रसज्ञ-रञ्जन/७-हंस का नीर-क्षीर-विवेक
७–हंस का नीर-क्षीर-विवेक
संस्कृत-साहित्य में हंस, पिक, भ्रमर और कमल की बड़ी धूम है। बिना इनके कवियों की कविता फीकी होजाती है। कोई पुराण, कोई काव्य, कोई नाटक ऐसा नहीं जिसमें इनका जिक्र न हो। इन सब में कवियों ने एक न एक विशेषता भी रक्खी है। यथा—हंस, मिले हुए दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है, दूध पी लेता है और पानी छोड़ देता है। पिक अपने बच्चे कौओं के घोंसलों में रख आता है और बड़े होने तक़ उन्हीं से उनकी सेवा कराता है। भ्रमर, आम की मंजरी से अतिशय प्रेम रखता है, पर चम्पे के पास तक नहीं जाता। कमल चन्द्रमा से द्वेष रखता है, उसकी विद्यमानता में वह कभी नहीं खिलता; पर सूर्य का वह परम भक्त है। इनमें से दो एक बातें तो निसंदेह सही हैं; पर औरों के विषय में मतभेद हैं। उदाहरण के लिए हंस और उसके नीर-क्षीर-विषयक विवेक को लीजिए।
संस्कृत काव्यों में जगह-जगह पर यह लिखा हुआ है कि हंस में यह शक्ति है कि वह दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है। पर दूध और पानी को अलग-अलग करते उसे किसी ने नहीं देखा। शायद किसी ने देखा भी हो, पर इस विषय का कोई लेख कही नहीं मिलता। यह प्रवाद सात समुद्र पार करके अमेरिका पहुँचा। वहाँ के विद्वानों को हंस का यह अद्भुत गुण सुन कर आश्चर्य हुआ। पर वे लोग ऐसी ऐसी बातों को चुपचाप मान लेने वाले नहीं। इस देश में हंस-विषयक यह प्रवाद हजारों वर्षों से सुना जाता है। पर इसके सत्यासत्य को जाँच आज तक किसी ने नहीं की। यदि किसी ने की भी हो तो उसका फल कही लिपिबद्ध नहीं मिलता। अमेरिका में हवार्ड नाम का एक विश्व विद्यालय है। उसमें लांगमैन साहब एक अध्यापक हैं। आपने हंस के इस आलौकिक गुण की परीक्षा का प्रण किया। इसलिए आपने कई हंस मँगा कर पाले और अनेक तरह से उनकी परीक्षा की। पर नीर का क्षीर से अलग करने मे उन्होंने हंस को असमर्थ पाया, तो हंस के नीर-क्षीर-विवेक-विषयक वाक्यों की क्या संगति हो? इस विषय के दो-चार वाक्य सुनिए—
नीर-क्षीर-विवेके हस्यालस्यं त्वमेव तनुपे चेत्।
विश्वास्मिन्नधुनान्यः कुलव्रतं पालयिष्यति कः॥
—भामिनीविलास।
हे हंस, यदि क्षीर को नीर से अलग कर देने का विवेक तू ही शिथिल कर देगा तो, फिर इस जगत मे अपने कुलव्रत का पालन और कौन करेगा?
वितीर्णशिक्षा इव हृत्पतस्थ सरस्वतीवाहनराज हंसैः।
ये क्षीर-नीर-प्रविभागदक्षा यशश्विनस्ते कवियो-जयति॥
—श्रीकण्ठचरित।
हृदय में स्थित सरस्वती के वाहन राजहंसों ने मानों जिनको शिक्षा दी है, ऐसे क्षीर-नीर-विभाग करने में दक्ष कविजनो की महिमा खूब जागरूक है।
यो हनिष्यति वध्यं त्वां रक्ष्यं रक्षति च द्विजम्।
हंसों हि क्षीरमादत्ते तन्मश्रा वर्जयत्यतः॥
—शकुन्तला।
हंस जिस तरह क्षीर ग्रहण कर लेता है और उसमें मिला हुआ पानी पड़ा रहने देता है, वैसे ही यह भी बध करने योग्य मुझे मारेगा और रक्षणीय द्विज की रक्षा करेगा।
प्रज्ञास्तु जल्पता पुंसां श्रुत्वा वाच शुभाऽशुभाः।
गुणाबद्वाक्यमादत्ते हंस क्षीरमिवाम्भस॥
—महाभारत—आदिपर्व
लोगों के मुँह से भली-बुरी बातें सुन कर बुद्धिमान् आदमी अच्छी बात को वैसे ही ग्रहण कर लता है, जैसे हंस जल में से दूध को ग्रहण कर लेता है।
