रघुवंश/भूमिका/इस अनुवाद के सम्बन्ध में निवेदन

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इस अनुवाद के सम्बन्ध में निवेदन।

इस अनुवाद में प्रत्येक पद्य का आशय विस्तारपूर्वक लिखा गया है। आवश्यकता के अनुसार कहीं विस्तार अधिक है, कहीं कम है। जहाँ थोड़े ही शब्दों से कवि का आशय अच्छी तरह समझाया जा सका है वहाँ विशेष विस्तार नहीं किया। पर जहाँ विस्तार की आवश्यकता थी वहाँ [ ५० ]
अधिक शब्द प्रयोग करने में सङ्कोच भी नहीं किया गया। उदाहरण के लिए पहले ही पद्य का अनुवाद देखिए। राजा साहेब और मिश्रजी ने उसका जैसा शब्दार्थ लिखा है वह ऊपर उद्धृत हो चुका है। उसी का भावार्थ, जैसा कि इस अनुवाद में है, नीचे दिया जाता है:- .

जिस तरह वाणी और अर्थ एक दूसरे को छोड़ कर कभी अलग अलग नहीं रहते उसी तरह संसार के माता-पिता, पार्वती और परमेश्वर, भी अलग अलग नहीं रहते; सदा साथ ही साथ रहते हैं। इसीसे मैं उनको नमस्कार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मुझे शब्दार्थ का अच्छा ज्ञात हो जाय। मुझ में लिखने की शक्ति भी आ जाय और जो कुछ मैं लिखू वह सार्थक भी हो --मेरे प्रयुक्त शब्द निरर्थक न हों। इस इच्छा को पूर्ण करने वाला उमा-महेश्वर से बढ़ कर और कौन हो सकता है ? यही कारण है जो मैं और देवताओं को छोड़ कर, इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में, उन्हीं की वन्दना करता हूँ।

यह विस्तार इसलिए किया गया है जिसमें पढ़ने वाले कालिदास का भाव अच्छी तरह समझ जाये। इस उद्देश की सिद्धि के लिए सारे रघुवंश का मतलब कथा के रूप में लिख दिया गया है; पर प्रत्येक सर्ग की कथा अलग अलग रक्खी गई है। यदि कोई पद्य अपने पास के किसी पद्य से कुछ असंलग्न सा मालूम हुआ है तो उसका भावार्थ लिखने में दो चार शब्द अपनी तरफ़ से बढ़ा भी दिये गये है।

इस अनुवाद में एक बात और भी की गई है। रघुवंश में कालिदास की कुछ उक्तियाँ ऐसी भी हैं जिनमें शृङ्गार रस की मात्रा बहुत अधिक है। उनका अनुवाद या तो छोड़ दिया गया है या कुछ फेर फार के साथ कर दिया गया है। परन्तु उन्नीसवें सर्ग को छोड़ कर शेष ग्रन्थ में ऐसे स्थल दोही चार हैं, अधिक नहीं। अतएव, इससे कालिदास के कथन के रसा-स्वादन में कुछ भी व्याघात नहीं आ सकता। यह इसलिए किया गया है जिसमें आबालवृद्ध, स्त्री-पुरुष, सभी इस अनुवाद को सङ्कोच-रहित होकर पढ़ सके।

ऊपर जिन दो अनुवादों का उल्लेख किया गया उनसे इस अनुवाद में कहीं कहीं कुछ भेद भी है। एक उदाहरण लीजिए। रघुवंश के सातवें सर्ग का अट्ठाईसवाँ श्लोक यह है:-

तो स्नातकैबन्धुमता च राज्ञा
पुरन्ध्रिभिश्च क्रमशः प्रयुक्तम्।
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भूमिका ।
कन्याकुमारौ कनकासनस्थ
आर्द्राक्षतारोपणमन्त्रभूताम !!

