रघुवंश/८—अज का विलाप

विकिस्रोत से
[ १६९ ]

आठवाँ सर्ग।

अज का विलाप।

अज के हाथ में बँधा हुआ विवाह का कमनीय कङ्कण भी न खुलने पाया था कि उसके पिता रघु ने पृथ्वी भी, दूसरी इन्दुमती के समान, उसे सौंप दी । इन्दुमती की प्राप्ति के बाद ही पिता ने उसे पृथ्वी दे डाली। रघु ने उसी को राजा बना दिया; आप राज्य-शासन के झंझटों से अलग हो गया। अज के सौभाग्य को तो देखिए। जिसकी प्राप्ति के लिए राजाओं के लड़के बड़े बड़े घोर पाप-विष-प्रदान और हत्या आदि-तक करते हैं वही पृथ्वी अज को, बिना प्रयत्न किये हो, मिल गई । आपही आप आकर वह अज के सामने उपस्थित सी हो गई । उसे इस तरह हाथ आई देख अज ने उसे ग्रहण तो कर लिया; पर भोग करने की इच्छा से ग्रहण नहीं किया-चैन से सुखोपभोग करने के इरादे से उसने राज-पद को स्वीकार नहीं किया। उसने कहा:-"मेरी तो यह इच्छा नहीं कि पिता के रहते मैं पृथ्वीपति बनें ; परन्तु जब पिता की आज्ञा ही ऐसी है तब उसका उल्लंघन भी मैं नहीं कर सकता। इससे, लाचार होकर, मुझे पृथ्वी का पालन करना ही पड़ेगा।"

कुलगुरु वशिष्ठ ने, शुभ मुहूर्त में, उसकी अभिषेक क्रिया समाप्त की। अनेक तीर्थों से पवित्र जल मँगा कर वशिष्ठ ने उन जलों को अपने हाथ से अज पर छिड़का । ऐसा करते समय जलों के छींटे पृथ्वी पर भी गिरे । अतएव अज के अभिषेक के साथ ही पृथ्वी का भी अभिषेक हो गया। इस पर पृथ्वी ने, जल पड़ने से उठी हुई उज्ज्वल भाफ के बहाने, अपनी कृतार्थता प्रकट की। अज के सदृश प्रजारजक राजा पाकर उसने अपने को धन्य माना। [ १७० ]अथर्ववेद के पूरे ज्ञाता महर्षि वशिष्ठ ने अज का अभिषेक-संस्कार विधिपूर्वक किया-अथर्ववेद में अभिषेक का जैसा विधान है उसी के अनुसार उन्होंने सब काम निबटाया। इस कारण अज का प्रताप, पौरुष और पराक्रम उसके शत्रुओं को दुःसह हो गया। वे उसका नाम सुनते ही थर थर काँपने लगे। अकेले अज का ही क्षात्र तेज उसके शत्रुओं को कैंपाने के लिए काफी था। वशिष्ठ के मन्त्र-प्रभाव से वह तेज और भी प्रखर हो गया। पवन के संयोग से अग्नि जैसे और भी अधिक प्रज्वलित हो उठता है वैसे ही ब्रह्म तेज के संयोग से अज का क्षात्र तेज भी पहले से अधिक तीव्र हो गया।

अज, किसी बात में, अपने पिता से कम न था। पिता की केवल राज्य-लक्ष्मी ही उसने न प्राप्त की थी; उसके सारे गुण भी उसने प्राप्त कर लिये थे। इस कारण उसकी प्रजा ने उस नये राजा को फिर से तरुण हुआ रघु ही समझा। उस समय दो चीज़ों के दो जोड़े बहुत ही अधिक शोभायमान हुए। एक तो, अज के साथ उसके बाप-दादे के सम्पत्तिशाली राज्य का संयोग होने से, अज और राज्य का जोड़ा पहले से अधिक शोभा- शाली हो गया। दूसरे, अज की स्वाभाविक नम्रता के साथ उसके नये यौवन का योग होने से, नम्रता और यौवन का जोड़ा विशेष शोभासम्पन्न हो गया। लम्बी लम्बी भुजाओं वाले–महाबाहु-अज ने, नई पाई हुई पृथ्वी का, नवोढ़ा वधू की तरह, सदय होकर भोग किया। उसने कहा:- "ऐसा न हो जो सख्ती करने से यह डर जाय। अतएव, अभी, कुछ दिन तक, इसका शासन और उपभोग लाड़-प्यार से ही करना चाहिए।" इस प्रकार के आचरण का फल यह हुआ कि उसकी सारी प्रजा उससे प्रसन्न हो गई। सब लोग यही समझने लगे कि राजा अकेले ही को सबसे अधिक चाहता है। समुद्र में सैकड़ों नदियाँ गिरती हैं-सैकड़ों उसका आश्रय लेती हैं परन्तु समुद्र उनमें से किसी को भी विमुख नहीं लौटाता; सब के साथ एक सा प्रीतिपूर्ण बर्ताव करता है। इसी तरह अज ने भी अपनी प्रजा में से किसी को भी अप्रसन्न होने का मौका न दिया। जो उस तक पहुँचा उसे उसने प्रसन्न करके ही छोड़ा। न उसने बहुत कठोर हो नीति का अवलम्बन किया और न बहुत कोमल ही का। कठोरता का

२१
 
[ १७१ ]
व्यवहार करने की ज़रूरत पड़ने पर, कठोरता उसने दिखाई; पर बहुत

अधिक नहीं। इसी तरह कोमलता का व्यवहार करने के लिए बाध्य होने पर कोमलता, से उसने काम लिया सही; पर इतना कोमल भी न हुआ कि कोई उससे डरे ही नहीं। कठोरता और कोमलता के बीच का मार्ग ग्रहण करके उसने-पवन जिस तरह पेड़ों को झुका कर छोड़ देता है उसी तरह-माण्डलिक राजाओं को झुका कर ही छोड़ दिया; उन्हें जड़ से नहीं उखाड़ा।

