रघुवंश/३—रघु का जन्म और राज्याभिषेक

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तीसरा सर्ग।
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रघु का जन्म और राज्याभिषेक ।

धीरे धीरे रानी सुदक्षिणा का गर्भ बढ़ने लगा। उसका पुत्रोत्पतिरूपि उदय-काल समीप आ गया । चन्द्रमा की चाँदनी आँखों को जैसी भली मालूम होती है,सगर्भासुदक्षिणा भी उसकी सखियों को वैसी ही भली मालूम होने लगी । राजा इक्ष्वाकु की वंशवृद्धि के आदि-कारण और सुदक्षिणा के पति राजा दिलीप की मनोकामना के साधक गर्भचिह्न-सुदक्षिणा के शरीर पर,स्पष्ट देख पड़ने लगे । शरीर कृश हो जाने के कारण अधिक गहने पहनना उसे कष्ट-दायक हो गया। अतएव,कुछ बहुत ज़रूरी गहनों को छोड़ कर, औरों को उसने उतार डाला । सफ़ेदी लिये हुए उस का पीला मुँह लोध के फूल की समता को पहुँच गया । चन्द्रमा का प्रकाश बहुत ही कम हो जाने और इधर उधर कुछ इने गिने ही तारों के रह जाने पर,प्रातःकाल होने के पहले,रात जैसे क्षीणप्रभ हो जाती है,सुदक्षिणा भी वैसी ही क्षीणप्रभ हो गई। पीतमुखरूपी चन्द्रमा और परिमित अलङ्काररूपी तारों के कारण उसमें प्रभातकालीन रात की सदृशता आ गई। ग्रीष्म के अन्त में,बादलों की बूंदों से छिड़के गये वन के अल्प जलाशय को बार बार सूंघने पर भी जिस तरह हाथी कि तृप्ति नहीं होती उसी तरह मिट्टी की सुगन्धि वाले सुदक्षिणा के मुँह को,एकान्त में,अनेक बार सूंघने पर भी राजा दिलीप की तृप्ति न हुई । सगर्भावस्था में रानी का मन मिट्टी

खाने को चलता था। इसीसे वह कभी कभी उसे खा लिया करती थी। इसका कारण था। वह जानती थी कि मेरा पुत्र महाप्रतापी होगा। भूमण्डल में, समुद्र पर्यन्त उसका रथ सब कहीं बिना रुकावट के आ जा [ ८६ ]
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तीसरा सर्ग।

सकेगा । ठहरेगा तो दिशाओं का अन्त हो जाने पर ही ठहरेगा। अतएव,इन्द्र जिस तरह सारे स्वर्ग का उपभोग करता है उसी तरह मेरा पुत्र भी सारी पृथ्वी का उपभोग करेगा। यही जान कर उसने अन्यान्य भोग्य वस्तुओं का तिरस्कार कर के मिट्टी खाई । गर्भ से ही उसने अपने पुत्र में पृथ्वी के उपभोग की रुचि उत्पन्न करने का यत्न आरम्भ कर दिया।

राजा अपनी रानी सुदक्षिणा को यद्यपि बहुत चाहता था तथापि सङ्कोच और नारी-जन सुलभ लज्जा के कारण वह उससे यह न कहती थी कि अमुक अमुक वस्तु की मुझे चाह है। इस कारण उत्तर-कोशल का अधीश्वर, दिलीप, बार बार अपनी रानी की सखियों से प्रादर-पूर्वक पूछता था कि मागधी सुदक्षिणा का मन किन किन चीज़ों पर जाता है।

गर्भवती स्त्रियों को जो अनेक प्रकार की चीज़ों की चाह होती है वह उनके लिए सुखदायक नहीं होती। उससे वे बहुत पीड़ित होती हैं । इस व्यथाजनक दशा को प्राप्त होकर सुदक्षिणा ने जो कुछ चाहा वहीं उसके पास लाकर उपस्थित कर दिया गया। क्योंकि, संसार में ऐसी कोई चीज़ ही न थी जो उस चढ़ी हुई प्रत्यञ्चा वाले धनुषधारी राजा के लिए अलभ्य होती । रानी की इच्छित वस्तु यदि स्वर्ग में होती तो उसे भी वहाँ से लाने की शक्ति राजा में थी।

धीरे धीरे रानी की दोहद-सम्बन्धिनी व्यथा जाती रही । तरह तरह की चीज़ों के लिए उसका मन चलना बन्द हो गया। उसकी कृशता भी कम हो गई; शरीर के अवयव पहले की तरह पुष्ट हो गये । पुराने पत्ते गिर जाने के अनन्तर, नवीन और मनोहर कोंपल पाने वाली लता के समान वह, उस समय, बहुत ही शोभायमान हुई । कुछ दिन और बीत जाने पर, गर्भ के वृद्धिसूचक लक्षण भी उसमें दिखाई देने लगे । उस समय राजा को अन्तःसत्वा,अर्थात् कोख में गर्भ धारण किये हुए, रानी ऐसी मालूम हुई जैसी कि अपने उदर में धनराशि रखने वाली समुद्रवसना पृथ्वी मालूम होती है, काथवा अपने भीतर छिपी हुई आग रखने वाली शमी मालूम होती है, अथवा अपने अभ्यन्तर में अदृश्य जल रखने वाली सरस्वती नदी मालुम होती है। लक्षणों से गर्भस्थ शिशु को बड़ा ही

