रघुवंश/१२—रावण का वध

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बारहवाँ सर्ग।
रावण का वध।

राजा दशरथ की दशा प्रातःकालीन दीपक की ज्योति की समता लग को पहुँच गई। सारी रात जलने के बाद, प्रात:काल होने पर, दीपक में तेल नहीं रह जाता; वह सारा का सारा जल जाता है । बत्ती भी जल चुकती है; केवल उसका जलता हुआ छोर रह जाता है। उस समय दीपक की ज्योति जाने में ज़रा ही देर रहती है । दो ही चार मिनट में वह बुझ जाती है। दशरथ की दशा ऐसी ही दीप-ज्योति के सदृश हो गई। इन्द्रियों से सम्बन्ध रखनेवाले विषयोपभोगरूपी स्नेह भोग चुकने पर, बुढ़ापे के अन्त को प्राप्त होकर, वे निर्वाण के पास पहुँच गये । उनके देह-त्याग का समय समीप आ गया । यह देख कर बुढ़ापे ने दशरथ के कान के पास जाकर, सफ़ेद बालों के बहाने, कहा कि अब तुम्हें राम को राजलक्ष्मी सौंप देनी चाहिए । बुढ़ापे को कैकेयी का डर सा लगा । इसी से यह बात उसे धीरे से दशरथ के कान में कहनी पड़ी।

जितने पुरवासी थे, रामचन्द्र सब के प्यारे थे। अतएव रामचन्द्र के राज्याभिषेक की चर्चा ने उन सारे पुरवासियों को,एक एक करके, इस तरह प्रमुदित कर दिया जिस तरह कि पानी की बहती हुई नाली उद्यान के प्रत्येक पादप को प्रमुदित कर देती है। रामचन्द्र की अभ्युदय-वार्ता सुनकर प्रत्येक पुरवासी परमानन्द में मग्न हो गया।

अभिषेक की तैयारियाँ होने लगी। सामग्री सब एकत्र कर ली गई । इतने में एक विघ्न उपस्थित हुआ। क्रूरहृदया कैकेयी ने दशरथ को शोकसन्तप्त करके उनके गरम गरम आंसुओं से उस सारी सामग्री को दूषित कर दिया । कैकेयी करालकोपा चण्डी का साक्षात् अवतार थी। परन्तु

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थी वह राजा की बड़ी लाड़ली। इस कारण राजा ने समझा बुझाकर और प्रेमपूर्ण बातें करके उसे शान्त करने की चेष्टा की। पर फल इसका उल्टा हुआ। इन्द्र की भिगोई हुई भूमि जिस तरह बिल के भीतर बैठे हुए दो विषधर साँप बाहर निकाल दे उसी तरह, कैकेयी ने राजा के प्रतिज्ञा किये हुए दो वरदान मुँह से उगल दिये। एक से तो उसने राम को चौदह वर्ष के लिए वनवासी बनाया और दूसरे से अपने पुत्र के लिए राजसम्पदा माँगी। इस पिछले वर का और कुछ फल तो उसके हाथ लगा नहीं; रँडापा अवश्य उसे भोगना पड़ा। इस वर का एक मात्र यही फल उसे मिला।

इस घटना के पहले, जिस समय पिता ने रामचन्द्र को आज्ञा दी थी कि वत्स! अब तुम इस पृथ्वी का उपभोग करो-उस समय राम ने रोकर पिता की आज्ञा से पृथ्वी का स्वीकार किया था। परन्तु पीछे से जब पिता ने आज्ञा दी कि-बेटा! तुम चौदह वर्ष वन में जाकर वास करो-तब रामचन्द्र ने उस आज्ञा को रोकर नहीं, किन्तु बहुत प्रसन्न होकर माना। पिता के रहते राजा होना रामचन्द्र को अच्छा नहीं लगा। इसीसे पहले उन्हें रोना आया। परन्तु वन जाने की आज्ञा सुन कर उन्हें इस लिए आनन्द हुआ कि मेरे पिता बड़े ही सत्यप्रतिज्ञ हैं और मैं उनकी आज्ञा का पालन करके उनकी सत्यवादिता निश्चल रखने में उनका सहायक हो रहा हूँ।

मङ्गलसूचक और बहुमूल्य रेशमी वस्त्र धारण करते समय, अयोध्या- वासियों ने रामचन्द्र के मुखमण्डल पर जो भाव देखा था वही भाव, वृक्ष की छाल का एक वस्त्र पहनने और एक ओढ़ने पर भी, देख कर उनके आश्चर्य की सीमा न रही। विपदा में भी रामचन्द्र की मुखची वैसीही बनी रही जैसी कि सम्पदा में थी। उनकी मुख-कान्ति में ज़रा भी अन्तर न पड़ा। सुख और दुःख दोनों को उन्होंने तुल्य समझा। न उन्होंने सुख में हर्ष प्रकट किया, न दुःख में शोक। पिता को सत्य की संरक्षा से डिगाने का ज़रा भी यत्न न करके, सीता और लक्ष्मण को साथ लिये हुए, रामचन्द्र ने दण्डकारण्यही में नहीं, किन्तु प्रत्येक सत्पुरुष के मन में भी एकही साथ प्रवेश किया। रामचन्द्र की पितृभक्ति देख कर सभी प्रसन्न हो गये। सभी के मन को रामचन्द्र ने मोह लिया।

रामचन्द्र के चले जाने पर दशरथ को उनका वियोग दुःसह हो गया। [ २३६ ]
वे बेतरह विकल हो उठे। उन्हें अपने अनुचित कर्म के कारण मिले हुए शाप का स्मरण हो पाया। अतएव उन्होंने शरीर न रखने ही में अपना भला समझा। उन्होंने कहा, बिना मेरी मृत्यु हुए मुनि के शाप का प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। यह सोच कर उन्होंने शरीर छोड़ दिया।

