राजा और प्रजा/१० पथ और पाथेय

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राजा और प्रजा  (1919) 
द्वारा रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक रामचंद्र वर्मा

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पथ और पाथेय।

आरव्योपन्यासमें एक कहानी है कि एक मछुआ प्रतिदिन नदीमें जाल फेंकता था और उसमें मछलियाँ फँस जाती थीं। एक दिन मछलीकी जगह एक घड़ा उसके जालमें फँस आया। उसका ज्यों ही मुँह खोला गया त्यों ही उसमेंसे खम्भेके आकारका काला धूआँ निकला, जो शीघ्र ही एक विशालकाय दैत्यके रूपमें बदल गया ।

हमारे समाचारपत्र प्रतिदिन खबरें खींच लाते हैं। पर हमने कभी यह नहीं सोचा था कि कभी उनके जालमें कोई ऐसा घड़ा भी आ अटकेगा और उस घड़ेमेंसे इतनी बड़ी भयंकर बात बाहर निकलेगी।

बिलकुल अपने पड़ोसहीमें अचानक क्षण मात्रमें इतने बड़े रह- स्यका उद्घाटन होनेके कारण समस्त देशके लोगोंके अन्तःकरणमें जिस समय आन्दोलन उपस्थित होता है उस समय, उस सुदूरव्यापी चञ्चलताके समय वाक्य और कर्ममें सत्यकी रक्षा करना कठिन हो जाता है । जलमें जिस समय लहरें उठती रहती हैं उस समय उसमें अपनी परछाही आपसे आप विकृत हो जाती है और इसके लिये किसीको दोष नहीं दिया जा सकता । अत्यन्त भय और चिन्ताके समय हमारे विचारों और वाक्यों में स्वभावतः ही विकलता आ जाती है और यही वह समय है जब कि अविचलित और विकाररहित सत्य सबसे [ १३८ ] अधिक आवश्यक होता है । असत्य और अर्द्धसत्य और समयोंमें हमारा उतना भारी अनिष्ट नहीं करते. पर संकटके समयमें इनके समान हमारा शत्रु और कोई नहीं होता।

अतएव ईश्वर करे कि आज हम भयसे, क्रोधसे, आकस्मिक आप- त्तिसे, अथवा दुर्बल चित्तके अतिशय विक्षेपसे आत्मविस्मृत होकर अपने आपको या दूसरोंको भुलानेके लिये कतिपय निरर्थक वाक्योंका बवंडर उत्पन्न करके चारों ओरके अस्वच्छ वातावरणको और भी गैंदला न कर डालें। तीव्र वाक्योंसे चञ्चलताकी वृद्धि होती है, और भयसे सत्यको किसी प्रकार दबा रखनेकी प्रवृत्ति पैदा होती है। अत- एव यदि आजकेसे समयमें हम मनोवेगोंको प्रकट करनेकी उत्तेजना रोककर यथासम्भव शान्त भावसे प्रस्तुत घटनापर विचार नहीं करेंगे, सत्यका आविष्कार और प्रचार नहीं करेंगे तो हमारी आलोचना केवल व्यर्थ ही न होगी बल्कि अनिष्टकर भी होगी ।

हम दीनावस्थामें हैं इसीसे प्रस्तुत घटनाको देखकर आवश्यकतासे अधिक व्यग्रता और आतुरताके साथ आगे बढ़कर कहने लगते हैं, "हम इसमें सम्मिलित नहीं हैं, यह केवल अमुक दलकी कीर्ति है; यह अमुक दलवालोंका अन्याय है। हम पहलेहीसे कहते आ रहे हैं कि यह सब अच्छा नहीं हो रहा है। हम तो जानते ही थे कि कोई ऐसी घटना घटेगी।" आदि आदि ।

किसी आतंकजनक दुर्घटनाके पश्चात् ऐसी अप्रशस्त उत्सुकताके साथ दूसरोंपर दोषारोपण या अपनी सुबुद्धिपर अभिमान प्रकट करना हमारी दुर्बलताकी सूचना है, यही नहीं बल्कि यह हमारे लिये लज्जाका भी कारण है । खास कर अपनी पराधीनताके कारण राजपुरुषोंके रोषकालमें दसरोंको गालियाँ देकर अपने आपको भला मानस सिद्ध [ १३९ ] करनेकी चेष्टा करनेसे और भी एक प्रकारकी हीनता आ जाती है। अतएव दुर्बल पक्ष यदि ऐसे कार्यके विषयमें अधिक उत्साह न प्रकट करे तो ही अच्छा है।

इसके सिवा जिन्होंने अपराध किया है, जो पकड़े गए हैं, निष्ठुर राजदण्डकी तलवार जिनके सिरपर झूल रही है और कुछ विचार न करके केवल इस विचारसे कि उन्होंने संकट उपस्थित किया था-उपद्रव किया था- उनके प्रति तीखे भाव प्रकट करना कायरपन है। उनके विचारका भार ऐसे हाथोंमें है, जिन्हें अनुग्रह या ममता किञ्चिन्मात्र भी दण्ड-लाघवकी ओर नहीं बढ़ा सकती । इसपर यदि हम भी आगे बढ़कर उनके दण्डदानमें योग देना चाहें तो हम अपने भीरु- स्वभावकी निर्दयता ही प्रकट करेंगे। उनके कार्यको हम चाहे जितना दूषित क्यों न मानें, उसपर मत प्रकट करनेके आवेशमें हमारा आत्मसम्मानकी मर्यादाका उल्लंघन करना किसी प्रकार उचित नहीं है । जिस समय समस्त देशको अपने सिरके ऊपरवाले आकाशमें रुद्रके समान रोषवाली एक बज्रहस्ता मूर्ति क्रोधसे काँपती हुई देख पड़ रही है, उस समय हमारी दायित्वहीन चुलबुलाहट अनावश्यक ही नहीं बल्कि अनुचित भी है।

कोई अपने आपको कितना ही दूरदर्शी क्यों न मानता हो, हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि देशके अधिकांश लोगोंने नहीं सोचा था कि बात यहाँतक बढ़ जायगी। बुद्धि हम सभीमें न्यूनाधिक परिमाणमें है, पर चोरके चले जानेपर इस बुद्धिका जितना विकास होता है, चोरके रहते हुए उसके उतने विकासको आशा नहीं की जा सकती।

निस्सन्देह घटना हो जानेके पीछे यह कहना सहज होता है कि ऐसा होनेकी सम्भावना थी, इसीसे ऐसा हुआ। ऐसे सुयोगमें हममेंसे [ १४० ] जो स्वभावसे जरा अधिक उत्तेजनाशील होते हैं उनकी भर्त्सना करना भी हमारे लिये सहज हो जाता है । हम कहते हैं, तुम एकदम इतना छलाँग मारनेका हौसला न करते तो अच्छा होता ।

हम हिन्दू विशेषतः बंगाली, बातोंमें चाहे जितना जोश प्रकट कर डालें, पर किसी साहसपूर्ण कार्यके करनेमें कदापि प्रवृत्त नहीं हो सकते——यह लज्जाजनक बात देशविदेश सभी जगह प्रसिद्ध हो चुकी है। इसके फलस्वरूप बाबूमण्डलीको खास तौरपर अँगरेजोंके निकट नित्य दुस्सह शब्दोंकी ठोकरें खानी पड़ती हैं। सब प्रकारके उत्तेजनापूर्ण वाक्य कमसे कम बंगालमें तो सब प्रकारसे निरापद हैं उन्हें कहीं बाधा या विरोधका सामना नहीं करना पड़ता, इस सम्बन्धमें हमारे शत्रु या मित्र किसीको किसी तरहका सन्देह नहीं है। यही कारण है कि अबतक बातचीतमें, भावभंगीमें हमें कुछ भी ज्यादती प्रकट करते देखकर कभी दूसरोंने और कभी स्वयं हमारे आत्मीयोंने बराबर नाराजगी या खफगी प्रकट की है और हमारे असंयमकी दिल्लगी उड़ाना भी बुरा नहीं सम- झा है। वस्तुतः किसी बँगला अखबारमें या किसी बंगाली वक्ताके मुखसे जब हम अपरिमित उच्चाकांक्षामय वाक्योंको निकलते हुए देखते हैं तब खासकर अपनी जातिके लिये यह सोचकर हमें पानी पानी हो जाना पड़ता है कि जो दुःसाहसपूर्ण कामोंको करनेके लिये विख्यात नहीं हैं, उनके वाक्योंकी तीक्ष्णता उनकी दीनताका केवल मोर्चा साफ करती है-उसे और भी प्रकाशित कर देती है। वास्तवमें बंगाली जाति बहुत दिनोंसे भीरुताकी बदनामीको सिर झुकाकर सहती चली आ रही है । इसीसे प्रस्तुत घटनाके सम्बन्धमें न्याय-अन्याय, इष्ट-अनिष्ट, सभी विचारोंको तिलाञ्जलि देकर इस अपमानमोचनके उपलक्ष्यमें बंगालीको आनन्द हुए बिना नहीं रह सकता । [ १४१ ]अतः यह बात सर्वथा सत्य है कि स्वदेश या विदेशके किसी ज्ञानी पुरुषने दावेके साथ यह भविष्यद्वाणी नहीं की थी कि बंगालके मनमें दबी हुई चिनगारी क्रमशः ऐसी प्रचण्ड अग्निक रूपमें प्रज्वलित होगी । ऐसी दशामें हमारे इस अकस्मात् बुद्धिविकासके कालमें जिनके विचारों और कार्योंको हम पसन्द न करते हों उनको असावधान- ताका दोषी ठहराते फिरना अच्छी बात नहीं है। मैं भी इस गड़.. बड़ीके समय किसी पक्षके विरुद्ध कोई बात नहीं कहना चाहता । पर किस प्रकार क्या हुआ और उसका क्या फलाफल होगा, इसका निरपेक्ष भावसे विवेचन करके हमें अपना मार्ग निश्चित करनाही होगा। ऐसी चेष्टा करते समय यदि हमारा मत किसी एक अथवा कतिपय सज्जनोंके मतसे भिन्न जान पड़े तो वे दया करके इस बातका विश्वास रक्खे कि हमारी बुद्धि कमजोर हो सकती है, हमारी दृष्टिमें दुर्बलता होना सम्भव है; परन्तु यह कदापि सम्भव नहीं है कि स्वदेशके हितके विषयमें उदासीनता या हितैपियों के प्रति बुरे भाव होनेके कारण हम जान-बूझकर विचारनेमें भूल करें। अतएव हमारे विचारोंको आए भले ही स्वीकार न करें, पर हमारे मतोंके प्रति श्रद्धा और उनके सुन लेनेका धैर्य आप अवश्य रक्खें ।

