रघुवंश/७—इन्दुमती से अज का विवाह

विकिस्रोत से
[ १५३ ]
सातवाँ सर्ग।
-::-
इन्दुमती से अज का विवाह ।

स्वयंवर समाप्त हो गया । इन्दुमती ने अपने अनुरूप पति पाया। स्व महादेव के पुत्र, साक्षात् स्कन्ध, के साथ उनकी पत्नी देव- सेना जिस तरह सुशोभित हुई थी उसी तरह वह भी सर्वगुण- सम्पन्न अज के साथ सुशोभित हुई । विदर्भ-नरेश को भी इस सम्बन्ध से बड़ी खुशी हुई। उसने अपनी बहन और बहनोई को साथ लेकर, स्वयंवर के स्थान से अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया। जो राजा स्वयंवर में आये थे वे भी अपने अपने डेरों को गये। उस समय उन बेचारों की बड़ी बुरी दशा थी । उनका तेज क्षीण हो रहा था। उनके मुँह सूर्योदय होने के कुछ पहले, चन्द्रमा आदि ग्रहों के समान फीके पड़ गये थे। उनके चेहरों पर उदासी- नता छाई हुई थी। इन्दुमती को न पाने से उनके सारे मनोरथ मिट्टी में मिल गये। उन्होंने अपने रूप को भी व्यर्थ समझा और अपनी वेश-भूषा को भी। यदि उनकी चलती तो वे अवश्य ही स्वयंवर के काम में विघ्न डालते । परन्तु यह उनकी शक्ति के बाहर की बात थी । कारण यह था कि स्वयंवर की विधि आरम्भ होने के पहले ही इन्द्राणी की यथा-शोस्त्र पूजा हुई थी। उसके प्रभाव से किसी भी राजा को विघ्न उपस्थित करने का ज़रा भी साहस न हुआ । अज को इन्दुमती का मिलना यद्यपि उन्हें बहुत ही बुरा लगा-मत्सर की आग से यद्यपि वे बेतरह जले-तथापि, वहाँ पर,उस समय,उनसे कुछ भी करते धरते न बना । लाचार वहाँ से उन्हें चुपचाप उठ जाना ही पड़ा।

उधर वह राज-समूह अपने अपने डेरों को गया । इधर अज ने, अपनी बधू के साथ,राजा भोज के महलों का मार्ग लिया। स्वयंवर से नगर तक चौटी मनक ग्री। [ १५४ ]
सामग्रियाँ रक्खी हुई थीं। इन्द्र-धनुष की तरह चमकते हुए रङ्ग-बिरंगे तोरण बँधे हुए थे। मार्ग के दोनों तरफ़ सैकड़ों झण्डियाँ गड़ी हुई थीं। ध्वजाओं और पताकों के कारण सड़क पर सर्वत्र छाया थी । धूप का कहीं नामो-निशान भी न था। अज ऐसे सजे हुए मार्ग से, वहाँ का दृश्य देखते देखते, नगर के समीप आ पहुँचा । अज के आगमन की सूचना पाते . ही नगर की सुन्दरी स्त्रियाँ अपने अपने मकानों की, सोने की जाली लगी हुई, खिड़कियों में जमा होने लगीं। अज को देखने के चाव से वे इतनी उत्कण्ठित हो उठी कि उन्होंने घर के सारे काम छोड़ दिये। जो जिस काम को कर रही थी उसे वह वैसा ही छोड़ कर, अज को देखने के लिए, खिड़की के पास दौड़ आई।

एक स्त्री अपने बाल सँवार रही थी। वह वैसी ही खुली अलकें लेकर उठ दौड़ी। इससे उनमें गुंथे हुए फूल ज़मीन पर टपकते चले गये । परन्तु इसकी उसे खबर भी न हुई । एक हाथ से अपनी बेनी पकड़े हुए वह वैसी ही चली गई। जब तक खिड़की के पास नहीं पहुँची तब तक उसने अपने खुले हुए बाल नहीं सँभाले । जब बालों पर हाथ ही लगाया था तब बाँधने में कितनी देरी लगती। परन्तु उसे एक पल की भी देरी सहन न हुई।

एक और स्त्री, उस समय, अपने पैरों पर महावर लगवा रही थी। उसका दाहना पर नाइन के हाथ में था। उस पर आधा लगाया हुआ गीला महावर चुहचुहा रहा था । परन्तु इस बात की उसने कुछ भी परवा न की। पैर को उसने नाइन के हाथ से खींच लिया, और, अपनी लीला- ललाम मन्द-गति छोड़ कर, दौड़ती हुई खिड़की की तरफ भागी। अतएव जहाँ पर वह बैठी थी वहाँ से खिड़की तक महावर के बूंद बराबर टपकते चले गये और उसके पैर के लाल चिह्न बनते चले गये।

एक और स्त्री, उस समय, सलाई से काजल लगा रही थी। दाहनी आँख में तो वह सलाई फेर चुकी थी। पर बाई में काजल लगाने के पहले ही अज के आने की उसे खबर मिली । इससे उसमें काजल लगाये बिना ही, सलाई को हाथ में लिये हुए ही, वह खिड़की के पास दौड़ गई।

एक और स्त्री का हाल सुनिए । वह बेतरह घबरा कर खिड़की की [ १५५ ]
खुल गई । परन्तु उसे उसने बाँधा तक नहीं। योंही उसे हाथ से थामे हुए वह खिड़की के पास खड़ी रह गई। उस समय उसके उस हाथ के आभूषणों की आभा उसकी नाभि के भीतर चली जाने से अपूर्व शोभा हुई।

