रघुवंश/१—सन्तान-प्राप्ति के लिए राजा दिलीप का वशिष्ठ के आश्रम को जाना

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रघुवंश।

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पहला सर्ग।

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सन्तान-प्राप्ति के लिए राजा दिलीप का वशिष्ठ के आश्रम को जाना।

जिस तरह वाणी और अर्थ एक दूसरे को छोड़ कर कभी अलग अलग नहीं रहते उसी तरह संसार के माता-पिता, पार्वती और परमेश्वर भी, अलग अलग नहीं रहते; सदा साथ ही साथ रहते हैं। इसीसे मैं उनको नमस्कार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे शब्दार्थ का अच्छा ज्ञान हो जाय। मुझमें लिखने की शक्ति भी आ जाय और जो कुछ मैं लिखू वह सार्थक भी हो-मेरे प्रयुक्त शब्द निरर्थक न हों। इस इच्छा को पूर्ण करने वाला उमा-महेश्वर से बढ़ कर और कौन हो सकता है? यही कारण है जो मैं और देवताओं को छोड़ कर इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में उन्हीं की वन्दना करता हूँ।

प्रत्यक्ष सूर्य से उत्पन्न हुआ सूर्य-वंश कहाँ? और, अज्ञान से घिरी हुई मेरी बुद्धि कहाँ? सूर्य-वंश इतना विशाल और मेरी बुद्धि इतनी अल्प! दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। एक छोटी सी डोंगी पर सवार होकर महासागर को पार करने की इच्छा रखने वाले मूढमति मनुष्य का साहस जिस प्रकार उपहासास्पद होता है, ठीक उसी प्रकार सूर्य वंश का वर्णन करने के विषय में मेरा साहस भी उपहासास्पद है। [ ५५ ]मन्द-मति होकर भी बड़े बड़े कवियों को मिलने वाली कीति पाने की मैं इच्छा कर रहा हूँ। फिर भला क्यों न मेरा उपहास हो ? ऊँचा-पूरा मनुष्य ही जिस फल को हाथ से तोड़ सकता है, लोभ के वशीभूत होकर उसी को तोड़ने के लिए यदि बावन अंगुल का एक बौना आदमी अपना हाथ ऊपर को उठावे तो देखने वाले अवश्य ही उसकी हँसी करेंगे। मेरा भी हाल ठीक ऐसे ही बौने का जैसा है। तथापि एक बात अवश्य है। देखिए, धागा बहुत ही पतला और नाजुक होता है और मणि महा कठिन। तथापि हीरे की सुई के द्वारा मणियों में छेद किये जाने पर उनके भीतर भी धागे का सहज ही में प्रवेश हो जाता है। इसी तरह वाल्मीकि आदि प्राचीन कवियों ने बड़े बड़े प्रन्थों में जो इस वंश का पहले ही से वर्णन कर रक्खा है वह इस वंश-वर्णन में मुझे बहुत काम देगा। उसकी बदौ- लत मैं इसमें उसी तरह प्रवेश प्राप्त कर सकूँगा जिस तरह कि हीरे की सुई से छेदे गये रत्नों में धागे को प्रवेश प्राप्त हो जाता है। मुझे विश्वास है कि प्राचीन कवियों की रचना की सहायता से मैं भी, किसी न किसी तरह, इस वंश का वर्णन कर ले जाऊँगा।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरी वाणी में बहुत ही थोड़ी शक्ति है। तथापि प्राचीन कवियों के ग्रन्थों की सहायता से रघुवंशियों के वंश-वर्णन में जो मैं प्रवृत्त हुआ हूँ उसका कारण इस वंश के राजाओं के गुण ही हैं। यदि उनके गुणों को सुन कर मैं मुग्ध न हो जाता तो मैं ऐसा अनुचित साहस करने के लिए कभी तैयार भी न होता। रघुवंशियों में अनेक गुण हैं। यथा:--

रघु-कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों के गर्भाधान आदि सब संस्कार उचित समय में होने के कारण वे जन्म से ही शुद्ध हैं। जिस काम का वे प्रारम्भ करते हैं उसे पूरा किये बिना नहीं छोड़ते। समुद्र के तटों तक सारी पृथ्वी के वे स्वामी हैं। उनके रथों की गति का रोकने वाला त्रैलोक्य में कोई नहीं। स्वर्ग-लोक तक वे आनन्द-पूर्वक अपने रथों पर बैठे हुए जा सकते हैं। वे यथा-शास्त्र अग्नि की सेवा करते हैं; याचकों के मनोरथ पूर्ण करते हैं; अपराध के अनुसार अपराधियों को दण्ड देते हैं; समय का मूल्य जानते हैं; सत्पात्रों को दान करने ही के लिए धन का संग्रह करते हैं। कहीं मुँह [ ५६ ]
से असत्य न निकल जाय, इसी डर से वे थोड़ा बोलते हैं। कीर्ति की प्राप्ति के लिए ही वे दिग्विजय और सन्तान की प्राप्ति के लिए ही वे गृहस्थाश्रम को स्वीकार करते हैं। वाल्यावस्था में ब्रह्मचर्य का पालन करके वे विद्याभ्यास करते हैं; युवावस्था प्राप्त होने पर विवाह करके विषयों का उपभोग करते हैं, वृद्धावस्था पाने पर वन में जाकर वानप्रस्थ हो जाते हैं; और, अन्तकाल उपस्थित होने पर समाधिस्थ होकर योगद्वारा शरीर छोड़ देते हैं।