कुछ दिनोंसे बंगालमें जो कुछ हो रहा है, हममेंसे कौन कौन बंगाली उसके संघटनमें कितने कारणीभूत हैं, इसकी सूक्ष्म विवेचना न करके भी यह बात निश्चयके साथ कही जा सकती है कि तन, मन या वाणीमेंसे किसी एक न एकके द्वारा हममेंसे प्रत्येकने उसका पोषण किया है । अतएव जो चित्तदाह परिमित स्वभावमें ही बद्ध नहीं रहा है, प्रकृतिभेदके अनुसार जिसकी उत्तेजना हम सभीने थोड़ी बहुत अनुभूत और प्रकाशित की है, यदि उसीका कोई केन्द्रक्षिप्त [ १४२ ] परिणाम इस प्रकारके गुप्त विप्लवका विलक्षण आयोजन हो, तो उसका उत्तरदायित्व और दुःख बंगाली मात्रको स्वीकृत करना पड़ेगा। जिस समय मेरे शरीरमें भस्माभूत ज्वर चढ़ा हो उस समय हाथकी हथेली केवल यह कहकर ही मृत्युके अवसरपर अपने आपको साधु और सिरको सारे अनर्थोंकी जड़ बतलाकर छुटकारा नहीं पा सकती कि हम तो सिरकी अपेक्षा अधिक ठंढे थे। हमने इस बातको अच्छी तरह नहीं सोचा कि हम क्या करेंगे और क्या करना चाहते हैं। हम यही जानते हैं हमारे कलेजेमें आग लगी हुई थी। उस आगके गिर पड़नेसे स्वभावतः गीली लकड़ी धुआँ देने लगी, सूखी लकड़ी जलने लगी और घरमें जहाँ कहीं मिट्टीका तेल था वह अपनेको न संभाल सकनेके कारण टीनका शासन हटाकर भयंकर रूपसे भड़क उठा।

जो हो, कार्य और कारणका पारस्परिक योग अथवा व्याप्ति चाहे जिस प्रकार हुई हो, पर जब आग भड़क उठी तब सब तर्क छोड़ कर उस आगको बुझाना पड़ेगा। इस सम्बन्धमें मतभेदसे काम न निकलेगा।

मुख्य बात यह है कि कारण अभी देशसे दूर नहीं हुआ। लोगोंका चित्त उत्तेजित हो गया है और यह उत्तेजना इतनी अधिक बढ़ गई है कि पहले जो सांघातिक व्यापार हमारे देशके लिये बिलकुल ही असम्भव मालूम होते थे वे ही अब सम्भव हो गए हैं। विरोध-बुद्धि इतनी गम्भीर और बहुत दूर तक व्याप्त हो गई हैं कि हमारे शासक बलपूर्वक इसे केवल यहाँ वहाँसे उखाड़नेकी चेष्टा करके ही कभी उसका अन्त न कर सकेंगे, बल्कि इसे और भी प्रबल कर डालेंगे ।

यदि हम इस बातकी आलोचना करने लगे कि वर्तमान संकटके समय हमारे शासकोंका क्या कर्तव्य है, तो हमें इस बातकी आशा [ १४३ ] नहीं है कि वे शासक हमारी आलोचनाको श्रद्धापूर्वक सुनेंगे। हम उनकी दण्डशालाके द्वारपर बैठकर उन्हें राजनीतिक प्राज्ञताकी शिक्षा देनेकी दुराशा नहीं करते । जो कुछ हम कहेंगे वह बात भी बहुत पुरानी है और उसे सुनकर वे यह भी सोचेंगे कि ये डरकर ऐसी बातें कह रहे हैं। लेकिन सत्य पुराना होनेपर भी सत्य ही है और यदि वे उसे भ्रम समझें तो भी वह सत्य ही है। वह बात यह है कि "शक्तस्य भूषण क्षमा" एक बात और है, क्षमा केवल शक्तका या बलवानका भूषण ही नहीं है, वह विशिष्ट समयपर शक्तका ब्रह्मास्त्र भी है । लेकिन ऐसे अवसरपर जब कि हम शक्तके दलमें नहीं हैं, इस प्रकारके सात्विक उपदेशको लेकर अधिक आलोचना करना हमारे लिये शोभाकी बात नहीं है।

यह विषय दोनों पक्षोंसे सम्बन्ध रखता है, परन्तु दोनों पक्षोंमें पर- स्पर एक दूसरेके भाव समझनेका जो सम्बन्ध है वह बहुत ही क्षीण हो गया है। एक ओर प्रजाकी वेदनाकी उपेक्षा कर बल अत्यन्त प्रबल रूप धारण कर रहा है, और दूसरी ओर दुर्बलका निराश मनोरथ सफल- ताका कोई मार्ग न पाकर प्रतिदिन मृत्युभयरहित होता जा रहा है । ऐसी दशामें समस्या सहज नहीं है। क्योंकि इस दो पक्षोंके काममें केवल एक पक्षको लेकर जितनी चेष्टा हो सकती हो उतनेहीके लिये हमारा सम्बल है---उतना ही हमारे पास राहखर्च है। तूफानके समय मल्लाह अपनी धुनमें मस्त है; डँड़ोंकी सहायतासे किश्तीको जहाँतक बचाना सम्भव होगा यहाँतक हम उसको अवश्य बचावेंगे। यदि मल्लाह सहायक हो तो अच्छा ही है, यदि न हो तो भी इस दुस्साध्य साधनमें प्रवृत्त होना ही पड़ेगा। डूबते समय दूसरेको गाली देनेसे कोई सान्त्वना नहीं मिल सकती । [ १४४ ]ऐसे दुस्समयमें सत्यको दबा रखनेकी चेष्टा करना प्रलयके क्षेत्रमें बैठकर बालक्रीड़ा करनेके समान है। हम गवर्नमेण्टको बताना चाहते हैं कि यह सब कुछ नहीं, मुट्ठीभर लड़कोंके मनोविकारका प्रकाशमात्र है। पर हमें तो ऐसे शून्यगर्भ सान्त्वना वाक्योंमें कुछ भी अर्थ नहीं देख पड़ता । पहले तो इस प्रकार केवल फूंक मारकर सरकारकी पालिसी- पालको एक इंच भी घुमाया नहीं जा सकता। दूसरे देशकी वर्तमान अवस्था कुछ ऐसी है कि इसमें कहाँ क्या हो रहा है, इसको चाहे जितना समझ-बूझकर और निश्चित करके कहिए; वह बिलकुल ही अन्यथा प्रमाणित हो जाता है। अत: विपत्तिकी सम्भावना स्वीकार करके ही हम लोगोंको काम करना होगा। जिम्मेदारीका ख्याल न रखते हुए जो मुँहमें आवे वह बकझककर कोई यथार्थ संकटका सामना नहीं कर सकता। इस समय सत्य केवल सत्यका प्रयोजन है।

देशवासियोंके हितके ख्यालसे यह बात यहीं खोलकर कह देनी होगी कि सरकारकी शासननीति चाहे जिस मार्गका अबलम्बन करे और भारतमें रहनेवाले अँगरेजोंका व्यक्तिगत व्यवहार हमारे चित्तपर चाहे जैसी गहरी चोट पहुँचाता हो, आत्मविस्मृत होकर आत्महत्या करनेसे हम इसका प्रतिकार किसी प्रकार न कर सकेंगे।

जो काल उपस्थित है उसमें धर्मी दुहाई देना व्यर्थ है । क्योंकि राजनीतिमें धर्मनीतिके भी स्थित होनेके सिद्धान्तपर जो विश्वास करता है, लोग उसे व्यवहारज्ञानहीन और नीतिवायुमस्त कहकर उसका अनादर करते हैं। प्रयोजनके समय प्रबल पक्ष धर्मशासन स्वीकार कर- नेको कार्यका हनन करनेवाली दीनता समझता है। पश्चिमीय महादेशके इतिहासमें इसके उदाहरणोंकी प्रचुरता है । पर ऐसा होते हुए भी यदि प्रयोजनकी सिद्धि के लिये दुर्बलको धर्मशासन स्वीकार करनेका [ १४५ ] उपदेश दिया जाय तो वह उत्तेजित दशामें उत्तर देता है कि यह तो धर्मका आदर करना नहीं है, भयके सामने सिर झुकाना है।

अभी थोड़े दिन पहले जो बोअर-युद्ध हुआ था उसमें विजय- लक्ष्मीके धर्मबुद्धिके पीछे पीछे न चलनेकी बात किसी किसी धर्मभीर अँगरेजके मुँहसे सुनी गई थी । युद्धके समय शत्रुपक्षके मनमें भयका उद्रेक कर देनेके निमित्त उसके नगरों और ग्रामोंको उजाड़ कर, घर- बारको भस्म कर, खानेपीनेकी चीजें लूट-पाटकर हजारों निरपराधोंको आश्रयहीन कर देना युद्ध-कर्त्तव्यका एक अंग ही मान लिया गया है मार्शल ला ( फौजी शासन )का अर्थ ही जरूरतके समय न्यायविचार- बुद्धिको परम विघ्न जानकर निर्वासित कर देनेकी विधि और उसके सहारे प्रतिहिंसापरायण मानव प्रकृतिकी बाधायुक्त पाशविकताको ही प्रयोजनसाधनका सर्वप्रधान सहायक घोषित करना है । प्युनिटिव पुलिसके★ द्वारा समस्त निरुपाय ग्रामवासियोंको बलपूर्वक दबा देनेकी विवेकहीन बर्बरता भी इसी श्रेणीकी है। इन सब विधियोंके द्वारा इस बातकी घोषणा की जाती है कि राजकार्यमें विशुद्ध न्यायधर्म ही अपना उद्देश्य सिद्ध करनेके लिये पर्याप्त नहीं हैं।

युरोपकी इस धर्महीन राजनीतिने आज संसारमें सर्वत्र ही धर्म- बुद्धिको विषाक्त कर डाला है । ऐसी दशामें जिस समय कोई विशेष घटना घटने और कोई विशेष कारण उपस्थित होनेपर कोई पराधीन राष्ट्र सहसा अपनी पराधीनताकी वज्रमूर्ति देखकर समष्टिरूपसे पीड़ित हो उठता है, अपने आपको जब सब प्रकारसे उपायहीन देखकर


किसी ग्राम या नगरके समस्त निवासियों को अप्रत्यक्ष दण्ड देनेके लिये जो विशेष पुलिस तैनात की जाती है उसे प्युनिटिव पुलिस कहते हैं ।-अनु० ।

रा. १० [ १४६ ] उसका हृदय दग्ध होने लगता है, उस समय यदि उसके कतिपय अधीर और असहिष्णु व्यक्तियों का एक समुदाय केवल धर्मबुद्धिको ही नहीं, कर्मबुद्धिको भी तिलाञ्जलि दे दे, तो देशके आन्दोलनकारी वक्ता- ओंको ही उसके अपराधका जिम्मेदार ठहराना दर्पान्ध पशुबलकी मूढ़ता मात्र है।