एक स्त्री अपनी करधनी के दाने पोह रही थी। वह काम आधा भी न हो चुका था कि वह जल्दी से उठ खड़ी हुई और उलटे सीधे डग डालते अज को देखने के लिए दौड़ी। इससे करधनी के दाने ज़मीन पर गिरते चले गये। यहाँ तक कि सभी गिर गये। खिड़की के पास पहुँचने पर उसके पैर के अँगूठे में बँधा हुआ डोरा मात्र बाकी रह गया।

इस प्रकार उस रास्ते के दोनों तरफ जितने मकान थे उनकी खिड़कियों में इतनी स्त्रियाँ एकत्र हो गई कि सर्वत्र मुख ही मुख दिखाई देने लगे। कहीं तिल भर भी जगह खाली न रह गई। इससे ऐसा मालूम होने लगा कि उन खिड़कियों में हज़ारों कमल खिले हुए हैं । अज को देखने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हुई इन स्त्रियों के मुख, कमल के सभी गुणों से, युक्त थे। कमल में सुगन्धि होती है। मुखों से भी सुवासित मद्य की सुगन्धि आ रही थी। कमलों पर भीरे उड़ा करते हैं; मुखों में भी काले काले नेत्र चञ्चलता दिखा रहे थे।

अज को देखते ही पुरवासिनी स्त्रियों ने उसे अपनी आँखों से पीना सा प्रारम्भ कर दिया। उनकी दर्शनोत्कण्ठा इतनी बढ़ी हुई थी कि उस समय उन्हें संसार के और सभी काम भूल गये । यहाँ तक कि नेत्रों को छोड़ कर उनकी और इन्द्रियों ने अपने अपने विषय व्यापार ही बन्द कर दिये । कानों ने सुनना और मुँह ने बोलना छोड़ दिया। सारांश यह कि सारी स्त्रियाँ बड़ी ही एकाग्र-दृष्टि से अज को देखने लगीं। उनका निर्निमेष अवलोकन देख कर यह भासित होने लगा जैसे उनकी अन्य सारी इन्द्रियाँ सम्पूर्ण-भाव से उनकी आँखों ही में घुस गई हो। अजकुमार को अच्छी तरह देख चुकने पर, पुरवासिनी स्त्रियों की दर्शनोत्कण्ठा जब कुछ कम हुई, तब वे परस्पर इस प्रकार बाते करने लगी:-

"कितने ही बड़े बड़े राजाओं ने राजा भोज के पास दूत भेज कर इन्दु- मती की मॅगनी की थी -उन्होंने इन्दुमती के साथ विवाह करने की हार्दिक इच्छा, अपने ही मुँह से, प्रकट की थी-परन्तु इन्दुमती को यह बात पसन्द [ १५६ ]
न आई। उसने उनकी प्रार्थना स्वीकार न की। उसने साफ़ कह दिया कि बिना देखे मैं किसी के भी साथ विवाह करने का वचन नहीं दे सकती। जान पड़ता है, इसी से वे राजा लोग अप्रसन्न हो गये और स्वयंवर में नहीं आये। परन्तु हमारी समझ में इन्दुमती ने यह बहुत ही अच्छा किया जो उनमें से किसी को भी स्वीकार न किया। स्वयंवर में मनमाना पति आपही ढूँढ़ लेने का यदि वह निश्चय न करती तो- लक्ष्मी को नारायण के समान--उसे अज के सहश अनुरूप पति कभी न मिलता। अज-इन्दुमती की अलौकिक जोड़ी हमें तो लक्ष्मीनारायण ही की जोड़ी के समान सुन्दर जान पड़ती है। हमने, आज तक, ऐसा अप्रतिम रूप और कहीं नहीं देखा था। यदि ब्रह्मा इन दोनों को परस्पर न मिला देता तो इन्हें इतना सुन्दर बनाने के लिए उसने जो प्रचण्ड परिश्रम किया था वह सारा का सारा अकारथ जाता। हमारी भावना तो यह है कि ये दोनों--इन्दुमती और अज-निःसन्देह रति और मन्मथ के अवतार हैं। यदि ऐसा न होता तो इतनी अप्रगल्भ होने पर भी यह इन्दुमती, हज़ारों राजाओं में से अपने ही अनुरूप इस राजकुमार को किसी तरह ढूंढ़ निकालती। बात यह है कि मन को पूर्व-जन्म के संस्कारों का ज्ञान बना रहता है। इन्दुमती और अज का, पूर्व जन्म में, ज़रूर सङ्ग रहा होगा। उसी संस्कार की प्रेरणा से इन्दुमती ने अज को ही फिर अपना पति बनाया।"

