रघुवंश/४—रघु का दिग्विजय

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रघु का दिग्विजय।

SXSXESEXयङ्काल, सूर्य के दिये हुए तेज को पाकर जैसे अग्नि की शोभा सा बढ़ जाती है वैसे ही पिता के दिये हुए राज्य को पाकर रघु की भी शोभा बढ़ गई। उसका तेज पहले से भी अधिक हो गया। दिलीप के शासन-समय में कुछ राजा उससे द्वेष करने लगे थे। उसका प्रताप उन्हें असह्य हो गया था। इस कारण, रघु के राज्याभिषेक का समाचार सुन कर, उनके हृदयों में पहले ही से धधकती हुई द्वेष की आग एक दम जल सी उठी। परन्तु, इधर, उसकी प्रजा उसके नये अभ्युदय से बहुत ही प्रसन्न हुई। राजद्वार पर फहराती हुई पताका को जिस तरह लोग, आँखें ऊपर उठा उठा कर, बड़े ही चाव से देखते हैं उसी तरह रघु की प्रजा ने, उसके नवीन वैभव को देख देख, अपने बाल-बच्चों सहित बेहद आनन्द मनाया। रघु के सामने उसके शत्रुओं की कुछ न चली। अपने पूर्व-पुरुषों के सिंहासन पर बैठते हा बैठते वह गजगामी वीर शत्रुओं के सारे देश दबा बैठा। सिंहासन पर आसन लगाना और शत्रुओं का राज्य छीन लेना, ये दोनों बाते उसने एक ही साथ कर दिखाई।

रघु को सार्वभौम राजा का पद प्राप्त होने पर लक्ष्मी भी अदृश्य होकर उसकी सेवा सी करने लगी। यह सच है कि वह दिखाई न देती थी। परन्तु रघु की कान्ति के समूह से, जो उसके मुख-मण्डल के चारों ओर फैला हुआ था, यहीं अनुमान होता था कि वह कमलपत्रों का छत्र है और लक्ष्मीही ने उसे रघु के ऊपर लगा सा रक्खा है। लक्ष्मी ही ने नहीं, सरस्वती ने भी रघु

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  • वेदों में लिखा है कि सायङ्काल होने पर सूर्य का तेज अग्नि में चला जाता है। [ १०१ ]
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की सेवा करना अपना कर्तव्य समझा। स्तुति-पाठ करने वाले बन्दीजनों के मुख का आश्रय लेने वाली वाग्देवी उस स्तुतियोग्य राजा की,समय समय पर,जो सार्थक स्तुतिरूप सेवा करती थी वह सरस्वती ही की की हुई सेवा तो थी। वैवस्वत-मनु से लगा कर अनेक माननीय महीप यद्यपि पृथ्वी का पहले भी उपभोग कर चुके थे, तथापि, रघु के राजा होने पर,वह उस पर इतनी प्रीति करने लगी जैसे और किसी राजा ने पहले कभी उसका उपभोग ही न किया हो। लक्ष्मी और सरस्वती की तरह पृथ्वी भी उस पर अत्यन्त अनुरक्त हो गई।

रघु की न्यायशीलता बड़ी ही अपूर्व थी। जिस अपराधी को जैसा और जितना दण्ड देना चाहिए वैसा ही और उतना ही दण्ड देकर अपने सारे प्रजा-जनों के मन उसने, न बहुत उष्ण और न बहुत शीतल मलयानिल की तरह, हर लिये । वह सब का प्यारा हो गया । आम में फल पा जाने पर लोगों की प्रीति जिस तरह उसके फूलों पर कम हो जाती है लोग उन्हें भूल सा जाते हैं--उसी तरह रघु में उदारता,स्थिरता,न्यायपरता आदि गुणों की अधिकता देख कर प्रजा की भक्ति उसके पिता के विषय में कम हो गई। पुत्र को पिता से भी अधिक गुणवान् देख कर लोगों को दिलीप के गुणों का विस्मरण सा हो गया।

राजनीति के पारगामी पण्डितों ने उसे सब तरह की नीतियों की शिक्षा दी । उन्होंने उसे धर्मनीति भी सिखाई और कूटनीति भी । ज्ञान तो उसने भली और बुरी, दोनों प्रकार की, नीतियों का प्राप्त कर लिया; परन्तु अनुसरण उसने केवल धर्मनीति का ही किया । सुमार्ग का ग्रहण करके कुमार्ग को उसने सर्वथा त्याज्य ही समझा।

पृथ्वी आदि पञ्च महाभूतों के गन्ध आदि जो स्वाभाविक गुण हैं वे पहले से भी अधिक हो गये । रघु के सदृश अलौकिक राजा के पुण्यप्रभाव से उनकी भी उन्नति हुई। इस नये राजा को राज- गद्दी मिलने पर सभी बातों में नवीनता सी प्रागई। समस्त संसार को प्रमुदित करने के कारण जैसे निशाकर का नाम चन्द्र हुआ है, अथवा सभी वस्तुओं को अपने प्रताप से तपाने के कारण जैसे सूर्य का नाम तपन पड़ा है और इनके ये नाम यथार्थ भी हैं-उसी तरह प्रजा का निरन्तर अनुरसन करने [ १०२ ]
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के कारण रघु के लिए 'राजा' का शब्द भी सार्थक हो गया । सचमुच ही वह यथार्थ राजा था। इसमें सन्देह नहीं कि उसके नेत्र बहुत बड़े बड़े थे-वे कानों तक फैले हुए थे ~ परन्तु इन बड़े बड़े नेत्रों से वह नेत्रवान् न था । शास्त्रों की बारीकियों तक का उसे पूरा पूरा ज्ञान था। अतएव सेब कामों की सूक्ष्म से भी सूक्ष्म विधि का ज्ञान कराने वाले शास्त्रही को वह अपने नेत्र समझता था। कारण यह कि विचारशील पुरुष शास्त्र ही को मुख्य दृष्टि समझते हैं; नेत्रों की दृष्टि को तो वे गौण समझते हैं।

