रघुवंश/१९—अग्निवर्ण का आख्यान

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उन्नीसवाँ सर्ग।

अग्निवर्ण का आख्यान।

परम शास्त्रज्ञ और जितेन्द्रिय सुदर्शन ने बहुत काल तक राज्य प किया। जब वह बूढ़ा हुआ तब अग्नि के समान तेजस्वी अपने पुत्र अग्निवर्ण को उसने अपना सिंहासन दे दिया और उसका राज्या- भिषेक करके आप नैमिषारण्य को चला गया । वहाँ वह तपस्या करने लगा; परन्तु किसी फल की प्राशा से नहीं। निस्पृह होकर उसने तप में मन लगाया। नैमिषारण्य तीर्थ के जलाशयों में स्नान और आचमन आदि करके उसने अयोध्या की बावलियों को,कुशा- सन बिछी हुई भूमि पर सो कर सुकोमल शैयाओं को, और पत्तों से छाई हुई कुटी में रह कर महलों को भुला दिया ।

पिता का दिया हुआ राज्य पाकर अग्निवर्ण आनन्द से उसका उपभोग करने लगा। उसकी रक्षा के लिए उसे कुछ भी परिश्रम न उठाना पड़ा। बात यह थी कि उसके पिता ने अपने भुज-बल से सारे शत्रुओं को जीत कर अपना राज्य सर्वथा निष्कण्टक कर दिया था। अतएव पृथ्वी को कण्टक-रहित करने के लिए उसके पुत्र अग्निवर्ण को प्रयास करने की आवश्यकता ही न थी। उसका सुखूपूर्वक भोग करना ही उसका एक मात्र काम रह गया था। वह युवा राजा दो चार वर्ष तक तो अपने प्रजापालनरूपी कुलोचित धर्म का निर्वाह करता रहा । तदनन्तर वह काम मन्त्रियों को सौंप कर आप भोग-विलास में लिप्त हो गया।

उसके महलों में दिन रात तबला ठनकने लगा। बड़े बड़े जलसे होने लगे। आज जिस ठाठ-बाट से जलसा हुआ कल इससे दूने ठाठ-बाट से हुआ। नाच-तमाशे और गाने-बजाने ने दिन दुना रात चौगुना रङ्ग जमाया।

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पाँचों इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाले जितने विषय-सुख हैं उनके सेवन में अग्निवर्ण चूर रहने लगा। बिना विषय-सेवा के एक क्षण भी रहना उसके लिए असह्य हो गया। दिन रात वह रनिवास ही में पड़ा रहने लगा।

अपनी प्रजा को अग्निवर्ण बिलकुल ही भूल गया। दर्शन के लिए उत्सुक प्रजा की उसने कुछ भी परवा न की। जब कभी मन्त्रियों ने उस पर बहुत ही दबाव डाला तब, उनके लिहाज़ से, यदि उसने अपनी दर्शनो'त्कण्ठ प्रजा को दर्शन दिया भी तो खिड़की के बाहर सिर्फ अपना एक पैर लटका दिया; मुख न दिखलाया। नखों की लालिमा से विभूषित-बालसूर्य की धूप छुये हुए कमल के समान-उस पैर को ही नमस्कार करके उसके सेवकों को किसी तरह सन्तोष करना पड़ा।

खिले हुए कमलों से परिपूर्ण बावलियों में प्रवेश करके, उसकी रानियों ने, जल-क्रीड़ा करते समय, कमलों को बेतरह झकझोर डाला। उनके साथ वहीं, उन्हीं बावलियों में, बने हुए क्रीड़ा-गृहों में अग्निवर्ण ने आनन्द से जल-विहार किया। जल-क्रीड़ा करने से उसकी रानियों की आँखों में लगा हुआ अञ्जन और ओठों पर लगा हुआ लाख का रङ्ग धुल गया। अतएव उनके मुख अपने स्वाभाविक भाव को पहुँच कर और भी शोभनीय हो गये। उनकी स्वाभाविक सुन्दरता ने अग्निवर्ण को पहले से भी अधिक मोह लिया।