सज्जन ही गुण-दोषों का अच्छी तरह विवेचन कर सकते हैं। अतएव वे ही मेरे इस रघुवंश-वर्णन को सुनने के पात्र हैं, और कोई नहीं। क्योंकि, सोना खरा है या खोटा, इसकी परीक्षा उसे आग में डाल कर तपाने ही से हो सकती है।

वेदों में ओङ्कार के समान सब से पहला राजा वैवस्वत नाम का एक प्रसिद्ध मनु हो गया है। बड़े बड़े विद्वान तक उसका सम्मान करते थे। उसी वैवस्वत मनु के पवित्र वंश में, क्षीर-सागर में चन्द्रमा के समान, नृपश्रेष्ठ दिलीप नाम का एक राजा हुआ। उसकी छाती बेहद चौड़ी थी। उसके कन्धे बैल के कन्धों के सदृश थे। ऊँचाई उसकी साल वृक्ष के समान थी। भुजायें उसकी नीचे घुटनों तक पहुँचती थीं। शरीर उसका सशक्त और नीरोग--अतएव सब तरह के काम करने योग्य था। क्षत्रियों का वह मूर्तिमान धर्म था। जिस तरह उसका शरीर सब से ऊँचा था उसी तरह बल भी उसमें सब से अधिक था। यही नहीं, तेजस्वियों में भी वह सब से बढ़ा चढ़ा था। इस प्रकार के उस राजा ने, सुमेरु-पर्वत की तरह, सारी पृथ्वी पर अपना अधिकार जमा लिया था।

जैसा उसका डील डौल था, वैसी ही उसकी बुद्धि भी थी। जैसी उसकी बुद्धि थी, शास्त्रों का अभ्यास भी उसने वैसा ही विलक्षण किया था। शास्त्राभ्यास उसका जैसा बढ़ा हुआ था, उद्योग भी उसका वैसा ही अद्भुत था। और, जैसा उसका उद्योग था, कार्यों में फल-प्राप्ति भी उसकी वैसी ही थी।

समुद्र में महाभयङ्कर जल-जन्तु रहते हैं। इससे लोग उसके पास जाते डरते हैं। परन्तु साथही इसके उसमें अनमोल रत्न भी होते हैं; इससे [ ५७ ]
प्रसन्नतापूर्वक लोग उसका आश्रय भी स्वीकार करते हैं। राजा दिलीप भी ऐसे ही समुद्र के समान था। उसके शौर्य, वीर्य आदि गुणों के कारण उसके आश्रित जन उससे डरते भी रहते थे और उसके दयादाक्षिण्य आदि गुणों के कारण उस पर प्रीति भी करते थे।

सारथी अच्छा होने से जैसे रथ के पहिए पहले के बने हुए मार्ग से एक इञ्च भी इधर उधर नहीं जाते उसी तरह, प्रजा के प्राचार का उपदेष्टा होने के कारण उसकी प्रजा वैवस्वत मनु के समय से चली आने वाली आचार-परम्परा का एक तिल भर भी उल्लङ्घन नहीं कर सकती थी। अपने उपदेशों और आज्ञाओं के प्रभाव से राजा दिलीप ने अपनी प्रजा को पुराने आचार-मार्ग से ज़रा भी भ्रष्ट नहीं होने दिया। प्रजा के ही कल्याण के निमित्त वह उससे कर लेता था--सूर्य जो पृथ्वी के ऊपर के जल को अपनी किरणों से खींच लेता है वह अपने लिए नहीं; उसे वह हज़ार गुना अधिक करके फिर पृथ्वी ही पर बरसा देने के लिए खींचता है। पृथ्वी ही के कल्याण के लिए वह उसके जल का आकर्षण करता है, अपने कल्याण के लिए नहीं।

वह राजा इतना पराक्रमी और इतना शूरवीर था कि सेना से काम लेने की उसे कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ती थी। छत्र और चामर आदि राज-चिह्न जैसे केवल शोभा के लिए वह धारण करता था वैसे ही सेना को भी वह केवल राजसी ठाठ समझ कर रखता था। उसके पुरुषार्थ के दो ही साधन थे—एक तो प्रत्येक शास्त्र में उसकी अकुण्ठित बुद्धि; दूसरे उसके धनुष पर जब देखो तब चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा अर्थात् डोरी। इन्हीं दो बातों में उसका सारा पुरुषार्थ खर्च होता था। उसके चढ़े हुए धनुष को देख कर ही उसके वैरी कॉपा करते थे। अतएव कभी उसे युद्ध करने का मौका ही न पाता था। इसीसे उसका प्रायः सारा समय शास्त्राध्ययन में ही व्यतीत होता था।

जो काम वह करना चाहता था उसे वह गुप्त रखता था, अपने विचारों को वह पहले से नहीं प्रकट कर देता था। अपने हर्ष-शोक आदि विकारों को भी वह अपने चेहरे पर परिस्फुट नहीं होने देता था। उसकी क्रियमाण बातें और आन्तरिक इच्छायें मन की मन ही में रहती थीं। पूर्व जन्म के [ ५८ ]
संस्कारों की तरह जब उसका अभीष्ट कार्य सफल हो जाता था तब कहीं लोगों को इसका पता चलता था कि इस राजा के अमुक कार्य का कभी प्रारम्भ भी हुआ था।

धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का नाम त्रिवर्ग है। इनका साधन एक मात्र शरीर ही है। शरीर के बिना इनकी सिद्धि नहीं हो सकती। यही सोच कर वह निर्भयतापूर्वक अपने शरीर की रक्षा करता था। बिना किसी प्रकार के क्लेश या दुःख का अनुभव किये ही वह धर्माचरण में रत रहता था। बिना ज़रा भी लोभ की वासना के वह धनसञ्चय करता था। और, बिना कुछ भी आसक्ति के वह सुखोपभोग करता था।

