रघुवंश/१८—अतिथि के उत्तरवर्ती राजाओं की वंशावली

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अठारहवाँ सर्ग।

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अतिथि के उत्तरवर्ती राजाओं की वंशावली।

शत्रुओं का संहार करनेवाले अतिथि का विवाह निषधनरेश की कन्या से हुआ था। वही उसकी प्रधान रानी थी। उसी की कोख से उसे निषध नाम का एक पुत्र मिला। बल में वह निषधपर्वत से किसी तरह कम न था। अतिथि ने जब देखा कि मेरा पुत्र महा- पराक्रमी है और प्रजा की रक्षा का भार उठा सकता है तब उसे उतना ही आनन्द हुआ जितना कि सुवृष्टि के योग से परिपाक को पहुँचे हुए धान के खेत देख कर किसानों को होता है । अतएव उसने निषध को राजा बना दिया और आप शब्द, रूप, रस आदि का सुख चिरकाल तक भोग कर, अपने कुमुदसदृश शुभ्र कम्मों से पाये हुए स्वर्ग को चला गया।

कुश के पौत्र निषध के लोचन कमल के समान सुन्दर थे; उसका हृदय महासागर के समान गभीर था; और उसकी भुजाये नगर के फाटक की अर्गला (लोह-दण्ड ) के समान लम्बी और पुष्ट थीं । वीरता में तो उसकी बराबरी करनेवाला कोई था ही नहीं। पिता के अनन्तर एकच्छत्र राजा होकर उसने बड़ी ही योग्यता से ससागरा पृथ्वी का शासन किया।

निषध के नल नामक पुत्र हुआ। उसके मुख की कान्ति कमल के समान और तेज अनल के समान था। पिता के पश्चात् रघुवंश की राजलक्ष्मी उसे ही प्राप्त हुई । उसने अपने बैरियों के सेना-समूह को इस तरह नष्टभ्रष्ट कर डाला जिस तरह कि हाथी नरकुल को तोड़ मरोड़ कर फेंक देता है।

नभश्चरों, अर्थात् गन्धर्बादिकों, के द्वारा गाये गये यशवाले राजा नल [ ३३७ ]
ने नभ नामक पुत्र पाया। उसका शरीर नभस्तल (आकाश) के समान श्याम था। नभोमास, अर्थात् सावन के महीने, की तरह वह अपनी प्रजा का प्यारा हुआ।

नल बड़ा ही धर्मिष्ठ था। अतएव नभ के बड़े होने पर जब नल ने देखा कि वह राजा होने योग्य है तब उत्तर-कोशल का राज्य उसे दे दिया। इस समय नल बूढ़ा हो चला था। बुढ़ापा आ गया देख उसने परलोक बनाने का विचार किया। उसने सोचा कि अब ऐसा काम करना चाहिए जिसमें फिर देह धारण करने का कष्ट न उठाना पड़े। यह निश्चय करके वह मृगों के साथ वन में विहार करने के लिए चला गया-वह वान-प्रस्थ हो गया।

राजा नभ के पुण्डरीक नामक पुत्र हुआ। पुण्डरीक नाम का दिग्गज जैसे अन्य हाथियों के लिए अजेय है वैसे ही कुमार पुण्डरीक भी, बड़े होने पर, अन्य राजाओं के लिए अजेय हो गया। पिता के शान्तिपूर्वक शरीर छोड़ने पर राज-लक्ष्मी ने उसका इस तरह सेवन किया जिस तरह कि पुण्डरीक (सफेद कमल) लिये हुए लक्ष्मी पुण्डरीकाक्ष (विष्णु) का सेवन करती है।

पुण्डरीक बड़ा ही प्रतापी राजा हुआ। उसका धन्वा कभी विफल न गया। जिस काम के लिए उसने उसे उठाया उसे करके ही छोड़ा। इस पुण्डरीक नामक अमोघधन्वा राजा के क्षेमधन्वा नामक बड़ा ही शान्तिशील पुत्र हुआ। ज्योंही वह प्रजाजनों की रक्षा करने और उन्हें क्षेमपूर्वक रखने योग्य हुआ त्योंही पिता पुण्डरीक ने उसे पृथ्वी सौंप दी और आप पहले से भी अधिक शान्त बन कर तपस्या करने चला गया।