जल-विहार कर चुकने पर अग्निवर्ण ने मद्यपान की ठानी। अतएव, हाथी अपनी हथिनियों को साथ लिये हुए जिस तरह सरोजिनी-समुदाय के पास जाता है उसी तरह वह भी अपनी रानियों को साथ लिये हुए उस जगह गया जहाँ मद्यपान का प्रबन्ध पहले ही से कर रक्खा गया था। वहाँ, एकान्त में, उसने जी भर कर अत्यन्त मादक मद्य पिया। उसने उसके प्याले अपने हाथ से रानियों को भी पिलाये। रानियों ने भी उसे अपने हाथ से मद्य पिला कर उसके प्रेम का पूरा पूरा बदला चुकाया।

अग्निवर्ण ने वीणा बजाने में हद कर दी । वीणा से उसे इतना प्रेम हुआ कि उसने उस मनोहर स्वर वाली को एक क्षण के लिए भी गोद से दूर न होने दिया। वीणा ही क्यों, और बाजे बजाने में भी उसने बड़ी निपुणता दिखाई। जिस समय नर्तकियाँ नाचने-गाने लगतीं उस समय [ ३४८ ]
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वह कण्ठ में पड़ी हुई माला और हाथ में पहना हुआ कङ्कण हिलाते हुए । इस निपुणता और मनोहरतापूर्वक बाजा बजाता कि गति भूली हुई नर्तकियों को, उनके गुरुओं के सामने ही, वह लज्जित कर देता। सङ्गीत-विद्या में वह नर्तकियों से भी बढ़ गया था। अतएव यदि गाने या भाव बताने में उनसे कोई भूल हो जाती तो तुरन्त ही वह उसे पकड़ लेता। गाने और नाचने में नर्तकियों को बहुत परिश्रम पड़ता। उनके मुख पर पसीने के बूँद छा जाते । इससे उनके ललाट पर लगे हुए तिकल धुल जाते । जब वे ' थक कर नाचना बन्द कर देती और बैठ जाती तब उनके तिकल-हीन मुखमण्डल देख कर अग्निवर्ण के आनन्द की सीमा न रहती। उस समय वह अपने को इन्द्र और कुवेर से भी अधिक भाग्यशाली समझता।

धीरे धीरे अग्निवर्ण की भोगलिप्सा बहुत ही बढ़ गई। कभी प्रकट कभी अप्रकट रीति से वह नित नई वस्तुओं की चाह में मग्न रहने लगा। यह बात उसकी रानियों को पसन्द न आई। अतएव वे उससे अप्रसन्न होकर उसके इस काम में विघ्न डालने लगीं। उँगली उठा उठा कर उन्होंने थैउसे धमामा, माह टेढ़ी करके उस पर कुटिल दातों की वर्षा करना और अपनी मेखलाओं से उसे बार बार बाँधना तक प्रारम्भ किया। अग्निवर्ण उन्हें धोखा देकर मनमाने काम करता । इसीसे क्रुद्ध होकर वे उसके साथ ऐसा व्यवहार करती।