दूसरे की गुप्त बातें जान कर भी वह चुप रहता था, कभी मर्म भाषण न करता था। यद्यपि हर प्रकार का दण्ड देने की उसमें शक्ति थी, तथापि क्षमा करना उसे अधिक पसन्द था-परकृत अपराधों को वह चुपचाप सहन कर लेता था। यद्यपि वह बड़ा दानी था, तथापि दान देकर कभी उस बात को अपने मुँह से न निकालता था। ये ज्ञान, मान आदि गुण यद्यपि परस्पर विरोधी हैं तथापि उस राजा में ये सारे के सारे सगे भाई की तरह वास करते थे।

अपनी प्रजा को वह सन्मार्ग में लगाता था, भय से उनकी सदा रक्षा करता था; अन्न-वस्त्र आदि देकर उनका पालन पोषण करता था। अतएव प्रजा का वही सच्चा पिता था। प्रजाजनों के पिता केवल जन्म देने वाले थे। जन्म देने ही के कारण वे पिता कहे जा सकते थे और किसी कारण से नहीं।

सब लोगों को शान्तिपूर्वक रखने ही के लिए वह अपराधियों को दंड देता था, किसी लोभ के वश होकर नहीं। एक मात्र सन्तान के लिए ही वह विवाह की योजना करता था, विषयोपभोग की वासना से नहीं। अतएव उस धर्मज्ञ राजा के अर्थ और काम-ये दोनों पुरुषार्थ भी धर्म ही का अनुसरण करने वाले थे। धर्म ही को लक्ष्य मान कर वह इन दोनों की योजना करता था।

राजा दिलीप ने यज्ञ ही के निमित्त पृथ्वी को, और इन्द्र-देवता ने धान्य ही की उत्पत्ति के निमित्त आकाश को, दुहा। इस प्रकार उन दोनों ने अपनी [ ५९ ]
अपनी सम्पत्ति का बदला करके पृथ्वी और स्वर्गलोक, दोनों, का पालन किया। अर्थात् यज्ञ करने में जो खर्च पड़ता है उसकी प्राप्ति के लिए ही राजा ने कर लेकर पृथ्वी को दुहा-उसे खाली कर दिया। उधर उसके किये हुए यज्ञों से प्रसन्न होकर इन्द्र ने पानी बरसा कर पृथ्वी को धान्यादि से फिर परिपूर्ण कर दिया।

धर्मपूर्वक प्रजापालन करने से उसे जो यश प्राप्त हुआ उसका अनुकरण और किसी से न करते बना--उसके सदृश प्रजापालक राजा और कोई न हो सका। उस समय उसके राज्य में कभी, एक बार भी, चोरी नहीं हुई। चौर-कर्म का सर्वथा अभाव होगया। 'चोरी' शब्द केवल कोश में ही रह गया।

ओषधि कड़वी होने पर भी रोगी जिस तरह उसका आदर करता है उसी तरह उस राजा ने शत्रुता करने वाले भी सज्जनों का आदर किया। और, कुमार्ग से जानेवाले मित्रों का भी, साँप से काटे गये अँगूठे के समात, तत्काल ही परित्याग किया। भलों ही का वह साथी बना; बुरों को कभी उसने अपने पास तक नहीं फटकने दिया।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-इन पाँचों तत्वों का नाम पञ्च महाभूत है। जिस सामग्री से ब्रह्मा ने इन पाँच महाभूतों को उत्पन्न किया है, जान पड़ता है, उन्हीं से उसने उस राजा को भी उत्पन्न किया था। क्योंकि, पाँच महाभूतों के शब्द, स्पर्श आदि गुणों की तरह उसके भी सारे गुण दूसरों ही के लाभ के लिए थे। जो कुछ वह करता था सदा परोपकार का ध्यान रख कर ही करता था। समुद्र-पर्यन्त फैली हुई इस सारी पृथ्वी का अकेला वही एक सार्वभौम राजा था। उसका पालन और रक्षण वह बिना किसी प्रयास या परिश्रम के करता था। उसके लिए यह विस्तीर्ण धरणी एक छोटी सी नगरी के समान थी।

यज्ञावतार विष्णु भगवान की पत्नी दक्षिणा के समान उसकी भी पत्नी का नाम सुदक्षिणा था। वह मगधदेश के राजा की बेटी थी। उसमें दाक्षिण्य, अर्थात् उदारता या नम्रता, बहुत थी। इसीसे उसका नाम सुदक्षिणा था। यद्यपि राजा दिलीप के और भी कई रानियाँ थीं, तथापि उसके मन के अनुकूल बर्ताव करने वाली सुदक्षिणा ही थी। इसीसे वह [ ६० ]
एक तो उसे और दूसरी राज्यलक्ष्मी को ही अपनी सच्ची रानियाँ समझता था। राजा की यह हृदय से इच्छा थी कि अपने अनुरूप सुदक्षिणा रानी के एक पुत्र हो। परन्तु दुर्दैववश बहुत काल तक उसका यह मनोरथ सफल न हुआ। इस कारण वह कुछ उदास रहने लगा। इस प्रकार कुछ समय बीत जाने पर उसने यह निश्चय किया कि सन्तान की प्राप्ति के लिए अब कुछ यत्न अवश्य करना चाहिए। यह विचार करके उसने प्रजापालनरूपी गुरुतर भार अपनी भुजाओं से उतार कर अपने मन्त्रियों के कन्धों पर रख दिया। मन्त्रियों को राज्य का कार्य सौंप कर भार्थ्या-सहित उसने ब्रह्मदेव की पूजा की। फिर उन दोनों पवित्र अन्तःकरण वाले राजा-रानी ने, पुत्र प्राप्ति की इच्छा से, अपने गुरु वशिष्ठ के आश्रम को जाने के लिए प्रस्थान कर दिया।