क्षेमधन्वा के देवताओं के समान प्रभावशाली देवानीक नामक पुत्र हुआ। वह ऐसा प्रतापी हुआ कि देवताओं तक में उसकी प्रसिद्धि हुई- स्वर्ग तक में उसके यशोगीत गाये गये। वीर वह इतना हुआ कि रण में कभी पीछे न रहा; सदा सेना के आगे ही उसने कदम रक्खा। उसने अपने पिता क्षेमधन्वा की बड़ी सेवा की। ऐसा गुणी और सुशील पुत्र पा कर पिता ने अपने भाग्य को हृदय से सराहा। उधर पुत्र देवानीक ने भी, अपने ऊपर पिता का अपार प्रेम देख कर, अपने को धन्य माना।

क्षेमधन्वा में संख्यातीत गुण थे। गुणों की वह साक्षात् खानि था। [ ३३८ ]
धार्मिक भी वह बड़ा था। अनेक यज्ञ वह कर चुका था। चारों वर्षों की रक्षा का बोझ बहुत काल तक सँभालने के बाद जब उसने देखा कि मेरा पुत्र, सब बातों में, मेरे ही सहश है तब उस बोझ को उसने उसके कन्धे पर रख दिया और आप यज्ञ करनेवालों के लोक को प्रस्थान कर गया स्वर्ग-लोक को सिधार गया।

देवानीक का पुत्र बड़ाही जितेन्द्रिय और मधुरभाषी हुआ। अपने मृदु, भाषण से उसने अपनों की तरह परायों को भी अपने वश में कर लिया। मित्र ही नहीं, शत्रु भी उसे प्यार की दृष्टि से देखने लगे। मीठे वचनों की महिमा ही ऐसी है। उनसे, और तो क्या, एक बार डरे हुए हिरन भी वश में कर लिये जा सकते हैं। इस राजा का नाम अहीनगु था। इसके भुजबल में ज़रा भी हीनता न थी। यह बड़ा बली था। हीनजनों (नीचों) की इसने कभी सङ्गति न की। उन्हें इसने सदा दूर ही रक्खा। इस कारण, युवा होने पर भी, यह अनेक अनर्थकारी व्यसनों से विहीन रहा। इस प्रबल पराक्रमी राजा ने न्यायपूर्वक सारी पृथ्वी का शासन किया। यह बड़ा ही चतुर था। मनुष्यों के पेट तक की बातें यह जान लेता था। साम, दान, दण्ड और भेद नामक चारों राजनीतियों का सफलतापूर्वक प्रयोग करके यह चारों दिशाओं का स्वामी बन बैठा। पिता देवानीक के पश्चात् पृथ्वी पर इसका अवतार आदि-पुरुष भगवान् विष्णु के अवतार के समान था।

शत्रुओं को हरानेवाले अहीनगु की परलोकयात्रा हो जाने पर उसके स्वर्गलोक चले जाने पर-राज-लक्ष्मी उसके पुत्र पारियात्र की सेवा करने लगी। उसका सिर इतना उन्नत था कि पारियात्र नामक पर्वत की उँचाई को भी उसने जीत लिया था। इसी से उसका नाम पारियात्र हुआ!