इस तरह पुरवासिनी स्त्रियों के मुख से निकले हुए, कानों को अलौकिक आनन्द देने वाले, वचन सुनते सुनते अजकुमार राजा भोज के महल के पास पहुँच गया। जा कर उसने देखा कि द्वार पर जल से भरे कलश रक्खे हुए हैं। केले के खम्भ गड़े हुए हैं। बन्दनवार बँधे हुए हैं। अनेक प्रकार की मङ्गलदायक वस्तुओं और रचनाओं से महल की शोभा बढ़ रही है। द्वार पर पहुँच कर अजकुमार अपनी सवारी की हथिनी से उतर पड़ा। कामरूप-देश के राजा ने उसका हाथ पकड़ लिया और उसे महल के भीतर ले चला। वहाँ राजा भोज के दिखाये हुए चौक में उसने प्रवेश क्या किया मानो राज-मन्दिर में एकत्र हुई स्त्रियों के मन में ही वह घुस गया-राजा भोज के मन्दिर में प्रवेश होने के साथही स्त्रियों के मन में भी [ १५७ ]
उसका प्रवेश हो गया। राज-मन्दिर के चौक में एक बड़ा ही मूल्यवान् सिंहासन रक्खा हुआ था। उसी पर भोज-नरेश ने अज को आदरपूर्वक बिठाया। फिर उसने मधुपर्क और अर्घ्य आदि से उसकी पूजा की। तदनन्तर थोड़े से रमणीय रत्न और रेशमी कपड़ों का एक जोड़ा उसने अज के सामने रक्खा। इस समय विदर्भ-नगर की स्त्रियाँ, अज पर, अपने कटाक्षों की वर्षा करने-उसे तिरछी नज़रों से देखने-लगी। दी गई चीज़ों को अज ने स्त्रियों के कटाक्षों के साथही स्वीकार किया। उसने उन चीज़ों को भी सहर्ष लिया और स्त्रियों के कटाक्षों पर भी, मनही मन, हर्ष प्रकट किया। इस विधि के समाप्त हो जाने पर, रेशमी वस्त्र धारण किये हुए अज को, राजा भोज के चतुर और नम्र सेवकों ने, वधू के पास पहुँचाया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे नये चन्द्रमा के किरण-समूह ने, स्वच्छ फेन से परिपूर्ण समुद्र को, तट की भूमि के पास पहुँचा दिया हो। वहाँ, राजा भोज के परम-पूज्य और अग्निसमान तेजस्वी पुरोहित ने घी, साकल्य और समिधा आदि से अग्नि की पूजा की। हवन हो चुकने पर, उसी अग्नि को विवाह का साक्षी करके, उसने अज और इन्दुमती का प्रन्थिबन्धन कर दिया-दोनों को वैवाहिक सूत्र में बाँध दिया। पासही उगी हुई अशोकलता के कोमल पल्लव से आम के पल्लव का संयोग होने से आम जैसे अत्यधिक शोभा पाता है वैसेही वधू इन्दुमती के हाथ को अपने हाथ पर रखने से अज की शोभा भी अत्यधिक बढ़ गई। उस समय का वह दृश्य बहुतही हृदयहारी हो गया। वर का हाथ कण्टकित हो उठा-उस पर रोमाञ्च हो पाया। वधू की उँगलियाँ भी पसीने से तर हो गई। उन दोनों के हाथों का इस तरह सात्विक-भाव-दर्शक परस्पर- मिलाप होने पर यह मालूम होने लगा जैसे प्रेम-देवता ने अपनी वृत्ति उन्हें एकसी बाँट दी हो। उन दोनों के मन में एक दूसरे के विषय में जो प्रीति थी वह काँटे में तुली हुई सी जान पड़ी। न किसी में रत्ती भर कम, न रत्ती भर अधिक। उस समय वे दोनों एक दूसरे को कनखियों देखने की चेष्टा करने लगे। परन्तु, उनमें से एक भी यह न चाहता था कि यह बात दूसरे को मालूम हो जाय। यदि भूल से उनकी आँखें आमने सामने हो जाती थी तो तुरन्तही वे उन्हें नीची कर लेते थे। तिस पर भी एक दूसरे [ १५८ ]
को देखने की लालसा उनमें, उस समय,इतनी बलवती हो रही थी कि फिर भी वे अपनी चेष्टा से विरत न होते थे। अतएव लज्जा और लालसा के झूले में झूलने वाली उनकी आँखों की तत्कालीन मनोहरता देखने ही योग्य थी। कन्यादान हो चुकने पर वे दोनों, वधू-वर, प्रज्वलित अग्नि की प्रदक्षिणा करने लगे। उस समय-सुमेरु-पर्वत के आस पास फिरते हुए, अतएव एक दूसरे में मिल से गये दिन-रात की तरह-वे मालुम होने लगे। प्रदक्षिणा हो चुकने पर, राजा भोज के विधाता-तुल्य पुरोहित ने इन्दुमती को हवन करने की आज्ञा दी। तब बड़े बड़े नितम्बों वाली इन्दुमती ने धान की खीलें अग्नि में, लजाते हुए, डाली। उस समय हवन का धुवाँ लगने से उसकी आँखें लाल हो गई। इससे वे मतवाले चकोर पक्षी की आँखों की तरह मालुम होने लगी। खीलें, शमी वृक्ष की समिधा और घी आदि पदार्थों की आहुतियाँ हवन-कुण्ड में पड़ते ही अग्नि से उठे हुए पवित्र धुएँ की शिखा इन्दुमती के कपोलों पर छा गई। अतएव, ज़रा देर के लिए, वह इन्दुमती के कानों पर रक्खी हुई नीलकमल की कली की समानता को पहुँच गई-ऐसा मालूम होने लगा कि इन्दुमती के कानों के आस पास धुआँ नहीं छाया, किन्तु नीले कमल का गहना उसने कानों में धारण किया है। वैवाहिक हवन का धुआँ लगने से वधू के मुख-कमल की शोभा कुछ और ही हो गई। उसकी आँखें आकुल हो उठी-उनसे काजल मिले हुए काले काले आँसू टपकने लगे; कानों में यवांकुर के गहने जो वह पहने हुए थी वे कुम्हला गये, और उसके कपोल लाल हो गये। इसके अनन्तर सोने के सिंहासन पर बैठे हुए वर और बधू के सिर पर (रोचनारंजित) गीले अक्षत डाले गये। पहले स्नातक गृहस्थों ने अक्षत डाले, फिर बन्धु- बान्धवों सहित राजा ने, फिर पति-पुत्रवती पुरवासिनी स्त्रियों ने।