वैरी सदाही छिद्र ढूँढ़ा करते हैं। अतएव जब अयोध्या-राज्य के वैौरेयों ने देखा कि राजकुमार तो वन को चले गये और राजा परलोक को, तब उनकी बन आई। मौका अच्छा हाथ आया देख वे उस राज्य का एक एक अंश, धीरे धीरे, हड़प करने लगे। भरत और शत्रुघ्न भी उस समय अयोध्या में नथे। वे अपने मामा के यहाँ गये थे। फिर भला शत्र क्यों न उत्पात मचाते ? अराजकता फैलती देख कर अनाथ मन्त्रियों ने भरत को बुलाने के लिए दूत भेजे। वे भरत के ननिहाल गये। परन्तु, पिता की मृत्यु की बात वहाँ भरत से कहना उन्होंने उचित न समझा। अतएव, किसी तरह, आँसू रोके हुए, वे वहाँ गये और भरत को लिवा लाये।

अयोध्या को लौट आने पर भरत को पिता की मृत्यु का हाल और उसका कारण मालूम हुआ। इस पर वे दुःख और शोक से व्याकुल हो उठे। उन्होंने अपनी माता कैकेयी ही से नहीं, किन्तु राज्य लक्ष्मी से भी मुँह मोड़ लिया। सेना-समेत उन्होंने अपने भाई का अनुगमन किया। रामचन्द्र को लौटा लाने के इरादे से वे अयोध्या से चल दिये। राह में जिन पेड़ों के नीचे राम-लक्ष्मण ने विश्राम किया था उन्हें जब आश्रमवासी मुनियों ने भरत को दिखाया तब भरत की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। चित्रकूट पहुँचने पर राम-लक्ष्मण से भरत की भेट हुई। भरत ने पहले तो पिता के मरने का वृत्तान्त रामचन्द्र से कह सुनाया। फिर उन्होंने रामचन्द्र से अयोध्या लौट चलने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने कहा:-"मैं ने अभी तक आपकी राज्य लक्ष्मी को हाथ तक नहीं लगाया। वह वैसी ही अछूती बनी हुई है। चलिए और कृपापूर्वक उसका उपभोग कीजिए।" बड़े भाई का विवाह होने के पहले यदि छोटा भाई विवाह करले तो वह परिवेत्ता कहलाता है और धर्मशास्त्र के अनुसार उसे दोष लगता है। इसी से भरत ने सोचा कि बड़े भाई रामचन्द्र के राज्य-लक्ष्मी का स्वीकार न करने पर यदि मैं उसका स्वीकार कर लूँगा तो परिवेत्ता होने के दोष से [ २३७ ]
न बच सकूँगा। अतएव, उन्होंने रामचन्द्र से बार बार आग्रह किया कि आप अयोध्या को लौट चलिए और राज्य कीजिए। परन्तु रामचन्द्र ने स्वर्गवासी पिता की आज्ञा का उल्लंघन करना स्वीकार न किया। उन्होंने घर लौट जाने और राज्य करने से साफ इनकार कर दिया।

जब भरत ने देखा कि रामचन्द्र को लौटा ले जाना किसी तरह सम्भव नहीं तब उन्होंने उनसे उनकी खड़ाऊँ माँगी। उन्होंने कहा-यदि आप मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार करते तो अपनी खड़ाऊँ ही दे दीजिए। आपकी अनुपस्थिति में मैं उन्हीं को आपके राज्य का देवता बनाऊँगा; आपके सिंहासन पर उन्हीं को स्थापित करके मैं आपके सेवक की तरह आपका राज्यकार्य करता रहूँगा। रामचन्द्र ने भरत की यह बात मानी और खड़ाऊँ दे दी। उन्हें लेकर भरतजी अयोध्या को लौट आये; परन्तु नगर के भीतर न गये। नन्दिग्राम नामक स्थान में, नगर के बाहर ही, वे रहने और अयोध्या के राज्य को बड़े भाई रामचन्द्र की धरोहर समझ कर उसकी रक्षा करने लगे। बड़े भाई के बड़े ही दृढ़ भक्त बने रहना और राज्य के लोभ में न पड़ना भरत के आत्मत्याग का उत्कृष्ट उदाहरण है। ऐसे अद्भुत आत्मत्याग के रूप में उन्होंने मानों अपनी माता कैकेयो के पापक्षालन का प्रायश्चित्त सा कर दिखाया।

उधर रामचन्द्रजी मिथिलेशनन्दिनी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ कन्द, मूल और फल आदि के आहार से जीवन-यात्रा का निर्वाह करते हुए, बड़े ही शान्त भाव से, वन वन घूमने लगे। इक्ष्वाकु कुल के राजा, बूढ़े होने पर, जिस वनवास-व्रत को धारण करते थे उसे रामचन्द्र ने युवावस्था ही में धारण कर लिया।

एक दिन की बात है कि रामचन्द्र घूमते फिरते एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उन्हें बैठा देख, उनके प्रभाव से उस पेड़ की छाया थम सी गई। जहाँ पर वे बैठे थे वहाँ से उसके हट जाने का समय आने पर भी वह वहीं बनी रही, हटी नहीं। रामचन्द्र, उस समय, कुछ थके से थे। अतएव सीता की गोद में सिर रख कर वे सो गये। उसी समय इन्द्र का पुत्र जयन्त, कौवे का रूप धर कर, वहाँ आया। उसने अपने नखों से सीताजी के वक्षःस्थल पर इतनी निर्दयता से प्रहार किया कि खून निकल आया। [ २३८ ]
इस पर सीताजी ने रामचन्द्र को जगाया। तब उन्होंने सींक का एक ऐसा बाण मारा कि उस कौवे को उससे पीछा छुड़ाना कठिन हो गया। अन्त को अपनी एक आँख देकर किसी तरह उसने उस बाण से अपनी जान बचाई। वाण ने उसकी एक आँख फोड़ कर उसे छोड़ दिया।

