राजा और प्रजा/११ समस्या

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राजा और प्रजा  (1919) 
द्वारा रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक रामचंद्र वर्मा

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समस्या।

'पथ और पाथेय' शीर्षक प्रबन्धमें हमने अपने कर्त्तव्य और उसकी साधन-प्रणालीके विषयमें आलोचना की थी। हम यह आशा नहीं करते कि उक्त प्रबन्धको सभी लोग अनुकूल दृष्टिसे देखेंगे ।

कौनसी बात श्रेय है और उसके लाभका श्रेष्ट उपाय क्या है इसके निश्चय करनेके शास्त्रार्थोका या तौका अन्त अवतक भी किसी देशमें नहीं हुआ। यह शास्त्रार्थ कितनी ही बार रक्तपातमें परिवर्तित हो चुका है और बार बार एक जगह विलुप्त और दूसरी जगह अंकुरित होता रहा है; मानव-इतिहास इसका प्रमाण है ।

हमारे देश में देशहितके सम्बन्धमें मतभेद अब तक केवल जवानी या समाचारपत्रोंमें, केवल छापेखानों या सभामण्डपोंमें वाक्युद्धको भाँति ही संचार करता रहा है । वह धुऍकी तरह फैला रहा है आगकी तरह जलता बलता नहीं रहा ।

पर आज सभी अपने मतागतको देशके हिताहितके साथ निकट भावसे जड़ित मान रहे हैं, उसे कान्यके अलंकारकी झंकार मात्र नहीं समझते । यही कारण है कि जिससे हमारा मत नहीं मिलता उसके प्रतिवाद वाक्योंमें यदि कभी कोई कटु और कठोर शब्द निकल जाता है तो हम उसे असंगत कहकर क्षोभ नहीं कर सकते। इस समय [ १७५ ] कोई बात कहकर कोई आसान से छुट्टी नहीं पा सकता, निस्सन्देह यह समयका एक शुभ लक्षण है।

तथापि शास्त्रार्थका जोश हममें कितना ही अधिक क्यों न हो, जबतक हम यह माननेका कोई सबल कारण न देख लें कि हमसे विरुद्ध मत रखनेवाला देशके हितसाधनकी आन्तरिक निष्ठासे हीन है तब तक एक दूसरेके विचार तथा इच्छाका स्पष्ट ज्ञान हो जाना आवश्यक है । आरम्भहीसे क्रोध अथवा विरुद्ध पक्षके प्रति सन्दे- हको मनमें स्थान देकर हम अपनी ही बुद्धिको धोखा देंगे। बुद्धिका तारतम्य या कर्माबेशी ही मतभिन्नताका कारण होती है, यह बात सब जगह ठीक नहीं उतरती । अधिकांश स्थानों में प्रकृति-भेद ही मत-भेदका कारण होता है । अतएव यह कथन कदापि सत्य नहीं हो सकता कि विरुद्ध पक्षके मतका सम्मान करना अपनी निजकी बुद्धिका असम्मान करना है।

इतनी भूमिकाके बाद हम ‘पथ और पाथेय’ की अधूरी आलो- चनाकी और पुनः अग्रसर होते हैं।

संसारमें हमको कभी सत्यसे सन्धि करके और कभी लड़ाई करके चलना पड़ता है । अन्धता वा चतुराई के बलपर सत्यको उल्लंघन करके हम कोई छोटेसे छोटा काम भी नहीं कर सकते ।

अतएव देशहितके संकल्पके सम्बन्धमें जब हम वाद-विवाद करते हैं तब उसमें एक प्रधान प्रश्न यह होता है कि कितने ही महान् और कितने ही श्रेष्ठ होनेके साथ साथ क्या इस संकल्पका सत्यके साथ सामजस्य भी है ? चेकबहीपर किसीके बड़े बड़े अङ्क लिख देनेसे प्रसन्न हो जाना ठीक नहीं । किसका चेक बैंक स्वीकार करेगा, यही देखनेकी असल बात है। [ १७६ ]

संकटके समय बिलकुल सामान्य उपदेश देनेसे किसीका उपकार नहीं हो सकता । एक आदमी खाली भोजनपात्र लिये माथेपर हाथ रख सोच रहा है कि क्या काम करनेसे क्षुधाकी ज्वाला शान्त होगी। उसे यह सामान्य उपदेश देकर आप उसके हितैषी नहीं बन सकते कि अच्छी तरह अन्न और जल पेटमें पहुँचा देनेसे क्षुधा निवृत्त होती है। सिरपर हाथ रखकर वह इस समय इसी उपदेशका इन्तजार नहीं कर रहा था । चिन्ताके असली विषयकी ओरसे आँख फेरकर कितनी ही बड़ी बड़ी बातें क्यों न कही जायें, सब व्यर्थ होंगी।

भारतवर्षकी प्रधान आवश्यकता निश्चित करनेवाली आलोचनामें भी यदि उसके प्रस्तुत वास्तविक अभाव और वास्तविक अवस्थाको बलपूर्वक ध्यानसे हटाकर हम कोई अत्यन्त ऊँचे दरजेकी नीति सुनाने लगे तो उस व्यक्तिके चेककी तरह जिसका एक पैसा भी बैंकमें नहीं है, उसका कोई मूल्य न होगा। वह देनेके दावेसे जान छुड़ानेका एक कौशल मात्र हो सकता है, परन्तु परिणाममें वह कर्जदार और डिग- रीदार किसीको भी कुछ लाभ न पहुँचा सकेगा ।

'पथ और पाथेय ' में यदि हमने भी इसी प्रकार सत्यपर धूल डालनेका प्रयत्न किया हो तो न्यायासनसे क्षमा पानेकी आशा हमें नहीं करते । यदि हमने वास्तव बातपर पर्दा डालकर एक भाव मात्रके पोषणमें अमूलक दलीलें गढ़ डाली हैं तो सबके सामने उनको खण्ड खण्ड कर डालना ही कर्त्तव्य है । क्योंकि सत्यस विलग रहनेवाला भाव गाँजे या शराबके समान मनुष्यको अकर्मण्य और उद्भ्रान्त बना देता है।

परन्तु विशेष अवस्थामें प्रकृत वास्तविक तत्त्वका निर्णय करना सहज नहीं होता। इसीसे अनेक अवसरोंपर मनुष्य सोच लेता है कि जो आँखसे दिखाई पड़ रहा है वही सबसे बड़ा वास्तविक तत्त्व है; जो मानव प्रकृतिकी [ १७७ ] नीचे तलीमें पड़ा रहता है वही सच्चा तत्त्व है। एक अंगरेज समा- लोचकने रामायणकी अपेक्षा इलियडको श्रेष्ट काव्य सिद्ध करते हुए लिखा है-"इलियड काव्य अधिकतर human है, अर्थात् उसमें मानव-चरित्रका वास्तवांश अधिक मात्रामें ग्रहण किया गया है। क्योंकि उसमेंका एकि- लिस निहत शत्रुके शवको रथके पहियोंमें बाँधकर घसीटता फिरा है और रामायणके रामने पराजित शत्रुको क्षमा कर दिया है ।" यदि क्षमाकी अपेक्षा प्रतिहिंसाके भावको मानव-चरित्रमें अधिक वास्तविक, अधिक स्वाभाविक माननेका अर्थ यह हो कि मनुष्यमें क्षमाकी अपेक्षा प्रतिहिंसाका भाव ही अधिक होता है, तब इन समालोचक साह- बका निष्कर्ष अभ्रान्त ही मानना पड़ेगा। पर मानव-समाज इस वातको कभी न मानेगा कि स्थूल परिमाण ही सचाईके नापनेका एक मात्र साधन है, घर भरे अन्धकारकी अपेक्षा अंगुलभर स्थान भी न घेरनेवाली दीपशिखाको वह अधिक मानता है।

