा से रामचन्द्र को माँगा । राम की उम्र उस समय थोड़ी ही थी। सिर पर जुल्फ रखाये हुएवे अंधिकतर बालक्रीड़ा ही किया करते थे । परन्तु, इससे यह न समझना चाहिए कि वे मुनि का इच्छित कार्य करने योग्य न थे । बात यह है कि तेजस्वियों की उम्र नहीं देखी जाती । उम्र कम होने पर भी वे बड़े बड़े काम कर सकते हैं।

महाराज दशरथ विद्वानों का बड़ा आदर करते थे। वे बड़े समझदार थे । यद्यपि उन्होंने बड़े दु:खों से बुढ़ापे में, रामचन्द्र जैसा पुत्र पाया था, तथापि उन्होंने राम ही को नहीं, लक्ष्मण को भी, मुनि के साथ जाने की आज्ञा दे दी। रघु के कुल की रीति ही ऐसी है। माँगने पर प्राण तक दे डालने में सोच-सङ्कोच करना वे जानते ही नहीं। वे जानते हैं केवल याचकों की वाञ्छा पूर्ण करना।

राम-लक्ष्मण को मुनि के साथ जाने की अनुमति देकर, राजा दशरथ ने उन मार्गों के सजाये जाने की आज्ञा दी जिनसे राम-लक्ष्मण को जाना था। परन्तु जब तक राजा की आज्ञा का पालन किया जाय तब तक पवन से सहायता पाने वाले बादलों ने ही, फूल-सहित जल बरसा कर उन मार्गों को सजा दिया। पानी का छिड़काव करके उन्होंने उन पर फूल बिछा दिये।

राम-लक्ष्मण ने पिता की आज्ञा को सिर पर रक्खा । वे जाने को तैयार
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हो गये । अपना अपना धनुष उन्होंने उठा लिया और पिता के पास बिदा होने गये । बड़े भक्ति-भाव से उन्होंने पिता के पैरों पर सिर रख दिये । उस समय स्नेहाधिक्य के कारण राजा का कण्ठ भर आया। उसकी आँखों से निकले हुए आंसू, पैरों पर पड़े हुए राम-लक्ष्मण के ऊपर, टपाटप गिरने लगे । उनसे उन दोनों की चोटियाँ भीग गई-आँसुओं से उनके सिर के बाल कुछ कुछ आर्द्र हो गये । खैर, किसी तरह, पिता से बिदा होकर और अपना अपना धनुष सँभाल कर वे विश्वामित्र के पीछे पीछे चले । पुर- वासी उन्हें टकटकी लगा कर देखने लगे। उस समय राम-लक्ष्मण के मार्ग में, पुरवासियों की चावभरी दृष्टियों ने तोरण का काम किया । मार्ग में, रामलक्ष्मण के सामने सब तरफ से आई हुई दृष्टियों की मेहराबें सी बनती चली गई।

विश्वामित्र ने दशरथ से राम और लक्ष्मण ही को माँगा था । उन्हें इन्हीं दोनों की आवश्यकता थी । अतएव राजा ने अपने पुत्रों के साथ सेना न दी ; हाँ आशीष अवश्य दी । उसने आशीष ही को राम-लक्ष्मण की रक्षा के लिए यथेष्ट समझा । इसी से उसने आशीष ही साथ कर दी, सेना नहीं। इसके बाद वे दोनों राज- कुमार अपनी माताओं के पास गये और उनके पैर छूकर महाते- जस्वी विश्वामित्र के साथ हो लिये । उस समय मुनि के मार्ग में प्राप्त होकर वे ऐसे मालूम हुए जैसे गति के वशीभूत होकर सूर्य के मार्ग में फिरते हुए चैत और वैशाष के महीने मालूम होते हैं।

राजकुमार बालक तो थे ही । इस कारण चपलता उनमें स्वाभाविक थी। उनकी भुजायें तरङ्गों के समान चञ्चल थौँ । वे शान्त न रहती थीं । मार्ग में, चलते समय भी, कुछ न कुछ करती ही जाती थीं । परन्तु उनकी ये बाल-लीलायें बुरी न लगती थीं। वे उलटा भली मालूम होती थीं । वर्षाऋतु में उद्धव और भिद्य नामक नद, अपने नाम के अनुसार, जैसी चेष्टा करते हैं वैसी ही चेष्टा राम और लक्ष्मण की भी थी। उनकी चेष्टा और चपलता उद्धत होने पर भी जी लुभाने वाली थी।

महामुनि विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को बला और अतिबला नाम की

दो विद्यायें सिखा दी। उनके प्रभाव से उन्हें जरा भी थकावट न मालूम हुई । चलने से उन्हें कुछ भी श्रम न हुआ । यद्यपि वे महलों के भीतर रत्न
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खचित भूमि पर ही चलने वाले थे, तथापि, इन विद्याओं की बदौलत, मुनि के साथ मार्ग चलना उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे वे अपनी माताओं के पास आनन्द से खेल रहे हों। दशरथ से विश्वा- मित्र की मित्रता थी। वे उनके पुत्रों का भी बड़ा प्यार करते थे । वे चाहते थे कि राम-लक्ष्मण को राह चलने में कष्ट न हो । इस कारण वे तरह तरह की कथाये और पुरानी बाते राजकुमारों को सुनाने लगे । कुमारों को ये आख्यान इतने अच्छे मालुम हुए कि उन्हें अपने तन मन तक की सुध न रही । फल यह हुआ कि यद्यपि वे कभी बिना सवारी के न चले थे, तथापि उन्होंने यह भी न जाना कि हम पैदल चल रहे हैं । मुनि के कहे हुए आख्यानों ने ही सवारी का काम दिया । राजकुमार उन्हीं पर सवार से हुए, मुनि के पीछे पीछे दौड़ते चले गये । जीवधारियों ने ही नहीं; निर्जीवों तक ने, मार्ग में, रामलक्ष्मण की सेवा करके अपना जन्म सफल समझा:-तालाबों ने अपने मीठे जल से, पक्षियों ने अपने कर्णमधुर कलरव से, पवन ने सुगन्धित फूलों के पराग से और बादलों ने अपनी छाया से उनकी सेवा-शुश्रूषा की।