एक बड़े ही मनोहर रथ पर वह राजा अपनी रानी-सहित सवार हुआ। उसके रथ के चलने पर मधुर और गम्भीर शब्द होने लगा। उस समय ऐसा मालूम होता था मानों वर्षा-ऋतु के सजल मेघ पर बिजली कों लिये हुए अभ्र मातङ्ग ऐरावत सवार है। उसने अपने साथ यह सोच कर बहुत से नौकर चाकर नहीं लिये कि कहीं उनके होने से ऋषियों के आश्रमों को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचे। परन्तु वे दोनों राजा-रानी इतने तेजस्वी थे कि तेजस्विता के कारण बिना सेना के भी वे बहुत सी सेना से घिरे हुए मालूम होते थे। इस प्रकार जिस समय वे मार्ग में चले जा रहे थे उस समय शरीर से छ जाने पर विशेष सुख देनेवाला, शाल-वृक्षों की सुगन्धि और वन के फूलों के पराग को अपने साथ लाने वाला और जड़ली वृक्षों के पत्तों और टहनियों को हिलानेवाला शीतल, मन्द और सुगन्धिपूर्ण पवन उनकी सेवा सी करता चलता था। रथ के गम्भीर शब्द को सुन कर मयूरों को यह धोखा होता था कि यह रथ के पहियों की ध्वनि नहीं, किन्तु मेघों की गर्जना है। इससे वे अत्यन्त उत्कण्ठित होकर और गर्दन को ऊँची उठा कर आनन्दपूर्वक "केका” (मयूर की बोली) करते थे। उन षडज-स्वर के समान मनोहर केका-ध्वनि को सुनते हुए वे दोनों चले जाते थे। राजा को देख कर हिरनों और हिरनियों के हृदय में ज़रा भी भय का सञ्चार न होता था। उन्हें विश्वास सा था [ ६१ ]
कि राजा उन्हें नहीं मारेगा। इस कारण बड़े कुतूहल से वे मृग, मार्ग के पास आकर, रथ की तरफ़ एकटक देखने लगते थे। ऐसा दृश्य उपस्थित होने पर सुदक्षिणा तो मृगों और राजा के नेत्रों के सादृश्य पर आश्चर्य करने लगती थी और राजा मृगियों और सुदक्षिणा के नेत्रों के सदृश्य पर। उस समय सारस पक्षियों का समूह पंक्ति बाँध कर राजा के मस्तक के ऊपर उड़ता हुआ जाता था। इससे ऐसा मालूम होता था कि वह सारसों की पंक्ति नहीं, किन्तु पूजनीय पुरुषों की शुभागमनसूचक माङ्गलिक पुष्प-माला किसी ने, आसमान में, बिना खम्भों के बाँध दी है। उन पक्षियों के श्रुति-सुखद शब्दों को बारबार सिर ऊपर उठा कर वे सुनते थे। जिस दिशा की ओर वे जा रहे थे, पवन भी उसी दिशा की ओर चल रहा था। वायु की गति उनके लिए सर्वथा अनुकूल थी। इससे यह सूचित होता था कि उन दोनों का मनोरथ अवश्य ही सिद्ध होगा। वायु अनुकूल होने से घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल भी आगे ही को जाती थी। न रानी की पलकों ही को वह छू जाती थी और न राजा की पगड़ी ही को। सरोवरों के जल की लहरों के स्पर्श से शीतल हुए, अपने श्वास के समान अत्यन्त सुगन्धित, कमलों का सुवास प्राप्त होने से, मार्ग का श्रम उन्हें ज़रा भी कष्टदायक नहीं मालूम होता था।

राजा दिलीप ने याज्ञिक ब्राह्मणों के निर्वाह के लिए न मालूम कितने गाँव दान किये थे। उनमें वध्य पशुओं के बाँधने के लिए गाड़े गये यूप नामक खूटे यह सूचित करते थे कि याज्ञिक ब्राह्मणों ने, समय समय पर, वहाँ अनेक यज्ञ किये हैं। ऐसे गाँवों में जब रानी सहित राजा पहुँचता था तब वह ब्राह्मणों की सादर पूजा करता था, जिससे प्रसन्न होकर वे लोग राजा को अवश्यमेव सफल होनेवाले आशीर्वाद देते थे।

अब लोग यह सुनते थे कि राजा इस रास्ते से जा रहा है तब बूढ़े बूढ़े गोप ताज़ा मक्खन लेकर उसे भेंट देने आते थे। उन लोगों की भेंट स्वीकार करके राजा उनसे मार्गवर्ती जङ्गली पेड़ों के नाम पूँछ पूँछ कर उन पर अपना अनुराग प्रकट करता था।