पिता से प्राप्त हुए राज्य का पूरा पूरा प्रबन्ध करके और सर्वत्र अपना दबदबा अच्छी तरह जमा करके ज्याही राजा रघु निश्चिन्त हुआ त्योंही,कमल के फूलों से शोभायमान शरद् ऋतु,दूसरी लक्ष्मी के समान,आ पहुँची । शरत्काल आने पर,खूब बरस चुकने के कारण हलके हो होकर,मेघों ने,आकाश-पथ परित्याग कर दिया । अतएव,रुकावट न रहने से रास्ता साफ हो जाने से--दुःसह हुए सूर्य के ताप और रघु के प्रताप ने,एकही साथ, सारी दिशाओं को व्याप्त कर लिया । वर्षा बीत जाने पर जिस तरह सूर्य का तेज पहले से भी अधिक तीव्र हो जाता है उसी तरह राजा रघु का प्रताप भी पहले की अपेक्षा अधिक प्रखर होकर और भी दूर दूर तक फैल गया । उधर इन्द्रदेव ने पृथ्वी पर पानी बरसाने के लिए धारण किये गये धनुष की प्रत्यञ्चा खोल डाली-काम हो गया जान उसे उसने रख दिया; इधर रघु ने अपना विजयी धनुष हाथ में उठाया। इस प्रकार,संसार का हित करने के इरादे से ये दोनों,बारी बारी से,धनुषधारी हुए। जब इन्द्र के धनुष की ज़रूरत थी तब उसने धारण किया था। अब रघु के धनुष की ज़रूरत हुई; इससे उसने भी उसे उठा लिया।

इस अवसर पर शरत्काल को एक दिल्लगी सूझी। कमलरूपी छत्र

और फूलों से लदे हुए काशरूपी चमर धारण करके वह रघु की बराबरी करने चला । परन्तु बेचारे का निराश होना पड़ा । रघु की शोभा को वह न पा सका। यह देख कर चन्द्रमा से न रह गया । वह भी राजा रघु की होड़ करने दौड़ा । उसका प्रयत्न अवश्य सफल हुआ । उस स्वच्छ प्रभा वाले शरत्कालीन चन्द्रमा को लोगों ने रघु के प्रसन्न और हँसते हुए मुख की बराबरी का समझा। अतएव जितने नेत्रधारी थे सब ने उन दोनों को [ १०३ ]
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समदृष्टि से देखा-उनकी जितनी प्रीति का पात्र चन्द्रमा हुआ उतनीही प्रीति का पात्र रघु भी हुआ।

उस समय राजहंसों,तारों और खिले हुए श्वेत कमलों से परिपूर्ण जलाशयों को देख कर यह शङ्का होने लगी कि राजा रघु के शुभ्र यश की विभूति की बदौलतही तो कहीं ये शुभ्र नहीं हो रहे ! उसी के यश की धवलता ने तो इन्हें धवल नहीं कर दिया ! कारण यह कि ऐसी कोई जगह ही न थी जहाँ उसका यश न फैला हो। संसार की संरक्षा करने वाले रघु ने,अपने गुणों ही की बदौलत, लड़कपन से जितने बड़े बड़े काम किये थे उन सब का स्मरण करके, ईख के खेतों की मेंड़ पर छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियों तक ने उसका यश गाया ।

परन्तु,संसार में सब लोग एक से नहीं होते। कुछ ऐसे भी होते हैं जिनसे दूसरों का वैभव नहीं देखा जाता । उस समय कुछ राजाओं का स्वभाव इसी तरह का था । रघु का बढ़ता हुआ प्रताप और पराक्रम उन्हें असह्य था। उन्होंने सोचा कि अब हमारा पराभव हुए बिना न रहेगा। अतएव वे रघु से द्वेष रखने लगे। ऋतु उस समय शरद थी। इस कारण उधर आकाश में महा-प्रतापी अगस्त्य ऋषि का उदय होने से पृथ्वी का जल-समुदाय तो निर्मल हो गया;पर,इधर इन ईर्षालु राजाओं का मन रघु रघु के प्रतापोदय से क्षुब्ध होकर गॅदला हो उठा।

उस समय ऊँची ऊँची लाठ वाले मदोन्मत्त बैलों को अपने सीगों से नदियों के तट खोदते देख,यह जान पड़ता था कि बड़े बड़े पराक्रम के कामों को भी खेल सा समझ कर उन्हें कर दिखाने वाले रघु की वे होड़ सी कर रहे हैं।

सप्तपर्ण नाम के वृक्षों के फूलों से वैसी ही सुगन्धि पाती है जैसी कि हाथी की कनपटी से बहने वाले मद से आती है । अतएव, राजा रघु के हाथी जिस समय इन वृक्षों के नीचे से निकलते थे और इनके फूल उनके ऊपर गिरते थे उस समय वे क्षुब्ध हो उठते थे। उन्हें ईर्षा सी होती थी। वे मनही मन यह सोचने से लगते थे कि ऐसी सुगन्धि वाला हमारे सिवा और कौन है ? मानो,इसी से वे अपने केवल मस्तकही से नहीं,किन्तु सातों प्रङ्गों से मद की धारा बहाने लगते थे। [ १०४ ]
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अभी तक रघु ने विजय-यात्रा के लिए प्रस्थान करने का विचारही न किया था-उसके मन में अभी तक इस विषय की उत्साह-शक्ति ही न उत्पन्न हुई थी । इतने में नदियों को उतरने योग्य बना कर और मार्ग को सुखा कर,उसके मन में इस बात के आने के पहले ही,शरद् ऋतु ने उसे यात्रा के लिए,प्रेरित सा कर दिया। उसने सूचना सी दी कि अब यात्रा करने का समय आ गया।