वृद्ध रघु को यह देख कर परमानन्द हुआ कि मेरे पुत्र को प्रजा इतना चाहती है और उसका राज्य सब तरह निष्कण्टक है। अब तक मोक्ष-साधन के उपायों में लगे रहने से उसे आत्मज्ञान भी हो गया था। अतएव, इस समय, उसने स्वर्ग के इन्द्रिय-भोग्य पदार्थों को भी तुच्छ समझा। उसने सोचा कि स्वर्ग के हों या पृथ्वी के, जितने भोग हैं, सभी विनाशवान हैं। उनकी इच्छा करना मूर्खता है। अतएव वह उनसे एकदम विरक्त हो गया। बात यह है कि इस वंश के राजाओं की यह रीति ही थी। वृद्ध होने पर, ये लोग, अपने गुण-सम्पन्न पुत्र को राज्य सौंप कर, वृत्तों की छाल पहनने वाले योगियों का अनुकरण करते थे-विषयोपभोगों का परित्याग करके, संयमी बन, वन में, ये तपस्या करने चले जाते थे। रघु ने भी, इसीसे, उस रीति का अनुसरण करना चाहा। वह वन जाने के लिए तैयार हो गया। यह देख कर अज को बड़ा दुःख हुआ। सरपंच से सुशोभित सिर को पिता के पैरों पर रख कर उसने कहा:-"तात! ऐसा न कीजिए। मुझे न छोड़िए। मैं निराश्रित हो जाऊँगा।" पुत्र को इस तरह कहते और रोते बिलखते देख, पुत्रवत्सल रघु ने अज की बात मान ली। वह वन को तो न गया; परन्तु, सर्प जिस तरह छोड़ी हुई केंचुल को फिर नहीं ग्रहण करता उसी तरह, उसने भी परित्याग की हुई लक्ष्मी को फिर नहीं लिया। छोड़ दिया सो छोड़ दिया। वह संन्यासी हो गया और नगर के बाहर, एक कुटी में, रहने लगा। वहाँ उसने अपनी सारी इन्द्रियों को जीत लिया। उस समय उसकी पुत्रभोग्या राज्य-लक्ष्मी ने उसके साथ पुत्रवधू की तरह व्यव- हार किया। लक्ष्मी का पूर्व सम्बन्ध रघु से छूट गया; उसका उपभोग अब उसका पुत्र करने लगा। तथापि, भले घर की पुत्रवधू जिस तरह अपने

थे [ १७२ ]
११६
आठवाँ सर्ग।


ससुर की सेवा, जी लगा कर, करती है उसी तरह लक्ष्मी भी जितेन्द्रिय रघु की सेवा करती रही।

इधर तो रघु, एकान्त में, मोक्ष-प्राप्ति के उपाय में लगा; उधर नया राज्य पाये हुए अज का दिनों दिन अभ्युदय होने लगा। एक की शान्ति का समय आया, दूसरे के उदय का। अतएव, उस समय, इस प्रकार के दो राजाओं को पाकर इक्ष्वाकु का कुल उस प्रातःकालीन आकाश की उपमा को पहुँच गया जिसमें एक तरफ़ तो चन्द्रास्त हो रहा है और दूसरी तरफ़ सूर्योदय। रघु को संन्यासियों के, और, अज को राजाओं के चिह्न धारण किये देख सब लोगों को ऐसा मालूम हुआ जैसे मोक्ष और ऐश्वर्य रूपी भिन्न भिन्न दो फल देने वाले धर्म के दो अंश पृथ्वी पर उतर आये हों। अज की यह इच्छा हुई कि मैं सभी को जीत लूँ-ऐसा एक भी राजा न रह जाय जिसे मैंने न जीता हो। अतएव, इस उद्देश की सिद्धि के लिए उसने तो बड़े बड़े नीति-विशारदों को अपना मन्त्री बनाया और अपना अधिकांश समय उन्हों के समागम में व्यतीत करने लगा। उधर रघ ने यह चाहा कि मुझे परम पद की प्राप्ति हो-मुझे आत्मज्ञान हो जाय। इससे सत्यवादी महात्माओं और योगियों की सङ्गति करके वह ब्रह्मज्ञान की चर्चा और योग-साधन में लीन रहने लगा। तरुण अज ने तो प्रजा के मामले मुकद्दमे करने और उनकी प्रार्थनायें सुनने के लिए न्यायासन का आसरा लिया। बूढ़े रघु ने, चित्त की एकाग्रता सम्पादन करने के लिए, एकान्त में, पवित्र कुशासन ग्रहण किया। एक ने तो अपने प्रभुत्व और बल की महिमा से पास-पड़ोस के सारे राजाओं को जीत लिया; दूसरे ने गहरे योगाभ्यास के प्रभाव से शरीर के भीतर भ्रमण करने वाले प्राण, अपान और समान आदि पाँचों पवनों को अपने वश में कर लिया। नये राजा अज के वैरियों ने, उसके प्रतिकूल, इस पृथ्वी पर, जितने उद्योग किये उन सब के फलों को उसने जला कर खाक कर दिया; उनका एक भी उद्योग सफल न होने पाया। पुराने राजा रघु ने भी अपने जन्म-जन्मान्तर के कम्मों के बीजों को ज्ञानाग्नि से जला कर भस्म कर दिया; उसके सारे पूर्वसञ्चित संस्कार नष्ट हो गये। राजनीति में कहे गये सन्धि, विग्रह आदि छहों प्रकार के गुण-व्यवहारों-का अज को पूरा पूरा ज्ञान था। उन पर उसका पूरा [ १७३ ]
अधिकार था। किस तरह के व्यवहार का कैसा परिणाम होगा, यह पहले ही से अच्छी तरह सोच कर, उसने इनमें से जिस व्यवहार की जिस समय ज़रूरत समझी उसी का उस समय प्रयोग किया। रघ ने भी मिट्टी और सोने को तुल्य समझ कर माया के सत्य, रज और तम नामक तीनों गुणों को जीत लिया। नया राजा बड़ा ही दृढ़का था। कोई काम छेड़ कर बिना उसे पूरा किये वह कभी रहा ही नहीं। जब तक कार्यसिद्धि न हुई तब तक उसने अपना उद्योग बराबर जारी ही रक्खा। वृद्ध राजा रघु भी बड़ा ही स्थिर बुद्धि और दृढ़-निश्चय था। जब तक उसे ब्रह्म का साक्षात्कार न हो गया-जब तक उसने परमात्मा के दर्शन न कर लिये-तब तक वह योगाभ्यास करता ही रहा। इस प्रकार दोनों ही नए अपने अपने काम बड़ी ही दृढ़ता से किये। एक तो अपने शत्रुओं की चालों को ध्यान से देखता हुआ उनके सारे उद्योगों को निष्फल करता गया। दूसरे ने अपने इन्द्रियरूपी वैरियों पर अपना अधिकार जमा कर उनकी वासनाओं का समूल नाश कर दिया। एक ने लौकिक अभ्युदय की इच्छा से यह सब काम किया; दूसरे ने आत्मा को सांसारिक बन्धनों से सदा के लिए छुड़ा कर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से किया। अन्त को दोनों के मनोरथ सिद्ध हो गये। दोनों ने अपनी अपनी अभीष्ट-सिद्धि पाई। अज ने अजेय-पद पाया; रघु ने मोक्ष-पद।