शीतकाल बीत जाने पर वसन्तऋतु में चित्रा नक्षत्र और चन्द्रमा का योग होने से जैसी दर्शनीय शोभा होती है, वैसी ही शोभा जङ्गल की [ ६२ ]
राह से जानेवाले और अत्यन्त देदीप्यमान शुद्ध वेषवाले सुदक्षिणा-सहित उस राजा की हो रही थी। वनवर्ती मार्ग में जो जो चीजें देखने योग्य थीं उनको वह राजा अपनी रानी को दिखाता जाता था। इस कारण ज्ञाञाता होने पर भी उसे इस बात का ज्ञान ही नहीं हुआ कि कितना मार्ग में चल पाया और कितना अभी और चलने को है। उसके शरीर की शोभा ऐसी दिव्य थी कि जो लोग उसे मार्ग में देखते थे उन्हें बड़ा ही आनन्द होता था। उसके यश की सीमा ही न थी; औरों के लिए उतने यश का पाना सर्वथा दुर्लभ था। चलते चलते उसके घोड़े तो थक गये; परन्तु मार्ग के मनोहर दृश्य देखने और अपनी रानी से बात-चीत करते रहने के कारण उसे मार्ग-जनित कुछ भी श्रम न हुआ। इस प्रकार चलते चलते सायङ्काल वह अपनी रानी-सहित परम तपस्वी महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में जा पहुँचा।

वशिष्ठ-ऋषि का वह आश्रम बहुत ही मनोरम और पवित्र था। अनेक वनों में घूम फिर कर समिध, कुश और फल-फूल लिये हुए जब आश्रमवासी तपस्वी आश्रम को लौटते थे तब उनकी अभ्यर्थना तीनों प्रकार के अग्नि- दक्षिण, गार्हपत्य और आहवनीय-अदृश्य रूप से करते थे। ऐसे तपस्वियों से वह आश्रम भरा हुआ था। आश्रम की मुनि-पत्नियों ने बहुत से हिरन पाल रक्खे थे। उन पर ऋषि-पत्नियों का इतना प्रेम था और वे उनसे इतने हिल गये थे कि मुनियों की पर्णशालाओं का द्वार रोक कर वे खड़े हो जाया करते थे। जब तक ऋषियों की पत्नियाँ साँवा और कोदों के चावल उन्हें खाने को न दे देती थीं तब तक वे वहीं द्वार पर खड़े रहते थे। वे उनका उतना ही प्यार करती थीं जितना कि अपनी निज की सन्तति का करती थीं। आश्रम में ऋषियों ने बहुत से पौधे लगा रक्खे थे। उन्हें सींचने का काम मुनि-कन्याओं के सिपुर्द था। वे कन्यायें पौधों के थाले में पानी डाल कर तुरन्त ही वहाँ से दूर हट जाती थीं, जिसमें आस पास के पक्षी वह पानी आनन्द से पी सके। उन्हें किसी प्रकार का डर न लगे-विश्वस्त और निःशङ्क होकर वे जलपान करें। वहाँ ऋषियों की जो पर्णशालायें थीं उनके अग्रभाग में जब तक धूप रहती थी तब तक ऋषियों का भोजनोपयोगी तृण-धान्य सूखने के लिए डाल रक्खा जाता [ ६३ ]
था। धूप चली जाने पर वह सब धान्य वहीं आँगन में एक जगह एकत्र कर दिया जाता था। उसी धान्य के ढेर के पास बैठे हुए हिरन आनन्द से पागुर किया करते थे। आश्रम के यज्ञ-कुण्डों से जो धुआँ निकलता था वह सर्वत्र फैल कर दूर दूर तक मानों सबको यह सूचना देता था कि यहाँ यज्ञ हो रहा है। जिन अनेक प्रकार के सुगन्धित पदार्थों की आहुतियाँ दी जाती थीं उनकी सुगंध चारों ओर धुयें के साथ फैल जाती थी। उस आश्रम को आनेवाले अतिथि उस धुयें के स्पर्श से पवित्र हो जाते थे।

आश्रम में पहुँच जाने पर राजा ने सारथि को आज्ञा दी कि रथ से घोड़ों को खोल कर उन्हें आराम करने दो। तदनन्तर रानी सुदक्षिणा को उसने रथ से उतारा। फिर वह आप भी रथ से उतर पड़ा। प्रजा का पुत्रवत् पालन करने के कारण परम-पूजनीय और नीति-शास्त्र में परम निपुण उस रानी सहित राजा दिलीप के पहुँचते ही आश्रम के बड़े बड़े सभ्यों और जितेन्द्रिय तपस्वियों ने उसका सप्रेम आदर-सत्कार किया।

सायङ्कालीन सन्ध्यावन्दन, अग्निहोत्र, हवन आदि धार्मिक कृत्य कर चुकने पर उस राजा ने, पीछे बैठी हुई अपनी पत्नी अरुन्धती के सहित उस तपोनिधि ऋषि को आसन पर बैठे हुए देखा। उस समय ऋषि और ऋषि-पत्नी दोनों ऐसे शोभायमान हो रहे थे जैसे स्वाहा नामक अपनी भार्या के सहित अग्निदेव शोभायमान होते हैं। दर्शन होते ही मगध नरेश की कन्या रानी सुदक्षिणा और दिलीप ने महर्षि वशिष्ठ और उनकी पत्नी अरुन्धती के पैर छुए। इस पर उन दोनों पति-पत्नी ने राजा और रानी को आशीर्वाद देकर उनका सत्कार किया। रथ पर सवार होकर इतनी दूर आने से राजा को जो परिश्रम हुआ था वह महर्षि वशिष्ठ के आतिथ्य- सत्कार से जाता रहा। राज्य-रूपी आश्रम के महामुनि उसे राजा को शान्त-श्रम देख कर ऋषि ने उसके राज्य के सम्बन्ध में कुशल-समाचार पूँछे। ऋषि का प्रश्न सुन कर शत्रुओं के नगरों के जीतने वाले और बातचीत करने में परम कुशल उस राजा दिलीप ने अथर्व-वेद के वेत्ता अपने कुलगुरु वशिष्ठ के सामने नम्र होकर नीचे लिखे अनुसार सार्थक भाषण प्रारम्भ किया:-

