रघुवंश/१५—रामचन्द्र का स्वर्गारोहण

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पन्द्रहवाँ सर्ग।
रामचन्द्र का स्वर्गारोहण ।

समुद्र ने पृथ्वी को चारों तरफ से घेर रक्खा है। इस कारण वह पृथ्वी की मेखला के समान मालूम होता है । सीता का परित्याग कर चुकने पर, पृथ्वीपति रामचन्द्र के पास, समुद्ररूपी मेखला धारण करने वाली अकेली पृथ्वी ही, भोग करने के लिए, रह गई । अतएव एकमात्र उसी का उन्होंने उपभोग किया।

इतने में लवण नामक एक राक्षस बड़ी उद्दण्डता करने लगा। अपने अत्याचार और अन्याय से उसने यमुना के तट पर रहनेवाले तप- स्वियों का नाकों दम कर दिया। यहाँ तक कि उनके यज्ञ तक उसने बन्द कर दिये । अतएव, बहुत पीड़ित होने पर, वे तपस्वी सब को शरण देनेवाले रामचन्द्रजी की शरण गये। यदि वे चाहते तो अपने तपोबल से लवण को एक पल में जला कर भस्म कर देते । परन्तु उन्होंने ऐसा करना मुनासिब न समझा। तपस्या के तेज का उपयोग तभी किया जाता है जब अत्याचारियों को दण्ड देकर तपस्वियों की रक्षा करने वाला और कोई विद्यमान न हो। तपस्वी अपने तपोबल का व्यर्थ खर्च नहीं करते। ऐसे ऐसे कामों में तपस्या का उपयोग करने से वह क्षीण हो जाती है।

रामचन्द्रजी ने मुनियों से कहा:-"आपकी आज्ञा मुझे मान्य है। लवणासुर को मार कर मैं आपकी विघ्न-बाधायें दूर कर दूंगा।"

धर्म की रक्षाही के लिए धनुषधारी विष्णु पृथ्वी पर अवतार लेते हैं। इससे रामचन्द्रजी ने यमुना-तट-वासी तपस्वियों से जो प्रतिज्ञा की वह सर्वथा उचित हुई। उनका तो यह काम ही था।

मुनियों ने रामचन्द्रजी की कृपा का अभिनन्दन करके अपनी कृतज्ञता. [ २९२ ]
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प्रकट की। उन्होंने उस देवद्रोही दैत्य के मारने का उपाय भी राम- चन्द्रजी से बताया। वे बोले:-"महाराज, जब उसके पास उसका त्रिशूल न हो तभी उस पर आक्रमण करना । क्योंकि, जब तक उसके हाथ में त्रिशूल है तब तक कोई उसे नहीं जीत सकता ।"

रामचन्द्रजी ने मुनियों की रक्षा का काम शत्रुघ्न को सौंपा । शत्रुघ्न का अर्थ है-शत्रुओं का संहार करने वाला। अतएव शत्रुन्न का नाम यथार्थ करने ही के लिए मानों रामचन्द्रजी ने उन्हें लवणासुर को मारने की आज्ञा दी । शत्रुओं को सन्ताप पहुँचाने में रघुवंशी एक से एक बढ़ कर होते हैं। जिस तरह अपवादात्मक नियम सर्व-साधारण नियम को धर दबाता है उसी तरह रघुवंशियों में, कोई भी क्यों न हो, वह अपने शत्रु का प्रताप शमन करने की शक्ति रखता है।

रामचन्द्रजी ने शत्रुघ्न को आशीष देकर बिदा किया। वे झट रथ पर सवार हुए और सुगन्धित फूल खिले हुए वनों का दृश्य देखते हुए चले । शत्रुघ्न वीर भी बड़े थे और निडर भी बड़े थे। उनके लिए सेना की कुछ भी आवश्यकता न थी। तथापि रामचन्द्रजी ने उनकी सहायता के लिए थोड़ी सी सेना साथ करही दी। वह शत्रुघ्न के पीछे पीछे चली । परन्तु उनकी प्रयोजन-सिद्धि के लिए वह सेना विलकुलही अनावश्यक सिद्ध हुई। 'इ' धातु स्वयं ही अध्ययनार्थक है। उसके पीछे लगे हुए 'अधि' उपसर्ग से उसका जितना प्रयोजन सिद्ध होता है उतनाही पीछे चलने वाली सेना से शत्रुघ्न का प्रयोजन सिद्ध हुआ । 'इ' के लिए 'अधि' की तरह शत्रुघ्न के लिए रामचन्द्रजी की भेजी हुई सेना व्यर्थ हुई । सूर्य के रथ के आगे आये चलने वाले बालखिल्य मुनियों की तरह, यमुना-तट-वासी ऋषि भी, शत्रुघ्न के रथ के आगे आगे, रास्ता बतलाते हुए, चले। शत्रुघ्न बड़े ही तेजस्वी थे । देदीप्यमान जनों में वे बढ़ कर थे। जिस समय तपस्वियों के पीछे वे, और, उनके पीछे सेना चली, उस समय उनकी तेजस्विता और शोभा और भी बढ़ गई।