तपस्वियों को राम-लक्ष्मण के दर्शनों की अभिलाषा बहुत दिनों से थी। अतएव उन्हें देख कर मुनियों को महानन्द हुआ । खिले हुए कमलों से परिपूर्ण जलाशयों और थकावट दूर करने वाले छायावान् वृक्षों के दर्शन से उन्हें जो आनन्द नहीं हुआ वह आनन्द राम-लक्ष्मण के दर्शन से हुआ। उन्हें देख कर वे कृतार्थ हो गये।

धनुष लिये हुए रामचन्द्र गङ्गा और सरयू के सङ्गम के पास पहुँच गये। शङ्कर के द्वारा जला कर भस्म किये गये काम का, किसी समय, यहीं पर आश्रम था। शरीर की सुन्दरता में राम भी काम ही के समान थे; पर कर्म उनका उसके सदृश न था। रूप में तो वे काम के प्रतिनिधि अवश्य थे, परन्तु कार्य में नहीं । काम के कर्म से राम का कर्म जुदा था। सुकेतु की बेटी ताड़का ने काम के इस तपोवन को बिलकुल ही उजाड़ दिया था। उसके मारे न कोई इधर से आने जाने ही पाता था और न कोई तपस्वी यहाँ रहने ही पाता था । राम-लक्ष्मण के वहाँ पहुँचने पर विश्वामित्र ने उनसे ताड़का के शाप की सारी कथा कह सुनाई। तब उन दोनों ने अपने अपने धनुषों की नोके ज़मीन पर रख कर, बिना प्रयास
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के ही, उन पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाना उनके लिए कोई बड़ी बात न थी । वह तो उनके लिए एक प्रकार का खेल सा था।

राम-लक्ष्मण ने धनुष चढ़ा कर प्रत्यञ्चा की घोर टङ्कार की। उसे सुनते ही, अँधेरे पाख की रात की तरह काली काली ताड़का, नर-कपालों के हिलते हुए कुण्डल पहने, वहाँ पहुँच गई । उस समय वह भूरे रङ्ग की बगलियों सहित मेघों की घनी घटा के समान मालूम हुई । मुर्दो के शरीर पर से उतारे गये मैले कुचैले कपड़े पहने, वह इतने वेग से वहाँ दौड़ती हुई आई कि रास्ते के पेड़ हिल गये । मरघट में उठे हुए बड़े भारी बगूले की तरह आकर और भयङ्कर नाद करके उसने रामचन्द्र को डरा दिया। कमर मैं मनुष्य की आँतों की करधनी पहने हुए और एक हाथ को लठ की तरह ऊपर उठाये हुए वह रामचन्द्र पर दौड़ी। उसे इस तरह आक्रमण करने के लिए आती देख राम ने बाण के साथ ही स्त्री-हत्या की घृणा भी छोड़ दी--इस बात की परवा न करके कि स्त्री का वध निषिद्धज्ञहै, उन्होंने धनुष तान कर ताड़का पर बाण छोड़ ही दिया। ताड़का की शिला सदृश कठोर छाती को फाड़ कर वह बाण पीठ की तरफ़ बाहर निकल आया। उसने उस राक्षसी की छाती में छेद कर दिया। राक्षसों के देश में तब तक प्रवेश न पाये हुए यमराज के घुसने के लिए इस छेद ने द्वार का काम किया। राक्षसों का संहार करने के लिए, इसी छेद के रास्ते,

यमराज उनके देश में घुस सा आया। रावण की राज्य-लक्ष्मी अब तक खूब स्थिर थी। तीनों लोकों का पराजय करने से उसकी स्थिरता बहुत बढ़ गई थी। उसके भी डगमगाने का समय आ गया। बाण से छाती छिद जाते ही ताड़का धड़ाम से ज़मीन पर गिर गई । उसके गिरने से उस तपोवन की भूमि तो हिल ही गई; रावण की अत्यन्त स्थिर हुई वह राज्य-लक्ष्मी भी हिल उठी। रावण के भी भावी पतन का सूत्रपात हो गया। जिस तरह अभि- सारिका स्त्री, पञ्चशायक के शायक से व्यथित होकर, शरीर पर चन्दन और कस्तूरी आदि का लेप लगाये हुए अपने जीवितेश ( पेमपात्र ) के पास जाती है उसी तरह, रामचन्द्र के दुःसह शर से हृदय में अत्यन्त पीड़ित हुई निशाचरी ताड़का, दुर्गन्धिपूर्ण रुधिर में सराबोर हुई, जीवितेश (यम) के घर पहुंच गई।
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रामचन्द्र के इस पराक्रम से विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। अतएव ताड़का मारने के उपलक्ष्य में उन्होंने रामचन्द्र को एक ऐसा अन दिया जो, राक्षसों पर छोड़ा जाने पर, उन्हें मारे बिना न रहे । महामुनि ने उस अस्त्र के प्रयोग का मन्त्र और उसके चलाने की विधि भी रामचन्द्र को बतला दी । महामुनि से उस अस्त्र को रामचन्द्र ने-सूर्य से लकड़ी जलाने वाले तेज को सूर्यकान्त मणि की तरह-पाकर उसे सादर ग्रहण किया।

ताड़का को मार कर रामचन्द्र, चलते चलते, वामनजी के पावन आश्रम में आये । उसका नाम आदि विश्वामित्र ने उनसे पहले ही बता दिया था। वहाँ पहुँच कर रामचन्द्र को यद्यपि अपने पूर्वजन्म, अर्थात् वामनावतार, से सम्बन्ध रखनेवाली बातें याद न आई, तथापि वे कुछ अनमने से ज़रूर हो उठे। इस समय वे कुछ सोचने से लगे।