  • शमी - छीकुर का वृक्ष । [ ८७ ]
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भाग्यशाली,तेजस्वी और पवित्र समझ कर राजा ने सुदक्षिणा का बहुत सम्मान किया।

अपनी प्रियतमा रानी पर उस धीर-वीर और बुद्धिमान् राजा की बड़ी ही प्रीति थी। उदारता भी उसमें बहुत थी। दिगन्त-पर्यन्त व्याप्त विभव का भी उसने अपने भुज-बल से उपार्जन किया था। उसे यह भी विश्वास था कि रानी के पुत्र ही होगा । अतएव अपने प्रेम,औदार्य,वैभव और पुत्र-प्राप्ति से होने वाले अत्यधिक आनन्द के अनुसार उसने पुसवनादि सारे संस्कार, बड़ेही ठाठ से, एक के बाद एक, किये।

इन्द्र आदि आठों दिक्पालों के अंश से युक्त होने के कारण सुदक्षिणा का गर्भ बहुतही गुरुत्व-पूर्ण था । वह इतना भारी था कि रानी को आसन से उठने में भी प्रयास पड़ता था । इस कारण राजा दिलीप के घर आने पर, दोनों हाथ जोड़ कर उसका आदर-सत्कार करने में भी उसे परिश्रम होता था। ऐसी गर्भालसा और चञ्चलाक्षी रानी को देखने पर राजा के आनन्द की सीमा न रहती थी।

बालचिकित्सा में अत्यन्त कुशल और विश्वासपात्र राजवैद्यों ने, नौ महीने तक, बड़ी सावधानता से रानी के गर्भ की रक्षा की। दसवाँ महीना लगा। प्रसूति काल आ गया । उस समय, आसन्नप्रसवा रानी को मेघ-मण्डल से छाई हुई नभःस्थली के समान देख कर राजा को परम सन्तोष हुआ। वह पुलकित हो गया।

प्रभाव,मन्त्र और उत्साहरूपी साधनों से जो शक्ति युक्त होती है वह त्रिसाधना-शक्ति कहाती है। ऐसी शक्ति जिस तरह कभी नाश न पानेवाले सम्पत्ति-समूह को उत्पन्न करती है, उसी तरह इन्द्राणी की समता करने वाली सुदक्षिणा ने भी,यथासमय,बड़ी ही शुभ लग्न में,पुत्ररत्न उत्पन्न किया। उस समय रवि,मङ्गल,गुरु,शुक्र और शनि,ये पाँचों ग्रह,उच्च के थे। सब का उदय था; एक का भी, उस समय, अस्त न था। इससे सूचित होता था कि बालक बड़ा ही भाग्यवान और प्रतापी होगा। जन्मकाल में एक ग्रह उच्च का होने से मनुष्य सुखी होता है; दो होने से श्रेष्ठ होता है; तीन होने से राज-तुल्य होता है; चार होने से स्वयं राजा होता है; और पाँच होने से देवतुल्य होता है। दिलीप के पुत्र-जन्म के समय [ ८८ ]
तो पाँचों ग्रह उच्च के थे। अतएव उसके सौभाग्य का क्या ठिकाना! उसे तो देवताओं के सदृश प्रतापी होना ही चाहिए।

दिशायें प्रसन्न देख पड़ने लगी; वायु बड़ी ही सुखदायक बहने लगी, होम की अग्नि अपनी लपट को दाहनी तरफ़ करके हव्य का ग्रहण करने लगी। उस समय जो कुछ हुआ सभी शुभ-सूचक हुआ। कारण यह कि उस शिशु का जन्म संसार की भलाई के लिए ही था। इसीसे सभी बाते महल की सूचना देने वाली हुई। सूतिका-घर में रानी सुदक्षिणा की शय्या के आस पास, आधी रात के समय, कितने ही दीपक जल रहे थे। शुभ लग्न में उत्पन्न हुए उस नवजात शिशु के चारों तरफ फैले हुए तेज ने उन सब की प्रभा को सहसा मन्द कर दिया। वे केवल चित्र में लिखे हुए दीपों के सदृश निष्प्रभ दिखाई देने लगे।

शिशु के भूमिष्ठ होने पर, रनिवास के सेवकों ने कुमार के जन्म का समाचार जा कर राजा को सुनाया। उनके मुँह से उन अमृत-तुल्य मीठे वचनों को सुन कर राजा को परमानन्द हुआ। उस समय चन्द्रमा के सदृश कान्ति वाले अपने छत्र और दोनों चमरों को छोड़ कर राजा को और कोई भी ऐसी वस्तु न देख पड़ी जिसे वह उनके लिए प्रदेय समझता। एक छत्र और दो चमर, इन तीन चीज़ों को उसने राजचिह्न जान कर अदेय समझा। अन्यथा वह उन्हें भी ऐसा न समझता।

नौकरों से सुत-जन्म-सम्बन्धी संवाद सुन कर राजा अन्तःपुर में गया। वहाँ निर्वात-स्थान के कमल-समान निश्चल नेत्रों से अपने नवजात सुत का सुन्दर मुख देखने वाले दिलीप का आनन्द-चन्द्रमा के दर्शन से बढे हुए महासागर के ओघ के समान-उसके हृदय के भीतर समा सकने में असमर्थ हो गया। उसे इतना आनन्द हुआ कि वह हृदय में न समा सका-फूट कर बाहर बह चला।