इस घटना के उपरान्त रामचन्द्र ने सोचा कि चित्रकूट अयोध्या से बहुत दूर नहीं। यहाँ रहने से भरत का फिर चित्रकूट आना बहुत सम्भव है। इससे कहीं दूर जाकर रहना चाहिए। रामचन्द्र को चित्रकूट में रहते यद्यपि बहुत दिन न हुए थे तथापि पशु-पक्षी तक उनसे प्रीति करने लगे थे। हिरन तो उनसे बहुत ही हिल गये थे। तथापि, पूर्वोक्त कारण से, उन्हें यह प्रीति-बन्धन तोड़ना पड़ा। चित्रकूट-पर्वत की भूमि उन्होंने छोड़ दी। अतिथियों का आदर-सत्कार करनेवाले ऋषियों के आश्रमों में वर्षा-ऋतु से सम्बन्ध रखनेवाले आर्द्रा, पुनर्वसु आदि नक्षत्रों में सूर्य के समान-कुछ कुछ दिन तक वास करते हुए वे दक्षिण दिशा को गये। उनके पीछे पीछे जाने वाली विदेहतनया सीता उस समय लक्ष्मी के समान शोभायमान हुई। कैकेयी ने यद्यपि राज्यलक्ष्मी को रामचन्द्र के पास नहीं आने दिया-यद्यपि उसने उसे रामचन्द्र के पास जाने से रोक दिया-तथापि लक्ष्मी ठहरी गुणग्राहिणी। वह किसी की रोक-टोक की परवा करनेवाली नहीं। परवा वह सिर्फ गुण की करती है। जहाँ वह गुण देखती है वहीं पहुँच जाती है। अतएव, रामचन्द्र में अनेक गुणों का वास देख कर वह सीताजी के बहाने रामचन्द्र के साथ चली आई और साथ ही साथ रही।

महर्षि अत्रि के आश्रम में उनकी पत्नी अनसूया ने सीताजी को एक ऐसा उबटन दिया जिसकी परम पवित्र सुगन्धि से सारा वन महक उठा। यहाँ तक कि भौरों ने फूलों का सुवास लेना छोड़ दिया। वे सीताजी के शरीर पर लगे हुए उबटन की अलौकिक सुगन्धि से खिंच कर उन्हीं की तरफ़ दौड़ दौड़ आने लगे।

राह में रामचन्द्र को विराघ नामक राक्षस मिला। वह सायङ्कालीन मेघों की तरह लालिमा लिये हुए भूरे रङ्ग का था। चन्द्रमा के मार्ग को राहु की तरह, वह रामचन्द्र के मार्ग को रोक कर खड़ा हो गया। इतना ही नहीं, किन्तु उस लोकसन्तापकारी राक्षस ने राम और लक्ष्मण के बीच [ २३९ ]
से सीता को इस तरह हर लिया जिस तरह कि पर्जन्य का प्रतिबन्ध कारण सावन और भादों के बीच से वर्षा को हर लेता है। राम-लक्ष्मण ने उसे अपने भुज-बल से बेतरह पीस कर मार डाला। परन्तु उसकी लाश को उन्होंने वहीं पड़ी रहने देना मुनासिब न समझा। उन्होंने कहा कि यदि यह इस तरह पड़ी रहेगी तो इसकी अपवित्र दुर्गन्धि से आश्रम की भूमि दूषित हो जायगी। अतएव उन्होंने उसे ज़मीन में गाड़ दिया।

महर्षि अगस्त्य ने रामचन्द्र को सलाह दी कि अब आप पञ्चवटी में जाकर कुछ दिन रहें। रामचन्द्र ने उनकी आज्ञा को सिर पर धारण करके पञ्चवटी के लिए प्रस्थान किया। ऊपर, आकाश की ओर, बढ़ना बन्द करके विन्ध्याचल जिस तरह अगस्त्य की आज्ञा से अपनी मामूली उँचाई से आगे न बढ़ा था-अपनी मर्यादा के भीतर ही रह गया था उसी तरह मुनि की आज्ञा से रामचन्द्रजी भी लोक और वेद की मर्यादा का उल्लंघन न करके पञ्चवटी में वास करने लगे।

वहाँ एक विलक्षण घटना हुई। रावण की छोटी बहन, जिसका नाम शूर्पणखा था, रामचन्द्र की मोहिनी मूर्ति देख कर उन पर आसक्त हो गई। अतएव, ग्रीष्म की गरमी की सताई नागिन जैसे चन्दन के वृक्ष के पास दौड़ जाती है वैसे ही वह भी अपना शरीरज सन्ताप शमन करने के लिए रामचन्द्र के पास दौड़ गई। जिस समय वह गई सीताजी भी रामचन्द्र के पास मौजूद थीं। परन्तु शूर्पणखा ने उनके सामने ही रामचन्द्र से कहा कि कृपा करके आप मुझसे शादी कर लीजिए। बात यह है कि मानसिक उत्कण्ठा की मात्रा विशेष बढ़ जाने से स्त्रियों को समय असमय का ज्ञान नहीं रहता। उनकी विवेक-बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

विवाह करके पति प्राप्त करने की इच्छा रखनेवाली उस निशाचरी से, बलीवर्द के समान मांसल कन्धोंवाले रामचन्द्र ने कहाः-"बाले! मेरा तो विवाह हो चुका है; मैं तो पहले ही से कलत्रवान हूँ। अब मैं दूसरी स्त्री के साथ कैसे विवाह करूँ ? तू मेरे छोटे भाई लक्ष्मण के पास जा और उन पर अपनी इच्छा प्रकट कर।" इस पर वह लक्ष्मण के पास गई, तो उन्होंने भी उसका मनोरथ सफल न किया। वे बोले:-"मैं छोटा हूँ, रामचन्द्रजी बड़े हैं। और, तू पहले मेरे बड़े भाई के पास गई। इस कारण [ २४० ]
अब तू मेरे काम की नहीं। मैं अब तुझे अपनी स्त्री नहीं बना सकता।" यह सुनने और लक्ष्मण के द्वारा तिरस्कृत होने पर वह फिर रामचन्द्र के पास आई। उस समय कभी राम और कभी लक्ष्मण के पास जानेवाली उस निशाचरी की दशा, दोनों तटों के आश्रय से बहनेवाली नदी के सदृश, हुई। स्वभाव से तो शूर्पणखा महा कुरूपा थी; पर रामचन्द्र को अपने ऊपर अनुरक्त करने के लिए, माया के प्रभाव से, वह सुन्दरी बनी थी। यह बात सीताजी को मालूम न थी। इस कारण, उसे कभी रामचन्द्र और कभी लक्ष्मण के पास जाते देख, उन्हें हँसी आ गई। उन्हें हँसते देख कर शूर्पणखा आपे से बाहर हो गई। वायु न चलने के कारण निश्चल हुई समुद्र-मर्यादा को चन्द्रोदय जैसे तुब्ध कर देता है वैसे ही सीताजी के हँसने ने शूर्पणखा को क्षुब्ध कर दिया। वह क्रोध से जल उठी; उसका शान्तभाव जाता रहा। वह बोली:-हाँ, तू मुझ पर हँसती है! इस हँसने का फल तुझे बहुत जल्द मिलेगा। बाघिन का तिरस्कार करनेवाली मृगी की जो दशा होती है वही दशा तेरी भी होगी। तेरा यह हँसना मृगी के द्वारा किये गये बाघिन के अपमान के सदृश है। अच्छा, ठहर।"