समदर्शी रघु ने, अज की इच्छा पूर्ण करने के लिए, कई वर्ष तक, योग-साधन किया। तदनन्तर, समाधि द्वारा प्राण छोड़ कर, मायातीत और अविनाशी परमात्मा में वह लीन हो गया।

पिता के शरीर-त्याग का समाचार सुन कर, नियम-पूर्वक अग्नि की सेवा-अग्निहोत्र-करने वाले अज को बड़ा दुःख हुआ। उसने बहुत विलाप किया और शोक से सन्तप्त होकर घंटों आँसू बहाये। तदनन्तर, कितने ही योगियों और तपस्वियों को साथ लेकर उसने पिता की यथा- विधि अन्त्येष्टि-क्रिया की; पर, पिता के शरीर का अग्नि-संस्कार न किया। बात यह थी कि राजा रघु गृहस्थाश्रम छोड़ कर संन्यासी हो गया था। इस कारण संन्यासियों के मृत शरीर का जिस तरह संस्कार किया जाता है उसी तरह अज ने भी पिता के शरीर का संस्कार किया। पितरों से [ १७४ ]<be>सम्बन्ध रखनेवाली जितनी क्रियायें हैं उन सब को अज अच्छी तरह जानता था। अतएव, पिता के परलोक-सम्बन्धी सारे कार्य उसने यथाशास्त्र किये। पिता पर उसकी बड़ी भक्ति यी। इसी से उसने विधि-पूर्वक उसके और्ध्व-दैहिक कार्य निपटाये; यह समझ कर नहीं कि उनकी आवश्यकता थी। बात यह है कि इन कार्यो की कोई आवश्यकता ही न थी, क्योंकि संन्यास-ग्रहण के अनन्तर रघु ने समाधिस्थ होकर शरीर छोड़ा था। और, इस तरह शरीर छोड़ने वाले पुरुष, पुत्रों के दिये हुए पिण्डदान की आकाङ क्षा ही नहीं रखते। वे तो ब्रह्म-पद को पहुँच जाते हैं। पिण्डदान से उन्हें क्या लाभ ?

पिता पर अज की इतनी प्रोति थी कि बहुत दिनों तक उसे पिता के मरने का शोक बना रहा। यह देख, बड़े बड़े विद्वानों और तत्ववेत्ताओं ने उसे समझाना बुझाना शुरू किया। उन्होंने कहा-"आपके पिता तो परम-पद को प्राप्त हो गये-वे तो परमात्मा में लीन हो गये। अतएव उनके विषय में शोक करना वृथा है। शोक कहीं ऐसों के लिए किया जाता है ? इस प्रकार के तत्व-ज्ञान-पूर्ण उपदेश सुनने से, कुछ दिनों में, अज के हृदय से पिता के वियोग की व्यथा दूर हो गई। तब वह फिर अपना राज-काज, पहले ही की तरह, करने लगा। बरसों उसने अपने धनुष की डोरी खाली ही नहीं। सदा ही उसका धनुष चढ़ा रहा। फल यह हुआ कि वह सारे संसार का एकच्छत्र राजा हो गया।

महाप्रतापी राजा अज की एक रानी तो इन्दुमती थी ही। पृथ्वी भी उसकी दूसरी रानी ही के समान थी, क्योंकि उसका भी पति वही था।

पहली ने तो अज के लिए एक वीर पुत्र उत्पन्न किया; और दूसरी, अर्थात्पृ थ्वी, ने अनन्त रत्नों की ढेरी उसे भेंट में दी–इन्दुमती से तो उसने पुत्र पाया और पृथ्वी से नाना प्रकार के रत्नों की राशि। अज के पुत्र का नाम दशरथ पड़ा। दशानन के वैरी रामचन्द्र के पिता होने का सौभाग्य अज के इसी पुत्र को प्राप्त हुआ। वह दस सौ, अर्थात् एक हज़ार, किरण वाले सूर्य के सदृश कान्तिमान हुआ। दसों दिशाओं में अपना विमल यश फैलाने से उसकी बड़ी ही प्रसिद्धि हुई। बड़े बड़े विद्वानों और तप-स्त्रियों तक ने उसकी कीर्ति के गीत गाये। [ १७५ ]
१२२
रघुवंश ।

वेदाध्ययन करके ऋषियों के,यज्ञ कर के देवताओं के और पुत्र उत्पन्न कर के पितरों के ऋण से अज ने अपने को छुड़ा लिया। अतएव,तीनों प्रकार के ऋणों से छूटने पर, उसकी ऐसी शोभा हुई जैसी कि चारों तरफ उत्पन्न हुए घेरे–परिधि-से छूटे हुए सूर्य की शोभा होती है। उसने अपने बल और पौरुष का उपयोग भय-भीत लोगों का भय दूर करने ही के लिए किया,किसी को सताने के लिए नहीं। इसी तरह अपने शास्त्र-ज्ञान और पाण्डित्य का उपयोग उसने विद्वानों का आदर-सत्कार करने ही उनके सामने नम्रता दिखाने ही–के लिए किया,अभिमानी बन कर उनकी अवज्ञा करने के लिए नहीं। इतना ही नहीं, किन्तु इस महाप्रभुताशाली सम्राट ने अपना सारा धन भी परोपकार ही में खर्च किया। और कहाँ तक कहा जाय, उसने अपने अन्य गुणों से भी दूसरों ही को लाभ पहुँचाया। परोपकार ही को उसने सब कुछ समझा, स्वार्थ को कुछ नहीं ।

कुछ दिनों तक सुपुत्र प्राप्ति के सुख का अनुभव कर के और प्रजा को सब प्रकार प्रसन्न कर के, एक बार वह अपनी रानी इन्दुमती के साथ,अपने नगर के फूल-बाग़ में,-इन्द्राणी को साथ लिये हुए,नन्दनवन में, इन्द्र की तरह-विहार करने के लिए गया। उस समय,आकाश में, नारद मुनि उसी मार्ग से जा रहे थे जिस मार्ग से कि सूर्य आता जाता है। दक्षिणी समुद्र के तट पर गोकर्ण नामक एक स्थान है। वहाँ देवाधिदेव शङ्कर का निवास है-उनका वहाँ पर एक मन्दिर है । वीणा बजा कर उन्हीं को अपना गाना सुनाने के लिए देवर्षि चले जाते थे।

इतने में ज़ोर से हवा चली और उनकी वीणा के सिरे की खूं- टियों पर लटकी हुई दिव्य फूलों की माला अपने स्थान से भ्रष्ट हो गई । उसकी अलौकिक सुगन्धि ने वायु के हृदय में मत्सर सा उत्पन्न कर दिया। अतएव वायु ने उस माला को गिरा दिया। सुगन्धि के लोभी कितने ही भौरे उस माला पर मँडरा रहे थे । माला के गिरते ही वे भी उसके साथ वीणा के ऊपर से उड़े। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे वायु के इस काम से वीणा ने अपना अपमान समझा हो। अतएव दुखी हो कर वह,भौंरों के बहाने ,काजल मिले हुए काले काले आँसू गिरा रही हो। इस माला में अद्भुत सुगन्धि थी। इसके फूलों में मधु भी अलौकिक [ १७६ ]
१२३
आठवाँ सर्ग।