इस प्रकार भोजवंश के कुलदीपक उस परम सौभाग्यशाली राजा ने, अपनी बहन का विधिपूर्वक विवाह संस्कार कर के, स्वयंवर में आये हुए अन्य राजाओं का भी अच्छी तरह, अलग अलग, आदर-सत्कार करने के लिए अपने कर्मचारियों और अधिकारियों को आज्ञा दी। उन लोगों ने सारे राजाओं की यथेष्ट सेवा-शुश्रूषा की; उनके आदरातिथ्य में ज़रा भी कसर न पड़ने दी। परन्तु विदर्भ-नरेश के आतिथ्य से वे लोग सन्तुष्ट न [ १५९ ]
हुए। आतिथ्य चाहे कुछ भी न होता, इन्दुमती दि उन्हें मिल जाती तो वे अवश्य सन्तुष्ट हो जाते। परन्तु वह तो उसके भाग्यही में न थो। मिलती कैसे ? ऊपर से तो इन लोगों ने प्रसन्नता प्रकट की, पर भीतरही भीतर ईर्षा की आग से जलते रहे। उस समय उनकी दशा उस तालाब के सदृश थी जिसका जल देखने में तो मोती के समान निर्मल हो, पर भीतर उसके मगर और घड़ियाल आदि बड़े ही भयानक जलचर भरे हों। राजा भोज के दिये हुए वस्त्र, शस्त्र और घोड़े आदि पहले तो उन्होंने ले लिये; पर, पीछे से, बिदा होते समय, वे उन्हीं चीज़ों को यह कह कर लौटाते गये कि इन्हें आप हमारी दी हुई भेंट समझिए। इन राजाओं ने आपस में सलाह कर के पहलेही यह निश्चय कर लिया था कि जिस तरह हो सके, इस इन्दुमतीरूपी आमिष को अज से ज़रूरही छोन लेना चाहिए। अतएव, इन्दुमती को साथ लेकर, विदर्भनगरी से अज के रवाना होने की वे ताक में थे। अपनी कार्य सिद्धि के लिए उन्होंने इसी मौके को सब से अच्छा समझा था। इससे राजा भोज से बिदा होकर वे उसकी राजधानी से चल तो दिये; पर अपने अपने घर न जाकर, बीचही में, अज का रास्ता रोक कर खड़े हो गये।

इधर छोटी बहन का विवाह निर्विघ्न समाप्त हो चुकने पर, राजा भोज ने अज को, अपने सामर्थ्य के अनुसार, दहेज में, बहुत कुछ धन-सम्पत्ति देकर उसे प्रसन्न किया। तदनन्तर उसे बिदा करके, कुछ दूर तक उसे पहुँचा आने के इरादे से, आप भी उसी के साथ रवाना हुआ। त्रिलोक विख्यात अज के साथ वह कई मजिल तक चला गया। रास्ते में तीन रातें उसने काटीं। इसके बाद-अमावस्या समाप्त होते ही चन्द्रमा जिस प्रकार सूर्य से अलग हो जाता है उसी प्रकार-वह भी अज का साथ छोड़ कर लौट पड़ा।

स्वयंवर में जितने राजा आये थे उनमें से प्रायः सभी की सम्पत्ति राजा रघु ने छीन ली थी-सब को परास्त करके उसने उनसे कर लिया था। इस बात ने पहले ही उन्हें रघु पर अत्यन्त क्रुद्ध कर दिया था। इकट्ठ होने पर, इन लोगों का वह क्रोध और भी बढ़ गया; और, रघु के पुत्र अज का स्त्री-रत्न पाना इन्हें असह्य हो उठा। अतएव, राजा बलि की दी हुई [ १६० ]
सम्पत्ति लेते समय, वामनावतार विष्णु के तीसरे पैर को, वामन-पुराण के लेखानुसार, जिस तरह प्रह्लाद ने रोका था, उसी तरह, इन्दुमती को ले जाते हुए अज के मार्ग को इन उद्धत और अभिमानी राजाओं के समूह ने रोका। अपनी अपनी सेना लेकर वे मार्ग में खड़े हो गये और युद्ध के लिए अज को ललकारने लगे। यह देख, अपने पिता के विश्वासपात्र मंत्री को बहुत से योद्धे देकर, इन्दुमती की रक्षा का भार तो अज न उसे सौंपा; और, स्वयं आप उन राजाओं की सेना पर इस तरह जा गिरा-इस तरह टूट पड़ा-जिस तरह कि उत्ताल-तरङ्ग धारी सोनभद्र नद हहराता हुआ गङ्गा में जा गिरता है।

घन-घोर युद्ध छिड़ गया। पैदल पैदल से, घोड़े का सवार घोड़े के सवार से, हाथी का सवार हाथी के सवार से भिड़ गया। जो जिसके जोड़ का था वह उसको ललकार कर लड़ने लगा। तुरही आदि मारू बाजे, दोनों पक्षों की सेनाओं में, बजने लगे। उनके तुमुलनाद से दिशायें इतनी परिपूर्ण हो गई कि धनुर्धारी योद्धाओं के शब्दों का सुना जाना असम्भव हो गया। इस कारण उन लोगों ने मुँह से यह बताना व्यर्थ समझा कि हम कौन हैं और किस वंश में हमारा जन्म हुआ है। यदि वे इस तरह अपना परिचय देकर एक दूसरे से भिड़ते तो उनके मुख से निकले हुए शब्द ही न सुनाई पड़ते। तथापि यह कठिनाई एक बात से हल हो गई। योद्धाओं के बाणों पर उनके नाम खुदे हुए थे। उन्हीं को पढ़ कर उन लोगों को एक दूसरे का परिचय प्राप्त हुआ।