रास्ते में वाल्मीकि का तपोवन पड़ा। उसके पास पहुँचने पर, पाश्रम के मृग, शत्रुघ्न के रथ की ध्वनि सुन कर, सिर ऊपर को उठाये हुए बड़े चाव से उन्हें देखने लगे ! शत्रुघ्न ने एक रात वहीं, उस आश्रम में, बिताई। [ २९३ ]
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उनके रथ के घोड़े बहुत थक गये थे। इससे उन्होंने वहीं ठहर जाना मुनासिब समझा। वाल्मीकि ने कुमार शत्रुघ्न का अच्छा सत्कार किया । तपस्या के प्रभाव से उन्होंने उत्तमोत्तम पदार्थ प्रस्तुत कर दिये और शत्रुघ्न को बड़े ही आराम से रक्खा। उसी रात को शत्रुघ्न की गर्भवती भाभी. के-पृथ्वी के कोश और दण्ड के समान-दो सर्वसम्पन्न पुत्र हुए। बड़े भाई की सन्तानोत्पत्ति का समाचार सुन कर शत्रुघ्न को बड़ा आनन्द हुआ। प्रातःकाल होने पर, उन्होंने हाथ जोड़ कर मुनिवर वाल्मीकि को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा से रथ पर सवार होकर चल दिया।

यथासमय शत्रुघ्न मधूपन्न नामक नगर में पहुँच गये। वे पहुँचे ही थे कि कुम्भीनसी नामक राक्षसी का पुत्र, लवणासुर, मारे हुए पशुओं के समूह को, वन से ली गई भेंट के सदृश, लिये हुए उन्हें मिल गया। उसका रूप बहुतही भयानक था। चलती फिरती चिता की आग के सदृश वह मालूम होता था। चिता की आग के सारे लक्षण उसमें थे। चिता की आग धुवें से कुछ धुंधली दिखाई देती है; वह भी धुर्वे के ही समान धुंधले रङ्ग का था। चिता की आग से जलते हुए मुर्दे की मज्जा की दुर्गन्धि आती है; उसके भी शरीर से मजा की दुर्गन्धि आती थी। चिता की आग ज्वालारूपी लाल-पीले केशवाली होती है; उसके भी केश ज्वाला ही के सदृश लाल-पीले थे। चिता की आग को मांसाहारी (गीध,चील्ह और गीदड़ आदि) घेरे रहते हैं; उसे भी मांसाहारी ( राक्षस ) घेरे हुए थे। दैवयोग से, उस समय, लवण के हाथ में त्रिशूल न था। उसे त्रिशूलहीन देख कर शत्रुघ्न बहुत खुश हुए। उन्होंने उस पर तत्काल ही आक्रमण कर दिया । यह उन्होंने अच्छा ही किया। क्योंकि, शत्रु के छिद्र देख कर जो लोग वहीं प्रहार करते हैं उनकी अवश्य ही जीत होती है-जीत उनके सामने हाथ बाँधे खड़ी सी रहती है। युद्धविद्या के आचार्यों की आज्ञा है कि जिस बात में शत्रु को कमज़ोर देखे उसी को लक्ष्य करके उस पर आघात करे। इस मौके पर शत्रुघ्न ने इसी आज्ञा का परिपालन किया।

और शत्रुघ्न को अपने ऊपर चोट करते देख लवणासुर के क्रोध की सीमा न रही । उसने ललकार कर कहा:[ २९४ ]
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"मुझे आज पेट भर खाने को न मिला देख, जान पड़ता है, ब्रह्मा डर गया है। इससे उसी ने तुझे, मेरे मुँह का कौर बनाने के लिए, भेजा है । धन्य मेरे भाग्य ! ठहर; तेरी गुस्ताखो का बदला मैं अभी देता हूँ।"

इस प्रकार शत्रुघ्न को डराने की चेष्टा करके उसने पास के एक प्रकाण्ड पेड़ को, मोथा नामक घास के एक तिनके की तरह, जड़ से उखाड़ लिया और शत्रन्न को जान से मार डालने की इच्छा से, उसे उसने उन पर फेंका। परन्तु शत्रुघ्न ने अपने तेज़ बाणों से बीव ही में काट कर उसके टुकड़े टुकड़े कर डाले । वह पेड़ तो उनके शरीर तक न पहुँचा; हाँ उसके फूलों की रज उड़ कर ज़रूर उनके शरीर पर जा गिरी । अपने फेंके हुए पेड़ की यह दशा हुई देख लवणासुर ने सैकड़ों मन वज़नी एक पत्थर, यमराज के शरीर से अलग हुए उसके मुक्के की तरह, शत्रुघ्न पर चलाया। शत्रन ने इन्द्र-देवतात्मक अस्त्र उठा कर उस पर ऐसा मारा कि वह पत्थर चूर चूर हो गया। वह पिस सा गया; उसके परमाणु रेत से भी अधिक बारीक हो गये । वब, प्रलयकाल की आँधी के उड़ाये हुए, ताड़ के एकही वृक्ष वाले पर्वत की तरह-अपनी दाहनी भुजा उठा कर, वह शत्रुघ्न पर दौड़ा। यह देख कर शत्रुघ्न ने विष्णु देवता-सम्बन्धी एक बाण ऐसा छोड़ा कि वह लवणासुर की छाती फाड़ कर पार निकल गया। इस बाण के लगते ही वह निशाचर अररा कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। उसके गिरने से पृथ्वी तो कॅप उठी, पर आश्रमवासी मुनियों का कॅपना बन्द हो गया। यमुना-तीर-वर्ती ऋषि और मुनि, जो अब तक उसके डर से कँपते थे, निर्भय हो गये । इधर उस मरे हुए राक्षस के ऊपर तो मांसभक्षी पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड टूट पड़े; उधर उसके शत्रु शत्रुघ्न के शीश पर आकाश से दिव्य फूलों की वर्षा हुई।

