राजस्थान की रजत बूँदें/ सन्दर्भ
कभी मरुभूमि में लहराते रहे हाकड़ो के सूख जाने की घटना को राजस्थान का मन 'पलक दरियाव' की तरह लेता है। यह समय या काल के बोध की व्यापकता को याद किए बिना समझ नहीं आ सकेगा। इस काल दर्शन में मनुष्य के ३६५ दिनों का एक दिव्य दिन माना गया है। ऐसे ३०० दिव्य दिनों का एक दिव्य वर्ष। ४,८०० दिव्य वर्षों का सतयुग, ३,६०० दिव्य वर्षों का त्रेता युग, २,४०० दिव्य वर्षों का द्वापर युग और १,२०० दिव्य वर्षों का कलियुग माना गया है। इस हिसाब को हमारे वर्षों में बदलें तो १७,२८,००० वर्ष का सतयुग, १२,९६,००० का त्रेता युग, ८,६४,००० का द्वापर युग और कलियुग ४,३२,००० वर्ष का माना गया है। श्रीकृष्ण का समय द्वापर रहा है। जब वे हाकड़ो के क्षेत्र में आए हैं तब यहां मरुभूमि निकल आई थी। यानी पलक दरियाव की घटना उससे भी घट चुकी थी।
एक कथा इस घटना को त्रेता युग तक ले जाती है। प्रसंग है श्रीराम का लंका पर चढ़ाई करने का। बीच में है समुद्र जो रास्ता नहीं दे रहा। तीन दिन तक श्रीराम उपवास करते हैं, पूजा करते हैं। पर अनुनय-विनय के बाद भी जब रास्ता मिलता नहीं तो श्रीराम समुद्र को सुखा देने के लिए बाण चढ़ा लेते हैं। समुद्र देवता प्रकट होते हैं, क्षमा मांगते हैं। पर बाण तो डोरी पर चढ़ चुका था, अब उसका क्या किया जाए। कहते हैं समुद्र के ही सुझाव पर वह बाण उस तरफ छोड़ दिया गया जहां हाकड़ो था। इस तरह त्रेता युग में सूखा था हाकड़ो।
समुद्र के किनारे की भूमि को फारसी में शीख कहते हैं। आज की मरुभूमि का एक भाग शेखावटी है। कहा जाता है कि कभी यहां तक समुद्र था। हकीम युसूफ झुंझुनवीजी की पुस्तक झुंझुनूं का इतिहास में इसका विस्तार से विवरण है। जैसलमेर री ख्यात में भी हाकड़ो शब्द आया है। देवीसिंह मंडावा की पुस्तक शार्दूलसिंह शेखावत, श्री परमेश्वर सोलंकी की पुस्तक मरुप्रदेश का इतिवृत्तात्मक विवेचन (पहला खंड) भी यहां समुद्र की स्थिति पर काफी जानकारी देती है। फिर कुछ प्रमाण हैं इस क्षेत्र में मिलने वाले जीवाश्म के और फिर हैं लोकमन में तैरने वाले समुद्र के नाम और उससे जुड़ी कथाएं।
पुरानी डिंगल भाषा के विभिन्न पर्यायवाची कोषों में समद्र के नाम लहरों की तरह ही उठते हैं। अध्याय में जो ग्यारह नाम दिए गए हैं, उनमें पाठक चाहें तो इन्हें और जोड़ सकते हैं:
पारावारां परठि उदधि (फिर) जळनिधि (दख्यं)।
सिंधू सागर (नांम) जादपति जळपति (जप्पं),
रतनाकर (फिर रटहू) खीरदधि लवण (सुपप्पं)।
(जिण धांम नामं जंजाळ जे सटमिट जाय संसार रा,
गिनाया है:
उदध अंब अणथाग आच उधारण अळियळ,
महण (मीन) महरांण कमळ हिलोहळ व्याकुल।
बेळावळ अहिलोल वार ब्रहमंड निधूवर,
अकूपार अणथाग समंद दध सागर सायर।
अतरह अमोघ चड़तव अलील बोहत अतेरुडूबवण,
(कव कवत अेह पिंगल कहै बीस नामं)सामंद (तण)॥
कवि हमीरदान रतनू विरचित हमीर नाममाला में समुद्र नाममाला कुछ और नए नाम जोड़ती है:
मथण महण दध उदध महोदर,
रेणायर सागर महरांण॥
रतनागर अरणव लहरीरव,
गौडीरव दरीआव गंभीर।
पारावार उधघिपत मछपति
(अथग अंबहर अचळ अतीर)॥
नीरोवर जळराट वारनिधि
पतिजळ पदमालयापित।
सरसवांन सामंद,
महासर अकूपार उदभव-अम्रति॥
कविराज मुरारिदान समुद्र के बचे खुचे अन्य नाम समेट लेते है:
सायर महराण स्रोतपत सागर दध रतनागर मगण दधीं,
समंद पयोधर बारध सिंधू नदीईसबर बानरथी।
सर दरियाव पतोनध समदर लखमीतात जळंध
लवणोद,
हीलोहळ जळपती बारहर पारावार उदध पाथोद।
सरतअधीस मगरघर सरबर अरणव महाकच्छ अकुपार,
कळब्रछपता पयध मकराकर (भाखां फिर) सफरीभंडार॥ इस तरह पानी में से निकला मरुभूमि का मन समुद्र के इतने नाम आज भी याद रखे हैं और साथ ही यह विश्वास भी कि कभी यहां फिर से समुद्र आ जाएगा : हक कर बहसे हाकड़ो, बंध कर तुट से अरोड़ सिंघड़ी सूखो जावसी, निर्धनियो रे धन होवसी उजड़ा खेड़ा फिर बससी, भागियो रे भूत कमावसी इक दिन ऐसा आवसी। हाकड़ो बाद में समुद्र से, दरियाव से बस दरिया, नदी बन गया। हाकड़ो को तब इसी क्षेत्र में कभी लुप्त हो गई प्राचीन नदी सरस्वती के साथ भी रखकर देखा गया है। आज इस क्षेत्र में मीठे भूजल का अच्छा भंडार माना जाता है और इसे उन नदियों की रिसन से जोड़ा जाता है। |
सीमा के उस पार पाकिस्तान के सख्खर जिले में अरोड़ नामक स्थान पर एक बांध है। एक दिन ऐसा आएगा कि वह बांध टूट जाएगा। सिंध सूख जाएगा, बसे खेड़े गांव उजड़ जाएंगे, उजड़े खेड़े फिर बस जाएंगे, धनी निर्धन और निर्धन धनी बन जाएंगे-एक दिन ऐसा आएगा। हाकड़ो की प्रारंभिक जानकारी और राजस्थानी में समुद्र के कुछ नाम हमें श्री बदरीप्रसाद साकरिया और श्री भूपतिराम साकरिया द्वारा संपादित राजस्थानी हिंदी शब्द कोश, पंचशील प्रकाशन, जयपुर से मिले। इसे ढंग से समझने का अवसर मिला श्री दीनदयाल ओझा (केला पाड़ा, जैसलमेर) तथा श्री जेठूसिंह भाटी (सिलावटापाड़ा, जैसलमेर) के साथ हुई बातचीत से। ऊपर व्यक्त की गई आशा 'इस दिन ऐसा आवसी' भी श्री जेठू से मिली है। डिंगल भाषा में समुद्र के नाम राजस्थानी शोध |
संस्थान, चौपासनी, जोधपुर से प्रकाशित और श्री नारायण सिंह भाटी द्वारा संपादित डिंगल कोष (१९५७) से प्राप्त हुए हैं।
राज्य की वर्षा के आंकड़े राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर से प्रकाशित श्री इरफान मेहर की पुस्तक राजस्थान का भूगोल से लिए गए हैं। राजस्थान की जिलेवार जल कुंडली इस प्रकार है :
जिला | औसत वर्षा सेंटीमीटर में |
जैसलमेर | १६.४० |
श्रीगंगानगर | २५.३७ |
बीकानेर | २६.३७ |
बाड़मेर | २७.७५ |
जोधपुर | ३१.८७ |
चुरू | ३२.५५ |
नागौर | ३८.८६ |
जालौर | ४२.१६ |
झुंझुनूं | ४४.४५ |
सीकर | ४६.६१ |
पाली | ४९.०४ |
अजमेर | ५२.७३ |
जयपुर | ५४.८२ |
चित्तौड़गढ़ | ५८.२१ |
अलवर | ६१.१६ |