उसके बहुत ही रदारशील पुत्र का नाम शिल हुआ। उसकी छाती शिला की पटिया के समान विशाल थी। उसने अपने शिलीमुखों (बाणों) से अपने सारे वैरियों को जीत लिया। तथापि, यदि किसी ने उसकी वीरता की प्रशंसा की तो उसे सुन कर उसने शालीनता से सदा ही अपना सिर नीचा कर लिया। उसके प्रशंसनीय पिता पारियात्र ने उसे विशेष बुद्धिमान देख कर, तरुण होते ही, युवराज बना दिया। उसने मन में कहा कि राजा

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तो एक प्रकार के बँधुवे हैं। राजकीय कार्यों में वे सदा बँधे से रहते हैं। इस कारण उन्हें सुखोपभोग के लिए कभी छुट्टी ही नहीं मिलती। अतएव कुमार शिल को राज्य का भार सौंप कर आप अनेक प्रकार के सुख भोगने लगा। चिरकाल तक वह विषयों के उपभोग में लगा रहा। तिस पर भी उसकी तृप्ति न हुई। उसकी सुन्दरता और शक्ति क्षीण न हुई थी कि जरा (वृद्धावस्था) ने उस पर आक्रमण किया। औरों के साथ राजा को विहार करते देख जरा को ईर्ष्या उत्पन्न हुई। जरा में स्वय विहार करने की शक्ति न थी। अतएव उसकी ईर्ष्या व्यर्थ थी। तथापि, फिर भी, जरा सेन रहा गया-दूसरों का सुख उससे न देखा गया। फल यह हुआ कि पारियात्र को औरों से छुड़ा कर उसे वह परलोक को हर ले गई। वह बुढ़ापे का शिकार हो गया।

राजा शिल का पुत्र उन्नाभ नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसकी नाभि बड़ी गहरी थी। वह कमल नाभ (विष्णु) के समान प्रभावशाली था। अपने प्रताप और पौरुष से वह सारे राजाओं के मण्डल की नाभि बन बैठा। सबको अपने अधीन करके आप चक्रवर्ती राजा हो गया।

उसके अनन्तर वज्रणाम नामक उसका पुत्र राजा हुआ। वज्रधारी इन्द्र के समान प्रभाव वाला वह राजा जिस समय समर में वज्र के सदृश घोर घोष करता उस समय चारों तरफ़ हाहाकार मच जाता। वह वज्र अर्थात् हीरेरूपी आभूषण धारण करने वाली सारी पृथ्वी का पति हो गया और चिरकाल तक उसका उपभोग करके, अंत समय आने पर, अपने पुण्यों से प्राप्त हुए स्वर्ग को सिधारा।

वज्रणाम की मृत्यु के अनन्तर, समुद्र-पर्य्यन्त फैली हुई पृथ्वी ने, खानियों से नाना प्रकार के रत्नरूपी उपहार लेकर, शङ्खण नामक उसके पुत्र की शरण ली। इस राजा ने भी अपने शत्रुओं को जड़ से उखाड़ कर और बहुत दिन तक राज्य करके परलोक का रास्ता लिया।

उसके मरने पर सूर्य के समान तेजस्वी और अश्विनीकुमार के समान सुन्दर उसके पुत्र को पिता की राजपदवी प्राप्त हुई। दिग्विजय करते करते वह महासागर के तट तक चला गया। वहाँ उसके सैनिक और अश्व (घोड़े) कई दिन तर्क ठहरे रहे। इसीसे इतिहासकार उसे व्युषिताश्व नाम से [ ३४० ]
पुकारते हैं। पृथ्वी के उस ईश्वर ने विश्वेश्वर (महादेव) की आराधना करके विश्वसह नामक पुत्र के रूप में अपनी आत्मा को प्रकट किया। उसका पुत्र सारे विश्व का प्यारा और सारी विश्वम्भरा (पृथ्वी) का पालन करने योग्य हुआ।

परम नीतिज्ञ विश्वसह राजा ने हिरण्यनाभ नाम का पुत्र पाया। हिर- ण्याक्ष के वैरी विष्णु के अंश से उत्पन्न होने के कारण वह अत्यन्त बलवान्हु आ। पवन की सहायता पाकर हिरण्यरेता (अग्नि) जैसे पेड़ों को। असह्य हो जाता है वैसे ही इस बलवान पुत्र की सहायता पाकर विश्वसह अपने वैरियों को असह्य हो गया। पुत्र की बदौलत विश्वसह पितरों के ऋण से छूट गया। अतएव उसने अपने को बड़ा ही भाग्यशाली समझा। उसने सोचा कि जितने सुख इस जन्म में मैंने भोगे हैं वे सब अनन्त और अविनाशी नहीं हैं। इस कारण ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे मुझे अनन्त सुखों की प्राप्ति हो। अतएव बूढ़े होने पर उसने गाँठों तक लम्बी भुजाओं वाले अपने पुत्र को तो राजा बना दिया और आप वृक्षों की छाल के कपड़े पहन कर वनवासी हो गया।