सब तरह की अनुकूलता जान कर रघु,प्रस्थान करने के लिए, उद्यत हो गया। वाजि-नीराजना नामक घोड़ा पूजने की विधि उसने प्रारम्भ कर दी । बड़ा भारी हवन हुआ । उसकी आहुतियों को अग्निं देवता ने अपनी दक्षिणगामिनी लपट से ग्रहण किया। इस बहाने अग्नि ने अपना दाहना हाथ उठा कर रघु से मानो यह कहा कि इस यात्रा में तेरी अवश्य ही जीत होगी। इस अनुष्ठान का आरम्भ होने के पहले ही राजा रघु अपनी राजधानी और राज्य की सीमा वाले अपने किलों आदि की रक्षा का प्रबन्ध कर चुका था। उसके पृष्ठभागवाले सारे शत्रुओं का संहार भी,तब तक,उसकी सेना कर चुकी थी। इस प्रकार सर्व-सिद्धता हो चुकने पर,छः प्रकार की सेना साथ लेकर,दिग्विजय के लिए उस भाग्यशाली ने नगर से प्रस्थान किया । मन्थन करते समय,क्षीर-सागर की लहरों ने, जिस तरह,विष्णु भगवान् पर,मन्दराचल-पर्वत के घूमने से ऊपर को उड़े हुए अपने कण बरसाये थे,उसी तरह,बूढ़ी बूढ़ी पुरवा- सिनी स्त्रियों ने,प्रस्थान के समय,रघु पर खोलें बरसाई।

राजा रघु के रथों के पहियों से ऊपर को उड़ी हुई धूल ने आकाश को बिलकुल ही आच्छादित कर लिया। इससे वह पृथ्वी सा मालूम होने लगा । और,उसके काले काले हाथियों के ताँतातोर ने,पृथ्वी पर,मेघों की घटा को मात कर दिया। इससे वह आकाश के सदृश मालूम होने लगी । आकाश तो पृथ्वी सा हो गया और पृथ्वी आकाश सी ! .

इन्द्र-तुल्य पराक्रमी रघु,दिग्विजय के लिए,पहले पूर्व दिशा की ओर चला । उस समय,मार्ग में,हवा से उसके रथों की ध्वजाओं को फहराते देख यह जान पड़ने लगा कि वह उन पताकाओं को इस तरह हिला हिला कर अपने शत्रुओं की भयभीत सा कर रहा है । उसके प्रयाण करने पर [ १०५ ]
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सब के आगे तो लोगों को उसका प्रताप-उसका यश-विदित हुआ; उसके पीछे उसकी सेना का तुमुल नाद सुनाई पड़ा;उसके अनन्तर आकाश में छाई हुई धूल देख पड़ी; और सब के पीछे रथ, हाथी, घोड़े, पैदल आदि दिखाई दिये । इससे यह भासित होने लगा कि वह सेना चार भागों में बँटी हुई, अर्थात् चतुरङ्गिनी, सी है । रघु की प्रचण्ड सेना ने निर्जल मरुस्थलों को सजल कर दिया-मार्ग में यदि उसे कोई ऐसा प्रदेश मिला जहाँ पानी की कमी थी तो उसने तत्काल ही कुंवे आदि खुदा कर उसे जलमय कर डाला। बिना नाव के और किसी तरह पार न की जाने योग्य बड़ी बड़ी नदियों पर उसने पुल बंधवा कर पैरों से ही चल कर पार की जाने योग्य कर दिया। मार्ग में भयङ्कर वनों के आ जाने पर उन्हें कटा कर उसने मैदान कर दिया। बात यह कि उसके पास इतनी सेना थी और वह इतना शक्तिसम्पन्न था कि कोई प्रदेश और कोई स्थान ऐसा न था जो उसके लिए अगम्य होता। अपनी अनन्त सेना को पूर्वी समुद्र की तरफ़ ले जानेवाला वह राजा, शङ्कर के जटाजूट से छूटी हुई गङ्गा को ले जाने वाले भगीरथ के समान,मालूम होने लगा। वन के भीतर प्रविष्ट हुआ हाथी जिस तरह कुछ वृक्षों के फल ज़मीन पर गिराता,कुछ को जड़ से उखाड़ता और कुछ को तोड़ता ताड़ता आगे बढ़ता चला जाता है उसी तरह राजा रघु भी कुछ राजाओं से दण्ड लेता,कुछ को पदच्युत करता और कुछ को युद्ध में हराता-अपना मार्ग निष्कण्टक करता हुआ बराबर आगे चला गया।