यजुर्वेद के ततिरेय ब्राह्मण के दूसरे अध्याय में एक वाक्य है। उसका मतलब है—जिस तरह क्रौञ्च-पक्षी जल और दूध को अलग-अलग करके दूध का ही पान करता है, उसी तरह इन्द्र भी जल से सोमरस को अलग कर के उसका पान कर लेता है। इसकी टीका सायनाचार्य ने इस प्रकार की है—
क्षीरपात्रे स्वमुखे प्रक्षिपते सति मुखगतरससम्पर्कात्क्षीरांशो जलांशश्चौभौ विविच्यते।
अर्थात् जल-मिश्रित दूध के बर्तन में हंस जब अपनी चोंच डालता है, तब मुँख गत रस-विशेष का योग होते ही जल और दूध अलग-अलग हो जाते हैं, या अलग अलग जान पड़ते हैं।
इस पिछले अवतरण से यह सूचित होता है कि किसी-किसी की राय में हंस के मुँह में एक प्रकार का रस होता है। उस रस का मेल होने से पानी और दूध अलग-अलग हो जाते हैं। यदि इस रस में खट्टापन हो तो दूध का जम कर दही हो जाना सम्भव है। पर इसके लिए कुछ समय चाहिए। क्या हंस की चोंच दूध के भीतर पहुँचते ही दूध जम जाता होगा? सम्भव है, जम जाता हो, पर यह बात समझ में नहीं आती कि पात्र में भरे हुए जल-मिश्रित दूध में से जल को अलग करके दूध को हंस किस तरह पी लेता है। अध्यापक लांगमैन की परीक्षा से तो यह बात सिद्ध नहीं हुई।
अमेरिका के एक और विद्वान् ने हंस के नीर-क्षीर-विषयक प्रवाद का विचार किया है। आपका नाम है डाक्टर काव्मस आप वाशिगटन में रहते है। आपका मत कि हंस के मुँह की बनावट ऐसी है कि जब वह कोई चीज़ खाता है, तब उसका रसमय पतला अंश उसके मुँह से बाहर गिर पड़ता है और कड़ा अंश पेट में चला जाता है। आपके मत में दूध से मतलब इसी कड़े अंश से है! बहुत रसीली चीज़ के कठोर अंश का बाहर वह आना सम्भव ज़रूर है पर किसी चीज़ के कठोर अंश का अर्थ दूध करना हास्यास्पद है।
अच्छा हंस रहते कहाँ हैं और खाते क्या है? हंस बहुत करके इसी देश में पाये जाते है। उनका सबसे प्रिय निवास्थान मानसरोवर है। यह सरोवर हिमालय पर्वत के ऊपर है। सुनते हैं, यह तालाब बहुत सुन्दर है। इसका जल मोती के समान निर्मल है। यही हंस अधिकता से रहते हैं और यहीं वे अण्डे देते हैं। जाड़ा, आरम्भ होते ही, शीताधिक्य के कारण, मानसरोवर छोड़ करके नीचे चले आते हैं, पर विन्ध्याचल के आगे वे नहीं बढ़ते। विन्ध्य और हिमालय के बीच ही में निर्मल जल राशि-पूर्ण तालाबों और नदियों के किनारे वे रहते हैं। चैत्र-वैशाख में वे हिमालय की तरफ चले जाते है। जिन जलाशयों में कमलों की अधिकता होती है, वे हंसों को अधिक प्रिय होते हैं। वही वे अधिक रहते हैं। उनके शरीर का रङ्ग सफेद होता है और उनके पैर लाल होते हैं। चोंच का रङ्ग भी लाल होता है, डील-डौल उनका वत्तक से कुछ बड़ा होता है।
यदि हंस दूध पीते हैं, तो दूध उनको मिलता कहाँ से है मानसरोवर में उन्होंने गायें या भैसें तो पाल नहींं रक्खी और न हिन्दुस्तान ही के किसी तालाब या नदी में उनके दूध पीने की कोई सम्भवना! इससे गाय भैंस का दूध पीना हंसों के लिए असम्भव-सा जान पड़ता है। कोई-कोई कवि-जन कहते हैं कि हंस मोती चुगते हैं। पर मोती भी मानसरोवर में नहीं पैदा होते। यदि उसमें मोतियों का पैदा होना मान भी लिया जाय तो हिन्दुस्तान के तालाबों में, जहाँ वे कुछ दिन रहते हैं, मोतियों का पैदा होना आज तक नहींं सुना गया। हाँ, एक बार हमने कहीं पढ़ा था कि 'पंजाब, या राजपूताने की किसी झील में कुछ शुक्तियाँ ऐसी मिली थीं जिनमें मोती थे, पर क्या जितने हंस मानसरोवर छोड़ कर नीचे आते हैं वे सिर्फ उसी झील में जाकर