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रघुवंश/१३—रामचन्द्र का अयोध्या को लौटना

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रघुवंश
कालिदास, अनुवादक महावीरप्रसाद द्विवेदी

पृष्ठ २५५ से – २७० तक

 
तेरहवाँ सर्ग।
रामचन्द्र का अयोध्या को लौटना।

परम गुणज्ञ राम-नामधारी विष्णु भगवान्, पुष्पक विमान पर सवार होकर, आकाश की राह से अयोध्या को चले-उस आकाश की राह से जिसका गुण शब्द है, अर्थात्जि सके बिना शब्द की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती, और जो उन्हीं, अर्थात् विष्णु के ही, पैर से एक बार मापा जा चुका है। नीचे भरे हुए रत्नाकर समुद्र को देख कर, एकान्त में, उन्होंने अपनी पत्नी सीता से इस प्रकार कहना आरम्भ किया:--

"हे वैदेही ! फेने से परिपूर्ण इस जलराशि को तो देख । मेरे निर्माण किये हुए पुल ने इसे मलयाचल तक विभक्त कर दिया है-इसके दो टुकड़े कर दिये हैं । आकाश-गङ्गा के द्वारा दो विभागों में बँटे हुए, चमकते हुए सुन्दर तारोंवाले, शरद् ऋतु के उज्ज्वल आकाश की तरह यह मालूम हो रहा है । पहले यह इतना लम्बा, चौड़ा और गहरा न था । सुनते हैं, मेरे पूर्वजों ने ही इसे इतना बड़ा कर दिया है। यह घटना राजा सगर के समय की है। उन्होंने यज्ञ की दीक्षा लेकर घोड़ा छोड़ा। उस पवित्र घोड़े को कपिल ने पाताल पहुंचा दिया। उसे ढूँढ़ने के लिए सगर के सुतों ने, दूर

दूर तक, पृथ्वी खोद डाली। उन्हीं के खोदने से इस समुद्र की लम्बाई, चौड़ाई और गहराई अधिक हो गई। इसकी मैं कहाँ तक प्रशंसा करूँ। इसी की बदौलत सूर्य की किरणें गर्भवती होती हैं-इसी से जल खींच कर पर्जन्य के रूप में वे बरसाती हैं; इसी के भीतर रत्नों की भी उत्पत्ति और वृद्धि होती है; यही पानी रूपी ईंधन से प्रज्वलित होने वाली बड़वाग्नि धारण करता है। और, नेत्रों को आनन्द देनेवाला चन्द्रमा भी इसी से
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उत्पन्न हुआ है। मत्स्य और कच्छप आदि अवतार लेनेवाले विष्णु के रूप की तरह यह भी अपना रूप बदला करता है-कभी ऊँचा उठ जाता है, कभी आगे बढ़ जाता है और कभी पीछे हट जाता है। विष्णु की महिमा जैसे दसों दिशाओं में व्याप्त है वैसे ही इसके विस्तार से भी दसो दिशायें व्याप्त हैं-कोई दिशा ऐसी नहीं जिसमें यह न हो। विष्णु ही की तरह न इसके रूप का ठीक ठीक ज्ञान हो सकता है और न इसके विस्तार ही का। निश्चय-पूर्वक कोई यह नहीं कह सकता कि समुद्र इतना है अथवा इस तरह का है। जैसे विष्णु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता वैसेही इसका भी नहीं हो सकता।

"युगों के अन्त में, सारे लोकों का संहार करके, प्रलय होने पर, आदि-पुरुष विष्णु इसी में योग-निद्रा को प्राप्त होते हैं। उस समय उनकी नाभि से उत्पन्न हुए, कमल पर बैठने वाले पहले प्रजापति, इसी के भीतर, उनकी स्तुति करते हैं। यह बड़ा ही दयालु है। शरण आये हुओं की यह सदा रक्षा करता है । शत्रुओं से पीड़ित हुए राजा जैसे किसी धर्मिष्ठ राजा को मध्यस्थ मान कर उसकी शरण जाते हैं वैसे ही इन्द्र के वज्र से पंख कटे हुए सैकड़ों पर्वत इसके प्रासरे रहते हैं। इन्द्र के कोप-भाजन होने से उन बेचारों का सारा गर्व चूर हो गया है। वे यद्यपि सर्वथा दीन हैं, तथापि यह उनका तिरस्कार नहीं करता । उन्हें अपनी शरण में रख कर उनकी रक्षा कर रहा है। आदि-वराह ने जिस समय पृथ्वी को पाताल से ऊपर उठाया था उस समय, प्रलय के कारण, बढ़े हुए इसके स्वच्छ जल ने, पृथ्वी का मुँह ढक कर, क्षण मात्र के लिए उसके घूंघट का काम किया था।

"और लोग अपनी पत्नियों के साथ जैसा व्यवहार करते हैं ठीक वैसा ही व्यवहार यह नहीं करता। इसके व्यवहार में कुछ विलक्ष- णता है। यह अपने तरङ्गरूपी अधरों का ख़ुद भी दान देने में बड़ा निपुण है। धृष्टता-पूर्वक इससे संगम करने वाली नदियों को यह खुद भी पीता है और उनसे अपने को भी पिलाता है । यह विलक्षणता नहीं तो क्या है ?