अतएव जिन लोगोंने स्थिर कर लिया है कि गुप्त मण्डलियाँ बनाकर और छिपकर काम करनेमें ही राष्ट्रके कल्याणका एक मात्र उपाय है उनको गा- लियाँ देनेसे कोई फल न होगा और यदि हम उन्हें धर्मोपदेश देकर सुधारना चाहें तो वे उसे भी हँसीमें उड़ा देंगे। हम जिस युगमें वर्तमान हैं उसमें जब राष्ट्रीय स्वार्थके सामने धर्म सभी प्रकारसे बेबस है, तब इस धर्म- भ्रंशताका परिणामरूप दुःख सम्पूर्ण मनुष्योंको विविध रूपोंमें भोगना ही पड़ेगा । राजा हो या प्रजा, प्रबल हो या निर्बल, धनी हो या निर्धन, कोई उसके पंजेसे छुटकारा नहीं पा सकता। राजा भी प्रयोजनके समय प्रजापर दुर्नीतिके द्वारा आघात करेगा, प्रजा भी अपने कामके लिये दुर्नीतिहीको आगेकर राजापर आक्रमण करनेकी चेष्टा करेगी और जो तीसरे पक्षके लोग इन दोनोंके कामोंसे निर्लिप्त होंगे उन्हें भी इस अधर्म संघर्षका उत्ताप सहन करना ही पड़ेगा । वास्तवमें संकटमें पड़कर जन लोग यह समझ लेते हैं कि यदि अधर्मको वेतन देकर अपने पक्षमें किया जाय तो वह फिर हमारे ही पक्षमें, हमारा ही गुलाम होकर नहीं रहता बल्कि दोनों पक्षोंका नमक खाकर दोनों ही पक्षोंके लिये समानरूपसे भयंकर हो जाता है। तब दोनों पक्ष उसकी सहाय- ताका अविश्वास करके उससे अपना पीछा छुड़ानेके प्रयत्नमें लग जाते हैं। ऐसा करके ही धर्मराज भीषण संघातमेंसे धर्मको विजयी करके उसका उद्धार करते हैं। जब तक इस प्रकार धर्मका उद्धार सम्पूर्ण नहीं होता [ १४७ ] तब तक सन्देहके साथ सन्देहका, विद्वेषके साथ विद्वेषका और कपट- नीतिके साथ कपटनीतिका संग्राम होता रहता है जिससे सारा मानव- समाज उत्तप्त रहता है

अतएव वर्तमान अवस्थामें देशके उत्तेजित व्यक्तियोंसे यदि कुछ कहनेकी आवश्यकता हो तो वह कामकी बातके सम्बन्धमें ही हो सकती है। उन्हें यह बात अच्छी तरह समझा देनी होगी कि प्रयोजन चाहे जितना महत्त्वपूर्ण हो, चौड़े मार्गसे जाकर ही उसका साधन करना होगा; शीघ्र सिद्धिलाभके लिये संकीर्ण मार्गका अबलम्बन करनेसे किसी न किसी दिन रास्ता भूल जाना निश्चित है--रास्ता भी भूल जायगा और कार्य भी नष्ट हो जायगा । हमें अपना काम कर डाल- नेकी बहुत जल्दी है: यह सोचकर न तो रास्ता ही छोटा होने जायगा और न समय ही अपना शरीर संकुचित करना स्वीकार करेगा ।

देशका हितानुष्ठान कितना व्यापक पदार्थ है और कितनी दिशा- ओंमें उसकी कितनी सहस्र शाखा-प्रशाखाएँ फैली हुई हैं, यह बात हमें किसी सामयिक आक्षेपके फेरमें पड़कर भूल न जानी चाहिए। भारतवर्ष सरीखे विविध वैचित्र्य और विरोधोंसे पूर्ण देशमें यह समस्या अत्यन्त ही जटिल है । ईश्वरने हम लोगोंपर एक ऐसे महान कार्यका भार डाल रक्खा है, हम लोग मानव समाजके इतने बड़े जटिलजालकी हजारों लाखों गुत्थियाँ सुलझानेका आदेश लेकर आए हुए हैं कि हमें एक पलके लिये भी अपने कर्तव्यके गुरुत्वको भूलकर किसी प्रका- रकी चंचलता प्रकट करना उचित नहीं है। आदिकालसे जगतमें जितनी बड़ी बड़ी शक्ति-धाराएँ उद्गत और प्रवाहित हुई हैं उनकी किसी न किसी शाखाने भारतवर्षसे अवश्य सङ्गम किया है। ऐति- हासिक स्मृतिके अतीतकालमें किसी गूढ़ प्रयोजनकी अनिवार्य प्रेरणासे [ १४८ ] जिस दिन आर्य जाति गिरिगुफाके बन्धनसे मुक्ति पानेवाली स्रोतस्विनीकी तरह अकस्मात् बाहर होकर विश्वपथपर आ पड़ी थी और उसकी एक शाखाने वेदमंत्रोंका उच्चारण करते हुए भारतवर्षके बनोंमें यज्ञाग्नि प्रज्व- लित की थी, उस दिन भारतके आर्य-अनार्य-सम्मिलन क्षेत्रमें जो विपुल इतिहासकी उपक्रमणिकाका गायन आरम्भ हुआ था आज क्या वह समाप्त होनेके पहले ही शान्त हो गया है ? बच्चोंके मिट्टीके घरकी तरह क्या विधाताने अनादरके साथ आज उसे हटात् गिरा डाला है ? उसके पश्चात् इसी भारतवर्षसे बौद्ध धर्मके मिलन-मंत्रने, करुणाजलसे भरे हुए गम्भीर मेघके समान गरजते हुए, एशियाके पूर्व सागरतीरकी निवासिनी समस्त मंगोलियन जातिको जाग्रत कर दिया और ब्रह्मदेशसे लेकर बहुत दूर जपानतकके भिन्न भिन्न भाषाभाषी अनात्मीयोंको भी धर्मसम्बन्धमें बाँधकर भारतके साथ एकात्म बना दिया। भारतके क्षेत्रमें उस महत् शक्तिका अभ्युदय क्या केवल भारतके भाग्यमें ही, भारत- वर्षके लिये ही परिणामहीन निष्फलताके रूपमें पर्यवसित हुआ है ? इसके अनन्तर एशियाके पश्चिमीय प्रान्तसे देववलकी प्रेरणासे एक और मानव महाशक्ति प्रमुप्तिसे जाग्रत होकर और ऐक्यका सन्देश लेकर प्रबल वेगसे पृथिवीपर फैलती हुई बाहर निकली। इस महाशक्तिको विधा- ताने भारतमें केवल बुला ही नहीं लिया, चिरकालके लिये उसे आश्रय भी दिया। हमारे इतिहासमें यह घटना भी क्या कोई आकस्मिक उत्पात मात्र है ? क्या इसमें किसी नित्य सत्यका प्रभाव दिखलाई नहीं पड़ता : इसके पश्चात् युरोपकै महाक्षेत्रमे मानवशक्ति जीवनशक्तिकी प्रबलता, विज्ञानके कौतूहल और पुण्यसंग्रहकी आकांक्षासे जब विश्वामि- मुखी होकर बाहर निकली, उस समय उसकी भी एक बड़ी धारा विधाताके आह्वानपर यहाँ आई और अब अपने आघात द्वारा [ १४९ ] हमें जगानेका प्रयत्न कर रही है। इस भारतवर्षमें बौद्ध धर्मकी बाढ़ हट जाने पर जब खण्ड खण्ड देशके खण्ड खण्ड धर्म-सम्प्रदायोंने विरोध और विच्छिन्नताके काँटे सब ओर बिछा रक्खे थे उस समय शंकराचार्य्यने उस सारी खण्डता और क्षुद्रताको एक मात्र अखण्ड बृहत्त्वमें ऐक्यबद्ध करनेकी चेष्टा कर भारतहीकी प्रतिभाका परिचय दिया था। अन्तिम कालमें दार्शनिक ज्ञानप्रधान साधना जब भारतमें ज्ञानी अज्ञानी; अधिकारी अनधिकारीका भेदभाव उत्पन्न करने लगी तब चैतन्य, नानक, दादू, कबीर आदिने भारतके भिन्न भिन्न प्रदेशोंमें जाति और शास्त्रके अनैक्यको भक्तिके परम ऐक्यमें एक करनेवाले अमृतकी वर्षा की थी। केवल प्रादेशिक धम्मकि विभिन्नतारूपी धावको प्रेमके मल- हमसे भर देनेहीका उन्होंने उद्योग नहीं किया बल्कि, हिन्दू और मुसलमान प्रकृति के बीच धर्मका पुल बाँधनेका काम भी ये करते थे। इस समय भी भारत निश्चेष्ट नहीं हो गया है--राममोहनराय, स्वामी दयानन्द, केशवचन्द्रसेन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, शिवनारा- यणस्वामी आदिने भी अनैक्यके बीचमें ऐक्यको, क्षुद्रताके बीचमै मह- त्वको प्रतिष्ठित करनेके लिये अपने जीवनकी साधनाओंको भारतके चरणोंमें भेंट कर दिया है। अतीत कालसे आजतक भारतवर्गके एक एक अध्याय इतिहासके विच्छिन्न विक्षिप्त प्रलाप मात्र नहीं हैं, ये पर- स्पर बँधे हुए हैं, इनमेंसे एक भी स्वप्नकी तरह अन्तर्द्वान नहीं हुए, ये सभी विद्यमान हैं। चाहे सन्धिसे हो या संग्रामसे, घातप्रतिघात द्वारा ये विधाताके अभिप्रायकी अपूर्व रूपसे रचना कर रहे हैं-- उसकी पूर्तिके साधन बना रहे हैं। पृथ्वीपर विद्यमान और किसी देशमें इतनी बड़ी रचनाका आयोजन नहीं हुआ—इतनी जातियाँ, इतने धर्म, इतनी शक्तियों किसी भी तीर्थस्थलमें एकत्र नहीं हुई। अत्यन्त [ १५० ] विभिन्नता और वैचित्र्यको बहुत बड़े समन्वयके द्वारा बाँधकर विरोध- में ही मिलनके आदर्शको विजय दिलानेका इतना सुस्पष्ट आदेश जग- तमें और कहीं ध्वनित नहीं हुआ । अन्य सब देशोंक लोग राज्यवि- स्तार करें, पण्यविस्तार करें, प्रतापविस्तार करें और भारतवर्षके मनुष्य दुस्सह तपस्या द्वारा ज्ञान, प्रेम और कर्मसे समस्त अनैक्य और सम्पूर्ण विरोधमें उसी एक ब्रह्मको स्वीकारकर मानवकर्मशालाकी कठोर संकी- र्णतामें मुक्तिकी उदार, निर्मल ज्योति फैलाते रहें–बस भारतके इति- हासमें आरम्भसे ही हम लोगोंके लिये यही अनुशासन मिल रहा है । गोरे और काले, मुसलमान और ईसाई, पूर्व और पश्चिम कोई हमारे विरुद्ध नहीं हैं---भारतके पुण्यक्षेत्रमें ही सम्पूर्ण विरोध एक होनेके लिये सैकड़ों शताब्दियोंतक अति कठोर साधना करेंगे। इसीलिए अति प्राचीन कालमें यहाँके तपोवनोंमें उपनिषदोंने एकका तत्व इस प्रकार आश्चर्यजनक सरल ज्ञानके साथ समझाया था कि इतिहास अनेक रीतियोंसे उसकी व्याख्या करते करते थक गया और आज भी उसका अन्त नहीं मिला।