हिरण्यनाभ बड़ा नामी राजा हुआ। उत्तर-कोशल के सूर्यवंशी राजाओं का वह भूषण समझा गया। उसने कौशल्य नामक औरस पुत्र पाया, जो दूसरे चन्द्रमा के समान-आँखों को आनन्द देनेवाला हुआ। महा- यशस्वी कौशल्य की कीति कौमुदो का प्रकाश ब्रह्मा की सभा तक पहुँचा। उसके महाब्रह्मज्ञानी ब्रह्मिष्ठ नामक पुत्र हुआ। उसी को अपना राज्य देकर राजा कौशल्य ब्रह्मगति को प्राप्त हो गया-वह मुक्त हो गया।

ब्रह्मिष्ठ अपने वंश में शिरोमणि हुआ। उसने बड़ी ही योग्यता से प्रजा का पालन और पृथ्वी का शासन किया। उसके शासन और प्रजा-पालन में कभी किसी तरह का विघ्न न हुआ। उसके सुशासन के चिह्न पृथ्वी पर सर्वत्र व्याप्त हो गये। ऐसे प्रजापालक राजा को पाकर, आँखों से आनन्द के आँसू बहाती हुई प्रजा ने, चिरकाल तक, सुख और सन्तोष का उपभोग किया।

राजा ब्रह्मिष्ठ के पुत्र नाम का एक नामी पुत्र हुआ। उसने विष्णु के समान सुन्दर रूप पाया। उस कमल-पत्र-समान सुन्दर नेत्रेवाले पुत्र ने [ ३४१ ]
अपने पिता की अत्यधिक सेवा करके अपनी आत्मा को कृतार्थ कर दिया। इस कारण उसका पिता, ब्रह्मिष्ठ, पुत्रवानों में सब से अधिक भाग्यशाली समझा गया। ब्रह्मिष्ठ ने जब देखा कि अब मेरे वंश के डूबने का डर नहीं तब उसने विषयोपभोग की तृष्णा छोड़ दी। सारे भोगविलासों से अपने चित्त को हटा कर वह पुष्कर नामक तीर्थ को चला गया। वहाँ स्नान करके वह देवत्व-पद को प्राप्त हो गया। उसने इस लोक में इतने पुण्य कार्य किये थे कि यह बात पहलेही से मालूम सी हो गई थी कि मुक्त होने पर वह इन्द्र का अवश्य ही साथी हो जायगा। वही हुआ। इन्द्र का मित्र बन कर वह इन्द्रही के समान ऐश्वर्यसुख भोगने लगा।

राजा पुत्र की रानी ने, पूस की पूर्णमासी के दिन, पुष्प नाम का पुत्र प्रसव किया। उसकी कान्ति पद्म-राग-मणि की कान्ति से भी अधिक उज्ज्वल हुई। दूसरे पुष्प नक्षत्र के समान उस राजा के उदित होने पर, उसकी प्रजा को सब तरह की पुष्टि और तुष्टि प्राप्त हुई। पुष्य बड़ाही उदार-हृदय राजा हुआ। जब उसकी रानी के पुत्र हुआ तब उसने पृथ्वी का भार अपने पुत्रही को दे दिया। बात यह हुई कि यह राजा जन्म-मरण से बहुत डर गया था। वह न चाहता था कि फिर उसका जन्म हो। इस लिए ब्रह्मवेत्ता जैमिनि का वह शिष्य हो गया। जैमिनिजी विख्यात योगी थे। उनसे योग-विद्या का अध्ययन करके, अन्तकाल आने पर, राजा पुष्य ने समाधि-द्वारा शरीर छोड़ दिया। उसकी इच्छा भी सफल हो गई। वह मुक्त हो गया और फिर कभी उसका जन्म न हुआ।