राजा ने शीघ्रही सुतोत्पत्ति का समाचार महर्षि वशिष्ठ के पास पहुँ- चाया। क्योंकि वही राजा के कुल-गुरु और पुरोहित थे। तपस्वी वशिष्ठ ने तपोवन से आकर बालक के जातकर्म आदि सारे संस्कार विधिपूर्वक किये। संस्कार हो चुकने पर-खान से निकलने के बाद सान पर चढ़ाये गये हीरे के समान-उस सद्योजात शिशु की शोभा और भी अधिक हो गई। [ ८९ ]सुतोत्सव के उपलक्ष्य में, प्रमोददायक नाच और गाने के साथ साथ नाना प्रकार के माङ्गलिक बाजों की श्रुति-सुखद ध्वनि भी होने लगी। उसने राजा दिलीप के महलों ही को नहीं व्याप्त कर लिया; आकाश में भी वह व्याप्त हो गई--देवताओं ने भी आकाश में दुन्दुभी बजा कर आनन्द मनाया। पुत्र जन्म आदि बड़े बड़े उत्सवों के समय राजा-महा- राजा कैदियों को छोड़ कर हर्ष प्रकट करते हैं। परन्तु दिलीप इतनी उत्तमता से पृथ्वी की रक्षा और प्रजा का पालन करता था कि उसे कभी किसी को कैद करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। उसके शासनकाल में किसी ने इतना गुरुतर अपराध ही नहीं किया कि उसे कैद का दण्ड देना पड़ता। अतएव उसका कैदखाना खाली ही पड़ा था। उसमें एक भी कैदी न था। वह छोड़ता किसे ? इससे, उसने पितरों के ऋण नामक बन्धन से खुद अपने ही को छुड़ा कर कैदियों के छोड़े जाने की रीति निबाही! बेचारा करता क्या ?

राजा दिलीप पण्डित था। शब्दों का अर्थ वह अच्छी तरह जानता था। इस कारण उसने अपने पुत्र का कोई सार्थक नाम रखना चाहा। उसने कहा यह बालक सारे शास्त्रों का तत्व समझ कर उनके, तथा शत्रुओं के साथ युद्ध छिड़ जाने पर उन्हें परास्त करके समर-भूमि के, पार पहुँच सके तो बड़ी अच्छी बात हो। यही सोच कर और 'रवि' धातु का अर्थ गमनार्थक जान कर उसने अपने पुत्र का नाम 'रघु' रक्खा।

दिलीप को किसी बात की कमी न थी। वह बड़ाहो ऐश्वर्यवान् राजा था। सारी सम्पदायें उसके सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं। उन सबका उपयोग करके बड़े प्रयत्न से उसने पुत्र का लालन-पालन आरम्भ किया। फल यह हुआ कि बालक के सुन्दर शरीर के सारे अवयव शीघ्रता के साथ पुष्ट होने लगे।

सूर्य्य की किरणों का प्रतिपदा से प्रवेश प्रारम्भ होने से जिस तरह बाल-चन्द्रमा का बिम्ब प्रति दिन बढ़ता जाता है उसी तरह वह बालक भी बढ़ने लगा। कार्तिकेय को पाकर जैसे शङ्कर और पार्वती को, तथा जयन्त को पाकर जैसे इन्द्र और इन्द्राणी को, हर्ष हुआ था वैसे ही शङ्कर और पार्वती तथा इन्द्र और इन्द्राणी की समता करनेवाले दिलीप और [ ९० ]
सुदक्षिणा को भी, कार्तिकेय और जयन्त की बराबरी करनेवाला पुत्र पाकर, हर्ष हुआ। चक्रवाक और चक्रवाकी में परस्पर अपार प्रेम होता है। उनमें एक दूसरे का प्रेम एक दूसरे के हृदय को बाँधे सा रहता है। सुदक्षिणा और दिलीप के प्रेम का भी यही हाल था। चक्रवाक पक्षी के जोड़े के प्रेम की तरह इन दोनों के प्रेम ने भी एक दूसरे के हृदय को बाँध कर एक सा कर दिया था। वह प्रेम इस समय उनके इकलौते बेटे के ऊपर यद्यपि बँट गया, तथापि वह कम न हुआ। वह और भी बढ़ता ही गया-पुत्र पर चले जाने पर भी उन दोनों का पारस्परिक प्रेम क्षीण न हुआ, उलटा अधिक हो गया।

धाय के सिखलाने से धीरे धीरे रघु बोलने लगा। उसकी उँगली पकड़ कर वह चलने भी लगा। और, उसकी शिक्षा से वह नमस्कार भी करने लगा। इन बातों से उसके पिता दिलीप के आनन्द का ठिकाना न रहा। उसके तोतले वचन सुन कर तथा उसको चलते और प्रणाम करते देख कर पिता को जो सुख हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता। जिस समय दिलीप रघु को गोद में उठा लेता था उस समय पुत्र का अङ्ग छ जाने से राजा की त्वचा पर अमृत की सी वृष्टि होने लगती थी। अतएव, आनन्द की अधिकता के कारण उसके नेत्र बन्द हो जाते थे। पुत्र के स्पर्श-रस का यह अलौकिक स्वाद, बहुत दिनों के बाद, उसने पाया था।