इसीसे हम अनुरोध करते हैं कि अन्य देशोंके मनुष्यत्वके आंशिक विकाशक दृष्टान्तोंको सामने रखकर भारतवर्षके इतिहासको संकीर्ण करके मत देखिए-इसमें जो बहुतसे तात्कालिक विरोध दिखाई पड़ रहे हैं उन्हें देख हताश होकर किसी क्षुद्र चेप्टामें अन्ध भावसे अपने आपको मत लगाइए । ऐसी चेष्टामें किसी प्रकार कृतकार्यता न होगी, इसको निश्चित जानिए। विधाताकी इच्छाके साथ अपनी इच्छा मी सम्मिलित कर देना ही सफलताका एक मात्र उपाय है । यदि उसके साथ विद्रोह किया जायगा तो क्षणिक कार्यसिद्धि हमें भुलावा देकर भयंकर विफलताकी खाड़ीमें डुबा मारेगी। [ १५१ ] जिस भारतवर्षने सम्पूर्ण मानव महाशक्तियोंके द्वारा स्वयं क्रमशः ऐसा विराट रूप धारण किया है, समस्त आघात, अपमान, समस्त वेदनाएँ जिस भारतवर्षको इस परम प्रकाशकी ओर अग्रसर कर रही हैं उस महा भारतवर्षकी सेवा बुद्धि और अन्तःकरणके योगसे हममेंसे कौन करेंगा ? एकरस और अविचलित भक्तिके साथ सम्पूर्ण क्षोभ, अधैर्य और अहंकारको इस महासाधनामें विलीनकर भारतविधाताके पदतलमें पूजाके अर्यकी भाँति अपने निर्मल जीवनको कौन निवेदन करेगा ? भारतके महा जातीय उद्बोधनके वे हमारे पुरोहित आज कहाँ हैं ? वे चाहे जहाँ हों, इस बातको आप ध्रुव सत्य समझिए कि वे चञ्चल नहीं है, उन्मत्त नहीं हैं, वे कर्मनिर्देशशून्य महत्त्वाकाङ्क्षाके वाक्यों द्वारा देशके व्यक्तियोंके मनोवेगको उत्तरोत्तर संक्रामक वायु- रोगमें परिणत नहीं करा रहे हैं। निश्चय जानिए कि उनमें बुद्धि, हृदय और कर्मनिष्टाका अत्यन्त असामान्य समावेश हुआ है, उनमें गम्भीर शान्ति और धैर्य तथा इच्छाशक्तिका अपराजित वेग और अध्यवसाय इन दोनोंका महत्त्वपूर्ण सामन्जस्य है।

परन्तु जब हम देखते हैं कि किसी विशेष घटना द्वारा उत्पन्न उत्तेजनाकी ताड़नासे, किसी सामयिक विरोधसे क्षुब्ध होकर देशके अनेक व्यक्ति क्षणभर भी विचार न कर देशहित के लिये सरपट दौड़ने लगते हैं तब हमें कुछ भी सन्देह नहीं रहता कि केवल मनोवेगका राहखर्च लेकर वे दुर्गम मार्ग ते करनेके लिये निकल पड़े हैं। वे देशके सुदूर और सुविस्तीर्ण मंगलको शान्त भाव और यथार्थ रीतिसे सोच ही नहीं सकते। उपस्थित कष्ट ही उन्हें इतना असह्य मालूम होता है, उसीके प्रतिकारकी चिन्ता उनके चित्तपर इस तरह चढ़ जाती है कि उनकी जब्तकी दीवार बिलकुल ही टूट जाती है और अपने तात्का[ १५२ ] लिक क्लेशकी प्रतिकारचेष्टामें देशके व्यापक हितको हानि पहुँचा देना उनके लिये असम्भव नहीं रह जाता।

इतिहासकी शिक्षाको जैसा चाहिए वैसा समझ लेना बड़ा कठिन काम है। सभी देशोंके इतिहासोंमें जिस समय कोई बड़ी घटना घटित होती है उसके कुछ ही पहले एक प्रबल आघात और आन्दोलनका अस्तित्व अवश्य पाया जाता है। राष्ट्र अथवा समाजपर असामञ्जस्यका भार बहुत दिनोंतक चुपचाप बढ़ता बढ़ता अधिक हो जाता है और तब वह अचानक एक दिन एक आघातसे विप्लवका रूप धारण कर लेता है। उस समय यदि देशमें अनुकूल उपकरण प्रस्तुत रहते हैं, यदि पहले हीसे उसके भाण्डारमें ज्ञान और शक्तिका सम्बल पूर्ण रूपसे संचित रहता है तो देश उस विप्लवके कठोर आघातका निवारण कर नए सामञ्ज- स्यके योगसे अपना नया जीवन निर्माण कर लेता है। देशका यह आभ्यन्तरिक प्राण सम्बल अन्तःपुरके भाण्डारमें प्रच्छन्न रूपसे सञ्चित होता है, इसलिये हम इसे देख नहीं सकते और इसीसे समझ बैठते हैं कि विप्लवहीके द्वारा देशने सफलता प्राप्त की है; विप्लव ही मंग- लका मूल कारण और प्रधान उपाय है।

इतिहासको ऊपर ऊपरसे देखकर यह भूल जाना ठीक न होगा कि जिस देशके मर्मस्थानमें सृष्टि करनेकी शक्ति क्षीण हो गई है, प्रलयके आघातका उससे कदापि निवारण न हो सकेगा। गढ़ने या जोड़नेकी प्रवृत्ति जिसमें सजीव रूपमें विद्यमान है, भंग करनेकी प्रवृ- त्तिका आधात उसके जीवन-धर्मको ही, उसकी सृजनी शक्तिको ही सचेष्ट और सचेतन करता है। इस प्रकार प्रलय सदा सृष्टिको नवीन बल देकर उत्तेजित करता है; इसीलिये उसका इतना गौरव है। नहीं तो निरा तोड़-फोड़ या विवेकहीन विप्लव किसी प्रकार कल्याणकर नहीं हो सकता। [ १५३ ]विरोधी वायुके प्रबलतम झोंकोंकी परवा न कर जो जहाज लंगर खुलने पर समुद्रके पानीको चीरता हुआ चल देता है, निश्चयपूर्वक जानना होगा कि उसके पेंदेके तख्तोंमें कोई दराज नहीं था; अथवा यदि रहा भी हो तो जहाजके मिस्त्रीने किसीको न जनाते हुए चुपचाप उसकी मरम्मत कर डाली है । पर जिस जीर्ण जहाजके तख्ते इतने ढीले हो गए हों कि जरासा हिला देनेहीसे एक दूसरेसे टक्करें लेने लगते हों, क्या उपर्युक्त तूफानी झोंके उसकी पालका सर्वनाश न कर डालेंगे ? हमारे देशमें भी तनिकसी गति दे देनेसे हिन्दूसे मुसलमान, उच्च वर्णसे निम्न वर्णकी टक्करबाजी होने लगती है या नहीं ? जब भीतर इतने छिद्र मौजूद हैं तब तूफानके समय, लहरें चीरकर, स्वरा- ज्यके बन्दरगाह तक पहुँचने के लिये उत्तेजनाको उन्मादमें बदल लेना ही क्या उत्कृष्ट उपाय है ?

जिस समय बाहरसे देशका अपमान किया जाता है, जिस समय अपने अधिकारों की सीमा तनिक विस्तीर्ण करानेकी इच्छा करते ही शासकवर्ग हमें 'नालायक' की उपाधि देने लगता है, उस समय अपने देशमें किसी प्रकारकी दुर्बलता, किसी प्रकारकी त्रुटि स्वीकार करना हमारे लिये अत्यन्त कठिन हो जाता है। उस समय हम दूस- रोंसे अपना बचाव करनेके लिये ही अपना बड़प्पन नहीं गाते फिरते, अभिमानके आहत होनेसे अपनी अवस्थाके सम्बन्धमें हमारी बुद्धि भी अन्धी हो जाती है और हम तिरस्कार योग्य नहीं हैं, इसे निमेष मात्रमें सिद्ध कर दिखाने के लिये हम अत्यन्त व्यग्र हो उठते हैं । हम सब कुछ कर सकते हैं, हमारा सभी कुछ मौजूद है, केवल बाहरी रुकावटने हमें अयोग्य और असमर्थ बना रखा है-इस बातको गला फाड़ फाड़कर चिल्लानेहीसे हमें सन्तोष नहीं होता; इसी विश्वासके [ १५४ ] साथ कार्यक्षेत्रमें कूद पड़नेके लिये भी हमारा लाञ्छित हृदय विह्वल हो उठता है । मनःक्षोभकी इस आत्यन्तिक अवस्थामें ही हम इतिहासका यथार्थ तात्पर्य समझनेमें भूल कर जाते हैं। हम निश्चय कर लेते हैं कि जिस जिस पराधीन देशको की स्वाधीनता मिली है, वह विप्लवहीकी कृपासे मिली है। स्वाधीन होने और बने रहनेके लिये और भी किसी गुणकी आवश्यकता है या नहीं, इसको हम स्पष्ट रूपसे समझना ही नहीं चाहते; अथवा विश्वास कर लेते हैं कि सारे गुण हमने सम्पा- दित कर लिए हैं और हममें विद्यमान हैं, या यही मान लेते हैं कि समय आनेपर वे गुण अपने आप ही किसी न किसी रीतिसे हममें आ जायेंगे।

इस प्रकार मानवचित्त जिस समय अपमानको चोट खाकर अपना बड़प्पन साबित करनेके लिये छटपटाने लगता है, जिस समय पाग- लकी तरह सारी कठिन बाधाओंका अस्तित्व एक वारगी अस्वीकार करके असाध्य चेष्टा करते हुए आत्महत्याका उपाय करता है, उस समय संसारमें उससे बढ़कर शोचनीय दशा और किसकी हो सकती है ? ऐसी दुश्चेष्टा विफलताकी उस खाड़ीमें फेंक देती है जिससे कभी निक- लना ही नहीं होता। तथापि हम इसका परिहास नहीं कर सकते । इस चेष्टाके अन्दर मानव प्रकृतिका जो परम दुःखकर अध्यवसाय है, वह सभी स्थानों और सभी समयोंमें नाना निमित्तोंसे, नाना असम्भव आशाओंमें, नाना असाध्य साधनोंमें बारम्बार पंख जले हुए पतंगकी तरह निश्चित पराभवकी अग्निशिखामें अन्धभावसे कूदा करता है।

जो हो, और चाहे जैसे हो, यह नहीं कहा जा सकता कि आघात पाकर शक्तिके अभिमानका जाग्रत होना राष्ट्रका अहित करना है। इसीसे तो हममें से कोई कोई यह मानकर कि विरोधके क्रुद्ध आवेगसे ही [ १५५ ] हमारा यह उद्यम एकाएक आविर्भूत हुआ है, देशकी शक्तिको विरोधके स्वरूपहीमें प्रकट करनेकी दुर्बुद्धिका पोषण करते हैं। किन्तु जिन्होंने साधारण अवस्थामें स्वाभाविक अनुरागकी प्रेरणासे कभी देशके हित- साधनका नियमित रीतिसे अभ्यास नहीं किया है, जिन्होंने उच्च संक- ल्पोंको बहुदिनव्यापी धैर्य और अध्यवसायकी सहायतासे सैकड़ों विघ्न- बाधाओंके भीतर मूर्तस्वरूप गढ़ लेनेके लिये अपने आपको तैयार नहीं कर लिया है, जो दुर्भाग्यवश बहुत दिनोंसे देशकार्यके बृहत् कार्य- क्षेत्रसे बाहर रहकर क्षुद्र व्यक्तिगत स्वार्थके अनुसरणमें संकीर्ण रूपसे जीवनके कार्य करते रहे हैं, एकाएक विषम क्रोधमें भरकर वे एक पलमें देशका कोई व्यापक हित कर डालें, यह कदापि सम्भव नहीं है। साधारण ऋतुमें जो कभी नावके पास भी नहीं फटके वे ही तूफानके समय डाँड़ हाथमें लेकर असामान्य मल्लाह कहलाकर देश- विदेशोंमें वाहवाही लूटने लगे, ऐसी घटना केवल स्वप्नही में सम्भव हो सकती है। अतएव हम लोगोंको भी अपना काम नीवसे ही शुरू करना होगा। इसमें विलम्ब हो सकता है, पर विपरीत उपाय करनेसे और भी अधिक बिलम्ब होगा ।