रथों के पहियों से उड़ी हुई धूल ने घोड़ों की टापों से उड़ी हुई धूल को और भी गाढ़ा कर दिया। धूल के उस घनीभूत पटल को हाथियों ने अपने कान फटकार फटकार कर चारों तरफ़, इतना फैला दिया कि वह मोटे कपड़े की तरह आकाश में तन गई। फल यह हुआ कि सूर्य बिलकुल ही ढक गया-दिन की रात सी हो गई। ज़ोर से हवा चलने के कारण मछलियों के चिह्न वाली सेना की ध्वजायें खूब फैल कर उड़ने लगों। उनके तन जाने से ध्वजाओं पर बनी हुई मछलियों के मुँह भी पहले की अपेक्षा अधिक विस्तृत हो गये। उन पर ज्यों ज्यों सेना की उड़ाई हुई गाढ़ी धूल गिरने लगी त्यों त्यों वे उसे पीने सी लगों। उस समय ऐसा मालूम होने [ १६१ ]
लगा जैसे जीती जागती सच्ची मछलियाँ पहली बरसात का गॅदला पानी पी रही हों। धीरे धीरे धूल ने और भी अधिक अपना प्रभाव जमाया। हाथ मारा न सूझने लगा । पहियों की आवाज़ न होती तो रथों के अस्तित्व का ज्ञान ही न हो सकता; गले में पड़े हुए घंटे न बजते तो हाथियों की स्थिति भी न जानी जा सकती; और, योद्धा लोग यदि चिल्ला चिल्ला कर अपने अपने स्वामियों का नाम न बताते तो शत्रु-मित्र की पहचान भी न हो सकती। शस्त्रों की चोट खा खाकर हज़ारों हाथी, घोड़े और सैनिक, लड़ाई के मैदान में, लोट गये। उनके घायल शरीरों से निकले हुए रुधिर की धारा बह चली। उसने, दृष्टि के अवरोधक उस रजोमय अन्धकार के लिए बाल-सूर्य का काम किया। सूर्योदय होने से अन्धकार जैसे दूर हो जाता है वैसे ही उस लाल लाल लोहू के प्रवाह ने, सब कहीं फैली हुई धूल को, कुछ कम कर दिया। उसने धूल की जड़ काट दी। वह नीचे होकर बहने लगा, धूल उसके ऊपर हो गई। ज़मीन से उसका लगाव छूट गया। इतने में हवा चलने से वह धूल ऊपर ही ऊपर उड़ने लगी। उस समय ऐसा जान पड़ने लगा जैसे लपट निकल चुकने पर आग में अङ्गारों का केवल ढेर रह गया हो और उसके ऊपर पहले का उठा हुआ धुआँ मँडरा रहा हो।

गहरी चोट लगने से रथ पर सवार कितने ही सैनिक मूर्छित हो गये। यह देख, उनके सारथी उन्हें रथ पर डाल, युद्ध के मैदान से ले भागे। परन्तु, इतने में जो उन सैनिकों की मूर्छा छूटो और उन्हें होश आया तो उन्होंने इस तरह मैदान से भागने के कारण सारथियों को बेतरह धिक्कारा- उनकी बेहद निर्भर्त्सना की। अतएव उन्हें फिर रथ लौटाने पड़े। लौट कर उन सैनिकों ने अपने ऊपर प्रहार करने वालों को ढूँढ़ निकाला। यह काम सहजही हो गया, क्योंकि उन्होंने उनके रथों की ध्वजायें, अपने ऊपर प्रहार होते समय, पहलेही, अच्छी तरह देख ली थी। अतएव, उन्हें ढूँढ़ कर, क्रोध से भरे हुए वे उन पर टूट पड़े और सूद समेत बदला ले लिया। उन्होंने उनमें से एक को भी जीता न छोड़ा।

कोई कोई धनुषधारी धनुर्विद्या में बड़ेही निपुण थे। वे जब अपने शत्रुओं में से किसी को अपने बाण का निशाना बनाते थे तब बहुधा उनके [ १६२ ]
बाण उनके शत्रु बीचही में काट देते थे। परन्तु वे बाण इतने वेग से छूटते थे कि पिछला भाग कट जाने पर भी, लोहे का फल लगा हुआ उनका अगला भाग निशाने पर ही जाकर गिरता था। पिछला भाग तो कट कर गिर जाता था, पर अगला भाग निष्फल न जाता था-शत्रु को मार कर ही वह गिरता था।

जो सैनिक हाथियों पर सवार थे उनके चक्रों की धार छुरे की धार के समान तेज थी। उन चक्रों के आघात से महावतों के सिर कट कर कुछ दूर ऊपर आकाश में उड़ गये। वहाँ, सिरों के केश चील्हों के नखों में फँस जाने के कारण मुश्किल से छूटे। इससे, बड़ो देर बाद, वे ज़मीन पर धड़ाधड़ गिरे।

अब जरा घुड़सवारों के युद्ध की भी एक आध बात सुन लीजिए। एक ने यदि दूसरे पर प्रहार किया और वह मूच्छित होकर, घोड़े की गरदन पर सिर रख कर, रह गया-उसे अपने ऊपर वार करनेवाले पर हाथ उठाने का मौकाही न मिला-तो दुबारा प्रहार करने के लिए पहला तब तक ठहरा रहा जब तक दूसरे की मूर्छा न गई। मूर्च्छित अवस्था में शत्रु पर वार करना उसने अन्याय समझा। युद्ध में योद्धाओं ने धर्माधर्म का इतना खयाल रक्खा।