इसका अर्थ राजा साहब ने लिखा है:-

सोने के आसन पर बैठे हुए उन दूल्हा-दुलहिन ने स्नातकों का और बान्धवों सहित राजा का और पति-पुत्र वालि झा बारी बारी से आले धान बोना देखा।

और,पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:-

सोने के सिहासन पर बैठे हुए वह वर और वधू स्नातकों और कुटुम्बियों सहित राजा का तथा पति और पुत्र वालियों का क्रम क्रम ले गीले धान बोना देखते हुए।

इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस प्रकार लिखा गया है:-

इसके अनन्तर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर और वधू के सिर पर (रोचनारज्जित ) गीले अक्षत डाले गये । पहले स्नातक गृह- स्थों ने प्रक्षत डाले,फिर बन्धु-बान्धवों सहित राजा ने,फिर पति-पुत्रवती पुरवासिनी स्त्रियों ने।

इसी तरह के भेदभावदर्शक सातवे ही सग के एक और स्थल को देखिए । इस सर्ग का सत्तावनवाँ श्लोक है:-

स दक्षिण तूणमुखे न वाम
 
व्यापारयन् हस्तमलक्ष्यताजौ !
आकर्णकृष्टा सकृदस्य योद्ध-
 
मौर्वोव बाणान् सुषुवे रिपुनान् ॥

राजा साहब ने इसका शब्दार्थ इस तरह लिखा है:-

वह विषङ्ग के मुख पर सुन्दर दाहना हाथ रखता हुआ युद्ध में दिखलाई दिया; एक बार कान तक खैंची हुई उस योद्धा की प्रत्यञ्चा ने मानो वैरियों के मारनेवाले बाण उत्पन्न किए।

और,पण्डित ज्वालाप्रसाद मिश्र ने लिखा है:--

वह संग्राम में सुघड दक्षिण हाथ को तरकस के मुख पर रखता हुआ दीखा,और इस युद्ध करनेवाले की एक बार खैंची हुई प्रत्यचा ने शत्रु के संहार करने हारे मानों शर उत्पन्न किये।

इसी श्लोक का भावार्थ इस अनुवाद में इस तरह लिखा गया है:-

वाणविद्या में अज इतना निपुण था कि वह अपना दाहना अथवा बायाँ हाथ बाण निकालने के लिए कब अपने तूणीर में डालता और बाण निकालता था,यही किसी को मालूम न होता था। उस अलौकिक योद्धा के हस्त लाघव का यह हाल था कि उसके दाहने और बायें,दोनों हाथ,एक से उठते थे। धनुष की डोरी जहा उसने एक दफे कान तक सानी तहाँ यही मालूम होता था कि शत्रुओं का संहार [ ५२ ]
करनेवाले असंख्य बाण उस डोरी से ही निकलते ले-उससे ही उत्पन्न होते से---- चले जाते हैं।

मतलब यह कि इस अनुवाद में शब्दार्थ पर कम ध्यान दिया गया है, भावार्थ पर अधिक । स्पष्ट शब्दों में कालिदास का आशय समझाने की चेष्टा की गई है; शब्दों का अर्थ लिख देने ही से सन्तोष नहीं किया गया। महाकवियों के प्रयुक्त किसी किसी शब्द में इतना अर्थ भरा रहता है कि उस शब्दार्थ का वाचक हिन्दी शब्द लिख देने ही से उसका ठीक ठीक वोध नहीं होता। उसे स्पष्टतापूर्वक प्रकट करने के लिए कभी कभी एक नहीं, अनेक शब्द लिखने पड़ते हैं। अनुवादक को इस कठिनता का पद पद पर सामना करना पड़ा है। यद्यपि उसे हल करने की उसने यथाशक्ति चेष्टा की है, तथापि यह नहीं कह सकता कि कहाँ तक उसे सफलता हुई है। उसकी सफलता अथवा विफलता का निर्णय इस अनुवाद के विज्ञ पाठक ही कर सकेंगे।


दौलतपुर, डाकखाना भोजपुर, रायबरेली-।}महावीरप्रसाद द्विवेदी। ६अगस्त, १६१२