मनुष्य व्यापक मंगलकी सृष्टि करता है तपस्या द्वारा । क्रोध और काम इस तपस्याको भंग और उसके फलको एक ही क्षणमें नष्ट कर देते हैं। निश्चय ही हमारे देशमें भी कल्याणमय चेष्टा एकान्त स्थानमें तपस्या कर रही है। जल्दी फल प्राप्त करनेका लोभ उसे नहीं है, तात्क्षणिक आशाभंगके क्रोधको उसने संयमसे जीत लिया है। ऐसे समयमें आज धैर्यहीन उन्मत्तता अकस्मात् यज्ञक्षेत्रमें रक्तवृष्टि करके उसके बहुदुःख- सञ्चित तपस्याफलको कलुषित करनेका उपाय कर रही है।

क्रोधके आवेगकी तपस्यापर श्रद्धा ही नहीं होती। वह उसको निश्चेष्टाका पर्याय समझता है, अपनी आशु-उद्देश्य-सिद्धिका प्रधान [ १५६ ] विघ्न समझकर उससे घृणा करता है और उपद्रव द्वारा उसकी साधना चंचल अतएव निष्फल करनेके लिये उठ खड़ा होता है । फलको पकने देना ही उसकी समझमें उदासीनता है; फलको जबरदस्ती डालसे अलग कर लेनेहीको वह पुरुषार्थ समझता है। मालीके प्रतिदिन वृक्षकी जड़ सींचते रहनेका कारण उसकी समझसे केवल यही है कि उसपर चढ़ जानेका साहस उसमें नहीं है । मालीकी इस कापुरुषतापर उसे क्रोध होता है, उसके कामको वह छोटा काम समझता है । उत्तेजित दशामें मनुष्य उत्तेजनाको ही संसारमें सबसे बड़ा सत्य मानता है, जहाँ वह नहीं होती वहाँ उसको कोई सार्थकता ही नहीं दिखाई पड़ती।

परन्तु स्फुलिंग और शिखामें, चिनगारी और लौमें जो भेद है, उत्ते- जना और शक्तिमें भी वही अन्तर है । चकमककी चिनगारियोंसे घरका अन्धकार दूर नहीं किया जा सकता । उसका आयोजन जिस प्रकार स्वल्प है, उसका प्रयोजन भी उसी प्रकार सामान्य है। चिरागका आयोजन अनेकविध है--उसके लिये आधार गढ़ना होता है, वत्ती बनानी पड़ती है, तेल डालना पड़ता है। जब यथार्थ मूल्य देकर ये सब खरीदे जाते हैं या परिश्रम करके स्वयं तैयार कर लिए जाते हैं, तभी आवश्यकता पड़ने पर स्फुलिङ्ग अपनेको स्थायी शिग्वामें परिणत करके घरको प्रकाशित कर सकता है । जहाँ यथेष्ट चेष्टा नहीं होती प्रदीपके उपयुक्त साधन निर्मित अथवा प्रस्तुत नहीं किए जाते, जहाँ लोग चकमकसे अनायास चिनगारियोंकी वर्षा होते देखकर आनन्दमें उन्मत्त हो जाते हैं, सत्यके अनुरोधसे स्वीकार करना पड़ेगा कि वहाँ घरमें रोशनी पैदा करनेकी इच्छा तो कभी सफल नहीं हो सकती, पर हाँ घरमें आग लग जाना सम्भव है।

पर शक्तिको सुलभ करनेके प्रयत्नमें मनुष्य उत्तेजनाका अवलम्बन करता है। उस समय वह यह भूल जाता है कि यह अस्वाभाविक [ १५७ ] सुलभता एक ओर तो कुछ दाम लेकर राजी हो जाती है, पर दूसरी ओर इतना कसकर वसूल कर लेती है कि आरम्भसे ही उसको बहुमूल्य मान लेनेसे वह अपेक्षाकृत कम मूल्यमें पाई जा सकती है ।

हमारे देशमें भी जब देशकी हितसाधनबुद्धि नामका दुर्लभ महा- मूल्य पदार्थ एक आकस्मिक उत्तेजनाकी कृपासे आवालवृद्धवनितामें इतनी प्रचुरतासे दिखाई पड़ने लगा जिसका हम कभी अनुमान भी न कर सकते थे, तब हमारी सरीखी दरिद्र जातिके आनन्दका पारावार नहीं रहा । उस समय हमने यह सोचना भी नहीं चाहा कि उत्तम पदार्थकी इतनी सुलभता अस्वाभाविक है। इस व्यापक पदा- र्थको कार्यनियमोंसे बाँधकर संयत संहत न करनेसे इसकी वास्त- विक उपयोगिता ही नहीं रह जाती। यदि सभी ऐरे गैरे पागलोंको तरह यह कहने लगे कि हम युद्ध करनेके लिये तैयार हैं, और हम उन्हें अच्छे सैनिक समझकर इस बातपर आनन्द-मग्न होने लगे कि उनकी सहायतासे हम सहजमें सब काम कर लेंगे, तो प्रत्यक्ष युद्धके समय हम अपना सारा धन और प्राण देकर भी इस सस्तेपनके परन्तु सांघातिक उत्तरदायित्वसे बच न सकेंगे।

असल बात यह है कि मतवाला जिस प्रकार केवल यही चाहता है कि मेरे और मेरे साथियोंके नशेका रंग गहरा ही होता जाय, उसी प्रकार जिस समय हमने उत्तेजनाकी मादकताका अनुभव किया, उस समय उसके बढ़ाते ही जानेकी इच्छा हममें अनिवार्य हो उठी और अपनी इस इच्छाको नशेकी ताड़ना न मानकर हम कहने लगे कि- "शुरूमें भावकी उत्तेजना ही अधिक आवश्यक वस्तु हैं, यथारीति परिपक्व होकर वह अपने आप ही कार्यकी ओर अग्रसर होगी। अतः जो लोग रातदिन काम काम चिल्लाकर अपने गले सुखा रहे हैं वे छोटी [ १५८ ] समझके लोग हैं उनकी दृष्टि व्यापक नहीं है, वे भावुक नहीं हैं; हम केवल भावसे देशको मतवाला बना देंगे; समस्त देशको एकत्रकर भावका भैरवी चक्र बैठावेंगे जिसमें इस मंत्रका जाप किया जायगा-

पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत् पतति भूतले।
उत्थाय च पुनः पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥

चेष्टाकी आवश्यकता नहीं, कर्मकी आवश्यकता नहीं, गढ़ने-जोड़ने- की आवश्यकता नहीं, केवल भावोछ्वास ही साधना है, मत्तता ही मुक्ति है।

हमने बहुतोंको आह्वान किया, बहुतोंको इकट्ठा किया, जनताका विस्तार देखकर हम आनन्दित हुए; पर ऐसे कार्यक्षेत्रमें हमने उन्हें नहीं पहुँचाया जिसमें उद्बोधित शक्तिको सब लोग सार्थक कर सकते। उत्साह मात्र देने लगे, काम नहीं दिया। इससे बढ़कर मनुष्यके मनको अस्वस्थ करनेवाला काम दूसरा नहीं हो सकता। हम सोचते हैं कि उत्साह मनुष्यको निर्भीक बनाता है और निर्भीक हो जानेपर वह कर्म- मार्गकी बाधा-विपत्तियोंसे नहीं डरता । परन्तु बाधाओंके सिरपर पैर रखकर आगे बढ़नेकी उत्तेजना ही तो कर्मसाधनका सर्व प्रधान अङ्ग नहीं है-स्थिरबुद्धिसे युक्त होकर विचार करनेकी शक्ति, संयत होकर निर्माण करनेकी शक्ति, उससे बड़ी है । यही कारण है कि मतवाला मनुष्य हत्या कर सकता है पर युद्ध नहीं कर सकता । यह बात नहीं है कि युद्ध में मत्तताकी कुछ भी मात्रा न रहती हो, पर अप्रमत्तता ही प्रभु होकर उसका सञ्चालन करती है । इसी स्थिरबुद्धि दूरदर्शी कर्मोत्साही प्रभुको ही वर्तमान उत्तेजनाकालमें देश ढूँढ़ रहा है.---पुकार रहा है, पर अभागे देशके दुर्भाग्यके कारण उसका पता नहीं मिलता। हम दौड़- कर आनेवाले लोग केवल शराबके बरतनमें शराब ही भरते हैं, इंजिनमें [ १५९ ] भापका बल ही बढ़ाते रहते हैं । जब पूछा जाता है कि रास्ता साफ करने और पटरियाँ बिछानेका काम कौन करेगा, तब हमारा जवाब होता है—इन फुटकर कामोंको लेकर दिमाग खराब करना फजूल है- समय आनेपर सब कुछ अपने आप ही हो जायगा । मजदूरका काम मजदूर ही करेगा; हम जब ड्राइवर हैं तब इंजिनमें स्टीम ही बढ़ाते रहना हमारा कर्तव्य है

अब तक जो लोग सहिष्णुता रख सके हैं, संभव है कि वे हमसे पूछ बैठे कि-"तब क्या बंगालक सर्वसाधारण लोगोंमें जो उत्तेज- नाका उद्रेक हुआ है, उससे किसी भी अच्छे फलकी आशा नहीं की जा सकती!"

