रसज्ञ-रञ्जन/५-नायिका भेद

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५-नायिका भेद।

पन्यासिक पुस्तकों के लिए केवल काशी ही और तान्त्रिक पुस्तकों के लिये केवल मुरादाबाद ही, इस समय प्रसिद्ध हो रहे हैं। परन्तु नायिका-भेद और नख-सिख वर्णन के लिए यह देश का देश ही, किसी समय प्रसिद्ध था। देश से हमारा अभिप्राय उन प्रान्तों से है जहाँ हिन्दी बोली जाती है और जहाँ हिन्दी ही में कवियों की कविता-स्फूर्ति का प्रकाश होता है। राजाश्रय मिलने की देरी, राजाजी को सब प्रकार की नायिकाओ के रसास्वादन का आनन्द चखाने के लिए कविजी को देरी नहीं। १० वर्ष की अज्ञात-यौवना से लेकर ५० वर्ष की प्रौढ़ा तक के सूक्ष्म से सूक्ष्म भेद बतला कर और उनके हाव-भाव, विलास आदि की दिनचर्या वर्णन करके ही कविजन सन्तोष नहीं करते थे। दुराचार में सुकरता होने के लिए दूती कैसी होनी चाहिए, मालिन, नाइन, धोबिन इत्यादि में से इस काम के लिए कौन सब से अधिक प्रवीण होती है, इन बातों का भी वे निर्णय करते थे। नायक के सहायक विट और चेटक आदि का भी वर्णन करने से वे नहीं चूकते थे। इस प्रकार की पुस्तकों अथवा कविताओं का बनाना अभी बन्द नहीं, वे बराबर बनती जाती है। तथापि पहिले बहुत बनती थी इसीलिए हमने भूतकाल का प्रयोग किया है।

सब नायिकाओं में नवोढ़ा अधिक भली होने के कारण किसी ने अभी कुछ ही वर्ष हुए, एक "नवोढ़ादर्श" नाम की पुस्तक, अकेले नवोढा ही नायिका की महिमा से आद्योपान्त भर कर, प्रकाशित की है। समस्यापूर्ति करने वाले कवि-समाजों और कवि मण्डलों का तो नायिका भेद जीवन-सर्वस्व हो रहा है सुनते [ ६६ ]है, “सुकवि-सरोज-विकास” में भी नायका भेदही है। नवोढ़ाओ और विश्रब्ध नवोढ़ाओ ही की कृपा से हमारीभाषा की कविता- लता सूखने नही पाई! कविजन अब तक उसे अपने काव्य-रस से बराबर सीच रहे है और मुग्धमति युवक उसकी शीतल छाया मे शयन करके विषयाकृष्ट हो रहे है।

इस निवन्ध का नाम “नायिकाभेद" पड़कर नायिका-भेद 'के भक्तो की यदि यह आशा हुई हो कि इसमें नवोढ़ा के सुरतांत और प्रौढ़ा के पुरुषायित-सम्बन्ध में कोई नवीन युक्ति उन्हे सुनने को मिलेगी तो उनको अवश्य हताश होना पड़ेगा। परन्तु हताश क्यों होना पड़ेगा? आजतक नायिकाआका क्या कुछ कम वर्णन हुआ है? इस चिपय मे, हिन्दी साहित्य से, जो कुछ विद्यारान है उससे भी यदि उनकी काव्य रस पीने की तृषा शान्त न हो तो हम यही कहेंगे कि उनके उदर से बड़वानल ने निवास किया है।

ऋपियो के बनाये हुए संस्कृत-ग्रथो तक मे नायिकाओं के भेद कहे गये है परन्तु पद्माकर और मतिराम आदि के ग्रंथो का जैसा विस्तार वहाँ नही है नायकाओ की भेद भक्ति हमारे यहाँ बहुत प्राचीन काल से चली आई है। कालिदास के काव्यो में भी नायिकाओ के नाम पाये जाते हैं।