उसके अनन्तर ध्रुव के समान कीर्तिशाली उसके ध्रुवसन्धि नामक पुत्र ने अयोध्या का राज्य पाया। वह बड़ाही सत्यप्रतिज्ञ राजा हुआ। उसके सामने उसके सभी शत्रुओं को सिर झुकाना पड़ा। उसने इस योग्यता से राज्य किया कि उसके वैरियों की की हुई सन्धियों में कभी किसी को दोष निकालने का मौका न मिला। जो सन्धि एक दफ़े हुई वह वैसीही अटल बनी रही। कभी उसके संशोधन की आवश्यकता न पड़ी।

उसके द्वितीया के चन्द्रमा के समान दर्शनीय सुदर्शन नाम का सुत हुआ। मृगों के समान बड़ी बड़ी आँखों वाले ध्रुवसन्धि को आखेट से बड़ा प्रेम था। फल यह हुआ कि नरों में सिंह के समान उस बलवान् [ ३४२ ]
राजा ने शिकार खेलते समय सिंह से मृत्यु पाई। उस समय उसका पुन। सुदर्शन बहुत छोटा था।

ध्रुवसन्धि के स्वर्गगामी होने पर अयोध्या की प्रजा अनाथ हो गई। उसकी दीन दशा को देख कर ध्रुवसन्धि के मंत्रियों ने, एकमत होकर, उसके कुल के एक मात्र तन्तु सुदर्शन को विधिपूर्वक अयोध्या का राजा बना दिया। ध्रुवसन्धि के वही एक पुत्र था। अतएव उसे राजा बना देने के सिवा अयोध्या की प्रजा को सनाथ करने का और कोई उपाय ही न था। उस बाल-राजा को पाने पर रघुकुल की दशा नवीन चन्द्रमा वाले आकाश से, अथवा अकेले सिंह-शावक वाले वन से, अथवा एकमात्र कमलकुड्मल वाले सरोवर से उपमा देने योग्य हो गई।

जिस समय शिशु सुदर्शन ने अपने सिर पर किरीट और मुकुट धारण किया उस समय अयोध्या की प्रजा को बहुत सन्तोष हुआ। सब लोगों ने कहाः-"कुछ हर्ज नहीं जो हमारा राजा अभी बालक है। किसी दिन तो वह अवश्यही तरुण होगा। और, तरुण होने पर वह अवश्यही पिता की बराबरी करेगा। क्योंकि, हाथी के बच्चे के समान छोटा भी बादल का टुकड़ा, सामने की पवन पाकर, क्या सभी दिशाओं में नहीं फैल जाता?"

सुदर्शन की उम्र, उस समय, यद्यपि केवल छः ही वर्ष की थी तथापि वह हाथी पर सवार होकर नगर में कभी कभी घूमने के लिए राजमार्ग से निकलने लगा। जिस समय वह निकलता, राजसी पोशाक में बड़ी सजधज से निकलता और महावत उसे थाँभे रहता। उसे जाते देख अयोध्यावासी, उसके बालवयस का कुछ ख़याल न करके, उसका उतनाही गौरव करते जितना कि वे उसके पिता का किया करते थे।