"ज़रा इन तिमि-जाति की मछलियों या ह्वेलों को तो देख। ये अपने बड़े बड़े मुँह खोल कर, नदियों के मुहानों में, न मालूम कितना पानी पी लेती हैं। पानी के साथ छोटे छोटे जीव-जन्तु भी इनके मुँहों में चले जाते
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हैं। उन्हें निगल कर ये अपने मुँह बन्द कर लेती हैं और अपने सिरों से, जिनमें छोटे छोटे छेद हैं, उस पानी के प्रवाह को फ़ौवारे की तरह ऊपर फेंक देती हैं।

"मतङ्गाकार मगर-जलहस्ती-भी अच्छा तमाशा कर रहे हैं । जल के भीतर से सहसा ऊपर उठ कर समुद्र के फेने को ये द्विधा विभक्त कर देते हैं । फेने के बीच में इनके एकाएक प्रकट हो जाने से फेना इधर उधर दो टुकड़ों में बँट जाता है। कुछ तो वह इनकी एक कनपटी पर फैल जाता है, कुछ दूसरी पर । अतएव, ऐसा मालूम होता है जैसे वह, इनके सिर के दोनों तरफ़, कानों का चमर बन गया हो। क्यों, ऐसा ही मालूम होता है न ?

"तीर की वायु लेने के लिए निकले हुए इन बड़े बड़े साँपों को तो देख । समुद्र की बड़ी बड़ी लहरों में और इनमें बहुत ही कम भेद है। इनके और लहरों के आकार तथा रङ्ग दोनों में प्रायः समता है। इनके फनों पर जो मणियाँ हैं उनकी चमक, सूर्य की किरणों के संयोग से, बहुत बढ़ रही है। इसीसे ये पहचाने भी जाते हैं। यदि यह बात न होती तो इनकी पहचान कठिनता से हो सकती।

"ये लतायें तेरे अधरों की स्पर्धा करनेवाले मूंगों की हैं । तरङ्गों के वेग के कारण शङ्खों का समूह उनमें जा गिरता है। वहाँ ऊपर को उठे हुए उनके अङ्करों से शङ्खों का मुँह छिद जाता है। अतएव बड़ी कठिनता से किसी तरह वे वहाँ से पीछे लौट सकते हैं।

"देख, वह पर्वतप्राय काला काला मेघ समुद्र के ऊपर लटक रहा है। वह पानी पीना चाहता है; परन्तु अच्छी तरह पीने नहीं पाता । भँवरों में पड़ कर वह इधर उधर मारा मारा फिरता है । उसके इस तरह इधर उधर घूमने से ऐसा जान पड़ता है जैसे मन्दराचल फिर समुद्र को मथ रहा हो । आहा ! पानी पीने के लिए झुके हुए इस मेघ ने समुद्र की शोभा को बहुत ही बढ़ा दिया है।

"खारी समुद्र की वह तीर-भूमि लोहे के चक्र के सदृश गोल गोल

मालूम होती है। उस पर तमाल और ताड़ का जङ्गल खड़ा है। उसके कारण वह नीली नीली दिखाई देती है। वह हम लोगों से बहुत दूर है।
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इससे बहुत पतली जान पड़ती है। अपने पतलेपन और नीले रङ्ग के कारण वह ऐसी मालूम होती है जैसे चक्र की धार पर लगे हुए मोरचे की पतली पतलो तह ।

"हे दीर्घनयनी ! समुद्र-तीर-वर्तिनी वायु शायद यह समझ रही है कि तेरे बिम्बाधर में विद्यमान रस का मैं बेतरह प्यासा हूँ।अतएव, मुझे इतना धीरज नहीं कि मैं तेरा शृङ्गार हो चुकने तक ठहरा रहूँ-मुझे एक एक पल भारी सा हो रहा है। यही सोच कर मानों वह तेरे मुख का मण्डन, केतकी के फूलों की पराग-रज से, कर रही है। जल्दी के कारण मैं तेरे मुख का मण्डन नहीं होने देता । इससे, मुझ पर कृपा करके, वायु ही तेरे मुख का मण्डन सा कर रही है।

"देख तो, विमान कितने वेग से जा रहा है। हम लोग, पल ही भर में, समुद्र पार करके, किनारे पर, पहुँच गये । समुद्र-तट की शोभा भी देखने ही लायक है। फलों से लदे हुए सुपारी के पेड़ बहुत ही भले मालूम होते हैं। फटी हुई सीपियों से निकले हुए मोतियों के ढेर के ढेर रेत पर पड़े हुए कैसे अच्छे लगते हैं।

"हे मृगनयनी ! ज़रा पीछे मुड़ कर तो देख । न मालूम कितनी दूर हम लोग निकल आये। केले के समान सुन्दर जवाओंवाली जानकी ! समुद्रतीर-वर्तिनी वन-भूमि पर तो एक दृष्टि डाल । जैसे जैसे समुद्र दूर होता जाता है वैसे ही वैसे वह उसके भीतर से निकलती हुई सी चली आती है।

"इस विमान की गति को तो देख । मैं इसकी कहाँ तक प्रशंसा करूँ? कभी तो यह देवताओं के मार्ग से चलता है, कभी बादलों के और कभो पक्षियों के । जिधर से चलने को मेरा जी चाहता है उधर ही से यह जाता है। यह मेरे मन की भी बात समझ जाता है।

"प्रिये ! अब दोपहर का समय है। इसीसे धूप के कारण तेरे मुखमण्डल पर पसीने के बूंद निकल रहे हैं । परन्तु, ऐरावत के मद से सुगन्धित और त्रिपथगा गङ्गा की तरङ्गों के स्पर्श से शीतल हुई आकाश-वायु उन्हें तेरे मुख पर ठहरने ही नहीं देती । निकलने के साथ ही वह उन्हें सुखा देती है।
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हैं। उन्हें निगल कर ये अपने मुँह बन्द कर लेती हैं और अपने सिरों से, जिनमें छोटे छोटे छेद हैं, उस पानी के प्रवाह को फ़ौवारे की तरह ऊपर फेंक देती हैं।

"ये मतङ्गाकार मगर-जलहस्ती-भी अच्छा तमाशा कर रहे हैं । जल के भीतर से सहसा ऊपर उठ कर समुद्र के फेने को ये द्विधा विभक्त कर देते हैं । फेने के बीच में इनके एकाएक प्रकट हो जाने से फेना इधर उधर दो टुकड़ों में बँट जाता है। कुछ तो वह इनकी एक कनपटी पर फैल जाता है, कुछ दूसरी पर । अतएव, ऐसा मालूम होता है जैसे वह, इनके सिर के दोनों तरफ़, कानों का चमर बन गया हो। क्यों, ऐसा ही मालूम होता है न?