लवणासुर को मारने से वीर वर शत्रुन को बड़ी खुशी हुई। उन्होंने कहा-"इन्द्रजित का वध करने से बढ़ी हुई शोभावाले परम तेजस्वी लक्ष्मण का सहोदर भाई, मैं, अपने को, अब, अवश्य समझता हूँ। यह काम मेरा अवश्य अपने भाई के बल और विक्रम के अनुरूप हुआ है।"

लवण के मारे जाने पर उसके सताये हुए सारे तपस्वियों ने अपने को कृतार्थ माना और शत्रुघ्न की स्तुति प्रारम्भ कर दी। प्रताप और पराक्रम [ २९५ ]
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से उन्नत हुए अपने सिर को शत्रुघ्न ने, उस समय, मुनियों के सामने झुका कर नम्रता दिखाई । पराक्रम के काम कर के भी, अपनी प्रशंसा सुनने पर, लज्जित होना और सङ्कोच से सिर नीचा कर लेना ही सच्ची वीरता का सूचक है। ऐसे ही व्यवहार से वीरों की शोभा होती है।

पुरुषार्थ ही को सच्चा भूषण समझने वाले और इन्द्रियों के विषय- भोग की ज़रा भी इच्छा न रखने वाले मधुरमूर्ति शत्रुघ्न को वह जगह बहुत पसन्द आई। इस कारण, उन्होंने, यमुना के तट पर, मथुरा नाम की एक पुरी बसाई और आप उसके राजा हो गये। ऐसा अच्छा राजा पाकर पुरवासियों की सम्पदा दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। सभी कहीं सुख, सन्तोष और समृद्धि ने अपना डेरा जमा दिया । अतएव, ऐसा मालूम होने लगा जैसे स्वर्ग में बसने से बचे हुए मनुष्य लाकर मथुरा बसाई गई हो।

अपनी बसाई हुई पुरी की शोभा ने शत्रुघ्न का मन मोह लिया। अपने महल की छत से वे, सोने के सदृश रङ्गवाले चक्रवाक-पक्षियों से युक्त नीलवर्ण यमुना को-पृथ्वी की सुवर्ण-जटित वेणी के समान -देख कर बहुत ही प्रसन्न हुए।

मन्त्रों के आविष्कारकर्ता महामुनि वाल्मीकिजी दशरथ के भी मित्र

थे और जनक जी के भी। मिथिलेश-नन्दिनी सीताजी के पुत्रों के दादा और नाना पर वाल्मीकिजी की विशेष प्रोति होने के कारण, उन्होंने उन दोनों सद्योजात शिशुओं के जात-कर्म आदि संस्कार, विधिपूर्वक, बहुत ही अच्छी तरह, किये। उत्पन्न होने के अनन्तर उनके शरीर पर जो गर्भसम्बन्धी मल लगा हुआ था उसे आदि-कवि ने, अपने ही हाथ से, कुश और लव (गाय की पूँछ के बाल) से साफ किया। इस कारण उन्होंने उन दोनों शिशुओं का नाम भी कुश और लव ही रक्खा। वाल्य-काल बीत जाने पर जब वे किशोरावस्था को प्राप्त हुए तब मुनिवर ने पहले तो उन्हें वेद और वेदाङ्ग पढ़ाया। फिर, भावी कवियों के लिए कवित्व-प्राप्ति की सीढ़ी का काम देने वाली अपनी कविता, अर्थात् रामायण, पढ़ाई । यही नहीं, किन्तु रामायण को गाकर पढ़ना भी उन्होंने लव-कुश को सिखा दिया। रामचन्द्र के मधुर वृत्तान्त से परिपूर्ण रामायण को, अपनी माता [ २९६ ]
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के सामने गा कर, उन दोनों बालकों ने जानकीजी की रामचन्द्र-सम्बन्धिनी वियोग-व्यथा को कुछ कुछ कम कर दिया।

गार्हपत्य, दक्षिण और आहवनीय नामक तीनों अग्नियों के समान तेजस्वी अन्य भी-लक्ष्मण,भरत और शत्रुन्न नामक-तीनों रघुवंशियों की गर्भवती पत्नियों के, अपने अपने पति के संयोग से, दो दो पुत्र हुए ।

इधर शत्रुन्न को मथुरा में रहते बहुत दिन हो गये। अतएव,अयोध्या को लौट कर अपने बड़े भाई के दर्शन करने के लिए उनका मन उत्कण्ठित हो उठा । उन्होंने मथुरा और विदिशा का राज्य तो अपने विद्वान पुत्र शत्रुघाती और सुबाहु को सौंप दिया और आप अयोध्या को लौट चले । उन्होंने कहा:-"अब की दफे वाल्मीकि के आश्रम की राह से न जाना चाहिए । वहां जाने और ठहरने से मुनिवर की तपस्या में विघ्न आता है।" इस कारण, सीताजी के सुतों का गाना सुनने में निमग्न हुए हरिणांवाले वाल्मीकिजी के आश्रम को छोड़ कर वे उसके पास से निकल गये।

