रसज्ञ-रञ्जन

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रसज्ञ-रञ्जन




लेखक

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी




प्रकाशक

साहित्य रत्न भंडार-आगरा।

मूल्य १)

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विषय-सूची


१–जीवन-परिचय ...... ५–९
२–निबन्ध ...... १०–
१ कवि-कर्त्तव्य [१] ...... १०
{{{1}}} {{{1}}} [२] ...... २३
३ कवि बनने के लिए सापेक्ष साधन ...... २८
४ कवि और कविता ...... ३८
५ कविता ...... ५८
६ नायिका-भेद ...... ६५
हंस-सन्देश ...... ७१
८ हंस का नीर-क्षीर-विवेक ...... ८१
९ कवियों की ऊर्म्मिला विषयक उदासीनता ...... ८८
१० नल का दुस्तर दूत कार्य्य ...... ९२
३–टिप्पणियाँ ...... १२१–१३०
 

 
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पहले संस्करण की
भूमिका

इस संग्रह में नौ लेख हैं। दो लेखों का विषय एक ही होने से उन दोनों का समावेश एक ही—अर्थात् पहिले ही—लेख में कर दिया गया है। इनमें से पहले पाँच लेखों में जिन बातों का वर्णन है, उनका सम्बन्ध कविता और कवि-कर्त्तव्य से है। इस समय, हिन्दी-भाषा के सौभाग्य से अनेक नये-नये कवि कविता करने लगे है। अतएव, आशा है, ये लेख औरों के लिये नहीं, तो विशेषत: कवियों और कविता-प्रेमियों के लिये अवश्य ही थोड़े-बहुत मनोरंजन का कारण होंगे। सातवें लेख में थोड़ी सी वैज्ञानिक अथवा ऐतिहासिक खोज होने पर भी, कवियों की हँस-सम्बन्धी समय-सिद्ध बातों पर विचार प्रकट किये गये है। रहे, अवशिष्ट तीन लेख। सो उनमे से एक में एक नवीन और दो में दो प्राचीन कवियों की रसवती कविता के बड़े ही हृदयहारी नमूने हैं। इस तरह, इस छोटी-सी पुस्तक में, हिन्दी के कवियों और अन्य सरस-हृदय सज्जनों के मनोविनोद की कुछ सामग्री प्रस्तुत की गई है।

इसमें से लेख नम्बर १[२] के लेखक श्रीयुत विद्यानाथ और नम्बर ८ के श्रीयुत भुजङ्गभूषण भट्टाचार्य हैं। इन पिछले महाशय ने अपना लेख लिखने में डाक्टर सर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के एक बँगला-लेख से कुछ सहायता ली है। नम्बर ७ लेख लिखने में उनके लेखक ने भी बाबू रामदास सेन के बँगला-निबन्ध के कुछ भाव ग्रहण किये हैं। इसलिये ये दोनों लेखक बँगला भाषा के इन विद्वानों के कृतज्ञ हैं।

दौलतपुर, रायबरेली महावीरप्रसाद द्विवेदी
११ अगस्त, १९२०
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दूसरे संस्करण के सम्बन्ध में

निवेदन

इस पुस्तक का पहला संस्करण निकले पूरे १२ वर्ष से भी अधिक समय हो गया। उसे जबलपुर के राष्ट्रीय-हिन्दी-मन्दिर ने प्रकाशित किया था। उसके अस्तित्व या अनस्तित्व का पता मुझे कई वर्षों से कुछ भी नहीं। अतएव इस पुस्तक के प्रकाशन और प्रचार का काम, विवश होकर मुझे अब आगरे के साहित्य-रत्न-भण्डार को सौंपना पड़ा है।

दौलतपुर, रायबरेली महावीरप्रसाद द्विवेदी
१ जून, १९३३
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पंडित महावीरप्रसाद जी द्विवेदी
जीवन-परिचय