वहाँ से चल कर, राम-लक्ष्मण को साथ लिये हुए, विश्वामित्र ने अपने आश्रम में प्रवेश किया। जाकर उन्होंने देखा कि उनके शिष्यों ने पूजा-अर्चा की सामग्री पहले ही से एकत्र कर रक्खी है; पत्तों के सम्पुटों की अँजुली बाँधे पेड़ खड़े हुए हैं; आश्रम के मृग, उनके दर्शनों की उत्कण्ठा से, मुँह ऊपर उठाये हुए राह देख रहे हैं। वहाँ पहुँचने पर ऋषि ने यज्ञ की दीक्षा ली और उसे विघ्नों से बचाने का काम राम-लक्ष्मण को सौंप दिया। इस पर वे अपने अपने धन्वा पर बाण रख कर, बारी बारी से, यज्ञशाला की रखवाली करने लगे। उन दोनों राजकुमारों ने अपने बाणों के द्वारा मुनि को इस तरह विनों से बचाया, जिस तरह कि सूर्य और चन्द्रमा, बारी बारी से, अपनी किरणों के द्वारा संसार को अन्धकार से बचाते हैं ।

यज्ञ हो ही रहा था कि आसमान से रक्त-वृष्टि होने लगी। दुपह- रिया के फूल के बराबर बड़ी बड़ी रुधिर की बूंदों से वेदी दूषित हो गई। यह दशा देख ऋत्विजों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने खैर की लकड़ी के चम्मच रख दिये और यज्ञ का काम बन्द कर दिया। रामचन्द्र ने जान लिया की विघ्नकर्ता राक्षस आ पहुँचे। इसलिए उन्होंने तरकस से तीर निकाल कर जो ऊपर आकाश की ओर मुँह उठाया तो देखा कि राक्षसों की सेना चली आ रही है और गीधों के पंखों की वायु से उसकी पताकायें फ़हरा रही हैं । राक्षसों की सेना में दोही राक्षस प्रधान थे। उन्हीं को
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रामचन्द्र ने अपने बाण का निशाना बनाया; औरों पर प्रहार करने की उन्होंने आवश्यकता न समझी। बड़े बड़े विषधर सों पर परा- क्रम प्रकट करनेवाला गरुड़ क्या कभी छोटे छोटे सपेलों या पनिहाँ-साँपों पर भी आक्रमण करता है ? कभी नहीं। उन्हें वह अपनी बराबरी का समझता ही नहीं। शस्त्रास्त्रविद्या में रामचन्द्र बड़े ही निपुण थे। उन्होंने महा-वेग.गामी पवनास्त्र को धन्वा पर चढ़ा कर इस ज़ोर से छोड़ा कि ताड़का का मारीच नामक पर्चताकार पुत्र, पीले पत्त की तरह, धड़ाम से ज़मीन पर गिर गया। यह देख कर सुबाहु नामक दूसरे राक्षस ने बड़ा मायाजाल फैलाया। आकाश में वह कभी इधर कभी उधर दौडता फिरा । परन्तु बाण- विद्या-विशारद रामचन्द्र ने उसका पीछा न छोड़ा। छुरे के समान पैने बाणों से उसके शरीर की बोटी बोटी काट कर उसे उन्होंने, आश्रम के बाहर, मांसभोजी पक्षियों को बाँट दिया।

यज्ञसम्बन्धी विन को राम-लक्ष्मण ने, इस तरह, शीघ्र ही दूर कर दिया। उनका युद्ध-कौशल और पराक्रम देख कर ऋत्विजों ने उनकी बड़ी बड़ाई की और मौन धारण किये हुए कुलपति विश्वामित्र का यज्ञ-कार्य उन्होंने विधिपूर्वक निबटाया।

यज्ञ के अन्त में अवभृथ नामक स्नान करके विश्वामित्र ने यज्ञ-क्रिया से छुट्टी पाई। उस समय राम-लक्ष्मण ने उन्हें झुक कर सादर प्रणाम किया। प्रणाम करते समय हिलते हुए केशकलापवाले उन दोनों भाइयों को महामुनि ने आशीर्वाद दिया और उनकी पीठ पर बहुत देर तक अपना हाथ फेरा-वह हाथ जिसकी हथेली कुश तोड़ते समय कई दफे चिर चुकी थी और जिस पर इस घटना के निशान अब तक बने हुए थे।

इसी समय राजा जनक ने, यज्ञ करने के इरादे से, उसको सारी

सामग्री एकत्र करके, विश्वामित्र को भी उत्सव में आने के लिए निमन्त्रण भेजा । यह. हाल राम-लक्ष्मण को मालूम हुआ तो, जनक के धनुष के विषय में अनेक आश्चर्य-जनक बातें सुन कर, उनके हृदय में भी वहाँ जाने की उत्कण्ठा उत्पन्न हुई। अतएव जितेन्द्रिय विश्वामित्र ने उन्हें भी अपने साथ लेकर मिथिलापुरी के लिए प्रस्थान कर दिया । चलते चलते,सायङ्काल,वे तीनों एक आश्रम के रमणीय वृक्षों के नीचे वह रात बिताई।
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यह वही आश्रम था जहाँ तपस्विवर गौतम की पत्नी अहल्या को क्षण भर इन्द्र से भेंट हुई थी। तबसे वह शिला को शकल में वहीं पड़ी थी। इस तरह पड़े उसे बहुत काल बीत गया था। परन्तु, रामचन्द्र की पाप-प्रणाशिनी चरणरज की कृपा से, सुनते हैं, वह फिर पूर्ववत् स्त्री हो गई और उसे अपना सुन्दर शरीर फिर मिल गया।

राम और लक्ष्मण सहित विश्वामित्र जनकपुर पहुँच गये। अर्थ और काम को साथ लिये हुए मूर्त्तिमान् धर्म के समान उनके आने का समाचार सुन कर नरेश्वर जनक ने पूजा की सामग्री साथ ली और आगे बढ़ कर उनसे भेंट की। राम-लक्ष्मण को देख कर पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही । उन्होंने उन दोनों भाइयों को, आकाश से पृथ्वी पर उतर आये हुए पुनर्वसुओं के सदृश, समझा। उनकी सुन्दरता पर वे मोहित हो गये और बड़े चाव से नेत्रों द्वारा उन्हें पीने से लगे । उस समय उन्होंने, अपने इस काम में, पलक मारने को बहुत बड़ा विघ्न समझा। उनके मन में हुआ कि यदि पलकें न गिरती तो इन राजकुमारों को निर्निमेष-दृष्टि से लगातार देख कर हम अपनी दर्शनेच्छा को अच्छी तरह पूर्ण कर लेते । पलक मारने से वह पूर्ण नहीं होती; कसर रह जाती है।