टौंक | ६१.३६ |
उदयपुर | ६२.४५ |
सिरोही | ६३.८४ |
भरतपुर | ६७.१५ |
धौलपुर | ६८.०० |
सवाई माधोपुर | ६८.९२ |
भीलवाड़ा | ६९.९० |
डूंगरपुर | ७६.१७ |
बूंदी | ७६.४१ |
कोटि | ८८.५६ |
बांसवाड़ा | ९२.२४ |
झालावाड़ | १०४.४७ |
नये बने जिलों के आंकड़े अभी उपलब्ध नहीं हैं।
बरस भर में केवल १६.४० सेंटीमीटर वर्षा पाने वाला जैसलमेर सैकड़ों वर्षों तक ईरान, अफगानिस्तान से लेकर रूस तक के कई भागों से होने वाले व्यापार का केंद्र बना रहा है। उस दौरान जैसलमेर का नाम दुनिया के नक्शे पर कितना चमकता था, इसकी एक झलक जैसलमेर खादी ग्रामोदय परिषद के भंडार की एक दीवार पर बने नक्शे में आज भी देखने मिल सकता है। तब बंबई, कलकत्ता, मद्रास का नाम निशान भी नहीं था कहीं।
मरुनायक श्रीकृष्ण की मरुयात्रा और वरदान का प्रसंग हमें सबसे पहले श्री नारायणलाल शर्मा की पुस्तिका में देखने मिला।
थार प्रदेश के पुराने नामों में मरुमेदनी, मरुधन्व, मरुकांतार, मरुधर, मरुमंडल और मारव जैसे नाम अमर कोष, महाभारत, प्रबंध चिंतामणि, हितोपदेश, नीति शतक, वाल्मीकि रामायण आदि संस्कृत ग्रंथों में मिलते है और इनका अर्थ रेगिस्तान से ज्यादा एक निर्मल प्रदेश रहा है।
माटी, जल और ताप की तपस्या
मेंढक और बदल का प्रसंग सब जगह मिलता है। पर यहां डेडरिया, मेंढक बादलों को देखकर सिर्फ डर्र-डर्र नहीं करता, वह पालर पानी को भर लेने की वही इच्छा मन में रखता है, जो इच्छा हमें पूरे राजस्थानी समाज के मन में दिखती है। और फिर यह साधारण-सा दिखने, लगने वाला मेंढक भी कितना पानी भर लेना चाहता है? इतना की आधी रात तक तालाब का नेष्टा, यानि अपरा चल जाए, तालाब पूरा लबालब भर जाए।
डेडरियो के तीसरी पंक्ति गाते समय बच्चे इस पंक्ति में आए शब्द तलाई के बदले अपने मोहल्ले या गांव के तालाब का नाम लेते हैं। दूसरी पंक्ति पालर पानी भरूं-भरूं के बदले कहीं-कहीं मेंढक ठाला ठीकर भरूं-भरूं भी कहता है।
डेडरियो का यह प्रसंग हमें जैसलमेर के श्री जेठूसिंह भाटी से मिला और फिर उसमें कुछ और बारीकियां जैसलमेर के ही श्री दीनदयाल ओझा ने जोड़ी हैं : बदल उमड़ आने पर बच्चे तो डेडरियो गाते निकलते हैं और बड़े लोग गूगरिया मिट्टी के बर्तन में पकाते हैं। फिर इसे चारों दिशाओं में उछाल कर हवा, पानी को अर्घ्य अर्पित करते हैं। इस तरह वे वर्षा का 'अरूठ ' मिटाते हैं, यानि वर्ष यदि किसी कारण से रूठ गई है तो इस भेंट से उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं। यह अनुष्ठान नंगे सर किया जाता है। इस दौरान पगड़ी नहीं पहनी जाती। इस तरह लोग जल देवता को यह जताना चाहते हैं कि वे दुखी और संतप्त हैं। शोक में डूबे अपने भक्तों को प्रसन्न करने, अपनी अरूठ दूर कर वर्षा को अवतरित होना पड़ता है।
कहीं-कहीं आखा तीज, अक्षय तृतीया पर मिट्टी के चार कुल्हड़ भूमि पर रखे जाते हैं। ये
चार महीनों–जेठ, आषाढ़, सावन और भादों के प्रतीक माने जाती हैं। इनमे पानी भरा जाता है। फिर उत्सुक निगाहें देखती हैं कि कौन-सा कुल्हड़ पहले गल जाता है। जेठ का कुल्हड़ गल जाए तो वर्षा स्थिर मानी जाएगी, आषाढ़ का गले तो खंडित रहेगी और सावन या भादों में से कोई पहले फूट जाए तो माना जाता है कि खूब पानी बरसेगा।
नए लोगों के लिए चार महीनों के कुल्हड़ों का यह प्रसंग टोटका होगा पर यहां पुराने लोग मौसम विभाग की भविष्यवाणी को भी टोटके से ज्यादा नहीं मानते।
वर्षा काल में बिजली के चमकने और गरजने में ध्वनि और प्रकाश की गति का ठीक स्वाभाव समाज परखता रहा है : तीस कोसरी गाज, सौ कोसरी खैन यानि बिजली कड़कने की आवाज तीस कोस तक जाती है पर उसकी चमकने का प्रकाश तो सौ कोस तक फैल जाता है। ध्वनि और प्रकाश का यह बारीक अंतर हमें श्री जेठूसिंह से मिला है।
राज्य के विस्तार, क्षेत्रफल आदि के आंकड़ों में श्री इरफन मेहर की पुस्तक राजस्थान के भूगोल से सहायता ली गई है और फिर उसमें इस बीच बने नए जिले और जोड़े गए हैं। राजस्थान के भूगोल का आधुनिक वर्गीकरण और मानसून की हवा की विस्तृत जानकारी भी इसी पुस्तक से ली गई है।
खारी जमीन का पहला परिचय हमें सांभर क्षेत्र की यात्रा से मिला। यहाँ तक हम तिलोनिया, अजमेर स्थित सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर के साथी श्री लक्ष्मीनारायण, श्री लक्ष्मणसिंह और श्रीमती रतनदेवी के सौजन्य से पहुंच सके थे। बीकानेर का लूणकरणसर क्षेत्र तो नाम से ही लवणयुक्त है। इस क्षेत्र को समझने में हमें वहां काम कर रहे उरमूल ट्रस्ट से मदद मिली।
इस अध्याय में ताप से संबंधित अंश पीथ, जलकूंडो, माछलो और भडली पुराण के प्रारंभिक सूचनाएं श्री बदरीप्रसाद साकरिया और श्री भूपतिराम साकरिया के राजस्थानी शब्दकोश से मिली हैं। वर्षा-सूचकों में चंद्रमा की ऊभो या सूतो स्थिति हमें श्री दीनदयाल ओझा और श्री जेठूसिंह ने समझाई। डंक-भडली पुराण में वर्षा से संबंधित कुछ अन्य कहावतें इस प्रकार हैं :
यदि मार्गशीर्ष कृष्ण अष्टमी को बादल और बिजली दोनों हों तो श्रावण में वर्षा होगी और फसल सवाई होगी।
यदि मार्गशीर्ष के पहले या दूसरे पक्ष में अथवा पौष के प्रथम पक्ष में, प्रातःकाल के समय धुंध (कोहरा) हो तो जमाना अच्छा होगा।
यदि पौष कृष्ण दसमी को बादलों में बिजली चमके तो पूरे भादों में वर्षा होगी और स्त्रियां तीज का त्यौहार अच्छी तरह मनाएंगी।
यदि पौष में घने बादल दिखाई दें और चैत्र के शुक्ल पक्ष में चंद्रमा स्वच्छ दिखाई पड़े यानी कोई बादल दिखाई न दें तो डंक भडली से कहता है कि अनाज मन से भी सस्ता होगा।
यदि फाल्गुन कृष्ण द्वितीया के दिन बादल या बिजली नहीं हो तो श्रावण व भादों में अच्छी वर्षा होगी, अतः हे पति, तीज अच्छी तरह मनाएंगे।