नहीं, हम ऐसा कभी नहीं समझते । अचेतन शक्तिको सचेष्ट या सचेतन करने के लिये इस उत्तेजनाकी आवश्यकता थी। पर जगा कर उठा देनेके अनन्तर और क्या कर्तव्य है ! कार्यमें नियुक्त करना या शराबमें मस्त करके मतवाला कर देना ? शराबकी जितनी मात्रा क्षीण प्राणको कार्यक्षम बनाती है उससे अधिक मात्रा फिर उसकी कार्य- क्षमता नष्ट कर देती है। सत्य कर्ममें जिस धैर्य और अध्यवसायका प्रयोजन होता है मतवालेकी शक्ति और रुचि उससे विमुख हो जाती है। धीरे धीरे उत्तेजना ही उसका लक्ष्य हो जाती है और वह विवश होकर कार्यके नामपर ऐसे अकार्योंकी सृष्टि करने लगता है जो उसकी मत्तताहीकी अनुकूलता करते हैं। इस सारे उत्पात कर्मको वस्तुतः वह मादकता बढ़ानेका निमित्त समझकर ही करता है और इनके द्वारा उत्तेजनाकी मात्राको घटने नहीं देता। मनोवेग जब का- र्य्योमें मार्गसे बाहर निकलनेका रास्ता नहीं पाता, और भीतर ही भीतर सञ्चित और अद्धित होता रहता है तब वह विषका काम करता है, [ १६० ] उसका अप्रयोजनीय व्यापार हमारे स्नायुमण्डलको विकृत करके कर्म- सभाको नृत्यसभा में बदल देता है।

नींदसे जागने और अपनी सचल शक्तिकी वास्तविकताका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उत्तेजनाके जिस एक आघातकी आवश्यकता होती है उसीका हमें प्रयोजन था। हमने विश्वास कर लिया था कि अँग- रेज जाति हमारे जन्मान्तरके पुण्य और जन्मकालके शुभग्रहकी भाँति हमारे पैवन्द लगे टुकड़ोंमें हमारे समस्त मंगलोंको बाँध देगी । विधा- तानिर्दिष्ट इस अयत्नप्राप्त सौभाग्यकी हम कभी बन्दना करते और कभी उससे कलह करके कालयापन करते थे। इस प्रकार जब मध्या- ह्रकालमें सारा संसार जीवनयुद्ध में निरत होता था तब हमारी सुखनिद्रा और भी गाढ़ी होती थी।

ऐसे ही समय किसी अज्ञात दिशासे एक ठोकर लगी। नींद भी टूट गई और फिर आँखें मूंदकर स्वप्न देखनेकी इच्छा भी नहीं रह गई; पर आश्चर्य है कि हमारी उस स्वप्नावस्थासे जागरणका एक विषयमें मेल रह ही गया ।

तब हम निश्चिन्त हो गये थे- हमें भरोसा हो गया था कि प्रयत्न न करके भी हम प्रयत्नका फल प्राप्त कर लेंगे। अब सोचते हैं कि फल प्राप्तिके लिये प्रयत्नकी जितनी मात्रा आवश्यक है उसको बहुत कुछ घटाकर भी हम वही फल प्राप्त कर सकते हैं। जब स्वप्न देखते थे तब भी असम्भवका आलिंगन किए हुए थे; जब जागे तब भी असम्भवको अपने बाहुजालके बाहर न कर सके। शक्तिकी उत्तेजना हममें बहुत अधिक हो जानेके कारण अत्यावश्यक विलम्ब हमें अना- वश्यक जान पड़ने लगा । बाहर वही पुराना दैन्य रह गया है, अन्दर [ १६१ ] नवजाग्रत शक्तिका अभिमान जोर पकड़े हुए है। दोनोंका सामञ्जस्य कैसे होगा ? धीरे धीरे ? क्रम क्रमसे ? बीचकी विशाल खाड़ीमें पत्थरका पुल बाँधकर ? पर अभिमान विलम्ब नहीं सह सकता, मत्तता कहती है, हमें सीढ़ी न चाहिए, हम उड़ेंगे! सुसाध्यका साधन तो सभी कर लेते हैं, हम असाध्य कार्यका साधन कर जगत्को चमत्कृत कर देंगे- यही कल्पना हमें उत्तेजित किए रहती है। इसका एक कारण है। प्रेम जब जागता है तब वह शुरूसे ही सब कार्य करना चाहता है, छोटा हो या बड़ा, वह किसीका तिरस्कार नहीं करता । कहीं कोई कर्त्तव्य असमाप्त न रह जाय यह चिन्ता उसके चित्तसे कभी दूर नहीं होती। प्रेम अपने आपको सार्थक करना चाहता है, अपनेको प्रमाणित करनेके लिये वह परेशान नहीं होता। पर अपमानकी ठोकर खाकर जागनेवाला आत्माभिमान छाती फुलाकर कहता है— हम धीरे धीरे डगें रखते हुए नहीं चलेंगे, हम छलाँगें मारकर ही चलेंगे। अर्थात् जो वस्तु संसारभरके लिये उपयोगी है, उसके लिये उसका कोई प्रयोजन नहीं-धैर्यका प्रयोजन नहीं, अध्यवसायका प्रयोजन नहीं, दूरवर्ती उद्देश्यको लक्ष्यकर देर में फल देनेवाले साधनोंका अवलम्बन करनेका प्रयोजन नहीं । फल यह होता है कि कल जिस प्रकार दूसरे के बलका अन्धभावसे भरोसा किए बैठे थे, आज उसी प्रकार अपने बलपर हवाई किले तयार कर रहे हैं। उस समय यथाविहित कर्मसे दूर भागनेकी चेष्टा थी, इस समय भी वही चेष्टा वर्तमान है । ईस- पके किस्सेवाले किसानके आलसी बेटे, जबतक बाप जीवित था, भूलकर भी खेतके पास नहीं फटके। बाप हल जोतता था और वे उसकी कमाई निश्चिन्त होकर खाते थे। जब बाप मर गया तब वे खेतके समीप जानेको बाध्य हुए-पर हल चलानेके लिये नहीं ।

रा०११ [ १६२ ] उन्होंने निश्चय किया कि पिताजी जो खेतमें गड़ा हुआ धन बतला गये हैं, उसे फावड़ेसे खोदकर हम एक ही बारमें जड़से उखाड़ लेंगे । इस बातके सीखनेमें कि खजानेका गड़ा धन उस खेतसे प्रतिवर्ष पैदा होनेवाला अन्न ही है उनका बहुतसा समय व्यर्थ नष्ट हो गया। हम लोग भी यदि जलदी इस बातको न समझ लेंगे कि कोई अद्भुत उपाय करके गड़ा खजाना हम केवल मनोराज्यहीमें प्रान कर सकते हैं, प्रत्यक्ष जगत्में और सब लोग उसको जिस प्रकार प्राप्त और भोग करते हैं, हमें भी यदि ठीक उसी रीतिसे उसे प्राप्त करना होगा, तो टोकरों और दुःखोंकी संख्या और मात्रा बढ़ती ही जायगी और इस विषयमें हम जितना ही अग्रसर होते जायेंगे, लौटनेका रास्ता भी उतना ही लम्बा और दुर्गम होता जायगा।

अधैर्य अथवा अज्ञानक कारण जब स्वाभाविक उपाय पर अश्रद्धा हो जाती है और कुछ असाधारण घटना घटित कर डालनेकी इच्छा अत्यन्त प्रबल हो उठती है उस समय धर्मबुद्धि नष्ट हो जाती है; उस समय उपकरण केवल उपकरण उपाय केवल उपाय समझ पड़ते हैं । उस समय छोटे छोटे बच्चोंतकको निर्दयतापूर्वक इस उन्मत्त इच्छाके आगे बलि कर देनेमें मनको आगा पीछा नहीं होता । महा- भारतके सोमक राजाकी तरह असामान्य उपाय द्वारा सिद्धि प्राप्त करनेके लोभमें हम अपने अनि सुकुमार छोटे बच्चे को भी यज्ञकी अग्निमें समर्पित कर बैठे हैं। इस विचारहीन निष्ठुरताका पाप चित्र- गुप्तकी दृष्टि नहीं बचा सका, उसका प्रायश्चित्त आरम्भ हो चुका है -बालकोंकी वेदनासे सारे देशका हृदय विदीर्ण हो रहा है। हम नहीं जानते कि अभी और कितना दुःख सहना होगा।

दुःख सह लेना उतना कठिन नहीं है, पर दुर्मतिको रोकना या दबा लेना अत्यंत दुष्कर कार्य है । अन्याय या अनाचारको एक बार [ १६३ ] भी कार्यसाधनमें सहायक मान लेनेपर अन्त:करणको विकृतिके अधीन होनेसे रोकनेकी सारी स्वाभाविक शक्ति चली जाती है,-न्याय- धर्मके ध्रुवकेन्द्रसे एक बार भी हट जानेपर बुद्धिका नाश हो जाता है, कर्ममें स्थिरता नहीं रह जाती। ऐसी दशामें विश्वव्यापिनी धर्म-व्यव- स्थाके साथ अपने भ्रष्ट जीवनका सामञ्जस्य फिर स्थापित करनेके लिये प्रचंड संघात अनिवार्य हो जाता है ।

कुछ कालसे हमारे देशमें यही प्रक्रिया चल रही है, यह बात हमें अवनतहृदय होकर दुःखके साथ स्वीकार करनी ही पड़ेगी। यह आलो- चना हमें अत्यन्त अप्रिय हैं, केवल इसीलिये उसे चुपचाप दबा रखना या उसपर अतिशयोक्तिका परदा डाल देना और इस प्रकार व्याधिको घातक होनेका अवसर देना हमारा या आपका किसीका कर्तव्य नहीं है।

“हम यथासाध्य विलायती वस्तुओंका व्यवहार न कर देशी शिल्पकी रक्षा और उन्नतिका प्रयत्न करेंगे," ऐसी आशंका न कीजिए कि हम इसके विरुद्ध कुछ कहेंगे । आजसे बहुत दिनों पहले जब हमने लिखा था--

निज हाथहिं जो अन्न पकावै । अथवा माटे वस्त्र बनावै ॥
जदपि कदन्न कुवस्त्रहु होई । सुमधुर सुन्दर लागत दोई ॥

उस समय लार्ड कर्जनपर हमारे क्रोध करनेका कोई कारण नहीं था और स्वदेशी भाण्डार स्थापित करके देशी वस्तुओंका प्रचार कर- नेकी चेष्टा करनेमें हमें समयकी धाराके विरुद्ध ही चलना पड़ा था।

तथापि, विदेशी वस्तुओंके स्थानपर स्वदेशी वस्तुओंका प्रचार करना कितना ही महत्त्वशाली कार्य क्यों न हो, पर हम यह किसी प्रकार [ १६४ ] न मानेंगे कि उसके समर्थनके लिये लेशमात्र भी अन्याय उचित होगा। विलम्ब अच्छा है, विरोध भी अच्छा है, इनसे दीवार ठोस और कार्य परिपक्व होगा, पर वह इन्द्रजाल अच्छा नहीं है जो एक रातमें ही अट्टालिकाका निर्माण कर दे और तिसपर भी हमसे नकद उजरत लेनेसे इनकार करे । पर हाय न जाने क्यों मनमें इस भयका स्थान अटल हो गया है कि यदि एक क्षणमें ही हमने मेञ्चेस्टरके सारे कार- खानोंपर ताले न चढ़वा दिये तो हमारे किये कुछ भी न हो सकेगा, क्योंकि दीर्घकालतक इस दुःसाध्य उद्देश्यको अटल निष्ठाके साथ स- म्मुख रखनेकी शक्ति हममें नहीं है । यही कारण है कि हम हाथोंहाथ बंग-भंगका बदला चुका लेनेके लिये इतने व्यग्र हैं और इस व्यग्रतामें मार्ग अमार्गका विचार करना ही नहीं चाहते। अपने आप पर विश्वास न रखनेवाली हमारी दुर्बलता, चारों ओरसे उठनेवाली शीघ्रताकी कानोंको बहरा करनेवाली ध्वनिमें भूलकर स्वभावपर अश्रद्धा और शुभबुद्धिको अमान्य करती हुई तत्काल लाभ उठा लेना चाहती है और पीछे बर- सों तक देनेका खाता खतियाती और भुकतान करती रहना चाहती है। मंगलको पीड़ित करके मंगल पाना असम्भव है, स्वाधीनताकी जड़ खोदकर स्वाधीनताका उपयोग करना त्रिकालमें न होनेवाली बात है- इसे क्षणमात्र भी सोचनेका कष्ट उससे सहा नहीं जाता।