जो हो, यह निर्विवाद है कि एक बार आँखसे देखकर ही इसकी मीमांसा नहीं की जा सकती कि मानव इतिहासके हजारों लाखों उप- करणों से कौन प्रधान है कौन अप्रधान, कौन उपस्थित कालमें परम सत्य है कौन नहीं । यह बात माननी ही पड़ेगी कि उत्तेजनाके समय उत्तेजना ही सबकी अपेक्षा बड़ा सत्य जान पड़ती है । क्रोधके समय ऐसी कोई बात सत्यमूलक नहीं जान पड़ती जो क्रोधकी निवृत्ति करने- वाली हो । उस समय मनुष्य स्वभावतः ही कह बैठता है-" अपने धार्मिक उपदेश रहने दो। हमें उनकी जरूरत नहीं ।" इसका कारण यह नहीं है कि धर्मोपदेश उसके प्रयोजनकी सिद्धिमें उपयोगी नहीं है और रोष उसमें भारी सहायक है; बात यह है कि उस समय वह वास्तविक उपयोगिताकी ओर दृष्टिपात करना ही नहीं चाहता, प्रवृत्ति[ १७८ ] चरितार्थताको ही सबसे अधिक आदरणीय समझता और समझना चाहता है।

परन्तु प्रवृत्ति-चरितार्थतामें वास्तविकताका हिसाब बहुत ही थोड़ा करना पड़ता है, उपयोगितामें उसकी अपेक्षा बहुत अधिक हिसाब करनेकी आवश्यकता होती है। गदरके समय जिन अँगरेजोंने भारतको निर्दयतापूर्वक पीस डालनेकी सलाह दी थी उन्होंने मानवचरित्रकी वास्तविकताका हिसाब अत्यन्त संकीर्णरूपमें ही तैयार किया था । क्रोधके समय इस प्रकार संकीर्ण हिसाब करना ही स्वाभाविक है, अर्थात् मनुष्य-गणनाके हिसाबसे अधिकतर लोग ऐसा ही करते हैं। लार्ड केनिंगने क्षमाकी ओरसे वास्तविकताका जो लेखा तैयार किया था वह प्रतिहिंसाके हिसाबकी अपेक्षा वास्तविकताको बहुत कुछ बृहत् परिमाणमें और बहुत कुछ गम्भीर विस्तीर्ण भावसे गणना करके किया था ।

पर जो क्रोधमें अन्धा हो रहा है वह लार्ड केनिंगकी क्षमानीतिको 'सेन्टिमेन्टलिज्म ' अर्थात् वास्तववर्जित भावुकता कह डालनेमें तनिक भी संकोच न करेगा । सदासे यही होता आ रहा है । जो पक्ष अक्षौ- हिणी सेनाको ही गणना-गौरवसे बड़ी सत्ता मानता है वह नारायणको ही अवज्ञापूर्वक अपने पक्षमें न लेकर चिन्तारहित होता है। पर यदि जयलाभको ही वास्तविकताका अन्तिम प्रमाण माना जाय तो नारायण अकेले और छोटीसे छोटी मूर्तिमें भी जिस पक्षकी ओर होंगे उसकी जीत अवश्य ही होगी।

इतना सब कह जानेका तात्पर्य यही है कि क्षणिक उत्तेजनाकी प्रबलता और मनुष्य-संख्याकी प्रचुरता देखकर ही यथार्थ तत्त्वके किसी पक्षमें होनेका निश्चय नहीं किया जा सकता। इसे हम किसी प्रकार नहीं [ १७९ ] मानेंगे कि शान्तरसाश्रित होनेके कारण ही एक वस्तुमें वास्तविक- ताकी न्यूनता है और जिसकी वेगपूर्ण ताड़ना रास्ता पहचानने तकका अवकाश नहीं देती है उसमें वास्तविकताका निवास यथेष्ट है।

'पथ और पाथेय' में हमने दो बातोंकी आलोचना की थी। पहली बात तो यह है कि भारतवर्षके विषयमें देशहितका कार्य कौन सा है-स्वदेशी कपड़े पहनना और अँगरेजोंको निकाल बाहर करना या और कुछ ? दूसरे यह कि इस हित-कार्यका साधन किस प्रकार होगा?

भारतवर्षका चरम हित क्या है इसके समझनेमें केवल हमारी ही ओरसे बाधा नहीं की जाती, वस्तुतः इसमें सबसे बड़ी बाधा अंगरे- जोका हम लोगों के साथ बर्त्ताव है । वे किसी प्रकार इस बातको मा- नना नहीं चाहते कि हमारा स्वभाव भी मानव-स्वभाव है। वे सोचते हैं कि जब हम राजा हैं तब किसी प्रकारकी जवाबदेही हमारे पास नहीं फटक सकती, उसके पात्र एक मात्र भारतवासी ही हैं। बंगा- लके एक भूतपूर्व हर्ताकर्ताको भारतवर्षकी चञ्चलता पर कड़ी टीका करनेकी आवश्यकता पड़ी थी। आपने सारे भारतवासियोंके लिये ही फतवा दे डाला, किसीको भी न छोड़ा। आपकी रायमें समस्त देशी अखबारों के गले घोंट देना और सुरेन्द्र, विपिन आदि समस्त नेता- ओंको पंगु और मूक कर देना ही इस रोगका एकमात्र उपचार जान पड़ा। देशमें शान्ति स्थापित करनेका यह नुस्खा जिनको अनायास ही सूझ सकता है और जो बिना तनिक भी सोचे विचारे उसको रोगीके गले मढ़ सकते हैं, ऐसे व्यक्ति हमारे हर्ताकर्ता बनाए जा रहे हैं; क्या देशका खून खौलानेका यह एक प्रधान कारण नहीं है ? क्या केवल इसी लिये कि अँगरेजोंके हाथोंमें बल है, मानव-स्वभावको मान कर चलना [ १८० ] उनके लिये बिलकुल ही फजूल है ? क्या भारतकी पेंशनपर जीनेवाले मि० इलियट भारतकी चञ्चलता दूर करनेके सम्बन्धमें अपने जातिभाइयोंको अब एक भी उपदेश न देंगे ? जिनके हाथमें अजस्र शक्ति है उनके लिये आत्मसंवरणकी कुछ भी आवश्यकता नहीं है और जो स्वभावसे ही अक्षम हैं उन्हींके लिये शम, दम, नियम, संयम सभीकी सारी व्यवस्था है ! उपर्युक्त साहब बहादुरने लिखा है कि जो भारतवासी किसी अंगरेजकी गर्दनकी ओर हाथ बढ़ावे उसको चाहे जिस प्रकार हो, भरपूर प्रतिफल देना ही होगा; जिसमें उसको बच निकलनेका अवसर किसी प्रकार न मिले, इसके लिये पूर्ण सतर्क रहना होगा। और जो अँगरेज भारतवासियोंको परलोक भेज कर केवल राहखर्चके लिये थोड़ेसे रुपए मात्र दे देनेसे छुटकारा पाकर ब्रिटिश न्यायपर कभी न मिटनेवाली कलंककी रेखाको आगमें तपा तपा कर भारतके चित्तको बार बार दाग रहे हैं उनकी ओरसे होशियार रहने की आव- श्यकता नहीं है ? बलके अभिमानसे अन्धी और धर्मबुद्धिसे हीन स्पर्धा ही क्या भारतवर्षमें अँगरेजी शासन और प्रजा दोनोंको ही भ्रष्ट नहीं कर रही है ? जिस समय असमर्थके हाड़-माँस आन्तरिक अग्निसे दग्ध हो रहे हैं, जब हाथों हाथ अपमानका बदला ले डालनेकी चिन्ताके सिवा और कोई ऊँची अभिलाषा उसके मनमें टिक ही न सकती हो उस समय अँगरेजोंका लाल लाल आँखोंवाला 'पिनलकोड' भारतवर्ष में शान्तिकी वर्षा कर सके-इतनी शक्ति भगवानने अँगरेजोंको नहीं प्रदान की ? वे जेलमें ठेल सकते हैं, फाँसीपर टॅगवा सकते हैं, पर हाथसे आग लगाकर उसे पैरसे रौंदकर बुझा देनेकी सामर्थ्य उनमें नहीं हैं। जहाँ जलकी आवश्यकता है वहाँ जल देना ही पड़ेगा-राजाको भी जल ही देना पड़ेगा । यदि वह ऐसा नहीं करता है, यदि अपने [ १८१ ] राजदण्डको विश्वविधानसे भी बढ़कर मानता है, तो इस भयंकर अन्ध- ताके कारण देशमें पापका पहाड़ अत्यन्त ऊँचा हो जायगा और एक न एक दिन यह घोरतर असामञ्जस्य भयंकर विप्लवमें परिणत हुए बिना न रहेगा । प्रतिदिन देशके अंत:करणमें जो वेदना सञ्चित हो रही है, आत्मप्रसादसे फूले हुए अँगरेज उसकी अत्यन्त उपेक्षा कर सकते हैं, मोर्ले उसकी अवज्ञा करनेहीको राजनीतिक बुद्धिमत्ता मान सकते हैं, इलियट उसे पराधीन जातिकी स्पर्द्धा मात्र मानकर इस वृद्ध वयसमें भी दाँत पीसनेका प्रयास कर सकते हैं, पर क्या इसीसे यह मान लिया जायगा कि अशक्तकी वेदनाका हिसाब कोई न रखता होगा? जब बलिष्ठ सोचता है कि मैं अपने अन्याय करनेके अबाध अधिकारको संयत नहीं करूँगा; किन्तु ईश्वरके विधानसे उस अन्यायके विरुद्ध जो अनिवार्य प्रतिकार-चेष्टा मानव-हृदयमें धुंधा- धुंधाकर जल उठा करती है उसीको एकमात्र अपराधी बनाकर कुचल डालूँगा और निश्चिन्त हो जाऊँगा, तब बलके द्वारा ही प्रबल अपने बलके मूलमें आघात करता है, क्योंकि उस समय वह अशक्त पर चोट नहीं करता--विश्वब्रह्माण्डके मूलमें जो शक्ति है उसी वनशक्तिके विरुद्धमें अपना मुक्का उठाता है। यदि कोई कहे कि भारतवर्षमें आज दिन जो क्षोभ अस्त्रहीनको भी निष्ठुर बना रहा हैं, शक्ति सामर्थ्यहीनका भी धैर्य छुड़ा कर निश्चित आत्महत्याके आगे ढकेल रहा है, उसके हम किसी अंशमें भी कारणीभूत नहीं हैं, हम न्यायको कहीं ठोकर नहीं लगाते, हम स्वभावसिद्ध तिरस्कार और औद्धत्यके द्वारा कभी अपने उपकारको उपकृतके निकट अरुचिकर नहीं बनात; यदि कोई सारे दोषका ठीकरा हमीं पर फोड़ दे, असफलताजनित असन्तोषको भारतका अकारण अपराध और अपमानजनित दुःखदाहको उसको घोरतर अकृतज्ञता [ १८२ ] कहे तो इन मिथ्या शब्दोंका कहनेवाला चाहे राजसिंहासन पर ही क्यों न बैठा हो, सुननेवालोंपर इनका कोई असर न होगा। तुम्हारे 'टाइम्स' के पत्रलेखक 'डेलीमेल ' के संवादरचयिता और 'पायोनि- यर' तथा 'इंग्लिशमैन के सम्पादक अपनी सम्मिलित ध्वनिसे उसे ब्रिटिश पशुराजके भीम गर्जनमें ही क्यों न परिणत कर डालें, इस असत्यके द्वारा हम लोगोंको किसी शुभ फलकी प्राप्ति कदापि न होगी । तुम बलवाले हो सकते हो, पर तुममें इतना बल नहीं हो सकता कि सत्यको आँखें दिखाओ । नए नए कानूनोंकी नई नई हथकड़ियौं गढ़कर तुम विधाताके हाथ नहीं बाँध सकते।