यज्ञ का अनुष्ठान-उस यज्ञ का जिसमें यूप नामक खम्भों की आवश्यकता होती है-समाप्त होने पर, कुशिकवंश की कीत्ति बढ़ानेवाले विश्वामित्र ने, मौका अच्छा देख, मिथिलेश से कहा:-"रामचन्द्र आपका धनुष देखना चाहते हैं। दिखा दीजिए तो बड़ी कृपा हो।"

विश्वामित्र के मुँह से यह सुन कर जनकजी सोच-विचार में पड़ गये। रामचन्द्र बड़े ही प्रसिद्ध वंश के बालक थे । रूप भी उनका नयनाभिराम था। अतएव जनक प्रसन्न तो हुए, परन्तु जब उन्होंने उस धनुष की कठोरता और अपनी कन्या के विवाह-विषय में अपनी प्रतिज्ञा का विचार किया तब उनको दुःख हुआ। उन्होंने मन में कहा कि धनुष झुका लेना बड़ा कठिन काम है; मुझसे बड़ी भूल हुई जो मैंने कन्यादान का मोल उसे चढ़ा लेना निश्चित किया । वे विश्वामित्र से बोले:-

"भगवन् ! जो काम बड़े बड़े मतवाले हाथियों से भी होना कठिन है उसे करने के लिए यदि हाथी का बच्चा उत्साह दिखावेगा तो अवश्य ही
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उसका साहस व्यर्थ हुए बिना न रहेगा । अतएव, ऐसी चेष्टा करने की सलाह मैं नहीं दे सकता। न मालूम कितने धनुर्धारी राजाओं को इस धनुष से लजित होना पड़ा है। वे राजा कोई ऐसे वैसे धनुषधारी न थे। वे बड़े वीर थे। प्रत्यञ्चा की फटकारें लग लग कर उनकी रगड़ से, उनकी भुजाओं का चमड़ा कड़ा हो गया था। पर जब वे इस धनुष को उठा कर उस पर प्रत्यञ्चा न चढ़ा सके तब अपनी भुजाओं को धिक्कारते हुए बेचारे लौट गये। अत- एव,तात,आपही सोचिए,रामचन्द्र को अपने उत्साह में सफल होने की कहाँ तक आशा की जा सकती है।"

महर्षि ने प्रत्युत्तर दिया :-"राम को आप निरा बालक ही न समझिए ! वह महाबली है। अथवा, इस विषय में, अधिक कहने की आवश्यकता नहीं। पर्वत पर अपनी शक्ति प्रकट करनेवाले वज्र की तरह, आपके धनुष पर ही राम अपने बल का वैभव प्रकट कर दिखावेगा। ज़रा उसे धनुष की परीक्षा तो कर लेने दीजिए। उसी से आपको राम के शरीर-सामर्थ्य का पता लग जायगा ।"

सत्यवादी विश्वामित्र से यह बात सुन कर, सिर पर जुल्फ रखाये हुए अल्पवयस्क राम के पौरुष पर जनक को विश्वास आ गया। वे समझ गये कि रामचन्द्र कोई साधारण बालक नहीं; वे महा-पराक्रमी हैं। वीरबहूटी के बराबर आग के छोटे से कण में भी जैसे ढेरों लकड़ी जला कर खाक कर देने की शक्ति होती है वैसे ही उम्र कम होने पर भी राम में वीरता के बड़े बड़े काम कर दिखाने की शक्ति है । मन में इस तरह का निश्चय करके जनक ने अपने सेवकों के कई एक समूहों को धनुष लाकर रामचन्द्र के सामने उपस्थित करने की आज्ञा-इन्द्र जैसे बादलों को अपना

तेजोमय धनुष लाने की आज्ञा देता है-दी। जनक की आज्ञा का तत्काल पालन किया गया । धनुष लाया गया । सोते हुए नागराज के सदृश उस महाभयङ्कर धनुष को देखते ही रामचन्द्र ने उसे उठा लिया। यह वही धनुष था जिससे छूटे हुए वृषध्वज शङ्कर के बाण ने भागते हुए यज्ञरूपी हिरन का पीछा किया था। राम ने इस धन्वा को उठा कर तुरन्त ही उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी । यह देख कर सभा में जितने आदमी बैठे थे सबको महाआश्चर्य हुआ । उन्होंने बिना पलक गिराये रामचन्द्र के इस अद्भुत काम
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को देखा। वह धनुष यद्यपि पर्वत के समान कठोर था, तथापि राम को वह इतना कोमल मालूम हुआ जितना कि राम को उसका कुसुमचाप कोमल मालूम होता है । अतएव,उन्हें इस पर प्रत्यञ्चा चढ़ाने में ज़रा भी परिश्रम न पड़ा । बात की बात में, बिना विशेष प्रयत्न के ही, उन्होंने यह कठिन काम कर दिया । प्रत्य- ञ्चा चढ़ा कर उन्होंने उसे इतने ज़ोर से खींचा कि वह तडाका टूट गया और वज्राघात के समान कर्णकर्कश शब्द हुआ। घोरनाद करके उस टूटे हुए धनुष ने महाक्रोधी परशुराम को इस बात की सूचना सी की कि क्षत्रियों का बल फिर बढ़ चला है; उनका प्रताप और पौरुष अब फिर उन्नत हो रहा है।

महादेव का धनुष तोड़ कर अपने प्रबल पौरुष का परिचय देने वाले रामचन्द्र के पराक्रम की जनक ने बड़ी बड़ाई की। उन्होंने कहा कि कन्या का मोल मुझे मिल गया। मेरी प्रतिज्ञा को राम ने पूर्ण कर दिया । तदनन्तर मिथिलेश ने पेट से न पैदा हुई, मूत्ति मती लक्ष्मी के समान,अपनी कन्या रघुवंश-शिरोमणि राम को अर्पण करने का वचन दे दिया। राजा जनक सत्यप्रतिज्ञ थे । इस कारण,प्रतिज्ञा की पूर्ति होते ही उन्होंने तत्क्षण ही कन्यादान का निश्चय किया । अतएव परमतेजस्वी और तपोनिधि विश्वामित्र के सामने उन्होंने राम को कन्या दे दी। विश्वामित्र ही को अग्नि सा समझ कर उन्हीं को जनक ने कन्यादान का साक्षी बनाया।