ही था। अपनी अपनी ऋतु में फूलने वाली लताओं के सौन्दर्य, सुवास,पराग और रस-माधुर्य आदि गुण,इस माला के इन गुणों के सामने, कोई चीज़ ही न थे। यह जो नारद की वीणा से खिसकी तो अज की रानी इन्दुमती की छाती पर आ गिरी ।

नर-श्रेष्ठ अजं की प्रियतमा के वक्षःस्थल पर गिर कर वह माला वहाँ एक पल भर भी न ठहरी होगी कि इन्दुमती की दृष्टि उस पर पड़ो। उसे देखते ही इन्दुमती विह्वल हो गई और-राहु के द्वारा ग्रास किये गये चन्द्रमा की चाँदनी के समान--आँखें बन्द करके सदा के लिए अस्त हो गई । देखना,सुनना,बोलना आदि उसके सारे इन्द्रिय-व्यापार एकदम बन्द हो गये। उसके अचेतन शरीर ने अज को भी बेहोश करके ज़मीन पर गिरा दिया। प्रियतमा इन्दुमती को प्राणहीन देखतेही अज भी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। गिरना ही चाहिए था । क्या दीपक के जलते हुए तेल के बूंद के साथ ही दीपक की लौ भी ज़मीन पर नहीं गिर जाती ? अज और इन्दुमती की यह दशा हुई देख, उन दोनों के सेवकों ने बड़े ही उच्च-स्वर से रोना और विलाप करना आरम्भ कर दिया। उनका रोना-धोना सुन कर उस फूल-बाग के कमल-सरोवर में रहने वाले पक्षी तक घबरा उठे। भयभीत होकर वे भी कलकल शब्द करने और रोने लगे । उन्हें इस प्रकार रोता देख ऐसा मालूम होने लगा जैसे, राजा और रानी के सेवकों की तरह, वे भी दुखी हो रहे हैं। पंखा झलने और शीतल जल छींटने से अज की मूर्छा तो किसी तरह दूर होगई-वह तो होश में आ गया; पर, इन्दुमती वैसी ही निष्प्राण पड़ी रह गई । बात यह है कि ओषधि तभी तक अपना गुण दिखाती है जब तक आयु शेष रहती है। आयु का अन्त आ जाने पर ओषधियाँ काम नहीं करती।

चेतनता जाती रहने से निश्चेष्ट हुई इन्दुमती, उतरे हुए तारों वाली

वीणा की उपमा को पहुँच गई । अत्यन्त प्रीति के कारण अज ने उसे उसी दशा में उठा लिया और अपने गोद पर रक्खा-उस गोद पर जिससे उसकी रानी पहले ही से परिचित थी। इन्द्रिय-जन्य ज्ञान नष्ट हो जाने के कारण इन्दुमती के शरीर का रङ्ग बिलकुल ही पलट गया। उसकी चेष्टा ही कुछ और हो गई। उसके सर्वाङ्ग पर कालिमा सी छा गई । अतएव उसे [ १७७ ]
१२४
रघुवंश ।

गोद में लेने पर अज-मलिन मृग-लेखा लिये हुए प्रातःकालीन चन्द्रमा के समान-मालूम होने लगा। अपनी प्राणोपम रानी की अचानक मृत्यु हो जाने से अज को असीम दुःख हुआ । उसका स्वाभाविक धीरज भी छूट गया । उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई । बहुत तपाये जाने से लोहा भी नरम हो जाता है-नरम ही नहीं, गल तक जाता है-फिर यदि सन्ताप की आग से तपे हुए शरीरधारी विकल होकर रोने लगें तो आश्चर्य ही क्या है ? दुःख से व्याकुल होकर अज ने, रुंधे हुए कण्ठ से, इस प्रकार, विलाप करना आरम्भ कियाः-

"फूल बड़ी ही कोमल चीज़ है । शरीर में छू जाने से, हाय हाय ! फूल भी यदि प्राण ले सकते हैं तो फिर ऐसी और कौन सी चीज़ संसार में होगी जो मनुष्य को मारने में समर्थ न हो ? विधाता जब मारने पर उतारू होता है तब तिनका भी वत्र हो जाता है-तब जिस चीज़ से वह चाहे उसी से मार सकता है । अथवा यह कहना चाहिए कि यमराज कोमल वस्तु को कोमल ही से मारता है । मैं यह इस लिए कहता हूँ, क्योंकि इस तरह का एक दृष्टान्त मैं पहले भी देख चुका हूँ। देखिए कमलिनी भी कोमल होती है और पाला भी कोमल ही होता है। परन्तु इसी पाले से ही बेचारी कमलिनी मारी जाती है। अच्छा,यदि इस माला में प्राण ले लेने की शक्ति है तो यह मेरे प्राण क्यों नहीं ले लेती ? मैं भी तो इसे अपनी छाती पर रक्खे हूँ! बात यह है कि ईश्वर की इच्छा से कहीं विष अमृत का काम देता है, कहीं अमृत विष का । भगवान् चाहे जो करे ! अथवा मेरे दुर्भाग्य से ब्रह्मा ने इस माला से ही वज्र का काम लिया; इसे ही उसने वज्र बना दिया। ज़रा इस अघटित घटना को तो देखिए । इसने पेड़ को तो नहीं गिराया, पर उसकी डालों पर लिपटी हुई लता का नाश कर दिया ! इसी से कहता हूँ कि यह सारी करामात मुझ पर रूठे हुए विधाता की है।

"प्रिये ! बोल । बड़े बड़े सैकड़ों अपराध करने पर भी तूने कभी मेरा तिरस्कार नहीं किया । सदाही तू मेरे अपराध क्षमा करती रही है। इस समय तो मुझ से कोई अपराध भी नहीं हुआ। फिर भला क्यों तू मुझ निरपराधी से नहीं बोलती ? बोलना क्यों एकाएक बन्द कर दिया ? क्या मैं अब तेरे साथ बात चीत करने योग्य भी नहीं रहा ? [ १७८ ]
१२५
आठवाँ सर्ग।