बादल जहां सबसे कम आते हैं, वहां बादलों के सबसे ज्यादा नाम हैं। इस लंबी सूची की–कोई चालीस नामों की पहली छंटाई हम राजस्थानी-हिन्दी शब्द कोश की सहायता से कर सके हैं। इनमें विभिन्न डिंगल कोशों से कई नाम और जोड़े जा सकते हैं। कवि नागराज का डिंगल कोश मेघ के नाम इस प्रकार गिनाता है :
पावस प्रथवीपाळ बसु हब्र बैकुंठवासी,
महीरंजण अंब मेघ इलम गाजिते-आकासी।
नैणे-सघण नभराट ध्रुवण पिंगळ धाराधर,
जगजीवण जीभूत जलद जळमंडल जळहर।
जळवहण अभ्र वरसण सुजळ महत कळायण (सुहामणा),
परजन्य मुदिर पाळग भरण (तीस नाम) नीरद (तणा)॥
श्री हमीरदान रतनू विरचित हमीर नांम-माला में बादलों के नामों की घटा इस प्रकार छा जाती है :
पावस मुदर बळाहक पाळग,
धाराधर (वळि) जळधरण।
मेघ जळद जळवह जळमंडळ,
घण जगजीवन घणाघण॥
तड़ितवांन तोईद तनयतुं,
नीरद वरसण भरण-निवांण।
अभ्र परजन नभराट आकासी,
कांमुक जळमुक महत किलांण।
(कोटि सघण, सोभा तन कांन्हड़,
स्यांम त्रेभुअण स्याम सरीर।
लोक मांहि जम जोर न लागै,
हाथि जोड़ि हरि समर हमीर)॥
श्री उदयराम बारहठ विरचित अवधान-माला में बचे हुए नाम इस तरह समेटे गए हैं :
धाराधर घण जळधरण मेघ जळद जळमंड,
नीरद बरसण भरणनद पावस घटा (प्रचंड)।
तड़ितवांन तोयद तरज निरझर भरणनिवांण,
मुदर बळाहक पाळमहि जळद (घणा) घण (जांण)।
जगजीवन अभ्रय रजन (हू) काम कहमत किलांण,
तनयतू नभराट (तब) जळमुक गयणी (जा'ण)॥
डिंगल कोष की एक अन्य सूची, जिसके कवि अज्ञात ही हैं, बादल के कुछ ज्ञात-अज्ञात नाम और जोड़ती हैं :
मेघ जळद नीरदं जळमंडण,
घण बरसण नभराट घणाघण।
महत किलांण अकासी जळभुक,
मुदर बळाहक पाळग कांमुक।
धाराधर पावस अभ्र जळधर,
परजन! तड़ितवांन तोयद (पर) सघण तनय (तू)
स्यामघटा (सजि),
गंजणरोर निवांणभर गजि।
काली घटाओं की तरह उमड़ती यह सूची कविराजा मुरारिदान द्वारा रचित डिंगल कोष के इस अंश पर रोकी भी जा सकती है :
मेघ घनाधन घण मुदिर जीमूत (र) जळवाह,
अभ्र बळाहक जळद (अख) नमधुज धूमज (नाह)॥
डिंगल कोष के ये संदर्भ हमें श्री नारायण सिंह भाटी द्वारा संपादित और राजस्थानी शोध संस्थान, चौपासनी, जोधपुर द्वारा सन् १९५७ में प्रकाशित डिंगल-कोष से मिले हैं।
बादलों के स्वभाव, रंग रूप, उनका इस से उस दिशा में दौड़ना, किसी पहाड़ पर थोड़ा टिक कर आराम करना आदि की प्रारंभिक सूचनाएं राजस्थानी
हिन्दी शब्द कोश से ली गई हैं।
इस जमाने में जमानो शब्द का ठीक भाव हम श्री ओम थानवी, संपादक जनसत्ता, १८६ बी, इंडस्ट्रियल एरिया, चंडीगढ़ से समझ सके। श्री थानवी ने सन् ८७ में सेंटर फार साइंस एंड एनवायर्नमेंट, नई दिल्ली की ओर से मिली एक शोधवृत्ति पर संभवतः पहली बार राजस्थान के जल-संग्रह पर एक विस्तृत आलेख लिखा था और इस परंपरा की भव्य झलक देने वाले उम्दा छाया चित्र खींचे थे। फिर जमानों पर विस्तृत जानकारी हमें श्री जेठूसिंह से मिली। उन्हीं ने जेठ का महत्व, जेठ की प्रशंसा में ग्वालों के गीत और महीनों की आपसी बातचीत में जेठ की श्रेष्ठता से जुड़ी जानकारियां दीं।
पानी बरसने की क्रिया तूठणो से लेकर उबरेलो, यानी वर्षा के सिमटने की पूरी प्रक्रिया को हम राजस्थानी-हिन्दी शब्द कोश की सहायता से समझ पाए हैं।
राजस्थान की रजत बूंदे
सचमुच 'नेति नेति' जैसी कुंई को कुछ हद तक ही समझ पाने में हमें सात-आठ बरस लग गए–इसे स्वीकार करने में हमें जरा भी संकोच नहीं हो रहा है। पहली बार कुंई देखी थी सन् १९८८ में चुरू जिले के तारानगर क्षेत्र में। लेकिन यह कैसे काम करती है, खारे पानी के बीच भी खड़ी रह कर यह कैसे मीठा पानी देती रहती है–इसकी प्रारंभिक जानकारी हमें बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति की एक गोष्ठी में भाग लेने आए ग्रामीण प्रतिनिधियों से हुई बातचीत से मिली थी। बाड़मेर में बनने वाली पार का परिचय वहां के नेहरू युवा केंद्र के समन्वयक श्री भुवनेश जैन से मिला।
कभी स्वयं गजाधर रहे श्री किशन वर्मा ने
चेजारो और चेलबांजी के काम की बारीकियां और कठिनाइयां समझाईं। कुंई खोदते समय खींप की रस्सी से उसे बांधते चलने, और भीतर हवा की कमी को दूर करने ऊपर से एक-एक मुट्टी रेत जोर से फेंकने का आश्चर्यजनक तरीका भी उन्होंने बताया। श्री वर्मा का पता है : १, गोल्डन पार्क, रामपुरा, दिल्ली ३५।
कुंई और रेजाणी पानी का शाश्वत संबंध हमें जैसलमेर के श्री जेठूसिंह भाटी से हुए पत्र व्यवहार से और फिर जैसलमेर में उनके साथ हुई बातचीत से समझ में आया। रेजाणी पानी ठीक से टिकता है बिट्टू रो बल्लियो के कारण। बिट्टू मुल्तानी मिट्टी या मेट, छोटे कंकड़, यानी मुरडियो से मिलकर बनी पट्टी है। इसमें पानी नमी की तरह देर तक, कहीं-कहीं एक-दो वर्ष तक बना रहता है। खड़िया पट्टी भी काम तो यही करती है पर इसमें पानी उतनी देर तक नहीं टिक पाता। बिट्टू से ठीक उलटी है धीये रो बल्लियों। इससे पानी रुकता नहीं और इसलिए ऐसे क्षेत्रों से रेजाणी पानी नहीं लिया जा सकता और इसलिए इनमें कुंइयां भी नहीं बन सकती।
सांपणी और लट्ठों से पार की बंधाई की जानकारी भी उन्हीं से मिली है। जैसलमेर से २५ किलोमीटर दूर खड़ेरों की ढाणी गांव में पालीवालों की छह बीसी (एक सौ बीस) पारों को हम श्री जेठूसिंह और उसी गांव के श्री चैनारामजी के साथ की गई यात्रा में समझ पाए। आज इनमें से ज्यादातर पार रेत में दब गई हैं। ऐसा ही एक और गांव है छंतारगढ़। इसमे पालीवालों के समय की ३०० से ज्यादा कुंइयों के अवशेष मिलते हैं। कई पारों में आज भी पानी आता है।