जीवनी—पं॰ महावीरप्रसाद द्विवेदी का जन्म रायबरेली के अन्तर्गत दौलतपुर नामक ग्राम में सं॰ १९२१ बैशाख शुक्ल ४ को हुआ था। निर्धनता एवं ग्राम जीवन के जिस वातावरण में आपकी प्रारम्भिक शिक्षा आरम्भ हुई, वह सर्वथा निराशाजनक था। गाँव के मदरसे में उर्दू-हिन्दी पढ़ते समय ही घर पर अपने पितृव्य पण्डित दुर्गाप्रसादजी के प्रबन्ध से इन्होंने थोड़ा-सा संस्कृत-व्याकरण पढ़ा एवं शीघ्रबोध तथा मूहूर्त-चिन्तामणि आदि पुस्तकें भी कण्ठ की। ग्राम्य-पाठशाला की पढ़ाई समाप्त करने के बाद इन्होंने नित्य प्रति १५ कोस रायबरेली जाकर, फीस आदि की कठिनाइयों के बीच अंगरेजी शिक्षा प्राप्त की, उसे पढ़ कर हठात् नेत्रों के समक्ष स्वनामधन्य पं॰ ईश्वरचन्द विद्यासागर का विद्यार्थी जीवन याद आ जाता है। अस्तु, कठिनाइयों की अधिकता के कारण वह स्कूल छोड़ कर आपको उन्नाव के पुरवा के कस्बे के एँग्लोवर्नाक्यूलर स्कूल में आना पड़ा। दुर्भाग्यवश वह स्कूल कुछ ही समय में टूट गया और द्विवेदीजी को वहाँ से जाना पड़ा।

क्रमशः फतेहपुर और उन्नाव में शिक्षा प्राप्त करके ये अपने पिता पं॰ रामसहायजी के पास बम्बई चले गये। यहाँ आपने मराठी, गुजराती, संस्कृत एवं अंग्रेजी का अच्छा अध्ययन किया। विद्याध्ययन के साथ ही साथ आप तार का काम भी सीखते थे। कुछ ही समय में इन्हे जी॰ आई॰ पी॰ रेलवे में सिगनेलर की जगह मिल गयी और क्रम-क्रम से उन्नति करते-करते आप झाँसी में डिस्ट्रिक्ट ट्रैफिक सुपरिटेण्डेण्ट के हेड [  ]क्लर्क हो गये। यहाँ बंगालियों के सहवास ने इन्हे बंगला भाषा के अभ्यास में सहायता पहुँचायी। इसी समय आपने संस्कृत के काव्य-ग्रंथों तथा अलङ्कार-ग्रंथों का विशेष रूप से मनन किया। धीरे-धीरे आपका विचार साहित्य-सेवा की ओर आकृष्ट हुआ। इसी समय एक घटना ऐसी हो गयी, जिससे यह विचार कार्यरूप में परिणत हो गया। पुराने डी॰ टी॰ एस॰ के स्थान पर जो साहब आये थे उनसे इनकी कुछ कहा सुनी हो गयी जिसके परिणाम-स्वरूप इन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और स्वतन्त्र होकर हिन्दी की सेवा में जुट गये। तब से बराबर द्विवेदीजी मातृभाषा का उपकार ही करते रहे।

परिस्थितियां—द्विवेजी के साहित्य-क्षेत्र में आने के समय हिन्दी की दशा बहुत ही अस्थिर थी। कविता के क्षेत्र में जो नयी जान भारतेन्दुजी ने डाली थी उससे यद्यपि बहुत उपकार हुआ था और कविता धीरे-धीरे जीवन के समीप आती जाती थी किन्तु उसकी भाषा ब्रजभाषा ही थी जिससे आगे चल कर बड़ी विषम स्थिति उत्पन्न हो गयी। गद्य की भाषा खड़ी और कविता की भाषा ब्रजभाषा होने से खड़ी बोली बनाम ब्रजभाषा का द्वन्द सामने आया और हिन्दी के कवि दो समाजों में बँट गये, जो एक दूसरे का प्रबल विरोध करते थे। द्विवेदीजी के समय में यही द्वन्द्व प्रबल रूप धारण किये हुए था। गद्य की दशा और भी बुरी थी। भारतेन्दु के समय से गद्य की प्रणाली निश्चित रूप से विकसित होने लगी थी। गद्य के प्रत्येक क्षेत्र निबन्ध, उपन्यास, नाटक आदि की ओर ध्यान दिया जा रहा था, बंगला तथा अंग्रेजी आदि के ग्रन्थों के अनुवाद से भाषा का भण्डार भरा जा रहा था पर अनुवादकर्ता तथा भारतेन्दु के अनन्तर आने वाले अधिकांश साहित्य-सेवियों का हिन्दी से अधिक परिचय न होने से, भाषा में शिथिलता, व्याकरण दोष तथा अंग्रेजी और बँगलापन की बू [  ]आने लगी। परिणामस्वरूप हिन्दी का रूप ही बिगड़ जाने की आशंका होने लगी। प्रवाह की तीव्रता के कारण सारे बन्धन टूट गये। ऐसी स्थिति में द्विवेदीजी हिन्दी-क्षेत्र में आये अपनी प्रतिभा के बल से उन्होंने पद्य तथा गद्य दोनों पर अपना शुभ प्रभाव डाला।