"तीर की वायु लेने के लिए निकले हुए इन बड़े बड़े साँपों को तो देख। समुद्र की बड़ी बड़ी लहरों में और इनमें बहुत ही कम भेद है। इनके और लहरों के प्राकार तथा रङ्ग दोनों में प्रायः समता है। इनके फनों पर जो मणियाँ हैं उनकी चमक, सूर्य की किरणों के संयोग से, बहुत बढ़ रही है। इसीसे ये पहचाने भी जाते हैं। यदि यह बात न होती तो इनकी पहचान कठिनता से हो सकती।

"ये लतायें तेरे अधरों की स्पर्धा करनेवाले मूंगों की हैं । तरङ्गों के वेग के कारण शङ्खों का समूह उनमें जा गिरता है। वहाँ ऊपर को उठे हुए उनके अङ्करों से शङ्खों का मुँह छिद जाता है। अतएव बड़ी कठिनता से किसी तरह वे वहाँ से पीछे लौट सकते हैं।

"देख, वह पर्वतप्राय काला काला मेघ समुद्र के ऊपर लटक रहा है। वह पानी पीना चाहता है; परन्तु अच्छी तरह पीने नहीं पाता । भँवरों में पड़ कर वह इधर उधर मारा मारा फिरता है। उसके इस तरह इधर उधर घूमने से ऐसा जान पड़ता है जैसे मन्दराचल फिर समुद्र को मथ रहा हो । आहा ! पानी पीने के लिए झुके हुए इस मेघ ने समुद्र की शोभा को बहुत ही बढ़ा दिया है।

"खारी समुद्र की वह तीर-भूमि लोहे के चक्र के सदृश गोल गोल

मालूम होती है। उस पर तमाल और ताड़ का जङ्गल खड़ा है। उसके कारण वह नीली नीली दिखाई देती है। वह हम लोगों से बहुत दूर है।
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इससे बहुत पतली जान पड़ती है। अपने पतलेपन और नीले रङ्ग के कारण वह ऐसी मालूम होती है जैसे चक्र की धार पर लगे हुए मोरचे,की पतली पतली तह।

"हे दीघनयनी! समुद्र-तीर-वर्तिनी वायु शायद यह समझ रही है कि तेरे बिम्बाधर में विद्यमान रस का मैं बेतरह प्यासा हूँ। अतएव, मुझे इतना धीरज नहीं कि मैं तेरा शृङ्गार हो चुकने तक ठहरा रहूँ-मुझे एक एक पल भारी सा हो रहा है। यही सोच कर मानों वह तेरे मुख का मण्डन, केतकी के फूलों की पराग-रज से, कर रही है। जल्दी के कारण मैं तेरे मुख का मण्डन नहीं होने देता। इससे, मुझ पर कृपा करके, वायु ही तेरे मुख का मण्डन सा कर रही है।

"देख तो, विमान कितने वेग से जा रहा है। हम लोग, पल ही भर में, समुद्र पार करके, किनारे पर, पहुँच गये। समुद्र-तट की शोभा भी देखने ही लायक है। फलों से लदे हुए सुपारी के पेड़ बहुत ही भले मालूम होते हैं। फटी हुई सीपियों से निकले हुए मोतियों के ढेर के ढेर रेत पर पड़े हुए कैसे अच्छे लगते हैं।

"हे मृगनयनी! ज़रा पीछे मुड़ कर तो देख। न मालूम कितनी दूर हम लोग निकल आये। केले के समान सुन्दर जवाओंवाली जानकी ! समुद्रतीर-वर्तिनी वन-भूमि पर तो एक दृष्टि डाल । जैसे जैसे समुद्र दूर होता जाता है वैसे ही वैसे वह उसके भीतर से निकलती हुई सी चली आती है।

"इस विमान की गति को तो देख। मैं इसकी कहाँ तक प्रशंसा करूँ? कभी तो यह देवताओं के मार्ग से चलता है, कभी बादलों के और कभी पक्षियों के। जिधर से चलने को मेरा जी चाहता है उधर ही से यह जाता है। यह मेरे मन की भी बात समझ जाता है।

"प्रिये! अब दोपहर का समय है। इसीसे धूप के कारण तेरे मुखमण्डल पर पसीने के बूंद निकल रहे हैं। परन्तु, ऐरावत के मद से सुगन्धित और त्रिपथगा गङ्गा की तरङ्गों के स्पर्श से शीतल हुई आकाश-वायु उन्हें तेरे मुख पर ठहरने ही नहीं देती। निकलने के साथ ही वह उन्हें सुखा देती है।
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"इस समय हमारा विमान बादलों के बीच से जा रहा है। अतएव, कुतूहल में आकर जब तू अपना हाथ विमान की खिड़कियों से बाहर निकाल कर किसी मेघ को छू देती है तब बड़ा मज़ा होता है । हे कोपनशीले ! उस समय वह मेघ अपना बिजलीरूपी चमकीला भुजबन्द उतार कर तुझे एक और गहना सा देने लगता है । एक भुजबन्द तो पहले ही से तेरी बाँह पर है। परन्तु, वह शायद कहता होगा कि एक उसका भी चिह्न सही ।