खंड़ेरों की ढाणी जेसे कई गांवों को आज एक नए बने ट्यूबवैल से पानी मिल रहा है। पानी 60 किलोमीटर दूर से पाइप लाइन के माध्यम से आता है। ट्यूबवैल जहां खोदा गया है, वहां बिजली नहीं है। वह डीजल से चलता है। डीजल और भी कहीं दूर से टैंकर के जरिए आता है। कभी टैंकर के ड्राइवर छुट्टी पर चले जाते हैं, तो कभी ट्यूबवैल चलाने वाले। कभी डीजल ही उपलब्ध नहीं होता। उपलब्ध होने पर उसकी चोरी भी हो जाती है। कभी रास्ते में पाइप लाइन फट जाती है–इस तरह के अनेक कारणों से गांवों में पानी पहुंचता ही नहीं है। नई बनी पानी की टंकियां खाली पड़ी रहती हैं और गांव इन्हीं पारों से पानी लेता है।
राजस्थान की संस्थाओं, अखबारों को पानी देने की ऐसी नई सरकारी व्यवस्था से जोड़े गए, जोड़े जा रहे गांवों की नियमित जानकारी रखनी चाहिए। नए माध्यम से पानी आ रहा है, कितना आ रहा है, इसकी हाजरी लगनी चाहिए। तभी समझ में आ सकेगा कि आधुनिक मानी गई पद्धतियां मरुभूमि में कितनी पिछड़ी साबित हो रही हैं।
इंदिरा गांधी नहर से जोड़े गए उन गांवों की भी ऐसी ही हालत हो चली है, जहां पहले पानी कुंइयों से लिया जाता था। चुरू जिले के बूचावास गांव में कोई पचास से ज्यादा कुंइयां थीं। सारा गांव शाम को एक साथ इन पर पानी लेने जमा होता था। मेला सा लगता था। अब नया पानी कहीं दूर से पाईप लाइन के जरिए सीमेंट की एक बड़ी गोल टंकी में आता है। टंकी के चारों तरफ नल लगे हैं। इस नए पनघट पर मेला नहीं भीड़ जुटती है। झगड़ा होता है। घड़े फूटते हैं। टंकी में पानी रोज नहीं आता, कभी-कभी तो हफ्ते दो हफ्ते में एकाध बार पानी आता है। इसलिए पानी लेने के लिए छीनाझपटी होती है। गांव के मास्टरजी का कहना है कि शायद प्रतिदिन का औसत निकालें तो हमें नया पानी उतना ही मिल रहा है जितना बिना झगड़े कुंइयों से मिल जाता था। इस बीच उखड़-उजड़ चुकी कई कुंइयां फिर से ठीक की जा रही हैं।
कुंइयां सचमुच स्वयंसिद्ध और समयसिद्ध साबित हो रही हैं।
ठहरा पानी निर्मला
बहते पानी को ठहरा कर वर्ष भर निर्मल बनाए रखने वाली कुंडी की पहली झलक हमें सन् ८८ में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट के श्री अनिल अग्रवाल और सुश्री सुनीता नारायण के साथ दिल्ली से बीकानेर जाते समय दिखी थी। फिर कुंई की तरह इसे भी समझने में हमें काफी समय लगा है।
कुंडी शब्द कुंड से और कुंड यज्ञ कुंड से बना माना जाता है। जैसलमेर जिले में बहुत पुराना बैसाखी कुंड भी है, जहां आसपास के बहुत बड़े क्षेत्र से लोग अस्थियां विसर्जन के लिए आते हैं। कहा जाता है कि बैसाखी पूर्णिमा को यहां स्वयं गंगाजी आती हैं। ऐसी कथाएं कुंड के जल की निर्मलता, पवित्रता बताती हैं।
कुंड बनाने की प्रथा कितनी पुरानी है, ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता। बीकानेर-जैसलमेर क्षेत्र में दो सौ-तीन सौ बरस पुराने कुंड, टांके भी मिलते हैं। नई तकनीक हैंडपंप को भी टिकाने वाले कुंड चुरू क्षेत्र में खूब हैं। कुंडियों का समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध स्वभाव हमें जनसत्ता, दिल्ली के श्री सुधीर जैन ने समझाया।
फोग की टहनियों से बनी कुंडियां बीकानेर जिले की सीमा पर पाकिस्तान से सटे जालवाली गांव में हमें श्री ओम थानवी और राजस्थान गो सेवा संघ के श्री भंवरलाल कोठारीजी के कारण देखने मिलीं। इन कुंडियों पर सफेद रंग पोतने का रहस्य श्री ओम थानवी ने समझाया।
खड़िया से बनी कुंडियां बीकानेर-जैसलमेर मार्ग पर बीच-बीच में बिखरी हैं। बज्जू क्षेत्र में भी हमें ऐसी कुंडियां उरमूल ट्रस्ट के श्री अरविंद ओझा के साथ की गई यात्रा में देखने मिलीं। कलात्मक चबूतरों की तरह बनी कुंडियां हम जैसलमेर के रामगढ़ क्षेत्र में राजस्थान गो सेवा संघ के श्री जगदीशजी के साथ की गई यात्रा में देख पाए। जैसलमेर में कुछ ही पहले बसे और बने एक पूरे नए गांव 'कबीर बस्ती' में हर घर के आगे ऐसी ही कुंडियां बनाई गई हैं। इसकी सूचना हमें जैसलमेर खादी ग्रामोदय परिषद के श्री राजू प्रजापत से मिली। छतों और आंगन के आगौर से जोड़ कर दुगना पानी एकत्र करने वाला टांका जोधपुर के फलोदी शहर में श्री ओम थानवी के सौजन्य से देखने मिला। चुर्रो के पानी को बड़ी किफायत के साथ लेने वाले टांकों की जानकारी दी है श्री जेठूसिंह भाटी ने। श्री संतोषपुरी नामक साधु ने ऐसे टांके अभी कुछ ही पहले बनाए हैं, जैसलमेर के नरसिहों की ढाणी के पास। संन्यास लेने से पहले ये चरवाहे थे। इस क्षेत्र में बरसने वाले पानी को बहते देखते थे। साधु बनने के बाद उन्हें लगा कि इस पानी का उपयोग होना चाहिए। उनका बचा काम अब उनके शिष्य यहां पूरा कर रहे हैं। संसार छोड़ चुके संन्यासी पानी के काम को कितने आध्यात्मिक ढंग से अपनाते हैं–इसकी विस्तृत जानकारी श्री जेठूसिंह से मिल सकती है।
जयगढ़ किले में बने विशाल टांके की पहली जानकारी हमें जयपुर शहर के संग्रहालय में लगे एक विज्ञापन से मिली थी। उसमें इसे विश्व का सबसे बड़ा टांका कहा गया था। बाद में यहां हम चाकसू की संस्था एग्रो एक्शन के श्री शरद जोशी के साथ गए और प्रारंभिक जानकारी भी उन्हीं से मिली। इस सबसे बड़े टांके की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है :
टांके का आगौर जयगढ़ की पहाड़ियों पर ४ किलोमीटर तक फैला है। बड़ी छोटी अनेक नहरों का जाल पहाड़ियों पर बरसने वाले पानी को समेट कर किले की दीवार तक लाता है। नहरों की ढलान भी कुछ इस ढंग से बनी है कि इनमें पानी बहने के बदले धीरे-धीरे आगे 'चढ़ता' है। इस तरह पानी के साथ आने वाली साद पीछे छूटती जाती है। नहरों के रास्ते में भी कई छोटे-छोटे कुंड बने हैं। इनमें भी पानी साद छोड़ कर, साफ होकर आगे मुख्य टांके की ओर बहता है।
आपातकाल के दौरान यानी सन् १९७५-७६ में सरकार ने इन्हीं टांकों में जयपुर घराने के 'छिपे' खजाने को खोजने के लिए भारी खुदाई की थी। यह कुछ महीनों तक चली थी। तीनों टांकों के आसपास खुदाई हुई। टांकों का सारा पानी बड़े-बड़े पंपों की सहायता से उलीचा गया।