"तेरी मन्द और उज्ज्वल मुसकान मुझे नहीं भूलती । मुझे इस समय यह सन्देह हो रहा है कि तूने मुझे सच्चा प्रेमी नहीं, किन्तु छली और शठ समझा । तेरे मन में निश्चय ही यह धारणा हो गई जान पड़ती है कि मेरा प्रेम बनावटी था। इसीसे तू,बिना मेरी अनुमति लिये ही,अप्रसन्न होकर,परलोक को चली गई-उस परलोक को जहाँ से तेरा लौट आना किसी तरह सम्भव नहीं। मुझे इस बात का बड़ा ही दुःख है कि तुझे निष्प्राण देख कर मेरे भी प्राण, जो कुछ देर के लिए तेरे पीछे चले गये थे, तुझे छोड़ कर क्यों लौट आये? क्यों न वे तेरे ही पास रह गये ? अब वे दुःसह दुःख सहते हुए अपनी करनी पर रोवे । इन पापियों ने अच्छा धोखा खाया ! परिश्रम के कारण उत्पन्न हुए पसीने के बूंद तो अब तक तेरे मुँह पर वर्तमान हैं; पर स्वयं तू वर्तमान नहीं। तेरी आत्मा तो अस्त हो गई, प्राण तो तेरे चले गये; पर पसीने के बूंद तेरे बने हुए हैं ! देहधारियों की इस असारता को धिक्कार! मैंने कभी भी तेरी इच्छा के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया। वैसा काम करना तो दूर रहा, कभी इस तरह के विचारों को भी मैंने अपने मन में नहीं आने दिया। फिर मेरे साथ इतनी निठुराई क्यों ? यह सच है कि मैं पृथ्वी का भी पति कह- लाता हूँ। परन्तु यह केवल कहने की बात है, यथार्थ बात नहीं । मेरे मन का गहरा अनुराग तो तुझी में रहा है। एक मात्र तुझी को मैं अपनी पत्नी समझता रहा हूँ, पृथ्वी को नहीं । लोग चाहे जो कहैं; सच वही है जो मैं कह रहा हूँ।

"हे सुन्दर जंघाओं वाली ! पवन की प्रेरणा से तेरी फूल से गुंथी हुई, बलखाई हुई, भौरों के समान काली काली ये अलकें, इस समय,हिल रही हैं । इन्हें इस तरह हिला डुला कर पवन मुझे इस बात की प्राशा सी दिला रहा है कि तु अभी, कुछ देर में, फिर उठ बैठेगी-तू मरी नहीं । इससे, प्रिये ! सचेत होकर-रात के समय,एकाएक चमक कर, हिमालय की गुफा के भीतरी अन्धकार को ओषधि की तरह-शीघ्र ही तू मेरे दुःख को दूर कर दे। उठ बैठ ! अचेतनता छोड़। बिखरी हुई अलकों वाला तेरा यह मौन मुख, इस समय, उस कमल के समान हो रहा है जो रात हो जाने से बन्द हो गया हो और जिसके भीतर भौरों

२२ [ १७९ ]
१२६
रघुवंश ।

की गुजार न सुनाई देती हो । सोते हुए निःशब्द कमल के समान तेरे इस मुख को देख कर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। रात से चन्द्रमा का वियोग हो जाने पर फिर भी वह उसे मिल जाती है। इसी तरह चकवे के साथ चकवी का भी फिर मिलाप हो जाता है। इसी से वे दोनों,किसी तरह,अपने वियोग-दुःख को सह लेते हैं,क्योंकि उन्हें अपनी अपनी प्रियतमाओं के फिर मिलने की आशा रहती है। परन्तु तेरे तो फिर मिलने की मुझे कुछ भी आशा नहीं । तू तो सदा ही के लिए मुझे छोड़ गई। फिर,भला,तेरा वियोग मुझे आग की तरह क्यों न जलावे ? हाँ, सुजंघे ! एक बात तो बता। नये निकले हुए लाल लाल पत्तों के बिछौने पर भी लेटने से तेरा मृदुल गात दुखने लगता था । सो वही अब जलती हुई चिता पर कैसे चढ़ेगा ? उसकी ज्वाला वह किस तरह सहेगा ? यह सोच कर मेरी तो छाती फटी जाती है ! देख,तेरी इस करधनी की क्या दशा हुई है ! इस पर तेरी बड़ी ही प्रीति थी । तू सदा इसे कमर पर ही रखती थी । एकान्त की पहली सखी तेरी यही है। तेरा चलना-फिरना और विलास-विभ्रम आदि बन्द हो जाने से, इसने भी,इस समय,मौन धारण कर लिया है । यह जान गई है कि अब तू ऐसी सोई है कि फिर जागने की नहीं। इसी से,इसे इस तरह चुपचाप पड़ी देख, कोई यह नहीं कह सकता कि यह मरी नहीं, जीती है । देखने से तो यही जान पड़ता है कि तेरे वियोग से व्याकुल होकर इसने भी तेरा अनुगमन किया है। परलोक जाने के लिए यद्यपि तू उतावली हो रही थी, तथापि,मुझे धीरज देने के लिए,तू अपने कई गुण यहाँ छोड़ती गई । अपने मधुर वचन कोयलों को, मन्दगमन हंसियों को, चञ्चल दृष्टि मृगनारियों को और हाव-भाव पवन की हिलाई हुई लताओं को तू देती गई। यह सब सच है,और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये चिह्न छोड़ कर तूने मुझ पर बड़ी कृपा की; परन्तु इनमें से एक की भी पहुँच मेरे हृदय तक नहीं हो सकती। तेरे वियोग की व्यथा से मेरा हृदय इतना व्याकुल हो रहा है कि यदि ये उस तक पहुँचे भी, तो भी, इन से उसकी सान्त्वना न हो सके। उसे अवलम्ब-दान देने में ये बिलकुल ही असमर्थ हैं।

"इस आम और प्रियंगुलता पर तेरी बड़ी ही प्रीति थी। तू ने इन [ १८० ]
१२७
आठवाँ सर्ग।