प्रजा ने जब सुना कि लवणासुर को मार कर शत्रुघ्न आ रहे हैं तब उसे बड़ी खुशी हुई। सब लोगों ने अयोध्या के प्रत्येक गली कूचे को तोरण और बन्दनवार आदि से खूब ही सजाया। इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाले कुमार शत्रन ने जिस समय अयो- ध्यापुरी में प्रवेश किया उस समय पुरवासियों के आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने शत्रुघ्न को बड़ी ही आदरपूर्ण दृष्टि से देखा। यथा- समय शत्रुघ्न रामचन्द्रजी की सभा में गये। उस समय रामचन्द्रजी अपने सभासदों से घिरे हुए बैठे थे। सीता का परित्याग करने के कारण, वे, उस समय, एक मात्र पृथ्वी के ही पति थे ।लवणासुर के शत्रु शत्रुघ्न ने बड़े भाई को देख कर भक्तिभावपूर्वक प्रणाम किया। कालनेमि के वध से प्रसन्न हुए इन्द्र ने जिस तरह विष्णु भगवान्की प्रशंसा की थी उसी तरह रामचन्द्रजी ने भी शत्रुघ्न की प्रशंसा की । शत्रुन्न पर वे बहुत प्रसन्न हुए और उनसे प्रेमपूर्वक कुशल-समाचार पूछे। शत्रुघ्न ने उनसे और तो सब बातें कह दों; पर लव-कुश के जन्म का वृत्तान्त न बताया । बात यह थी कि वाल्मीकि ने उन्हें आज्ञा दे दी थी कि तुम इस विषय में रामचन्द्रजी से कुछ न कहना; किसी समय मैं स्वयं ही यह वृत्तान्त उन्हें सुनाऊँगा । इसीसे, इस विषय में; शत्रुघ्न को चुप रहना पड़ा। [ २९७ ]
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एक दिन की बात सुनिए। किसी ग्रामीण ब्राह्मण का पुत्र, युवा होने के पहले ही, अकस्मात् मर गया । वह ब्राह्मण, उसे गोद में लिये हुए, राजा रामचन्द्र के यहाँ आया। वहाँ, द्वार पर, उसने लड़के को गोद से उतार कर रख दिया और चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा। वह बोला:-

"अरी पृथ्वी! तेरे दुर्भाग्य का क्या ठिकाना । तू बड़ी ही अभा- गिनी है। दशरथ के बाद रामचन्द्र के हाथ में आने से तेरी बड़ी ही दुर्दशा हो रही है। तेरे कष्ट दिन पर दिन बढ़ते ही जाते हैं !!!"

रामचन्द्रजी ने उस ब्राह्मण से उसके शोक का कारण पूछा। उसने सारा हाल कह सुनाया। रामचन्द्रजी तो प्रजा के पालन और असहायों के रक्षक थे । ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु का हाल सुन कर वे बहुत लज्जित हुए। उन्होंने मन ही मन कहा:-

"अब तक तो इक्ष्वाकुवंशी राजाओं के देश पर अकाल-मृत्यु के पैर नहीं पड़े थे । मामला क्या है, जो इस ब्राह्मण का बेटा अकाल ही में काल का कौर हो गया ।"

उन्होंने उस दुःखदग्ध ब्राह्मण को बहुत कुछ आसा-भरोसा दिया और उससे कहा:-

"आप घबराइए नहीं। ज़रा देर आप यहाँ ठहरिए । आपका दुःख दूर करने का मैं कुछ उपाय करना चाहता हूँ।"

यह कह कर उन्होंने यमराज पर चढ़ाई करने का विचार किया। तत्काल ही उन्होंने कुवेर के पुष्पक विमान को याद किया। याद करते ही वह रामचन्द्रजी के सामने आकर उपस्थित हो गया। उन्होंने अपने शस्त्रास्त्र साथ लिये। फिर वे विमान पर सवार हो गये। उन्हें लेकर विमान उड़ चला।

रामचन्द्रजी कुछ ही दूर गये होंगे कि आकाशवाणी हुई। उन्होंने सुना कि सामने ही कोई कह रहा है:-

"हे राजा ! तेरे राज्य में कुछ दुराचार हो रहा है। उसका पता लगा कर उसे दूर कर दे तो तेरा काम बन जाय । उसके दूर होते ही तू कृतकृत्य हो जायया ।"

रामचन्द्रजी ने इस आकाश-वाणी को सच समझा। उन्हें इस पर [ २९८ ]
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विश्वास हो गया। अतएव, अपने राज्य के वर्णाश्रम-सम्बन्धी विकार को दूर करने का निश्चय करके उन्होंने विमान को बड़े वेग से उड़ाया। रामचन्द्रजी की आज्ञा से वह इतने वेग से उड़ा कि उसकी पताका, हवा के झोंकों से लहराने और फहराने पर भी, निश्चल सी मालूम होने लगी । दूर दूर तक वे विमान पर बैठे हुए दुराचार का कारण हूँढ़ते फिरे । कोई दिशा ऐसी न बची जहाँ वे न गये हों । अन्त को, ढूँढ़ते ढूँढते, उन्हें एक तपस्वी देख पड़ा ।अपना मुँह पृथ्वी की तरफ़ किये हुए, एक पेड़ की डाल से वह लटक रहा था। उसके नीचे आग जल रही थी, धुएँ से उसकी आँखें लाल हो रही थीं । धुआँ पीनेवाले उस तपस्वी से रामचन्द्रजी ने उसका नाम, धाम और कुल आदि पूछा। उसने उत्तर दिया:-

"मेरा नाम शम्बुक है । जाति का मैं शूद्र हूँ । स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा से मैं तपस्या कर रहा हूँ-मैं देवता हो जाना चाहता हूँ।"