सृष्टि की रचना करना तो ब्रह्मा का काम है, पर उसकी रक्षा करना उसका काम नहीं। और, रक्षा न करने से कोई चीज़ बहुत दिन तक रह नहीं सकती। इसीसे जब विष्णु का सत्यगुणात्मक अवतार हुआ तब ब्रह्मा को यह जान कर अपार सन्तोष हुआ कि मेरी रची हुई सृष्टि अब कुछ दिन तक बनी रहेगी। इसी तरह विशुद्धजन्मा रघु के जन्म से, मर्यादा के पालक और प्रजा के रक्षक राजा दिलीप को भी परम सन्तोष हुआ। पुत्र-प्राप्ति के कारण उसने अपने वंश को कुछ काल तक स्थायी समझा। उसे दृढ़ आशा हुई कि मेरे वंश के डूबने का अभी कुछ दिन डरं नहीं।

यथासमय रघु का चूडाकर्म हुआ। तदनन्तर उसके विद्यारम्भ का समय आया। सिर पर हिलती हुई कुल्लियों (जुल्फों) वाले अपने समययस्क मन्त्रिपुत्रों के साथ वह पढ़ने लगा और-नदी के द्वारा जैसे जलचर-

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जीव समुद्र के भीतर घुस जाते हैं उसी तरह वह-वर्णमाला याद करके उसके द्वारा शब्दशास्त्र में घुस गया। कुछ समय और बीत जाने पर

उसका विधिपूर्वक यज्ञोपवीत हुआ। तब उस पिता के प्यारे को पढ़ने के लिए बड़े बड़े विद्वान अध्यापक नियत हुए। बड़े यत्न और बड़े परिश्रम से वे उसे पढ़ाने लगे। उनका वह यत्न और वह परिश्रम सफल भी हुआ। और, क्यों न सफल हो ? सुपात्र को दी हुई शिक्षा कहीं निष्फल जाती है ? दिशाओं का स्वामी सूर्य जिस तरह पवन के समान वेगगामी अपने घोड़ों की सहायता से यथाक्रम चारों दिशाओं को पार कर जाता है, उसी तरह, वह कुशाग्रबुद्धि रघु, अपनी बुद्धि के शुश्रषा, श्रवण, ग्रहण और धारण आदि सारे गुणों के प्रभाव से, महासागर के समान विस्तृत चारों विद्याओं को क्रम क्रम से पार कर गया। धीरे धीरे वह आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड-नीति, इन चारों विद्याओं में व्युत्पन्न हो गया! यज्ञ में मैं मारे गये काले हिरन का चर्म पहन कर उसने मन्त्र-सहित आग्नेय आदि अस्त्रविद्याये भी सीख ली। परन्तु इस अस्त्रशिक्षा के लिए उसे किसी और शिक्षक का आश्रय नहीं लेना पड़ा। इसे उसने अपने पिता ही से प्राप्त किया। क्योंकि उसका पिता, दिलीप, केवल अद्वितीय पृथ्वीपति ही न था; पृथ्वी की पीठ पर वह अद्वितीय धनुषधारी भी था।

बड़े बैल की अवस्था को प्राप्त होनेवाले बछड़े अथवा बड़े गज की स्थिति को पहुँचनेवाले गज-शावक की तरह रघु ने, धीरे धीरे, बाल-अवस्था से निकल कर युवावस्था में प्रवेश किया। उस समय उसके शरीर में गम्भीरता आ जाने के कारण वह बहुत ही सुन्दर देख पड़ने लगा। उसके युवा होने पर उसके पिता ने गोदान-नामक संस्कार कराया। फिर उसका विवाह किया। अन्धकार का नाश करनेवाले चन्द्रमा को पाकर जिस तरह दक्ष प्रजापति की बेटियाँ शोभित हुई थी, उसी तरह रघु के समान सद्गुण सम्पन्न पति पाकर राजाओं की बेटियाँ भी सुशोभित हुई।

पूर्ण युवा होने पर रघु की भुजायें गाड़ी के जुए के सदृश लम्बी हो गई। शरीर खूब बलवान हो गया। छाती किवाड़ के समान चौड़ी हो गई। गर्दन मोटी हो गई। यद्यपि शक्ति और शरीर की वृद्धि में वह अपने पिता, दिलीप, से भी बढ़ गया, तथापि नम्रता के कारण वह फिर भी [ ९२ ]
छोटा ही दिखाई दिया। प्रजापालनरूपी अत्यन्त गुरु भार को अपने ऊपर धारण किये हुए दिलीप को बहुत दिन हो गये थे। उसे उसने, अब, हल्का करना चाहा। उसने सोचा कि रघु एक तो स्वभाव ही से नम्र है, दूसरे शास्त्र-ज्ञान तथा अस्त्रविद्या की प्राप्ति से भी वह उद्धत नहीं हुआ-वह सब तरह शालीन देख पड़ता है। अतएव, वह युवराज कहाये जाने योग्य है। यह विचार करके उसने रघु को युवराज कर दिया। कई दिन के फूले हुए कमल में उसकी सारी लक्ष्मी-उसकी सारी शोभा-अधिक समय तक नहीं रह सकती। वह नये फूले हुए कमल-पुष्प पर अवश्य ही चली जाती है। क्योंकि सुवास आदि गुणों पर ही उसकी विशेष प्रीति होती है-वह उन्हीं की भूखी होती है। विनय आदि गुणों पर लुब्ध रहने वाली राज्यलक्ष्मी का भी यही हाल है। इसी से अपने रहने के मुख्य स्थान, राजा दिलीप, से निकल कर उसका कुछ अंश, वहीं पास ही रहनेवाले युवराज-संज्ञक रघरूपी नये स्थान को चला गया। वायु की सहायता पाने से जैसे अग्नि, मेघरहित शरद् ऋतु की प्राप्ति से जैसे सूर्य और गण्ड-स्थल से मद बहने से जैसे मत्त गजराज दुर्जय हो जाता है वैसे ही रघु जैसे युवराज को पाकर राजा दिलीप भी अत्यन्त दुर्जय हो गया।