ऐसी धमकी सुन कर सीताजी डर गई। उन्होंने अपना मुँह पति की गोद में छिपा लिया-भयभीत होकर वे रामचन्द्र की गोद में चली गई। उधर शूर्पणखा ने अपना बनावटी रूप बदल कर, अपने नाम के अनुसार, अर्थात् सूप के समान नखोंवाला, अपना स्वाभाविक भयङ्कर रूप दिखाया। लक्ष्मणजी समझ गये कि यह मायाविनी है। उन्होंने सोचा कि पहले तो इसने कोकिला की तरह कर्ण-मधुर भाषण किया और अब यह शृगाली की तरह घोर नाद कर रही है। अतएव इसकी बोली ही इस बात का प्रमाण है कि यह कपट करने वाली कोई निशाचरी है। फिर क्या था। तुरन्त ही नङ्गी तलवार हाथ में लेकर वे पर्णशाला के भीतर घुस गये और कुरूपता की पुनरुक्ति से उन्होंने उस भयावनी राक्षसी की कुरूपता और भी बढ़ा दी। उसकी नाक और कान काट कर उन्होंने उसकी कुरूपता दूनी कर दी। तब वह आकाश को उड़ गई और वहाँ टेढ़े नखों और बाँस के समान कठोर पोरोंवाली अपनी अंकुश के आकारवाली तर्जनी उँगली नचा नचाकर रामचन्द्र और लक्ष्मण को धमकाने लगी। [ २४१ ]जनस्थान नामक राक्षसों की निवासभूमि में जाकर उसने खर और दूषण आदि राक्षसों को अपनी कटी हुई नाक और कटे हुए कान दिखा कर कहा:-"रामचन्द्र की इस करतूत को देखो! आज उसने राक्षसों का यह नया तिरस्कार किया है।" राक्षसों ने नाक-कान कटी हुई उसी राक्षसी को आगे करके तुरन्त ही रामचन्द्र पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने यह न सोचा कि इस नकटी को सेना के आगे ले चलना अच्छा नहीं। यद्यपि उन्होंने शकुन-अशकुन की कुछ भी परवा न की, तथापि शूर्पणखा का अशुभ वेश उनके लिए अमङ्गल-जनक ज़रूर हुआ। हाथों में हथियार उठाये हुए उन अभिमानी राक्षसों को, अपने ऊपर आक्रमण करने के लिए, सामने आता देख रामचन्द्र ने जीत की आशा तो धनुष को सौंपी और सीता लक्ष्मण को। सीता को लक्ष्मण के सिपुर्द करके उन्होंने अपना धनुष उठा लिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि रामचन्द्र अकेले थे और राक्षस हज़ारों। परन्तु अचम्भे की बात यह हुई कि युद्ध प्रारम्भ होने पर जितने राक्षस थे उतने ही रामचन्द्र भी उन्हें दिखाई दिये।

रामचन्द्र ने कहा:-"इस दूषण नाम के राक्षस को अवश्य दण्ड देना चाहिए। क्योंकि यह दुष्टों का भेजा हुआ है। इसे मैं उसी तरह नहीं सह सकता जिस तरह कि यदि कोई दुर्जन मुझ पर कोई दूषण लगाता तो मैं उसे न सह सकता। क्योंकि, मैं सदाचार के प्रतिकूल कोई काम नहीं करता। जो आचारवान हैं जो फूंक फूंक कर पैर रखते हैं वे दुराचारियों के लगाये हुए दूषण को कभी नहीं सह सकते।" यही सोच कर रामचन्द्र ने खर, दूषण और त्रिशिरापर, क्रम क्रम से, इतनी फुर्ती से बाण छोड़े कि उनके धनुष से आगे पीछे छूटने पर भी वे एक ही साथ छूटे हुए से मालूम हुआ। रामचन्द्र के पैने बाण उन तीनों राक्षसों के शरीर छेद कर बाहर निकल गये। पर उनकी शुद्धता में फरक न पड़ा। वे पूर्ववत् साफ़ बने रहे। रुधिर या शरीरान्तर्वर्ती और कोई वस्तु उनमें न लगी। रुधिर निकलने न पाया, और वे शरीर के पार हो गये। उन राक्षसों के प्राण ता रामचन्द्र के इन बाणों ने पी लिये। रहा रुधिर, जो बाणों के गिरने के बाद घावों से गिरा था, उसे मांसभोजी पक्षियों ने पी लिया। रामचन्द्र के बाणों ने राक्षसों की उस उतनी बड़ी सेना के सिर एकदम से उड़ा दिये। उन्होंने उसकी ऐसी [ २४२ ]
दुर्गति कर डाली कि बेसिर के सैनिकों, अर्थात् कबन्धों, के सिवा एक भी योद्धा युद्ध के मैदान में समूचा खड़ा न रह गया। सर्वत्र रुण्ड ही रुण्ड दिखाई देने लगे। बाणों की विषम वर्षा करनेवाले रामचन्द्र से लड़ कर राक्षसों की वह सेना, आकाश में उड़ते हुए गीधों के पंखों की छाया में, सदा के लिए सो गई। फिर वह नहीं जागी; सारी की सारी मारी गई। जीती सिर्फ शूर्पणखा बची। रामचन्द्र के शराघात से प्राण छोड़े हुए राक्षसों के मरने की बुरी वार्ता उसी ने जाकर रावण को सुनाई। मानों वह इसीलिए बच रही थी। वह भी यदि न बचती तो रावण को शायद इस युद्ध के फला-फल का हाल ही न मालूम होता।