दोनों का एक जोड़ा बनाना चाहा था। तेरी इच्छा थी कि इन दोनों का विवाह हो जाय । परन्तु इनका मङ्गल-मय विवाह-विधान किये बिना ही तू जा रही है । यह बहुत ही अनुचित है। भला ऐसा भी कोई करता है ? देख,यह तेरा अशोक-वृक्ष है। पैरों से छ कर तू ने इसका दो हद किया था। इस पर अब शीघ्र ही फूल खिलेंगे। यदि तू जीवित रहती तो इन्हीं फूलों को तू अपने बालों में गूंथती; यहो तेरी अलकों की शोभा बढ़ाते । परन्तु, हाय ! यही फूल अब मुझे तेरी अन्त्येष्टि क्रिया में लगाने पड़ेंगे! तू ही कह, ऐसा हृदयविदारी काम किस तरह मुझ से हो सकेगा ? हे सुन्दरी! नूपुर बजते हुए तेरे चरणों के स्पर्श को याद सा करता हुआ यह अशोक, फूलरूपी आँसू बरसा कर, तेरे लिए रो रहा है । इस पर तेरा बड़ा ही अनुग्रह था। इसी से, तेरे पैरों के जिस स्पर्श के लिए और पेड़ लालायित रहते थे उसी को तू ने इसके लिए सुलभ कर दिया था । तेरे उसी अनुग्रह को याद करके, तेरे सोच में, यह आँसू गिरा रहा है। अपनी साँस के समान सुगन्धित बकुल के फूलों की जिस सुन्दर करधनी को तू मेरे साथ बैठी हुई गूंथ रही थी,उसे अधगूंथी ही छोड़ कर तू सदा के लिए सो गई । हे किन्नरों के समान कण्ठवाली ! यह तेरा सोना कैसा ? इस तरह का व्यवहार करना तुझे शोभा नहीं देता। तेरे सुख में सुखी और दुख में दुखी होने वाली ये तेरी सखियाँ हैं । प्रतिपदा के चन्द्रमा के समान छोटा, तथापि सुन्दर और हम लोगों की आशा का आधार,यह तेरा पुत्र है । एक मात्र तुझ से ही अनुराग रखने वाला यह तेरा प्रेमी मैं हूँ। तिस पर भी इन सारे प्रेम-बन्धनों को तोड़ कर तू ने यहाँ से प्रस्थान कर दिया ! निष्ठुरता की हद हो गई।

"मेरा सारा धीरज छूट गया । मेरे सांसारिक सुखों ने जवाब दे दिया। मेरा गाना-बजाना बन्द हुआ । ऋतु-सम्बन्धी मेरे उत्सव समाप्त हो चुके। वस्त्राभूषणों की आवश्यकता जाती रही । घर मेरा सूना हो गया। हाय ! हाय ! मेरी इस दुःख-परम्परा का कहीं ठिकाना है ! मैं किस किस बात को सोचूँ ? मेरे घर की तू स्वामिनी थी। सलाह करने की आवश्यकता होने पर मेरी तू सलाहकार थी। एकान्त में मेरी तू सखी थी। और, सङ्गीत आदि ललित-कलाओं में मेरी तू प्यारी विद्यार्थिनी थी। निर्दयी मृत्यु .. [ १८१ ]
१२८
रघुवंश।

ने,तेरा नाश करके,मेरे सर्वस्व ही का नाश कर दिया। अब मेरे पास रह क्या गया ? उसने तो सभी ले लिया; कुछ भी न छोड़ा । हे मतवान्ले नेत्रों वाली ! मेरे मद्य पी चुकने पर, बचे हुए रसीले मद का स्वाद तुझे बहुत ही अच्छा लगता था । इसी से तू सदा मेरे पीछे मद्यपान किया करती थी। हाय ! हाय ! वही तू ,अब, मेरे आँसुओं से दूषित हुई मेरी जलाञ्जली को,जो तुझे परलोक में मिलेगी किस तरह पी सकेगी ? इसमें कोई सन्देह नहीं कि मेरे लिए अनेक प्रकार के वैभव और ऐश्वर्य सुलभ हैं । परन्तु तेरे बिना वे मेरे किसी काम के नहीं । अज को जो सुख मिलना था मिल चुका । उसकी अवधि आज ही तक थी। संसार में जित -ने प्रलोभनीय पदार्थ और सुखोपभोग के सामान हैं उनकी तरफ़ मेरा चित्त नहीं खिंचता । मेर। सारा सांसारिक भोग-विलास एक मात्र तेरे आसरे था । तेरे साथ ही वह भी चला गया।"

अपनी प्रियतमा के मरने पर,कोसलेश्वर अज ने,इस प्रकार, घंटों, बड़ा ही कारुणिक विलाप किया। उसका रोना-बिलखना सुन कर मनुष्य ही नहीं,पेड़-पौधे तक रो उठे । डालों से टपकते हुए रसरूपी आंसु बरसवा कर अज ने पेड़ों को भी रुला दिया। उसके दुख से दुखी होकर,रस टपकाने के बहाने, पेड़ भी बड़े बड़े आँसू गिराने लगे।

बहुत देर बाद, अज के बन्धु-बान्धवों ने इन्दुमती के शव को अज की गोद से अलग कर पाया । तदनन्तर, उन्होंने इन्दुमती का शृङ्गार किया, जैसा कि मरने पर सौभाग्य स्त्रियों का किया जाता है। फिर उन्होंने उस मृत शरीर को अगर और चन्दन आदि से रची गई चिता पर रख कर उसे अग्नि के हवाले कर दिया। इन्दुमती पर अज का इतना प्रेम था कि वह भी उसी के साथ ही जल जाता । परन्तु उसने सोचा कि यदि मैं ऐसा करूँगा तो लोग यह कहेंगे कि इतना बड़ा राजा होकर भी स्त्री के वियोगदुःख को न सह सका और उसी के सोच में वह भी उसी का अनुगमन कर गया। इसी अपवाद से बचने के लिए अज ने जल जाना मुनासिब न समझा, जीने की आशा अथवा जलने के डर से नहीं।

इन्दुमती तो रही नहीं; उसके गुणमात्र, याद करने के लिए, रह गये। उन्हीं का स्मरण करते हुए उस शास्त्रवेत्ता और विद्वान् राजा ने किसी तरह सूतक के दस दिन बिताये । तदनन्तर, राजधानी के फूल-बाग में ही उसने [ १८२ ]
१२९
आठवाँ सर्ग।

दशाह के बाद के सारे कृत्यों का सम्पादन, राजोचित रीति पर, बहुत ही अच्छी तरह किया। अपनी प्रियतमा रानी के परलोकगमन -सम्बन्धी कृत्य समाप्त करके, प्रातःकाल के क्षीणप्रभ चन्द्रमा के समान, उदासीन और कान्तिरहित अज ने, विना इन्दुमती के, अकेले ही,अपने नगर में प्रवेश किया । उसे इस दशा में आते देख पुरवासिनी स्त्रियों की आँखों से आँसुओं को झड़ी लग गई । अज ने उनके आँसुओं को आँसू न समझा । उसे ऐसा मालूम हुआ जैसे अश्रुधारा के बहाने स्त्रियों के मुखों पर उनके शोक का प्रवाह सा बह रहा हो । उसे देखते देखते, किसी तरह, वह अपने महलों में पहुँचा।