रहते और मोती चुगते हैं? वहाँ भी यदि मोती बिखरे हुए पड़े हों, तभी, उन्हें हंस-गण आसानी से चुनेंगे? पर यदि, वे शुक्तियों के भीतर ही रहते हों तो उनको फोड़ कर मोती निकाल ना हंसों के लिए जरा कठिन काम होगा। पर इन सम्भावनाओं का कुछ अर्थ नहीं। निर्मल जल की उपमा मोती से दी जाती है और मानसरोवर का जल अत्यन्त निर्मल है। इससे उसके मोती सद्दश निर्मल जल की उपमा मोती से देते देते लोगों ने जल को ही मोती मान लिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं। अतएव—की हंसा मोती चुगैं की भूखे रह जायँ" आदि में मोती चुगने से मतलब मोती के समान निर्मल जल पीने से जान पड़ता है। यह पीने की बात हुई। अब खाने की बात का विचार कीजिए। नैषधचरित के पहले सर्ग में लिखा है कि राजा नल ने एक हंस पकड़ा। हंस आदमी की बोली बोलता था। उसने राजा से कह—"फलेन मूलेन च वारिभूरूही मुनेरिवेत्थं मम यस्य वृत्तयः। अर्थात पानी में पैदा होने वाले पौधों और बलों के फलों और कन्दों से मैं मुनियों के समान अपना जीवन-निर्वाह करता हूँ। भामिनी-विलास में जगन्नाथराय ने हंस की एक अन्योक्ति कही है, यथा—
भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता—
न्यम्बूनि यत्रनलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस! वद तस्य सरोवरस्य।
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकार?
रे राजहंस! जिसके आश्रय में रह कर तूने मृणालदण्डों को खाया, जल-पान किया, और नलनों का स्वाद लिया उस सरोवर को तू किस प्रकार प्रत्युपकार करेगा? मेघदूत में कालिदास कहते हैं—
आकैलाशाद् बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः।
सम्यत्स्यन्ते नमसि भवतो राजहंसाः सहायाः॥
सुराङ्गना कर्षति खण्डिताग्रात सूत्रं मृणालादिव राजहंसी।
अर्थात् यह सुरांगना (मेरा मन शरीर से उसी तरह) खींच रही है, जिस तरह राजहंसी मृणाल से सूत्र खींचता है। इन अवतरणों से प्रकट है कि हंस चाहे मोती चुगते और दूध पीते ही क्यों न हों; पर वे पानी भी पीते है और जलरुह पौधों के फल फूल, मूल, नाल, मृणाल और विसतन्तु भी खाते है। हंसों को जलपूर्ण जलाशयों में रहना अधिक पसन्द है। वहाँ उनके खाने की सामग्री, विशेष करके मृणालदंड, उनके भीतर के विसतन्तु और उनसे निकलने वाला रस है। कमल नाल को तोड़ने से उसके भीतर से सफेद-सफेद सूत-सी एक चीज़ निकलती है उसी को विस-तन्तु कहते हैं। सुनते है, उसे हंस बहुत खाते हैं मृणाल-दंड की गाँठों से एक तरह का रस भी निकलता है, वह पतले दूध की तरह सफेद होता है। उसमे कुछ मीठापन भी होता है। उस रस का भी नाम क्षीर है। पेड़ों से निकलने वाले पानी के सदृश्य सफेद रङ्ग के प्रायः सभी प्रवाही पदार्थों का नाम क्षीर है। यहाँ तक कि गूलर, बरगद, थूहड़ और मदार तक से निकलने वाली सफेद चीज़ को हम लोग दूध ही कहते है। मृणाल-दंड पानी में रहते हैं। उन्हीं के भीतर से क्षीर-तुल्य सफेद रस निकलता है। उसी रस को हंस पीते या खाते है। अतएव, इस तरह, पानी के भीतर से निकाल कर हंसों का दूध पीना जरूर सिद्ध है। अनुमान होता है कि आरम्भ मे इसी प्रकार के नीर-क्षीर के पृथकाव से पंडितों का मतलब रहा होगा। धीरे-धीरे लोग वह बात भूल गये। उनकी यह समझ हो गई कि मामूली जल-मिश्रित दूध से हंस जल को पृथक् कर देते हैं और जल को छोड़ कर दूध भरी जाते है।