"हे गुरुवर! आप मेरी दैवी और मानुषी आदि सभी आपत्तियों के [ ६४ ]
नाश करने वाले हैं। फिर भला मेरे राज्य में सब प्रकार कुशल क्यों न हो ? मैं, मेरे मन्त्री, मेरे मित्र, मेरा खज़ाना, मेरा राज्य, मेरे किले और मेरी सेना-सब अच्छी दशा में हैं। शस्त्रास्त्र-मन्त्रों के प्रयोग में आप सब से अधिक निपुण हैं। उन मन्त्रों की बदौलत, बिना आँख से देखे, दूर ही से, आपने मेरे शत्रुओं का नाश कर दिया ह। इस दशा में आँख से देखे गये निशाने पर लगने वाले मेरे ये बाण व्यर्थ से हो रहे हैं। उनका सारा काम तो आपकी कृपाही से हो जाता है। मेरी मानुषी आपत्तियों का तो नाश आपने इस प्रकार कर दिया है। रही दैवी आपत्तियां, सो उनका भी यही हाल है। हे गुरुवर! यज्ञ करते समय होता, अर्थात वनकर्ता, बन कर अग्नि में घृत आदि हवन सामग्री की जो आप विधिवत हुतियाँ देते हैं वही वृष्टि-रूप हो कर सूखते हुए सब प्रकार के धान्यों का पोषण करती हैं। मेरे जितने प्रजा-जन हैं उनमें से किसी को भी अकालमृत्यु नहीं आती। वे सब अपनी पूरी आयु तक जीवित रहते हैं। रोग आदि पीड़ा कभी किसी को नहीं सताती। अति-वृष्टि और अनावृष्टि से भी किसी को भय नहीं। इन सब का कारण केवल आपकी तपस्या और आपका वेदाध्ययन-सम्बन्धी तेज है। जब प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव के पुत्र आपही मेरे कुल-गुरु हैं और जब आप स्वयं ही मेरे कल्याण के लिए निरन्तर चेष्टा करते रहते हैं तब फिर क्यों न सारी आपदायें मुझसे दूर रहें और क्यों न मेरी सम्पदाओं की सदा वृद्धि होती रहे ?

"किन्तु, आपकी बधू इस सुदक्षिणा के अब तक कोई आत्मकुलोचित पुत्र नहीं हुआ। अतएव द्वीप-द्वीपान्तरों के सहित यह रत्न-गर्भा पृथ्वी मुझे अच्छी नहीं लगती-वह मेरे लिए सुखदायक नहीं। क्योंकि, जितने रत्न हैं सब में पुत्र-रत्न ही श्रेष्ठ है।

"निर्धन और सञ्चयशील मनुष्य वर्तमान काल में किसी प्रकार अपना

निर्वाह कर के भविष्यत् के लिए धन-संग्रह करने की सदा चेष्टा करते हैं। मेरे पितरों का हाल भी, इस समय, ऐसेही मनुष्यों के सदृश हो रहा है। वे देखते हैं कि मेरे अनन्तर उनके लिए पिण्ड-दान देने वाला, मेरे कुल में, कोई नहीं। इस कारण मेरे किये हुए श्राद्धों में वे यथेष्ट भोजन नहीं करते। श्राद्ध के समय उच्चारण किये गये स्वधा-शब्द के संग्रह करनेही में वे अधिक [ ६५ ]
१२
रघुवंश।

लगे रहते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं कि श्राद्ध में जो अन्न मैं उन्हें देता हूँ वह यदि सारा का सारा ही वे खा डालेंगे तो आगे उन्हें कहाँ से अन्न मिलेगा। अतएव, इसी में से थोड़ा थोड़ा संग्रह कर के आगे के लिए रख छोड़ना चाहिए । इसी तरह,तर्पण करते समय जब मैं पितरों को जलाञ्जलि देता हूँ तब उन्हें यह खयाल होता है कि हाय ! दिलीप की मृत्यु के अनन्तर यह जल हम लोगों के लिए सर्वथा दुर्लभ हो जायगा। यह सोचते समय उन्हें बड़ा दुःख होता है और वे दीर्घ तथा उष्णनिःश्वास छोड़ने लगते हैं । इस कारण मेरा दिया हुआ वह जल भी उष्ण हो जाता है और उन बेचारों को वही पीना पड़ता है।

"मेरी दशा इस समय उत्तर की तरफ़ प्रकाश-पूर्ण और दक्षिण की तरफ अन्धकार-पूर्ण लोकालोक पर्वत के समान हो रही है क्योंकि अनेक यज्ञ करने के कारण मेरी आत्मा तो पवित्र, अतएव तेजस्क है; परन्तु सन्तति न होने के कारण वह निस्तेज भी है । देवताओं का ऋण चुकाने के कारण तो मैं तेजस्वी हूँ; पर पितरों का ऋण न चुका सकने के कारण तेजोहीन हूँ। आप शायद यह कहेंगे कि तपस्या और दान आदि पुण्य-कार्य जो मैंने किये हैं उन्हीं से मुझे यथेष्ट सुख की प्राप्ति हो सकती है। सन्तति की इच्छा रखने से क्या लाभ ? परन्तु, बात यह है कि तपश्चरण और दानादि के पुण्य से परलोक ही मैं सुख प्राप्त होता है,पर विशुद्ध सन्तति की प्राप्ति से इस लोक और परलोक,दोनों,में सुख मिलता है। अतएव हे सर्व-समर्थ गुरुवर ! मुझे सन्तति-हीन देख कर क्या आपको दुःख नहीं होता ? आपने अपने आश्रम में जो वृक्ष लगाये हैं,