अतः मानव-स्वभावके संघातसे विश्वके नियममें जो वेगपूर्ण भँवर उठ रही है उसकी भीषणताको यादकर अपने इस छोटेसे लेखिके द्वारा उसको दमन करनेकी दुराशा हम नहीं करते। दुर्बुद्धि जब जाग्रत हो चुकी है तब यह बात माननी पड़ेगी कि उसका कारण बहुत दिनसे धीरे धीरे सञ्चित हो रहा था । यह बात याद रखनी होगी कि जहाँ एक पक्ष सब प्रकारसे अशक्त, असमर्थ और उपायहीन कर दिया जाता है अथवा होता है, वहाँ क्रमशः दूसरे प्रबल पक्षका बुद्धिभ्रंश और धर्म- नाश अनिवार्य है। जिसका प्रतिक्षण निगदर और सम्मानभंग किया जाता हो उसके साथ व्यावहारिक सम्बन्ध रखकर आत्मसम्मानको किसी प्रकार उज्वल नहीं रखा जा सकता । दुर्बल के समीप रहकर सबल हिंस्र हो जाता है, अधीनके सम्पर्कसे स्वाधीन असंयमी बनता है। स्वभावके इस नियमका प्रतिरोध करनेमें कौन समर्थ है ? अन्तमें जब यह बात बहुत बढ़ जायगी तब क्या इसका कहीं कोई परिणाम न होगा ? बाधाहीन कर्तृत्वमें चरित्रका असंयम जब बुद्धिको अन्धा कर देता है उस समय क्या वह बुद्धि केवल दरिद्रकी ही हानि ? [ १८३ ] करेगी, दुर्बलको ही दुःख देगी--धनी और सबलको हानि और पीड़ा न पहुँचावेगी?

इस प्रकार बाहरसे आघात पानेके कारण देशमें क्रमश: एक प्रका- रकी उत्तेजना फैल रही है, इस अत्यन्त प्रत्यक्ष सत्यको अस्वीकार कर- नेकी सामर्थ्य किसी में नहीं है। और अँगरेजोंकी दमन-व्यवस्था और सारी सतर्कताका लक्ष्य केवल एक ही ओर, दुर्बल पक्षकी छातीपर पत्थर रखने और मुंहमें वस्त्र हँसनेकी ओर है; इस कारण जिस असमताकी सृष्टि हुई है उसने भारतवासियोंकी सारी बुद्धि, समस्त कल्पना, सम्पूर्ण वेदना-बोधको निरन्तर बहुत अधिक परिमाणमें वाह- रकी ओर ही, इस एक नैमित्तिक उत्पातकी ओर ही, प्रवाहित कर रक्खा है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं ।

ऐसी अवस्था में यदि हम देशके सबसे बड़े प्रयोजनकी खोज करना भूल जायें तो इसपर आश्चर्य नहीं हो सकता। स्वाभाविक कर्त्तव्य-वह कर्तव्य जिसके लिये प्रकृति स्वयं ही उकसाती है--दुर्निवार्य हो सकता है, पर सभी समयोंमें वह श्रेयस्कर नहीं हो सकता। मनोवे- गकी तीव्रताको भूमण्डलमें सब वास्तविक तत्वोंकी अपेक्षा बड़ा वास्त- विक तत्त्व माननेसे अनेक अवसरोंपर हम भयंकर भ्रमके शिकार हो जाते हैं, सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवनमें इस बातका हमें अनेक बार अनुभव हो चुका है। जातिके इतिहासमें यह बात और भी अधिक मात्रामें लागू होती है, इसपर स्थिर चित्त होकर विचार करना हमारा कर्तव्य है।

हम जानते हैं कि हमारी उपर्युक्त बात सुनकर बहुतेरे लोग बड़ी खा ईसे कहेंगे-" बहुत अच्छी बात है, फिर आप ही बताइए कि [ १८४ ] देशकी सबसे बड़ी आवश्यकता क्या है ?" इस विरक्तिको सहन करके भी हमें उत्तर देनेके लिये तैयार होना पड़ेगा।

भारतवर्षके सामने विधाताने जो समस्या रक्खी है, वह अत्यन्त दुरूह हो सकती है पर उसको ढूंढ़ निकालना कठिन नहीं है। वह बिलकुल हमारे सामने है, उसके ढूँढ़ने के लिये दूसरे दूरके देशोंके इतिहासमें भटकनेसे उसका पता नहीं मिल सकता।