यह सुन कर वों और आश्रमों को अपनी अपनी मर्यादा के भीतर रखनेवाले राजा रामचन्द्र ने कहा कि तू तपस्या का अधिकारी नहीं। तेरे ही कारण मेरी प्रजा को दुःख पहुँच रहा है। तू मार डालने योग्य है। तेरा सिर काटे बिना मैं न रहूँगा । यह कह कर उन्होंने शस्त्र उठाया और आग की चिनगारियों से मुल सो हुई उसकी डाढ़ीवाले सिर को-पाला पड़ने से कुम्हलाये हुए केसरवाले कमल फूल की तरह-कण्ठरूपी नाल से काट दिया । स्वयं राजा के हाथ से मारे जाने पर उस शूद्र ने पुण्यात्माओं की गति पाई-जिस गति को पुण्यशील महात्मा ही पाते हैं वही उसको प्राप्त हो गई। यद्यपि वह घोर तपस्या कर रहा था तथापि उसकी तपस्या से वर्णाश्रम-धर्म के नियमों का उल्लङ्घन होता था। अतएव, यदि रामचन्द्रजी के हाथ से उसकी मृत्यु न होती तो वह अपनी तपस्या से उस गति का कदापि अधिकारी न होता।

मार्ग में महातेजस्वी अगस्त्य मुनि रामचन्द्रजी को मिले । उनको मुनिवर ने-शरत्काल को चन्द्रमा के समान-अापही कृपा करके अपने दर्शन दिये। अगस्त्य मुनि के पास, देवताओं के धारण करने योग्य, एक आभूषण था । उसे उन्होंने समुद्र से पाया था--उस समुद्र से जिसे उन्होंने पी कर फिर पेट से निकाल दिया था। अपने जीवदान के पलटे में ही

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समुद्र ने मानों उसे मुनिवर को प्रदान किया था। इसी अनमोल आभूषण को अगस्त्य मुनि ने रामचन्द्र को दे दिया। रामचन्द्रजी ने उसे अपने बाहु पर धारण कर लिया-उस बाहु पर जो किसी समय जानकीजी का कण्ठपाश बनता था; परन्तु जिसका यह काम बहुत दिनों से बन्द हो गया था। जानकीजी का तो परित्याग ही हो चुका था, बन्द न हो जाय तो क्या हो। उस दिव्य आभू- षण को धारण करके राम चन्द्रजी तो पीछे अयोध्या को लौटे, उस ब्राह्मण का मरा हुआ बालक उसके पहले ही जी उठा ।

पुत्र के जी उठने पर ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने देखा कि रामचन्द्रजी तो यमराज से भी अधिक बली और प्रभुताशाली हैं। यदि वे ऐसे न होते तो यमराज के घर से मेरे पुत्र को किस तरह ला सकते । अतएव, पहले उसने रामचन्द्रजी की जितनी निन्दा की थी उससे कहीं अधिक उनकी स्तुति की । स्तुति से उसने निन्दा का सम्पूर्ण निवारण कर दिया।

इस घटना के उपरान्त रामचन्द्रजी ने अश्वमेध-यज्ञ करने का निश्चय किया और घोड़ा छोड़ा । उस समय उन पर राक्षसों, बन्दरों और मनुष्यों के स्वामियों ने भेंटों की इस तरह वर्षा की जिस तरह कि मेघ अनाज की फसल पर पानी की वर्षा करते हैं। रामचन्द्रजी का निमन्त्रण पाकर बड़े बड़े ऋषि और मुनि-पृथ्वी के ही रहनेवाले नहीं, किन्तु नक्षत्रों तक के रहनेवाले हर दिशा और हर लोक से आकर उनके यहाँ उपस्थित हुए। अयोध्या के बाहर, चारों तरफ, उन लोगों ने अपने अपने आसन लगा दिये। उस समय फाटकरूपी चार मुखवाली अयोध्या-तत्काल ही सृष्टि की रचना किये हुए ब्रह्माजी की चतुर्मुखी मूर्ति के सदृश-शोभायमान हुई। सीताजी का परित्याग करके रामचन्द्रजी ने उन पर कृपा ही सी की। उनका परित्याग भी प्रशंसा के योग्य ही हुआ। क्योंकि अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा लेने पर, यज्ञशाला में बैठे हुए रामचन्द्रजी ने, सीता ही की सोने की प्रतिमा बना कर, अपने पास बिठाई। उन्होंने दूसरी स्त्री का ग्रहण ही न किया। इससे सीताजी पर रामचन्द्र का सचमुच ही अनन्य प्रेम प्रकट हुआ। धन्य वह स्त्री जिसका स्वामी उसे छोड़ कर भी उसकी प्रतिमा अपने पास रक्खे !

रामचन्द्रजी का यज्ञ बड़े ही ठाट-बाद से हुआ । शास्त्र में जितनी सामग्री [ ३०० ]
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की आज्ञा है उससे भी अधिक सामग्री से यज्ञ किया गया । उसमें किसी तरह का विन्न न हुआ। यज्ञ आदि पुण्य कार्यों में राक्षस ही अधिक विघ्न डालते हैं । परन्तु रामचन्द्रजी के यज्ञ में विभीषण आदि राक्षस ही रक्षक थे । फिर भला क्यों न वह निर्विन समाप्त हो ?