हमसे बहुतोको मालूम नहीं और बहुतेरे जानकर भी स्वीकार नहीं करना चाहते कि अनेक अवसरोंपर देशवासियोंपर अत्याचार करके बहिष्कारकी साधना कराई गई है, उनकी इच्छा न रहते हुए, उन्हें जबरदस्ती इस आन्दोलनमें सम्मिलित किया गया है। हम जिस घातको श्रेष्ठ समझते हैं दूसरोंको उपदेश और उदाहरण द्वारा उसकी श्रेष्ठता समझानेमें लगनेवाला विलम्ब यदि हमसे सहन न हो, दूसरोंके [ १६५ ] अधिकारोंमें बलपूर्वक हस्तक्षेप करनेको अन्याय समझनेका अभ्यास यदि देशसे चला जाय, तो असम्भवको किसी सीमामें बाँध रखना अस- म्भव हो जायगा। जब कर्त्तव्यके नामसे अकर्तव्यकी प्रबलता होती है तब देखते देखते ही समस्त देश अप्रकृतिस्थ हो जाता है । इससे स्वाधीनताकी दुहाई देते हुए हम वास्तविक स्वाधीनता धर्मके साथ विद्रोह कर रहे हैं। देशमें जो मतकी अनेकता और इच्छाकी विष- मता है उसे लहकी सहायतासे एकाकार कर देनेको कर्तव्य समझनेवाली दुर्बुद्धि हममें उत्पन्न हो गई है। हम जो कहते और करते हैं दूसरोंको भी वही कहने और करनेके लिये बाध्य करके देशके समस्त मत, इच्छा और आचरणके विरोधको अपघात मृत्युद्वारा पञ्चत्व लाभ करा देनेहीको हम जातीय एकता निश्चित कर बैठे हैं। मतान्तरको हम समाजमें पीड़ा पहुँचाते हैं, समाचारपत्रोंमें उसको अत्यन्त तीखी गालियाँ सुनाते हैं, यहाँतक कि उसपर अपने मतकी सत्ता स्थापित करनेके लिये शारीरिक चोट पहुँचानेकी धमकी देने तकसे बाज नहीं आते । आप अच्छी तरह जानते हैं और हम और भी अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसी गुमनाम धमकियों देनेवालोंकी संख्या उँगलियोंपर नहीं गिनी जा सकती । देशके विज्ञ और प्रतिष्ठित पुरुषतक इस अपमानसे नहीं बचे हैं । संसारके अनेक महापुरुषोंने विरुद्ध सम्प्रदायमें अपना मत प्रचार करनेके लिये अपने प्राणतक विसर्जन कर दिए हैं; हम भी मत प्रचार करना चाहते हैं--दूसरोंको अपने अनुकूल करना चाहते हैं, पर और सभी दृष्टान्तोंको एक ओर रखकर हमने केवल कालापहाड़ हीको * गुरु चुन लिया है।


  • यह बंगालके प्रथम मुसलमान नवाब सुलेमान करआनीका सेनापति था ।

इसने आसाम उड़ीसा और काशीके बीचके प्रदेश में ढूँढ ढूंढकर मूर्तियों और [ १६६ ]हम पहले ही कह चुके हैं कि जिसमें जोड़नेकी शक्तिका अभाव है, तोड़नेका प्रयास उसके लिए मृत्युस्वरूप है । हम पूछते हैं, हमारे देशमें यह गठनतत्त्व कहाँ प्रकाशित हो रहा है। हमको संगठित और एक रखने के लिये कौन सृजनी शक्ति हमारे अभ्यन्तरमें काम कर रही है ! भेदके लक्षण ही तो चारों ओर दिखाई दे रहे हैं। जबतक हममें विच्छिन्नताकी ही प्रबलता है तबतक सब कुछ करके भी हम अपना प्रभुत्व प्रतिष्टित न कर सकेंगे और तब दूसरे हमपर प्रभुता करेंगे ही, हम किसी प्रकार उनको इससे रोक नहीं सकेंगे। बहुतोंके विचारमें इस देशकी पराधीनता शिरःपीड़ाकी तरह भीतरकी बीमारी नहीं है, एक बोझ है जो अँगरेज सरकारके रूपमें बाहरसे हमारे सिरपर लाद दिया गया है,-यदि हम किसी उपायमे एक बार इसको कहीं पटक दे सकें, तो सदाके लिये हल्के हो जायें। पर यह काम इतना सहज नहीं है। ब्रिटिश सरकार हमारी पराधीनता नहीं है, वह हमारी गम्भीरतर पराधीनताका प्रमाण परन्तु गम्भीरतर कारणोंकी छानबीन करनेका अवकाश या इच्छा आजकल हमको नहीं है । इतनी भिन्न भिन्न जातियोंक रहते हुए भी किस प्रकार भारतमें एक महाजाति बनकर स्वराज्यकी स्थापना करेगी ! जिस समय यह प्रश्न किया जाता है; उस समय हममेंसे कई एक जल्दबाज इस तिरछी पगडंडीसे झट मंजिलपर पहुँच जाते हैं कि स्विटजरलैण्डमें भी तो अनेक जातियाँ बसती हैं, पर क्या इससे वहाँ स्वराज्य-स्थापनामें बाधा पड़ी।



मन्दिर तोड़वाए । हिन्दुओंको इसने जितना सताया उतना शायद ही और किसी मुसलमानने सताया हो। बंगाल में लोगों का विश्वास है कि यह जन्मसे ब्राह्मण था । नवाबकी कन्यापर आसक्त होकर मुसलमान हो गया था। पर फारसी इतिहासोंमें इसे पठान लिखा है ।-अनु०। [ १६७ ] ऐसी नजीर पेशकर हम अपने आपको भुला सकते हैं, पर विधा- ताकी आखाँमें धूल नहीं झोंक सकते । जातिभिन्नत्वके रहते हुए भी स्वराज्य चलाया जा सकता है या नहीं, वास्तवमें यही मुख्य प्रश्न नहीं है । विभिन्नता तो किसी न किसी रूपमें सभी जगह है, जिस परिवारमें दस आदमी हैं वहाँ दस विभिन्नताएँ हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि विभिन्नताके भीतर एकताका तत्त्व काम कर रहा है या नहीं । सैकड़ों जातियोंके होते हुए भी यदि स्विटजरलैण्ड एक हो सका तो मानना पड़ेगा कि एकत्वने यहाँ भिन्नत्वपर विजय प्राप्त कर ली है। वहाँके समाजमें भिन्नत्वके रहते हुए प्रबल ऐक्य धर्म भी है। हमारे देशमें विभिन्नता तो वैसी ही है; पर ऐक्य धर्मके अभावसे वह विश्लिष्ट- नामें परिवर्तित हो गई है और भाषा, जाति, धर्म, समाज और लोका- चारमें नाना रूप और आकारों में प्रकट होकर इस बृहत् देशके उसने छोटे बड़े हजारों टुकड़े कर रक्खे हैं ।

अतएव उक्त दृष्टान्त देखकर निश्चिन्त हो बैठनेका तो कोई कारण नहीं देख पड़ता । आँम्ब मूंदकर यह मंत्र रटनेसे धर्म या न्यायके देवताके यहाँ हमारी मुनवाई न होगी कि हमारा और सब कुछ ठीक हो गया है, बस अब किसी प्रकार अँगरेजोंसे गला छुड़ाते ही बंगाली, पंजाबी, मराठे, मदरासी, हिन्दू, मुसलमान सब एक मन, एक प्राण, एक स्वार्थ हो स्वाधीन हो जायेंगे।

वास्तवमें आज भारतवर्षमें जितनी एकता दिखाई पड़ती है और जिसे देखकर हम सिद्धिलाभको सामने खड़ा समझ रहे हैं नई यांत्रिक है, जैविक नहीं । भारतकी विभिन्न जातियोंमें यह एकता जीवनधर्मकी प्रेरणासे नहीं प्रकट हुई है, किन्तु एक ही विदेशी शासनरूपी रस्सीने हमें बाहरसे बाँधकर एकत्र कर दिया है। [ १६८ ]

सजीव पदार्थ बहुत समय तक यांत्रिक भावसे एकत्र रहते रहते जैविक भावसे संयुक्त हो जाते हैं । भिन्न भिन्न जातिके दो वृक्षोंकी डालियोंका इसी रीतिसे कलम लगाया जाता है। किन्तु जबतक उनका निर्जीव संयोग सजीव संयोगमें बदल नहीं जाता तबतक उन्हें बाहरी बन्धनसे मुक्त कर देना ठीक नहीं होता । इसमें सन्देह नहीं कि रस्सीका बन्धन वृक्षका अपना अंग नहीं है और इसलिये वह चाहे जैसे लगाया गया हो और चाहे जितना उपकार करता हो, वृक्षको उससे पीड़ा अवश्य पहुँचेगी। पर यदि विभिन्नताको एक कलेवरमें बद्ध देखनेकी इच्छा हो तो यह पीड़ा स्वीकार न करनेसे काम न चलेगा। बन्धन आवश्य- कतासे अधिक कड़ा है, यह बात सत्य हो सकती है । पर इसका एक मात्र उपाय है अपनी सम्पूर्ण आभ्यन्तरिक शक्तियोंको लगाकर जोड़के मार्गसे एक दूसरेके रससे रस और प्राणसे प्राण मिलाकर जोड़को पक्का कर डालना । यह बात पूरे विश्वासके साथ कहीं जा सकती है कि जोड़ पक्का हो जानेपर, दोनों टहनियोंके एक जीव हो जानेपर, हमारा माली अवश्य ही हमारा बन्धन काट देगा। अँगरेजी शासन नामक बाहरी बन्धन स्वीकार करके, उसपर जड़ भाषसे निर्भर न रहकर हमें सेवाद्वारा, प्रीतिद्वारा, सम्पूर्ण कृत्रिम व्यवधानोंके नाशद्वारा विच्छिन्न भारतवर्षको सजीव बन्धनमें बाँधकर एक कर लेना होगा । एकत्र संघटनमूलक हजारों प्रकारके सृजनके काममें भौगो- लिक भूखण्डको स्वदेशके रूपमें गहना पड़ेगा और छिन्न भिन्न जनस- मूहको प्रयत्नद्वारा स्वजातिके आकारमें परिणत करना पड़ेगा।

सुनते हैं, किसी किसीका यह भी मत है कि अंगरेजोंके प्रति देशवासी सर्वसाधारणका विद्वेष ही हममें एकता उत्पन्न करेगा । प्राच्य जातियोंके प्रति अँगरेजोंकी स्वाभाविक निर्ममता, उदासीनता और [ १६९ ] उद्धतता भारतवर्षके छोटे बड़े सभीको व्यथित कर रही है। जितना ही समय बीत रहा है इस वेदनाका तप्तशूल हमारे कलेजोंमें उतना ही अधिक विधता जा रहा है। यह नित्य बढ्नेवाली वेदनाकी एकता ही भार- तकी भिन्न भिन्न जातियोंके एक होनेका उपक्रम कर रही है। अतएक अँगरेज-विद्वेपको हमें अपना प्रधान सहायक अवश्य मानना पड़ेगा।