भारतवर्षके पर्वतप्रान्तसे समुद्रसीमातक, काश्मीरसे रासकुमारी- तक कौन सी बात सबकी अपेक्षा अधिक स्पष्टतासे दिखाई पड़ रही है ? यही कि इतनी भिन्न भिन्न जातियाँ, इतनी विविध भाषाएँ, इतने विषम आचार संसारके और किसी भी एक देशमें एकत्र नहीं हैं |

पाश्चात्य देशोंके जितने इतिहास हम लोगोंने स्कूलमें पढ़े हैं, उनमें ऐसी समस्याका कहीं अस्तित्व नहीं पाया। जिन प्रभेदोंके रहते हुए युरोपमें एकताका सूत पिरोया गया है वे एक दूसरेके अत्यन्त विरोधी थे । लेकिन फिर भी उनमें मिलनका एक ऐसा स्वाभाविक तत्त्व मो- जूद था कि मिल जानेपर उसके जोड़के चिह्न तकको ढूंढ़ निकालना असम्भव हो गया। प्राचीन ग्रीक, रोमन, ग्रंथ आदि जातियोंकी शिक्षा दीक्षामें चाहे जितनी भिन्नता रही हो, पर वस्तुतः वे एक जाति थीं। परस्परकी भाषा, विद्या और रक्तको मिलाकर एक होनेका उनमें स्वाभा- विक झुकाव था। विरोधकी आँचमें पिघलकर जिस समय वे एक हो गई उस समय जान पड़ा कि सब एक ही धातुसे ही गढ़ी हुई थीं। इंग्लैण्डमें भी किसी समय सैक्सन, नार्मन और कल्टिक जातियोंका एकत्र जमाव हुआ था। पर इनमें एक ऐसा स्वाभाविक और बलवान् ऐक्य तत्त्व विद्यमान था जिससे विजयी जाति विजयीके रूपमें अपना [ १८५ ]स्वातन्त्र्य रख ही न सकी। विरोध करते करते ही वह कब गलकर एक हो गई, इसका किसीको पता तक नहीं चला।

अतएव युरोपने भिन्न भिन्न जातियोंको जो ऐक्य दान किया है वह स्वाभाविक ऐक्य है। अब भी वह इस स्वाभाविक ऐक्यका ही आदर करता है। वह अपने समाजों में किसी गुरुतर प्रभेदको स्थान देना ही नहीं चाहता, या तो वह उसे नष्ट कर डालता है या खदेड़ देता है। युरोपकी चाहे कोई जाति क्यों न हो, अँगरेजी उपनिवेशोंके प्रवेश द्वार उसके लिये आठों पहर खुले रहते हैं, पर एशियाका एक भी आदमी ऐसा भाग्यवान् नहीं हो सकता जिसके उक्त द्वार तक पहुँचनेपर वहाँ अंगरेजोंका सतर्कतारूपी सर्प फन फुलाए और फुफकारता न मिले।

युरोपके साथ भारतकी इसी जगहसे, मूलसे ही विषमता देख पड़ती है। भारतका इतिहास जत्ब शुरू हुआ, उसी समय, उसी मुहूर्तमें वर्णक साथ वर्णके विरोधका और आर्य्योंके साथ अनार्योंके विरोधका जन्म हुआ। तबसे इस विरोधको मिटानेके दुस्साध्य साधनमें भारतका मन बराबर लगा हुआ है। जो आर्यसमुदायमें अवतार माने जाते हैं उन रामचन्द्रने दाक्षिणात्यमें आर्य उपनिवेश बढ़ानेके लिये जिस दिन निषादराजगुहके साथ मित्रताका सम्बन्ध जोड़ा था; जिस दिन उन्होंने किष्किन्धाके अनार्योंको नष्ट न करके अपनी सहायताके लिये सन्नद्ध किया था और लंकाके परास्त राक्षसराज्यको निर्मूल करनेके बदले विभीषणसे भाईचारा करके शत्रुपक्षकी शत्रुताका दमन किया था, उसी दिन इन महापुरुषका अवलम्बन कर भारतवर्षके उद्देश्यने अपने आपको व्यक्त किया था। उस दिनके बादसे आजतक इस देशमें मनुष्योंका जो जमाव हुआ है उसमें विचित्रता और विभिन्नताका [ १८६ ]कोई हिसाब ही नहीं रह गया। जो उपकरण किसी प्रकार मिलना नहीं चाहते थे उनको एकत्र रहना पड़ा। ऐसे उपकरणोंसे केवल बोझ तैयार हो सकता है, पर उनसे शरीर कदापि नहीं गढ़ा जा सकता। इसीसे इस बोझको पीठपर लेकर ही भारतवर्षको सैकड़ों वर्षों तक निरन्तर यह चेष्टा करनी पड़ी है कि जो एक दूसरेसे अत्यन्त विच्छिन्न हैं वे किस प्रकार परस्पर सहयोगी हो सकते हैं? जो एक दूसरेके परम विरुद्ध हैं उनमें सामञ्जस्य किस प्रकार स्थापित किया जा सकता है? जिनके भीतरी प्रभेदको मानव प्रकृति किसी प्रकार अस्वीकार नहीं कर सकती, किस प्रकारकी व्यवस्थासे वे प्रभेद एक दूसरेको कष्ट न पहुँचा सकेंगे? अर्थात् वह कौनसा उपाय है जिसके करनेसे स्वाभाविक भेदकी सत्ता स्वीकार करते हुए भी सामाजिक एकताका यथासम्भव आदर किया जा सके?

जहाँपर सैकड़ों विभिन्न स्वभावों और रुचियोंके लोगोंका जमाव हो वहाँ जो समस्या प्रतिमुहूर्त ही उपस्थित रहती है, वह यह होती है कि इस पृथक‍्तासे उत्पन्न कष्ट, इस विभेदसे उत्पन्न दुर्बलताको दूर करनेका क्या उपाय है? एकत्र रहना भी अनिवार्य हो और परस्पर मिलकर एक हो जाना भी पूर्णतया असम्भव हो—इससे बढ़कर अमंगल बात दूसरी नहीं हो सकती। ऐसी अवस्थामें प्रथम प्रयत्न होता है प्रत्येक प्रभेदको निश्चित परिधि द्वारा पृथक् कर देनेका, परस्पर एक दूसरेको चोट न पहुँचावें इस बातकी सावधानी रखने और परस्परकी अधिकारसीमा इस प्रकार बाँध देनेका जिसमें वे उस सीमाको किसी ओरसे लाँघ न सकें।

पर ये निषेधकारक परिधियाँ जो आरम्भिक अवस्थामें सहस्त्रों विभिन्नताओंके एकत्र रखने में सहायक होती हैं, धीरे धीरे कुछ कालमें अनेक [ १८७ ]के एक होनेमें बाधा भी करने लगती हैं। जिस प्रकार ये आघातसे बचाती हैं उसी प्रकार मिलनसे भी बाज रखती हैं। अशान्तिको दूर खदेड़ रखना ही शान्तिकी प्रतिष्ठा करना नहीं है, वस्तुतः यह अशान्तिको कहीं न कहीं, सर्वदा जीवित रखना ही है। विरोधको यदि हम अपनेसे कुछ दूरपर रक्खें तो भी उसका पोषण ही करते रहेंगे; बन्धन जरा सा ढीला होते ही उसकी प्रलय मूर्ति हमारे सामने आ चमकेगी। यही नहीं, इस प्रकार एकत्र रहनेवालोंका मिलन, जिनमेंसे प्रत्येक एक निश्चित घेरेके अन्दर रहनेके लिये बाध्य हो, मिलनकी नेतिवाचक अवस्था है, इतिवाचक नहीं। इससे मनुष्य आराम पा सकता है; पर शक्ति नहीं पा सकता। श‍ृंखला केवल काम चलानेका साधन है, प्राण जाग्रत होता है एकताके द्वारा।