तब, इन्द्र के समान पराक्रमी और ऐश्वर्यवान् राजा दिलीप ने अश्व- मेध-यज्ञ करने का विचार किया। अनेक राजपुत्रों को साथ देकर उसने, धनुर्धारी रघु को यज्ञ के निमित्त छोड़े गये घोड़े का, रक्षक बनाया। इस प्रकार रघु की सहायता से उसने एक कम सौ अश्वमेध-यज्ञ, बिना किसी विघ्न-बाधा के, कर डाले। परन्तु इतने से भी उसे सन्तोष न हुआ। एक और यज्ञ करके सौ यज्ञ करने वाले शतक्रतु (इन्द्र) की बराबरी करने का उसने निश्चय किया। अतएव, विधिपूर्वक यज्ञों के कर्ता उस राजा ने, फिर भी एक यज्ञ करने की इच्छा से, एक और घोड़ा छोड़ा। वह स्वेच्छापूर्वक पृथ्वी पर बन्धनरहित घूमने लगा और राजा के धनुर्धारी रक्षक उसकी रक्षा करने लगे। परन्तु, इस दफे, उन सारे रक्षकों की आँखों में धूल डाल कर, गुप्तरूपधारी इन्द्र ने उसे हर लिया। यह देख कर कुमार रघु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी सारी सेना जहाँ की तहाँ चित्र लिखी सी खड़ी रह गई। विस्मय की अधिकता के कारण उसका कर्तव्य-ज्ञान जाता रहा। [ ९३ ]
किसी की समझ में यह बात ही न आई कि इस समय क्या करना, चाहिए। इतने में, राजा दिलीप को वरदान देने के कारण सर्वत्र विदित प्रभाववाली, महर्षि वशिष्ठ की नन्दिनी नामक गाय, अपनी इच्छा से फिरती फ़िरती वहाँ आई हुई सब को देख पड़ी। साधुजनों के सम्मानपात्र दिलीप- पुत्र रघु ने उसे सादर प्रणाम किया और उसके शरीर से निकले हुए. पवित्र जल, अर्थात् मूत्र, को अपनी आँखों में लगाया। उस जल से धाई जाने पर रघु की आँखों में उन पदार्थों को भी देखने की शक्ति उत्पन्न हो गई जो चर्मचक्षुओं से नहीं देखे जा सकते। नन्दिनी की बदौलत दिलीप नन्दन रघु को दिव्य दृष्टि प्राप्त होते ही उसने देखा कि पर्वतों के पंख काट गिराने वाला इन्द्र, यज्ञ के घोड़े को रथ की रस्सी से बाँधे हुए, उसे पूर्व दिशा की ओर भगाये लिये जा रहा है। घोड़ा बेतरह चपलता दिखा रहा है; और इन्द्र का सारथि उसकी चपलता को रोकने का बार बार प्रयत्न कर रहा है। रघु ने देखा कि इस रथारूढ़ पुरुष के सौ आँखे हैं और उन आँखों की पलके निश्चल हैं-वे बन्द नहीं होती। उसने यह भी देखा कि इसके रथ के घोड़े हरे हैं। इन चिन्हों से उसने पहचान लिया कि इन्द्र के सिवा यह और कोई नहीं। इस पर उसने बड़ा ही गम्भीर नाद करके इन्द्र को ललकारा। उसके उच्च स्वर से सारा आकाश गूंज उठा और यह मालूम होने लगा कि इन्द्र को लौटाने के लिए वह उसे पीछे से खींच सा रहा है। उसने कहा:-

"सुरेन्द्र! शाबाश! बड़े बड़े महात्मा और विद्वान् पुकार पुकार कर कह रहे हैं कि यज्ञों का हविर्भाग पानेवालों में तूही प्रधान है-सब से अधिक हव्य-अंश सदा तूही पाता है। उधर तो वे यह घोषणा दे रहे हैं, इधर-यज्ञ की दीक्षा लेने में सतत प्रयत्न करने वाले मेरे पिता के यज्ञ का विध्वंस करने की तू ही चेष्टा कर रहा है। यह क्यों ? तू ऐसा विपरीत आचरण करने के लिए प्रवृत्त कैसे हुआ ? तू तो स्वर्ग, मृत्यु और पाताल, इन तीनों लोकों का स्वामी है। दृष्टि भी तेरी दिव्य है। यज्ञ के विरोधी दैत्यों को दण्ड देकर उन्हें सीधा करना तेरा काम है, न कि याज्ञिकों का घोड़ा लेकर भागना। धर्माचरण करनेवालों के धर्मानुष्ठान में यदि तू ही, इस तरह, विघ्न डालेगा तो बस हो चुका! फिर बेचारा धर्म नष्ट हुए बिना कैसे [ ९४ ]
रहेगा ? अतएव, देवेन्द्र! अश्वमेध-यज्ञ के प्रधान अङ्ग इस घोड़े को तू छोड़ दे। वैदिक धर्म का उपदेश करनेवाले-वेद-विहित मार्ग को दिखानेवाले-सर्व-समर्थ सज्जन कभी ऐसे मलिन मार्ग का अवलम्बन नहीं करते। तुझे ऐसा बुरा काम करना कदापि उचित नहीं।”