इस प्रकार,पूर्व के कितने ही देशों को दबाता हुआ वह विजयी राजा, ताड़-वृक्षों के वनों की अधिकता के कारण श्यामल देख पड़नेवाले महासागर के तट तक जा पहुँचा । वहाँ सुझ देश (पश्चिमी बङ्गाल) के राजा ने,वेतस-वृत्ति धारण करके,सारे उद्धत राजाओं को उखाड़ फेंकनेवाले रघु से अपनी जान बचाई । वेत के वृक्ष जिस तरह नम्र होकर-मुक कर-नदी के वेग से अपनी रक्षा करते हैं उसी तरह सुम-नरेश ने भी नम्रता दिखा कर-अधीनता स्वीकार करके-रघु से अपनी रक्षा की। सुम देश-वालों के इस उदाहरण से वङ्ग-देश के राजाओं ने लाभ न उठाया। उन्हें इस बात का गर्व था कि हमारे पास जल-सेना बहुत है। लड़ाकू जहाज़ों [ १०६ ]
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और बड़ी बड़ी नावों पर सवार होकर जिस समय हम लोग लड़ेंगे उस समय रघु की कुछ न चलेंगी । जलयुद्ध में हम लोग रघु की अपेक्षा अधिक प्रवीण हैं । परन्तु यह उनकी भूल थी । रघु बड़ाही प्रवीण सेनानायक था। उसने उन सबको परास्त करके बलपूर्वक उखाड़ फेंका और गङ्गा-प्रवाह के भीतर टापुओं में कितने ही विजय-स्तम्भ गाड़ दिये । परास्त किये जाने पर वे वङ्गदेशीय नरेश होश में आये और रघु के पैरों पर जाकर गिरे । शरण आने पर रघु ने उनका राज्य उन्हें लौटा दिया- उन्हें फिर राज्यारूढ़ कर दिया। उस समय वे नरेश जड़ तक झुके हुए धान के उन पौधों की उपमा को पहुँचे जो उखाड़ कर फिर लगा दिये जाते हैं। जैसे इस तरह लगाये हुए पौधे और भी अधिक फल देते हैं और भी अधिक धान उत्पन्न करते हैं-उसी तरह उन वङ्ग-नरेशों ने भी, राज्यचुत होकर राज्यारूढ़ होने पर,रघु को और भी अधिक धन-धान्य देकर उसे प्रसन्न किया ।

इसके अनन्तर राजा रघु ने कपिशा (रूपनारायण.) नदी पर हाथियों का पुल बाँध कर सेनासहित उसे पार किया। उत्कलदेश (उड़ीसा) में उसके पहुँचते ही वहाँ के शासक राजाओं ने उसकी शरण ली । अतएक उनसे युद्ध करने की आवश्यकता न पड़ी। कलिङ्गदेश की सीमा उत्कल से मिली ही हुई थी। इस कारण उत्कलवाले वहाँ का मार्ग अच्छी तरह जानते थे । उन्हीं के बताये हुए मार्ग से रघु, शीघ्र ही, कलिङ्गदेश के पास जा पहुँचा।

कलिङ्ग की सीमा के भीतर घुस कर, उसने महेन्द्र-पर्वत (पुर्वी घाट) के शिखर पर अपने असह्य प्रताप का झण्डा इस तरह गाड़ दिया जिस तरह कि पीड़ा की परवा न करनेवाले उन्मत्त हाथी के मस्तक पर महावत अपना तीक्ष्ण अंकुश गाड़ देता है । रघु के आने का समाचार सुनते ही कलिङ्ग-देश का राजा, बहुत से हाथी लेकर, उससे लड़ने के लिए आया । अपने वज्र के प्रहार से पर्वतों के पंख काटने के लिए जिस समय इन्द्र तैयार हुआ था उस समय पर्वतों ने जिस तरह इन्द्र पर पत्थर बरसाये थे उसी

तरह कलिङ्ग-नरेश और उसके सैनिक भी रघु पर शस्त्रास्त्र बरसाने लगे। परन्तु वैरियों की बाणवर्षा को झेल कर रघु ने उन्हें लोहे के चने चबवाये। जीत उसी की रही। विजय लक्ष्मी उसी के गले पड़ी | उस समय वह मङ्गल[ १०७ ]
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स्नान किया हुआ सा-जीत के उपलक्ष्य में यथाशास्त्र अभिषिक्त हुआ सा-मालूम होने लगा। उसके योद्धाओं ने इस जीत की बेहद खुशी मनाई। उन्होंने,समीपवर्ती महेन्द्र-पर्वत के ऊपर,मद्य-पान करने की ठानी । इस निमित्त उन्होंने एक स्थान को सजा कर उसे खूब रमणीय बनाया। फिर वहीं एकत्र होकर,सबने,बड़े बड़े पान पत्तों के दोनों में,नारि- यल का मद्य पिया । इतना ही नहीं, किन्तु साथ ही उन्होंने अपने शत्रुओं का यश भी पान कर लिया। राजा रघु धर्मविजयी था। दूसरों के राज्य छीन कर उन्हें मार डालना उसे अभीष्ट न था । क्षत्रियों के धर्म के अनुसार, केवल विजय-प्राप्ति के लिए ही,उसने युद्ध-यात्रा की थी। इससे उसने कलिङ्ग-देश के राजा को पकड़ तो लिया,पर पीछे से उसे छोड़ दिया। उसकी सम्पत्ति मात्र उसने ले ली;राज्य उसका उसी को लौटा दिया।

इस प्रकार पूर्व-दिशा के राजाओं को जीत कर रघु ने,समुद्र के किनारे ही किनारे,दक्षिणी देशों की तरफ प्रस्थान किया। कुछ दिन बाद,बिना यत्न और इच्छा के ही विजय पानेवाला वह विजयी राजा,फलों से लदे हुए सुपारी के वृक्षों से परिपूर्ण मार्ग से चल कर,कावेरी-नदी के तट पर जा पहुँचा। वहाँ,हाथियों के गण्डस्थल से निकले हुए मद से सुगन्धित हुए उसके सैन्य ने उस नदी में जी खोल कर जलविहार किया। रघु ने उसे,इस प्रकार,क्रीड़ा करने की आज्ञा देकर,नदीनाथ समुद्र को,कावेरी के सतीत्वसम्बन्ध में, सन्देहयुक्त सा कर दिया। समुद्र के मन में,उस समय, यह शङ्का सी होने लगी कि मुझे छोड़ कर, क्या यह कावेरी अब सदा रघु के सैन्य-समुदाय ही का उपभोग करती रहेगी ?