"गेरुये वस्त्र धारण करनेवाले ये तपस्वी, चिरकाल से उजड़े हुए अपने अपने आश्रमों में आ कर, इस समय, उनमें नई पर्णशालाये बना रहे हैं। राक्षसों के डर से अपने आश्रम छोड़ कर ये लोग भाग गये थे। परन्तु अब उनका डर नहीं। अब तो इस जनस्थान में सब प्रकार प्रानन्द है; किसी विघ्न का नाम तक नहीं । इसीसे ये फिर बसने आये हैं।

"देख, यह वही स्थान है जहाँ तुझे ढूँढ़ते ढूँढ़ते मैंने तेरा एक बिछुआ ज़मीन पर पड़ा पाया था। उसने तेरे चरणारविन्दों से बिछुड़ने के दुःख से मौनसा साध लिया था-बोलना ही बन्द सा कर दिया था। इन लताओं को देख कर भी मुझे एक बात याद आ गई । इन बेचारियों में बोलने की शक्ति तो है नहीं। इस कारण, जिस मार्ग से तुझे राक्षस हर ले गया था उसे इन्होंने, कृपापूर्वक, अपनी झुके हुए पत्तोंवाली डालियों से मुझे दिखाया था। इन हरिणियों का भी मैं बहुत कृतज्ञ हूँ। तेरे वियोग में मुझे व्याकुल देख इन्होंने चरना बन्द करके, ऊँची पलकों वाली अपनी आँखें दक्षिण दिशा की तरफ़ उठाई थी । जिस मार्ग से तू गई थी उसकी मुझे कुछ भी खबर न थी। यह बात इन्हें मालूम सी हो गई थी। इसी से इन्होंने तेरे मार्ग की सूचना देकर मुझे अनुगृहीत किया था।

"देख, माल्यवान् पर्वत का आकाश-स्पर्शी शिखर वह सामने दिखाई दे रहा है। यह वही शिखर है जिस पर बांदलों ने नया मेंह, और तेरी वियोग-व्यथा से व्यथित मैंने आँसू, एक ही साथ, बरसाये थे। उस समय वर्षाकाल था। इसी से तेरे वियोग की व्यथा मुझे और भी अधिक दुःखदायिनी हो रही थी। पानी बरस जाने के कारण छोटे छोटे तालाबों से सुगन्धि आ रही थी; कदम्ब के पेड़ों पर अधखिले फूल शोभा पा रहे थे; और मोरों का शोर मनोहारी स्वर में हो रहा था । परन्तु सुख के ये सारे
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सामान, विना तेरे, मुझे अत्यन्त असह्य थे। जिस समय मैं इस पर ठहरा हुआ था उस समय गुफाओं के भीतर प्रतिध्वनित होने- वाली मेघों की गर्जना ने मुझे बड़ा दुःख दिया था। उसे सुन कर मेरा धीरज प्रायः छूट गया था। बात यह थी कि उस समय मुझे तुझ भीरु का कम्पपूर्ण प्रालिङ्गन याद आ गया था । मेघों को गरजते सुन तू डर कर काँपती हुई मेरी गोद में आ जाती थी। इसका मुझे एक नहीं, अनेक बार, अनुभव हो चुका था। इसी से तेरे हरे जाने के बाद, इस पर्वत के शिखर पर, मेघ गर्जना सुन कर वे सारी बाते मुझे याद आ गई थीं और बड़ी कठिनता से मैं उस गर्जना को सह सका था। इस पर्वत के शिखर पर एक बात और भी ऐसी हुई थी जिससे मुझे दुःख पहुँचा था। पानी बरस जाने के कारण, जमीन से उठी हुई भाफ़ का योग पाकर, खिली हुई नई कन्दलियों ने तेरी आँखों की शोभा की होड़ की थी। उनके अरुणिमामय फूल देकर मुझे, वैवाहिक धुवाँ लगने से अरुण हुई तेरी आँखों का स्मरण हो आया था। इसी से मेरे हृदय को पीड़ा पहुँची थी।

"अब हम लोग पम्पासरोवर के पास आ पहुँचे । देख तो उसके तट पर नरकुल का कितना घना वन है। उसने तीरवर्ती जल को ढक सा लिया है। उसके भीतर, तट पर, बैठे हुए चञ्चल सारस पक्षी बहुत ही कम दिखाई देते हैं। दूर तक चल कर जाने के कारण थकी हुई मेरी दृष्टि इस सरोवर का जल पी सी रही है। यहीं, इस सरोवर के किनारे, मैंने चकवाचकवी के जोड़े देखे थे। अपनी अपनी चोंचों में कमल के केसर लेकर वे एक दूसरे को दे रहे थे । वे संयोगी थे; और, मैं, तुझसे बहुत दूर होने के कारण, वियोगी था। इससे मैंने उन्हें अत्यन्त चावभरी दृष्टि से देखा था। उस समय मेरा बुरा हाल था। मेरी विचार-बुद्धि जाती सी रही थी। सरोवर के तट पर अशोक की उस लता को, जो फूलों के गोल गोल गुच्छों से झुक रही है, देख कर मुझे तेरा भ्रम हो गया था। मुझे ऐसा मालूम होने लगा था कि वह लता नहीं, किन्तु तू ही है । इस कारण आँखों से आंसू टपकाता हुआ मैं उसका आलिङ्गन करने चला था । यदि सच बात बतला कर लक्ष्मण मुझे रोक न देते तो मैं अवश्य ही उसे अपने हृदय से लगा लेता।
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"देख, गोदावरी भी आ गई । विमान के झरोखों से बाहर लट- कती हुई तेरी सोने की करधनी के घुघुरुओं का शब्द सुन कर, गोदावरी के सारस पक्षी, आकाश में उड़ते हुए, आगे बढ़ कर, तुझसे भेंट सी करने आ रहे हैं।