रघु के ऐसे गम्भीर वचन सुन कर देवताओं के स्वामी इन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ। आश्चर्यचकित होकर उसने अपना रथ लौटा दिया और रघु की बातों का इस प्रकार उत्तर देना प्रारम्भ किया। वह बोला:-

"राजकुमार! जो कुछ तूने कहा सब सच है। परन्तु बात यह है कि जिनको और सारे पदार्थों की अपेक्षा यश ही अधिक प्यारा है वे उसे शत्रुओं के द्वारा क्षीण होते कदापि नहीं देख सकते। हर उपाय से उसकी रक्षा करना ही वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं। यज्ञों के कारण ही मेरा यश त्रिभुक्न में प्रकाशित है। तेरा पिता बड़े बड़े यज्ञ करके मेरे उसी यश पर पानी फेरने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे पुरुषोत्तम संज्ञा केवल विष्णु की है और जैसे परमेश्वर-संज्ञा एक मात्र त्रिलोचन महादेव की है और किसी की नहीं-उसी तरह शतक्रतु-संज्ञा अकेले एक मेरी है। मुनि जन मुझी को सौ यज्ञ करनेवाला जानते हैं। हम तीनों के ये तीन शब्द और किसी को नहीं मिल सकते। पुरुषोत्तम, महेश्वर और शतक्रतु से हरि, हर और इन्द्र ही का ज्ञान होता है, किसी और का नहीं। परन्तु सौ यज्ञ करके अब तेरा पिता भी शतक्रतु होना चाहता है। इसे मैं किसी तरह सहन नहीं कर सकता। इसी से कपिल मुनि का अनुसरण करके मैंने तेरे पिता के छोड़े हुए इस घोड़े का हरण किया है। इसे मुझसे छीन ले जाने की तुझ में शक्ति नहीं। इस विषय में तेरा एक भी प्रयत्न सफल होने का नहीं। खबरदार! राजा सगर की सन्तति के मार्ग में पैर न रखना; उन्हीं की सा आचरण करके उन्हीं की सी दशा को प्राप्त न होना। छीन छान का यत्न करने से तेरी कुशल नहीं।”

इन्द्र के ऐसे गर्वित वचन सुन कर भी घोड़े की रक्षा करनेवाला रघु विचलित न हुआ। वह ज़रा भी नहीं डरा। हँस कर उसने इन्द्र से कहा:-

"हाँ, यह बात है! यदि तूने सचमुच ही यह निश्चय कर लिया है--यदि तू घोड़े को छोड़ने पर किसी तरह राजी नहीं--तो हथियार [ ९५ ]
हाथ में ले। रघु को जीते बिना तू अपने को कृतकृत्य मत समझ। बिना मुझे परास्त किये तू घोड़े को यहाँ से नहीं ले जा सकता।"

इतना कह कर रघु ने पैतड़ा बदला और धन्वा पर बाण चढ़ा कर, तथा आकाश की ओर मुंह करके, वह इन्द्र के सामने खड़ा हो गया। उस समय दाहने पैर को आगे बढ़ाये और बायें को पीछे झुकाये हुए रघु ने, अपने ऊँचे-पूरे और सुदृढ़ शरीर की सुन्दरता से, महादेव को भी मात कर दिया। उसने एक सुवर्णरक्षित बाण इतने ज़ोर से छोड़ा कि वह इन्द्र की छाती के भीतर धंस गया। इस पर, पर्वतों को काट गिराने वाले इन्द्र ने बड़ा क्रोध किया। उसने भी नवीन उत्पन्न हुए मेघों के समुदाय के अल्पकालिक चिह्न, अर्थात् इन्द्र-धनुष, पर कभी व्यर्थ न जाने वाला बाण चढ़ा कर उसे छोड़ दिया। वह, इन्द्र के शरासन से छूट कर, दिलीप-नन्दन रघु की दोनों भुजाओं के बीच, हृदय में, प्रविष्ट हो गया। अब तक इस बाण ने बड़े बड़े भयङ्कर दैत्यों ही का रुधिर पिया था। इससे वह उसी रुधिर का स्वाद जानता था। आज ही उसे मनुष्य के शोणितपान का मौका मिला था। अतएव, कभी पहले उसका स्वाद न जानने के कारण, उसने रघु के रुधिर को मानों बड़े ही कुतूहल से पिया।