आयकर विभाग के इन छापों में खजाना मिला या नहीं, पता नहीं पर वर्षा जल के संग्रह का यह अद्भुत खजाना चारों तरफ की गहरी खुदाई से कुछ लुट ही गया था। फिर भी यह उसकी मजबूती ही मानी जाएगी कि कोई चार सौ बरस पहले बने ये टांके इस विचित्र अभियान को भी सह सके हैं और आज भी अपना काम बखूबी रहे हैं।
इन टांकों, छापों और खुदाई की विस्तृत जानकारी श्री आर. एस. खंगारोत और श्री पी. एस. नाथावत द्वारा लिखी गई अंग्रेजी पुस्तक 'जयगढ़, द इनविंसिबल फोर्ट ऑफ आमेर' से मिल सकती है। प्रकाशक हैं : आर. बी. एस. ए. पब्लिशर्स, एस. एम. एस. हाईवे जयपुर।
राजस्थान में चारों तरफ रजत बूंदों की तरह छिटकी हुई इन कुंडियों, टांकों, कुंइयों, पार और तालाबों ने समाज की जो सेवा की है, पीने का जो पानी जुटाया है, उसकी कीमत का हम आज अंदाज भी नहीं लगा सकते। किसी केंद्रीय ढांचे से इस काम को पूरा करना एक तो संभव नहीं और यदि थोड़ा-बहुत हो भी जाए तो उसकी कीमत कुछ करोड़ों रुपए की होगी। राजस्थान सरकार के जन स्वास्थ्य अभियांत्रिक विभाग की ओर से समय-समय पर यहां-वहां कुछ पेयजल योजनाओं को बनाने के लिए निविदा सूचनाएं अखबारों में निकलती रहती हैं। फरवरी ९४ में दिल्ली के जनसत्ता दैनिक में प्रकाशित एक ऐसी ही निविदा सूचना में बाड़मेर जिले की शिव, पचपदरा, चौहटन, बाड़मेर और शिवाना तहसील के कुल दो सौ पचास गांवों में जलप्रदाय योजना बनाने की अनुमानित लागत ४० करोड़ बताई गई है। इसी निविदा में बीकानेर जिले की बारह तहसीलों के छह सौ गांवों में होने वाले काम की लागत ९६ करोड़ रुपए आने वाली है।
इसी के साथ फरवरी ९४ में राजस्थान के अखबारों में छपी निविदा सूचना भी ध्यान देने लायक है। इसमें जोधपुर जिले के फलोदी क्षेत्र में इसी विभाग की ओर से २५ हजार लीटर से ४५ हजार लीटर तक की क्षमता के 'भूतल जलाशय' यानी कहीं और से लाए गए पानी को जमा करने वाले टांकों के निर्माण की योजना है। इन सबकी अनुमानित लागत ४३ हजार रुपए से ८६ हजार रुपए बैठ रही है। इनमें एक लीटर पानी जमा रखने का खर्च लगभग दो रुपए आएगा। पर पानी कहीं और से लाना होगा। उसका खर्च अलग। यह काम फलोदी के केवल तेरह गांवों में होगा। कुल खर्च है लगभग नौ लाख रुपए।
अब कल्पना कीजिए राजस्थान के समाज के उस 'विभाग' की, जो एक साथ बिना विज्ञापन, निविदा सूचना और ठेकेदारी के अपने ही बलबूते पर कोई ३० हजार गांवों में निर्मल पानी जुटा सकता था।
बिंदु में सिंधु समान
साईं इतना दीजिए के बदले साईं 'जितना' दीजिए वामे कुटुम समा कर दिखाने वाले इस समाज की बहुत-सी जानकारी हमें पिछली पुस्तक 'आज भी खरे हैं तालाब' को तैयार करते समय मिली थी। इस अध्याय का अधिकांश भाग उस पुस्तक के 'मृगतृष्णा झुठलाते तालाब' पर आधारित है। तालाब कैसे बनते हैं, कौन लोग इन्हें बनाते हैं, तालाबों के आकार-प्रकार और उनके तरह-तरह के नाम, वे परंपराएं जो तालाब को सहेज कर वर्षों तक रखना जानती थीं–आदि अनेक बातें गांधी शांति प्रतिष्ठान से छपी उस पुस्तक में आ चुकी हैं। इस विषय में रुचि रखने वाले पाठकों को उसे भी पलट कर देख लेना चाहिए।
तालाब के बड़े कुटुंब की सबसे छोटी और प्यारी सदस्या नाडी की प्रारंभिक जानकारी हमें मरुभूमि विज्ञान विद्यालय के निदेशक श्री सुरेन्द्रमल मोहनोत से मिली थी। उन्होंने जोधपुर शहर में जल संग्रह की उन्नत परंपरा पर काम किया है। उनके इस अध्ययन से पता चलता है कि शहरों में भी नाडियां बनती रही हैं। जोधपुर में अभी भी कुछ नाडियां बाकी हैं। इनमें प्रमुख हैं : जोधा की नाडी, सन् १५२० में बनी गोल नाडी, गणेश नाडी, श्यामगढ़ नाडी, नरसिंह नाडी और भूतनाथ नाडी।
सांभर झील के आगौर में चारों तरफ खारी जमीन के बीच मीठे पानी की तलाई हम प्रयत्न नामक संस्था के श्री लक्ष्मीनारायण और सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर की श्रीमती रतनदेवी तथा श्री लक्ष्मणसिंह के साथ की गई यात्रा में देख समझ सके। इनके पते हैं : प्रयत्न, ग्राम शोलावता, पो. श्रीरामपुरा, बरास्ता नरैना, जयपुर तथा सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर, तिलोनिया, बरास्ता मदनगंज, अजमेर।
बाल-विवाह के विरुद्ध कानून बनवाने वाले समाज सुधारक श्री हरबिलास शारदा ने अपनी एक पुस्तक 'अजमेर : हिस्टारिकल एंड डिस्क्रिप्टिव' में अजमेर, तारागढ़, अन्नासागर, विसलसर, पुष्कर आदि पर विस्तार से लिखा था। सन् १९३३ के अक्टूबर में अजमेर में अखिल भारतीय स्वदेशी औद्योगिक प्रदर्शनी लगी थी। प्रदर्शनी समिति के अध्यक्ष श्री हरबिलास शारदा ही थे। कई लोगों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इस विषय पर लगी प्रदर्शनी में अजमेर के अन्नासागर नामक तालाब पर विशेष जानकारी दी गई थी।
इसी क्षेत्र में पानी और गोचर को लेकर काम कर रहे श्री लक्ष्मणसिंह राजपूत से हमें यहां के लगभग हर गांव में बंजारों के द्वारा बनाई गई तलाइयों की सूचना मिली और फिर उनके साथ की गई यात्राओं में इन्हें देखने का अवसर भी। यहां इन्हें दंड-तलाई कहते हैं। इन सब तलाइयों के किनारे दंड, यानी स्तंभ लगे हैं बंजारों के। संभवतः इसी कारण इनको इस नाम से याद रखा गया है। श्री लक्ष्मणसिंह ऐसी तलाइयों की टूट-फूट को ठीक करने का भी अभियान चला रहे हैं। उनका पता है : ग्राम विकास नवयुवक मंडल, ग्राम लापोडिया, बरास्ता दूदू, जयपुर।
जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर के आंकड़े हमें इन जिलों के गजेटियरों और सन् १९८१ की जनगणना रिपोर्ट से मिले हैं। इन्हीं में हमने मरुभूमि का वह डरावना रूप देखा है जो सारे योजनाकारों के मन में बुरी तरह व्याप्त है।