बहन के नाक-कान काटे और बन्धु-बान्धवों के मारे जाने की खबर पाकर कुवेर के भाई रावण को ऐसा मालूम हुआ जैसे रामचन्द्र ने उसके दसों शीशों पर लात मार दी हो। वह बेहद कुपित हो उठा। हरिणरूपधारी मारीच नामक राक्षस की मदद से, रामचन्द्र को धोखा देकर, वह सीता को हर ले गया। पक्षिराज जटायु ने उसके इस काम में कुछ देर तक विन्न अवश्य डाला; परन्तु वह रावण के पजे से सीता को न छुड़ा सका।

आश्रम में सीता को न पाकर रामचन्द्र और लक्ष्मण उन्हें ढूँढ़ते हुए वन वन घूमने लगे। मार्ग में जटायु से उनकी भेंट हुई। उन्होंने देखा कि जटायु के पंख कटे हुए हैं और उनके प्राया कण्ठ तक आ पहुँचे हैं-उनके निकलने में कुछ ही देरी है। जब उन्हें यह मालूम हुआ कि सीता को छुड़ाने के प्रयत्न में, इस गीध ने, अपने मित्र दशरथ की मित्रता का ऋण, कण्ठगत प्राणों से, चुकाया है तब राम-लक्ष्मण उसके बहुत ही कृतज्ञ हुए। जटायु ने रावणद्वारा सीता के हरे जाने का वृत्तान्त उनसे कह सुनाया। परन्तु रावण के साथ लड़ने में उसने जो प्रबल पराक्रम दिखाया था उसका उलेल्ख करने की उसने कोई आवश्यकता न समझी। क्योंकि, उसका उल्लेख तो उसके शरीर पर लगे हुए घाव और कटे हुए पंख ही कर रहे थे। सीता का हाल कह कर जटायु ने प्राण छोड़ दिये। उसकी मृत्यु से राम-लक्ष्मण को अपने पिता की मृत्यु का शोक नया हो गया। क्योंकि उन्होंने उसे पिता ही के समान समझा था। अतएव, उन्होंने अग्नि-संस्कार से प्रारम्भ करके उसके सारे और्ध्वदैहिक कृत्य पिता के सदृश ही किये।

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रघुवंश।

मार्ग में रामचन्द्र को कबन्ध नामक राक्षस मिला। उनके हाथ से मरने पर उसका शाप छूट गया। उसकी सलाह से रामचन्द्र ने सुग्रीव नामक कपीश्वर से मित्रता की । सुग्रीव भी उसी व्यथा में लिप्त था जिसमें रामचन्द्र थे । उसके भाई वालि ने उसकी स्त्री भी हर ली थी और उसका राज्य भी। वीरवर रामचन्द्र ने वालि को मार कर सुग्रीव को उसकी जगह पर-धातु के स्थान पर आदेश की तरह-बिठा दिया। सुग्रीव को अपने भाई का पद पाने की आकांक्षा बहुत दिनों से थी । वह रामचन्द्र की बदौलत पूरी हो गई। .

पत्नी के वियोग से रामचन्द्र को बड़ा दुःख हुआ। अतएव सुग्रीव ने अपने सेवक सहस्रशः कपियों को सीता की खोज में भेजा । वे लोग, रामचन्द्र के मनोरथों की तरह, इधर उधर घूमने और सीता का पता लगाने लगे। भाग्यवश जटायु के बड़े भाई सम्पाति से उनकी भेंट हो गई । उससे उन्हें सीता का पता मिल गया। उन्होंने सुना कि सीता को रावण अपनी राजधानी लङ्का को ले गया है और वहाँ उसने अशोक-बाटिका में उन्हें रक्खा है । यह सुन कर पवनपुत्र हनूमान् समुद्र को इस तरह पार कर गये जिस तरह कि ममता छोड़ा हुआ मनुष्य संसार-सागर को पार कर जाता है । लङ्का में ढूँढ़ते ढूँढ़ते उन्हें सीताजी मिल गई। उन्होंने देखा कि विष की बेलों से घिरी हुई सञ्जीवनी बूटी की तरह सीताजी राक्षसियों से घिरी हुई बैठी हैं। तब उन्होंने पहचान के लिए रामचन्द्रजी की अँगूठी सीताजी को दी। अँगूठी के रूप में पति का भेजा हुआ चिह्न पाकर जानकी के आनन्द की सीमा न रही । उनकी आँखों से आनन्द के शीतल आँसुओं की झड़ी लग गई । आँसुओं ने निकल कर उस अँगूठी का आदर सा किया-उसे अर्ध्य सा देकर उसकी सेवा की। हनूमान् के मुख से रामचन्द्रजी का सन्देश सुन कर सीताजी को बहुत कुछ धीरज हुआ।

लङ्का में हनुमान ने रावण के बेटे अक्षकुमार को मार डाला। इस

विजय से हनूमान् का साहस और भी बढ़ गया । अतएव उन्होंने और भी अधिक उद्दण्डता दिखाई । यहाँ तक कि उन्होंने लङ्का-पुरी को जला कर खाक कर दिया । मेघनाद ने उन्हें कुछ देर तक ब्रह्मास्त्र से बाँध कर अवश्य रक्खा; पर जीत उन्हीं की रही । उन्हें अधिक तङ्ग नहीं होना पड़ा। [ २४४ ]
[ २४६ ]लङ्का से लौट कर सौभाग्यशाली हनुमान ने जानकीजी का चिह्न राम-