जिस समय सुदर्शन अपने पिता के सिंहासन पर आसीन होता उस समय, शरीर छोटा होने के कारण, सिंहासन की सारी जगह उससे व्याप्त न हो जाती। वह बीच में बैठ जाता और आस पास सिंहासन खाली रह जाता। परन्तु शरीर से वह छोटा था तो क्या हुआ, तेजस्विता में वह बहुत बढ़ा चढ़ा था। उसके शरीर से सुवर्ण के समान चमकीला तेज जो निकलता था वह चारों तरफ़ इतना फैल जाता था कि उससे सारा सिंहासन भर सा जाता था। अतएव उसका कोई भी अंश खाली न मालूम होता [ ३४३ ]
था। सिंहासन पर बैठकर वह महावर लगे हुए अपने पैर नीचे लटका देता। पर वे सोने की उस चौकी तक न पहुँचते जो सिंहासन के नीचे पैर रखने के लिए रक्खी रहती थी। वह बच्चा था ही। अतएव पैर छोटे होने के कारण ऊपरही कुछ दूर लटके रह जाते। सैकड़ों अधीन राजा अपने रत्नखचित और उच्च मुकुट झुका झुका कर उन्हीं छोटे छोटे पैरों की वन्दना करते। मणि छोटी होने पर भी, अपनी प्रकृष्ट प्रभा के कारण, जैसे 'महानील' मणि ही कहलाती है-उसका 'महानील' नाम मिथ्या नहीं होता-वैसेही; यद्यपि सुदर्शन निरा बालक था, तथापि प्रभावशाली होने के कारण, 'महाराज' की पदवी उसके विषय में मिथ्या न थी-वह सर्वथा उसके योग्यही थी।

जिस समय सभा में आकर सुदर्शन बैठता उस समय उसके दोनों तरफ़ चमर चलने लगते और उसके सुन्दर कपोलों पर लटके हुए काकपक्ष बहुतही भले मालूम होते। इस बाल-राजा के मुख से जो वचन निकलते उनका सर्वत्र परिपालन होता; कोई भी ऐसा न था जो उनका उल्लङ्घन कर सकता। समुद्र के तट तक उसकी आज्ञा के अक्षर अक्षर का पालन होता।

उसके सिर पर ज़री का बहुमूल्य पट्टवस्त्र और ललाट पर मनोहारी तिलक बहुतही शोभा पाता। बालपन के कारण उसके मुख पर मुसकराहट सदाही विराजमान रहती। उसके प्रभाव का यह हाल था कि जिस तिलक से उसने अपने ललाट की शोभा बढ़ाई उसी से उसने अपने शत्रुओं की स्त्रियों के ललाट सूने कर दिये-शत्रुओं का संहार करके उनकी स्त्रियों को विधवा कर डाला।

उसका शरीर सिरस के फूल से भी अधिक सुकुमार था। उसके अङ्ग इतने कोमल थे कि आभूषणों का बोझ भी उसे कष्टदायक ज्ञात होता था। तिस पर भी स्वभावही से वह इतना सामर्थ्यशाली था कि पृथ्वी का अत्यन्त भारी बोझ उठाने में भी उसे प्रयास न पड़ा।

सुदर्शन जब कुछ बड़ा हुआ तब उसने विद्याध्ययन प्रारम्भ किया। उससे पट्टी पर लिखी हुई वर्णमाला का अभ्यास कराया जाने लगा। जब तक वह उस अक्षरमालिका को पूरे तौर पर ग्रहण करे तब तक वह विद्यावृद्ध पुरुषों की संपति से दण्डनीति के सारे फलों से युक्त हो गया। लिखना[ ३४४ ]
पढ़ना अच्छी तरह जानने के पहलेही वह दण्डनीति का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके न्यायासन पर बैठने योग्य हो गया।

राज-लक्ष्मी यह चाहती थी कि वह सुदर्शन के वक्षःस्थल में निवास करे। परन्तु बालक होने के कारण सुदर्शन की छाती कम चौड़ी थी। अतएव वह लक्ष्मी के निवास के लिए काफी न थी। यह देख कर लक्ष्मी उसके युवा होने की राह बड़े चाव से देखने लगी। परन्तु उसकी उत्सुकता। इतनी बढ़ी हुई थी कि तब तक ठहरना उसके लिए असह्य हो गया। अतएव सुदर्शन के छोटेपन के कारण लज्जित सी होती हुई उसने, सुदर्शन के छत्र की छाया के बहाने, उसे गले से लगाया।