यदि यह बात सत्य है तो जब विद्वेषका कारण दूर हो जायगा, जब अँगरेज यह देश छोड़कर चले जायेंगे--तब हमारी बनावटी एक- ताका सूत्र भी तो क्षण मात्र ही टूट जायगा । उस समय विद्वेषका दूसरा विषय हमें कहाँ मिलेगा? उसे ढूँढ़ने हमें दूर न जाना पड़ेगा, बाहर भी न जाना पड़ेगा । रक्तकी प्यासी हमारी विद्वेष-बुद्धि आपसमें ही एक दूसरेको क्षत-विक्षत करने लगेगी।

"उस समय तक किसी न किसी प्रकार कोई उपाय निकल ही आवेगा, इस समय इसी तरह चले चलो, "--जो लोग ऐसा कहते हैं वे इस बातको भूल जाते हैं कि देश केवल उन्हींकी सम्पत्ति नहीं है, व्यक्ति- गत राग द्वेष, और इच्छा अनिच्छाको लेकर उनके चले जानेपर भी देश रह जायगा। ट्रस्टी जिस तरह सौंपे हुए धनको सर्वश्रेष्ट और सर्वापेक्षा आवश्यक कार्यमें ही व्यय कर सकता है, मनमाने ऐसे वैसे कामोंमें उसे खर्च कर डालनेका अधिकार नहीं होता, उसी तरह देश जो अनेक व्यक्तियों और अनेक कालकी जायदाद है उसके क- ल्याणको भी किसी क्षणिक क्षोभके आवेगवश अदूरदर्शी तत्कालोत्पन्न बुद्धिकी संशयापन्न व्यवस्थाके हाथमें आँखें मूंदकर सौंप देनेका हम- मेंसे किसीको अधिकार नहीं है। स्वदेशका भविष्य जिससे संकटा- पन्न हो जाय, तात्कालिक उत्तेजनाके प्रभावमें आकर ऐसा विवेकहीन [ १७० ]

काम कर डालना किसीका कभी कर्तव्य नहीं हो सकता। कर्मफल अकेले हमको ही नहीं मिलेगा। उसका दुःख बहुत्तोंको उठाना पड़ेगा।

इसीसे कहते हैं और बारम्बार कहेंगे कि शत्रुताबुद्धिको आठोपहर बाहरहीकी और उद्यत रखनेके लिये उत्तेजनाकी अग्निमें अपने सम्पूर्ण सञ्चित सम्बलकी आहुति मत दे डालो, परायेपर हर समय दाँत पीस- नेवाली आदत रोककर रास्ता बदल दो। आषाढ़में आकाशचारी मेघ जिस प्रकार मुसलाधार वर्षा करनेके लिये तपी, सूखी, तृपातुर भूमिके समीप आ जाते हैं उसी प्रकार तुम भी अपने ऊँचे स्थानसे देशकी सारी जातियों सारे मनुष्यों के बीच आकर खड़े हो जाओ और अनेक दिङ्मुखी कल्याणचेष्टाके वृहत् जालमें स्वदेशको सब प्रकारसे बाँध लो, कर्मक्षेत्रको इतना उदार, इतना विस्तीर्ण करो जिसमें ऊंच, नीच, हिन्दू मुसलमान सभी वहाँ एकत्र होकर हृदयसे हृदय, चेष्टासे चेष्टाका सम्मि- लन करा सकें। हमारे प्रति राजाका सन्देह और प्रतिकूलता पग पग- पर हमारा प्रतिरोध करेगी; पर वह कभी हमें विजित या विनष्ट न कर सकेगी-हम जो होंगे ही। पागलकी भाँति चट्टानपर सिर पटक- कर नहीं, अविचलित अध्यवसायके द्वारा धीरे धीरे उसको अतिक्रम करके ऐसे अध्यवसायकी कृपासे हम केवल जयी ही न होंगे बल्कि कार्यसिद्धिकी सच्ची साधनाको देशमें बहुत समयके लिये रक्षित कर जायेंगे, आनंशली पीढ़ियों के लिये एक एक करके सम्पूर्ण कार्योके द्वार खोल देंगे।

आज जो यह बन्दियोंकी हथकड़ियों और बेड़ियोंकी कठोर झंकार सुनाई पड़ती है—दण्डधारी पुरुषों के पैरोंके प्रहारसे राजपथ काँपता हुआ चिल्ला रहा है, इसीको बड़ी भारी बात मत समझो। यदि कान लगाकर सुनोगे तो कालके महासंगीतमें यह क्रन्दन न जाने कहाँ विलीन [ १७१ ] हो जायगा ! अनेक युगोंसे इस देशमें न जाने कितने विप्लव और कितने अत्याचार हुए और इस देशके सिंहद्वारपर न जाने कितने राज- प्रताप आए और चले गए, इन सब बातोंके बीचमेंसे भारतवर्षकी परिपूर्णता अभिव्यक्त होकर उठ रही है । आजके क्षुद्र दिनका जो क्षुद्र इतिहास उस पुराने बड़े इतिहासके साथ मिल रहा है, क्या कुछ दिनों बाद उस समग्र इतिहासमें यह क्षुद्र इतिहास कहीं दिख- लाई भी पड़ेगा ! हम भय न करेंगे, क्षुब्ध न होंगे, भारतवर्षकी जो परम महिमा कठोर दुःखराशिमेसे विश्वके सृजनानन्दको बह- नकर व्यक्त हुआ करती है-भक्त-साधकके प्रशान्त ध्यान-नेत्रसे हम उसकी अखंड मूर्तिके दर्शन करेंगे, चारों ओरके कोलाहल और चित्त-विक्षेपके समय भी साधनाको उस उच्च लक्ष्यकी ओर निरन्तर बढ़ाए चलेंग। विश्वास करेंगे कि इसी भारतवर्षमें युगयुगान्तरके मानचित्तोंकी आकांक्षा-धाराओंका मिलाप हुआ. है, यहाँ ही ज्ञानके साथ ज्ञानका मन्थन, जातिके साथ जातिका मिलन होगा। वैचित्र्य यहाँ अत्यन्त जटिल है, विच्छेद अत्यन्त प्रबल है, विपरीत वस्तुओंका समावेश अत्यन्त विरोधपूर्ण है। इतने बहुत्त्र, इतनी वेदना, इतने आघातको इतने दीर्घकाल तक बहन करके और कोई देश अब तक जीता न रह जाता । पर भारतमें एक अति बृहत् , अति महान् समन्वयका उद्देश्य ही इन सारे आत्यन्तिक विरोधोंको धारण किए हुए है, परस्परके आघात प्रतिघातमें किसीको नष्ट नहीं होने देता। ये सारे विविध, विचित्र उपकरण जो कालकालान्तर और देशदेशान्तरसे यहाँ ला रक्खे गए हैं, अपने निर्बल अँगूठों द्वारा उन्हें ठुकराकर फेंक देनेके प्रयत्नमें हमारा ही अँगूठा टूटेगा, वे अपनी जगहसे टससे मस भी नहीं होंगे। हम जानते हैं कि बाहरसे किए जानेवाले अन्याय और [ १७२ ] अपमान हमारी ऐसी प्रवृत्तिको उत्तेजित करते हैं जो आघात करना ही जानती है, धैर्यके लिये जिसमें कोई स्थान ही नहीं है, और जो विनाश स्वीकार करके भी अपनी चरितार्थताको ही-अँगूठा तोड़ लेना मंजूर करके भी ठोकर मारनेका ही सार्थक समझती है। पर इस आत्माभिमानजनित प्रमत्तताको दूर भगानेके लिये हमारे अन्त:- करणमें गम्भीर आत्मगौरव सञ्चार करनेकी भीतरी शक्ति क्या भारत- वर्ष हमको प्रदान न करेगा ? जो निकट आकर हमको पहचाननेमें घृणा करती है, जो दूरसे हमारे लिये विद्वेषके उद्गार निकालती है, वही मुखकी वायुसे फुलाई हुई समाचारपत्रोंकी ध्वनि, इंग्लैण्डके टाइम्स और इस देशके टाइम्स आफ इंडियाकी वही विरोध करनेवाली तीक्ष्ण वाणी, ही क्या अंकुश बनकर हमें विरोधके पथमें अन्धवेगसे चालित करती रहेगी? क्या इसकी अपेक्षा अधिक सत्य, अधिक नित्य- वाणी हमारे पूर्वजोंके मुखसे कभी नहीं निकली है ? वह वाणी जो दूरको समीप लानेको कहे, परायेको अपना बनानेका उपदेश दे ? क्या वे शान्तिपूर्ण गम्भीर सनातन मंगल-वाक्य ही आज परास्त होनेवाले हैं ? भारतवर्ष में हम मिलेंगे और मिलावेंगे, वही दुस्साध्य साधना करेंगे जिससे शत्रुमित्रका भेद मिट जाय | जो सबसे ऊँचा सत्य है, जो पवि- त्रताके तेजसे, क्षमाके वीर्य्यसे, प्रेमकी अपराजित और अपराजेय शक्तिसे परिपूर्ण है, हम उसको कदापि असाध्य नहीं मानेंगे, निश्चित कल्याण समझकर उसको सिरपर धारण करेंगे । दुःख और वेदनाके काँटोंसे परिपूर्ण पथसे ही आज हम चलकर उदार और प्रसन्न मनसे सारे विद्रोहोंके भावोंको दूर भगा देंगे, जानमें अथवा अनजानमें अखिल विश्वके मनुष्य इस भारतक्षेत्रमें मनुष्यत्वके जिस परम आश्चर्यमय मन्दि- रको अनेक धर्मों, अनेक शास्त्रों और अनेक जातियोंके पत्थरोंसे निर्माण [ १७३ ] करनेका प्रयत्न कर रहे हैं उन्हींके काममें हाथ बटावेंगे, अपने भीत- रकी सारी शक्तियोंको परिणत कर इस रचनाकार्यमें नियुक्त करेंगे। यदि हम यह काम कर सके, यदि ज्ञानसे, प्रेमसे और कर्मसे भारतके इस उद्देश्यमें अपनी सभी शक्तियोंको नियुक्त कर सके, तभी मोहमुक्त पवित्र दृष्टि से स्वदेशके इतिहासमें उस एक सत्य---नित्य सत्यके दर्शन पा सकेंगे -उस सत्यके दर्शन जिसके विषयमें ऋषियोंने कह रक्खा है-

स सेतुर्विधृतिरेषां लोकानाम्-

वही सारे लोकोंका आश्रय, सारे विच्छेदोंका सेतु है । उसीके लिये कहा है–

तस्य हवा एतस्य ब्रम्हणोनाम सत्यम्---

निखिल सृष्टिके समस्त प्रभेदोंके बीच जो ऐक्यकी रक्षाके लिये सेतुस्वरूप है वही ब्रह्म है, उसीका नाम सत्य है ।


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