चन्द्रजी को दिया। यह चिह्न जानकीजी की चूड़ामणि के रूप में था। उसे पाकर रामचन्द्रजी को परमानन्द हुआ। उन्होंने उस मणि को अपने ही मन से आये हुए, जानकीजी के मूर्तिमान हृदय के समान, समझा। उन्होंने कहा, यह जानकी की चूड़ामणि नहीं है; यह तो उनका साक्षात् हृदय है, जो चूड़ामणि के रूप में मेरे पास आकर उपस्थित हुआ है। उसे उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। उसके स्पर्श से वे क्षणमात्र अचेत से हो गये। उन्हें ऐसा आनन्द हुआ जैसे वे जानकीजी का आलिङ्गन ही कर रहे हों। प्रियतमा जानकी के समाचार सुन कर रामचन्द्रजी बेहद उत्कण्ठित हो उठे। उनसे मिलने की कामना उनके हृदय में इतनी बलवती हो गई कि लङ्का के चारों तरफ भरे हुए महासागररूपी परकोटे को उन्होंने साधारण खाई से भी छोटा समझा।

बन्दरों की असंख्य सेना लेकर रामचन्द्रजी ने तत्काल ही लङ्का पर चढ़ाई कर दी। उन्होंने प्रण किया कि शत्रुओं का नाश किये बिना अब मैं न रहूँगा। वे आगे आगे चले, बन्दरों की सेना उनके पीछे पीछे। सेना इतनी अधिक थी कि उसके चलने से पृथ्वी के नहीं, आकाश के भी रास्ते रुक गये। बड़ी कठिनता से उसे चलने की राह मिली। समुद्र के तट पर रामचन्द्र ने अपने और अपनी सेना के डेरे डाल दिये। वहाँ पर रावण का भाई विभीषण आकर उनसे मिला। वह क्या आया, मानों राक्षसों की लक्ष्मी, उसके हृदय में बैठ कर, मारे स्नेह के उसे रामचन्द्र के पास ले आई। वह डरी कि ऐसा न हो जो राक्षसों का समूह ही उन्मूलन हो जाय। इससे उसने विभीषण की बुद्धि फेर दी और उसे रामचन्द्र के पास ले गई। उसने सोचा कि रामचन्द्र की कृपा से यदि यह जीता रहेगा तो इसके आसरे मैं भी बनी रहूँगी।

विभीषण की भक्ति पर प्रसन्न होकर रामचन्द्रजी ने उसे राक्षसों का राज्य देने की प्रतिज्ञा की। यह उन्होंने बहुत ही अच्छा काम किया। नीति का बरताव उचित समय पर करने से अवश्य ही उससे शुभ फल की प्राप्ति होती है।

रामचन्द्रजी ने खारी जल के समुद्र पर बन्दरों से पुल बँधवा दिया। [ २४७ ]
वह पुल विष्णु के सोने के लिए, रसातल से ऊपर आये हुए, शेषनाग के समान मालूम होने लगा। उसी पुल के ऊपर से उतर कर रामचन्द्रजी ने पीले पीले बन्दरों से लङ्का को घेर लिया। लङ्का के चारों तरफ़ सोने का एक परकोटा तो था ही, बन्दरों का चौतरफा जमाव-घेरा-सोने का दूसरा परकोटा सा बन गया। वहाँ बन्दरों और राक्षसों का बड़ा हो घोर युद्ध हुआ। बन्दरों के मुख से निकले हुए रामचन्द्र के और राक्षसों के मुख से निकले हुए रावण के जय-जयकार से दिशाये गूंज उठी। युद्ध क्या था, प्रलयकाल का प्रदर्शन था। बन्दरों ने वृक्षों की मार से राक्षसों के परिघ नामक अस्त्र तोड़ फोड़ डाले पत्थरों के प्रहार से लोहे के मुद्गर चूर चूर कर दिये; नाखूनों से शस्त्रों की अपेक्षा भी अधिक गहरी चोटें पहुँचाई- शत्रुओं के शरीर उन्होंने चीर-फाड़ डाले; बड़े बड़े पर्वत-शिखर फेंक कर हाथियों के टुकड़े टुकड़े कर डाले।

तब राक्षसों को माया रचने की सूझी। विद्यु जिह्वा नामक राक्षस ने रामचन्द्रजी का कटा हुआ सिर सीताजी के सामने रख दिया। उसे देखकर सीता जी मूर्छित हो गई। इस पर त्रिजटा नामक राक्षसी ने सीताजी से कहा कि यह केवल माया है। रामचन्द्रजी का बाल भी बाँका नहीं हुआ। आप घबराइए नहीं। यह सुन कर सीताजी को धीरज हुआ। त्रिजटा की बदौलत वे फिर जी सी उठी। यह जान कर कि मेरे पति कुशल से हैं उनका शोक तो दूर हो गया; परन्तु यह सोच कर उन्हें लज्जा अवश्य हुई कि पति की मृत्यु को पहले सच मान कर भी मैं जीती रही। चाहिए था यह कि पति की मृत्युवार्ता सुनते ही मैं भी मर जाती।

मेघनाद ने राम-लक्ष्मण को नागपाश से बाँध दिया। परन्तु इस पाश के कारण उत्पन्न हुई व्यथा उन्हें थोड़ी ही देर तक सहनी पड़ी। गरुड़ के आते ही नागपाश ढीला पड़ गया और राम-लक्ष्मण का उससे छुटकारा हो गया। उस समय वे सोते से जाग से पड़े और नागपाश से बाँधे जाने की पीड़ा उन्हें स्वप्न में हुई सी मालूम होने लगी।

इसके अनन्तर रावण ने शक्ति नामक अस्त्र लक्ष्मण की छाती में मारा। भाई को आहत देख रामचन्द्रजी शोक से व्याकुल हो गये। बिना किसी प्रकार के चोट खाये ही उनका हृदय विदीर्ण हो गया। लक्ष्मण को अचेत [ २४८ ]राम का विलाप। [ २५० ]
देख पवनसुत हनूमान् सञ्जीवनी नामक महौषधि ले आये। उसके प्रभाव से लक्ष्मण की सारी व्यथा दूर हो गई। वे फिर भीषण युद्ध करने लगे। उन्होंने अपने तीक्ष्ण बाण से इतने राक्षस मार गिराये कि लङ्का की स्त्रियों में हा-हाकार मच गया। वे. महाकारुणिक विलाप करने लगीं। अपने बाणों की सहायता से राक्षसियों को विलाप करना सिखला कर लक्ष्मणजी विलापाचार्य की पदवी को पहुँच गये। शरत्काल जिस तरह मेघों की गरज और इन्द्र-धनुष का सर्वनाश कर देता है-उनका नामोनिशान तक बाकी नहीं रखता-उसी तरह लक्ष्मण ने मेघनाद के नाद और इन्द्र-धनुष के समान चमकीले उसके धनुष का अत्यल्प अंश भी बाकी न रक्खा। उन्होंने उसके धनुष को काट कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले और स्वयं उसे भी मार कर सदा के लिए चुप कर दिया।