"अहा ! बहुत दिनों के बाद आज फिर पञ्चवटी के दर्शन हुए हैं। यह वही पञ्चवटी है जिसमें तूने, कटि कमज़ोर होने पर भी, आम के पौधों को, पानी से घड़े भर भर कर, सींचा था । देख तो इसके मृग, मुँह ऊपर को उठाये हुए, हम लोगों की तरफ़ कितनी उत्सुकता से देख रहे हैं। इसे दुबारा देख कर आज मुझे बड़ा ही आनन्द हो रहा है। मुझे इस समय उस दिन की याद आ रही है जिस दिन आखेट से निपट कर, तेरी गोद में अपना सिर रक्खे हुए, नरकुल की कुटी के भीतर, एकान्त में, गोदावरी के किनारे, मैं सो गया था। उस समय, नदी की तरङ्गों को छूकर आई हुई वायु ने, मेरी सारी थकावट, एक पल में, दूर कर दी थी। क्यों, याद है न ?

"अगस्त्य मुनि का नाम तो तूने अवश्य ही सुना होगा । शरत्काल में उनके उदय से सारे जलाशयों के जल निर्मल हो जाते हैं । मैले जलों को निर्मल करनेवाले उन्हीं अगस्त्य का यह भूतलवर्ती स्थान है। इनकी महिमा अवर्णनीय है। इन्होंने अपनी भौंह टेढ़ी करके, केवल एक बार कोपपूर्ण दृष्टि से देख कर ही, नहुष-नरेश को इन्द्र की पदवी से भ्रष्ट कर दिया था । परम कीर्तिमान अगस्त्य मुनि, इस समय, अग्निहोत्र कर रहे हैं। पाहवनीय, गाहपत्य और दक्षिण नामक उनकी तीनों आगों से उठा हुआ, हव्य की सुगन्धि से युक्त धुवाँ, देख, हम लोगों के विमान-मार्ग तक में छाया हुआ है । उसे सूंघने से मेरा रजोगुण दूर हो गया और मेरी आत्मा हलकी सी हो गई।

"हे मानिनी ! वह शातकर्णि मुनि का पञ्चाप्सर नामक विहार-सरोवर है । वह वन से घिरा हुआ है। अतएव, यहाँ से वह वन के बीच चमकता हुआ ऐसा दिखाई देता है जैसे, दूर से देखने पर, मेघों के बीच चमकता हुआ चन्द्रमा का बिम्ब थोड़ा थोड़ा दिखाई देता है। पूर्वकाल में शातकर्णि मुनि ने यहाँ पर बड़ी ही घोर तपस्या की थी। मृगों के साथ साथ फिरते हुए उन्होंने केवल कुश के अंकुर खाकर अपनी प्राण-रक्षा की थी। उनकी
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ऐसी उम्र तपस्या से डरे हुए इन्द्र ने यहीं उन्हें पाँच अप्सराओं के यौवनरूपी कपट-जाल में फंसाया था। अब भी वे यहीं रहते हैं । इस सरोवर के जल के भीतर बने हुए मन्दिर में उनका निवास है । इस समय उनके यहाँ गाना-बजाना हो रहा है। देख, मृदङ्ग की गम्भीर ध्वनि यहाँ, आकाश तक में, सुनाई दे रही है। उसकी प्रतिध्वनि से पुष्पक विमान के ऊपरी कमरे, क्षण क्षण में, गुञ्जायमान हो रहे हैं।

"सुतीक्ष्ण नाम का यह दूसरा तपस्वी है । इसका चरित्र बहुत ही उदार और स्वभाव बहुत ही सौम्य है। देख तो यह कितनी कठिन तपस्या कर रहा है। नीचे तो, इसके चारों तरफ, चार जगह, आग धधक रही है और ऊपर, इसके सिर पर, आकाश में, सूर्य तप रहा है। इस प्रकार इसे तपस्या करते देख, इन्द्र के मन में, एक बार सन्देह उत्पन्न हुआ। उसने कहा, ऐसा न हो जो ऐसी उग्र तपस्या के प्रभाव से यह तपस्वी मेरा इन्द्रासन छीन ले । अतएव, इसे तप से डिगाने के लिए उसने बहुत सी देवाङ्गनायें इसके पास भेजों । उन्होंने इसके सामने उपस्थित होकर नाना प्रकार की श्रृंगार-चेष्टाये की। मन्द मन्द मुसकराती हुई उन्होंने कभी तो इस पर अपने कटाक्षों की वर्षा की; कभी, किसी न किसी बहाने, अपनी कमर की अधखुली करधनी दिखलाई; और कभी अपने हाव-भावों से इसे मोहित करना चाहा । परन्तु उनकी एक न चली। इस तपस्वी का मन मैला तक न हुआ और उन्हें विफल मनोरथ होकर लौट जाना पड़ा। देख तो यह मुझ पर कितनी कृपा करता है । ऊर्ध्वबाहु होने के कारण इसका बायाँ हाथ तो ऊपर को उठा हुआ है । वह तो कुछ काम देता नहीं। रहा दाहना हाथ, सो उसे यह मेरी तरफ बढ़ा कर, इशारे से, मेरा सत्कार कर रहा है। इसी दाहनं हाथ से यह कुशों के अंकुर तोड़ता है और इसी से मृगों को भी खुजलाता है। इसके इस हाथ में पहनी हुई रुद्राक्ष की माला भुजबन्द के समान शोभा दे रही है । यह सदा मौन रहता है, कभी बोलता नहीं। अतएव, मेरे प्रणाम का स्वीकार इसे, ज़रा सिर हिला कर ही, करना पड़ा है । बीच में विमान आ जाने से सूर्य इसकी ओट में हो गया था । परन्तु अब रुकावट दूर हो गई है । अतएव, यह फिर अपनी दृष्टि को सूर्य में लगा रहा है।