यज्ञ में वाल्मीकि मुनि भी आये थे। अपने साथ वे जानकीजी के दोनों पुत्र, लव और कुश, को भी लाये थे। उन्हें महर्षि ने आज्ञा दी कि मेरी रची हुई रामायण तुम अयोध्या में गाते फिरो। लव-कुश ने गुरु की आज्ञा का पालन किया । उन्होंने अयोध्या में घूम घूम कर, यहाँ वहाँ,खूब ही उसे गाया । एक तो रामचन्द्रजी का पावन चरित, दूसरे महामुनि वाल्मीकिजी को रचना, तीसरे किन्नर-कण्ठ लव-कुश के मुख से गाया जाना ! भला फिर उसे सुन कर सुननेवाले क्यों न मोहित हो ? जिस जिसने उन दोनों बालकों का गाना सुना उस उसका मन उन्होंने मोह लिया। गाना उनका जैसा मधुर था, मूर्ति भी उनकी वैसी ही मधुर थी। अतएव, जो लोग रूपमाधुर्य और गानविद्या के ज्ञाता थे उन्हें लव कुश के दर्शन और उनका गाना सुनने से अवर्णनीय आनन्द हुआ। उन्होंने सारा हाल रामचन्द्रजी से कह सुनाया। उन्हें भी बड़ा कुतूहल हुआ। अतएव, उन्होंने लव-कुश को बुला कर उन्हें देखा भी और भाइयों सहित उनका गाना भी सुना। जिस समय लव-कुश ने रामचन्द्रजी की सभा में रामायण गाना आरम्भ किया उस समय सभासदों की आँखों से आनन्द के आँसुओं की वर्षा होने लगी। सारी सभा ने इतनी एकाग्रता से गाना सुना कि वह चित्र लिखी सी निश्चल बैठी रह गई। उस समय वह उस वन-भूमि के सदृश मालूम होने लगी जिसके वृक्षों से, प्रातःकाल, ओस टपक रही हो, और, हवा न चलने से, जिसके वृक्ष बिना हिले डुले निस्तब्ध खड़े हों।

लव-कुश को देख कर, एक और कारण से भी, सब लोग अचम्भे में आ गये। लव-कुश और रामचन्द्र में उन्हें बहुत ही अधिक सदृशता मालूम हुई । बालवयस और मुनियों की सी वेशभूषा को छोड़ कर, अन्य सभी बातों में, वे दोनों भाई राम- चन्द्र के तुल्य देख पड़े। परन्तु लोगों के अचम्भे का, इससे भी बढ़ कर, एक और भी कारण हुआ। वह यह था [ ३०१ ]
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कि उनके मधुर गान पर प्रसन्न होकर रामचन्द्र ने यद्यपि उन्हें बड़े बड़े और बहुमूल्य उपहार दिये; परन्तु उन्हें लेने में उन दोनों भाइयों ने बेहद निर्लोभता दिखाई। अतएव, उनके गान-कौशल पर लोग जितना चकित न हुए थे उससे अधिक चकित वे उनकी निस्पृहता पर हुए।

रामचन्द्र ने प्रसन्न होकर स्वयं ही उनसे पूछा:-"यह किस कवि की रचना है और किसने तुम्हें गाना सिखाया है ?"

रामचन्द्रजी के इस प्रश्न के उत्तर में उन दोनों भाइयों ने महर्षि वाल्मीकि का नाम बताया।

यह सुन कर रामचन्द्रजी के आनन्द का ठिकाना न रहा। वे तुरन्त अपने भाइयों को साथ लेकर, वाल्मीकिजी के पास गये; और, एकमात्र अपने शरीर को छोड़ कर अपना सारा राज्य उन्हें दे डाला। इस पर परमकारुणिक वाल्मीकिजी ने उनसे कहा:-"मिथिलेश-नन्दिनी की कोख से उत्पन्न हुए ये दोनों बालक आपही के पुत्र हैं। अब आप कृपा करके सीता को ग्रहण कर लें।"

रामचन्द्रजी बोले:-

"तात ! आपकी बहू, मेरी आँखों के सामने ही, अग्नि में अपनी विशुद्धता का परिचय दे चुकी है। मैं उसे सर्वथा शुद्ध समझता हूँ। परन्तु दुरात्मा रावण के यहाँ रहने के कारण, यहाँ की प्रजा ने उस पर विश्वास न किया। अब यदि मैथिली, किसी तरह, अपनी चरित-सम्बन्धिनी शुद्धता पर प्रजा को विश्वास दिला दे तो मैं, आपकी आज्ञा से, उसे पुत्र सहित ग्रहण कर लूँगा।"

रामचन्द्र की इस प्रतिज्ञा को सुन कर वाल्मीकिजी ने शिष्यों के द्वारा जानकीजी को-नियमों के द्वारा अपनी अर्थ-सिद्धि की तरह-आश्रम से बुला भेजा।

दूसरे दिन, रामचन्द्रजी ने पुरवासियों को एकत्र किया और जिस

निमित्त सीताजी बुलाई गई थीं उसकी सिद्धि के लिए उन्होंने वाल्मीकिजी को बुला भेजा। दोनों पुत्रों सहित सीताजी को साथ लेकर, महामुनि वाल्मीकिजी, परम-तेजस्वी रामचन्द्रजी के सामने, उपस्थित हुए। उस समय वे ऐसे मालुम हुए जैसे स्वर और संस्कार से युक्त गायत्रो ऋचा को [ ३०२ ]
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लेकर वे भासमान भास्कर के सामने उपस्थित हुए हों। उस अवसर पर, सीताजी गेरुवे वस्त्र धारण किये हुए थीं और नीचे, पृथ्वी की तरफ़, देख रही थीं। दृष्टि उनकी अपने पैरों पर थी। उनका इस तरह का शान्त शरीर ही मानों यह कह रहा था कि वे सर्वथा शुद्ध हैं; उन पर किसी तरह का सन्देह करना भूल है।