महातेजस्वी मिथिलेश ने कहा, अब महाराज दशरथ को बुलाना

चाहिए। अतएव उन्होंने अपने पूजनीय पुरोहित के द्वारा कोशलेश के पास यह सन्देश भेजा :-"महाराज, मेरी कन्या का ग्रहण कर के मेरे निमि-कुल को अपना सेवक बनाने की कृपा कीजिए ।" इधर जनक ने इस प्रकार का सन्देश भेजा उधर दशरथ के मन में अकस्मात् यह इच्छा उत्पन्न हुई कि जैसा मेरा पुत्र है वैसी ही पुत्रवधू भी यदि मुझे मिल जाती तो बहुत अच्छा होता। दशरथ यह सोचही रहे थे कि जनकजी का पुरोहित जा पहुँचा और उनकी मनचीती बात कह सुनाई । क्यों न हो! पुण्यवानों की मनोकामना, कल्पवृक्ष के फल के सदृश, तुरन्त ही परिपक्क हो जाती है। कल्पवृक्ष से प्राप्त हुए फल कभी कच्चे नहीं होते-वे सदा पके पकाये ही मिलते हैं। इसी तरह पुण्यवान पुरुषों के मन में आई हुई बात भी,
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आने के साथ ही, फलवती हो जाती है। उसकी सफलता के लिए ठहरना नहीं पड़ता।

मिथिला से आये हुए ब्राह्मण का दशरथ ने अच्छा आदर-सत्कार किया। उससे वहाँ का सारा वृत्तान्त सुन कर इन्द्र के साथी दशर- थजी बहुत खुश हुए। वे बड़े स्वाधीन स्वभाव के थे । उन्होंने कहा, अब देरी का क्या काम ? चलही देना चाहिए । बस, तुरन्तही सेना सजाई गई और प्रस्थान कर दिया गया । सेना-समूह के चलने से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य की किरणें उसके भीतर गुम सी हो गई। उनका कहीं पताहो न रहा। सारा का सारा सूर्य छिप गया ।

यथासमय दशरथजी मिथिला पहुँच गये । उनकी सेना ने उसके बागों और उद्यानों के पेड़ों को पीड़ित करके उसे चारों तरफ़ से घेर लिया । परन्तु यह घेरा शत्रुभावसूचक न था, किन्तु प्रीति- सूचक था । अतएव प्रियतम के कठोर प्रेम-व्यवहार को जैसे स्त्री सह लेती है वैसे ही मिथिला ने भी सेना-सहित दशरथ के प्रेम-पूर्ण अवरोध को प्रसन्नतापूर्वक सह लिया।

मिथिला में जिस समय जनक और दशरथजी परस्पर मिले उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे इन्द्र और वरुण मिल रहे हों। आचार-व्यवहार और रीति-रवाज में वे दोनों बड़े दक्ष थे। अतएव उन्होंने अपने पुत्रों और पुत्रियों के विवाह की क्रिया, अपने वैभव के अनुसार, बड़े ठाठ से, विधिपूर्वक, निबटाई । रघुकुलकेतु रामचन्द्र ने तो पृथ्वी की पुत्री सीता से विवाह किया और लक्ष्मण ने सीता की छोटी बहन ऊर्मिला से । रहे उनके छोटे भाई, तेजस्वी भरत और शत्रुघ्न । सो उन्होंने जनक के भाई कुशध्वज की कन्या माण्डवी और अतिकीर्ति के साथ विवाह किया। ये दोनों कन्यायें भी परम रूपवती थीं । कटि तो इनकी बहुत ही कमनीय थी।

चौथे के सहित उन तीनों राजकुमारों का विवाह हो चुका । उस समय, राजा दशरथ के सिद्धियों सहित साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों उपायों की तरह, नव-विवाहिता वधुओं सहित ये चारों राजकुमार बहुत ही भले मालूम हुए । सिद्धियों की प्राप्ति से साम आदि उपाय जैसी शोभा पाते हैं वैसी ही शोभा वधुओं की प्राप्ति से राम आदि चारों कुमारों ने भी पाई । अथवा वरों और वधुओं का वह समागम प्रकृति और प्रत्यय

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के योग की तरह शोभाशाली हुआ। क्योंकि ऐसी रूपगुणसम्पन्न राजकुमारियाँ पाकर राजकुमार कृतार्थ हो गये और ऐसे सवंशजात तथा अपने अनुरूप राजकुमार पाकर राजकुमारियाँ कृतार्थ हो गई। इस सम्बन्ध से महाराज दशरथ को भी बड़ी खुशी हुई। प्रेम-पूर्वक उन्होंने अपने चारों कुमारों के विवाह की लौकिक रीतियाँ सम्पादित की। सारी विधि समाप्त होने पर वे वहाँ से चल दिये । जनकजी भी तीन पड़ाव तक उनके साथ आये । तदनन्तर वे मिथिला को लौट गये और दशरथजी ने अयोध्या का मार्ग लिया।

राह में, एक दिन, अकस्मात्, बड़े जोर से उलटी हवा चलने और दशरथ के ध्वजारूपी पेड़ों को बेतरह झकझोरने लगी। नदी का बढ़ा हुआ जल प्रवाह जिस तरह किनारों को तोड़ कर सूखी ज़मीन को नष्टभ्रष्ट करने लगता है उसी तरह उस वेगवान् वायु ने दशरथ की सेना को पीड़ित करना प्रारम्भ कर दिया । आँधी बन्द होने पर सूर्य के चारों तरफ़ एक बड़ाही भयानक परिधि मण्डल दिखाई दिया। उस घेरे के बीच में सूर्य ऐसा मालूम हुआ जैसे गरुड़ के मारे हुए साँप के फन से गिरी हुई मणि उसके मृत शरीर की कुण्डली के बीच में रक्खी हो। उस समय दिशाओं की बड़ी ही बुरी दशा हुई । भूरे भूरे पंख फैलाये हुए चील्हें चारों तरफ़ उड़ने लगी । वही मानो दिशाओं की बिखरी हुई धूसर रङ्ग की अलके हुई । लाल रङ्ग के सायङ्कालीन मेघ दिगन्त में छा गये। वही मानो दिशाओं के रक्तवर्ण वस्त्र बन गये। सब कहीं रजही रज, अर्थात्धू लही धूल, दिखाई देने लगी। रजोवती हो जाने से दिशायें दर्शन-योग्य न रह गई। उनकी दशा मलिनवसना अस्पृश्य स्त्री के सदृश हो गई। अतएव उनकी तरफ़ आँख उठा कर देखने को जी न चाहने लगा। जिस दिशा में सूर्य था उस दिशा में गीदड़ियाँ इस तरह रोने लगों कि सुन कर डर मालूम होने लगा। क्षत्रियों के रुधिर से परलोकगत पिता का तर्पण करने की परशुराम को आदत सी पड़ गई थी। रो रो कर गीदड़ियाँ उन्हें, क्षत्रियों का पुनरपि संहार करने के लिए, मानो उभाड़ने सा लगी।