भारतवर्ष भी इतने दिनों तक अपनी बहुशः अनेकताओं और विरोधोंको अलग अलग घेरोंमें बन्द रखनेका प्रयत्न करता रहा है। इतने वास्तविक विरोध और किसी देशमें नहीं हुए हैं, इसलिये उनको ऐसे दुस्साध्य साधनमें अपनी शक्ति खपानेकी कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी है।

बहुशः विशृंखल और विच्छिन्न सत्य जिस समय स्तूपाकार होकर ज्ञानका रास्ता रोकने लगते हैं उस समय विज्ञानका पहला काम होता है उनको गुणकर्मके अनुसार श्रेणीबद्ध कर देना। किन्तु क्या विज्ञानमें और क्या समाजमें श्रेणीबद्ध करना आरम्भका कार्य है, कलेवरबद्ध करना ही अन्तिम कार्य्य है। ईंट, सुर्खी, चूना, लकड़ी जिसमें मिलकर एक दूसरेको नष्ट न कर डालें इसलिये उनमेंसे हर एकको अलग अलग स्थानमें रख देना ही इमारत बना डालना नहीं है।

हमारे देशमें श्रेणी-विभागका कार्य्य हुआ है पर निर्माणका कार्य्य या तो आरम्भ ही नहीं हुआ या हुआ तो अधिक दूरतक अग्रसर नहीं [ १८८ ]हो सका है। एक ही वेदनाकी अनुभूतिके द्वारा आदिसे अन्ततक आविष्ट, प्राणमय, रसरक्तमय, स्नायु पेशी और मांसके द्वारा जिस प्रकार शरीरकी हड्डियाँ ढकी रहती हैं उसी प्रकार विधि-निषेधकी शुष्क और कठिन व्यवस्थाको बिलकुल ही ढँककर और छुपाकर जिस समय एक ही सरस अनुभूतिकी नाड़ियाँ समग्रके बीच प्राणोंकी चेतनता व्याप्त कर देंगी उसी समय हम समझेंगे कि महाजातिने देहधारण किया है।

हमने जिन सब देशोंके इतिहास पढ़े हैं वे इतिहास बताते हैं कि प्रत्येक देश किसी न किसी खास रास्तेसे अपनी मंजिलको पहुँचा है। उनके परिपूर्ण विकाशमें जो विशेष अमंगल विघ्नस्वरूप था उसीके साथ उन्हें युद्ध करना पड़ा है। एक दिन अमेरिकाके सामने भी यही समस्या थी कि उसके उपनिवेशोंके समुद्रके एक ओर और उनकी सञ्चालिका शक्तिके उसके दूसरी ओर रहते हुए उनका शासन कैसे किया जा सकेगा—शरीर और मस्तिष्ककी इतनी दूरी उनसे किस प्रकार सहन होगी? भूमिष्ट शिशुका जिस प्रकार माताके गर्भके साथ किसी तरहका सम्बन्ध नहीं रह सकता—नाल काट देनी पड़ती है—उसी प्रकार अमेरिकाके सामने जिस समय यह नाल काट देनकी आवश्यकता उपस्थित हुई उस समय उसने छुरी लेकर उसे काट फेंका। फ्रान्सके सामने भी एक दिन यह समस्या थी कि वहाँक शासक और शासित दोनों एक ही जातिके होनेपर भी उनकी जीवनयात्रा और स्वार्थ एक दूसरेसे इतने विरुद्ध हो गए थे कि इस असामञ्जस्यकी पीड़ा सहन करना मनुष्यकी सामर्थ्य के बाहर हो गया था। इस आत्मविच्छेदको दूर करनेके लिये फ्रान्सको रक्तकी नदियाँ बहानी पड़ी थीं।

ऊपरसे देखनेमें अमेरिका और फ्रान्सकी इस समस्यासे भारतवर्षकी समस्या में समानता है। भारतवर्ष में भी शासक और शासित एक दूसरेसे [ १८९ ]असंलग्न हैं। ऐसा कोई अवसर ही नहीं आता जब दोनोंकी एक अवस्था हो, दोनोंके मनमें एक प्रकारकी अनुभूति हो। हो सकता है कि ऐसी शासनप्रणालीमें सुव्यवस्थाका अभाव न हो, पर व्यवस्था मात्र ही मनुष्यकी आवश्यकता नहीं है, उसकी आवश्यकता इसकी अपेक्षा कहीं ऊँची है। जिस आनन्दमें मनुष्य जीवित रहता है, जिस आनन्दसे उसका विकास होता है वह केवल आइन-अदालतोंका मुप्रतिष्ठित होना और धन प्राणोंका सुरक्षित होना नहीं है। सारांश यह कि मनुष्य आध्यात्मिक जीव है—उसके शरीर है, मन है, हृदय है। उसको यदि तृप्त करना हो तो इन सभीको तृप्त करना पड़ेगा। जिस पदार्थमें सजीव सर्वाङ्गीणताका अभाव हो उससे उसे क्लेश पहुँचेगा ही। उसको कुछ देते समय यही नहीं सोचना पड़ेगा कि क्या दें, यह भी सोचना होगा कि किस प्रकार दें। यदि उसके साथ साथ आत्मशक्तिकी उपलब्धि उसे न होगी तो उपकार उसके लिये भार हो जायगा, अत्यन्त कठोर शासनको भी वह बिलकुल मौन भावसे सह लेगा, यही नहीं स्वयं आगे बढ़कर उसका वरण भी कर लेगा, यदि उसमें स्वाधीनताका रस भी मिश्रित हो। इसीसे कहा है कि, खाली खूली सुव्यवस्था ही मनुष्यको परितृप्त नहीं कर सकती।

जहाँ शासक और शासित एक दूसरेसे बहुत दूर रहते हों जहाँ प्रयोजनके सिवा और कोई उच्चतर, आत्मीयतर सम्पर्क दोनोंमें स्थापित होना असम्भव हो, वहाँकी राज्यव्यवस्था उत्कृष्टसे उत्कृष्ट होनेपर भी इजलास अदालत आईन कानूनके अतिरिक्त और कुछ न होगी। उत्कृष्ट राज्यव्यवस्था होते हुए भी मनुष्य क्यों दिनपर दिन केवल छीजता जा रहा है, उसके भीतर और बाहरके आनन्दके स्रोत दिनपर दिन क्यों सूखते जा रहे हैं, शासक इसको समझना ही नहीं चाहता, वह [ १९० ]केवल क्रोध करता है। यही नहीं, स्वयं भोक्ता भी अपने रोगको समझनेके अयोग्य हो जाता है। अतएव इस बातको किसी प्रकार अस्वीकार न किया जा सकेगा कि शासन और शासितमें सम्बन्धका एकदम अभाव होनेकी स्थितिमें जो जीवनहीन शुष्क शासनप्रणाली अनिवार्य होती है, भारतकै भाग्यमें वही शासनप्रणाली आ पड़ी है।