निद्रावशेन भवतायनत्र वेक्षमाणा-
 
पय्युत्सुकत्वमवला निशि खण्डितेव ॥
लक्ष्मीविनोदयति येन दिगन्तलम्बी
 
सोऽपि त्वदाननरुचि विजहाति चन्द्र.॥
रघुवंश, सर्व ५।
 

यहाँ खन्डिता नायिका का नाम आया है। संस्कृत में ऐसी अनेक पुस्तके है जिनमे नायिकाओ की विभाग परम्परा और उनके लक्षणो का विवरण है। तथापि हिन्दी पुस्तको की जैसी प्रचुरता तस्कृत मे नहीं है। दशकरपक और साहित्य दर्पण इत्यादि [ ६७ ]में प्रसङ्ग वश इस विपय का विचार हुआ है, परन्तु वे विचारे -गौण है, मुख्य नहीं। जिसमे केवल नायिकाओ का ही वर्णन हो ऐसो पुस्तक संस्कृत मे एक "रल-मञ्जरी" ही हमारे देखने मे आई है। मिथिला के रहने वाले पाण्डित भानुदत्त ने उसे बनाया है। भानुदत्त के अनुसार नायिकाओ के ११५२ भेद हो सकते है इस पुस्तक मे उन्होने नायिकाओ का यद्यपि वहुत विस्तृत वर्णन किया है तथापि उनका वर्णन संस्कृत मे होने के कारण इतना उद्वेग जनक और हानिकारक नहीं जिना सुरतारम्भ, सुरतान्त और "विपरीत" मे विलग्न होने वाले हमारे हिन्दी कवियाका है। इस 'विषय मे हिन्दी-पुस्तको का प्राचुर्य देखकर यही कहना पड़ता है कि इस अल्पोपयोगी नायिका-भेद मे सस्कृत-कवियों की अपेक्षा हमारी भाषा के कवियो और भापा की क बताओ के प्रेमियो की सविशेप रुचि रहती आई है। नगरोकी वात जाने दीजिये, छोटे- छोटे गांवो तक मे लाठ-साठ वर्ष के बुडो को भी नायिका-सेद की चर्चा करते और ज्ञात-यौवना और अज्ञात यौवना के अन्तर के तारतम्य पर वक्तृता देते हमने अपनी आंखो देखा है।

निश्चयात्मकता से हम यह नहीं कह सकते कि नायिका-भेद की उत्पत्ति कब से हुई और क्यो हुई। वात्सायन मुनि-कृत "कामसूत्र" बहुत प्राचीन ग्रंथ है। उसमें नायिका और नायिकाओ के सामान्य भेद कहे गये हैं। ये भेद वैसे ही है जैसे इस प्रकार की पुस्तको मे हुआ करते है। वह आडम्बर और वह अश्लीलता जो आजकल के नायिका-भेद मे पाया जाता है, वहाँ बिल्कुल नहीं। जान पड़ता है, इसी प्रकार के ग्रन्थ नायिका-भेद की उत्पत्ति के कारण है। सम्भवतः इन्हीं को देखकर नायिकाओ के पक्षपातियो ने इसे पृथक विषय निश्चित करके पृथक् पृथक अनेक ग्रंथ रच डाले और सकडो, नही हजारो, भेद उत्पन्न करके सब रसो के राजा का राज्य-विस्तार बहुत ही विशेष बढ़ा [ ६८ ]दिया। नायिकाऐ ही शृंगार-रस की अवलम्बन हैं, और शृंगार रस ही सब रसो का राजा है। राजा का जीवन ही जब इन नायिकाओं पर अवलम्बित है तब कहिए क्यो हमारे पुराने साहित्य में इनकी इतनी प्रतिष्ठा न हो? इनकी कीर्ति का कीर्तन करके क्यों कविजन अपनी वाणी को सफल न करे? और इन्ही की बदौलत नाना प्रकार के पुरस्कार पाकर क्यो न वे अपने को कृत्यकृत्य मानें?