दिलीपात्मज कुमार रघु भी कुछ ऐसा वैसा न था। पराक्रम में वह स्वामिकार्तिक के समान था। इन्द्र के छोड़े हुए बाण की चोट खाकर उसने एक और बाण निकाला। उस पर उसका नाम खुदा हुआ था। उसे उसने बड़े ही भीम-विक्रम से छोड़ा। अपने वाहन ऐरावत हाथी को ठुमकारने से जिसकी उँगलियाँ कड़ी हो गई थी और इन्द्राणी ने केसर-कस्तूरी आदि से जिस पर तरह तरह के बेलबूटे बनाये थे, इन्द्र के उसी हाथ में वह बाण भीतर तक घुसता हुआ चला गया। जिस हाथ ने रघु की छाती पर बाण प्रहार किया था उससे रघु ने तत्काल ही बदला ले लिया। उसे इतने ही से सन्तोष न हुआ। उसने मोरपंख लगा हुआ एक और बाण निकाला। उससे उसने इन्द्र के रथ पर फहराती हुई, वज्र के चिह्नवाली, ध्वजा काट गिराई।

यह देख कर इन्द्र के क्रोध का ठिकाना न रहा। देवताओं की राज्य- लक्ष्मी के केश बलपूर्वक काट लिये जाने पर उसे जितना क्रोध होता उतना [ ९६ ]
ही इस घटना से भी हुआ। उसने कहा, यह मेरी रथ-ध्वजा नहीं काटी गई; इसे मैं सुर-श्री की अलकों का काटा जाना समझता हूँ। तब तो बड़ा ही तुमुल युद्ध छिड़ गया। रघु जी-जान से इन्द्र को हरा देने की चेष्टा करने लगा और इन्द्र रघु को। पंखधारी साँपों के समान बड़े हो भयङ्कर बाणं दोनों तरफ़ से छूटने लगे। इन्द्र के बाण आकाश से पृथ्वी की तरफ़ आने लगे और रघु के बाण पृथ्वी से आकाश की तरफ़ सनसनाते हुए जाने लगे। शस्त्रास्त्रों से सजी हुई उन दोनों की सेनायें, पास ही खड़ी हुई, इस भीषण युद्ध को देखती रहीं। अपने ही शरीर से निकली हुई बिजली की आग को जैसे मेघ अपनी ही वारि-धारा से शान्त नहीं कर सकते वैसे ही इन्द्र भी, अस्त्रों की लगातार वृष्टि करने वाले उस असहर तेजस्वी रघु का निवारण न कर सका-उस महापराक्रमी की बाणवर्षा को रोकने में वह समर्थ न हुआ। बात यह थी कि रघु कोई साधारण राजकुमार न था। दिक्पालों के अंश से उत्पन्न होने के कारण उसमें इन्द्र का भी अंश था। फिर भला अपने ही अंश को इन्द्र किस तरह हरा सकता ?

इस प्रकार बड़ी देर तक युद्ध होने के अनन्तर रघु ने एक अर्धचन्द्रा- कार बाण छोड़ा। उसने इन्द्र के धनुष की प्रत्यञ्चा काट दी। इससे उसका धनुष बेकार हो गया। इस प्रत्यञ्चा--इस डोरी--का काटना कठिन काम था। वह बड़ी ही मज़बूत थी। जिस समय चढ़ा कर वह खींची जाती थी उस समय इन्द्र के हरिचन्दन लगे हुए हाथ के पहुँचे पर, उससे, मन्थन के समय सागर का सा, घोर नाद उत्पन्न होता था। परन्तु रघु के बाण से कट कर वही दो टुकड़े हो गई।

धनुष की यह दशा हुई देख इन्द्र अधीर हो उठा। उसका क्रोध बढ़ कर दूना हो गया। बेकार समझ कर धनुष को तो उसने फेंक दिया, और रघु जैसे प्रबल-पराक्रमी शत्र के प्राण लेने के लिए पर्वतों के पंख काटने और अपने चारों तरफ़ प्रभा-मण्डल फैलाने वाले अस्त्र को उसने हाथ में लिया। अर्थात् लाचार होकर, रघु को एकदम मार गिराने के इरादे से, उसने चमचमाता हुआ वज्र उठाया। उसे इन्द्र ने बड़े ही वेग से रघु पर चलाया। रघु की छाती पर वह बड़े जोर से लगा। उसकी चोट से व्याकुल [ ९७ ]
होकर रघु ज़मीन पर गिर गया। इधर वह गिरा उधर सैनिकों की आँखों से टपाटप आँसू भी गिरे-उसे गिरा देख वे रोने लने। उस वज्राघात से रघु मूछित तो हो गया; परन्तु उसकी मूर्छा बड़ी देर तक नहीं रही। चोट से उत्पन्न हुई पीड़ा शीघ्र ही जाती रही। अतएव, सेना के हर्ष सूचक सिंहनाद के साथ, ज़रा ही देर में, वह उठ खड़ा हुआ-व्यथा रहित होकर उसे फिर युद्ध के लिए तैयार देख कर सैनिकों ने प्रचण्ड हर्ष-ध्वनि की।