उसकी रानियाँ उसके अनुचित बरताव से तङ्ग आ गई । अपने ऊपर राजा का बहुत ही कम प्रेम देख कर उनका हृदय व्याकुलता से व्याप्त हो गया। हाय हाय करती और सखियों से करुणापूर्ण वचन कहती हुई वे किसी तरह अपने दिन बिताने लगीं । यद्यपि अग्निवर्ण कभी कभी, छिप कर, उनकी ये करुणोक्तियाँ सुन लेता था तथापि रानियों के रोने धोने का कुछ भी असर उसके हृदय पर न होता था। नर्तकियों के पास बैठने उठने की उसे ऐसी आदत पड़ गई थी कि यदि रानियों के दबाव के कारण वह उनके पास तक न पहुँच पाता तो घर पर उनकी तसवीर ही खींच कर किसी तरह अपना मनोरञ्जन करता । तसवीर खींचते समय उसकी अँगुलियाँ पसीने से तर हो जातीं। अतएव तसवीर खींचने की शलाका उसके हाथ से गिर पड़ती। परन्तु फिर भी वह इस व्यापार से [ ३४९ ]
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विरत न होता। समझाने, बुझाने और धमकाने से कुछ भी लाभ न होता देख अग्निवर्ण की रानियों ने एक और उपाय निकाला। उन्होंने बनावटी प्रसन्नता प्रकट करके भाँति भाँति के उत्सव आरम्भ कर दिये। इस प्रकार, उत्सवों के बहाने, उन्होंने अग्निवर्ण का बाहर जाना बन्द कर दिया। उन्होंने कहा, लावो इस छली के साथ छल करके ही अपना काम निकालें। बात यह थी कि वे अपनी प्रेम-गर्विता संपनियों से बेहद रुष्ट थीं । इसी से उन्होंने इस प्रकार की धोखेबाज़ी से भी काम निकालना अनुचित न समझा।

रात भर तो वह न मालूम कहाँ रहता; प्रातःकाल घर आता। उस समय उसका रूप-रङ्ग देखते ही उसकी करतूत उसकी रानियों की समझ में आ जाती। तब अग्निवर्ण हाथ जोड़ कर उन्हें मनाने की चेष्टा करता । परन्तु उसकी इस चेष्टा से उनका दुःख कम होने के बदले दूना हो जाता। थै, कभी रात को सोते समय, स्वप्न में, अग्निवर्ण के मुख से उसकी किसी प्रेयसी का नाम निकल जाता तब तो उसकी रानियों के क्रोध का ठिकाना ही न रहता। वे उससे बोलती तो एक शब्द भी नहीं; पर रो रोकर और अपने हाथ के कङ्कण इत्यादि तोड़ तोड़ कर उसका बेतरह तिरस्कार करतीं। यह सब होने पर भी वह अपनी कुचाल न छोड़ता। वह गुप्त लता-कुलों में अपने लिए फूलों की सेजें बिछवाता और वहीं मनमाने भोग-विलास किया करता।

कभी कभी भूल से वह किसी रानी को अपनी किसी प्रेयसी के नाम से पुकार देता। इस पर उस रानी को मर्मभेदी वेदना होती। वह, उस समय, राजा को बड़े ही हृदयदाही व्यङ्गय वचन सुनाती । वह कहती:"जिसका नाम मुझे मिला है यदि उसी का जैसा सौभाग्य भी मुझे मिलता तो क्या ही अच्छा होता !"

प्रातःकाल अग्निवर्ण की शय्या का दृश्य देखते ही बन आता। कहीं उस पर कुमकुम पड़ा हुआ देख पड़ता, कहीं टूटी हुई माला पड़ी देख पड़ती, कहीं मेखला के दाने पड़े देख पड़ते, कहाँ महावर के चिह्न बने हुए दिखाई देते।

कभी कभी मौज में आकर, वह किसी प्रेयसी के पैरों में आप ही [ ३५० ]
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महावर लगाने बैठ जाता। परन्तु मन उसका उसकी रूपराशि और अङ्गशोभा देखने में इतना लग जाता कि महावर अच्छी तरह उससे न लगाते बनता। जिस काम में मन नहीं लगता वह क्या कभी अच्छा बन सकता है ?