उलटी हवा चलना और शृगालियों का रोना आदि अनेक अशकुन

होते देख दशरथजी घबरा उठे । शकुन-अशकुन पहचानने में वे बहुत निपुण
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ग्यारहवाँ सर्ग।

थे और ऐसे मौकों पर क्या करना चाहिए, यह भी वे जानते थे । अतएव उन्होंने अपने गुरु से पूछा कि महाराज ! इन अशकुनों की शान्ति के लिए क्या करना चाहिए। गुरु ने उत्तर दिया:--"घबराने की बात नहीं । इनका परिणाम अच्छा ही होगा।” यह सुन कर दशरथ का चित्त कुछ स्थिर हुआ; उनकी मनोव्यथा कुछ कम हो गई।

इतने में ज्योति का एक पुञ्ज अकस्मात् उठा और दशरथ की सेना के सामने तत्कालही प्रकट हो गया। उसका आकार मनुष्य का था। परन्तु सैनिकों की आँखे तिलमिला जाने से पहले वे उसे पहचानही न सके। बड़ी देर तक आँखें मलने के बाद जो उन्होंने देखा तो ज्ञात हुआ कि वह तेजःपुञ्ज पुरुष परशुरामजी हैं । उनके कन्धे पर पड़ा हुआ जनेऊ यह सूचित कर रहा था कि वे ब्राह्मण ( जमदग्नि ) के बेटे हैं। इसके साथ ही, उनके हाथ में धारण किया हुआ धनुष, जिसके कारण वे इतने बली और अजेय हो रहे थे, यह बतला रहा था कि उनका जन्म क्षत्रियकुलोत्पन्न माता ( रेणुका) से है। जनेऊ पिता के अंश का सूचक था और धनुष माता के अंश का। उग्रता और ब्रह्मतेज-कठोरता और कोमलता-का उनमें अद्भुत मेल था । अतएव वे ऐसे मालूम होते थे जैसे चन्द्रमा के साथ सूर्य अथवा साँपों के साथ चन्दन का वृक्ष । उनके पिता बड़े क्रोधी, बड़े कठोरवादी और बड़े कर-कर्मा थे। यहाँ तक कि क्रोध के वशीभूत होकर उन्होंने शास्त्र और लोक की मर्यादा का भी उल्लंघन कर दिया था। ऐसे भी पिता की आज्ञा का पालन करने में प्रवृत्त होकर, इस तेज:पुञ्ज पुरुष ने कँपती हुई अपनी माता का सिर काट कर पहले तो दया को जीता था, फिर पृथ्वी को। पृथ्वी को क्षत्रिय-रहित कर के उसे जीतने के पहलेही इन्होंने घृणा, करुणा और दया को दूर भगा दिया था। ये बड़ेही निष्करुण और निर्दय थे। इनके दाहने कान से लटकती हुई रुद्राक्ष की माला बहुतही मनोहर मालूम होती थी। वह इनकी शरीर-शोभा को और भी अधिक कर रही थी। वह माला क्या थी, मानो उसके बहाने क्षत्रियों को इक्कीस दफे संहार करने की मूर्त्तिमती गणना इन्होंने कान पर रख छोड़ी थी।

निरपराध पिता के मारे जाने से उत्पन्न हुए क्रोध से प्रेरित होकर
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रघुवंश ।

परशुराम ने क्षत्रियों का समूल संहार करने की प्रतिज्ञा की थी। इस बात को सोच कर, और अपने छोटे छोटे बच्चों को देख कर, दशरथ को अपनी दशा पर बड़ा दुःख हुआ। उनके पुत्र का भी नाम राम और उनके क्रूर-का शत्रु का भी नाम राम (परशुराम)--इस कारण, हार और सर्प के फन की रत्न की तरह एक तो उन्हें प्यारा और दूसरा भयकारी हुआ।

परशुराम को देखते ही, उनका आदर-सत्कार करने के इरादे से, दशरथ ने 'अर्घ्य अर्घ्य' कह कर अपने सेवकों को आतिथ्य की सामग्री तुरन्तही ले आने की आज्ञा दी । परन्तु उनकी सुनता कौन है ? परशुराम ने उनकी तरफ देखा तक नहीं। वे सीधे उस जगह गये जहाँ भरत के बड़े भाई रामचन्द्र थे। उनके सामने जाकर उन्होंने महाभयङ्कर पुतली वाली आँखों से उनकी तरफ़ देखा-उन आँखों से जिनसे क्षत्रियों पर उत्पन्न हुए कोप की ज्वाला सी निकल रही थी। रामचन्द्र उनके सामने निडर खड़े रहे। परशुराम युद्ध करने के लिए उतावले से होकर धनुष को मुट्ठी से मज़बूत पकड़े और उँगलियों के बीच में बाण को बार बार आगे पीछे करते हुए रामचन्द्र से बोले :-