मेघनाद के मारे जाने पर कुम्भकर्ण लड़ाई के मैदान में आया। सुग्रीव ने उसके नाक-कान काट कर उसकी वही दशा कर डाली जो दशा उसकी बहन शूर्पणखा की हुई थी। भाई-बहन दोनों की अवस्था एक सी हो गई। नाक-कान कट जाने पर भी कुम्भकर्ण ने बड़ा पराक्रम दिखाया। टाँकी से काटे गये मैनसिल के लाल लाल पर्वत की तरह उसने रामचन्द्र को आगे बढ़ने से रोक दिया। तब रामचन्द्र के बाणों ने मानों उससे कहा:-"आप तो निद्रा-प्रिय हैं। यह समय आपके सोने का था, युद्ध करने का नहीं। आपके भाई ने आपको कुसमय में जगा कर वृथा ही इतना कष्ट दिया।" जान पड़ता है, यही सोच कर उन्होंने कुम्भकर्ण के लिए दीर्घनिद्रा बुला दी- उसे उन्होंने सदा के लिए सुला दिया।

करोड़ों बन्दरों की सेना में और भी न मालूम कितने राक्षस गिर कर नष्ट हो गये। कटे हुए राक्षसों के रुधिर की नदियाँ बह निकलीं। उन नदियों में गिरी हुई युद्ध के मैदान की रज की तरह, कपि-सेना में मर कर गिरे हुए राक्षसों का पता तक न चला कि वे कहाँ गये और उनकी क्या गति हुई।

राक्षसों की इतनी हत्या हो चुकने पर, रावण फिर युद्ध करने के लिए घर से निकला। उसने निश्चय कर लिया कि आज या तो रावण ही इस संसार से सदा के लिए कूच कर जायगा या राम ही। उस समय देवताओं [ २५१ ]
ने देखा कि रामचन्द्र तो पैदल खड़े हैं, पर रावण रथ पर सवार है। यह बात उन्हें बहुत खटकी। अतएव, इन्द्र ने कपिल वर्ण के घोड़े जुतो हुआ अपना रथ उनकी सवारी के लिए भेज दिया। मार्ग में आकाश-गङ्गा की लहरों का स्पर्श करके आई हुई वायु ने इस रथ की ध्वजा के वस्त्र को खूब हिलाया। एक क्षण में वह विजयी रथ रामचन्द्र के सामने आकर खड़ा हो गया। इन्द्र के सारथी मातलि के हाथ के सहारे रामचन्द्र उसपर सवार हो गये। रथ के साथ इन्द्र का कवच भी मातलि लाया था। उसे उसने रामचन्द्र को पहना दिया। यह वही कवच था जिस पर असुरों के अस्त्र कमल-दल की असमर्थता को पहुँचे थे। कमल का दल बहुत ही कोमल होता है। उसे फेंक कर मारने से बिलकुल ही चोट नहीं लगती। असुर लोग जब इन्द्र पर अस्त्र चलाते थे तब इस कवच की कृपा से इन्द्र पर उनका कुछ भी असर न होता था। वे कमल-दल के सदृश कवच पर लग कर गिर पड़ते थे। इसी कवच को शरीर पर धारण करके रामचन्द्रजी रावण से युद्ध करने के लिए तैयार हो गये।

रामचन्द्र और रावण, दोनों, एक दूसरे के आमने सामने हुए। राम ने रावण को देखा और रावण ने राम को। अपना अपना बल-विक्रम दिखाने का अवसर बहुत दिन के बाद आने से राम-रावण का युद्ध सफल सा हो गया। प्रत्यक्ष युद्ध न करने से अभी तक उन दोनों का वैर-भाव निष्फल सा था। अब दो में से एक की हार के द्वारा उसका परिणाम मालूम होने का मौक़ा आ गया। रावण के पुत्र, बन्धु-बान्धव और सेनानी आदि मर चुके थे। अतएव, यद्यपि वह अकेला ही रह गया था-पहले की तरह उसके पास यद्यपि उसके शरीर-रक्षक तक न थे-तथापि अपने हाथों और सिरों की बहुलता के कारण वह अपनी राक्षसी माता के वंश के अनेक राक्षसों से घिरा हुआ सा मालूम हुआ।

कुवेर के छोटे भाई रावण को देख कर रामचन्द्रजी ने मन में कहाः- "यह लोकपालों का जीतने वाला है। अपने सिर काट काट कर उन्हें इसने फूल की तरह महादेवजी पर चढ़ाया है। कैलास-पर्वत तक को एक बार इसने उठा लिया था। यह सचमुच ही बड़ा वीर है।” इस प्रकार मन में सोच कर वे बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा, ऐसे बली वैरी [ २५२ ]
को सामने पाकर मुझे अब अपना पराक्रम प्रकट करने का अच्छा मौका मिला है।