बहुत दूर तक चलने के अनन्तर उस विजयशील राजा की सेना मलयाचल के पास पहुँच गई । वहाँ उसने देखा कि पर्वत की तराई मिर्च के वृक्षों से परिपूर्ण है और चारों तरफ़ हरियल पक्षी कलोलें कर रहे हैं। अतएव उस स्थान को बहुत ही रम्य और सुभीते का समझ कर रघु ने वहीं अपनी सेना को डेरे लगाने की आज्ञा दे दी । इस तराई में इलायची के वृक्षों की भी अधिकता थी। ढेरों इलायची उनके नीचे ज़मीन पर पड़ी थी। रघु के घोड़ों की टापों से वह चूर्ण हो गई । अतएव उसके दानों की रज उड़

स्ड़ कर मतवाले हाथियों पर जा गिरी और उनके मस्तकों से अपनी ही [ १०८ ]
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सी सुगन्धि उड़ती देख वहीं चिपिट रही । उसने कहा-इस मद की और अपनी सुगन्धि में समता है। इससे हम दोनों की खूब पटेगी। आवो यहीं रह जायें ।

जो हाथी अपने पैरों में पड़ी हुई मोटी मोटी जंजीरें भी सहज ही में तोड़ डालते थे उन्हीं को रघु के महावतों ने मलयाचल के चन्दन-वृक्षों से बाँध दिया। और बाँधा किस चीज़ से ? उनके गले में पड़ी हुई मामूली रस्सियों से। इस पर भी वे हाथी चुपचाप बँधे खड़े रहे । उन्होंने बन्धन की रस्सी को खिसकाने का प्रयत्न तक न किया। बात यह थी कि साँपों के लिपटने से चन्दन-वृक्षों पर जहाँ जहाँ चिह्न हो गये थे-जहाँ जहाँ छाल घिस गई थी--वहीं वहीं महावतों ने मज़बूती के साथ रस्सियाँ बाँध दी थीं। इससे, और चन्दन की सुगन्धि से मोहित हो जाने से भी,हाथी अपनी जगह से नहीं हिल सके।

दक्षिणायन होने पर सूर्य का प्रचण्ड तेज भी जिस दिशा में मन्द पड़ जाता है उसी दिशा में सेना-सहित उतरनेवाले रघु का प्रताप मन्द होने के बदले अधिक तीव्र हो गया। इससे दक्षिण के पाण्डु- देश-वासी राजा उसे न सह सके । जहाँ पर ताम्रपर्णी नदो समुद्र में गिरी है वहीं से निकाले गये बड़े बड़े अनमोल मोती ला लाकर नम्रता-पूर्वक उन्होंने रघु को अर्पण किये। उन्होंने यह मोतियों का उपहार क्या दिया,बहुत दिनों का सञ्चित किया हुआ अपना यश ही उसे दे सा डाला।

चन्दन के वृक्षों से व्याप्त मलय और दर्दुर (पश्चिमीघाट) नाम के

दक्षिणदेशवर्ती पर्वतों पर मनमाना विहार करके महापराक्रमी रघु ने वहाँ से भी प्रस्थान कर दिया। वहाँ से चल कर वह पृथ्वी के नितम्ब-भाग की समता करने वाले और समुद्र से बहुत दूर रहने वाले सह्याद्रि पर्वत पर जा पहुँचा और उसे भी पार कर गया। उस समय,पश्चिमी देशों के राजाओं का पराभव करने के लिए चलती हुई राजा रघु की सेना सह्याद्रि पर्वत से लेकर समुद्र के किनारे तक फैली हुई थी। इस कारण,परशुराम के बाणों ने यद्यपि समुद्र को सह्याद्रि से बहुत दूर पीछे हटा दिया था,तथापि उस असंख्य सेना के संयोग से ऐसा मालूम होता था कि फिर भी [ १०९ ]
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समुद्र ठेठ सह्याद्रि तक आ गया है । रघु का सेना-समूह, समुद्र की तरह,सह्याद्रि तक फैला हुआ था।

सेना के सह्याद्रि पार कर जाने पर राजा रघु ने केरलदेश पर चढ़ाई की । अतएव वहाँ के निवासी अत्यन्त भयभीत हो उठे । स्त्रियों ने तो मारे डर के अपने आभूषण तक शरीर से उतार कर फेंक दिये । यद्यपि उन्होंने अपने शरीर को भूषण-रहित कर दिया तथापि रघु की बदौलत उन्हें एक आभूषण अवश्य ही धारण करना पड़ा । वह आभूषण रघु की सेना के चलने से उड़ी हुई धूल थी । वह धूल उन स्त्रियों की कुमकुम-रहित अलकों पर जा गिरी और कुमकुम की जगह छीन ली ।अतएव जहाँ वे कुमकुम लगाती थीं वहाँ उन्हें रेणु धारण करनी पड़ी।

उस समय मुरला नामक नदी के ऊपर से आई हुई वायु ने केतकी के फूलों का पराग चारों तरफ़ इतना उड़ाया कि रघु के सेना-समूह पर उसकी वृष्टि सी होने लगी । अतएव बिना किसी परिश्रम या प्रयत्न के ही उस पराग ने रघु के योद्धाओं के कवचों पर गिर कर उन्हें सुगन्धि-युक्त कर दिया। सुगन्धित उबटन की तरह वह कवचों पर लिपट रहा।

रघु की सेना के घोड़ों पर पड़े हुए कवचों से,चलते समय,ऐसी गम्भीर ध्वनि होती थी कि पवन के हिलाये हुए ताड़-वृक्षों के वनों से निकली हुई ध्वनि उसमें बिलकुल ही डूब सी जाती थी-वह सुनाई ही न पड़ती थी।

पड़ाव पड़ जाने पर रघु के हाथी खजूर के पेड़ों की पेड़ियों से बाँध दिये जाते थे। उस समय उनके मस्तकों से निकले हुए मद की सुगन्धि दूर दूर तक फैल जाती थी। इससे नागकेसर के पेड़ों पर गूंजते हुए भौरे उन पेड़ों की सुगन्धि को कुछ न समझ कर, हाथियों के मस्तकों पर उड़ उड़ कर आ बैठते थे।