ज्योही लोगों ने सीताजी को देखा त्योंही उनकी दृष्टि नीचे को हो गई । उन्होंने सीताजी के दृष्टि पथ से अपनी आँखें हटा ली । पके हुए धानों की तरह, सबके सब, सिर झुका कर, जहाँ के तहाँ, स्तब्ध खड़े रह गये । महर्षि वाल्मीकि तो रामचन्द्रजी की सभा में, आसन पर, बैठ गये; पर सीताजी खड़ी ही रहीं । सर्वत्र निस्तब्धता हो जाने पर वाल्मीकिजी ने सीताजी को आज्ञा दी:-

"बेटी ! तेरे चरित के सम्बन्ध में अयोध्यावासियों को जो संशय उत्पन्न हुआ है उसे, अपने पति के सामने ही, दूर कर दे।"

वाल्मीकिजी की आज्ञा सुनते ही उनका एक शिष्य दौड़ा गया और पवित्र जल ले आया। उससे आचमन करके सीताजी, इस प्रकार, सत्य वाणी बोली:-

"हे माता! हे मही-देवी ! अपने पति के सम्बन्ध में यदि मुझसे कर्म से तो क्या, वाणी और मन से भी, कभी व्यभिचार न हुआ हो तो तू इतनी कृपा कर कि अपने भीतर मुझे समा जाने दे!"

परम सती सीताजी के मुँह से ये शब्द निकले ही थे कि तत्काल ही पृथ्वी फट गई और एक बहुत बड़ा गढ़ा हो गया। उससे प्रखर प्रकाश का एक पुञ्ज, बिजली की प्रभा के सदृश, निकल आया। उस प्रभामण्डल के भीतर, शेषनाग के फनों के ऊपर, एक सिंहासन रक्खा हुआ था। उस पर समुद्ररूपिणी मेखला धारण करनेवाली प्रत्यक्ष पृथ्वी देवी विराजमान थीं। उस समय सीताजी अपने पति की तरफ़ इकटक देख रही थीं। उन्हें, उसी दशा में, उनकी माता पृथ्वी ने अपनी गोद में उठा लिया और लेकर पाताल में प्रवेश कर गई। रामचन्द्रजी उन्हें सीता को ले जाते देख-"नहीं नहीं-कहते ही रह गये।

उस समय धन्वाधरी रामचन्द्रजी को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने [ ३०३ ]
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रघुवंश ।

पृथ्वी से सीताजी को छीन लाना चाहा। परन्तु गुरु ने, दैव शक्ति की प्रबलता का वर्णन करके, और, बहुत कुछ समझा बुझा कर, उनके कोप को शान्त कर दिया।

यज्ञ समाप्त होने पर, आये हुए ऋषियों और मित्रों का खूब आदर-सत्कार करके रामचन्द्र ने उन्हें अच्छी तरह बिदा किया; पर लव कुश को उन्होंने अपने ही यहाँ रख लिया । जिस स्नेह की दृष्टि से वे अब तक सीताजी को देखते थे उसी दृष्टि से वे अब उनके पुत्र लव-कुश को देखने लगे।

भरतजी के मामा का नाम युधाजित् था। उन्होंने प्रजापालक राम- चन्द्रजी से यह सिफारिश की कि सिन्धु-देश का ऐश्वर्यशाली राज्य भरत को दे दिया जाय । रामचन्द्रजी ने इस बात को मान कर भरत को सिन्धुदेश का राजा बना दिया। भरत ने उस देश में जाकर वहाँ के निवासी गन्धव्रो को युद्ध में ऐसी करारी हार दी कि उन बेचारों को हाथ से हथियार रख कर एक मात्र वीणा ही ग्रहण करनी पड़ी। राज-पाट का झंझट छोड़ कर वे अपना गाने बजाने का पेशा करने को लाचार हुए। सिन्धु-देश में अपना दब- दबा जमा कर भरतजी ने वहाँ की तक्षशिला नामक एक राजधानी में तो अपने पुत्र तक्ष का राज्याभिषेक कर दिया और पुष्कलावती नामक दूसरी राजधानी में दूसरे पुत्र पुष्कल का । भरतजी के ये दोनों पुत्र बहुगुण-सम्पन्न, अतएव, राजा होने के सर्वथा योग्य थे। उनका अभिषेक करके भरतजी अयोध्या को लौट आये ।

अब रह गये लक्ष्मणजी के पुत्र अङ्गद और चन्द्रकेतु । उन्हें भी उनके पिता ने, रामचन्द्रजी की आज्ञा से, कारापथ नामक देश का राजा बना दिया। वे भी अङ्गदपुरी और चन्द्रकान्ता नामक राजधानियों में राज्य करने लगे।

इस तरह लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पुत्रों को राजा बना कर और प्रत्येक को अलग अलग राज्य देकर, रामचन्द्रजी और उनके भाई निश्चिन्त हो गये।

बूढ़ी होने पर, रामचन्द्र आदि की मातायें-कौशल्या, सुमित्रा और

कैकेयी-शरीर छोड़ कर पति-लोक को पधारी। माताओं के मरने पर, नरेश-शिरोमणि रामचन्द्रजी और उनके भाइयों ने प्रत्येक की श्राद्ध आदि और्ध्वदेहिक क्रियायें, क्रम से, विधिपूर्वक, कौं ! [ ३०४ ]
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पन्द्रहवाँ सर्ग ।

एक दिन की बात है कि मृत्यु महाराज, मुनि का वेश धारण करके, रामचन्द्रजी के पास आये और बोले:-

“महाराज ! मैं आप से एकान्त में कुछ कहना चाहता हूँ। आप यह प्रतिज्ञा कीजिए कि जो कोई हम दोनों को बातचीत करते देख लेगा उसका आप परित्याग कर देंगे।"

रामचन्द्रजी ने कहा:-"बहुत अच्छा । मुझे मज़र है। .