"क्षत्रियों ने मेरा बड़ा अपकार किया है। इस कारण वे मेरे वैरी हैं। इसी से, एक नहीं, अनेक बार उनका नाश करके मैं अपने क्रोध को शान्त कर चुका हूँ। परन्तु छड़ी से छेड़े जाने पर सोये हुए साँप के समान तेरे पराक्रम का वृत्तान्त सुन कर मुझे फिर कोप हो पाया है। मैंने सुना है कि मिथिलानरेश जनक का जो धनुष और किसी राजा से झुकाया नहीं झुका उसी को तूने तोड़ डाला है । जो बात अब तक और किसी से न हुई थी उसे तुने कर दिखाया है। इस कारण मुझे ऐसा मालूम हो रहा है जैसे तूने मेरे पराक्रम का सींग तोड़ दिया हो। इस बात को मैं अपने अप- मान का कारण समझता हूँ । तेरी यह उद्दण्डता मुझे बहुत ही खटकी है। अब तक 'राम' शब्द से एक मात्र मेरा ही बोध होता था । यदि,इस लोक में, कोई 'राम' कहता था तो उसके मुँह से यह शब्द निकलते ही लोग समझ जाते थे कि कहने वाले का मतलब मुझसेही है। परन्तु अब यह बात नहीं रही । अब तो इस शब्द का प्रयोग दो जगह बँट गया। अब तो इससे तेरा भी बोध होने लगा है । तेरी महिमा भी दिन पर दिन

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ग्यारहवाँ सर्ग।

बढ़ रही है। यह मेरे लिए लज्जा की बात है । यह मैं नहीं सहन कर सकता । मेरे अस्त्र का हाल तुझे मालूम है या नहीं ?प्राणियों की तो बातही नहीं, पर्वतों तक को काट गिराने की उसमें शक्ति है। ऐसा अमोघ अस्त्र धारण करनेवाला मैं, इस संसार में, दो को ही अपना शत्रु समझता हूँ; और, उन दोनों के अपराध की मात्रा भी, मेरी दृष्टि में, बराबर है। एक तो पिता की होम-धेनु का बछड़ा हर ले जाने के कारण हैहयवंशी कार्तवीर्य मेरा शत्रु है; और, दूसरा, मेरी कीत्ति का लोप करने की चेष्टा करने के कारण तू है। यद्यपि अपने प्रबल पराक्रम से मैं क्षत्रियों का नाश कर चुका हूँ तथापि जब तक मैं तुझे नहीं जीत लेता तब तक मुझे चैन नहीं- तब तक क्षत्रियवंश का विध्वंसकर्ता अपना अद्भुत पराक्रम भी मुझे अच्छा नहीं लगता । आग की तारीफ़ तो तब है जब वह फूस की ढेरी की तरह महासागर में भी दहकने लगे। महादेव का धनुष तोड़ने से यदि तुझ में कुछ घमण्ड आ गया हो तो यह तेरी नादानी है। भगवान्वि ष्णु की महिमा से वह कमजोर हो गया था-उनके तेज ने उसका सार खींच लिया था। यदि ऐसा न होता तो मजाल थी जो तू उसे तोड़ सकता। नदी के वेगगामी जल की टक्करों से जड़ें खुल जाने पर तट के तरुवर को हवा का हलका सा भी झोंका गिरा देता है। यह तू जानता है या नहीं ?

"अच्छा , तो, अब, तू मेरे इस धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ा कर उस पर बाण रख और फिर शर-सन्धान कर । युद्ध रहने दे। यदि तू यह काम कर लेगा तो मैं समझ लूंगा कि तुझमें भी उतनाही बल है जितना कि मुझ में है। यही नहीं, किन्तु मैं यह भी मान लूंगा कि मैं तुझ से हार गया। परन्तु यदि मेरे परशु की चमचमाती हुई धार से घबरा कर तू डर गया हो तो मुझ से अभय-दान माँगने के लिए हाथ जोड़-वे हाथ जिनकी उँगलियों को प्रत्यञ्चा की रगड़ से तुने व्यर्थ ही कठोर कर डाला है। पराक्रम दिखाने का मौका आने पर जो लोग डर जाते हैं वे निशाना मारने का अभ्यास करते समय, धनुष की डोरी से अपनी उँगलियों को व्यर्थ ही कष्ट देते हैं।"

उस समय परशुराम की क्रोधभरी मूत्ति यद्यपि बड़ी ही भयानक हो

रही थी तथापि रामचन्द्र के हृदय में भय का ज़रा भी सञ्चार न हुआ।
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रघुवंश ।

वे कुछ मुसकराये तो ज़रूर, पर परशुराम के प्रश्न का उत्तर देने की उन्होंने ज़रूरत न समझी। उनके हाथ से उनका शर और शरासन ले लेना ही रामचन्द्र ने उनकी बात का सब से अच्छा उत्तर समझा। अतएव उन्होंने परशुराम से उनका धनुर्बाण ले लिया। उससे रामचन्द्र की पूर्व-जन्म की पहचान थी। नारायणावतार में यही उनका धनुष था। रामचन्द्र के हाथ में उसके फिर आ जाने से उनकी शोभा और भी विशेष हो गई । नया बादल यों ही बहुत भला मालूम होता है। यदि कहीं इन्द्रधनुष से उसका संयोग हो जाय तो फिर उसकी सुन्दरता का क्या कहना है ! रामचन्द्र बालक होकर भी बड़े बली थे। परशुराम के धनुष की एक नोक ज़मीन पर रख कर, बात कहते, उन्होंने उस पर प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। यह देखते ही क्षत्रिय राजाओं के चिरशत्रु परशुराम का चेहरा उतर गया। धुवाँमात्र बची हुई आग की तरह वे तेजोहीन हो गये। उस समय रामचन्द्र और परशुराम, आमने सामने खड़े हुए,परस्पर एक दूसरे को देखने लगे। रामचन्द्र का तो तेज बढ़ रहा था, पर परशुराम का घटता जाता था। अतएव जो लोग वहाँ उपस्थित थे उन्हें, उस समय, पूर्णमासी के सायङ्कालीन चन्द्रमा और सूर्य के समान वे मालूम हुए। स्वामिकार्तिक के सदृश पराक्रमी रामचन्द्र ने देखा कि परशुराम की सारी गर्जना तर्जना व्यर्थ गई । उनका कुछ भी ज़ोर उन पर न चल सका । अतएव उनको परशुराम पर दया आई। उन्होंने पहले तो आँख उठा कर परशुराम की तरफ़ देखा, फिर धनुष पर चढ़े हुए और कभी व्यर्थ न जानेवाले अपने बाण की तरफ़ । तदनन्तर उन्होंने परशुराम से कहा:-