अग्निवर्ण ने कुतूहल-प्रियता की हद कर दी। जिस समय उसकी कोई रानी, एकान्त में सामने दर्पण रख कर, अपना मुँह देखती उस समय वह चुपचाप उसके पीछे जाकर बैठ जाता और मुस- कराने लगता । जब उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में दिखाई देता तब बेचारी रानी, लाज के मारे, अपना सिर नीचा करके रह जाती ।

कभी कभी अग्निवर्ण यह बहाना करके बाहर जाने लगता कि इस समय मुझे अपने एक मित्र का कुछ काम करना है। उसके लिए मेरा जाना अत्यावश्यक है। परन्तु उसकी रानियाँ उसकी एक न सुनतीं । वे कहती :"हे शठ ! हम तेरे छल-कपट को खूब जानती हैं । इस तरह अब हम तुझे नहीं भाग जाने देंगी।" यह कह कर वे उसके केश पकड़ कर बलवत् रोक रखतीं । तिस पर भी वह कभी कभी रानियों को धोखा देकर, अँधेरी रात में,निकल ही जाता। जब इस बात की खबर दूतियों द्वारा रानियों को मिलती तब वे भी उसके पीछे दौड़ पड़ती और रास्ते ही से यह कह कर उसे पकड़ लाती कि तू इस तरह हम लोगों को धोखा देकर न जाने पावेगा।

अग्निवर्ण के लिए दिन तो रात हो गई और रात दिन हो गया। दिन भर तो वह सोता और रात भर जागता । अतएव वह चन्द्रविकासी कुमुदों से परिपूर्ण सरोवर की उपमा को पहुँच गया । क्योंकि वे भी दिन को बन्द रहते और रात को खिलते हैं।

जिन गानेवालियों के ओठों और जंघाओं पर व्रण थे उन्हीं से वह कहता कि ओठों पर रख कर बाँसुरी और जङ्घाओं पर रख कर वीणा बजाओ। जब वे उसकी आज्ञा का पालन करती और उसकी इस धूर्तता को लक्ष्य करके वक्रदृष्टि द्वारा उसे रिझातों क्या-उला- हना देती तब वह मन ही मन बहुत प्रसन्न होता।

नाचने-गाने में तो वह प्रवीण था ही । एकान्त में वह कायिक, वाचिक [ ३५१ ]
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और मानसिक-तीनों प्रकार का अभिनय नर्तकियों को सिखाता। फिर मित्रों के सामने वह उनसे वही अभिनय कराता। अभिनय के समय वह बड़े बड़े नाट्याचार्यों को भी बुलाता और उन्हें अभिनय दिखाता। यह बात वह इसलिए करता जिसमें निपुण नाट्याचार्य भी उस अभिनय को देख कर अवाक् हो जाये और उन्हें उन नर्तकियों से हार माननी पड़े। और उनसे हारना मानों उनके गुरु स्वयं अग्निवर्ण से हारना था।

"वर्षा ऋतु आने पर वह उन कृत्रिम पर्वतों पर चला गया जहाँ मतवाले मोर कूक रहे थे। वहाँ पर कुटज और अर्जुन वृक्ष के फूलों की मालाधारण करके और कदम्ब के फूलों के पराग का उबटन लगा कर उसने मनमाना विहार किया। उस समय उसने अपनी मानवती महिलाओं को मनाने की ज़रूरत न समझी। उसने कहा, मनाने का श्रम में व्यर्थ ही क्यों उठाऊँ। बादलों की गर्जना सुनते ही उनका मान आपही आप छूट जायगा।

कातिः क का महीना लगने--शरद ऋतु आने पर उसने चॅदोवा तने हुए महलों में निवास किया और मेघमुक्त उज्ज्वल चाँदनी में हास-विलास करके अपनी आत्मा को कृतार्थ माना। सरयू उसके महलों के पास ही थी। उसके वालुकामय तट पर हंस बैठे हुए थे। अतएव, उसका हंसरूपी करधनीवाला तट नितम्ब के सदृश जान पड़ता था और ऐसा मालूम होता था कि सरयू अग्निवर्ण की प्रियतमाओं के विलास की होड़ कर रही है। अग्निवर्ण उसकी शोभा को अपने महलों की खिड़कियों से देख देख प्रसन्न होता।