कवच धारण किये हुए योद्धाओं ने, मृत्यु को तुच्छ समझ कर, बड़ा ही भीषण युद्ध किया। अपने शरीर और प्राणों को उन्होंने कुछ भी न समझा। म्यान से तलवारें निकाल कर हाथियों के लम्बे लम्बे दाँतों पर, वे तड़ा तड़ मारने लगे। इस कारण उनसे चिनगारियाँ निकलने लगीं। इस पर हाथी बेतरह भयभीत हो उठे और सूंड़ों में भरे हुए पानी के कण बरसा कर किसी तरह उस आग को वे बुझा सके।

लड़ाई के मैदान ने, क्रम क्रम से, इतना भीषण और विकराल रूप धारण किया कि वह मृत्यु की पानभूमि, अर्थात् शराबखाने, की समता को पहुँच गया। पानभूमि में मद्य की नदियाँ बहती है; यहाँ रुधिर की नदियाँ बह निकली। वहाँ मद्य पीने के लिए काँच और मिट्टी के पात्र रहते हैं; यहाँ योद्धाओं के सिरों से गिरे हुए लोहे के टोपों ने पानपात्रों का काम दिया। वहाँ शराबियों की चाट के लिए फल रक्खे रहते हैं; यहाँ बाणों से काट गिराये गये हज़ारों सिर ही स्वादिष्ट फल हो गये।

२०
 
[ १६३ ]किसी सैनिक की कटी हुई भुजा को मांसभोजी पक्षो खाने लगे।

उसके दोनों सिरों से नोच नोच कर बहुत सा मांस वे खा भी गये। इतने में एक स्यारनी ने उसे देख पाया। वह झपटी और पक्षियों से उस अधखाई भुजा को छीन लाई। उस पर, बीच में, मारे गये सैनिक का भुजबन्द ज्यों का त्यों बंधा था। इससे उसके नीचे का मांस पत्तियों के खाने से बच रहा था। स्यारनी ने जो दाँत उस पर मारे तो भुजबन्द की नाकों से उसका तालू छिद गया। अतएव, यद्यपि मांस उसे बहुतही प्यारा था, तथापि, लाचार होकर, उसे वह बाहु-खण्ड छोड़ ही देना पड़ा।

शत्रु के खड्गाघात से एक वीर का सिर कट कर ज्योंही ज़मीन पर गिरा त्योंही युद्ध में लड़ कर मरने के पुण्यप्रभाव से, वह देवता हो गया। साथही एक देवाङ्गना भी उसे प्राप्त हो गई और तत्काल ही वह उसकी बाई तरफ विमान पर बैठ भी गई। इधर यह सब हुआ उधर उसका मस्तकहीन धड़, तब तक, समर-भूमि में, नाचता ही रहा। उसके नाच को विमान पर बैठे हुए इस वीर ने बड़े कुतूहल से देर तक देखा। अपने ही धड़ का नाच देखने को मिलना अवश्य ही कुतूहल की बात थी।

दो और वीर, रथ पर सवार, युद्ध कर रहे थे। उन दोनों ने परस्पर एक दूसरे के सारथी को मार गिराया। सारथीहीन रथ हो जाने पर वे खुदही सारथी का भी काम करने लगे और लड़ने भी। कुछ देर में उन दोनों के घोड़े भी मर कर गिर गयें। यह देख वे अपने अपने रथ से उतर पड़े और गदा-युद्ध करने लगे। उन्होंने ऐसा भीषण युद्ध किया कि ज़रा देर बाद उनकी गदायें चूर चूर हो गई। तब वे दोनों, परस्पर, योहो भिड़ गये और जब तक मरे नहीं बराबर मल्लयुद्ध करते रहे।

दो और वीरों का हाल सुनिए। बड़ी देर तक परस्पर युद्ध करके वे दोनों एक ही साथ घायल हुए और एक ही साथ मर भी गये। स्वर्ग जाने पर एक ने जिस अप्सरा को पसन्द किया, दूसरे ने भी उसी को पसन्द किया। फल यह हुआ कि वहाँ भी दोनों आपस में विवाद करने और लड़ने लगे-देवता हो जाने पर भी उनका पारस्परिक वैर-भाव न गया।