और अपने ही हाथ से प्रेम-पूर्वक सींच कर जिन्हें आपने बड़ा किया है, उनमें यदि फूल-फल न लगे, तो क्या आपको दुःख न होगा ? सच समझिए,मेरी दशा,इस समय,ऐसे ही वृक्षों के सदृश हो रही है। हे भगवन् ! जिस हाथी के पैरों को कभी ज़ंजीर का स्पर्श नहीं हुआ वह यदि उसके द्वारा खम्भे से बाँध दिया जाय तो वह खम्भा उसके लिए जैसे अत्यन्त वेदनादायक होता है वैसे ही पितरों के ऋण से मुक्त न होने के कारण उत्पन्न हुआ मेरा दुःख मेरे लिए अत्यन्त असह्य हो रहा है। अतएव, इस पीड़ादायक दुःख से मुझे, जिस तरह हो [ ६६ ]
१३
पहला सर्ग।

सके,कृपा कर के आप बचाइए; क्योंकि इक्ष्वाकु के कुल में उत्पन्न हुए पुरुषों के लिए दुर्लभ पदार्थ भी प्राप्त करा देना आप ही के अधीन है।"

राजा की इस प्रार्थना को सुन कर वशिष्ठ ऋषि अपनी आँखें बन्द कर के कुछ देर के लिए ध्यान-मग्न हो गये । उस समय वे ऐसे शोभायमान हुए जैसे कि मत्स्यों का चलना फिरना बन्द हो जाने पर,कुछ देर के लिए शान्त हुआ,सरोवर शोभायमान होता है। इस प्रकार ध्यान-मन्न होते ही उस विशुद्धात्मा महामुनि को राजा के सन्तति न होने का कारण मालूम हो गया । तब उसने राजा से इस प्रकार कहा:--

"हे राजा! तुझे याद होगा,इन्द्र की सहायता करने के लिए एक बार तू स्वर्ग-लोक को गया था । वहाँ से जिस समय तू पृथ्वी की तरफ़ लौट रहा था उस समय,राह में,कामधेनु बैठी हुई थी। उसी समय तेरी रानी ने ऋतु-स्नान किया था। अतएव धर्मलोप के डर से उसी का स्मरण करते हुए बड़ी शीघ्रता से तु अपना रथ दौड़ाता हुआ अपने नगर को जा रहा था । इसी जल्दी के कारण उस पूजनीया सुरभी की प्रदक्षिणा और सत्कार आदि करना तू भूल गया। इस कारण वह तुझ पर बहुत अप्रसन्न हुई। उसने कहा-'तूने मुझे नमस्कार भी न किया। मेरा इतना अपमान ! जा, मैं तुझे शाप देती हूँ कि मेरी सन्तति की सेवा किये बिना तुझे सन्तति की प्राप्ति ही न होगी।' इस शाप को न तू ने ही सुना और न तेरे सारथि ही ने। कारण यह हुआ कि उस समय आकाश-गङ्गा के प्रवाह में अपने अपने बन्धनों से खुल कर आये हुए दिग्गज क्रीड़ा कर रहे थे । जल-विहार करते समय वे बड़ा ही गम्भीर नाद करते थे। इसी से कामधेनु का शाप तुझे और तेरे सारथि को न सुन पड़ा । इसमें कोई सन्देह नहीं कि कामधेनु का सत्कार तुझे करना चाहिए था। परन्तु तूने ऐसा नहीं किया; इसीसे पुत्र-प्राप्ति-रूप तेरा मनोरथ अब तक सफल नहीं हुआ। पूजनीयों की पूजा न करने से कल्याण का मार्ग अवश्य ही अवरुद्ध हो जाता है।

"अब,यदि उस कामधेनु की आराधना कर के तू उसे प्रसन्न करना चाहे तो यह बात भी नहीं हो सकती। कारण यह है कि इस समय पाताल में वरुण-देव एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। उनके लिए अनेक

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रघुवंश ।

प्रकार की सामग्रियाँ प्रस्तुत कर देने के निमित्त कामधेनु भी वहीं वास करती है। उसके शीघ्र लौट आने की भी आशा नहीं; क्योंकि वह यज्ञ जल्द समाप्त होने वाला नहीं । तेरा वहाँ जाना भी असम्भव है; क्योंकि पाताल के द्वार पर बड़े बड़े भयङ्कर सर्प, द्वारपाल बन कर,द्वार-रक्षा कर रहे हैं । अतएव वहाँ मनुष्य का प्रवेश नहीं हो सकता। हाँ,एक बात अवश्य हो सकती है । उस कामधेनु की कन्या यहीं है। उसे कामधेनु ही समझ कर शुद्धान्तः करण से पत्नी-सहित तू उसकी सेवा कर । प्रसन्न होने से वह निश्चय ही तेरी कामना सिद्ध कर देगी।"