युद्ध छिड़ गया। पहला प्रहार रावण ही ने किया। फड़क कर सीता के सङ्गम की सूचना देने वाली रामचन्द्र की दाहनी भुजा पर, उसने, बड़े क्रोध में आ कर, एक वाण मारा। वह निशाने पर लग कर भीतर घुस गया। रामचन्द्र ने रावण से इसका बदला तत्काल ही ले लियो। उन्होंने भी एक तेज़ बाण छोड़ा। वह रावण का हृदय फाड़ कर ज़मीन पर जा गिरा। गिरा क्यों, ज़मीन के भीतर धंस गया। वह इतने ज़ोर से छूटा था कि रावण की छाती भी उसने फाड़ दी और उसके पार निकल कर पाताल तक, नागों को मानों खुशखबरी सुनाने के लिए, ज़मीन को फाड़ता चला गया। रावण ने पातालवासी नागों की भी बहू-बेटियाँ हर ली थीं। अत- एव, नागलोक वालों के लिए उसकी छाती के फाड़े जाने की खबर सचमुच ही सुनाने लायक थी। शास्त्रार्थ करने वाले दो आदमी जिस तरह जीत की इच्छा से एक दूसरे की उक्ति का उक्ति से खण्डन करते हैं, उसी तरह, रामचन्द्र और रावण ने भी, परस्पर एक दूसरे के अस्त्र को अस्त्र से ही काट कर, विजय पाने के लिए, जी-जान से प्रयत्न करना प्रारम्भ कर दिया। धीरे धीरे उनका क्रोध बहुत ही बढ़ गया। वे दोनों ही पराक्रम की पराकाष्ठा दिखाने लगे। कभी रावण का पराक्रम बढ़ा हुआ देख पड़ा, कभी राम का। परस्पर लड़ने वाले दो मतवाले हाथियों के बीच की दीवार की तरह, जीत की लक्ष्मी राम और रावण के विषय में सामान्यभाव को पहुँच गई। कभी वह रामचन्द्र की हो गई, कभी रावण की। दोनों के वीच में वह झूले की तरह झूलने लगी। रामचन्द्र के द्वारा रावण पर किये गये प्रहारों से प्रसन्न होकर देवता, और रावण के द्वारा रामचन्द्र पर किये गये प्रहारों से प्रसन्न होकर दैत्य, राम और रावण पर, क्रमशः, फूल बरसाने लगे। परन्तु उन दोनों योद्धाओं की बाणवर्षा से वह पुष्पवर्षा न सही गई। अतएव, उसने परस्पर एक दूसरे पर बरसाये गये फूलों को बीच ही में रोक दिया। उन्हें आकाश से नीचे गिरने ही न दिया।

कुछ देर बाद रावण ने रामचन्द्र पर लोहे की कीलों से जड़ी हुई शतघ्नो नामक गदा, यमराज से छीन लाई गई कुकर्मियों को पीटने की कूट [ २५३ ]
शाल्मली नामक लाठी की तरह, चलाई। दैत्यों को इस अस्त्र से बड़ो बड़ी आशाये थीं। परन्तु रथ तक पहुँचने के पहले ही रामचन्द्र ने इसे अपने अर्द्धचन्द्र बाणों से, केले की तरह, सहज ही में, काट गिराया। फिर उन्होंने रावण पर छोड़ने के लिए कभी निष्फल न जाने वाला ब्रह्मास्त्र, अपने धनुष पर रक्खा। धनुर्विद्या में रामचन्द्र सचमुच ही अद्वितीय थे। उन्होंने अपने धनुष पर इस अस्त्र की योजना क्या की, प्रियतमा जानकी के कारण उत्पन्न हुए शोकरूपी काँटे को अपने हृदय से निकाल फेंकने की ओषधि ही का उन्होंने प्रयोग सा किया। धनुष से छूटने पर, आकाश में, उस चमचमाते हुए अस्त्र का मुख, दस भागों में, विभक्त हो गया। उस समय वह शेष-नाग के महा विकराल फनों के मण्डल के समान दिखाई दिया। मन्त्र पढ़ कर छोड़े गये उस ब्रह्मास्त्र ने, पलक मारते मारते, रावण के दसों सिर काट कर ज़मीन पर गिरा दिये। उसने यह काम इतनी फुर्ती से कर दिखाया कि रावण को सिर काटे जाने की व्यथा तक न सहनी पड़ी। उसे मालूम ही न हुआ कि कब उसके सिर कट कर गिर पड़े। लहरों के कारण अलग अलग दिखाई देने वाली, प्रातःकालीन सूर्य की प्रतिमा, जल में जैसी मालूम होती है, रावण के शरीर से कट कर गिरे हुए मुण्डों की माला भी, उस समय, वैसी ही मालूम हुई।

रावण के कटे हुए सिर ज़मीन पर पड़े देख कर भी देवताओं को उसके मरने पर पूरा पूरा विश्वास न हुआ। वे डरे कि ऐसा न हो जो ये सिर फिर जुड़ जायँ।

धीरे धीरे देवताओं का सन्देह दूर हो गया। उन्हें विश्वास हो गया कि रावण अब जीता नहीं। अतएव, उन्होंने रावणारि रामचन्द्र के शीश पर-उस शीश पर जिस पर, राज्याभिषेक होने पर, मुकुट रखने का समय समीप आ गया था-बड़े ही सुगन्धित फूलों की वर्षा की। महा- मनोहारी और सुगन्धिपूर्ण फूल बरसते देख भौरों ने दिकपालों के हाथियाँ की कनपटियाँ छोड़ दीं। अपने पंखों पर मद चिपकाये हुए वे उन फूलों के पीछे पीछे दौड़े। फूलों की सुगन्धि से खिंच कर, वे भी, फूलों के पीछे ही, आसमान से रामचन्द्र के शीश पर आ पहुँचे।

देवताओं का काम हो चुका देख रामचन्द्र ने धनुष से तुरन्त ही [ २५४ ]
प्रत्यञ्चा उतार डाली। तब इन्द्र का सारथी मातलि उनके सामने उपस्थित हुआ। उसने प्रार्थना की कि आज्ञा हो तो मैं अब अपने स्वामी का रथ वह रथ जिसकी पताका के डण्डे पर रावण का नाम खुदे हुए बाणों के चिह्न बन गये थे-ले जाऊँ। रामचन्द्र ने उसे रथ वापस ले जाने की आज्ञा दे दी। तब वह हज़ार घोड़े जुते हुए उस रथ को लेकर, ऊपर, भाकाश की तरफ रवाना हो गया।

इधर सीता जी ने अग्निपरीक्षा के द्वारा अपनी विशुद्धता प्रमाणित कर दी। अतएव, रामचन्द्र ने अपनी प्रियतमा पत्नो का स्वीकार कर लिया। फिर अपने प्रिय मित्र विभीषण को लङ्का का राज्य देकर, और सीता, लक्ष्मण तथा सुग्रीव को साथ लेकर, अपने भुज-बल से जीते हुए सर्वश्रेष्ठ विमान पर सवार होकर, उन्होंने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।