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"यह पवित्र तपोवन प्रसिद्ध अग्निहोत्री शरभङ्ग नामक तपस्वी का है। इसमें सभी को शरण मिलती है। कोई यहाँ से विमुख नहीं लौटने पाता। समिधों से चिरकाल तक अग्नि को तृप्त करके भी जब शरभङ्ग मुनि को तृप्ति न हुई तब उसने मन्त्रों से पवित्र हुए अपने शरीर तक को अग्नि में हवन कर दिया। सुपुत्र की तरह पाले गये उसके आश्रम के ये पेड़ ही, अब, उसकी तरफ़ से, अतिथि-सेवा का काम करते हैं। अपनी सुखद छाया से ये आये-गये लोगों की थकावट दूर करते हैं और अपने मीठे तथा बहुत होनेवाले फलों से उनकी भूख मिटाते हैं।

"इस समय हम लोग चित्रकूट के ऊपर से जा रहे हैं। हे ऊँचे नीचे अङ्गोंवाली ! यह पर्वत मुझे गर्विष्ठ बैल के समान मालुम हो रहा है। बैल अपने गुहा-सदृश मुँह से घोर नाद करता है। यह भी अपने गुहारूपी मुँह से झरनों का घन-घोर शब्द करता है। टीलों या मिट्टी के धुस्सों पर टक्कर मारने से बैल के सींगों की नाकों पर कीचड़ लग जाता है। इसके भी शिखररूपी सींगों पर मेघों के ठहरने से काला काला कीचड़ सा लगा हुआ मालूम होता है। यह पर्वत मुझे ऐसा अच्छा लगता है कि मेरी दृष्टि इसकी तरफ़ बलपूर्वक खिंची सी जा रही है।

"यह मन्दाकिनी नाम की नदी है। इसका जल बहुत ही निर्मल है। देख तो यह कैसी धीरे धीरे बह रही है। हम लोगों के विमान से यह दूर है। इससे इसकी धारा बहुत पतली दिखाई देती है। यह पर्वत की तलहटी में बहती जा रही है और ऐसी मालूम हो रही है जैसे पृथ्वी के गले में मोतियों की माला पड़ी हो ।

"पहाड़ के पास तमाल का वह पेड़ कितना सुन्दर है। यवांकुर के समान तेरे कुछ कुछ पीले कपोलों की शोभा बढ़ाने के लिए मैंने इसी तमाल के सुगन्धिपूर्ण कोमल पत्ते तोड़ कर तेरे लिए कर्णफूल बनाये थे।

"यह महर्षि अत्रि का.पावन वन है। यहीं अपने आश्रम में वे तपस्या करते हैं। इसके पेड़ों पर फूलों के तो कहीं चिह्न नहीं; पर फलों से वे सब के सब, चोटी तक, लदे हुए हैं। इससे सिद्ध है कि इस वन के वृक्ष बिना फूले ही फलते हैं। इसके जङ्गली जीवों को कोई छेड़ नहीं सकता। किसी में इतनी शक्ति या साहस ही नहीं जो उन्हें मारे या कष्ट
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दे। इसी से वे बेतरह हिल गये हैं और निर्भय विचरण कर रहे हैं। ये अघटित घटनाये' महर्षि अत्रि की उग्र तपस्या के प्रभाव की सूचना दे रही हैं। जो त्रिपथगा गङ्गा महादेवजी के मस्तक पर माला के सदृश शोभा देती है और जिसमें खिले हुए सुवर्ण-कमलों को सप्तर्षि अपने हाथों से तोड़ते हैं उसे ही, सुनते हैं, अत्रि की पत्नी अनसूया ने, तपोधनी मुनियों के स्नान के लिए, यहाँ बहाया था। वीरासन लगाकर ध्यान में निमग्न हुए ऋषियों को वेदियों के बीच में खड़े हुए ये पेड़ भी, हृदय में, एक अपूर्व भाव पैदा करते हैं। पवन न चलने के कारण निश्चल खड़े हुए ये पेड़ स्वयं भी ध्यानमग्न से मालूम होते हैं।

"अब हम लोग प्रयाग आ गये । देख यह वही श्याम नाम का वट-वृक्ष है जिसकी पूजा करके, एक बार, तूने कुछ याचना की थी। यह इस समय खूब फल रहा है। अतएव, चुन्नियों सहित पन्नों के ढेर की तरह चमकता है।

"हे निर्दोष अङ्गों वाली ! गङ्गा और यमुना के सङ्गम के दर्शन कर । शुभ्रवर्ण गङ्गा में नीलवर्ण यमुना साफ़ अलग मालूम हो रही है। यमुना की नीली नीली तरङ्गों से पृथक किया गया गङ्गा का प्रवाह बहुतही भला मालूम होता है। कहीं तो गङ्गा की धारा, बड़ी प्रभा विस्तार करने वाले, बीच बीच नीलम गुथे हुए मुक्ताहार के सहश शोभित है ; और, कहीं बीच बीच नीले कमल पोहे हुए सफ़ेद कमलों की माला के सदृश शोभा पाती है। कहीं तो वह मानस-सरोवर के प्रेमी राजहंसों की उस पाँति के सदृश मालूम होती है जिसके बीच बीच नीले पंखवाले कदम्ब नामक हंस बैठे हों; और कहीं कालागरु के बेल-बूटे सहित चन्दन से लिपी हुई पृथ्वी के सदृश मालूम होती है। कहीं तो वह छाया में छिपे हुऐ अँधेरे के कारण कुछ कुछ कालिमा दिखलाती हुई चाँदनी के सदृश जान पड़ती है; और कहीं खाली जगहों से थोड़ा थोड़ा नीला आकाश प्रकट करती हुई शरत्काल की सफ़ेद मेघमाला के सदृश भासित होती है । और, कहीं कहीं वह काले साँपों का गहना और सफ़ेद भस्म धारण किये हुए महादेवजी के शरीर के सदृश मालूम होती है। नीलिमा और शुभ्रता का ऐसा अद्भुत मेल देख कर चित्त बहुतही प्रसन्न होता है । समुद्र की गङ्गा और
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तेरहवाँ सर्ग।