वयस कम होने के कारण न सुदर्शन की भुजायें रथ के जुवे के समान लम्बी और पुष्ट थीं, न धनुष की प्रत्यञ्चा की रगड़ के चिह्नही उन पर थे, और न खड्ग की मूठही उन्होंने तब तक स्पर्श की थी-तथापि वे इतनी प्रभावशालिनी थीं कि उन्होंने बड़ी ही योग्यता से पृथ्वी की रक्षा की; इस काम को उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह किया। बात यह है कि तेजस्वियों की वयस नहीं देखी जाती।

जैसे जैसे दिन बीतने लगे वैसेही वैसे सुदर्शन के शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी बढ़ने और पुष्ट होने लगे। यही नहीं, किन्तु, उसके दंश के जो स्वाभा. विक गुण थे वे भी उसमें वृद्धि पाने लगे। थे वे पहले भी, परन्तु सूक्ष्मरूप में थे। वयस की वृद्धि के साथ बढ़ते बढ़ते वे बहुत अधिक हो गये। ये वे गुण थे जिन्हें सब लोग बहुत पसन्द करते थे और जिन्हें देख कर प्रजा प्रसन्न होती थी।

सुदर्शन के अध्यापकों को उसे पढ़ाने में कुछ भी परिश्रम न पड़ा। जो कुछ उसे पढ़ाया जाता उसे वह इतना शीघ्र याद कर लेता जैसे वह पूर्वजन्म का उसका पढ़ा हुआ हो। बस उसका वह स्मरण सा करके हृदयस्थ कर लेता। इस प्रकार, बहुतही थोड़े दिनों में, उसने त्रिवर्ग-अर्थात् धर्म, अर्थ और काम-की प्राप्ति का मूल कारण त्रयी, वार्ता और दण्डनीति नामक तीनों विद्यायें प्राप्त कर ली। यही नहीं, किन्तु अपने बापदादे के प्रजावर्ग और मन्त्रिमण्डल पर भी उसने अपनी सत्ता जमा ली। साधारण शास्त्र-ज्ञान की प्राप्ति के साथ साथ उसने धनुर्विद्या का भी [ ३४५ ]
अच्छा अभ्यास कर लिया। जिस समय वह अपने शरीर के अगले भागअर्थात् छाती-को तान कर, केशकलाप का जूड़ा सिर पर ऊँचा बाँध कर और बायें घुटने को झुका कर धनुष पर बाण चढ़ाता और उसे कान तक खींचता था उस समय उसकी शोभा देखतेही बनती थी।

यथासमय सुदर्शन को नया यौवन प्राप्त हुआ-वह यौवन जो नारियों के नेत्रों को पीने के लिए शहद है, जो मनसिजरूपी वृक्ष का अनुरागरूपी कोमल-पल्लव-धारी फूल है, जो सारे शरीर का बिना गढ़ा हुआ गहना है, और जो भोग-विलास का सर्वोत्तम साधन है।

सुदर्शन के युवा होने पर उसके मन्त्रियों ने सोचा कि अब राजा. का विवाह करना चाहिए, जिसमें उसके विशुद्ध वंश की वृद्धि हो। अतएव उन्होंने सम्बन्ध करने योग्य राजाओं के यहाँ, चारों तरफ, दूतियाँ भेज दी। ढूँढ़ ढूँढ़ कर वे रूपवती राजकन्याओं के चित्र ले आई। उनमें से कई एक को चुन कर मन्त्रियों ने सुदर्शन का विवाह उनसे कराया। विवाह हो जाने पर देखने से मालूम हुआ कि वे राजकुमारियाँ जैसी चित्रों में चित्रित की गई थीं उससे भी अधिक रूपवती थीं। उनके साथ विवाह करने के पहलेही नव-युवक सुदर्शन राजलक्ष्मी और पृथ्वी का पाणिग्रहण कर चुका था। अतएव सुदर्शन के राजमन्दिर में आने पर वे विवाहिता राजकन्यायें लक्ष्मी और पृथ्वी की सौत बन कर रहने लगीं।