कभी आगे और कभी पीछे बहनेवाली वायु की बढ़ाई हुई, महासागर की दो प्रचण्ड लहरें जिस तरह कभी आगे को बढ़ जाती हैं और कभी [ १६४ ]
पीछे लौट जाती हैं, उसी तरह कभी तो अज की सेना, एकत्र हुए राजाओं की सेना की तरफ़, बढ़ती हुई चली गई और उसे हरा दिया; और, कभी राजाओं की सेना अज की सेना की तरफ़ बढ़ती हुई चली आई और उसे हरा दिया। बात यह कि कभी इसकी जीत हुई कभी उसकी। दो में से एक की भी हार पूरे तौर से न हुई। युद्ध जारी ही रहा। इस जय-पराजय में एक विशेष बात देख पड़ी। वह यह कि शत्रुओं के द्वारा अज की सेना के परास्त होने और थोड़ी देर के लिए पीछे हटजाने पर भी अज ने कभी एक दफे भी, अपना पैर पीछे को नहीं हटाया। वह इतना पराक्रमी था कि अपनी सेना को पीछे लौटती देख कर भी शत्रुओं की सेना ही की तरफ़ बढ़ता और उस पर आक्रमण करता गया। जब उसका कदम उठा तब आगे ही को कभी पीछे को नहीं। घास के ढेर में आग लग जाने पर, हवा उसके धुर्वे को चाहे भले ही इधर उधर कर दे; पर आग को वह उसके स्थान से ज़रा भी नहीं हटा सकती। वह तो वहीं रहती है जहाँ घास होती है। शरीर पर लोहे का कवच धारण किये, पीठ पर बाणों से भरा हुआ तूणीर लटकाये, हाथ में धनुष लिये, रथ पर सवार, उस महाशूर वीर और रणदुर्मद अज ने उन राजाओं के समूह का इस तरह निवारण किया जिस तरह कि महावराह विष्णु भगवान् ने, महाप्रलय के समय, बेतरह बढ़े हुए महासमुद्र का निवारण किया था। अज का वे बाल तक वाँका न कर सके। बाणविद्या में अज इतनां निपुण था कि वह अपना दाहना अथवा बायाँ हाथ, बाण निकालने के लिए, कब अपने तूणीर में डालता और बाण निकालता था, यही किसी को मालूम न होता था। उस अलौकिक योद्धा के हस्तलाघव का यह हाल था कि उसके दाहने और बायें, दोनों हाथ, एक से उठते थे। धनुष की डोरी जहाँ उसने एक दफ़ कान तक तानी तहाँ यही मालूम होता था कि शत्रुओं का संहार करनेवाले असंख्य बाण उस डोरी से ही निकलते से-उससे ही उत्पन्न होते से चले जाते हैं। अज ने इतनी फुर्ती से भल्ल नामक बाण बरसाना आरम्भ किया कि ज़रा ही देर में, कण्ठ कट कट कर, शत्रओं के अनगिनत सिर ज़मीन पर बिछ गये। जिस समय अज के बाण शत्रुओं पर गिरते थे उस समय पहले तो उनके मुँह से हुङ्कार शब्द निकलता था। फिर मारे क्रोध के वे [ १६५ ]
अपने ही होंठ अपने दाँतों से काटने लगते थे। इससे होठ और भी अधिक लाल हो जाते थे। इसके साथ ही, क्रोधाधिक्य के कारण, उनकी भौहें बेतरह टेढ़ी हो जाती थीं। इससे भौहों के ऊपर की रेखा और भी अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगती थीं।

अज के अतुल पराक्रम को देख कर उसके शत्रु थर्रा उठे। उन्होंने कहा-इसे इस तरह जीतना असम्भव है। आवो, सब मिल कर इस पर एकबारगी टूट पड़े। इस प्रकार उन्होंने उसके साथ अधर्मयुद्ध करने का निश्चय किया। हाथी, घोड़े, रथ आदि जितने अङ्ग सेना के हैं उन सबको, विशेष करके हाथियों को, उन्होंने एक ही साथ धावा करने के लिए आज्ञा दे दी। दृढ़ से भी बढ़ कवचों को फाड़ कर शरीर के भीतर घुस जाने की शक्ति रखनेवाले जितने अस्त्र-शस्त्र थे उन सबको भी उन्होंने साथ लिया। इसके सिवा और भी जो जो उपाय उनसे करते बने वे भी सब उन्होंने किये। इस प्रकार खूब तैयारी करके वे, सब के सब राजा, अकेले अज पर, आक्रमण करने के लिए दौड़ पड़े। उधर सर्वसिद्धता इधर एकाकीभाव! फल यह हुआ कि शत्रुओं की शस्त्रास्त्र-वर्षा से अज का रथ, प्रायः बिलकुल ही, ढक गया। उसकी ध्वजा मात्र, ऊपर, थोड़ी सी दिखाई देती रही। जिस दिन प्रातःकाल कुहरा अधिक पड़ता है उस दिन, यदि सूर्य का थोड़ा बहुत भी प्रकाश न हो तो, यही न मालूम हों सके कि प्रातःकाल हो गया है या अभी तक रात ही है। ऐसी दशा में, सूर्य के अत्यल्प प्रकाश से जिस तरह प्रात:काल का ज्ञान लोगों को होता है, उसी तरह रथ के ऊपर उड़ती हुई ध्वजा की चोटी को देख कर ही सैनिक लोग अज को पहचान सके। शत्रुओं ने शस्त्र बरसा कर अज के रथ की ऐसी गति कर डाली।

इस दशा को प्राप्त होने पर, सार्वभौम राजा रघु के पुत्र, पञ्चशायक के समान सुन्दर, अज को प्रियंवद नामक गन्धर्व से पाये हुए सम्मोहनास्त्र की याद आई। कर्त्तव्य-पालन में अज बहुत ही दृढ़ था। आलस्य उसे छू तक न गया था। अतएव कर्तव्य निष्ठा से प्रेरित होकर उसने उस नींद लानेवाले अस्त्र को उन राजाओं पर छोड़ ही दिया। उसके छूटते ही राजाओं की सेना एकदम सो गई। सैनिकों के हाथ जहाँ के तहाँ जकड़ [ १६६ ]
से गये। धनुष की डोरी खींचने में वे सर्वथा असमर्थ हो गये। लोहे की जाली के टोप सिरों से खिसक कर, एक तरफ, उन लोगों के कन्धों पर आ रहे। सारे रथारोही सैनिक, अपने अपने शरीर ध्वजाओं के वाँसों से टेक कर, मूर्तियों के समान अचल रह गये। उँगली तक किसी से उठाई न गई। शत्रुओं की ऐसी दुर्दशा देख वीर-शिरोमणि अज ने अपने अोठों पर रख कर बड़े ज़ोर से शङ्ख बजाया। उस समय ऐसा मालूम हुआ जैसे, शङ्ख को मुँह से लगाने के बहाने, वह अपने वाहुबल से प्राप्त किये गये मूर्तिमान यश को ही पी रहा हो।