“यद्यपि आपने मेरा तिरस्कार किया है-यद्यपि आपने मुझे बहुत भला बुरा कहा है-तथापि आप ब्राह्मण हैं । इस कारण मैं आपके साथ निर्दयता का व्यवहार नहीं करना चाहता । मैं नहीं चाहता कि कठोर आघात करके मैं आपको मार गिराऊँ। परन्तु बाण मेरा धनुष पर चढ़ चुका है। वह व्यर्थ नहीं जा सकता। कहिएतो उसे छोड़ कर मैं आपका चलना-फिरना बन्द कर दूं । अथवा यज्ञ करके जिस स्वर्ग के पाने के आप अधिकारीहहुए हैं उसकी राह रोक हूँ। दो बातों में से जो आप कहें कर दूं।"

परशुराम ने उत्तर दियाः
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ग्यारहवां सर्ग।

"मैं आपके स्वरूप को पहचानता हूँ और अच्छी तरह पहचानता हूँ। मैं जानता हूँ कि आप आदि पुरुष हैं । तिस पर भी मैंने जो आपको कुपित किया उसका कारण यह था कि मुझे आपका वैष्णव तेज देखना था। मुझे यह जानना था कि आपने सचमुच ही, पृथ्वी पर, राम के रूप में, अवतार लिया है या नहीं। सो, मैं आपकी परीक्षा ले चुका। मुझे अब विश्वास हो गया है कि आप सचमुच ही परमेश्वर के अवतार हैं। मुझे जो कुछ करना था मैं कर चुका । पिता के वैरियों को जला कर मैंने खाक कर दिया और समुद्र-पर्यन्त विस्तृत पृथ्वी सत्पात्रों को दान कर दी। अतएव, अब मुझे कुछ भी करना शेष नहीं। आप हैं भगवान् विष्णु के अवतार । आप से हार जाना भी मेरे लिए प्रशंसा की बात है । वह मेरी अपकीति का कारण नहीं हो सकती । आप तो विचार- शीलों और बुद्धिमानों में शिरोमणि हैं । अतएव आप स्वयं ही इन बातों को मुझ से अधिक जान सकते हैं। अब आप एक बात कीजिए । मेरी गति को रहने दीजिए, जिससे मैं तीर्थाटन करने योग्य बना रहूँ। पवित्र तीर्थों के दर्शन और स्नान आदि की मुझे बड़ी इच्छा है। उससे मुझे वञ्चित न कीजिए । रही स्वर्गप्राप्ति की बात, सो उसकी मुझे विशेष परवा नहीं। मैं सुखोपभोगों का लोभी नहीं । इससे यदि आप मेरे स्वर्ग-गमन की राह रोक देंगे तो मुझे कुछ भी दुःख न होगा।"

यह सुन कर रघुवंश-विभूषण रामचन्द्र ने कहा:--"बहुत अच्छा। मुझे आपकी आज्ञा मान्य है।" फिर उन्होंने अपना मुँह पूर्व की ओर करके उस चढ़े हुए बाण को छोड़ दिया। वह पुण्यका परशुराम के भी स्वर्ग-मार्ग की अर्गला बन गया-जिस मार्ग से उन्हें स्वर्ग जाना था उसे उसने रोक दिया । तदनन्तर रामचन्द्र ने परम तपस्वी परशुराम से नम्रतापूर्वक क्षमा माँगी और उनके दोनों पैर छुए । बल से जीते गये शत्रु से नम्रता ही का व्यवहार शोभा देता है । ऐसे व्यवहार से तेजस्वियों की कीर्ति और भी बढ़ती है। इसी से रामचन्द्र ने ऐसा किया।

रामचन्द्र की क्षमा-प्रार्थना और नम्रता से प्रसन्न होकर परशुराम ने कहा:-

"क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न हुई माता की कोख से जन्म लेने के कारण मुझ में जो रजोगुण आ गया था उसे आपने दूर कर दिया । आपकी बदौ
लत अब मुझ में अपने पिता के अंश, अर्थात् सत्वगुण, की जागृति हो आई है। इससे अब मुझे बहुत कुछ शान्ति मिली है। अतएव आपने जो पराजयरूपी दण्ड मुझे दिया उसे मैं दण्ड नहीं समझता। उसे तो मैं आपका अनुग्रह ही समझता हूँ। जिस दण्ड का फल ऐसा अच्छा हो-जिस दण्ड की बदौलत मनुष्य को शान्ति मिले उसे दण्ड न कहना चाहिए। अच्छा तो अब मैं बिदा होता हूँ। देवताओं के जिस काम के लिए आपने अवतार लिया है उसे आप निविघ्न समाप्त करें!"

राम और लक्ष्मण को ऐसा आशीर्वाद देकर महषि परशुराम अन्तन हो गये। उनके चले जाने पर दशरथ ने विजय पाये हुए अपने पुत्र रामचन्द्र को छाती से लगा लिया। स्नेहाधिक्य के कारण, उस समय, उन्हें ऐसा मालूम हुआ जैसे रामचन्द्र का नया जन्म हुआ हो। क्षण भर सन्ताप सहने के अनन्तर उन्हें जो सन्तोष हुआ वह, दावानल से मुल- साये गये पेड़ पर जलवृष्टि के समान, आनन्ददायक हुआ।

शङ्कर के सदृश पराक्रमी दशरथजी जिस मार्ग से अयोध्या को लौट रहे थे वह पहले ही से खूब सजाया जा चुका था। आई हुई आपदा के टल जाने पर अयोध्याधिप ने फिर अयोध्या का माग लिया और कई राते राह में आराम से बिता कर वे अपनी राजधानी को लौट आये। उनके लौटने की खबर सुन कर अयोध्या की स्त्रियों के हृदय में जानकीजी के दर्शनों की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई। इससे, जिस सड़क से सवारी आ रही थी उसके आस पास की नारियाँ दौड़ दौड़ कर अपने अपने घरों की खिड़कियों में आ बैठीं। उस समय उनकी बड़ी बड़ी सुन्दर आँखें देख कर यह मालूम होने लगा कि ये आँखें नहीं, किन्तु खिड़कियों में कमल ही कमल खिल रहे हैं। अयोध्या-नगरी के राजमार्ग की ऐसी मनोहारिणी शोभा देखते हुए दशरथ ने अपने महलों में प्रवेश किया।


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