जिस समय यह दुर्घटना हुई—जिस समय अज पर यह विपत्ति पड़ी-महामुनि वशिष्ठ, अपने आश्रम में, यज्ञ की दीक्षा ले चुके थे । इस कारण, अज को सान्त्वना देने के लिए वे उसकी राजधानी में न आ सके। परन्तु, योग-बल से उन्हें अज का सारा हाल मालूम हो गया। ध्यानस्थ होते ही उन्होंने जान लिया कि अज, इस समय, अपनी रानी के शोक में आकण्ठ, मग्न हो रहा है। वह अपने होश में नहीं। अतएव उन्होंने, अज को समझाने के लिए, अपना एक शिष्य भेजा । उसने आकर अज से कहा:-

"महर्षि वशिष्ठ को आपके दुःख का कारण मालुम हो गया है। उन्हें यह अच्छी तरह विदित हो गया है कि आप, इस समय, प्रकृतिस्थ नहीं । परन्तु वे यज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं । इससे अपने सदुपदेश द्वारा आपका दुःख दूर करने के लिए वे स्वयं नहीं आ सके । यज्ञ का प्रारम्भ न कर दिया होता तो वे स्वयं आते और आपके स्वभाव में जो विकार उत्पन्न हो गया है उसे अवश्य ही दूर कर देते । मेरे द्वारा उन्होंने कुछ सँदेशा भेजा है। उस संक्षिप्त सन्देश को अपने हृदय में धारण करके मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ। आप तो बड़े ही सदाचारशील और विवेकपूर्ण पुरुष हैं। धैर्य भी आप में बहुत है। आपके ये गुण सभी को विदित हैं। अतएव जो कुछ मैं आप से निवेदन करने जाता हूँ उसे सावधान होकर सुन लीजिए। यही नहीं, किन्तु उसे अपने हृदय में सादर स्थान देकर, उसके अनुसार बर्ताव भी कीजिए । सुनिए:-

"पुराण-पुरुष भगवान त्रिविक्रम के तीनों पदों,अर्थात् स्वर्ग, मर्त्य और [ १८३ ]
१३०
रघुवंश।

पाताल इन तीनों लोकों, में जो कुछ हो चुका है, जो कुछ हो रहा है और जो कुछ होनेवाला है उस सबको महर्षि वशिष्ट अपनी प्रतिबन्धरहित ज्ञानदृष्टि से देख सकते हैं । उस अजन्मा परमेश्वर की सृष्टि में ऐसी एक भी बात नहीं जिसका ज्ञान महर्षि को न हो । वे सर्वज्ञ हैं। त्रिभुवन की समस्त घटनायें उन्हें हस्तामलक हो रही हैं । अतएव उनकी बातों को प्राप सर्वथा सच और विश्वसनीय समझिएगा। उनमें सन्देह न कीजिएगा । ऋषि ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं आपको एक पुरानी कथा सुनाऊँ । वह यह है कि तृणविन्दु नाम के एक ऋषि थे। एक दफ़ उन्होंने बड़ी ही घोर तपस्या आरम्भ की। उन्हें बहुत ही उग्र तप करते देख इन्द्र डर गया। उसने समझा, कहीं ऐसा न हो जो ये, इस तपस्या के प्रभाव से, मेरा आसन छीन ले । इस कारण उसने हरि नाम की अप्सरा को, तृणविन्दु मुनि की तपस्या भङ्ग करने के लिए,मुनि के आश्रम में भेजा। उसकी करतूत से मुनिवर तृणविन्दु के तपश्चरण में विघ्न उपस्थित हो गया । अतएव उन्हें बेहद क्रोध हो आया । प्रलय-काल की तरङ्गमाला के समान उस क्रोध ने मुनि की शान्ति-मर्यादा तोड़ दी। तब उन्होंने,सामने खड़ी होकर अनेक प्रकार के हाव-भाव दिखाने वाली हरिणी को,शाप दिया। उन्होंने कहा-जा तू, पृथ्वी पर, मानवी स्त्री हो।

"यह शाप सुनते ही हरिणी के होश उड़ गये । उसने निवेदन किया-मुनिवर ! मैं पराधीन हूँ। दूसरे की भेजी हुई यहाँ आई हूँ। लाचार होकर मुझे स्वामी की आज्ञा माननी पड़ी है; खुशी से नहीं। इस कारण मेरा अपराध क्षमा कीजिए । निःसन्देह मैंने बहुत बुरा काम किया। इस प्रार्थना को सुन कर तृणविन्दु मुनि का हृदय दयार्द्र हो आया। उन्होंने कहा-अच्छा, देवताओं की पुष्पमाला का दर्शन होने तक ही तू पृथ्वी पर रहेगी। उसके दर्शन होते ही तेरा मानवी शरीर छूट जायगा और तू फिर अप्सरा होकर सुरलोक में आ जायगी।

"मुनि के शाप से उस अप्सरा का क्रथकैशिक वंश में जन्म हुआ।

वहाँ उसने इन्दुमती नाम पाया और आपकी रानी बनने का सौभाग्य उसे प्राप्त हुआ। बहुत काल तक आपके पास रहने के अनन्तर उसके शापमोचन का समय आया । तब आकाश से गिरी हुई माला के स्पर्श से उसका [ १८४ ]
१३१
आठवाँ सर्ग।

मानवी शरीर छूट गया। वह करतो क्या ? आपको छोड़ जाने के लिए वह बेचारी विवश थी । इस कारण रानी के मरने की चिन्ता अब आप और न करें । जन्मधारियों को एक न एक दिन अवश्य ही मरना पड़ता है--'जातस्यहि ध्रुवो मृत्युः। ऐसा कौन है जिसे जन्म लेकर विपत्तिग्रस्त न होना पड़ा हो ? विपत्तियाँ तो मनुष्य के सामने सदाही खड़ी रहती हैं । अब आप इस पृथ्वी की तरफ देख। आपको अब इसी का पालन करना चाहिए। क्योंकि पृथ्वी भी तो आपकी स्त्री है। अथवा यों कहना चाहिए कि पृथ्वी से ही राजा लोग कलत्रवान हैं । वे पृथ्वी के पति कहलाते हैं न ? इतना ऐश्वर्य और वैभव पाकर भी आप कभी राजमद से मत्त नहीं हुए;कभी आपने कोई काम ऐसा नहीं किया जिससे आप की निन्दा हो । आपने अपने आत्मज्ञान की बदौलत जो कुछ किया सभी शास्त्र-सम्मत किया। आपके शास्त्रज्ञान की सदा ही प्रशंसा हुई है। अब,दुर्दैववश,आप पर आपत्ति आई है। इस कारण आपके चित्त में विकार उत्पन्न हो गया है। इस विकार को भी आप अपने आत्मज्ञान की सहायता से दूर कर दीजिए । जिस तरह सम्पत्ति-काल में आप स्थिर रहे-कभी चञ्चल नहीं हुए-उसी तरह विपत्ति-काल में भी दृढ़तापूर्वक अचल रहिए । घबराइए नहीं। शास्त्रज्ञों और तत्त्वज्ञानियों का काम घबराना नहीं।