जैसलमेर के तालाबों की प्रारंभिक सूची हमें श्री नारायण शर्मा की पुस्तक 'जैसलमेर' से मिली थी। इसके प्रकाशक हैं : गोयल ब्रदर्स, सूरज पोल, उदयपुर। फिर हर बार इस सूची में दो-चार नए नाम जुड़ते गए हैं। हम आज भी शहर की पूरी सूची का दावा तो नहीं कर सकते। मरुभूमि के इस भव्यतम नगर में हर काम के लिए तालाब बने थे। बड़े पशुओं के लिए तो थे ही, बछड़ों तक के लिए अलग तालाब थे। बछड़े को बड़े पशुओं के साथ दूर तक चरने नहीं भेजा जाता। इसलिए उनके तालाब शहर के पास ही बने थे। एक जगह तीन तलाई एक साथ थीं–इस जगह का नाम ही तीन तलाई पड़ गया था। आज इन्हें मिटा कर इनके ऊपर इंदिरा गांधी स्टेडियम खड़ा है।
जैसलमेर के तालाबों को समझने में हमें श्री भगवानदास माहेश्वरी, श्री दीनदयाल ओझा, श्री ओम थानवी और श्री जेठूसिंह भाटी से बहुत सहायता मिली है। ओझाजी और भाटीजी ने तो हमें सचमुच उंगली पकड़ कर इनकी बारीकियां दिखाई-समझाई हैं।
घड़सीसर, गड़सीसर, गड़ीसर–नाम घिसता है, घिस कर चमक देता है। यह तालाब समाज के मन में तैरता है। अनेक नाम, अनेक रूप। यह जैसलमेर के लिए गर्व का भी कारण है और घमंड का भी। कोई यहां ऐसा बड़ा काम कर दे, जो उसकी हैसियत से बाहर का हो, तो उस काम का सारा श्रेय कर्ता से छीन कर गड़ीसर को सौंप देने का भी चलन रहा है–"क्या गड़ीसर में मुंह धो आया था?" और यदि कोई डींगें हांक रहा हो तो उसे जमीन पर उतारने के लिए कोई कह देगा, "जा गड़ीसर पोणी स मांडो धो या।" जा, गड़ीसर के पानी से मुंह तो धो कर आ जरा।
लोग गड़ीसर और उसे बनाने वाले महारावल घड़सी को आज भी इतना मानते हैं कि किसी भी प्रसंग में बहुत दूर से यहां नारियल चढ़ाने आते हैं। महारावल घड़सी की समाधि पाल पर कहां है, इसे उनके वंशज भले ही भूल गए हों, लोगों को तो आज भी मालूम है।
कहते हैं आजादी से पहले तक गड़ीसर के लिए शहर में अनुशासन भी खूब था। इस तालाब में एक अपवाद को छोड़ नहाना, तैरना मना था–बस पहली बरसात में सबको इसमें नहाने की छूट होती थी। बाकी पूरे बरस भर इसकी पवित्रता के लिए आनंद का एक अंश, तैरने, नहाने का अंश थोड़ा बांध कर रखा जाता था।
आनंद के इस सरोवर पर समाज अपनी ऊंच-नीच भी भुला देता था। कहीं दूर पानी बरसने की तैयारी दिखे तो मेघवाल परिवारों की महिलाएं गड़ीसर की पाल पर अपने आप आ जातीं, वे कलायण गीत गातीं, इंद्र को रिझाने। इंद्र के कितने ही किस्से हैं, न जाने किस-किस को रिझाने के लिए अप्सराएं भेजने के। लेकिन यहां गड़ीसर पर रीझ जाते थे स्वयं इंद्र। और मेघवाल परिवार की स्त्रियां इस गीत के लिए पैसा नहीं स्वीकार करती थीं। कोई उन्हें इस काम की मजदूरी या इनाम देने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। स्वयं महारावल, राजा
उन्हें इस गीत के बाद प्रसाद देते थे। प्रसाद में एक पसेरी गेहूं और गुड़ होता था। यह भी सब वहीं पाल पर बांट दिया जाता था।
गड़ीसर में कहां कहां से पानी आता है, यह समझ पाना कठिन काम है। रेत का कण तरह की मेंड़बंदी जो पानी की एक एक बूंद गड़ीसर के तरफ से मोड़ कर लाती है) भी बनाई गई थी। तालाब के नीचे बने थे अनेक वेरे यानी कुएं। और कभी इन बेरों तक की प्रशंसा में संस्कृत और फारसी में पंक्तियां लिखी गई थीं।
आज गड़ीसर में नहर का पानी दूर पाइप से लाकर डाला जा रहा है। यह विवरण लिखते-लिखते सूचना मिली कि जो पाइप लाइन टूट गई थी, वह अब फिर ठीक हो गई है और गड़ीसर में नहर का पानी फिर से आने लगा है। पर पाईप लाइन का कोई भरोसा नहीं। लिखते-लिखते ठीक हो जाने वाली पाइप लाइन, पढ़ते-पढ़ते फिर से टूट सकती है।
बाप के तालाब की यात्रा बीकानेर की संस्था उरमूल ट्रस्ट के श्री अरविंद ओझा की मदद से की गई। बाप की कहानी हमें उस्ताद निजामुद्दीन से मेिंली हैं। उनका पता है: बाल भवन, कोटला रोड़, नई दिल्ली।
टोडा रायसिंह
के बांध की
चक्कियां
जसेरी का जस हमने श्री जेलूसिंह भाटी से सुना था। फिर श्री भाटी के सौजन्य से ही इस भव्य तालाब के दर्शन हो सके। और
१००
राजस्थान की
रजत बूंदेंजगहोंलाब सूख जाते हैं, उनके आसपास के कुएं चलते रहते हैं, लेकिन यहां आसपास के कुएं सूख जाते हैं, ज़सेंरी में पानी बना रहता है। यहां पास ही वन विभाग की एक पौधशाला भी है। उनका पानी का अपना प्रबंध भी गर्मी में जवाब दे जाता है तो वे दूर जसेरी के पानी से अपने पौधों को टिकाए रख पाते हैं।
जसेरी के प्रति भी लोगों का प्रेम अद्भुत है। श्री चैनाराम भील हैं। ऊंट और जीप से पर्यटकों को यहां-वहां घुमा कर अपनी जीविका चलाते हैं पर काम छोड़ सकते हैं। उन्होंने जसेरी की टूट-फूट को कैसें ठीक किया जा सकता है, इस पर काफीै सोचाविचारा है। यह सारा नक्शा कागज पर नहीं, उनके मन में हैं।
जसेरी पर गांधी शांति केंद्र, हैदराबाद और गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली ने एक सुंदर पोंस्टर भी प्रकाशित किया है|
जल और अन्न का अमरपटो
ख़हीनों की प्रारंभिक जानकारी हमें जैसलमेर में पालीवालों के उजड़े हुए गांवों में श्री किरण नाहटा और जैसलमेर जिला खादी ग्रामोदय परिंषद के श्री राजू प्रजापत के साथ घूमते हुए मिली थी। बाद में इसे बढ़ाया पानी मार्च के श्री अरुण कुमार और श्री शुभूपटवा ने। जैसलमेर की कुछ प्रसिद्ध खडीनों के चित्र वयोवृद्ध गांधीवादी श्री भगवानदास माहेश्वरीजों ने भिजवाए। और आगे विस्तार से इस खादी ग्रामोदय परिषद के श्री चीइथमल के साथ की गई यात्राओं से
जोधपुर में ग्रामीण विज्ञान समिति संस्था की ओर से नई खड़ीनों को बनाने का काम हुआ है। पता है: पो. जेलू गगाड़ी, जोधपुर।
ज्ञानी और सीधे-सादे ग्वाले के बीच का संवाद हमें जेठूजी से मिला है। पूरा संवाद इस प्रकार है:
ज्ञानी कहते हैं:
सूरज रो तो तप भलो, नदी रो तो जल भलो भाई रो तो बल भलो, गाय रो तो दूध भलो सूरज का तप अच्छा है, जल नदी का अच्छा है, भाई का बल भला है, और दूध गाय का अच्छा होता है। ये चारी बातें अच्छों ही होती हैं।
ग्वाला उत्तर देता है:
आंख रो तो तप भलो, कराख रो तो जल भलो बाहु रो तो बल भलो, मां रो तो दूध भलो चारों बातों भले भाई तप तो आंख का यानी अनुभव का काम आता है। पानी कराख यानी कंधे पर लटकती सुराही का, बल अपनी भूजा का ही काम आता है और दूध तो मां का ही अच्छा है भाई।
आधुनिक कृषि पंडित बताएंगे कि वर्षा के लिहाज से पूरा मरुस्थल गेहूं बोने लायक नहीं है। यह तो खड़ीन बनाने वालों का चमत्कार था केि यहां सैकड़ों वर्षों से गेहूं सैकड़ों मन कटता रहा। भूसे से लंबे समय तक सम्पन्न रखा था।
दईबंध यानी देवीबंध की जानकारी हमें श्री जेठूसिंह और श्री भगवानदास माहेश्वरी से मिली है। उस क्षेत्र में प्रकृति ने, देवी ने जितने भी ऐसे स्थल बनाए होंगे, उनमें से शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसे समाज अपनी आंख के तप से देख न पाया हो। ये अमरपटी यहां चारों तरफ बिखरे है। पढ़-लिख गया समाज इन्हें पढ़ न पाए, यह बात अलग है।
भूण थारा बारे मास
भूण और इंद्र का संबंध हमें श्री जेठूसिंह ने समझाया। न दिखने वाले पाताल पानी कों देखने वाले सीरवी और फिर इतने गहरे कुएं खोदने वाले कोणियों की जानकारी श्री दीनदयाल औझा से मिली।
बावड़ियों, पगबाव और झालरा पर इस अध्याय में अलग से कुछ नहीं दिया जा सका हैं। लेकिन कुओं की तरह इनकी भी एक टोड़ा
रायसिंह की
बावड़ीभव्य परंपरा रही है। यों तो बावड़ी दिल्ली के कनाट प्लेस तक में मिल जाएगी, लेकिन देश के नकशे पर इनकी एक खास पट्टी रही है। इस पट्टी पर गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान आते हैं।
१०१
राजस्थान की
रजत बूंदें
राजस्थान के इस वैभव का पहला दर्शन हमें चाकसू के श्री शरद जोशी ने कराया था। उन्हीं के
देख सके थे। उस बावड़ी की सीढ़ियों पर खड़े होकर हम जान सके कि आंखें फटी रह जाने का अर्थ क्या है। इस पुस्तक का मुखपृष्ठ इसी बावड़ी के चित्र से बनाया है। इसे गांधी शांति केंद्र, हैदराबाद और गांधी शांति प्रतिष्ठान ने एक पोस्टर की तरह भी छापा है। श्री शरद जोशी ने राजस्थान के अनेक शहरों में बनी और अब प्राय: सब जगह उजड़ रही बावड़ियों की जानकारी भी उपलब्ध करवाई। राष्ट्रदूत साप्ताहिक के १८ जून, १९८९ के अंक में श्री अशोक आत्रेय ने राजस्थान की बावड़ियों की लंबी सूची दी है। राष्ट्रदूत साप्ताहिक का पता है: सुधर्मा, एम. आई. रोड, जयपुर।
पिंजरों चड़स, लाव और बरत से संबंधित अधिकांश सूचनाएं हमें श्री दीनदयाल ओझा से मिली हैं। बारियों को समाज से मिलने वाले सम्मान की जानकारी श्री नारायणसिंह परिहार ने दी है। उनका पता है: पो. भीनासर, बीकानेर। सुंडिया की जानकारी हमें जैसलमेर के बड़ा बाग में काम कर रहे श्री मचाराम से मिली है।
१०१
राजस्थान की
रजत बूंदेंसारण पर चड़स खींचने वाले बैल या ऊंटों की थकान का भी ध्यान रखा जाता था। मूण के साथ एक और छोटी धिरी जोड़ी जाती थी, जिस पर एक लंबा डोरा बंधा रहता था। बैलों की हर बारी के साथ यह डोरा लिपटता जाता था। पूरा डोरा लपट जाने से बैल जोड़ी को बदल देने की सूचना मिल जाती थी। पशुओं तक की थकान की इतनी चिंता रखने वाली यह पद्धति अब शायद चलन से उठ गई है। फिर भी पुराने शब्दकोशों में यह डोरा नाम से मिलती है। पहली जानकारी हमें जयपुर के श्री रमेश थानवी ने दी थी। फिर इनकी बारीकियों में उतारा श्री मुरारी लाल थानवी ने। उनके पिता श्री शिवरतन थानवी ने सेठ सांगीदास परिवार के पुराने किस्से बताए। थानवी परिवार का पता है: मोची गली, फलोदी, जिला जोधपुर। उत्कृष्ट गजधरों ने जिस कुएं को वरसीं पहले पत्थरों पर उतारा था, उसे कागज़ पर उतारने में अच्छे-अच्छे वास्तुकारों को आज भी पसीना आ जाता है। कुएं का प्रारंभिक नक्शा बनाने में हमें दिल्ली के वास्तुकार श्री अनुकूल मिश्र से सहायता मिली है। बीकानेर के भव्य चौतीना की
से मिली है। शहर में इस दर्जे के और भी कुएं हैं। ये सभी पिछले २००-२५० बरस से मीठा पानी दे रहे हैं। प्राय: सब इतने बड़े हैं कि उनके नाम पर ही पूरा मोहल्ला जाना जाता है।
मरुभूमि में कुओं से सिंचित क्षेत्र भी काफी रहे हैं। १७वीं सदी के इतिहासकार नैणसी मुहणोत ने अपनी ख्यात में जगह-जगह कुओं की स्थिति पर प्रकाश डाला है। गांव की रेख यानी सीमा में पानी
की गिनती और पानी कहां कितना गहरा था, इसकी भी जानकारी मिलती है। 'परगना री विगत" नामक उनके ग्रंथ में सन् १६५८ से १६६२ तक जोधपुर राज्य के विभिन्न परगनों की सूचनाएं हैं। इस विषय पर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्राध्यापक श्री भंवर भादानी ने काफी काम किया
कुओं की जगत पर अक्सर काठ का बना एक पात्र रखा रहता है। इसका नाम ही है काठड़ी। काठड़ी बनवा कर कुएं पर रखना बड़े पुण्य का काम माना जाता है और काठड़ी को चुराना, तोड़ना-फोड़ना बहुत बड़ा पाप। पाप-पुण्य की यह अलिखित परिभाषा समाज के मन में लिखी मिलती है। परिवार में कोई अच्छा प्रसंग, मांगलिक अवसर आने पर गृहस्थ काठड़ी बनवा कर कुएं पर रख आते हैं। फिर यह वहां वर्षों तक रखी रहती है। काठ का पात्र कभी असावधानी से कुएं में गिर जाए तो डूबता नहीं, फिर से निकाल कर इसे काम में लिया जा सकता है। काठ के पात्र में जात-पांत की छुआछूत भी तैर जाती है।
शहरों में कूलरों पर रखे, जंजीर से बंधे दो पैसे के प्लास्टिक के गिलासों से इसकी तुलना तो करें।
अपने तन, मन, धन के साधन