सुनते हैं,बहुत प्रार्थना करने और दबाव डाले जाने पर,समुद्र ने, पीछे हट कर,परशुराम के लिए थोड़ी सी भूमि दे दी थी। परन्तु, राजा रघु को उसने,अपने पश्चिमी तट पर राज्य करने वाले राजाओं के द्वारा,कर तक दे दिया । यह सच है कि रघु को राजाओं के हाथ से ही कर मिला । परन्तु यह एक बहाना मात्र था। यथार्थ में उस कर-दान का प्रेरक [ ११० ]
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समुद्र ही था। इससे सिद्ध है कि उसने रघु को परशुराम की भी अपेक्षा अधिक पराक्रमी समझा। वहाँ पर राजा रघु के मत्त हाथियों ने अपने दाँतों के प्रहार से त्रिकूट पर्वत के शिखरों को तोड़ फोड़ कर रघु के प्रबल पराक्रम के सूचक और चिरकालस्थायी चिह्न से कर दिये। इससे रघु ने विजय सूचक स्तम्भ स्थापित न करके उस तोड़े फोड़े पर्वत ही को अपना जय स्तम्भ समझा,और,और स्थानों में जैसी लाटे उसने गाड़ी थीं वैसी ही लाटे वहाँ गाड़ना उसने अनावश्यक समझा।

इसके अनन्तर रघु ने फारिस पर चढ़ाई करने का निश्चय किया । इन्द्रियरूपी वैरियों को जीतने के लिए तत्वज्ञान-रूपी मार्ग से जानेवाले योगी की तरह उसने फ़ारिस के राजाओं को जीतने के लिए थल की राह से प्रयाण किया।

प्रातःकालीन कोमल धूप कमलों को बहुत ही सुखदायक होती है। परन्तु कुसमय में ही उठने वाले मेघों को वह जैसे सहन नहीं होती,वैसे ही यवन-स्त्रियों के मुख-कमलों पर मद्यपान से उत्पन्न हुई लाली राजा रघु को सहन न हुई । इस कारण युद्ध में उनके पतियों का पराभव करके उस लालिमा को उसने नष्ट कर दिया। यवन-राजाओं के पास सवारों की सेना बहुत अधिक थी। इससे उनका बल बेहद बढ़ा हुआ था। परन्तु रघु इससे जरा भी सशङ्कन हुआ। उसने उन लोगों के साथ ऐसा घनघोर युद्ध किया कि धरती और आसमान धूल से व्याप्त हो गये । हाथ मारा न सूझने लगा। उस समय धनुष की डोरियों की टङ्कार सुन कर ही सैनिक लोग अपने अपने पक्ष के योद्धाओं को पहचानने में

समर्थ हुए । यदि प्रत्यञ्चाओं का शब्द न सुनाई पड़ता तो शत्रु-मित्र का ज्ञान होना असम्भव हो जाता। उस युद्ध में राजा रघु ने अपने भल्लनामक बाणों से यवनों के बड़े बड़े डढ़ियल सिरों को काट कर-शहद की मक्खियों से भरे हुए छत्तों की तरह-ज़मीन पर बिछा दिया । जो यवन मारे जाने से बचे वे अपनी अपनी पगड़ियाँ उतार कर रघु की शरण आये। यह उन्होंने उचित ही किया। महात्माओं का कोप उनकी शरण आने और उनके सामने सिर झुकाने ही से जाता है,। शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके राजा रघु के योद्धाओं ने,अङ गूर की बेलों के मण्डपों में, [ १११ ]
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ज़मीन पर अच्छे अच्छे मृग-चर्म बिछा कर,आनन्द से द्राक्षासव का पान किया। इससे उनकी युद्ध-सम्बन्धिनी सारी थकावट जाती रही।

पश्चिमी देशों के यवन-राजाओं का अच्छी तरह पराभव करके रघु की सेना ने उन देशों से भी डेरे उठा दिये । दक्षिणायन समाप्त होते ही जिस तरह भगवान सूर्य-नारायण अपनी प्रखर किरणों से उत्तर दिशा के जल-समूह को खींच लेने के लिए उस तरफ़ जाते हैं,उसी तरह कुवेर की अधिष्ठित उस उत्तर दिशा में रहने वाले राजाओं को अपने तीव्र बाणों से छेद कर,उनका उन्मूलन करने के लिए,राजा रघु ने अपनी सेना कों चलने की आज्ञा दी। मार्ग में उसे सिन्ध नदी पार करनी पड़ी। वहाँ,थकावट दूर करने के लिए, उसके घोड़ों ने नदी के तट पर खूब लोटे लगाई। उस प्रदेश में केसर अधिक होने के कारण नदी के तट केसर के तन्तुओं से परिपूर्ण थे । वे तन्तु घोड़ों की गर्दनों के बालों में बेतरह लग गये। अतएव अपनी गर्दने बड़े जोर जोर से हिला कर घोड़ों को वे तन्तु गिराने पड़े।

उत्तर दिशा में अपना अपूर्व पराक्रम दिखला कर रघु ने सारे हूण- राजाओं का पराभव कर दिया। युद्ध में पतियों के मारे जाने से उन राजाओं की रानियों ने,देश की रीति के अनुसार,बहुत सिर पीटा और बहुत रोई। इससे उनके कपोल लाल हो गये। यह लालिमा क्या थी,राजा रघु के बल-विक्रम ने उन अन्तःपुर-निवा- सिनी स्त्रियों के कपोलों पर अपने चिह्न से कर दिये थे।