कृष्ण, राधा, गोपिका, वृन्दावन, यमुना, कुञ्जकुटीर आदि ने नायिका-भेद के वर्णन मे विशेष सहायता पहुंचाई है. परन्तु यदि कोई यह कहे कि यह भेद-वणेन राधाकृष्ण के उपासना- तत्व से सम्बन्ध रखता है तो उसका कथन कदापि मान्य नहीं होसकता। नायिकाओ मे “सामान्य" एक ऐसा भेद है जिससे कृष्ण का कोई सम्पर्क नहीं, और नायिका-भेद के आचार्यों ने कृष्ण की नायिकाओ के भेद नही किये, 'किन्तु सामान्य रीति से नायिका-मात्र की भेद-परम्परा बतलाई है अतएव कृष्ण के उपासको के लिए इस विषय पर कृष्ण का सम्बन्ध न बतलाना ही अच्छा है।

जहां तक हम देखते हैं स्त्रियो के भेद-वर्णन से कोई लाभ नही, हानि अवश्य है; और बहुत भारी हानि है। फिर हस नहीं जानते, क्या समझकर लोग इस विपय के इतने पीछे पड़े हुए है। आश्चर्य इस बात का है कि इस भेद-भक्ति के प्रतिकूल आज तक किसी ने चकार तक मुख से नहीं निकाला। प्रतिकूल कहना तो दर रहा, नायिकाओ की नई-नई चेष्टाओ का वर्णन करने वालों को प्रोत्साहन और पुरस्कार तक दिया गया है। इस प्रोत्साहन का फल यह हुआ कि नवोढ़ा आदि नायिकायो के सम्बन्ध में कवियो को अनन्त स्वप्न देखने पड़े है। हिन्दी के समान गला, मराठी, गुजराती भाषाएँ भी संस्कृत से निकली है, परन्तु इन [ ६९ ]भाषाओं में नायिकायो का कही भी उतना साम्नाज्य नही जितना 'हिन्दी मे है । हिन्दी मे इनका आधिक्य क्यो ? जान पड़ता है, और कही भी ठहरने के लिए सुखदाई स्थान न पाकर बेचारे नायिका-भेद ने विवश होकर, हिन्दी का आश्रय लिया है। इस विस्तृत विश्व मे ईश्वर ने इतने प्रकार के मनुष्य, पशु, पक्षी, वन, निर्भर, नदी, तड़ाग आदि निर्माण किये है कि यदि सैकड़ों 'कालिदास उत्पन्न होकर अनन्त काल तक उन सबका वर्णन करते रहें तो भी उनका अन्त न हो। फिर हम नहींजानते और विपयों का छोड़कर नायिका-भेद सदृश अनुचित वर्णन क्यों करना चाहिए? इस प्रकार की कविता करना वाणी की विगर्हणा है।