इसके बाद अठारहवीं शताब्दीके फ्रान्सके साथ भी भारतका एक विषयमें भेल मानना पड़ेगा। हमारे शासकोंकी जीवनयात्रा और रहनसहन भी हमसे बहुत अधिक व्ययसाध्य है। उनका खाना पहनना, उनका विलास-विहार, समुद्रके इस पार और उसपार दोनों जगहकी उनको रसद जुटाना, उनका यहाँका काम समाप्त हो रहनेपर विलायती छुट्टियोंके आरामकी तैयारी, यह सभी हमारे सिर है। कौन नहीं जानता कि देखते देखते उनकी विलासिता कहाँसे कहाँ जा पहुँची है। वह केवल ऊपर चढ़ना ही जानती है। इस विलासिताकी सारी सामग्री जुटानेका भार उस भारतवर्षपर है, जिसे अपने लिये दोनों समय भर पेट अन्न भी नहीं मिलता। ऐसी अवस्थामें विलासी प्रबल पक्षका हृदय निर्मम और पत्थर हो जानेके लिये बाध्य होता है। यदि उनसे कोई कहे कि इस अभागेको कभी भरपेट भोजन नहीं मिला, तो वे साबित करना चाहेंगे कि उसका पेट इतना ही भोजन पचा सकता है और उसके पोषणके लिये उतना ही यथेष्ट भी है। जो बेचारे क्लार्क नित्य आठ आठ नौ नौ घंटे तक सिर ऊपर करनेकी कसम खाकर बैठते हैं, हजारों रुपए वेतन पाकर एलेक्ट्रिक फैन (बिजलीके पंखे) के नीचे आराम कुर्सीपर लेटे रहनेवाले बड़े साहब कभी भूलकर भी यह नहीं सोचना चाहते कि १५-२० रुपए मासिकमें किस प्रकार वे अग्ने समस्त परिवारको भोजन देकर अपना पेट भर सकते होंगे। [ १९१ ]क्या करें, यदि वे इन चिन्ताओंमें पड़कर अपनी मनःशान्ति और सुचित्तता बिगाड़ लें तो पाचन-क्रियामें फर्क आजाय, यकृत अपने कामसे इस्तेफा दे दें। जब यह बात निश्चित है कि थोड़ी आमदनी से उनका गुजारा नहीं हो सकता और न भारतवर्षके जेबके अतिरिक्त और कहींसे कुछ पानेकी वे आशा ही कर सकते हैं, तब उनके आसपासके और लोग क्या खाते, क्या पहनते और किस प्रकार दिन काटते हैं, इस बातको वे निस्वार्थ होकर सोच ही नहीं सकते। विशेष कर उस दशामें जब कि एक दोको नहीं-एक राजा या सम्राट मात्रको नहीं—सारी जातिकी जातिको अमीरीका सामान भारतवर्षको ही देना है। जो लोग बहुत दूर रहकर हद दर्जेके सुखमें रहना चाहते हैं उनके लिये सब प्रकारके आत्मीयता सम्पर्कसे शून्य जातिको अन्न वस्त्रकी गाड़ियों भर भरकर पहुँचानी पड़ती हैं। यह निष्ठुर असामअस्य प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, इस बातको केवल वे ही लोग न मानेंगे जिनके लिये आराम अत्यन्त आवश्यक हो गया है।

अतः एक तरफ बड़ी बड़ी तनख्वाहें, भारी पेन्शनें, ऊँची रहन-सहन और दूसरी तरफ पराकाष्ठाका लेश, आधे पेट खाकर संसारयात्राका निर्वाह—ये दोनों असंगत अवस्थाएँ बिलकुल साथ ही साथ लगी हुई हैं। अन्न वस्त्रकी कमी ही एक बात नहीं है, मानमर्यादामें भी हम उनसे इतने हेठे हैं,हमारे और उनके मूल्यमें इतना भारी भेद है कि कानून भी पक्षपातका स्पर्श बचाकर चलनेमें असमर्थ हो गया है। ऐसी दशामें जितने दिन बीत रहे हैं, भारतकी छातीपर विदेशियोंका भार उतना ही गुरुतर होता जा रहा है, उभयपक्षक बीच असमानताकी खाई पातालपर विराम करने जा रही है—इसको न समझनेवाला आज कोई न मिलेगा। इस दशामें एक ओर वेदना जितनी दुस्सह होती है [ १९२ ]दूसरी ओर बेपरवाई और अवज्ञाका राज्य उतना ही अटल होता जाता है। यदि दुर्भाग्यवश यही अवस्था स्थायी हो गई तो निश्चित है कि एक न एक दिन अन्धड़को अवश्य बुला लावेगी।

इस प्रकार इन कई एक समानताओंके रहते हुए भी हमें यह कहना पड़ेगा कि विप्लवके पहले अमेरिका और फ्रान्सके सामने जो समस्या उपस्थित थी और फलतः जिसकी मीमांसापर ही उनकी मुक्ति पूर्ण रूपसे निर्भर करती थी; हमारे सामने वैसी समस्या नहीं है। अर्थात् विनयानुनय करके या लड़-भिड़कर जबरदस्ती यदि हम अँगरेजोंको भारतसे बोरिया-विस्तरा समेटनेके लिये राजी या बाध्य करनेमें सफल हो जायँ, तो भी हमारी समस्याकी मीमांसा न होगी—या तो अँगरेज ही फिर आ धमकेंगे या ऐसे दूसरे पधारेंगे जिनके पेटकी परिधि और मुँहका ग्रास अंगरेजोंकी अपेक्षा छोटा न होगा।

यह कहना निष्प्रयोजन होगा कि जो देश महाजातिका निर्माण नहीं कर सकता वह स्वाधीन होनेका अनधिकारी है—स्वाधीन हो ही नहीं सकता। क्योंकि उसके पास स्वाधीनतामेंका 'स्व' पदार्थ कहाँ है? स्वाधीनता, किसको स्वाधीनता? बंगालियोंके स्वाधीन हो जानेसे दक्षिणकी नायर जाति अपने आपको स्वाधीन नहीं समझेगी; जाटों की स्वाधीनताका फल आसामी पानेकी आशा नहीं करेगा। दो भिन्न भिन्न प्रान्तोंकी बात जाने दीजिए। एक बंगालमें ही हिन्दूके साथ मुसलमान अपना भाग्य एक करनेके लिये तैयार हैं, ऐसा कोई लक्षण नहीं दिखलाई देता। तब स्वाधीन होगा कौन? हाथके साथ पैर, और पैरके साथ सिर यदि अपना हिसाब बिलगाने लग जायें तो लाभ नामक वस्तुका अधिकारी कौन रह जायगा? [ १९३ ]

ऐसी दलील मी सुनी है कि जितने दिन हम दूसरोंके कड़े शासनके अधीन रहेंगे उतने दिनतक हम राष्ट्राकारमें संगठित न हो सकेंगे—पग पगपर बाधा होगी, एकत्र होकर जिन बड़े बड़े कामोंको करते रहनेसे परस्पर एक प्रकारकी एकता उत्पन्न हो सकती है वैसे काम करनेका—जिस प्रकार एकत्र होनेसे पूरा पूरा संयोग होना सम्भव है उस प्रकार एकत्र होनेका—अवसर ही न पावेंगे। यदि यह बात सत्य है तो फिर हमारी समस्याकी कोई मीमांसा ही नहीं है। क्योंकि विच्छिन्न कभी मिलितसे विरोध करके जयकी आशा नहीं कर सकता। विच्छिन्नकी शक्ति विच्छिन्न, उद्देश्य विच्छिन्न, अध्यवसाय विच्छिन्न-सभी कुछ विच्छिन्न होगा। विच्छिन्न पदार्थ जबतक जड़की भाँति पड़े रहेंगे तभीतक उनका कुशल है, जरासी हवा देकर उन्हें सचल करते ही उनका संगठन हवा हो जायगा, वे तितर बितर हो जायँगे और एक दूसरेसे टकराकर टूट जायँगे; उनके भीतरकी सारी कमजोरियाँ अनेक रूप धारण करके उनका विनाश करने लगेंगी। जबतक हम स्वयं एक न बन लेंगे तबतक किसी ऐसेको भी परास्त न कर सकेंगे जिसकी एकता असली न होकर बनावटी ही हो।

केवल यही नहीं कि हम उनको परास्त न कर सकेंगे बल्कि बिलकुल आकस्मिक कारण भी उस एक बाहरी बन्धनको तोड़ फेंकेंगे जिसके द्वारा हम एक दिखाई पड़ रहे हैं। फिर जिस समय हम आपसमें एक दूसरेके शत्रु बन जायँगे उस समय यह भी सम्भव न होगा कि थोड़ी देरतक घरेलू मारकाट करनेके अनन्तर हम अपने विरोधकी मीमांसा कर सकें। मीमांसा करनेका हमें मौका ही कोई न देगा। संयोगसे लाभ उठानेका ख्याल केवल हमींको नहीं है, संसारके जिन प्रबल राष्ट्रोंके घोड़े आठों पहर कसे कसाए तैयार रहते हैं वे हमारे [ १९४ ]गृहयुद्धका नाटकके दर्शककी भाँति दूर होसे आनन्द नहीं लेते रहेंगे। भारतवर्ष ऐसा मांसखण्ड नहीं है जिसपरसे लोभीकी आँख एक क्षणके लिये भी बहक सके।