अज के विजय-सूचक शङ्खनाद को उसके योद्धा पहचान गये। उसे सुनते ही उन्हें मालूम हो गया कि अज की जीत हुई। पहले तो वे तितर बितर होकर भाग रहे थे; पर शङ्खध्वनि सुन कर वे लौट पड़े। लौट कर उन्होंने देखा कि उनके सारे शत्रु निद्रा में मग्न हैं। अकेला अज ही उनके बीच, चैतन्य अवस्था में, फिर रहा है। रात के समय कमलों के बन्द हो जाने पर चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब जिस तरह उनके बीच में झिलमिलाता हुआ देख पड़ता है, चेष्टारहित शत्रुओं के समूह में अज को भी उन्होंने उसी तरह चलता फिरता देखा।

वैरियों को अच्छी तरह परास्त हुआ देख, अज ने युद्ध के मैदान से लौटना चाहा। परन्तु युद्ध-स्थल छोड़ने के पहले, रुधिर लगे हुए अपने बाणों की नोकों से उसने उन राजाओं के पताकों पर यह लिख दिया:-- "याद रक्खा, अज तुम्हारे साथ निर्दयता का व्यवहार नहीं करना चाहता। दयार्द्र होकर उसने तुम्हारे प्राण नहीं लिये। केवल तुम्हारा यश ही लेकर उसने सन्तोष किया। यश खोकर और प्राण लेकर अब तुम खुशी से अपने अपने घर जा सकते हो।"

यह करके वह संग्राम-भूमि से लौट पड़ा और भयभीत हुई प्रियतमा इन्दुमती के पास आया। उस समय उस के शरीर की शोभा देखने ही योग्य थी। उसके धनुष का एक सिरा तो ज़मीन पर रक्खा था। दूसरे, अर्थात् ऊपर वाले, सिरे पर उसका दाहना हाथ था। लोहे के टोप को सिर से उतार कर उसने बायें हाथ में ले लिया था। इससे उसका सिर खुला हुआ था। [ १६७ ]
पसीने के बूंद उसके मस्तक पर छाये हुए थे। इस तरह इन्दुमती के सामने खड़े होकर उसने कहा:-

"वैदर्भी! मेरी प्रार्थना को स्वीकार करके ज़रा मेरे शत्रयों को तो एक नजर से देख। कैसे काठ के से पुतले हो रहे हैं! न इनका हाथ हिलता है, न पैर! इस समय, एक बच्चा भी, यदि चाहे तो, इनके हाथ से हथियार छीन सकता है। इसी बल, पौरुष और पराक्रम के भरोसे ये तुझे मेरे हाथ से छीन लेना चाहते थे। इन बेचारों को क्या खबर थी कि मेरे हाथ आ जाने पर त्रिकाल में भी तू इन्हें न मिल सकेगी।"

अज के मुख से ऐसी आनन्द-दायक बात सुन कर इन्दुमती का शत्रु-. सम्बन्धी सारा डर एकदम छुट गया-उसके मुख से भय और विषाद के चिह्न दूर हो गये। अतएव-साँस की भाफ़ पुछ जाने से, पहली ही सी निर्मलता पाये हुए आईने के समान-वह मुख बहुत ही मनोहर और कान्तिमान हो गया। अज की जीत से इन्दुमती को यद्यपि परमानन्द हुआ, तथापि, लज्जा के कारण, वह अपने ही मुँह से अज की प्रशंसा और अपनी प्रसन्नता न प्रकट कर सकी। यह काम उसने अपनी सखियों से कराया। वर्षा के प्रारम्भ में नये जल की बूंदों से छिड़की गई भूमि जिस तरह मयूरों की कूक से मेघों के समूह की प्रशंसा करती है, उसी तरह पति के पराक्रम से प्रसन्न हुई इन्दुमती ने भी सखियों के मुख से उसकी प्रशंसा की।

इस तरह सारे राजाओं के सिरों पर अपना बायाँ पैर रख कर उन्हें अच्छी तरह परास्त करके-और, सर्व-गुण-सम्पन्न इन्दुमती को साथ लेकर निर्दोष अज अपने घर गया। अपने रथों और घोड़ों की उड़ाई हुई धूल पड़ने से रूखे केशों वाली इन्दुमती को ही उसने रण की मूति मती विजय- लक्ष्मी समझा। उसने अपने मन में कहा-~~ इन्दुमती की प्राप्ति के मुकाबले में शत्रुओं पर प्राप्त हुई जीत कोई चीज़ नहीं। जीत की अपेक्षा इन्दुमती को ही मैं अधिक आदरणीय और अधिक महत्व की चीज़ समझता हूँ।

अज के विवाह और विजय की बात राजा रघु को पहले ही मालूम हो गई थी। अतएव बहुगुणशालिनी वधू को साथ लिये हुए जब वह अपने नगर में पहुँचा तब राजा रघु ने उसकी बड़ी बड़ाई की और उसका यथो[ १६८ ]
चित स्वागत भी किया। ऐसे विजयी और पराक्रमी पुत्र को राज्यभार सौंप देने के लिए वह उत्सुक हो उठा। फल यह हुआ कि राज्य-शासन और कुटुम्ब पालन का काम उसी क्षण उसने अज को दे दिया; और, आप शान्ति-पूर्वक मोक्षसाधन के काम में लग गया। उसने यह उचित ही किया। सूर्य-वंशी राजाओं की यही रीति है। अपने कुल में राज्य कार्य-धुरन्धर और कुटुम्ब-पोषक पुत्र होने पर, गृहस्थाश्रम में बने रहने की वे कभी इच्छा नहीं करते।


_______