अब देखिए, इस प्रकार की पुस्तकों मे लिखा क्या रहता हैं। लिखा रहता है परकीया (परस्त्री) और वेश्याओ की चेष्टा और उनके कलुपित कृत्यो के लक्षण और उदाहरण परकीया के अन्त- त अविवाहित कन्याओं के पापाचरण की कथा। पुरुषमात्र में पतिबुद्धि रखने वाली कुलटा स्त्रियों के निर्लज्ज और निरर्गन प्रलाप ।।। और भी अनेक बाते रहती हैं। विरह-निवेदन करने अथवा परस्पर मेल करा देने के लिये दूतों और दूतियों की योजना का वर्णन रहता है,वेश्याओ को बाजार में बिठला कर उनके द्वारा हजारो के हृदय-हरण किये जाने की कथा रहती है परकीयाओ के द्वारा, कबूतर के बच्चे की जैसी कूजित के मिष, पुरुषो में श्राह्वान की कहानी रहती है। कहीं कोई नायिका अँधेरे में यमुना के किनारे दौडी जा रही है; कही कोई चाँदनी में चाँदनी ही के रङ्ग की साड़ी पहनकर घर से निकल, किसी लता-मण्डप में बैठी हुई किसी की मार्ग प्रतीक्षा कर रही है; कहीं कोई अपनी सास को अँधी और अपने पति को विदेश गया बतलाकर द्वार पर आये हुये पथिक को गत भर विश्राम करने के लिए प्रार्थना [ ७० ]कर रही है; कही कोई अपने प्रेम-पात्र के पास गई हुई सखी के लौटने मे विलम्ब होने से कातर होकर आँसुओं की धारा से आँखो का काजल बहा रहा रही है!!! यही बाते विलक्षण उक्तियों के द्वारा, इस प्रकार की पुस्तकोमे विस्तार पूर्वक लिखी गई हैं। सदाचरण का सत्यानाश करने के लिये या इससे भी बढ़ कर कोई युक्ति हो सकती है ? युवको को कुपथ पर ले जाने के लिये क्या इससे भी अधिक बलवती और कोई आकर्षण शक्ति हो सकती है ? हमारे हिन्दी साहित्य में इस प्रकार की पुस्तको का आधिक्य होना हानिकारक है, समाज के चरित्र की दुर्बलता का दिव्य-चिन्ह है । हमारी स्वल्य बुद्धिके अनुसार इस प्रकारकी पुस्तक का बनाना शीघ्रही- बन्द हो जाना चाहिये, और यही नहीं, किन्तु आजतक ऐसी-ऐसी जितनी इस विषय की दूंपित पुस्तक बनी है उनका वितरण होना भी बन्द हो जाना चाहिए। इन पुस्तक' के बिना साहित्यको कोई हानि नहीं पहुँचेगी; उलटा लाभ होगा। इसके न होनेसे भी समाज का कल्याण है। इनके न होनेसे ही नववयस्क मुग्धमति युवा-जन का कल्याण है। इनके न होनेसे ही इनके वनाने और बेचने वालो का कल्याण है।

जिस प्रकार नायिकाओंके अनेक भेद कहे गये है और भेदा तुमार उनकी अनेक चेप्टाएँ वणन की गई है, उसी प्रकार पुरूप' के भी सेद और चेष्टा-बै क्षण्य का वर्णन किया जा सकता है। जब नवोढ़ा और विश्रव्य नवोढ़ायिका होती है तब नवोढ़ज्ञऔर विश्रव्य-नवोढ़ नायक भी हो सकते है। वासकसज्जा, विप्रलब्धा और कलहान्तरिता नायिकाके ममान वा कमज्ज, विप्रलव्ध और कलहान्तरित नायक होने में क्या आपत्ति हो सकती है? कोई नही। क्या स्त्री/ही अज्ञात-यौवना होती है ? पुरुष अहात-यौवन नहीं होता "रसमजरी"वाले कहते हैं कि स्वभाव [ ७१ ]भेद से पुरुषों के चार ही भेद होते है—अर्थात् अनुकूल, दक्षिण, धृष्ठ और शठ, परन्तु अवस्था भेद से स्त्रियोंके अनेक भेद होते हैं। यह बात हमारी समझ में नहीं आती। मनोविकार दोनों में प्रायः एकही से होते है। जिस प्रकार के लक्षण और उदाहरण नायिकाओं के विषय में लिखे गये हैं, उसी प्रकार के लक्षण और उदाहरण प्राय: पुरुषों के विषयमें भी लिखे जा सकते हैं। परन्तु हमारी भाषा के कवियों ने नायकों के ऊपर इस प्रकारकी पुस्तकें नहीं लिखीं। इसलिये हम उनको अनेक धन्यवाद देते हैं। यदि कहीं वे इस ओर भी अपनी कवित्व-शक्ति की योजना करते, तो हमारा कविता साहित्य और भी अधिक चौपट हो जाता।