यज्ञों के करने वाले महामुनि वशिष्ठ यह कह ही रहे थे कि कामधेनु की नन्दिनी नामक वह अनिन्द्य कन्या भी जङ्गल से चर कर आश्रम को लौटी। यज्ञ और अग्निहोत्र के लिए घी,दूध आदि की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वशिष्ठ ने उसे आश्रमही में पाल रक्खा था। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग बड़े ही कोमल थे । उसका रङ्ग वृक्षों के नवीन पत्तों के समान लाल था। उसके माथे पर सफ़ेद बालों का कुछ कुछ टेढ़ा एक चिह्न था । उस शुभ्र चिह्न को देख कर यह मालूम होता था कि आरक्त सन्ध्या ने नवोदित चन्द्रमा को धारण किया है। उसका ऐन घड़े के समान बड़ा था । उसका दूध अवभृथ-नामक यज्ञ के अन्तिम स्नान से भी अधिक पवित्र था । बछड़े को देखते ही वह थन से टपकने लगता था। जिस समय उसने आश्रम में प्रवेश किया उस समय उसके थन से निकलते हुए धारोष्ण दूध से पृथ्वी सोंची सी जा रही थी। उसके खुरों से उड़ी हुई धूल के कारण समीप ही बैठे हुए राजा के शरीर पर जा गिरे। उनके स्पर्श से राजा ऐसा पवित्र हो गया जैसा कि त्रिवेणी आदि तीर्थों में स्नान करने से मनुष्य पवित्र हो जाता है।

जिसके दर्शन ही से मनुष्य पवित्र हो जाता है ऐसी उस नन्दिनी नामक धेनु को देख कर शकुनशास्त्र में पारङ्गत भूत-भविष्यत् के ज्ञाता तपोनिधि वशिष्ठ मुनि के मनोरथ सफल होने के प्रार्थी उस यजमान-यज्ञ कराने वाले राजा से इस प्रकार कहा:-

"हे राजा ! तू अपना मनोरथ सिद्ध हुआ समझ । तेरी इच्छा पूर्ण

होने में देर नहीं । क्योंकि नाम लेते ही यह कल्याणकारिणी धेनु [ ६८ ]
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पहला सर्ग।

यहाँ आकर उपस्थित हो गई है । विद्या की प्राप्ति के लिए जैसे उसका निरन्तर अभ्यास करना पड़ता है वैसे ही फलसिद्धि होने तक तुझे इसकी सेवा करनी चाहिए । वर-प्रदान से जब तक यह तेरा मनोरथ सफल न करे तब तक तू, वन के कन्द-मूल-फल आदि पर अपना निर्वाह करके,सेवक के समान इसके पीछे पीछे घूमा कर । यह चलने लगे तो तू भी चल; खड़ो रहे तो तू भी खड़ा रह; बैठ जाय तभी तू भी बैठ; पानी पीने लगे तभी तू भी पानी पी । इसी तरह तू इसका अनुसरण कर । इसकी सेवा में अन्तर न पड़ने पावे । प्रति दिन प्रातःकाल उठकर तेरी पत्नी भी शुद्धान्तःकरण से भक्तिभाव-पूर्वक इसकी पूजा करे। फिर तपोवन की सीमा तक इसके पीछे पीछे जाय । और, सायङ्काल जब यह आश्रम को लौटे तब कुछ दूर आगे जाकर इसे ले आवे । जब तक यह तुझ पर प्रसन्न न हो तब तक तू बराबर इसी तरह इसकी सेवा-शुश्रूषा करता रह । परमेश्वर करे तेरे इस काम में कोई विन्न न उपस्थित हो और जैसे तेरे पिता ने तुझको अपने सदृश पुत्र पाया है वैसे ही तू भी अपने सदृश पुत्र पावे ।"

यह सुन कर देश और काल के जानने वाले वशिष्ठ के शिष्य उस राजा ने पत्नी-सहित नम्र होकर मुनीश्वर को आदरपूर्वक नमस्कार किया और कहा-"बहुत अच्छा । आपकी आज्ञा को मैं सिर पर धारण करता हूँ। आपने जो कहा मैं वही करूँगा।"

इसके अनन्तर,रात होने पर सत्य, और मधुर-भाषण करने वाले ब्रह्मा के पुत्र परम विद्वान् वशिष्ठ ने श्रीमान् राजा दिलीप को जाकर आराम से सोने की आज्ञा दी।

वशिष्ठ मुनि महा तपस्वी थे। उन्हें सब तरह की तपःसिद्धि प्राप्त थी। यदि वे चाहते तो अपनी तपःसिद्धि के प्रभाव से राजा के लिए सब तरह की राजोचित सामग्री प्रस्तुत कर देते । परन्तु वे व्रतादि प्रयोगों के उत्तम ज्ञाता थे। अतएव उन्होंने ऐसा नहीं किया। व्रत-नियम पालन करने के लिए उन्होंने वनवासियों के योग्य वन में ही उत्पन्न हुई कुश-समिध आदि चीज़ों के दिये जाने का प्रबन्ध किया । और चीज़ों की उन्होंने आवश्यकता ही नहीं समझी । व्रत-निरत राजा को भी वनवासी ऋषियों ही की तरह [ ६९ ]
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रघुवंश।

रहना उन्होंने उचित समझा । इसीसे महामुनि वशिष्ठ ने उसे पत्तों से छाई हुई एक पर्णशाला में जाकर सोने को कहा । मुनि की आज्ञा से राजा ने,अपनी रानी सुदक्षिणा सहित,उस पर्णकुटीर में, कुशों की शय्या पर,शयन किया। प्रातःकाल मुनिवर के शिष्यों के वेद-घोष को सुन कर राजा ने जाना कि निशावसान होगया । अतएव वह शय्या से उठ बैठा ।