अतः जिस देशमें अनेक विच्छिन्न जातियोंसे एक महाजाति—एक राष्ट्रका निर्माण नहीं हो सकता उस देशको आलोचनाका यह विषय नहीं है कि अंगरेजोंका शासन रहेगा या न रहेगा। महाजातिका निर्माण ही उसका एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए। यह उद्देश्य ऐसा है जिसके आगे सारे उद्देश्योंको सिर झुका देना पड़ेगा-यहाँतक कि यदि अँगरेजोंका राजत्व भी इस उद्देश्यकी सिद्धिमें किसी प्रकार सहायक हो सके तो उसे भी हमें भारतवर्षकी ही सामग्री मानकर ग्रहण करना पड़ेगा। आन्तरिक प्रीतिके साथ उसे प्रहण करने में अनेक बाधाएँ हैं। ये बाधाएँ कैसे दूर होंगी और किस प्रकार अँगरेजोंका राजत्व हमारे आत्मसम्मानको क्लेश न पहुँचा सकेगा, कौनसा काम करनेसे उसके साथ हम लोगोंका गौरवप्रद आत्मीय बन्धन स्थापित हो सकेगा इस अति कठिन प्रश्नको मीमांसा करनेका भार भी हमें अपने ऊपर लेना पड़ेगा। "हम उसे (अँगरेजी राज्यको) नहीं चाहते" रोषके साथ इस प्रकारका उत्तर देनेसे भी कुछ नहीं होगा। हमें उसे चाहना ही पड़ेगा; जबतक हम महाजाति बनने में समर्थ नहीं हुए हैं तबतक अँगरेजी राज्यका जो प्रयोजन है वह कभी पूर्ण न होगा।

थोड़े दिन हुए विधाताने हमारी समस्त चेतनाको इस ओर आकृष्ट किया था कि हमारे देशकी सबसे बड़ी समस्या क्या है। उस दिन मनमें आया था कि बंग-भंगसे हमारे हृदयोंपर बहुत गहरा घाव बैठा है। यह हम अँगरेजोंको अच्छी तरह दिखा देंगे हम विलायती नमकसे सम्बन्ध तोड़ देंगे और देशके तनसे विलायती वस्त्र छीने बिना जल तक [ १९५ ]न ग्रहण करेंगे। उधर बाहरी लोगोंके साथ यह घोषणा करते ही इधर घरमें ही एक ऐसा झगड़ा खड़ा हो गया जैसा आजतक कभी नहीं हुआ था। हिन्दू-मुसलमानका विरोध एकाएक अत्यन्त भयंकर मूर्ति धारणा कर सामने आ गया।

हमें चाहे इस व्यापारसे कितनी ही कष्ट क्यों न पहुँचा हो, पर वह हमारी शिक्षाके लिये नितान्त आवश्यक था। हम सबको यह बात अच्छी तरह जान लेनेकी आवश्यकता थी कि हम हजार चेष्टा करके भी इस सत्यको नहीं भूल सकते कि हमारे देशमें हिन्दू और मुसलमान एक नहीं हैं, पृथक् पृथक् हैं। यह सत्य प्रत्येक कार्यमें ही हमें बलात् याद पड़ा करेगा। यह कहकर मनको धोखा देनेसे काम न चलेगा कि हिन्दू मुसलमानोंके सम्बन्धमें कभी कोई खराबी न थी, इनमें विरोध करानेके कारण केवल अंगरेज ही हैं।

यदि सचमुच यही बात है, अँगरेजोंने ही मुसलमानोंको हमारे विरुद्ध खड़ा होनेका पाठ पढ़ाया है तो उन्होंने हमारा महत् उपकार किया है। जिस प्रकाण्ड सत्यकी नितान्त उपेक्षा कर हम बड़े बड़े राष्ट्रीय कार्योंकी योजनाएँ तैयार कर रहे थे उसकी ओर आरम्भमें ही उन्होंने हमारी निगाह फिरा दी है। यदि हम इससे कुछ भी शिक्षा न ग्रहण कर उलटे शिक्षक ही पर क्रोध करना कर्तव्य समझेंगे तो हमको फिर ठोकर खानी पड़ेगी। जो सच्ची बाधा है उसका सामना हमें करना ही पड़ेगा, चाहे जैसे करें, उसकी निगाह बचाकर निकल जानेका कोई रास्ता ही नहीं है।

यहाँपर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि हिन्दू और मुसलमान वा हिन्दुओंहीमें उच्च और नीच वर्णोके परस्पर असंयुक्त और अलग रहनेसे हमारे कार्यमें विघ्न उपस्थित हो रहा है। इसलिये [ १९६ ]किसी न किसी उपायसे संयुक्त होकर बलवान् बननेका प्रश्न ही हमारे लिये सबसे बड़ा प्रश्न नहीं है, और इसीलिये यही सबकी अपेक्षा अधिक सत्य भी नहीं है।

हम पहले ही कह चुके हैं कि निरा प्रयोजनसिद्धिका सुयोग, निरी सुव्यवस्था ही मनुष्यकी सब आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर सकती; केवल इन्हींको लेकर वह जीवित नहीं रह सकता। ईसाने कहा है, मनुष्य केवल रोटीहीके सहारे नहीं जीता। कारण यह कि उसका केवल शारीरिक जीवन ही नहीं, आध्यात्मिक जीवन भी है। इसी बृहत् जीवनके लिये खाद्यका अभाव होनेके कारण अँगरेजी राज्यमें सब प्रकारका सुशासन रहते हुए भी हमारे आनन्दका सौता सूखता जा पर यदि इस अवस्थाकी सारी जिम्मेदारी केवल बाहरी कारणपर ही होती, यदि अँगरेजी राज्य ही उपर्युक्त खाद्याभावका एक मात्र कारण होता तो कोई बाहरी उपचार करके ही हम अपना काम बना ले सकते। हम तो घरमें भी बरसोंसे उपवास करनेके आदी हो रहे हैं। हम हिन्दू और मुसलमान, हम भारतके भिन्न भिन्न प्रान्तोंके हिन्दु, एक जगह बसते हैं सही, पर मनुष्य एक दूसरेको रोटीकी अपेक्षा जो उच्चतर भोजन देकर परस्परके प्राण, शक्ति और आनन्दको परिपुष्ट करते हैं, हम एक दूसरेको उसी खाद्यसे वंचित रखनेका उपाय करते आ रहे हैं। हमारी सारी हृदयवृत्ति, सारी हितचेष्टा, परिवार और वंशमें एवं एक एक संकीर्ण समाजमें इस प्रकार जकड़ गई है कि साधारण मनुष्यके साथ साधारण आत्मीयताका जो विशाल सम्बन्ध है उसको स्वीकार करनेके लिये हमारे पास कोई सामान ही नहीं रह गया है—उसको बैठानेके लिये हमारे घरमें एक चटाईतक नहीं है। यही कारण [ १९७ ]है कि द्वीपपुंजकी भाँति हम खण्ड खण्ड हो गए हैं, पर महादेश की तरह ब्याप्त, विस्तृत और एक नहीं हो सके।

प्रत्येक छोटा मनुष्य बड़े मनुष्यके साथ अपनी एकताको विविध मंगलोंके द्वारा विविध आकारोंमें उपलब्ध करना चाहता है। इस उपलब्धिकी बड़ाई इसलिये नहीं है कि इससे उसका कोई विशेष प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। बल्कि यही उसका प्राण है। यह उसका मनुष्यत्व अथवा धर्म है। इस उपलब्धिसे उसको जितना ही बंचित रक्खा जायगा उतना ही वह सूखता जायगा—उतना ही प्राणरहित होता जायगा। दुर्भाग्यवश बहुत दिनोंसे हमने इस शुष्कताको ही आश्रय दे रक्खा है। हमारे ज्ञान, कर्म, आचार और व्यवहारके, हमारे सब प्रकारके लेनदेनके बड़े बड़े गजमार्ग एक एक छोटी मण्डलीके सामने पहुँचकर खण्डित हो गए हैं। हमारा हृदय और चेष्टा मुख्यतः हमारे निजके घर, निजके ग्राममें ही चक्कर काटती रहती है। विश्वमानबके सामने जाकर खड़ी होनेका कभी अवसर ही नहीं पाती। फलतः हम पारिवारिक सुख पाते हैं, छोटे संकीर्ण समाजकी सहायता पाते हैं, पर बृहत् मानवी शक्ति और सम्पूर्णतासे बहुत दिनोंसे वंचित हैं जिससे हमें दीन हीन होकर दिन काटना पड़ रहा है।