जाड़े आने पर अग्निवर्ण ने अपनी प्रियतमाओं को अगर से सुवासित सुन्दर वस्त्र स्वयं धारण कराये। उन्हें पहनने पर उन स्त्रियों की कमरों में सोने की जो मेखलायें पड़ी थीं वे उन वस्त्रों के भीतर स्पष्ट झलकती हुई दिखाई देने लगीं। उन्हें देख कर अग्निवर्ण के आनन्द की सीमा न रही। वह, इस ऋतु में, अपने महलों के भीतरी भाग के कमरों में, जहाँ पवन की ज़रा भी पहुँच न थी, रहने लगा। वहाँ पवन का प्रवेश न होने के कारण, जाड़े की रातों ने, दीपकों की निश्चल-शिखारूपी दृष्टि से, अग्निवर्ण के भोग-विलास को आदि से अन्त तक देखा-देखा क्या मानों उसकी कामुकता की भवाह सी होगई। [ ३५२ ]वसन्त पाने पर दक्षिण दिशा से मलयानिल चलने लगा। उसके चलते ही आम के वृक्ष कुसुमित हो गये। उनकी कोमल-पल्लव-युक्त मञ्जरियों को देखते ही अग्निवर्ण की अबलाओं के मान आपही आप छूट गये। उन्हें अग्निवर्ण का विरह दुःसह होगया। अतएव, वे उलटा अग्निवर्ण को ही मना कर उसे प्रसन्न करने लगीं। तब उसने झूले डला दिये। दासियाँ मुलाने लगी और वह अपनी अबलाओं के साथ झूले का सुख लुटने लगा।

वसन्त बीत जाने पर अग्निवर्ण की प्रियतमाओं ने ग्रीष्म ऋतु के अनुकूल शृङ्गार किया:-उन्होंने शरीर पर चन्दन का लेप लगा कर, मोती टके हुए सुन्दर आभूषण धारण करके, और, मणिजटित मेखलायें कमर में पहन कर, अग्निवर्ण को जी खोल कर रिझाया। अग्निवर्ण ने भी ग्रीष्म के अनुकूल उपचार आरम्भ कर दिये। आम की मञ्जरी डाल कर बनाया हुआ और लाल पाटल के फूलों से सुगन्धित किया हुआ मद्य उसने खुद ही पान किया। अतएव, वसन्त चले जाने के कारण उसके शरीर में जो क्षीणता आ गई थी वह जाती रही और उसके मनोविकार फिर पूर्ववत् उच्छङ्कल हो उठे।

इस प्रकार जिस ऋतु की जो विशेषता थी-जिसमें जैसे आहार-विहार की आवश्यकता थी-उसी के अनुसार अपने अपने शरीर को अलङ्कत और मन को संस्कृत करके उसने एक के बाद एक ऋतु व्यतीत कर दी। इन्द्रियों के सुख-सेवन में वह यहाँ तक लीन हो गया कि और सारे काम वह एकदम ही भूल गया।

अग्निवर्ण के इस दशा को पहुंचने पर भी-उसके इतना प्रमत्त होने पर भी-दूसरे राजा लोग, अग्निवर्ण के प्रबल प्रभाव के कारण, उसे जीत न सके। परन्तु रोग उस पर अपना प्रभाव प्रकट किये बिना न रहा। अत्यन्त विषय-सेवा करते करते उसे क्षय-रोग हो गया। दक्ष के शाप से क्षीण हुए चन्द्रमा की तरह अग्निवर्ण को उस रोग ने क्षोण कर दिया। जब वैद्यों ने राजा के शरीर में रोग का प्रादुर्भाव देखा तब उन्होंने उसे बहुत कुछ समझाया बुझाया। परन्तु उसने उनकी एक न सुनी। कामोद्दीपक वस्तुओं के दोषों को जान कर भी उसने उनको न छोड़ा। बात यह है कि जब इन्द्रियाँ सुस्वादु विषयों के वशीभूत हो जाती हैं तब उन्हें छोड़ना कठिन [ ३५३ ]
हो जाता है। अग्निवर्ण की कामुकता का फल यह हुआ कि राज. यक्ष्मा, अर्थात् क्षय-रोग, ने अपना बड़ा ही भीषण रूप प्रकट किया। उसका मुँह पीला पड़ गया। शरीर पर धारण किये हुए दो एक छोटे छोटे आभूषण भी बोझ मालूम होने लगे। स्वर धीमा हो गया। बिना दूसरे के सहारे चार कदम भी चलना कठिन हो गया। सारांश यह कि कामियों, की जैसी दशा होनी चाहिए वैसीही दशा उसकी हो गई। अग्निवर्ण के इस प्रकार उग्र राज-रोग से पीड़ित होने पर उसका वंश विनाश की सीमा के बहुत ही पास पहुँच गया। वह चौदस के चन्द्रमावाले आकाश के समान, अथवा कीच मात्र बचे हुए ग्रीष्म के अल्प जलाशय के समान, अथवा नाम मात्र को जलती हुई ज़रा सी बत्तीवाले दीपक के समान होगया।