दे। इसी से वे बेतरह हिल गये हैं और निर्भय विचरण कर रहे हैं। ये अघटित घटनाये' महर्षि अत्रि की उम्र तपस्या के प्रभाव की सूचना दे रही हैं। जो त्रिपथगा गङ्गा महादेवजी के मस्तक पर माला के सदृश शोभा देती है और जिसमें खिले हुए सुवर्ण-कमलों को सप्तर्षि अपने हाथों से तोड़ते हैं उसंही, सुनते हैं, अत्रि की पत्नी अनसूया ने, तपोधनी मुनियों के स्नान के लिए, यहाँ बहाया था। वीरासन लगाकर ध्यान में निमग्न हुए ऋषियों की वेदियों के बीच में खड़े हुए ये पेड़ भी, हृदय में, एक अपूर्व भाव पैदा करते हैं। पवन न चलने के कारण निश्चल खड़े हुए ये पेड़ स्वयं भी ध्यानमग्न से मालूम होते हैं।

"अब हम लोग प्रयाग आ गये । देख यह वही श्याम नाम का वट-वृक्ष है जिसकी पूजा करके, एक बार, तूने कुछ याचना की थी। यह इस समय खूब फल रहा है। अतएव, चुन्नियों सहित पन्नों के ढेर की तरह चमकता है।

"हे निर्दोष अङ्गों वाली ! गङ्गा और यमुना के सङ्गम के दर्शन कर । शुभ्रवर्ण गङ्गा में नीलवर्ण यमुना साफ़ अलग मालूम हो रही है। यमुना की नीली नीली तरङ्गों से पृथक किया गया गङ्गा का प्रवाह बहुतही भला मालूम होता है। कहीं तो गङ्गा की धारा, बड़ी प्रभा विस्तार करने वाले, बीच बीच नीलम गुथे हुए मुक्ताहार के सदृश शोभित है ; और, कहीं बीच बीच नीले कमल पोहे हुए सफ़ेद कमलों की माला के सदृश शोभा पाती है। कहीं तो वह मानस-सरोवर के प्रेमी राजहंसों की उस पाँति के सदृश मालूम होती है जिसके बीच बीच नीले पंखवाले कदम्ब नामक हंस बैठे हों; और कहीं कालागरु के बेल-बूटे सहित चन्दन से लिपी हुई पृथ्वी के सदृश मालूम होती है। कहीं तो वह छाया में छिपे हुऐ अँधेरे के कारण कुछ कुछ कालिमा दिखलाती हुई चाँदनी के सदृश जान पड़ती है; और कहीं खाली जगहों से थोड़ा थोड़ा नीला आकाश प्रकट करती हुई शरत्काल की सफ़ेद मेघमाला के सदृश भासित होती है । और, कहीं कहीं वह काले साँपों का गहना और सफ़ेद भस्म धारण किये हुए महादेवजी के शरीर के सदृश मालूम होती है। नीलिमा और शुभ्रता का ऐसा अद्भुत मेल देख कर चित्त बहुतही प्रसन्न होता है । समुद्र की गङ्गा और
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रघुवंश।

यमुना नामक दो पत्नियों के इस सङ्गम में स्नान करने वाले देहधारियों की आत्मा पवित्र हो जाती है और तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के बिनाही उन्हें जन्ममरण के फन्दे से छुट्टी मिल जाती है। वे सदा के लिए देहबन्धन के झंझट से छूट जाते हैं।

"यह निषादों के नरेश का वह गाँव है जहाँ मैंने सिर से मणि उतार कर जटा-जूट बाँधे थे और जहाँ मुझे ऐसा करते देख सुमन्त यह कह कर रोया था कि-'कैकेयी ! ले, अब तो तेरे मनोरथ सिद्ध हुए!

"आहा ! यहाँ से तो सरयू देख पड़ने लगी । वेद जिस तरह बुद्धि का प्रधान कारण अव्यक्त बतलाते हैं उसी तरह बड़े बड़े विज्ञानी मुनि इस नदी का आदि-कारण- इसका उद्गम स्थान-ब्रह्मसरोवर बतलाते हैं-वह ब्रह्मसरोवर जिसमें खिले हुए सुवर्ण-कमलों की रज, स्नान करते समय, यतों की स्त्रियों की छाती में लग लग जाती है। इसके किनारे किनारे यक्षों के न मालूम कितने यूप-नामक खम्भे गड़े हुए हैं। अश्वमेध-यज्ञ समाप्त होने पर,अव- भृथ-नामक स्नान कर के, इक्ष्वाकुवंशी राजाओं ने इसके जल को और भी अधिक पवित्र कर दिया है। ऐसी पुण्यतोया यह सरयू अयोध्या-राजधानी के पासही बहती है । इसकी बालुकापूर्ण-तटरूपी गोद में सुख से खेलने और दुग्धवत् जल पीकर बड़े होने वाले उत्तरकोसल के राजाओं की यह धाय के समान है। इसी से मैं इसे बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूँ। मेरे माननीय पिता के वियोग को प्राप्त हुई मेरी माता के समान यह सरयू , चौदह वर्ष तक दूर देश में रहने के अनन्तर मुझे अयोध्या को आते देख, वायु को शीतलता देने वाले अपने तरङ्गरूपी हाथों से मेरा आलिङ्गन सा कर रही है।