इसके अनन्तर रघु ने काम्बोजदेश पर चढ़ाई की। वहाँ के राजा उसके प्रखर प्रताप को न सह सके । अखरोट के पेड़ों की पेड़ियों से बाँधे जाने से रघु के हाथियों ने जैसे उन्हें झुका दिया था वैसे ही रघु के प्रबल पराक्रम ने उन राजाओं को भी झुका कर छोड़ा। रघु की शरण आ आकर किसी तरह उन्होंने अपने प्राण बचाये । परास्त हुए काम्बोज-देशीय राजा,अपने यहाँ के उत्तमोत्तम घोड़ों पर सोना लाद लाद कर,रघु के पास उपस्थित हुए। ऐसी बहुमूल्य भेटे पाकर भी रघु ने गर्व को अपने पास नहीं फटकने दिया। उसे उसने दूर ही रक्खा ।

अब उसने हिमालय पर्वत पर चढ़ जाने का निश्चय किया। और [ ११२ ]
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चौथा सर्ग।

सेना को तो उसने नीचे ही छोड़ा,केवल अश्वारोही सेना लेकर उसने वहाँ से प्रस्थान किया। जिस रास्ते से उसे जाना था उसमें गेरू आदि धातुओं की बड़ी अधिकता थी। इसी कारण उसके घोड़ों की टापों से उड़ो हुई उन धातुओं की धूल से हिमालय के शिखर व्याप्त हो गये। उस समय उस धूल के उड़ने से ऐसा मालूम होने लगा जैसे पहले की अपेक्षा उन शिखरों की उँचाई बढ़ सी रही हो। राजा रघु की सेना का कोलाहल शब्द हिमालय की गुफाओं तक के भीतर पहुँच गया। उसे सुन कर वहाँ सोये हुए सिंह जाग पड़े और अपनी गर्दने मोड़ मोड़ कर पीछे की तरफ़ देखने लगे। रघु के घोड़ों को देख कर उन्होंने यह समझा कि वे हम लोगों से विशेष बलवान् नहीं; हमारी ही बराबरी के हैं। अतएव उनसे डरने का कोई कारण नहीं । उनके मन में उत्पन्न हुए ये विचार उनकी बाहरी चेष्टायों से साफ साफ झलकने लगे।

भोजपत्रों में लग कर खर-खर शब्द करने वाली,बाँसों के छेदों में घुस कर कर्ण-मधुर-ध्वनि उत्पन्न करने वाली,और गङ्गा के प्रवाह को छू कर आने के कारण शीतलता साथ लाने वाली वायु ने, मार्ग में,राजा रघु की खूब ही सेवा की। पर्वत के ऊपर चलने वाली उस शीतल,मन्द,सुगन्धित पवन ने रघु के मार्ग-श्रम का बहुत कुछ परिहार कर दिया। हिमालय पर सुरपुन्नाग,अर्थात् देव- केसर,के वृक्षों की बड़ी अधिकता है। उन्हीं के नीचे पत्थरों की शिलाओं पर कस्तूरी मृग बैठा करते हैं। इससे वे शिलाये कस्तूरी की सुगन्धि से सुगन्धित रहती हैं। उन्हीं शिलाओं पर रघु की सेना ने विश्राम करके अपनी थकावट दूर की । वहाँ पर रघु के हाथी देवदारु के पेड़ों से बाँध दिये गये । उस समय हाथियों की गर्दनों पर पड़ी हुई चमकीली ज़जीरों पर,आस पास उगी हुई जड़ी-बूटियाँ प्रतिबिम्बित होने लगी। इससे वे जजीरें देदीप्यमान हो उठी-उनसे प्रकाश का पुञ्ज निकलने लगा । इस कारण उन ओषधियों ने उस अपूर्व सेनानायक रघु के लिए बिना तेल की मशालों का काम दिया।

कुछ समय तक विश्राम करने के अनन्तर,रघु ने उस स्थान को भी छोड़ कर आगे का रास्ता लिया। उसके चले जाने पर पर्वत-वासी किरात लोग वह जगह देखने आये जहाँ पर,कुछ देर पहले, सेना के डेरे लगे थे । [ ११३ ]
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रघुवंश।

आने पर उन्होंने देखा कि जिन देवदारु-वृक्षों से रघु के हाथो बाँधे गये थे । उनकी छाल,हाथियों के कण्ठों की रस्सियों और जञ्जीरों की रगड़ से,कट गई है। उस कटी और रगड़ी हुई छाल को देख कर उन्होंने रघु के हाथियों की उँचाई का अन्दाजा लगाया।

हिमालय पर्वत पर उत्सव-सङ्कत नामक पहाड़ी राजाओं के साथ रघु का बड़ा ही भयङ्कर युद्ध हुआ । रघु की सेना के द्वारा छोड़े गये विषम बाण,और उन राजाओं की सेना के द्वारा गोफन में रख कर फे के गये पत्थर,परस्पर इतने ज़ोर से टकराये कि उनसे भाग निकलने लगी। रघु ने अपने भीषण बाणों की वर्षा से उन राजाओं के युद्ध-सम्बन्धी सारे उत्साह का नाश कर दिया। उनके गर्व को चूर्ण कर के रघु ने अपने भुजबल की बदौलत प्राप्त हुए जयरूपी यश के गीत किन्नरों तक से गवा कर छोड़े। किन्नरों तक ने उसे शाबाशी दी- उन्होंने भी उसका यशोगान कर के उसे प्रसन्न किया । फिर, उन परास्त हुए पहाड़ी राजाओं का क्या कहना । उन्होंने तो अपरिमित धन-सम्पत्ति देकर रघु को प्रसन्न किया। अनमोल रत्नों से अपनी अपनी अँजुलियाँ भर भर कर वे रघु के सामने उपस्थित हुए। उनकी उन भेटों को देखने पर राजा रघु को मालूम हुआ कि हिमालय कितना सम्पत्तिशाली है। साथ ही, हिमालय को भी मालूम हो गया कि रघु कितना पराक्रमी है। रघु के पहले कोई भी अन्य राजा हिमालय के इन पहाड़ी राजाओं का पराभव न कर सका था। इसीसे किसी को इस बात का पता न था कि इनके पास इतनी सम्पत्ति होगी।