कविता—जैसा पहले कहा गया है, द्विवेदीजी के समय में ब्रज और खड़ी बोली का प्रश्न तीव्र रूप में था। यद्यपि पं॰ श्रीधर पाठक और पं॰ नाथूरामजी शर्मा 'शङ्कर' ने खड़ी बोली को अपनाकर उसे माँजने का प्रयत्न किया, पर इस ओर सबसे अधिक प्रभाव द्विवेदीजी ही का पड़ा। "सरस्वती" में तो अपनी कविता आप छापते ही थे पर साथ ही 'कविता-कलाप' 'काव्य-मंजूषा' तथा 'सुमन' आदि कविता संग्रह एवं 'कुमारसम्भवसार' आदि अन्य ग्रन्थ भी आपने प्रकाशित कराये। यद्यपि जैसा द्विवेदीजीने 'रसज्ञ-रंजन' में कहा है, वे अपने को कवि नहीं मानते थे, पर इसमें सन्देह नहीं कि खड़ी बोली का रंग गाढ़ा करके तथा कविता में सामयिकता तथा उपयोगिता का समावेश करके आपने कविता को एक नए और निश्चित मार्ग पर डाला, जिससे प्रभावित होकर खड़ी बोली के अनेकानेक कविवर मैदान में आये। बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पं॰ रामचरित उपाध्याय, पं॰ लोचनप्रसाद पाण्डेय तो इनके उत्साहित शिष्यों में हैं ही, पर साथ ही 'सनेही', ठाकुर गोपालशरणसिंह, बाबू सियारामशरण गुप्त, पं॰ लक्ष्मीधर वाजपेयी आदि पर भी द्विवेदीजी का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष प्रभाव विद्यमान है। स्वयं एक बड़े कवि न होते हुए भी आप एक बहुत बड़े कवि-निर्माता अवश्य थे।

गद्य—कविता से भी अधिक द्विवेदीजी का प्रभाव हिन्दी गद्य के ऊपर पड़ा है। इस क्षेत्र में सबसे बड़ा काम गद्य के स्वरूप की रक्षा करना था। जो व्याकरण दोष, लचरपन तथा विदेशी वाक्य-विन्यास की बू गद्य में स्थान पा रही थी उसका नियन्त्रण करना आपका प्रथम कार्य था। "इच्छा किया" आदि प्रयोगों [  ]को लेकर आपने 'सरस्वती' में जो तीव्र आलोचना की उससे लेखकों के होश ठिकाने आने लगे, इस तीव्र कषाघात से लोगों की आँखें खुलीं और उन्हें ज्ञात हुआ कि हिन्दी भी एक ऐसी भाषा है, जिसमें व्याकरण के नियम हैं. वाक्य-विन्यास की शैली है और शब्दों का साधु प्रयोग। क्रमशः हिन्दी-गद्य एक निश्चित तथा शुद्ध शैली पर आ गया। पं॰ रामचन्द्रजी शुक्ल का मत था कि द्विवेदीजी का यह कार्य, जब तक भाषा के लिए व्याकरण विशुद्धता आवश्यक समझी जाती है, सदा साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अङ्कित रहेगा।