"सन्ध्या के समान लालिमा लिये हुए धूल सामने उड़ती दिखाई दे

रही है । जान पड़ता है, हनूमान् से मेरे आगमन का समाचार सुन कर, सेना को साथ लिये हुए भरत, आगे बढ़ कर, मुझसे मिलने आ रहे हैं। वे पूरे साधु हैं । अतएव, मुझे विश्वास है कि प्रतिज्ञा का पालन करके लौटे हुए मुझे वे निज-रक्षित राजलक्ष्मी को उसी तरह अछूती सौंप देंगे जिस तरह कि युद्ध में खर-दूषण आदि को मार कर लौटे हुए मुझे लक्ष्मण ने तुझे सौंपा था।
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रघुवंश।

कारण उनकी डाढ़ियों के बाल बेतरह बढ़ रहे थे। अतएव, उनके चेहरे कुछ के कुछ हो गये थे। वे बढ़ी हुई बरोहियों या जटाओं वाले बरगद के वृक्षों की तरह मालूम हो रहे थे । भरत और रामचन्द्र का मिलाप हो चुकने पर, मन्त्रियों ने बड़े ही भक्ति-भाव से रामचन्द्र को प्रणाम किया। रामचन्द्रजी ने प्रसन्नतापूर्ण दृष्टि से उनकी तरफ़ देखा और मीठी वाणी से कुशल-समाचार पूछ कर उन पर अपना अनुग्रह प्रकट किया।

इसके बाद, रामचन्द्रजी ने सुग्रीव और विभीषण का परिचय भरत से कराया। वे बोलेः -"भाई, ये रीछों और बन्दरों के राजा सुग्रीव हैं। इन्होंने विपत्ति में मेरा साथ दिया था । और,ये पुलस्त्यपुत्र विभीषण हैं। युद्ध में सबसे आगे इन्हों का हाथ उठा था। पहला प्रहार सदा इन्हींने किया था।" रामचन्द्र के मुख से सुग्रीव और विभीषण की इतनी बड़ाई सुन कर, भरत ने लक्ष्मण को तो छोड़ दिया; इन्हीं दोनों को उन्होंने बड़े आदर से प्रणाम किया।तदनन्तर, वे सुमित्रा-नन्दन श्रीलक्ष्मण से मिले और उनके चरणों पर अपना सिर रख दिया। लक्ष्मण ने भरत को उठा कर बलपूर्वक अपने हृदय से लगा लिया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे मेघनाद के प्रहारों के घाव लगने के कारण कर्कश हुए अपने वक्षः-स्थल से लक्ष्मणजी भरत की भुजाओं के बीचवाले भाग को पीड़ित सा कर रहे हैं।

रामचन्द्र की आज्ञा से, बन्दरों की सेना के स्वामी, मनुष्य का रूप धारण करके, बड़े बड़े हाथियों पर सवार हो गये । हाथी थे मतवाले । उनके शरीर से, कई जगह, मद की धारा झर रही थी । अतएव गजारोही सेनापतियों को झरने झरते हुए पहाड़ों पर चढ़ने का सा आनन्द आया।

निशाचरों के राजा विभीषण भी, दशरथ-नन्दन रामचन्द्र की आज्ञा से, अपने साथियों सहित रथों पर सवार हुए। रामचन्द्र के रथों को देख कर विभीषण को बड़ा आश्चर्य हुआ । विभीषण के रथ माया से रचे गये थे और रामचन्द्र के रथ कारीगरों के बनाये हुए थे । परन्तु रामचन्द्र के रथों की शोभा और सुन्दरता विभीषण के रथों से कहीं बढ़कर थी।

तदनन्तर, अपने छोटे भाई लक्ष्मण और भरत को साथ लेकर, रामचन्द्रजी लहराती हुई पताका से शोभित और प्रारोही की इच्छा के अनुसार
चलने वाले पुष्पक-विमान पर फिर सवार हुए। उस समय वे चमकती हुई बिजलीवाले सायङ्कालीन बादल पर, बुध और बृहस्पति के योग से शोभायमान, चन्द्रमा के समान मालूम हुए।

वहाँ, रथ पर, प्रलय से आदि-वराह की उद्धार की हुई पृथ्वी के समान, अथवा मेघों की घटा से शरत्काल की उद्धार की हुई चन्द्र की चन्द्रिका के समान--दशकण्ठ के कठोर संकट से रामचन्द्र की उद्धार की हुई धैर्य्यवती सीता की वन्दना भरत ने बड़े ही भक्ति-भाव से की। रावण की प्रणयपूर्ण विनती भङ्ग करने के व्रत की रक्षा में दृढ़ता दिखानेवाले जानकीजी के वन्दनीय चरणों पर, भरत ने, बड़े भाई का अनुकरण करने के कारण, बढ़ी हुई जटाओं वाला अपना मस्तक रख दिया। उस समय जानकीजी के पूजनीय पैरों को जोड़े और साधु-शिरोमणि भरत के जटाधारी शीश ने, परस्पर मिल कर, एक दूसरे की पवित्रता को और भी अधिक कर दिया।

आगे आगे अयोध्या की प्रजा चली; उसके पीछे धीरे धीरे रामचन्द्रजी का विमान। आध कोस चलने पर अयोध्या का विस्तृत उद्यान मिला। उसमें शत्रुघ्न ने डेरे लगवा कर उन्हें खूब सजा रक्खा था। विमान से उतर कर वहीं रामचन्द्रजी ठहर गये।


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