तब काल ने अपना असली रूप प्रकट करके कहा कि अब आपके स्वर्ग-गमन का समय आ गया। अतएव, ब्रह्मा की आज्ञा से, आपको वहाँ जाने के लिए अब तैयार हो जाना चाहिए।

इतने में रामचन्द्रजी के दर्शन की इच्छा से दुर्वासा ऋषि राजद्वार पर आ पहुँचे । लक्ष्मणजी, उस समय, द्वारपाल का काम कर रहे थे। काल से रामचन्द्रजी ने जो प्रतिज्ञा की थी उसका भेद लक्ष्मणजी को मालूम था । परन्तु दुर्वासा के शाप के डर से उन्हें, ऋषि के आगमन की सूचना देने के लिए, रामचन्द्रजी के पास जाना पड़ा । जाकर उन्होंने देखा तो रामचन्द्रजी एकान्त में बैठे हुए काल पुरुष से बातें कर रहे थे। फल यह हुआ कि की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार रामचन्द्रजी ने लक्ष्मण का त्याग कर दिया।

लक्ष्मणजी योगविद्या में पारङ्गत थे । वे पूरे योगी थे। अतएव वे सरयू के किनारे चले गये और योग-द्वारा शरीर छोड़ कर बड़े भाई की प्रतिज्ञा को भङ्ग न होने दिया।

लक्ष्मण के पहले ही स्वर्गगामी हो जाने से रामचन्द्रजी का तेज एक चतुर्थांश कम हो गया। अतएव, तीन पैर के धर्म की तरह वे पृथ्वी पर शिथिल होकर किसी तरह अपने दिन पूरे करने लगे। अपने लीला-समापन का समय समीप आया जान उन्होंने अपने बड़े बेटे कुरा को, जो शत्ररूपी हाथियों के लिए अंकुश के सदृश था, कुशावती में स्थापित कर के उसे वहाँ का राजा बना दिया। और, मधुर तथा मनोहर वचनों के प्रभाव से सज्जनों की आँखों से आँसू टपकाने वाले दूसरे बेटे लव को शरावती नामक नगरी में स्थापित करके वहाँ का राज्य उसे दे दिया।

इस प्रकार अपने दोनों पुत्रों को राजा बना कर स्थिर-बुद्धि रामचन्द्रजी ने स्वर्ग जाने की तैयारी कर दी। उन्होंने भरत और शत्रुघ्न को साथ [ ३०५ ]
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रघुवंश।

लेकर और अग्निहोत्र की आग के पात्र को आगे करके, उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान किया। यह बात अयोध्या से न देखी गई । उसने कहा:-"जब मेरे स्वामी रामचन्द्रजी ही यहाँ से चले जा रहे हैं तब मेरा ही यहाँ अब क्या काम ? मैं भी उन्हीं के साथ क्यों न चल दूं।" अतएव, स्वामी पर अत्यन्त प्रीति के कारण, निर्जीव घरों को छोड़ कर, वह भी रामचन्द्रजी के पीछे चल दी-सारे अयोध्यावासी रामचन्द्रजी के साथ चल दिये और अयोध्या उजाड़ हो गई । रामचन्द्रजी के मार्ग को, कदम्ब की कलियों के समान अपने बड़े बड़े आँसुओं से भिगोती हुई, अयोध्या की प्रजा जब चल दी, तब रामचन्द्रजी के मन की बात जान कर, उनके सेवक राक्षस और कपि भी उसी पथ के पथिक हो गये । वे भी राम- चन्द्रजी के पीछे पीछे रवाना हुए।

इतने में एक विमान स्वर्ग से आकर उपस्थित हो गया। भाइयों सहित रामचन्द्रजी तो उस पर सवार हो गये। रहे वे लोग जो उनके पीछे पीछे आ रहे थे; सो उनके लिए भक्तवत्सल रामचन्द्र- जी ने सरयू को ही स्वर्ग की सीढ़ी बना दी । सरयू का अवगाहन करते ही, रामचन्द्रजी की कृपा से, वे लोग स्वर्ग को पहुँच गये । नदियों में जिस जगह गायें उतरती हैं वह जगह गोप्रतर कहलाती है। जिस समय रामचन्द्रजी के अनन्त अनुयायी तैर कर सरयू को पार करने लगे उस समय इतनी भीड़ और इतनी रगड़ा-रगड़ हुई कि गौवों के उतरनेही का जैसा दृश्य दिखाई देने लगा। इस कारण, तब से, उस पवित्र तीर्थ का नामही गोप्रतर हो गया।

सुग्रीव आदि तो देवताओं के अंश थे। इससे, स्वर्ग पहुँचने पर, जब उन्हें उनका असली रूप मिल गया तब रामचन्द्रजी ने देव-भाव को पाये हुए अपने पुरवासियों के लिए एक जुदेही स्वर्ग की रचना कर दी। उनके लिए एक स्वर्ग अलगही बनाया गया।

देवताओं का रावणवधरूपी कार्य करनेही के लिए भगवान् ने राम- चन्द्रजी का अवतार लिया था। अतएव, जब वह कार्य सम्पन्न हो गया तब विभीषण को दक्षिणी और हनूमान् को उत्तरी पर्वत पर, अपनी कीर्ति के दो स्तम्भों के समान, संस्थापित करके, विष्णु के अवतार रामचन्द्रजी, सारे लोकों की आधार-भूत अपनी स्वाभाविक मूर्ति में, लीन हो गये।