इस भारी अभावकी पूर्तिका साधन यदि हम स्वयं ही-घरमें ही निर्माण न कर सके तो बाहरसे वह हमें क्यों मिलने जायगा। हम यह क्यों मान लेते हैं कि अंगरेजोंके चले जानेसे हमारा यह छिद्र भर जायगा? हममें परस्पर श्रद्धाका अभाव है, हम एक दूसरेको पहचानने तकका प्रयत्न नहीं करते, सैकड़ों और हजारों वर्षोंसे हम घरसे आँगनको विदेश मानते आ रहे हैं। इस सारी पारस्परिक उदासीनता अवज्ञा और विरोधको दूर भगानेकी आवश्यकता क्या केवल इसलिये [ १९८ ]है कि हमें विदेशी कपड़ेके बहिष्कारका सुयोग मिल जाय। क्या केवल इसलिये हम इनके नाशका उपाय करें कि इससे हमारे विदेशी शासक हमारे पुरुषार्थका पता पावेंगे? इनके रहनेके कारण हमारे धर्मको क्लेश हो रहा है, हमारा मनुष्यत्व संकुचित हो रहा है, इनके रहनेसे हमारी बुद्धि संकीर्ण रहेगी, हमारे ज्ञानका विकास न होगी, हमारा दुर्बल चित्त सैकड़ों अन्ध संस्कारों से लिपटा रहेगा, भीतर और बाहरकी अधीनताके बन्धनोंको काटकर हम निर्भय और निस्संकोच होकर विश्वसमाजके सामने सीधे खड़े न हो सकेंगे। इसी भयरहित, बाधारहित विशाल मनुष्यताके अधिकारी बननेके लिये हमें परपरके साथ परस्परको धर्मबन्धनमें बाँधनेकी आवश्यकता है। इसके बिना मनुष्य न किसी प्रकार बड़ा हो सकता है, न किसी प्रकार सत्य। भारतमें जो लोग आए हैं अथवा आते हैं वे सभी हमारी पूर्णताके अंश होंगे, सभीको लेकर हम पूर्ण बनेंगे। भारतमें विश्वमानवकी एक अति महान् समस्याकी मीमांसा होगी। वह समस्या यह है कि मानवसमाजमें वर्णकी, भाषाकी, स्वभावकी, आचरणकी और धर्मकी विचित्रता है—नरदेवता इस विचित्रताकी बदौलत ही विराट् हुए हैं—भारतके मन्दिरमें हम इसी विचित्रताको एकाकारमें परिणत करके उसके दर्शन करेंगे। पृथक्ताको निर्वासित वा लुप्त करके नहीं किन्तु सर्वत्र ब्रह्मकी व्यापक उपलब्धि द्वारा मनुष्योंके प्रति सर्वसहिष्णु परम प्रेमके द्वारा, उच्च और नीच, अपने और पराए संबकी सेवाको भगवान्की सेवा माननेके द्वारा। और कुछ नहीं; केवल शुभ चेष्टासे, केवल सत्प्रयत्नसे देशको जीत लो, जो तुमपर सन्देह करते हों उनके सन्देहको जीत लो, जो तुमसे द्वेष रखते हों उनके विद्वेषको परास्त कर दो। बन्द दरवाजेको धक्का दो, बार बार [ १९९ ]धक्का दो, खुलनेसे निराश होकर घरवालेकी बेपरवाईसे क्षुब्ध होकर कदापि लौट न आओ। एक मानवहृदय दूसरे मानवहृदयकी पुकारको अधिक समय तक कदापि अनसुनी नहीं कर सकता।

भारतका आह्वान हमारे अन्तःकरणोंतक पहुँचा है। लेकिन यह बात हम कभी न मानेंगे कि यह आह्वान समाचारपत्रोंकी क्रोधपूर्ण गर्जनामें ही ध्वनित हुआ हैं अथवा हिंसाशील उत्तेजनाकी चिल्लाहटमें ही उसका सचा प्रकाश हुआ है। पर इस बातको कि यह आहान हमारी अन्सरात्माको उद्बोधित कर रहा है, हम तब मानेंगे जब देखेंगे कि किसी विशेष जाति या किसी विशेष वर्णके ही नहीं दुर्भिक्षपीड़ित मात्रके द्वारपर हम रोटियाँ लिए खड़े हैं, जब देखेंगे कि भद्र अभद्रका भेद न कर हम तीर्थस्थलोंमें एकत्र यात्री मात्रकी सहायताके लिये बद्धपरिकर हैं, जब देखेंगे कि राजपुरुषों के निर्दय सन्देह और प्रतिकूलताका सामना होते हुए भी अत्याचारके प्रतिरोधकी आवश्यकताके समय हमारे युवक विपत्तिके भयसे कुण्ठित नहीं होते। सेवाके समय संकोचका अभाव, दूसरोंकी सहायताके समय ऊँच नीचके विचारका अभाव—ये सुलक्षण जब देख पड़ने लगेंगे तब हम समझेंगे कि इस बार जो आह्वान या जो पुकार हमारे कानोंमें पड़ी है वह हमारी सारी संकीर्णताओंके तहखानोंको तोड़कर हमें बाहर निकाल लेगी, तब हम समझेंगे कि अबके भारतमें मनुष्यकी ओर मनुष्यका आकर्षण हुआ है। तब समझेंगे कि इस बार प्रत्येक व्यक्तिका प्रत्येक प्रकारका अभाव पूर्ण करनेके लिये हमें जाना होगा, अन्न, स्वास्थ्य और शिक्षाका दान और विस्तार करनेके लिये हमें संसारसे पूर्णतया अलग दूर दूरतकके गौवोंको अपना जीवन भेंट करना होगा, तब हम समझेंगे कि अब कोई हमको अपने निजके स्वार्थ और सुख स्वच्छन्दताकी बहार दीवारीमें [ २०० ]रोक नहीं सकेगा। आठ महीनेकी अनावृष्टिके बाद वर्षा जब पहले पहले आती है तब अन्धड़ लेकर ही आती है, पर नववर्षाके आरम्भिक कालका यह अन्धड़ ही नूतन आविर्भावका सर्व प्रधान अंग नहीं होता, यही नहीं, वह स्थायी भी नहीं होता। बिजलीकी कड़क, बादलोंकी गरज और वायुकी उन्मत्तता अपने आप ही जैसे आई वैसे चली जायगी। उस समय बादल दल बाँधकर आकाशको एक सिरेसे दूसरे सिरेतक स्निग्धतासे ढ़क देंगे। चारों ओर धाराएँ बरसकर तृषित पात्रोंको जलपूर्ण कर देंगी, क्षुधितोंके खेतोंमें अन्नकी आशाका अंकुर उगा देंगी। उस मंगल परिपूर्ण अद्भुत सफलताके दिनने बहुत दिनोंकी प्रतीक्षाके बाद भारतमें पदार्पण किया है, इसको निश्चित रूपसे जानकर हम सानन्द तैयार होंगे। किस बातके लिये? घरसे निकलकर खेततक पहुँचनेके लिये, भूमि जोतनेके लिये, बीज बोनेके लिये—तदुपरान्त सोनेकी फसलमें लक्ष्मीका आविर्भाव होनेपर उसे घर लाकर सार्वकालिक उत्सवकी प्रतिष्ठा करनेके लिये।

 

समाप्त।