राजा की बीमारी की सुगसुग प्रजा को लग चुकी थी। अतएव, मन्त्री लोग डरे कि कहीं ऐसा न हो जो राजा को मर गया समझ प्रजा उपद्रव मचाने लगे। यह सोच कर उन्होंने राजा के उग्र रोग का सच्चा हाल यह कह कर प्रति दिन प्रजा से छिपाया कि राजा इस समय पुत्र के लिए एक यज्ञ कर रहा है; इसीसे वह प्रजा को दर्शन नहीं देता।

अग्निवर्ण के यद्यपि अनेक रानियाँ थीं तथापि उसे पवित्र सन्तति का मुख देखने को न मिला। एक भी रानी से उसे सन्तति की प्राप्ति न हई। उधर उसका रोग दिन पर दिन बढ़ता ही गया। वैद्यों ने यद्यपि रोग दूर करने के यथाशक्ति बहुत उपाय किये तथापि उनका सारा परिश्रम व्यर्थ गया। दीपक जैसे प्रचण्ड पवन के झकोरे को नहीं जीत सकता वैसेही अग्निवर्ण भी अपने रोग को न जीत सका। रोग ने उसके प्राण लेकर ही कल की। तब मन्त्री लोग राजा के शव को महलों के ही उद्यान में ले गये और मृतक-कर्म के ज्ञाता पुरोहित को बुला भेजा। वहीं उन्होंने उसे चुपचाप जलती हुई चिता पर रख दिया और प्रजा से यह कह दिया कि राजा की रोगशान्ति के लिए उद्यान में एक अनुष्ठान हो रहा है।

तदनन्तर, मन्त्रियों को मालूम हुआ कि अग्निवर्ण की प्रधान रानी गर्भवती है। अतएव, उन्होंने प्रजा के मुखियों को बुलवाया। उन्होंने भी रानी को शुभ गर्भ के लक्षणों से युक्त पाया। तब सबने एकमत होकर [ ३५४ ]
रानी को ही राज्य का अधिकार दे दिया-उसीको राजलक्ष्मी सौंप दी। वंश की विधि के अनुसार रानी का तुरन्त ही राज्याभिषेक हुआ। राजा की मृत्यु के कारण रानी की आँखों से गिरे हुए विपत्ति के उष्ण अाँसुओं से जो गर्भ तप गया था उसे, राज्याभिषेक के समय, कनक-कलशों से छूटे हुए शीतल जल ने ठंढा कर दिया।

रानी की प्रजा बड़े चाव से उसके प्रसव-काल की राह देखने लगी। रानी भी अपने गर्भ को --पृथ्वी जैसे सावन के महीने में बोये गये वीजांकुर को धारण करती है-प्रजा के वैभव और कल्याण के लिए, बड़े यत्न से कोख में धारण किये रही; और, सोने के सिंहासन पर बैठी हुई, बूढ़े बूढ़े मन्त्रियों की सहायता से, अपने पति के राज्य का विधिपूर्वक शासन भी करती रही। उसने इस योग्यता से शासन कार्य किया कि उसकी आज्ञा उल्लङ्घन करने का कभी किसी को भी साहस न हुआ।