गद्य के स्वरूप-निर्धारण के अतिरिक्त द्विवेदीजी ने उसके विविध अङ्गों की पूर्ति का भी उद्योग किया। सामयिक विषयों पर लिखे हुए निबन्धों के अतिरिक्त आपने "बेकन-विचार-रत्नावली" नामक निबन्धों का संग्रह तथा 'स्वाधीनता', 'शिक्षा', 'सम्पत्ति-शास्त्र' आदि कई अन्य ग्रन्थ बेकन, मिल, स्पेंसर आदि विद्वानों के ग्रन्थों के अनुवाद-स्वरूप प्रस्तुत किये। समालोचना के क्षेत्र में भी आपने कई पुस्तक तथा लेख प्रकाशित किये। उनके कविता-सम्बन्धी कई निबन्ध "रसज्ञ-रञ्जन" में विद्यमान है। इनके अतिरिक्त 'हिन्दी कालिदास की समालोचना', 'कालिदास की निरंकुशता', 'नैषधचरित चर्चा' आदि कई अन्य ग्रन्थ इसी विषय पर और हैं।

इस प्रकार हिन्दी पर द्विवेदीजी का प्रभाव सर्वतोमुखी तथा चिरकाल तक रहने वाला है।

द्विवेदीजी की शैली—लेखक को कैसी भाषा प्रयुक्त करनी चाहिए, इसके ऊपर द्विवेदीजी ने 'हिन्दी कालिदास की आलोचना' तथा 'रसज्ञ-रञ्जन' में अपने विचार प्रकट किये हैं। 'रसज्ञ-रञ्जन' में उन्होंने कहा है कि "ऐसी भाषा लिखनी चाहिए, जिसे सब सहज मे समझ लें………यदि इस उद्देश्य ही [  ]की सफलता न हुई तो लिखना ही व्यर्थ हुआ।" एक अन्य स्थल पर कहा है कि "बेमुहाविरा भाषा अच्छी नहीं लगती। 'क्रोध क्षमा कीजिये' इत्यादि वाक्य कान को अतिशय पीड़ा पहुँचाते हैं।" इन बातों से द्विवेदीजी की भाषा तथा शैली का अनुमान किया जा सकता है। उन्होंने घोर तत्समता का प्रयोग नहीं किया। 'शुद्धतर' और 'शुद्धतम' की अपेक्षा वे 'अधिक' का प्रयोग अच्छा समझते हैं। उर्दू तथा फारसी के प्रचलित शब्द द्विवेदीजी द्वारा बराबर प्रयुक्त हुए हैं। सब कुछ होते हुए भी यह ध्यान रखना चाहिये कि अपने ही सिद्धान्तों का अक्षरशः पालन करना कठिन हो जाता है और द्विवेदीजी भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं। यही कारण है कि बीच-बीच में आपका संस्कृत का पाण्डित्य अपना चमत्कार दिखा ही जाता है और 'सौरस्य' 'कौटिल्य' 'पुरुषायित सम्बन्ध' आदि शब्द स्थान-स्थान पर आते हैं। उग्र समालोचक के नाते समझिये अथवा और किसी भी कारण से हो—द्विवेदीजी की शैली में प्रवाह की कमी है। एक ही भाव को बार-बार दुहराने की प्रवृत्ति भी आपकी शैली की विशेषता है, 'रसज्ञ-रञ्जन' में भी इन प्रवृत्तियों को देखा जा सकता है।

'रसज्ञ-रञ्जन' आपके साहित्यक निबन्धों का सर्वोत्तम संग्रह है। इसमें वर्णित 'ऊर्म्मिला-विषयक कवियों की उदासीनता' पढ़ कर ही शायद कविवर मैथलीशरणजी को 'साकेत' की सृष्टि करनी पड़ी थी। 'हंस का नीर-क्षीर-विवेक' शीर्षक लेख भी अपने ढँग का एक ही है। 'नल का दुस्तर दूत कार्य' और 'हंस-सन्देश' में एक ओर जहाँ आलङ्कारिक वर्णन की विशेषता है, वहाँ दूसरी ओर भावों की ऊहापोह और उच्चकोटि के शृङ्गार रस का समुचित स्वाद मिलता है। कवि और कविता के विषय में आपने जो कुछ लिखा है, वह यद्यपि बीस वर्ष पुराना लिखा हुआ है; परन्तु आज भी उसकी अधिकांश बाते सत्य और नये कवियों के लिए माननीय हैं।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।