"राने से भला क्या लाभ ? रोना तो दूर रहा, यदि आप इन्दुमती का अनुगमन भी करेंगे-यदि उसके पीछे आप भी मर जायँगे-तो भी वह न मिल सकेगी। जितने शरीरधारी हैं; परलोक जाने पर, सब की गति, अपने अपने कम्मों के अनुसार, जुदा जुदा होती है। जो जैसा कर्म करता है उसकी वैसी ही गति भी होती है । जिस रास्ते एक को जाना पड़ता है उस रास्ते दूसरे को नहीं-सब का पथ जुदा जुदा है। इससे अब आप व्यर्थ शोक न कीजिए । जलाञ्जलि और पिण्डदान आदि से आप अपनी कुटुम्बिनी का उपकार कीजिए । यदि आपके द्वारा उसे कुछ लाभ पहुँच सकता है तो इसी तरह पहुँच सकता है, और किसी तरह नहीं। लोग इस बात को विश्वास-पूर्वक कहते हैं कि कुटुम्बियों और बन्धुबा- न्धवों के बार बार रोने से प्रेत को कुछ लाभ तो पहुँचता नहीं उलटा उसे दुःख होता है। देह धारण कर के ज़रूर ही मरना पड़ता है । मरना तो प्राणियों का

. [ १८५ ]
१३२
रघुवंश।

स्वभाव ही है। जिसे लोग जीना कहते हैं वह तो एक प्रकार का विकार है। जितने बुद्धिमान और विद्वान हैं वे मरने को स्वाभाविक और जीने को अस्वाभाविक समझते हैं । इस दशा में जो जीव- धारी क्षण भर भी साँस ले सकें-क्षण भर भी जीते रह सकें-उन्हें इतने ही को बहुत समझना चाहिए । उनके लिए यही क्या कम है ? यह थोड़ा लाभ नहीं ? जब अपना कोई प्रेमपात्र मर जाता है तब मूढ़ मनुष्यों को ऐसा मालूम होता है जैसे उनके हृदय में किसी ने भाला गाड़ दिया हो । परन्तु जो पण्डित हैं उन्हें ठीक इसका उलटा भास होता है। उनका हृदय तो और हलका हो जाता है। उन्हें तो ऐसा जान पड़ता है कि उनके हृदय में गड़े हुए भाले को किसी ने खींच सा लिया। बात यह है कि समझदार आदमी मृत्यु को सुख-प्राप्ति का द्वार समझते हैं । वे जानते हैं कि यदि मृत्यु न हो तो मनुष्य के भावी कल्याण का द्वार ही बन्द सा पड़ा रह जाय । अपने शरीर और आत्मा का भी तो साथ सदा नहीं रहता । उनका भी सदा ही संयोग और वियोग हुआ करता है । इस दशा में यदि बाहरी विषयों अथवा पदार्थों से किसी का सम्बन्ध छूट जाय-यदि उनसे उसे सदा के लिए अलग होना पड़े-तो, आपही कहिए, समझदार आदमी को क्यों सन्तप्त होना चाहिए ? ज़रा इस बात को तो सोचिए कि जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध भी स्थायी नहीं तब और वस्तुओं का सम्बन्ध किस तरह अविच्छिन्न रह सकता है ? आप तो जितेन्द्रिय जनों में सब से श्रेष्ठ हैं । इससे साधारण आदमियों की तरह आपको शोक करना उचित नहीं । यदि वायु के वेग से पेड़ों की तरह पर्वत भी हिलने लगे तो फिर उन दोनों में अन्तर ही क्या रहा ? फिर तो पर्वतों की 'अचल' संज्ञा व्यर्थ हो गई समझिए।"

उदारात्मा वशिष्ठ का यह उपदेश, उस मुनिवर के मुख से सुन कर,अज ने कहा-"गुरुवर का कथन बहुत ठीक है।" यह कह कर और महर्षि के वचनों को सादर स्वीकार करके उसने उस मुनि को भक्तिभाव-पूर्वक बिदा किया । परन्तु उसका हृदय इन्दुमती के शोक से इतना परिपूर्ण हो रहा था कि उसमें महर्षि वशिष्ठ के उपदेश को ठहरने के लिए जगह न मिली । अतएव उसे, उस मुनि के साथ ही, वशिष्ठ के पास लौट सा जाना पड़ा। [ १८६ ]
१३३
आठवां सर्ग।

इस समय अज का पुत्र दशरथ विलकुल ही अबोध बालक था । अतएव मधुरभाषो सत्यत्रत अज ने, पुत्र के बचपन के आठ वर्ष, कभी अपनी प्रियतमा रानी का चित्र देख कर और कभी पल भर के लिए स्वप्न में उसके दर्शन करके, किसी तरह, बड़ी मुश्किलों से बिताये । महल की छत तोड़ कर पीपल का पेड़ जैसे भीतर चला जाता है वैसे ही इन्दुमती की मृत्यु का शोक-शर अज की छाती को फाड़ कर बलपूर्वक भीतर घुस गया । परन्तु इससे उसने अपनी भलाई ही समझी। उसने कहा-"बहुत अच्छी बात है जो इस शोक-शर ने मेरे हृदय में इतना गहरा घाव कर दिया। इसकी दवा वैद्यों के पास नहीं। यह अवश्य ही मेरी मृत्यु का कारण होगा।" बात यह थी कि वह अपनी प्यारी रानी का अनुगमन करने के लिए बहुत ही उतावला हो रहा था। इसी से उसने प्रेमपूर्वक मृत्यु का आह्वान किया।

तब तक कुमार दशरथ ने शास्त्रों का अभ्यास भी कर लिया और युद्ध-विद्या भी अच्छी तरह सीख ली । शस्त्रास्त्रों से सज कर वह कवच धारण करने योग्य हो गया । अतएव पुत्र को समर्थ देख कर अज ने उसे विधिपूर्वक प्रजापालन करने की आज्ञा दी-उसने अपना राज्य पुत्र को सौंप दिया। तदनन्तर, अपने शरीर को रोग का बुरा घर समझ कर, उसमें और अधिक दिन तक न रहने की इच्छा से उसने अन्न खाना छोड़ दिया-अनशन-व्रत धारण कर लिया। इस तरह, कुछ दिन बाद, गङ्गाज् और सरयू के सङ्गम-तीर्थ में अज का शरीर छूट गया । इस तीर्थ में मरने का फल यह हुआ कि मरने के साथ, तत्काल ही, वह देवता हो गया; और, नन्दन-वन के विलास-भवनों में, पहले से भी अधिक सुन्दर शरीर वाली कामिनी के साथ फिर वह विहार करने लगा।