राजस्थान में विशेषकर मरुभूमि में समाज ने पानी के इस काम को गर्व से, एक चुनौति की तरह नहीं, सचमुच विनम्रता के साथ एक कर्तव्य की तरह उठाया था। इसका साकार रूप हमें कुंई, कुएं, टांके, कुंडी तालाब आदि में मिलता है। पर इस काम का एक निराकार रूप भी रहा है। यह निराकार रूप ईंट पत्थर वाला नहीं है। वह है स्नेह और प्रेम का, पानी की मितव्ययिता का। यह निराकार रूप समाज के मन के आगौर में बनाया गया। जहां मन तैयार हो गया वहां फिर समाज का तन और धन भी जुटता रहा। उसके लिए फिर विशेष प्रयास नहीं करने पड़े–वह अनायास होता रहा। हमें राजस्थान
के पानी के काम को समझने में इसके साकार रूप के उपासकों से भी मदद मिली और इसके निराकार रूप के उपासकों से भी।
बोत्सवाना, इथोपिया, तंजानिया, केन्या, मलावी आदि देशों में आज पीने का पानी जुटाने के लिए जो प्रयत्न हो रहे हैं, उनकी जानकारी हमें मलावी देश के जोम्बा शहर में सन् १९८० में हुए एक सम्मेलन की रिपोर्ट से मिली है। रिपोर्ट कुछ पुरानी जरूर पड़ गई है पर आज वहां स्थिति उससे बेहतर हो गई हो–ऐसा नहीं लगता। 'प्रगति' हुई भी होगी तो उसी गलत दिशा में। उस सम्मेलन का आयोजन मलावी सरकार ने कैनेडा की दो संस्थाओं के साथ मिलकर किया था। ये संस्थाएं हैं : इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर और कैनेडियन इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी।
कोई सौ देशों में फैले मरुप्रदेशों में पानी की स्थिति सुधारने के प्रयासों की कुछ झलक हमें अमेरिका के वाशिंगटन शहर में स्थित नेशनल एकेडमी ऑफ साईंसेस की ओर से सन् १९७४ में छपी पुस्तक 'मोर वाटर फॉर एरिड लैंड्स; प्रामिसिंग टेक्नालॉजीस एंड रिसर्च अपर्चुनिटीस' से मिली है। इनमें नेगेव मरुप्रदेश (अब इजरायल में है) में वर्षा जल के संग्रह के हजार, दो हजार बरस पुराने भव्य तरीकों का उल्लेख जरूर मिलता है पर आज उनकी स्थिति क्या है, इसकी ठीक जानकारी नहीं मिल पाती। आज तो वहां कंप्यूटर से खेती और टपक सिंचाई का इतना हल्ला है कि हमारे देश के, राजस्थान, गुजरात तक के नेता, सामाजिक कार्यकर्ता उससे कुछ सीखने और उसे अपने यहां ले आने के लिए इजरायल दौड़े जा रहे हैं।
ऐसी पुस्तकों में प्लास्टिक की चादरों से आगौर बनाकर वर्षा जल रोकने की पद्धतियों का बहुत उत्साह से विवरण मिलता है। कहीं मिट्टी पर मोम फैलाने जैसे तरीकों को प्लास्टिक से सस्ता और 'बेहतर' भी बताया जाता है।
उम्दा तरीके उन क्षेत्रों में हैं ही नहीं, ऐसा कहते हुए डर ही लगता है। एक तरीका जरूर मिलता है। वह है खड़े के बजाए आड़े कुएं । ये ईरान, ईराक आदि क्षेत्रों में बनते रहे हैं। इन्हें क्वंटा कहा जाता है। इसमें एक पहाड़ी की तिरछी भूजल पट्टी के पानी को आड़ी खुदाई कर एकत्र किया जाता है।
राजस्थान में यह सब काम अपनी साधना और अपने साधनों से हुआ है और समाज को इसका फल भी मिला है।
सीमेंट के बदले यहां सारा काम गारे चूने से किया जाता रहा है। दोनों की तुलना करके देखें :
गारे-चूने के काम को तराई नहीं चाहिए। सीमेंट में तराई चाहिए लगाने के बारह घंटे के बाद कम से कम चार दिन तक। सात दिन तक चले तो और अच्छा। तराई न मिले, यानी पानी से इसे तर न रखा जाए तो सीमेंट की चिनाई फटने लगती है, उसमें दरारें पड़ जाती हैं।
वैसे तो चूना और सीमेंट एक ही पत्थर से बनते हैं पर इनको बनाने का तरीका इनका स्वभाव भी बदल देता है। सीमेंट बनाने के लिए मशीनों से उस पत्थर की बेहद बारीक पिसाई की जाती है और उसमें एक विशेष रेतीली मिट्टी भी मिला दी जाती है। लेकिन गारा-चूना बनाने के लिए इस चूना पत्थर को पहले ही पीसने के बदले उसे भट्टियों में बुझाया जाता है। फिर गरट या घट्टी में रेत और बजरी के साथ मिलाकर पीसा जाता है।
इस एक ही तरह के पत्थर के साथ होने वाले अलग-अलग व्यवहार उसके स्वभाव को भी बदल देते हैं।
सीमेंट पानी के साथ मिलते ही सख्त होने लगती है। इसे अंग्रेजी में सैटिंग टाईम कहा जाता है। यह आधे घंटे से एक घंटे के बीच माना जाता है। यह प्रक्रिया दो से तीन वर्ष तक की अवधि तक
चलती रहती है। उसके बाद सीमेंट की ताकत उतार पर आने लगती है। सख्त होने, जमने के साथ-साथ सीमेंट सिकुड़ने भी लगती है। किताबें इस दौर को तीस दिन का बताती हैं लेकिन व्यवहार में लाने वाले इसे तीन दिन का मानते हैं। अपने ठीक रूप में सिकुड़कर, सख्त होकर फिर सीमेंट किताब के हिसाब से ४० बरस तक और व्यवहार के हिसाब से ज्यादा से ज्यादा १०० बरस तक टिकती है।
लेकिन चूने के स्वभाव में बहुत धीरज है। पानी से मिलकर वह सीमेंट की तरह जमने नहीं लगता। गरट में ही वह एक-दो दिन पड़ा रहता है। जमने, सख्त होने की प्रारंभिक क्रिया दो दिन से दस दिन तक चलती है। इस दौरान उसमें दरारें नहीं पड़तीं, क्योंकि यह जमते समय सिकुड़ता नहीं, बल्कि फैलता जाता है। इसीलिए सीमेंट की तरह इसे जमते समय तर नहीं रखना पड़ता है। इस दौरान यह फैलता है, इसीलिए इसमें दीमक भी नहीं जा पाती। समय के साथ यह ठोस होता जाता है और इसमें चमक भी आने लगती है। ठीक रख-रखाव हो तो इसके जमने की अवधि, दो-चार बरस नहीं २०० से ६०० बरस तक होती है। तब तक सीमेंट की पांच-सात पीढ़ियां ढह चुकती हैं।
एक और फर्क है दोनों में। चूने का काम पानी के रिसने की गुंजाइश नहीं छोड़ता और सीमेंट पानी को रोक नहीं पाती–हर शहर में बने अच्छे से अच्छे घरों, इमारतों की दीवारें, टंकियां इस बात को जोर से बताती मिल जाएंगी।
इसीलिए चूने से बनी टंकियों में पानी रिसता नहीं है। ऐसे टांके, कुंड, तालाब दो सौ, तीन सौ बरस तक शान से सिर उठाए मिल जाएंगे।
समाज और राष्ट्र के निर्माण में गारे-चूने की, उस काम के बारीक शास्त्र को जानने वाले चुनगरों की; अपने तन, मन और धन के साधन साध सकने वालों की आज भी जगह है।
यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।
यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।