शस्त्र चलाने और उनकी चोट सह लेने में रघु अपना सानी न रखता था। यद्यपि, उस पर इतना कठोर वज्रप्रहार हुआ, तथापि उसकी मार को उसने चुपचाप सह लिया। उसे इस तरह निष्ठुरता और क्रूरतापूर्वक, बहुत देर तक, अपने साथ शत्रुभाव से युद्ध करते देख इन्द्र को अतिशय सन्तोष हुआ। रघु के प्रबल पराक्रम के कारण उस पर वह बहुत ही प्रसन्न हुआ। बात यह है कि दया, दाक्षिण्य और शौय्य आदि गुण सभी कहीं आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं। शत्रुओं तक को वे मोहित कर लेते हैं; मित्रों का तो कहना ही क्या है। रघु की वीरता पर मुग्ध होकर इन्द्र ने उससे कहाः-

"मेरे वज्र में इतनी शक्ति है कि वह बड़े बड़े पर्वतों तक को सहज ही में काट गिराता है। आज तक तेरे सिवा और कोई भी उसकी मार खाकर जीता नहीं रहा। तुझ में इतना बल और वीय्य देख कर मैं तुझ से बहुत सन्तुष्ट हुआ हूँ। अतएव, इस घोड़े को छोड़ कर और जो कुछ तू चाहे मुझ से माँग सकता है।"

मूर्छा जाते ही इन्द्र पर छोड़ने के लिए रघु अपने तरकस से एक और बाण निकालने लगा था। उसकी पूँछ पर सोने के पंख लगे हुए थे। उनके चमक से अपनी उँगलियों की शोभा बढ़ाने वाले उस बाण को रघु ने आधा निकाल भी लिया था। परन्तु इन्द्र के मुँह से ऐसी मधुर और प्यारी वाणी सुनतेही, उसे फिर तरकस के भीतर रख कर, वह इन्द्र की बात का उत्तर देने लगा। वह बोला:-

"प्रभो! यदि तूने घोड़े को न छोड़ने का निश्चय ही कर लिया हो तो यह आशीर्वाद देने की दया होनी चाहिए कि यज्ञ की दीक्षा लेने में सदैव उद्योग करने वाले मेरे पिता को अश्वमेध यज्ञ का उतना ही फल मिले [ ९८ ]
जितना कि विधिपूर्वक यज्ञ समाप्त होने पर मिलता। यदि अश्वमेध का सारा फल पिता को प्राप्त हो जाय तो घोड़ा लौटाने की कोई वैसी आवश्यकता भी नहीं। एक बात और है। इस समय मेरा पिता यज्ञशाला में है। वह यज्ञसम्बन्धी अनुष्ठान में लगा हुआ है और यज्ञकर्ता में शङ्कर का अंश आ जाता है। इस समय, न वह यज्ञमण्डप को छोड़ सकता है और न यज्ञसम्बन्धी कामों के सिवा और कोई काम ही कर सकता है। इस कारण उस तक पहुँच कर उसे इस घटना की सूचना देना मेरे लिए सम्भव नहीं। इससे यह वृत्तान्त सुनाने के लिए तू अपना ही दूत मेरे पिता के पास भेज दे। बस, इतनी कृपा और कर।"

रघु की प्रार्थना को इन्द्र ने स्वीकार कर लिया और 'तथास्तु' कह कर जिस मार्ग से आया था उसीसे उसने प्रस्थान किया। इधर सुदक्षिणा-सुत रघु भी पिता के यज्ञमण्डप को लौट गया। परन्तु बहुत अधिक प्रसन्न होकर वह नहीं लौटा। युद्ध में विजयी होने पर भी घोड़े की अप्राप्ति उसके जी में खटकती रही।

उधर रघु के पहुँचने के पहले ही उसका पिता दिलीप सारी घटना, इन्द्र के दूत के मुख से, सुन चुका था। रघु जब पिता के पास पहुँचा तब उसके शरीर पर दिलीप को वज्र के घाव देख पड़े। उस समय पुत्र की वीरता का स्मरण करके उसे परमानन्द हुआ। हर्षाधिक्य के कारण उसका हाथ बर्फ के समान ठंढा हो गया। उसी हाथ को पुत्र के घावपूर्ण शरीर पर उसने बड़ी देर तक फेरा और उसकी बड़ी बड़ाई की।

जिस की आज्ञा को पूजनीय समझ कर सब लोग सिर पर धारण करते थे ऐसे उस परम प्रतापी राजा दिलीप ने, इस प्रकार, एक कम सौ यज्ञ कर डाले। उसने ये निन्नानवे यज्ञ क्या किये, मानो अन्त समय में, स्वर्ग पर चढ़ जाने की इच्छा से उसने इतनी सीढ़ियों का एक सिलसिला बना कर तैयार कर दिया।

एक कम सौ यज्ञ कर चुकने पर राजा दिलीप का मन इन्द्रियों की विषय-वासना से हट गया। राज्य के उपभोग से उसे विरक्ति हो गई। अतएव, उसने अपने तरुण और सर्वथा सुयोग्य पुत्र रघु को श्वेतच्छत्र आदि सारे राजचिह्न देकर उसे विधिपूर्वक राजा बना दिया। फिर वह

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अपनी रानी सुदक्षिणा को लेकर तपोवन को चला गया। वहाँ वानप्रस्थ होकर वह मुनियों के साथ वृक्षों की छाया में रहने लगा। इक्ष्वाकु के वंश में उत्पन्न हुए राजाओं के कुल की यही रीति थी। वृद्ध होने पर, पुत्र को राज्य सौंप कर, वे अवश्य ही वानप्रस्थ हो जाते थे।
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