वहाँ पर अपनी अखण्ड कीर्ति स्थापित करके,रावण के द्वारा एक दफ़े स्थानभ्रष्ट किये गये कैलास-पर्वत को लज्जित सा करता हुआ,राजा रघु हिमालय-पर्वत से नीचे उतर पड़ा। उसने और आगे जाने की आवश्यकता ही न समझी । एक दफे परास्त किये गये शत्रु के साथ शूर पुरुष फिर युद्ध नहीं करते;और,कैलास का पराभव रावण के हाथ से पहले ही हो चुका था । अतएव,उस पर फिर चढ़ाई करना रघु ने मुनासिब न समझा। यही सोच कर वह हिमालय के ऊपर से ही लौट पड़ा; आगे नहीं बढ़ा।

वहाँ से राजा रघु ने पूर्व-दिशा की ओर प्रस्थान किया और लौहित्या [ ११४ ]
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चौथा सर्ग।

( ब्रह्मपुत्रा ) नामक नदी को पार करके प्राग्ज्योतिष-देश (आसाम ) पर अपनी सेना चढ़ा ले गया । उस देश में कालागुरु के वृक्षों की बहुत अधिकता है । राजा रघु के महावतों ने उन्हीं से अपने हाथियों को बाँध दिया। इससे,हाथियों के झटकों से इधर वे वृक्ष थर्राने लगे,उधर प्राग्ज्योतिष का राजा भी रघु के डर से थर थर काँपने लगा।

राजा रघु के रथों के दौड़ने से इतनी धूल उड़ी कि सुर्य छिप गया और आसमान में मेघों का कहीं नामो निशान न होने तथा पानी का एक बूंद तक न गिरने पर भी सर्वत्र अन्धकार छा गया--महा दुर्दिन सा हो गया । यह दशा देख प्राग्ज्योतिष का राजा बेतरह घबरा उठा। वह रघु के रथ मार्ग की धूल का घटाटोप ही न सह सका,पताका उड़ाती हुई उसकी सेना का धावा उस बेचारे से कैसे सहा जाता ?

कामरूप का राजा बड़ा बली था। उसकी सेना में अनेक मतवाले हाथी थे। उनके कारण अब तक वह किसी को कुछ न समझता था। हाथियों की सहायता से वह कितनेही राजाओं को परास्त भी कर चुका था । परन्तु इन्द्र से भी अधिक पराक्रमी रघु का मुका- बला करने के लिए उसके भी साहस ने जवाब दिया । अतएव जिन मत्त हाथियों से उसने अन्यान्य राजाओं को हराया था उन्हीं को रघु की भेंट करके उसने अपनी जान बचाई। वह रघु की शरण गया और उसके चरणों की कान्तिरूपिणी छाया को, उसके सुवर्णमय सिंहासन की अधिष्ठात्री देवी समझ कर,रत्नरूपी फूलों से उसकी पूजा की-रघु को रत्नों की ढेरी नज़र करके उसकी अधीनता स्वीकार की।

इस प्रकार दिग्विजय कर चुकने पर,अपने रथों की उड़ाई हुई धूल को छत्ररहित किये गये राजाओं के मुकटों पर डालता हुआ,वह विजयी राजा लौट पड़ा । राजधानी में सकुशल पहुँच कर उसने उस विश्वजित्ना मक यज्ञ का अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया जिसकी दक्षिणा में यजमान को अपना सर्वस्व दे डालना पड़ता है। उसे ऐसाही करना मुनासिब भी था। क्योंकि,समुद्र से जल का आकर्षण करके जिस तरह मेघ उसे फिर पृथ्वी पर बरसा देते हैं,उसी तरह सत्पुरुष भी सम्पत्ति का

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रघुवंश ।

सञ्चय कर के उसे फिर सत्पात्रों को दे डालते हैं । दान करने ही के लिए वे धन इकट्ठा करते हैं,रख छोड़ने के लिए नहीं।

ककुत्स्थ के वंशज राजा रघु ने जिन राजाओं को युद्ध में परास्त किया था उन्हें भी वह अपने साथ अपनी राजधानी को लेता आया था;क्योंकि उसे विश्वजित्-यज्ञ करना था और यज्ञ के समय उनका उपस्थित रहना आवश्यक था। यज्ञ के समाप्त हो जाने पर उनको रोक रखना उसने व्यर्थ समझा । उधर वियोग के कारण उनकी रानियाँ भी उनके लौटने की राह उत्कण्ठापूर्वक देख रही थीं। अतएव अपने मन्त्रियों के साथ मित्रवत्व्य वहार करने और सब का सुख-दुःख जानने वाले रघु ने,उन सारे राजाओं का अच्छा सत्कार कर के,उनके पराजय-सम्बन्धी दुःख को बहुत कुछ दूर कर दिया । तदनन्तर बड़े बड़े पुरस्कार देकर रघु ने उन्हें अपने अपने घर लौट जाने की आज्ञा दी। तब ध्वजा,वज्र और छत्र की रेखाओं से चिह्नित,और बड़े भाग्य से प्राप्त होने योग्य, चक्रवर्ती रघु के चरणों पर अपने अपने सिर रख कर उन राजाओं ने वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय उनके मुकुटों पर गुंथे हुए फूलों की मालाओं के मकरन्द-कणों ने गिर कर रघु की अँगुलियों को गौर-वर्ण कर दिया।